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प्रथम अध्याय
संबंध से रहता है अतएव वह उसी की आत्मा में बोध कराता है. दूसरों को बोध नहीं होता ।
समाधान- आपके मत में समवाय संबंध व्यापक, नित्य और एक माना गया है । आत्मा भी आपके मत में व्यापक है अतः प्रत्येक ग्रात्मा के साथ ज्ञान का समवाय संबंध सरीखा होगा । जैसे व्यापक होने के कारण आकाश के साथ सबका समान संबंध है, उसी प्रकार समवाय संबंध भी सब के साथ समान ही होना चाहिए | अतएव हमने जो बाधा पहले बतलाई है उसका निवारण करने के लिए समवाय संबंध की कल्पना करना उपयोगी नही है ।
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- उस ज्ञान से
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इस प्रकार वैशेषिक मत का निराकरण करने के लिए ज्ञान को जीव का स्वरूप बताया गया है ।
जैसा कि पहले कहा है, प्रत्येक पदार्थ सामान्य और विशेष गुणों का समुदाय हैं । श्रतएव अकेला ज्ञान विशेष गुणों को जान सकता है, सामान्य गुणों का बोध उससे नहीं हो सकता । और परिपूर्ण पदार्थ का ज्ञान तभी माना जा सकता है सामान्य और विशेष दोनों अंश जान लिये जाएँ। इसी उद्देश्य से ज्ञान के बाद दर्शन को भी जीव का स्वरूप बतलाया गया है।
जब
स्वरूप में रमण करना भी एक प्रकार का चारित्र है । यह चारित्र जीव का स्वरूप हैं अतएव उसका भी यहां उल्लेख किया गया है । तप, चारित्र का एक प्रधान अंग है । यद्यपि चारित्र में तप का अन्तर्भाव होता है फिर भी निर्जरा का प्रधान कारण होने के कारण, उसका विशेष महत्व व्योतित करने के लिए उसका पृथक् कथन किया है ।
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वीर्य को जीव का स्वरूप बतला कर सूत्रकार ने गोशालक के पंथ (आजीवक मत ) का निराकरण किया है। श्राजीवक सम्प्रदाय में कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार पराक्रम का निषेध करके नियतिवाद को स्वीकार किया गया है । उसका कथन यह है कि कोई भी क्रिया कर्म -बल-वीर्य से नहीं होती । जो होनहार है वही होता है । उसके लिए प्रयत्न या पुरुषार्थ की श्रावश्यकता नहीं है ।
आजीवक सम्प्रदाय की यह मान्यता ठोक नहीं है । वास्तव में कोई सुख, दुःख आदि नियतिकृत होते हैं और कोई नियतिकृत नहीं होते-वे पुरुष के उद्योग आदि पर निर्भर होते हैं | अतएव सुख आदि को एकान्त रूप से नियतिकृत मानना श्रयुक्त है। 'वीर्य' शब्द का गाथा में ग्रहण करने से सूत्रकार ने यह आशय प्रकट किया है ।
उपयोग को जीव का स्वरूप प्रतिपादन करके आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व का सूचन किया गया है | आत्मा की सिद्धि पहले की जा चुकी है श्रतएव यहां उसकी पुनरुक्ति नहीं की जाती । उपयोग का दूसरा अभिप्राय हिताहित के विवेक के साथ प्रवृत्ति करना भी होता है । हिताहित का विवेक जीव में ही हो सकता है श्रतएव यह भी जांच का असाधारण धर्म है । इसका यहां उल्लेख करके सूत्रकार ने परोक्ष रूप से
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