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प्रथम अध्याय
५६. 1 जो चक्षु इन्द्रिय द्वारा ग्रहण करने योग्य हो उसे वर्ण कहते हैं । जिह्वा हन्द्रिय द्वारा ग्राह्या पुद्गल का गुण रसा है जो प्राण इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य हो उसे गंध कहते हैं • और स्पेशेनीन्द्रय द्वारा ग्राह्य गुण को स्पर्श कहते हैं।
सूत्र में शब्द को पुद्गल द्रव्य का.परिणाम बताकर सूत्रकार ने उसके आकाशा का गुण होने का तथा उसकी एकान्त नित्यताका निराकरण किया है । शब्द पौगलिक है, आकाश का गुण नहीं है इस विषय की चर्चा ग्यारहवें अध्ययन में की जायगी । मीमांसक मतानुयायी शब्द को सर्वथा नित्य स्वीकार करते हैं । वे अपना पक्ष सार्थना करने के लिए इस प्रकार युक्तियाँ उपस्थित करते है:
(१) शब्द नित्य है, क्योंकि हमें 'यह वही शब्द है, जिसे पहले सुना था, इस प्रकार का ज्ञान होता है । तात्पर्य यही है कि कल हमने 'क' ऐस्ता शब्द सुना। आजा फिर जब हम किली के मुख से 'क' शब्द सुनते हैं तो हमें ऐसा मालूम पड़ता है कि
आज मैं वही 'क' सुन रहा हूँ जिसे कल सुना था । शब्द अगर शनित्य होता तो वह बोलने के पश्चात् उसी समय नष्ट हो जाता और फिर दूसरी बार वह कभी सुनाई न देता। मगर वह फिर सुनाई देता है और हमें प्रत्याभ ज्ञान भी होता है इसलिए शब्द को नित्य ही स्वीकार करना चाहिए।
(२) अनुमाल प्रमाण से शब्द की नित्यता सिद्ध होती है। यथा-शब्द नित्य है, क्योंकि वह श्रोत्र-इन्द्रिय का विषय है । जो-जो श्रोत्र-इन्द्रिय का विषय होता है बह-वह नित्य होता है, जैस्ले शब्दत्व ।
(३) शब्द नित्य है, यदि नित्य न होता तो दूसरों को अपना अभिप्राय लसझाने के लिए उसका प्रयोग करना वृथा हो जाता। सारांश यह है कि शब्द अगर अनित्य हो तो वह उच्चारण करने के बाद ही नष्ट हो जाता है। अब दूसरी बार हम जो शब्द बोलते हैं. वह नया है-एकदम अपूर्व है और अपूर्व होने के कारणा.. उसका वाच्य अर्थ क्या है, यह किसी को मालूम नहीं है । मान लीजिए-हमने किसी से कहा-'पुस्तक लाओ। वह पुस्तक का अर्थ नहीं समझता था सो हमने उसे : समका दिया । वह समझ गया । किन्तु वह पुस्तक शब्द अनित्य होने के कारण उसी समय नष्ट हो गया । अब दूसरी बार हम फिर कहते हैं- 'पुस्तक लाश्री यहाँ पुस्तक शब्द पहले वाला तो है नहीं क्योंकि वह उसी समय नष्ट हो गया था। यह तो नवीन ही शब्द है, अतएव इसका अर्थ किसी को हात नहीं होना चाहिए । इसी प्रकार समस्त शब्द यदि अनित्य है तो किसी भी शब्द का अथ किसी को ज्ञात न हो सकेगा भार ऐसी अवस्था में अपना.आशय प्रकाशित करने के लिए दूनों के लिए हमारा बालना भी व्यर्थ होगा। ऐसा होने त संसार के समस्त. व्यवहार लुप्न हा जाएँगे। अतएव शब्द को अनित्य न मानकर नित्य मानना ही युक्ति-संगत मात. होता है । और ऐसा मानने ल ही जगत् के व्यवहार चल सकते हैं। ... . ...मीमांसक की उलिखत युक्तियां निस्मार हैं। उसने अन्तित्य मानने में जो साधाएँ बतलाई है, वे बाधाएँ तभी आ सकती हैं जब शब्द को सर्वया अनित्य स्वी