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प्रथम अध्याय रूप-परिणाम के अभाव में श्रास्त्रव नहीं होता । गुप्ति तीन प्रकार की है-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति। ---
मनोगुप्ति के भी तीन भेद हैं-असत्कल्पना वियोगिनी, समताभाविनी और श्रात्मारामता । आर्तध्यान-रौद्र ध्यान का त्याग करना असत्कल्पना वियोगिनी मनोगुप्ति है। प्राणीमात्र पर साम्यभाव होना समताभाविनी और सम्पूर्ण योग-निरोध के समय होने वाली श्रात्मागमता कहलाती है।
वचनगुप्ति दो प्रकार की है-मौनावलम्विनी अर्थात अपने हार्दिक अभिप्राय को दूसरों पर प्रकट करने के लिए अकुटि श्रादि से संकेत न करके मौन धारण करना । दूसरी वानियमिनी-अर्थात् उपयोग-पूर्वक मुखवस्त्रिका बान्ध कर बोलना ।
कायगुप्ति दो प्रकार की है-चेष्टानिवृत्ति और चेष्टानियमिनी । योग-निरोध के समय तथा कायोत्सर्ग में शरीर को सर्वथा स्थिर रखना चेष्टानिवृत्ति है और उठने बैठने आदि क्रियाओं में श्रागमानुसार शारीरिक चेष्टा को नियमित रखना चेष्टानियमिना काय गुप्ति है। कहा है
उपसर्ग प्रसङ्गेऽपि कायोत्सर्गजुषो मुनेः। स्थिरीभावः शरीरस्य, कायगुप्तिर्निगद्यते । शयनासननिक्षेपादान चंक्रमणेषु यः।
स्थानेषु चेष्टानियमः, कायगुप्तिस्तु साऽपरा॥ इनका आशय पहले ही निरूपित किया जा चुका है । पांच समिति और तीन गुप्ति को भागम में पाठ प्रवचन माना गया है। इसका कारण यह है कि चारित्र रूपी शरीर इन्हीं से उत्पन्न होता है और यही उसकी रक्षा-पालन-पोषण करती है।
संयम की रक्षा के लिए और कर्मों की निर्जरा के लिए आये हुए दुःखों को चिना संतप्त हुए सहन करना परीपह कहलाता है। परीपह वाईस प्रकार के हैं । वे इस प्रकार हैं-[१] सुधा [२) पिपाला [३] शीत [४] उष्ण [५] दंशमशक [६] अचेल [७] भारति [८] स्त्री [६] चर्या (१०) निषधा |११] शय्या [१२] आक्रोश [१३] वध [१४] याचना । १५] अलाभ [१६] रोग [१७] तृणस्पर्श [१८] मल [१६] सत्कार-पुरस्कार [२०] प्रज्ञा [वुद्धि वैभव होने पर भी अभिमान न करना ] [२१] अज्ञान |२२] अदर्शन । इन परीषहों का विशेष स्वरूप अन्यत्र देखना चाहिए ।
क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य, यह दस यतिधर्म हैं । क्रोध का प्रभाव क्षमा है। अभिमान का त्याग करके कोमल वृत्ति रखना मार्दव है, कपट न करना आर्जव है, लोभ का अभाव मुक्ति है, इच्छा का निरोध करना तप है, हिंसा का त्याग संयम है, सत्य भाषण करना सत्य है, अन्तःकरण की शुद्धता शौच है, परिग्रह का त्याग अकिंचनता है और मैथुन का त्याग करना ब्रह्मचर्य है। - बारह भावनाएँ-(१) अनित्य (२) अशरण (३) संसार (४) एकत्व (५)