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षट् द्रव्य निरूपण को तत्त्व का यथार्थ बोध कराने के लिए सूत्र-रचना में उन्हों ने प्रवृत्ति की है । अतएव जीव को एक विशेष गुण के द्वारा लक्षित न कर के सामान्य वुद्धि वाले शिष्यों के कल्याण के लिए मध्यम मार्ग ग्रहण करके अनेक गुणों का प्रतिपादन किया है । शान और दर्शन श्रादि के विषय में मोहनीय कर्म के प्रबल उदय से अनेक मतावलम्बियों ने युक्ति और अनुभव के विरुद्ध अनेक मिथ्या कल्पनाएँ की हैं। उन कल्पनाओं का सूत्रकार ने यहां विरोध करके यथार्थ जीव का स्वरूप निरूपण किया है।
कणाद ऋषि के अनुयायी वैशेषिक लोग ज्ञान का जीव को स्वरूप नहीं मानते। उनके मत के अनुसार जीव भिन्न पदार्थ है और ज्ञान भिन्न पदार्थ है । जीव जक मुक्त होता है तो ज्ञान का सर्वथा नाश हो जाता है । यदि जीव को और ज्ञान को एक ही पदार्थ माना जाय तो मुक्ति में ज्ञान का नाश होने पर जीव का भी नाश मानना उचित नहीं है अतएव ज्ञान को जीव से भिन्न मानना चाहिए । दोनों को भिन्न-भिन्न मानने से ज्ञान का विनाश हो जाने पर भी जीव बचा रहता है।
वैशेषिकों का यह कथन सर्वथा निर्मूल है। ज्ञान यदि जीव से बिलकुल भिन्न होता तो ज्ञान से जीव को बोध न होता-जीव किसी भी पदार्थ को ज्ञान के द्वारा जान ही न पाता । मान लीजिए -ज्ञानचन्द्र किसी पदार्थ को जानता है तो उससे विज्ञानचन्द्र का अज्ञान न नहीं हो जाता, क्यों कि ज्ञानचन्द्र का ज्ञान विज्ञानचन्द्र की श्रात्मा से सर्वथा भिन्न है । तात्पर्य यह हुआ कि जिस श्रात्मा से जो ज्ञान भिन्न होता है, उस आत्मा को उस ज्ञान से बोध नहीं होता। अगर ऐसा न माना जाय तो एक जीव को किसी वस्तु का ज्ञान होते ही, उसके ज्ञान से सभी श्रात्माओं को बोध हो जायगा। फिर संसार में ज्ञान की जो न्यूनाधिकता देखी जाती है वह न रहेगी। एक के ज्ञान से सभी जानने लगेंगे तो सभी बरावर ज्ञानी होंगे । न कोई गरु रहेगा, न कोई शिष्य रहेगा । नानोपार्जन के लिए प्रयत्न करने की भी श्रावश्यकता न रहेगी, क्यों कि सिद्धों के ज्ञान से सभी को सभी पदार्थों का बोध हो जायगा । मगर ऐसा नहीं होता है-हमें दूसरे के ज्ञान से बोध नहीं होता है, क्यों कि उसका ज्ञान हमारी
आत्मा से भिन्न है । जैसे दूसरे का ज्ञान हमारी प्रात्मा से भिन्न है उसी प्रकार हमारा ज्ञान भी अगर हमसे भिन्न है, जैसा कि वैशेषिक कहते हैं, तो हमें अपने ज्ञान से भी. बोध नहीं हो सकता । तात्पर्य यह है कि जैसे दूसरे का ज्ञान हमसे भिन्न है उसी प्रकार हमारा शान भी हमसे भिन्न है तो अपने और पराये ज्ञान में कुछ भी भेद नहीं रहा । ऐसी हालत में दो बातें हो सकती हैं। एक तो यह कि हम अपने शान द्वारा भी न जाने, अथवा दूसरे के ज्ञान से भी जानने लगे। यह दोनों ही बातें अनुभव से विरुद्ध हैं अतएव स्वीकार नहीं की जा सकतीं।
शंका-जिस प्रात्मा में, जो ज्ञान समवाय संबंध से रहता है, उसी प्रात्मा में वह झान बोध कराता है । ज्ञानचन्द्र का ज्ञान, ज्ञानचन्द्र की ही आत्मा में * समवाय
* नित्य संबंध समवाय-संबंध कहलाता है। अर्थात् जो संबंध सदा से चला पा रहा हैजिसकी कभी श्रादि नहीं हुई वह संबंध समवाय है. जैसे-जीव का ज्ञान के साथ समवाय संबंध है।