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प्रथम श्रध्याय
[ ३३ जीच कहलाते हैं। .. ... ...
संसार के प्राणी कमों के अनुसार भिन्न-भिन्न दशा में रहते हैं। जैसे रंगभूमि में अभिनय करने वाला अभिनेता नाना वेष धारण करता और मिटाता है उसी प्रकार संसारी जीव कमी एक पर्याय धारण करता है, कभी दूसरी पर्याय में जा पहुंचता है। यो तो इन पर्यायों की गिनती ही नहीं है, किन्तु शास्त्रकारों ने प्रधान रूप से दो पर्याय
नाई हैं-एक त्रास, दृसरी स्थावर । जो जीब चल-फिर सकते हैं, समर्मी-सर्दी से वचने का प्रयत्न करते हैं उन जंगम जीवों को बस कहते हैं। जो प्राणी चल फिर नहीं सकते-एकही जगह स्थिर रहते हैं उन्हें स्थावर कहते हैं।
स जीव भी कई प्रकार के होते हैं । जैसे-कोई पांच इन्द्रियों पाले, कोई चार इन्द्रियों वाले, कोई तीन इन्द्रियों वाले और कोई-कोई दो इन्द्रियों वाले। स्थावर जीवों के केवल एक ही इन्द्रिय होती है... पर्शन, रसना, प्राण, चतु और कर्ण, यह पांव इन्द्रियां हैं। जिन जीवों के एक इन्द्रिय होती है उनके सिर्फ स्पर्शनेन्द्रिय, जिनके दो होती हैं उनके स्पर्शन और रसना होती है, इसी प्रकार पांचों इन्द्रियों तक समझना चाहिए। - पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी और संजी इस प्रकार दो तरह के होते हैं। जिनमें आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संबंधी विशिष्ट संज्ञा होती है वे संझी या मनवाले कहलाते हैं और जिनमें उक्त संज्ञाएँ विशिष्ट रूप में नहीं पाई जाती-जिन्हें मन प्राप्त नहीं है और जो हित-अहित का भलीभांति विचारही कर सकते उन्में संजी जीव कहते हैं। पंचेन्द्रिय वाले जीव सकलेन्द्रिय कहलाते हैं, क्योंकि उन्हें समस्त इन्द्रियां प्राप्त है और चार इन्द्रिय वाले जीवों से लगाकर दो इन्द्रिय वाले तक विकलेन्द्रिय कहलाते हैं-स्योंकि उन्हें अपूण-अधूरी इन्द्रियां प्राप्त है।
स्थावर या एक इन्द्रिय वाले जीव मुख्य रूप से पांच प्रकार के हैं-पृथ्वीकाय, जलकाय, तेजस्काय, घायुकाय और वनस्पतिकाय । यह स्थावर जीव चल-- फिर नहीं सकते और इनकी चेतना शक्ति अत्यन्त श्रव्यस्त होती है, इस कारण कई लोग इन्हें जीव रूप में स्वीकार करने से झिझकते हैं। मगर वास्तव में यह जीव हैं। पृथ्वी को शरीर बनाकर रहने वाला जीव पृथ्वीकाय कहलाता है । जल जिसका शरीर है वह जलकाय जीव है। इसी प्रकार अन्य भी समझ लेना चाहिए। विज्ञानाचार्य दिवंगत सर जगदीशचन्द्र वसु ने अपने प्राविष्कार द्वारा वनस्पतिकाय के जीवों का अस्तित्व सिद्ध करदिया है और अब उसमें किसी को लेशमात्र सन्देह करने की गुंजाइश नहीं रही है । इसी भांति अन्य स्थावर जीवों का अस्तित्व सिद्ध किया जा सकता है।
. संसारी जीव और मुक्त जीव को यहां एक ही तस्क में समावेश करने से यह सिद्ध होता है कि संसारी जीव ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पचारित्र की नाराधना करके, आत्मिक विकारों को विनए कर के.सुरू हो जाता है। 'मुक्त' शब्द एन भी यही सूचित होता है। मुक्त शब्द का अर्थ है-बुटा हुत्रा, छूट नही सकता