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प्रथम अध्याब
ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से आत्मा में पदार्थों को जानने की जो शक्ति उत्पन्न होती है वह लब्धि-भावेन्द्रिय है और उस शक्ति का अपने योग्य विषय में व्यापार होना-प्रवृत्त होना उपयोग-भावेन्द्रिय है।
लब्धि के होने पर ही निर्वृत्ति, उपकरण और उपयोग रूप इन्द्रियां होती हैं, इसी प्रकार निवृत्ति के होने पर ही उपकरण और उपयोग इन्द्रियरं संभव है और उपकरण की प्राप्ति होने पर ही उपयोग इन्द्रिय होती हैं। ...
श्रोत्रेन्द्रिय का प्राकार कदंद के फूल के समान, चतु-इन्द्रिय का श्राकार ममूर की दाल के समान, घाणेन्द्रिय का आकार अतिमुक्तक चंद्र के समान, जिह्वाइन्द्रिय का आकार खुरपा के समान और स्पर्शनेन्द्रिय का प्राकार विविध प्रकार का अनियत है।
पांचों इन्द्रियां अनन्त प्रदेशों से बनी हुई हैं । चे आकाश क असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ हैं । सभी इन्द्रियाँ कम से कम अंगुल के असंख्यातवें भाग में विषय करती हैं। श्रोत्रेन्द्रिय अधिक से अधिक स्वाभाविक रूप से बारह योजन दूर से आये हुए शब्द को सुन सकती है, चनुइन्द्रिय एक लाख योजन से भी कुछ अधिक दूर के पदार्थ को देख सकती है । शेर इन्द्रियां अधिक से अधिक नौ योजन दूर तक के अपने विषय को जान सकती हैं।
____ इन पांचों इन्द्रियों को जीतने से यह तात्पर्य है कि विषयों के प्रति इनकी जो लोलुपता है उसका निरोध करना अर्थात् प्रातिगक शक्ति के द्वारा गृद्धि का भाव कम करना।
सोध, मान, माया और लोभ-यह चार कपाय संसार का मूल है .। इन पर श्रांशिक विजय प्राप्त कर लेने पर ही-अर्थात् इनके एक भेद रूप अनन्तानुबंधी क्रोध आदि का क्षय या उपशम करने पर ही सस्यकृत्व की प्राप्ति होती है। इन कपायों का स्पष्टीकरण श्रागे कराय-प्रकरण' में किया जायया।
सन बन्दर की भाँति चपल है । वही वन्ध मोक्ष का मुख्य कारण है । अात्मा उसका अनुसरण करके नाना प्रकार की चेदनाएँ सहन करता है। इन सब पर विजय प्राप्त करने का सुगम उपाय आत्म-विजय है। जद प्रात्मा अपने विकारों पर विजय घाप्त करलेता है तब इन्द्रिय, मन आदि की शक्ति क्षीण हो जाती है और वे फिर प्रात्मा को विवेकहीन बनाकर कुमार्ग पर ले जाने में समर्थ नहीं हैं। इसलिए सूप्रकार फरमाते है कि अात्मा को जीत लेने पर लव को सहज ही जीता जा सकता है।
मूल-सरीर माहु नाव त्ति जीवो वुच्चइ नावित्रो ... संसारो अण्णवो वुत्तो जं तरांति महसिणो ॥ १० ॥
या-शरीरमाहुनौरिति जीव उच्यते नाविकः। .. ..... ... - संसारोऽर्णव उना, यं तरन्ति महर्षयः ॥ ३०॥ . . . . . .