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षद् द्रव्य निरूपणं शब्दार्थः-यह संसार समुद्र कहा गया है । शरीर नौका के समान है, जीव नाविक. मल्लाह के समान है । इस संसार-समुद्र को महर्षि तरते हैं ।। १० ।। .
.. भाष्य-आत्म-विजय प्राप्त कर चुकने पर प्रात्मा मोक्ष को प्राप्त करता है। मोक्ष या मुक्ति का अर्थ है-बंधन ले छटकारा पाना । बंधन को ही संसार कहते हैं अतएव यहां संसार का वर्णन किया गया है । संसार को यहां समुद्र का रूपक दिया . गया है। प्रश्न व्याकरण सूत्र में इस संसार-रूपी समुद्र का सांगोपांग रूपक इस प्रकार निरूपण किया गया है:--
" संसार रूपी समुद्र में जन्म-जरा-मरण रूपी गहराई है। इसमें दुःख रूपी जल क्षुब्ध हो रहा है। संयोग-वियोग रूपी ज्वार-भाटा आता रहता है । वध-बन्धन रूपी बड़ी-बड़ी तंरगें उठती हैं । विलाप रूपी गर्जना होती है। अपमान रूप फैन उछलते रहते है । मृत्यु-भय रूपी सपाट पानी सदा विद्यमान रहता है। चार कषाय रूप पाताल कलशों से युक्त है । भव भवान्तर रूप जल का कहीं अन्त नहीं दिखाई देता । इसका कहीं आर-पार नहीं है । यह संसार-समुद्र डरावना है, परिमाणरहित है। इच्छा और मलिन बुद्धि रूपी वायु के वेग से उछलता रहता है। श्राशा इस समुद्र का तल है । इसमें काम-राग-द्वेष प्रादि जल के फुहारे उड़ते रहते हैं । यहां .. मोह के भंवर हैं । जैसे समुद्र में मछलियां ऊपर-नीचे दौड़ती रहती हैं उसी प्रकार संसार में यह जीव विभिन्न गर्मों में घुमता रहता है। समुद्र में हिंसक प्राणी होते हैं। यहां प्रमादं श्रादि हैं । इनके उपद्रव से उठते हुए मत्स्य रूप मनुष्यों के समूह इस संसार-सागर में रहते हैं ।......संताप रूप बड़वानल यहां सदैव जलती रहती है। अभिमान आदि अशुभ अध्यवसाय रूपी जलचरों द्वारा पकड़े हुए जीव समुद्र के तल के समान नरक की ओर खिचे जा रहे हैं। यह संसार-समुद्र रति-अरति-भय विपाद श्रादि रूपी पर्वतों से व्याप्त है । यह संसार-सागर क्लेश रूपी कीचड़ से व्याप्त होने के कारण दुस्तर है। .........संसार-समुद्र चार प्रकार की गति रूप विशाल और अनन्त विस्तार वाला है । जिन्होंने संयम में दृढ़ता धारण नहीं की है, उन्हें इस संसार-सागर में कुछ भी सहारा नहीं है।" . तात्पर्य यह है कि जैसे समुद्र में पड़े हुए मनुष्य के कष्टों का पार नहीं रहता उसी प्रकार संसार के कष्टों का पार नहीं है। समुद्र से निकल कर किनारे लगना जैसे अत्यन्त कठिन है उसी प्रकार संसार से निकल कर किनारे लगना मोक्ष प्राप्त होना भी अतिशय कठिन हैं। इन सब सदृशतायों के कारण संसार समुद्र कहलाता है।
संसार-समुद्र से पार होना यद्यपि कठिन है, पर असंभव नहीं है। यदि सुयो ग्य नौका-जहाज-मिलजाय और उस जहाज का प्रयोग करने वाला कर्णधार निपुण ही तो किनारे पर पहुंच सकते हैं इसी प्रकार यदि योग्य शरीर अर्थात् मनुष्य का औदा रिक शरीर प्राप्त हो जाय तो संसार के किनारे पहुंच सकते हैं।
औदारिक शरीर यद्यपि अशुचि रूप हैं, योगियों के राग का पात्र नहीं है, फिर.