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प्रथम अध्याय
[ ४१ ] [३] प्राद्वेषिकी क्रिया-द्वेश करने से लगने वाली । [४] पारितापतिकी क्रिया-स्व-पर को संताप पहुंचाने से लगने वाली । [५] प्राणातिपातिकी क्रिया-हिंसा से लगने वाली। [६ प्रत्याख्यानिकी क्रिया-प्रत्याख्यान न करने से लगने वाली। .[७] प्रारम्भिकी क्रिया-सावध क्रिया-आरंभ से लगने वाली। [८] पारिग्रहिकी क्रिया-परिग्रह से लगने वाली। [६] मायाप्रत्यायिकी क्रिया-मायाचार करने से लगने वाली । [१०] मिथ्यादर्शन प्रत्यायिकी क्रिया-मिथ्यात्व से लगने वाली। [११ । दृष्टिकी क्रिया - रागादि भाव से पदार्थों को देखने से लगने वाली । [१२] स्पृष्टिकी क्रिया-विकृत भाव से स्त्री आदि का स्पर्श करने ले लगने वाली। [१३] प्रातीत्यकी क्रिया-किसी का बुरा विचारने से लगने वाली। [१४] सामन्तोपनिपातिका क्रिया-घी, दूध आदि के वर्तन खुले छोड़ देने
से तथा अपनी प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होने से लगने वाली। [१५] स्वाहस्तिकी क्रिया-अपने हाथों जीव को मारने से लगने वाली। । १६ ] नै शस्त्रिकी क्रिया-राजा आदि की आज्ञा से शस्त्र आदि बनाने से
__ लगने वाली। [१७] श्रानयनिकी क्रिया-जीव-अजीव पदार्थ को लाने-लेजाने से लगने वाली ।१८] वैदारणिकी क्रिया-चीरने फाड़ने से लगने वाली। 1 १६ । अनायोग प्रत्ययिकी क्रिया-श्रयतना से वस्तुओं को उठाने-धरने से
लगने वाली। [२०] अनवकांक्षा प्रत्ययिकी क्रिया-इस-लोक और पर-लोक को बिगाड़ने
चाले कार्य करने से लगने वाली । [२१] प्रेम प्रत्ययिकी क्रिया-माया और लोभ से लगने वाली। [२२] द्वेष प्रत्ययिकी क्रिया-क्रोध और मान से लगने वाली। [२३] प्रायोगिकी क्रिया-मन, वचन, काय के अयोग्य व्यापार से लगने
वाली। [२४] सामुदानिकी क्रिया-महापाप से लगने वाली क्रिया। [२५] ऐपिथिकी क्रिया--मार्ग में चलने से लगन वाली क्रिया। यह क्रिया
अप्रमत्त साधु और केवली भगवान् को भी लगती है। . उक्ल पञ्चीस क्रियाएँ कर्म के प्रास्त्रव का कारण होने से आस्रव रूप कहलाती. हैं । मुमुक्षु जीवों को इनसे बचना चाहिए । यह वास्तव व तत्त्व का संक्षिप्त निरूपण हुआ। - लातवां तत्त्व संवर है। श्रास्रव का निरोध करना अर्थात् आते हुए कमों को शुद्ध अध्यवसाय के द्वारा रोक देना संवर कहलाता है । संवर मोक्ष का कारण होने से सत्पुरुषों द्वारा ग्राह्य है। संवर की साधना से कर्म-रज हटता है, संसार-भ्रमण