________________
[ २८ ]
पटू द्रव्य निरूपण सिद्ध होता है । जीव ही मल्लाह है और जीव ही तरनेवाला है। इसमें किसी को विरोध की आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योकि एक ही व्यक्ति में उक्त दोनों बातें संभव हैं । अथवा आत्मा का सांसारिक और सोपाधिक रूप नाविक है और आत्मा का शुद्ध स्वरूप महर्षि बतलाया गया है । इस कारण भी कोई विरोध नहीं है ।
सूत्रकार ने संसार को समुद्र का रूपक देकर यह सूचित किया है कि संसार का अन्त करना सहज नहीं है । इसके लिए बड़े भारी प्रयत्न की श्रावश्यक्ता है। हढ़ता पुरुषार्थ, धैर्य और विवेक को सामने रख कर निरन्तर प्रवृत्ति करने से ही सफलता मिल सकती है । यहाँ जरा-सी असावधानी की तो समुद्र के गहरे तल में जाना पड़ता है उसी प्रकार शरीर का दुरुपयोग किया तो संसार के तल में अर्थात् नरकनिगोद में जाना पड़ता है ।
अतएव मुक्ति के साधन भूत इस परिपूर्ण और सवल शरीर का सदुपयोग. करो; अवसर निकल जाने पर फिर पश्चाताप करना पड़ेगा । इसको भोगोपभोग का साधन न बनाओ। इस पर ममता भाव रख कर इसके पोषण को ही अपना उद्देश्य न समझो | ऐसा करने से शरीर श्रहित का कारण बन जाता है। इसे प्राप्त करने के लिए जो मूल्य चुकाया है उसके बदले हानि न उठाओ।
शरीर का सदुपयोग क्या है ? नेत्रों से मुनिराजों का दर्शन करना और शास्त्रोंका अवलोकन करना, कानों से धर्मोपदेश का श्रवण करना, जीभ से हित- मित-प्रिय वाणी बोलना, हाथों से और मस्तक से गुरुजनों के प्रति विनम्रता प्रदर्शित करना, इसी प्रकार अन्यान्य अंगों - पांगों को धर्माराधन, सेवा और परोपकार में लगाना शरीर का सदुपयोग है । इससे विरुद्ध रूप-रस आदि विषयों के सेवन में गोपांगों का उपयोग करना दुरुपयोग है । सूत्रकार कहते हैं- अगर शरीर नौका का सम्यक् प्रयोग करोगे तो महर्षि बन कर संसार सागर से पार उतर जाओगे ।
मूल -- नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा ।
वीरियं उब योगो य, एयं जीवस्स लक्खणम् ॥११॥
छाया - ज्ञानन्च दर्शन चैत्र, चारित्रन्च तपस्तथा ।
वीर्यमुपयोगश्च एतज्जीवस्य लक्षणम् ॥
शब्दार्थ :- हे गौतम ! ज्ञान, दर्शन, चारिन्न, तप, सामर्थ्य और उपयोग यह सब जीव के लक्षण हैं
}
भाष्यः- प्रारंभ में आत्मा की नित्यता और इन्द्रियों द्वारा उसकी श्रग्राह्यता का विवेचन किया था । तदनन्तर श्रात्मा के दमन का विवेचन किया गया। किन्तु श्रात्मा के यथार्थ स्वरूप को जाने बिना श्रात्म-दमन होना असंभव है, इसलिए सूत्रकार ने प्रस्तुत गाथा में श्रात्मा के स्वरूप का दिग्दर्शन कराया है !
वस्तु के असाधारण धर्म को लक्षण कहते हैं । एक साथ मिली हुई बहुत-सी