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प्रथम अध्याय
[ ७३ ] वाची शब्द के सेद से वाच्य पदार्थ में भेद मानता है। जैसे-इन्द्र, शक, पुरन्दर आदि शब्दों के वाच्य अर्थ को अलग-अलग मानता है। तीनों शब्दों में काल, कारक आदि का भेद न होने से शब्द नय इन्हें एक देवराज का ही वाचक स्वीकार करता है, किन्तु लमभिरूढ नय तीनों शब्दों का भिन्न-भिन्न अर्थ समझता है।
(४) एवं भूत नय-यह नय सब से सूक्ष्म है । इसनय की दृष्टि में कोई भी शब्द ऐसा नहीं है जो क्रिया का वाचक न हो। इसके मत से 'गच्छनीति गौः' अर्थात जो गमन करता है वह गौ कहलाता है। 'आशुगमनात् अश्वः' अर्थात् जो जल्दीजल्दी चलता है वह अश्व कहलाता है। इसी प्रकार प्रत्येक शब्द से किसी न किसी क्रिया का भान होता है । अतएव जिस शब्द से जिस क्रिया का भान होता है, वह क्रिया करते समय ही उस शब्द से किसी को कहना चाहिए, अन्य समय में नहीं। उदाहरणार्थ-'गो' का अर्थ गमन करने वाला है। अतएव गाय जब गमन करती हो तभी उसे 'गो' कहना चाहिए, जब खड़ी हो तब नहीं । इसी प्रकार पाचक (रसोया) को पाचक तभी कहना चाहिए जघ वह किसी चीज़ को पका रहा हो-अन्य समय में नहीं। पाचन क्रिया न होने पर भी यदि किसी को पाचक कहा जाय तो फिर चाहे जिले पाचक कहा जाना चाहिए । यह एवंभूत नय का अभिप्राय है।
तीन द्रव्यार्थिक और चार पर्यायार्थिक नय मिलाने से सात भेष होते हैं । इन भेदों के स्वरूप को सूक्ष्म- दृष्टि से देखा जाय तो प्रतीत होगा कि यह उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते गये हैं । नैगम नय सामान्य और विशेष दोनों को ग्रहण करता है, पर संग्रह नय विशेष की उपेक्षा करके सिर्फ सामान्य को ही अपना विषय बनाता है। व्यवहार नय सामान्य में भीभेद करके उनको प्रकाशित करता है । मगरव्यवहार नय नैकालिक वस्तु को विषय करता है जब कि ऋजुसूत्र नय उससे भी अधिक सूक्ष्म होने के कारण सिर्फ वर्तमान पर्याय को ही मान्य करता है।
ऋजुसूत्र नय काल, कारक श्रादि का भेदं होने पर भी वस्तु की एकता को स्वीकार करता है परन्तु शब्द नय काल आदि के भेद से वस्तु में भेद मान लेता है, अतएव शन्द ऋजुसूत्र से अधिक सूक्ष्म है । शब्द नय पर्यायवाची शब्दों के भेद से वस्तु-भेद नहीं मानता पर समभिरूढ़ नय शब्द-भेद से ही वस्तु-भेद अंगीकार करता है। और एवंभूत नय तो तथाविध क्रिया में परिणत वस्तु को ही उस शब्द का बांच्य मानता है।
इस प्रकार नय उत्तरोत्तर संक्षिप्त विषय वाखे होते गये हैं । इन सात में से पहले के चार नय मुख्य रूप से पदार्थ-प्ररूपणा करने के कारण अर्थ नय कहलाते हैं
और अन्तिम तीन नय शब्द के प्रयोग की शक्यता फा निरूपण करने के कारण शब्द नय कहलाते हैं।
जैसा कि पहले कहा गया है, नय तभी सच्चा कहलाता है जब वह अपने विषय को मुक्य रखता हुआ भी दूसरे नय का विरोध न करे । जो नय एकान्ततः अपने विषय को स्वीकार कर दूसरे नय का निषेध करता है तभी वह तुर्नय या मिथ्या
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