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द्वितीय अध्याय
(२) दूसरी व्युत्पत्ति से यह प्रतीत होता है कि जीव स्वभाव-मिथ्यात्व आदि रूप होकर परतन्त्र रूप हो जाने का है।
जिस प्रकार मंदिरा का स्वभाव उन्मत्त बना देने का है और मदिरापान करने बाले जीव का स्वभाव उन्मत्त हो जाने का है, उसी प्रकार कर्म का स्वभाव जीव को राग द्वेष आदि रूप परिणत. कर देने का है और जीव का स्वभाव राग-द्वेष रूप परिरणत हो जाने का है। दोनों का जब तक संबंध बना रहता है तब तक जीव विभाव रूप परिणत रहता है।
यह कर्म मूलतः एक प्रकार का है। पुद्गल पिसड रूप द्रव्य कर्म और पुद्गलपिएंड में रही हुई फल देने की शक्ति रूप भावं कर्म के भेद से कर्म के दो भेद भी किये जाते हैं। बानावरण श्रादि के भेद से मध्यम-विवक्षा की अपेक्षा आठ भेद हैं और इन आठ भेदों के उत्तर भेदों की अपेक्षा से एक सौ अड़तालीस (१४८) भेद हैं । विशेष विवक्षा से देखा जाय तो वस्तुतः कर्म के असंख्यात भेद है। कर्म के कारणभूत जीवं के, अध्यवसाय असंख्यात प्रकार के होते हैं और अध्यवसायों के भेद से अध्यवसाय-जन्य कर्म की शक्तियाँ भी तर-तम भाव रूप से असंख्यात प्रकार की होती है। किन्तु असंख्यात प्रकार जिज्ञासुओं की समझ में सुगमता से नहीं आ सकते, अतएव मध्यम रूप से पाठ भेदों में ही उन सब का समावेश किया गया है। इसी उद्देश्य से सूत्रकार ने 'अट्टकम्माई' कहा है।
यहां 'आणु पुचि' और 'जहक्कम" यह दो पद विशेष रूप से विचारणीय हैं। दोनों पद समान अर्थ के प्रतिपादक-ले ज्ञात होते हैं, पर वास्तव में वे समानार्थक नहीं है। 'श्राणु पुब्धि' से सूत्रकार का प्राशय यह है कि पाठ कर्मों का कथन, उनके अपना कथन नहीं है। चरम तीर्थकर भगवान् महावीर ने जिस प्रकार उपदेश दिया है उसी प्रकार परम्परा से आये हुए उपदेश को मैं सूत्र रूप में निबद्ध करता हूं। इतना ही नहीं, पाठ कर्मों की प्ररूपणा पूर्ववर्ती समस्त तीर्थकरों द्वारा जैसी की गई है वही यह प्ररूपणा है और उसका ही निरूपण यहां किया जायगा । इस प्रकार आनुपूर्वी से अर्थात् गुरु-शिष्य आदि के क्रम से यह प्ररूपणा अनादिकालीन है।
__ 'जहक्कम' का अर्थ भी 'क्रमपूर्वक-क्रम के अनुसार ऐसा होता है । इस पद में 'क्रम' शब्द का तात्पर्य कर्मों का पौर्वापर्य रूप क्रम है । तात्पर्य यह है कि पहले ज्ञानावरण, फिर दर्शनावरण, फिर वेदनीय, तत्पश्चात् मोहनीय, तदनन्तर आयु, फिर नाम, उसके बाद गौत्र और अन्त में अन्तराय, का क्रम शास्त्रों में बतलाया गया है। उसी क्रम के अनुसार यहां पाठ कर्मों का कथन किया जायगा । इस क्रम का कारण क्या है, सो असली गाथा में बतलाया जायेगा। ___ 'जेहिं बद्धो अयं जीयो' यहां 'श्रयं' शब्द भी गूढ़ अभिप्राय को सूचित करता है। वह इस प्रकार
_ 'श्रयं' का अर्थ है-'यह ।' 'यह' शब्द तभी प्रयोग किया जाता है जब कोई बस्तु प्रत्यक्ष से दिखाई देती हो । यहां 'यह' शब्द जीव के लिए प्रयुक्त हुआ है और