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द्रव्य निरूपण. यह प्रतिपादन किया हैं कि प्रत्येक जीव को, अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति से पहले यह सोचलेना चाहिए कि यह प्रवृत्ति श्रात्मा का हित करनेवाली है या अहित करने वाली ? हितकारक प्रवृत्ति करना चाहिए और अहितकारक प्रवृत्ति का परित्याग कर देना चाहिए | क्रोध के आवेश में, या लोभ आदि की प्रेरणा से प्रेरित होकर आत्मा का श्रहित करना मनुष्य जीवन का दुरुपयोग है । यहीं नहीं, मनुष्य को अपने प्रत्येक कार्य के प्रति सावधान रहने का आशय यह भी है कि वह कार्य करने के पश्चात् भी आदर्श की कसौटी पर उसे कसे और यदि कोई कार्य उस कसौटी पर खोटा प्रसिद्ध हो तो उसके लिए पश्चाताप करने के साथ भविष्य में वैसा करने के लिए पूर्ण सावधानी रक्खे | इस प्रकार करने से जीवन शुद्ध और निष्पाप बन जाता है ।'
मूलः - जीवाजीवा य बंधोय, पुरणं पावासवो तहा ।
संवरो निज्जरा मोक्खो, संतए तहिया नव ॥ १२ ॥
छाया: - जीवा, अजीवाश्च बन्धश्च, पुण्यं पापात्र तथा ।
संवरो निर्जरा मोक्षः, सन्त्येते तथ्या नव ॥ १२ ॥
शब्दार्थ : - जीव, अजीव, बंध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष, यह नौ तथ्य या तत्व हैं ॥ १२ ॥
भाष्यः -- पूर्व गाथा में जीव का स्वरूप बतलाया गया है। उससे यह शंका हो सकती है कि क्या एक मात्र जीव पदार्थ ही सत्य है, जैसा कि वेदान्त वादी कहते हैं, या अन्य पदार्थ भी हैं ? इस शंका का समाधान करने के लिए यहां तत्वों का निरूपण किया गया है ।
जिसमें चेतना हो उसे जीव कहते हैं । अर्थात् जिसमें जानने-देखने की शक्ति हैं, जो पांच इन्द्रियों, तीन वल, श्वासोच्छास और आयु-इन दस द्रव्य प्राणों के सद्भाव में जीवित कहलाता है या ज्ञान, दर्शन आदि भाव प्राणों से युक्त होता है । उसे जीव तत्व कहते हैं ।
जीव, जाति- सामान्य की अपेक्षा एक होने पर भी व्यक्ति की अपेक्षा श्रनन्तानन्त हैं । जाति की अपेक्षा एक कहने से यह अभिप्राय है कि प्रत्येक जीव में स्वाभा विक रुप से एक-सी चेतना शक्ति विद्यमान है । व्यक्ति की अपेक्षा अनन्तानन्त कहने 'का आशय यह है कि प्रत्येक जीव की सता एक-दूसरे से सर्वथा स्वतंत्र है ।
स्थूल दृष्टि से जीव दो विभागों में विभक्त किये जा सकते हैं - ( १ ) संसारी और (२) मुक्त | संसारी जीव वह हैं जो अनादिकाल से कमों के बंधन में पड़े हुए हैं, जिनका स्वभाव विकृत हो रहा है और जो सांसारिक सुख-दुःखों को सहन कर रहे हैं। इससे विपरीत, जो जीव अपने पराक्रम के द्वारा समस्त कर्मों का समूल विनाश कर चुके हैं, जिनकी श्रात्मा का असली स्वभाव प्रकट हो चुका है और जो विविध योनियों में जन्म-मरण आदि की सांसारिक वेदनाओं से छुटकारा पा चुके हैं, वे मुक्त