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amavansar
. षट् द्रव्य निरूपण : अतएव यह सिद्ध है कि गुण के समूह को द्रव्य कहते हैं और गुण कभी द्रव्य .. . से पृथक नहीं किये जा सकते।
शंका-यदि गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं, तो यहां सूत्रकार ने गुणों के . पाश्रय को द्रव्य क्या कहा है ? श्राश्रय तो आश्रेय वाले पदार्थ से भिन्न होता है। जैसे-'पात्र में दूध है ।' यहां पात्र अलग पदार्थ है और दूध अलग पदार्थ है । इसी प्रकार गुण द्रव्य में रहते हैं तो गुण और द्रव्य भी अलग-अलग होने चाहिए।
समाधान-आश्रय-आश्रयी का कथन अभेद में भी होता है । ' इस वस्त्र में तन्तु है' 'इल चित्र में रंग हैं' 'इस स्तम्भ में लार है' यहां वस्त्र और तन्तु में, चित्र तथा रंग में और स्तम्भ एवं लार में अभेद होने पर भी श्राश्रय-नाश्रयी का व्यवहार होता है। इसी प्रकार 'द्रव्य में गुग्ण हैं' ऐसा व्यवहार भी अभेद में हो सकता है। . शंका-यापने यह कहा है कि कभी नष्ट न होने वाले अंश को द्रव्य कहते हैं . . और सदा वदलते रहने वाले अंश को पर्याय कहते हैं । इस कथन में द्रव्य और पर्याय दोनों अंश हैं तो बतलाइए यह किसके अंश हैं और इनका अंशी कौन है ?
समाधान-सत्ता परम तत्व है । वह समस्त द्रव्यों, पर्यायों और गुणों में अनुगत है। उसका कोई प्रतिपक्ष नहीं है । उस सत्ता के ही द्रव्य और पर्याय अंश हैं। श्रागम में कहा है-'उपपन्नेइ वा, विगइ वा, धुवेइ वा अर्थात् वस्तु प्रतिक्षण उत्पन्न होती है, प्रतिक्षण विनष्ट होती है और ध्रुव श्री रहती है अर्थात ज्यों की त्यों बनी रहती है। यहां उत्पाद, व्यय और प्रौव्य का एक ही काल में विधान किया गया है। लो ध्रुव रहने वाला अंश द्रव्य है और उत्पन्न तथा विनष्ट होने वाला अंश पर्याय है। वाचक उमास्वाति ने भी कहा है-'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्' अर्थात् सत् तत्व वही है जिसमें उत्पाद, व्यय और प्रौव्य होता है।
एक ही वस्तु में उत्पाद और विनाश किस प्रकार होते हैं और वस्तु ध्रुव कैसे ... बनी रहती है, इसका दिग्दर्शन पहले कराया जा चुका है। आत्मा मनुष्य पर्याय का त्याग कर देव पर्याय को प्राप्त होता है । यहां मनुष्य पर्याय का विनाश, देव पर्याय की उत्पत्ति तथा आत्मा का दोनों अवस्थाओं में विद्यमान रहने के कारण धोव्य है।
. श्रात्मा में एकान्त रूप से यदि नौव्य ही स्वीकार किया जाय तो वह सदैव अपने सूल स्वभाव से.ही स्थित रहेगा। फिर संसार और मोक्ष का भेद भी नष्ट हो : जायगा । यदि इन स्वभावों को कल्पित माना जाय तो आत्मा का कोई स्वभाव ही न रहेगा, क्योंकि संसार-मोक्ष के अतिरिक्त श्रात्मा का और कोई स्वभाव नहीं है। स्वभाव-रहित होने से प्रात्मा का अभाव हो जायगा, क्योंकि विना स्वभाव के किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं हो सकता। अतएव प्रात्मा केवल प्रौव्य रूप नहीं माना जा
अात्मा में धौव्य या सर्वथा अभाध भी नहीं माना जा सकता । अगर अात्मा को उत्पाद और व्यय रूप ही माना जाय सत् का सर्वथा अभाव मानना पड़ेगा और