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प्रथम अध्याय
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व्यावहारिक काल है, ऐसा काल-द्रव्य के वेत्ताओं ने स्वीकार किया है ।
पदार्थ कभी नये होते हैं, कभी पुराने हो जाते हैं, इस प्रकार का संसार में पदार्थों का जो परिवर्तन होता है, वह काल का ही व्यापार है ।
आचार्य हेमचन्द्र के अतिरिक्त वाचक श्री उमास्वाति ने भी ' कालश्चेत्येके. इस तत्वार्थ सूत्र में किन्हीं - किन्हीं श्राचार्यों का मत काल की द्रव्यता के विषय प्रकट किया है ।
वर्त्तना को काल का लक्षण कहा गया है । संस्कृत भाषा में उसकी व्युत्पत्ति तीन प्रकार की है— 'वर्त्यते, वर्तते, वर्तनमात्रं वा वर्तना' । पहली व्युत्पत्ति कारण -. साधन है, दूसरी कर्तृसाधन है और तीसरी भावसाधन है । द्रव्य अपनी पूर्व पर्याय का त्याग स्वयं ही करता है फिर भी उसमें बाह्य निमित्त की आवश्यकता होती है । अतएव पर्याय के परित्याग से उपलक्षित काल को वर्त्तना रूप कहा गया है।
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जीव का लक्षण उपयोग कथन करने के पश्चात् ज्ञान, दर्शन और सुख-दुःख से जीव का ज्ञान होना बतलाया गया है सो अन्य मतावलम्बियों की इस सम्बन्ध की मिथ्या मान्यताओं का निराकरण करने के लिए समझना चाहिये । जैसे कि वैशेषिकं ज्ञान आदि गुणों को जीव से सर्वथा भिन्न मानते हैं और सांख्य जीव को दुःख-सुख का भोक्ता न मान कर प्रकृति को ही भोला मानते हैं । यह मिथ्या मान्यताएँ उल्लिखित कथन से खण्डित हो जाती हैं ।
. सांख्यों की यह मान्यता है कि पुरुष (जीव ) सुख-दुःख का भोक्का नहीं है: जड़ प्रकृति से उत्पन्न होने वाली वुद्धि वस्तुतः सुख-दुःख का भोग करती है । बुद्धि उभय- मुख दर्पणाकार है अर्थात् बुद्धि में दर्पण की भांति एक ओर से सुख आदि का प्रतिविम्ब पड़ता है और दूसरी तरफ से पुरुष का प्रतिबिम्ब पड़ता है । श्रतएव पुरुष शौर सुख यदि एक ही जगह मिल जाते हैं । ऐसी अवस्था में पुरुष भ्रान्ति के वश होकर अपने आपको सुख-दुःख का भोग करने वाला मान लेता है, वास्तव में बुद्धि जो कि प्रकृति का एक विकार है - सुख-दुःख भोगती है ।
सांख्यों की यह मानता युक्ति हीन है । पुरुष श्रमूर्त्तिक है ऐसा उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है | असूर्त्तिक वस्तु का प्रतिविम्ब पड़ नहीं सकता, क्योंकि प्रतिविम्व पड़ना मूर्त पदार्थ का धर्म है । अतएव पुरुष को बुद्धि पर प्रतिबिम्ब पड़ना जब असंभव है तो किस प्रकार सुख और पुरुष एकत्र प्रतिविम्बित होंगे ? एकत्र प्रति विम्बित न होने से पुरुष को तजन्य भ्रम भी नहीं हो सकता । -
। जड़
इसके अतिरिक्त प्रकृति जड़ में वेदना-शक्ति नहीं होती । अगर किसी में वेदना-शक्ति है तो उसे जड़ नहीं किन्तु चेतन ही मानना उपयुक्त है । इसलिए प्रकृति को जड़ मानते हुए भी सुख-दुःख का भोग करने वाली स्वीकार करना परस्पर विरोधी प्रलाप है |
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इसी प्रकार बुद्धि अर्थात् ज्ञान को जड़ प्रकृति का विकार ( कार्य ) बताना भी
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