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प्रथम अध्याय
। ४७ ] जगत् में विचित्र स्थिति उत्पन्न हो जाती। दोनों द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हैं, अतएव प्रति समय धर्म-द्रव्य जीव-पुद्गलों को गमन में प्रेरित करता और अधर्म द्रव्य स्थिति में प्रेरित करता; इस प्रकार धर्मास्तिकाय के कारण स्थिति होने पाती और न अधर्मास्तिकाय के कारण गति होने पाती । श्रतएव दोनों द्रव्यों को गति-स्थिति में सहायक मात्र मानना चाहिए।
आकाशास्तिकाय--श्राकाश सर्व व्यापी द्रव्य है, किन्तु वह वाह्य निमित्त से लोकाकाश और अलोकाकाश के भेद से दो भागों में विभक्त है । जहां धर्मास्तिकाय, श्रधर्मास्तिकाय आदि षट् द्रव्यों का सद्भाव है यह लोकाकाश कहलाता है । “कहा भी है--'धर्माधर्मादीनि द्रव्याणि पत्र विलोक्यन्ते स लोकः' अर्थात् जहां धर्म-अधर्म श्रादि द्रव्य अवलोकन किये जाते हैं वह लोक है। लोकाकाश से परे सब नोर अनन्त आकाश है।
शंका- यदि धर्म श्रादि द्रव्यों का श्राधार लोकालाश है तो अाकाश का अाधार .. क्या है ? श्राकाश किस पर टिका हुश्रा हैं ?
___ समाधान-आकाश स्वप्रतिष्ठ है-वह अपने श्राप पर ही टिका है । उसका कोई अन्य आधार नहीं है। .
शंका-यदि आकाश स्वप्रतिष्ट है तो धर्म श्रादि द्रव्यों को भी स्वप्रतिष्ठ क्यों न मान लिया जाय ? अगर धर्मादिद्रव्यों का अाधार भिन्न मानते हो तो आकाश का नाधार भी भिन्न मानना चाहिए। और फिर उस आधार का आधार भी भिन्न होगा। इस प्रकार कल्पना करते-करते कहीं अन्त ही नहीं आयगा।
समाधान-आकाश सब द्रव्यों से अधिक विस्तृत परिमाण वाला है । उससे बड़ा अन्य कोई द्रव्य नहीं है, आकाश सब द्रव्यों से अनन्त गुणा महान् परिमाण वाला है अतएव उसका कोई आधार नहीं हो सकता । धर्मास्तिकाय आदि का अाधार अाकाश बतलाया गया है, सा भी व्यवहार नय से ही समझना चाहिए । .. . एवं भूत नय की अपेक्षा से सभी द्रव्य स्वप्रतिष्ट है-अर्थात् सब द्रव्य अपने-अपने प्रदेशों में रहते हैं।
· शंका-यदि ऐला है लो लोकाकाश और धर्म आदि द्व्यों में आधार-आधेय लम्बन्ध क्यों कहा गया है ?
समाधान-लोकाकाश के बाहर धर्म श्रादि द्रव्यों का सद्भाव नहीं है, यही आधार-साधेय की कल्पना का प्रयोजन है। इसी अपेक्षा से दोनों में आधार-प्राधेय का व्यवहार समझना चाहिए।"
___ जिनागम में चार प्रकार का लोक निरूपण किया गया है-(१) द्रव्यलोक (२) क्षेत्रलोक (३) कालालोक और (४) भावलाक । द्रव्यलोक. एक और अन्त वाला है, क्षेत्रलोक असंख्य कोड़ा-कोड़ी योजन लम्बा-चौड़ा है और उसकी परिधि भी असंख्य कोड़ा-कोड़ी योजन की है। उसका भी अन्त है। काललोक ध्रुव, शाश्वत और नित्य