Book Title: Jain Shiddhanta Pathmala
Author(s): Saubhagyachandra
Publisher: Ajaramar Jain Vidyashala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीमदअजरामरगुरवेनमः॥ जैन सिद्धांत पाठमाळा -संस्कृतछायायुता - [श्रीदशवैकालिक उत्तराध्ययन सूत्र छाया साये संपूर्ण तथा भक्तामर आदि पाठ स्तोत्र, पुच्छिमुणं अनं तत्त्वार्थाधिगम सूत्र मूल पाठ सहित ] शतावधान मुनिश्री सौभाग्यचंद्रजी. :प्रकाशक: कार्यवाहक, श्रीअजरामर जैन विद्याशाळा. लावडी-काठीनावाड. प्रथमावृत्ति: प्रत २००० वीर संवत २४५ वित्रय मंचन १९८६. किंमत रुपिया चार Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2211; 0% 4o #jariy સુનિશ્રી નાનચંદ્રજી વિચિત તથા તેમણે સંગ્રહુ કરી સુધારી આપેલ સસ્તુ સાહિત્ય આત્તિ. કિમત સુબોધ સંગીત માળા ભા ૧ ૨-૩ પાકું પુરું થાડી નકલાએ ખી∞ Y સદર ( સ્ત્રી ઉપયોગી ભાગ ત્રીજો ) ચેાથી ) બીજી ) સામાયિક સ્વરૂપ સંસ્કૃત સ્તોત્રો સહિત જૈન પ્રશ્નોત્તર કુસુમાવળા (વિદ્યાર્થીઓને અતિ ઉપયોગી) ત્રીજી )= સ્તોત્ર સંગ્રહ તત્ત્વાર્થ સૂત્ર સાથે ત્રીજી ॰) રેશીટેશન (ભાષણા-સંવાદો-ગાયના) ભા ૧-૨-૩ સાથે બીજી ll સંસ્કૃત કાવ્યાનંદ (ધણા ઉપયેાગી કાવ્યાને સગ્રહ) ખીજ સદર ભા. ૨-૩ (ચુંટી કાઢેલા જ્ઞાન વૈરાગ્ય ઉપદેશના •)= બા તુજાર શ્લોકાના સંગ્રહ) મૂળ તથા ભાષાતર સદ્ગિત પેલી આધ્યાત્મિક ભજનપદ પુષ્પમાળા પદે ૮૫૫ પાકું સળગ છીંટનું કુંડુ પૃષ્ટ પર ખીજી આવૃત્તિ કરતાં ટગણુ ત્રીજી ભજનપદ પુષ્પિકા ૫૬ ૨૧૩ ફાર્મ ૧૦ આધ્યાત્મિક પ્રબંધાવળી (સુગ્રીલ કૃત) પાંચ મણુકા પાકું પુરું Y આદર્શ સ્ત્રી રત્નો અડધી કિંમતે ફામ ૧૫ પેલી ન l સ વા શ્રીજી )ના ---. deep નમીરાજ (વાડીલાલ મોતીલાલ કૃત) રસમય તેવેલ ખીંજી ન જૈન સિદ્ધાંત પાઠમાળા (શ વૈકાલિક-ઉત્તરાધ્યયન સંપૂર્ણ મૂળ તથા ૮ સ્તોત્રો, પુચ્છિકુણુ તથા તત્વાર્થાધિગમ સૂત્ર ત્રીજી સખી ( સુશીલ કૃત ) જૈન સિદ્ઘાંત પ્રકરણ સંગ્રહ (૩૫ ચાકડા શાસ્ત્રી લિપિમા) બીજી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રની ૮૪ સ્થાઓ અર્ધી કિંમતે છંદ સંગ્રહ (અનેક છંદો, ભક્તામરાદિ સ્તોત્રોના સ ંગ⟩ત્રીજી ૦)# સામાયિક પ્રતિક્રમણ અથ સહિત ખીજી મા [ ll જૈન સિદ્ધાંત પાઠમાળા સંસ્કૃત છાયાયુક્ત પત્રાકારે કા` ૨૭ સદર પુસ્તકાકારે ૨૯ કામ` પા` પુઠુ સ્નાત્રો ને તત્વાર્થી સહિત ૨) મળવાનું દે.શ્રી અજરામર જૈન વિદ્યાશાળાના સેક્રેટરી,લીંબડી. .. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ निवेदन. श्रीजरामर जैन ग्रंथमाळानु २१९ पुस्तक प्राजे जैन नितामा चरणे धरतां अमोने खूब हर्ष थाय छे. प्रत्यार सुधीमां आ संस्था तरफथी या ग्रंथमालानां नाना मोटा २० वीस पुस्तको प्रसिद्ध थइ चूक्यां छे. जेनुं सूचिपन्न प्रा पुस्तकमा आपेल छे. ___ आगमो पैकी बहुजनमान्य अने प्रौपदेशिक चालु उपयोगी एवां वे सूत्रो-श्रीउत्तराध्ययन तथा दशवकालिक ने एकत्र करी "जैन सिद्धांत पाठमाळा " ए नामथी मात्र मूळपाठ [ दश वैकालिक संपूर्ण तथा उत्तराध्येयन आठ अध्ययन प्रथम अमदावादमा प्रसिद्ध थयेल तेनी नवी आवृत्ति वन्ने सूत्रो संपूर्ण तथा स्तोत्र संग्रह साथे या संस्था तरफीज प्रसिद्ध थयेल हती. ते श्रावृत्ति पण खलास थइ जवाथी गत चार्तुमास दरम्यान अने विराजता महाराजश्री नानचंद्रजी स्वामीने ते पुस्तकमा उपयोगी सुधारावधारा करी नवी आवृत्ति प्रगट करवानी अमारी वृत्ति अमोए जणावी. श्रा पाठमाळा संस्कृत छाया सहित वहार पडे तो वधु उपयोगिता जळवाशे एम तेश्रोत्रीने जणातां या ग्रंथने श्रावा स्वरुपे प्रगट करवा असगे भाग्यशाळी थया लीए. आयु मोटुं कार्य मात्र टुंक मुदतमांज छापीने तैयार करवामां प्रेस मेनेजरश्री हंसराजभाईनोसहकार पण कारणभूत के - छेवरे भावां अनेक प्रकाशनों माटे कविवर्य महाराजश्री नानचंगजी महाराजनो जेटलो हार्दिक उपकार मानीए तेटलो ओछो छे. तेश्रोश्रीनी कृपा प्रसादी संस्थानी उन्नतिमां अति अति सहाय्यक वनी छे अने अविच्छिन्न वनती रहो. सं. १९८६ ना ) कार्यवाहक मागशर शुद १५ । श्रीअजरामर जैन विद्याशाळा. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासंगिक वक्तव्य. जैन सिद्धांतोमा अतिप्रचलित. अने तेटलांज ज्ञानगंभीर बे सूत्रो श्रीउत्तराध्ययन तथा श्रीदशवकालिकनुं व्याख्यान द्वारा वारंवार अनुशीलन थयेलं, तेमां रहेली त्याग वैराग्यनी भावनाने समाजनी वर्तमानस्थितिने बंध वेसे तेवी रीते आध्यात्मिक दृष्टिबिन्दुथी घटाडवा पुनः पुनः प्रयत्न सेवेलो. अने तेथी पा अमृतभयाँ सूत्रोनो टुंकाणमां सस्कृत अर्थवालो टवो थाय तो संस्कृत भाषामा प्रवेश करनारने तेनु वांचन सुलभ थइ शके ते इरादाथी जुदेजुदे वखते बन्ने सूत्रोनो संस्कृत टवार्थ (शब्दार्थ पुरतो) में तैयार करी लहीमा पासे (न्याख्यान वाचनमाटे) पत्राकारे लखावी राख्यो हतो. दरस्यान गत चातुर्मास (लिंबडी)नी शल्यातमांज विद्याशाळाना कार्यवाहकोए "जैन सिर्वात पाठमाळा" नी नवी श्रावृत्ति पाववा माटे अने उपयोगी वधारो करवा मारी पासे मागणी करी. मने ते मागणी गमी गइ, परंतु विचार करता जणायुं के श्रावा उत्तम शास्त्रीय ग्रंथोने, पुस्तक प्रसिद्धिना श्रा युगमां वधु सरळ, सुगम्य वनाववाथी एटले के संस्कृत छायारूपे भाषान्तर करवाथी वधारे लोक ग्राह्य थशे, एथी ते बन्ने सूत्रोना टवा उपरथी संस्कृतछाया कठिन के पारिभाषिक शब्दोनां गुजराती टिप्पण साथे करवानो इरादो राखी ते कार्य आरंभवार्नु कवुल कयु. ते अरसामांज मारी तवीयत लथडी एटले के मूळ श्रजीर्णनुं दरद हतुं तेमां अमुक संजोगो मळवाथी वधारो थयो जेथी मगजमारीनुं काम हुँ जाते करी शकुं तेवी मारी स्थिति रही नहिं पाखरे में हाथमां लीधेलु कार्य संस्कृत अने प्राकृत व्याकरणना खास अग्यासी, विद्याविलासी अने उत्साही शिष्य मुनिश्री सौभाग्यचंद्रजीने सोप्यु. अने जेमजेम तबीयत सुधारा उपर श्राववा लागी तेमतेम दरेक मुफ तपासवान में Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण चालु राख्यु. परंतु, एकंदर तार्किकवरेण्यमुनिश्री सौभाग्यचंद्रजीए अविरत यल लङ्ग पोताना ताजा माननो पुरतो लाभ प्रापेल के अने अफवांचन विगेरे कार्यनो वोजो ठेठ सुधी सेव्यो के. _मारी तवीयतने कारणे संस्कृतछाया बनाववानो प्रयत्न मुनिश्रीनो होवाथी छायासंयोजक तरीके तेनुंज नाम दाखल कर मने पोताने योग्य लाग्यु के मुनिश्री चुनीलालजीए पण प्रुफ वांचनमा महत्त्वनो भाग लीधो के तेथीज पाटली त्वराथी आ पुलक प्रगट थइ शक्यु छे. श्रा रीते मारी योजनानो श्रा विभाग प्रगट थती जाइ मने संतोष उपजे छे. शासनदेवनी कृपा थशे तो अनुकुळताए वीजा उपयोगी विभागो पण प्रकाशमा प्रावशे. विशेषमा संस्कृत स्तोत्र संग्रह तथा तत्वार्थसूत्र मूळपाठ दाखल करवा छतां श्रा पुस्तकनुं मूळ जे नाम हतुं तेज अर्थात् “जैन सिद्धांत पाठमाळा" ज राखेल के. ___व्याकरण नियम माटे सूचन ए के मूळसूत्रनी भाषा प्राकृत साहित्यथी भिन्न पडती होइ केटलाक विद्वानोए सूत्र भाषाने अर्धमागधी तरीके अोळखावी छे तेथी प्राकृत नियमावलीथी भिन्न रूपो माटे शंकाने स्थानज नथी तोपण पूर्वाचार्योए मुद्रित करेली प्रतीने अनुलक्षी मूळपाठमां क्वचित् सुधारणाने पण स्थान प्राप्यु के ___ अंतिममा एकज वस्तु जणाववानी ते एज के दृष्टिदोषथी रही गयेल त्रुटिश्री प्रति सहृदयी विद्वद् वर्ग लक्ष्य खेंचाचशे तो नवी आवृत्तिमा तेनो जरुर अमल थशे. मुनि नानचंद्रजी. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्रक. * आवा चिहवाळा शब्दोना कानो, मात्र के अनुस्वार उडी गयेला के नहि उठेला समजवा. पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध | पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध १ १३ प्रिणा प्रीणा , १६ दुरो दरग्रो ३ १४ नेच्छति नेच्छन्ति २९ ६ प्राशुकं प्रासुकं ५ ४ पृच्छना प्रच्छना |३० १४ कप्पिथ कप्पियं ६ ३ वत्थी वस्थी ३२ ७ संसृष्टेन संसृष्टेन च ७ २१ वणया वणिया .. २४ (गर्विणी) (गुर्विणी) ९ १९ पातिका, पातिका, ३३ २१ ढिजा दिजा १० २ देवा. देवा सर्वे ३४ । प्रकल्पितम् कल्पितम् प्राणिनः ३५ १२ पमिच्च पामिच्च १३ १९ अल्पं तमल्यं । ३७ १९ दरुह दरोह सस्निग्धं-/४० २१ प्रचितं अचित्त (वावलं ४२ ७ श्राम्येदं शाम्यन्निदं १९ ११ तस्त तस्य |४३ १८ वयट्टा वयट्टा , १५ वीज वीज १९ नेपधि नैषेधि २१ २४ भूखानो भुखानो 1४५६ संका उपसंका २६ ८ तदा तदा ४ २२ द्रष्टवा दृष्टा २३ २१ गारिय गारियं (५१ ६ पूजत्ति पूजयन्ति २५ २३ सपत्ते संपत्ते |५२ ८ षष्टं २७ १२ विलो विनो५४ ईमुस मुसं , २२ भदरो दूरो ५५ ७ मुदभेद्य मुदभेद्यं २८ २ युद्ध युद्ध ।५६ ४ यावल्ल याचल (सस्निग्ध ३६ १२ संघट्टियासंघटिया Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ट पकि अशुद्ध ५६ ९ वी १७ वायसा 33 ५७ ५ 39 ५८ २३ वर्धनम ५९ ६० 15 १९ यस्य न 39 ६३ १८ विमणाई ६४ १० चीर्णो ६६ २ मंत ६७ २ पुत्र 55 "3 १३ मुदेसि 29 ६१ ६ सइतु सहत्तु १०पडिलहा पडिलेहा २ समहिश्रा समाहिया ५ पाद्यमेव " नप्त ६ नैवा १७ वा 25 ६८ २ योग्याः २२ नैव 33 ६९ १९ पक्काः शुद्ध वीप्र वयसा "" बर्धनम् "" 33 ७३ ५ ज ७४ १८ याचयि २० वत्य. 33 ७२ २० संमुच्छित पायमेव मुद्देस यस्य विमाणाई चीर्णा मन्त पुत्रो नते नैवमा वाऽपि *वेदेद्वा वदेद्वा पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ७५ २० खव्व सव्व ७६ २ तिष्टेत् तिष्ठेत् ७७ ४सुप्र ५ अतं १२ निदिसे च याचि 99 " ७९ १ सजान योग्याइति ९७ १७वश नैवं १०२ १८ दशमं पक्वाः १०५ १० भवि वत्य इति १०५ १२ भविष्य 99 समुच्छ्रित १०७ ,” स जान १४ विनिवतत विनिवर्तेत 33 ८० १४ सिंवंति सिंचन्ति ८५४ कुर्वन्त्य कुर्वन्त्या हीलिता हीलिता १७ पावग पावगं 23 ८६ ११ प्रवोधिम अवधिमा द ७ कप्पइ ● ७सिद्ध २१ सवच्छरं १९० १९ पण्डिए २० कीड शुद्ध ९० २० पकव्वइ ९१ २४ य छ ९३. ३ धाता ९६ ११ निजरार्थी निर्जरार्थी 99 सु श्रुतं निद्देसे कुप्पइ पकुब्वाइ यश्छ घाता वश दर्श श्रवि श्रपयास्य सिद्धं संवच्छर पंण्डिए कीड Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध २१२ १७५तुष्णि तुष्णिङ् १४७ १२ संसारम् संसार - १२० २२ सवेले सवेलए .णिज इव १२५ २२ शिष्य शास्य , १५ नन्तम् नन्त १२७ १० देवोवापि देवोवाऽल्प, २४ पापकर्म पापकर्म रजा १४६ ७ षणां षणा २२३ ८ विचिन्तयेत् समाचरेत, १० पलागं पुलागं , १२ चिन्तयेत् प्रेक्षेत , १६ चायें चाय १२५ १५ ज्ञात ज्ञान " २४ *भवात भवात , १९ नाना शान १४९ १२ डन्ति डन्तियथा १२६ ४ एवं एवमपि १५० ६ *णिका णिकी १२७ १६ क्षत्रिया क्षत्रिया: 1, १६ हिदि हिट्टि १२८ १५ प्रागत. पायात 1, २३ करिसि रिसि १२९ १८ महापन्न महापन्ने १५२ २० मि नमि , १९ वो वीर्यवान् श्च १५५ १२ रिसि रिसी वर्णवान् , १९ कि कि १३१ २३ पहाय प्रहाय १५६ १८ किचन किचन १३३ २३ ततो ततः स ], २२ ममि नर्मि १३९ १६ सर्वे सर्व १५७ १ प्राश्रम प्राश्रम १४१ १३ मुहो महो (१५७ १५ *दूस दुसं " २१ एव एवं १५८ २१ सल्ल सल्लं १४२ १ महिसे हिंसे १६० ९ पांडया पंडिया १४३ ११ सा यासा १६७ १४ रागेणा रोगेणा १५४ ७ भवति - १७० २१ यथा यथा स १४६ ३ सर्व सत्य १७३ १८ भूत भूत २४६ १९ श्चित् चित्कुर्वीत १७५ १५ स्थ तत्थ HEREEEEEEEEEEEEEEEEE Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महष वंभ पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध , २० हम्माणं हम्ममाण २१७ १६ तथा. तथा १७६ २० *जायतेय जायतेयं १२२१ ४ राज्य राज्यंतु " २२ मन्यथ मन्यध्वे २२२ १ एगण एगण १७७ १२ नसरण सरणं २४३ सिचई सिंचई १८३ ३ नह न चको २४५ २६ र्धको , २४ मचु मच्च २४६ ५मुवेइ सुवेह १८४ १४ अपरभवं परंभवं , १९ उत्तमाय उत्तमार्थ १८५ ७ कम्न कन्त २४७ कम कम्म १८७ १० तन्न तत्र " १७ दीर्घा दीर्घ , महर्षे १८८ २३ मिम इमं २५० १७ वर्म १९० १३ रजनी रजनिः२५२ १८७मूर्य १९३ ४ किचि किंचि २५७ १२सन्पुरि १९४ २३ *वद्धा वुद्धा , २४ सम सय १९६ ९ *पूय पूर्व २६२ १३ बुद्ध .. १६ भाम भौम २७२ १९ चेति ति १९८ २ भीमो भीमा २७३ श्यातम गौतम २०० १४ *काक्षा काता २७८ २१ अोधो श्रोधो २०३ १८ पणीय पणीय ८१ १८णुम्गाम गुमामं २०४६ माहरेत् माहारमाहरेत् २८४ ८ स्यन्तं स्यन्त , १३ *भोयण भोयणं , २० नमो बमो २०६ २ ग्रालय श्रालयं ५ ज्यांज्यां नमो होय त्यां २०७ ११ विमृपां विभूषां मो समजबू, २१० १२०अणाउत्त प्रणाउत्ते २८७ १६ धम्ममाण धम्माण २१५ ६ बन्धववो वधवो |, २९श्ययं kedIIth 1-##***##ILE: II यूयं Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध | पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शु २९२ ३ जे जं ३२१ ४ चत्वारि चतुर. २९३ ११ वधुणा वधुणा , लगे लिगे। २९४ ५ पृथ्व्यप् पृथ्व्यप्काय ३२१ १६ लेख लेखो ३०१ १७चारित्र चारि ३२२ १५ पुरिषाणं पुरिसाणं ३०३ २१५भूतार्थ भूतार्थे ।.. १७*किचन्यं किचन्यं ३०४ २ निसर्ग स निसर्ग ३२३ १५ राधना राधनता ३०५ १७ संस्तव. संस्तवोवा.. १७ सत्ति सत्ति ३११ सिद्धि सिद्धि २५ ३ वोहियत्तं वोहियत्तं " जीव. विनय प्रति-.. १० मंसे कम्मसे पन्नश्वजीव: तार तारे ३११ २१ सेदि सेढि .. ४ तप चा तपश्चा , २४ निन्दनेन निन्दनया | , २० मुच्यते मुच्यतेप३१२ १७ जीव. भदत!जीव रिनिर्वाति ३१३ ११ निरोध निरोध 1, २२ नियम निग्ग ३१५ १५ प्रच्छि प्रच्छ २७ आ पृष्टमां ज्यांज्यां प्रत्यय ३१६ ४ किं जीव किं होय त्यां मत्ययिकं समजई ३१६ २१कि कि३२८ ७ पूर्व पूर्व ३१८ १४ श्चातुर चातुर , १२ रात जरयात ३१९ १३ व्यव व्यु १३२९ १९ कर्मी कर्मता च , १९ पन्नो पन्नोऽपिच ३0 ४ कारिप्यमाण कुर्वाण ३२० ८ पन्नो पन्नश्च 30 ध्यन्न ध्यन्न , १७ समाधिवहुल. x १२ *हणं हेणं ३२१ २ मुबह मुबइपरि-1, २१ ख्यात. ख्यातः प्र निवाई , ४ पन्नोऽ पश्चा३३२ १८ घन घन Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93 ३५८ " ३५९ " 35 ૩૦ पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पंचमो ७ समासणे समासेण ३३३ १९ पचमो ३३३ ३३४ ३३७ चत स ३३८ सम्यकू नित्यं ३३६ १८ मण्डल मण्डले ३४३ र्धर्षय वर्षय ३४५ १५ एतादृशे श्रतादृशे दुःखौघ ३४८ २३ दुःखौध ३४९ २ पीपला ३५० १२ लोमा जीपला लोभा ३५२ १३ #तुट्टि ३५६ १२ सपीडा संपीडा तुि ३५७ १२ निवर्त निर्वर्त ९ चतु ६ सः A १५ *प्रद्वेष ८ पुंवेद ११ काम यद १५ #मेन ३ १४ अष्टौ 39 ३६३ इ ३६३ १४ कर्माणि ३६५ ६ खंजा प्रद्वेषं पुंवेढं यचा मेनं अटु प्रष्टैव होइ कर्मणि खंजां ११ ३८१ ३८२ २० श्रायता श्रायताः ३८६ २४ भाज्य: ३८७ २१ लिगे ३८६ २त्तर ३८५६सय काम ३८८ १४वोन्दि ४ श्रर्थान् प्रर्थान ३९० १#जेसि पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध १५ सकाशा संकाशा " ३६७ १० नां तिसृणामपि नाम 33 39 ३६६ ३६८ 39 ३६८ ३७२ प्रशस्तानाम् १३ नामप्रशस्ता नां पिष्य मापा १९ श्रयादशः यादृशः ९ नद्ध निद्ध १५ मर्षात २४ द्रष्टि २२ उक्कोसो उक्कोसा ४ सतई संतई ३९० २४ एत्ये ३९३ ५एएसि ३९३ १३ पज्जता ३९६ हज्णुक्का १२ पति 99 २० त्यक्त " २४ सस्था मर्षोऽत दृष्टि भाज्य. स लिंगे तरं सयं वोन्दि जेसि इत्ये एएसिं पजत्ता णुको पती त्यक्ते संस्था Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति अंशुद्ध शुद्ध ३९७ १६* मुमुरो ३९८ ३ दिका ४०१ १५ ह ४०२ २३ ककर्षेण ४०४ २२ विज मुर्मुरा दिका · मुहूर्त कर्षेण विज श्रयं तेसि ४०७ ९ऋत्रय ४११ २२ सि ४१२ १*माण ४१३ १६ व्यंतर ४२११९ योग्ये ४२२ २ दुर्जमा ४२३ ११ अलिना ૨૭ ३ प्रसृते प्रसूते माण व्यंतरा કુર્ | पृष्ठ पंक्ति अंशुद्ध शुद्ध दग्धो मंत्र. ४३८ १६ #दाघां ३३ १३ श्रमं हैं, ४३९ ४४१ ४६ १५ श्रद्ग 'दुगू ● १५ दश्यते दृश्यते बंध: ... ३ वधः २४७ १३ * सम ३४७ २१ त्रिश ४४८ ११ क ४८ १२ पूर्व ४४८ १५ कि योग्यं दुर्लभा ३५० १ णांप लिवां २५४ ६ बाह्य ४५६ १५ त्रि संमू खिंश कि पोप बाह्य खिं ऋण ऋण बार प्रुफ जोवाया छतां पर्वाच दृष्टिदोषथी अस्पष्ट थवाने यंगे तथा अक्षरो उडी जवाथी शुद्धिपत्रक आप डयुं छे, अने धारवा करतां लवाण पण थयुं के ते ददल गुणग्राही aranवर्ग पासे असो क्षन्तव्य इच्छीये हीये. : थने सुधारीने वांचवा भलामण करीए की मूलपाठनुं पुस्तक, तेनुं छायायुक्त पुस्तक, धने पत्राकार छायायुक्त या प्रमाणे त्रण गर्छु काम थवाथी धावा करतां समयनो व्यय घणो थयो छे ने तेवां कारणे या पुस्तकोनां प्र.हकांने मोडुं युं हे ते बदल दिलगीर क्रीये. [ प्रकाशक: ] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ * नमो समणस्स भगवओ महावीरस्स जैन सिद्धांत पाठमाळा संस्कृतच्छायायुतं दशवैकालिक सूत्रम् । ॥ दुमपुफिया पढमं अभय || ॥ द्रुमपुष्पिकानाम प्रथममध्ययनम् ॥ हिंसा संज्ञमी तयो । जस्स धम्मे सया मो धम्मी मंगल, देवा वितं नर्मसंति, धर्मे मंगल मुल्कुष्ट महिंसा संयम स्तपः देवा अपि तं नमस्येति यस्य धर्मे सदा मनः जहा दुमरस पुप्फेसु, भमरो प्राविग्रह रसं । य पुष्कं किलामेर, सोय पी अप्प यथा द्रुमस्य पुप्पेषु भ्रमर आपिवति रसम् । न च पुष्पं कामयति स च प्रियात्यात्मानम् एमेए समगा सुत्ता, जे लोप संति साहुयो । विहंगमा च पुण्के, दाणभत्तेसणारया एवमेते श्रमणा मुक्ता ये लोके सन्ति साधवः । विहंगमा इव पुष्पेषु दानभक्तेपणा (यां) रताः ॥१॥ ॥१॥ ॥२॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥३॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाउमाळा. वयं च वित्तिं लभामो, ण य कोइ उवहम्मद । अहागडेसु रोयंते, पुप्फेसु भमरा जहा પાછા वयं च वृत्ति लप्स्यामो न च कोऽप्युपहन्यते ।। यथाकतेषु रीयंते पुष्पेषु भ्रमरा यथा । ||४|| महगारसमा वुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया । नाणापिंडरया दंता, तेण बुच्चंति साहुणो पत्ति वेमि ५॥ इति दुमपुफियानाम पढमममयण समत्तं ॥१॥ मधुकरसमा बुद्धा ये भवन्त्यनिश्रिताः । नानापिण्डरता दान्ताः तेनोच्यन्ते साधवः ॥५॥ इति ब्रवीमि । इति द्रुमपुष्पिकानाम प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥ अह सामण्णपुव्वयं दुइअं अज्झयण ॥ ॥ अथ श्रामण्यपूर्वकं द्वितीयमध्ययनम् ।। कहनु कुजा सामगणं, जो कामे न निवारए । पए पर विसीयंतो, संकप्पस्स वसं गयो ॥१॥ कथं न कुर्या च्छामण्यं यः कामान्ननिवारयेत् । पदेपदे विषीदन् संकल्पस्य वशंगतः वत्थगंधमलकार, इत्थीमो सयणाणि या अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइ त्ति 'वुच्चह ॥२॥ वस्त्रं गन्धमलकारं स्त्रियः शयनानि च । परवशा(अच्छन्दा:)ये न भुअन्ते न ते त्यागिन इत्युच्यते ||२|| जे य ते पिए भोए, लद्धे विपिटि कुबइ । साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चह 'प्राकतत्वादेकवचनम् Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विवाहि दोस लोकमार्य कामान् यसि संपराये ॥९॥ दशवकालिक सूत्र अध्ययनं २. य श्च कान्तान्प्रियान् भोगान् लब्धान् विष्टष्टीकुरुते ।। स्वाधीनान् त्यजति भोगान् स हि त्यागीत्युच्यते ॥३॥ समाइ पेहाइ परिचयंतो, सिया मणो निस्सरई वहिद्धा । नसा महं नोवि अहं पि तीसे, इच्चेव ताश्रो विणएज राग ॥४॥ समया प्रेक्षया परिव्रजतः स्यान्मनो निःसरति बहिः । न सा मम नोऽप्यहं तस्याः इत्येव तस्या विनयेत रागम् ॥४॥ पायावयाही चय सोगमलं, कामे कमाहि कमियं खु टुक्खं । विंदाहि दोसं विणएज्ज राग, एवं सुही होहिसि संपराए ॥५॥ आतापय त्यन सौंकुमार्य कामान् काम क्रमितं खलु दुःखम् । छिन्द्धि दोषं विनयेद्रागं एवं सुखी भविष्यसि संपराये ॥५॥ पक्खंदे जलिय जोई, धूमके दुरासयं । नेच्छंति तय भोत्तुं, कुले जाया अगंधणे प्रस्कन्देत ज्वलितं ज्योतिः धूमकेतुदुरासदम् । नेच्छति वान्तं भोक्तुं कुले जाता अगन्धने धिरत्थु तेऽजसोकामी, जो तं जीवियकारणा । वंतं इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे ॥७॥ घिगस्तु त्वामयशस्कामिन् यस्त्वं जीवितकारणात् । वान्तमिच्छस्यापातुं श्रेयस्ते मरणं भवेत् अहं च भोगरायस्स, तं चऽसि अंधगवगिहणो । मा कुले गंधणा होमो, संजम निहुश्रो चर अहं च भोगराजस्य त्वं चास्यन्धकवृष्णेः । माकुले गन्धनौ भूव संयम निभृत श्वर ॥॥ जह ते काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारियो। वायाविद्धो ब्च हडो, अद्विअप्पा भविस्ससि n ॥६॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. यदि त्वं करिष्यसि भावं, या या द्रक्ष्यसि नारीः । वाताविद्ध इव 'हट्टः तीसे सो वयणं सोचा, अंकुसेा जहा नागो, स्थितात्मा भविष्यसि संजयाइ सुभासियं । धम्मे संपडिवाइश्री संयतायाः सुभाषितम् । धर्मे संप्रतिपादितः ॥ १० ॥ तस्याः स वचनं श्रुत्वा अंकुशेन यथा नागः एवं करति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा । विणियति भोगेसु, जहा से परिसुत्तमां ॥ त्ति बेमि ॥ ११ ॥ इति सामरणपुव्वयं नाम असणं समत्तं ॥२॥ एवं कुर्वन्ति संबुद्धा: पंडिता: प्रविचक्षणाः । विनिवर्तन्ते भोगेभ्यः यथा स पुरुषोत्तमः ક ||९|| ॥१०॥ ॥११॥ ॥ इति श्रामण्यपूर्वकं द्वितीयमध्ययनं समाप्तम् ॥ ॥ ग्रह खुड्डयायारकहा तइयं ग्रयणं ॥ ॥ अथ क्षुल्लकाचारकथानामतृतीयमध्ययनम् ॥ संजमे सुश्रिप्पा, विष्पसुकाण ताइ । तेसिमेयमारणं, निग्गंथारा महेसिणं संयमे सुस्थितात्मनां विप्रमुक्ताना त्रायिणां । तेषामेतदनाचीर्ण निग्रन्थानां महर्षीणाम् उदेसियं कीयगड, नियागमभिहाणि य । राइभत्ते सिणा य, गंधमले व बीय औदेशिकं क्रीतकृतं [क्रयक्रीतं ] 'नियोगिक मभ्याहतानि चा रात्रिभक्तं स्नानं च गन्धमाल्ये च वीजन ॥२॥ ॥॥ ૧ વૃક્ષનુ નામ છે. ૨ આમંત્રણ આપે ત્યાજ પિલે તે ॥१॥ ॥१॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 120 ॥ दशवकालिक सूत्र अध्ययनं ३. ५ संनिही गिहिमत्ते य, राबपिंडे किमिच्छए । संवाहणा देतपहोयगा य, संपुच्छरणा देहपलोयगाय ॥३॥ सन्निधि गृहिपात्रश्च रानपिगडः 'किमिच्छकः । संवाहनं इन्तप्रधाननं च संप्टच्छना देहप्रलोकना च ॥३॥ अहावरा य नालीय, इत्तस्स य धारणद्वार। तेगिच्छ पाहणापाए, समारंभं च जोइणो 'अष्टापदं च नालिका छत्रस्य च धारणमनाय । चकिम्य पादोपानहीं समारंभशज्योतिषः ॥॥ सिन्नायरपिंड च, प्रासंदीपलियंकए । गिहतरनिसिम्ता य, गायसमुपट्टणाणि य । गय्यान्तरपिण्ड २ आसया पर्यवश्च । गृहान्तरनिपद्या च गावस्योद्वर्तनानि च गिहिणी वेश्यावडियं, ता य प्राजीवत्तिया । तत्तानिबुडभोत्तं, पाउरस्सरणाणि य गृहिणो वयावृत्यञ्च या च "आनीववृत्तिता । तप्तानिवृत्तभोनित्वं आतुरम्मरणानि च मूलए सिगवेर य, उच्छुखंडे अनिम्बुडे । कंटे मूले च सचित्त, फले बीए व प्रामा मूलकः शृंगवेरञ्च इतुखण्डोऽनिवृत्तः । कन्डो मूलं च सचित्तं फलं वीज चामकम् सोवञ्चले सिंधवे लोणं, रोमालोणे य श्रामए । सामुद्दे पातुखारे य, कालालोणे य ग्रामए ॥ ૧ ચાલે કેને ભજન જેઇએ તેમ લાવીને આપે તે ર થત વિશેષ ૩ ઇંત વિશે જતિ કુલજણાવી જીવન ચલાવે તે Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. 'सौवर्चलं सैन्धवं लवणं रुमालवणं चामकम् । सामुद्रं पांशुक्षारश्च धुवणे ति वमणे य, अंजणे दंतवणे य, कृष्णलवणं चामकम् वत्थीकम्मविरेयये । गायभंग विभूसणे बस्तिकर्म विरेचनम् । गात्राभ्यंगविभूषणे धूपनमिति वमनश्च अञ्जनं दन्तवर्णश्च सव्वमेयमणानं निम्गंथारा महेसिंगं । संजमम्मि जुत्ताणं, लहुभूयविहारिणं सर्वमेतदनाचीर्णं निर्ग्रन्थानां महर्षीणाम् । संयमे च युक्तानां लघुभूतविहारिणाम् पंचासवपरिणाया, तिगुत्ता छ संजया । पंचनिगहणा धीरा, निर्माथा उज्जुदंसिणो पंचास्रवपरिज्ञाताः त्रिगुप्ताः षट्सुसंयताः । पंचनिग्रहणाधीरा निर्मन्था ऋजुदर्शिनः श्रयावयंति गिम्हेसु, हेमंतेसु श्रवाउडा । बासासु पडिलीणा, सञ्जया सुसमाहिया आतापयन्ति ग्रीष्मेषु हेमन्तेष्वप्रावृताः । वर्षासु प्रतिसंलीनाः संयताः सुसमाहिताः परीसहरिऊयंता, धूश्रमोहा जिरंदिया | सव्वदुक्खपहीगठ्ठा, पक्कमन्ति महेसिणो परिषहरिपुदान्ताः धुतमोहा जितेन्द्रियाः । सर्वदुःखप्रचयार्थ प्रक्राम्यन्ति महर्षयः ૧ સથળ. ॥८॥ ॥ell ॥९॥ 112011 ॥१०॥ ॥११॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१३॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक सूत्रं प्रध्ययनं ४. ॥१४॥ दुक्कराई करित्ताणं, दुस्सहाई सहित्तु य । केर स्थ देवलोपसु, केर सिज्मन्ति नीरया दुष्कराणि कृत्वा दुःसहानि सहित्वा च । केचित्तत्र देवलोकेषु केचित्सिध्यन्ति नीरजसः खवित्ता पुच्चकम्माई, सजमेण तवेण य । सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता, ताइयो परिणिन्डा ॥ति बेमि १५ ॥ इति खुड्डुयायारकहा नाम तइयमज्मयणं समत्तं ॥३॥ क्षपयित्वा पूर्वकर्माणि संयमेन तपसाच सिद्धिमा र्गमनुप्राप्ताः त्रायिणः परिनिर्वृत्ताः 112911 इति ब्रवीमि । इति क्षुल्लका चारकथानाम तृतीयमध्ययनं समाप्तम् ॥ ग्रह छज्जविशियानामं चउत्थं अज्झयणं ॥ ॥ अथ षड्जीवनिकानाम चतुर्थमव्ययनम् ॥ 1 un सुर्य मे उसंतें भगवया एवमक्खायें, इह खलु छज्जीवणिया नामज्यां समरोणं भगवया महावीरेां कासवेणं पवेइया सुक्खाया सुपनन्ता सेयंमे ग्रहिज्जिडं अज्मयं धम्मपराणत्ती । श्रुतं मया आयुष्मता भगवता एवमाख्यातमिह खलु षड्नीवनिका ( नामाध्ययनं ) श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिता स्वाख्याता सुप्रज्ञप्ता श्रेयोमेऽध्येतुमध्ययनम् (यतः ) धर्मप्रज्ञप्तिः ॥ करा खलु सा छज्जीवया नामज्भयणं समरोग भगवया महावीरेण कासवेणं पवेइया सुप्रक्खाया सुपन्नता सेयं मे अहिजितं श्रज्मयणं धम्मपराणत्ती || Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन सिद्धांत पाठमाळा. कतराखलु सा षड्जीवनिका (तन्नामाध्ययन) श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिता स्वाख्याता सुप्रज्ञप्ता श्रेयोमेऽध्येतुमध्ययनं (यतः) धर्मप्रज्ञप्तिः। 'इमा खलु सा छज्जीवणिया नाममायणं समणेण भगवया महावीरेण कासवेणं पवेइया सुक्खाया सुपन्नत्ता सेयं मे अहिन्जिङ अज्मरणं धम्मपन्नती । इयंखलु सा षड्जीवनिका (तन्नामाध्ययन) श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिता स्वाख्याता सुप्रज्ञप्ता श्रेयोमेऽध्येतुमध्ययनम् (यतः) धर्मप्रज्ञप्तिः । तं जहा-पुढविकाइया, प्राउकाइया, तेउकाइया, बाउकाझ्या, वणस्सइकाइया, तसकाइया । पुढवी चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं । पाऊ चित्तमंतमक्खाया प्रणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणपणं । तेऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नस्थ सत्थपरिणएणं । वाऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं । वणस्सई चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अशय सस्थपरिणएणं । तं जहाअग्गवीया, मूलवीया, पोरवीया, खंधवीया वीयरुहा, संसुच्छिमा, तणलया, वणसरकाइया, सवीया, चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा, पुढोसत्ता, अन्य सस्थपरिणरणं । से जे पुण इमे प्रणेगे वहवे तसा पाणा, तं जहा-अंडया, पोयया, जराउया, रसया, संसेइमा, संमुच्छिमा, उभिया, उववाइया, जेर्सि केसि च पाणाणं, अभिज्ञतं, पडिकतं, संकुचियं पसारियं, रुयं, भंत, तसियं, पलाइयं, श्रागइगडविनाया, जे अ कोडपयङ्गा जा य कुंथुपिपीलिया, सब्वे वेदिया, सव्वे तेइंदिया, सव्वे चउरिदिया, सव्वे पंचिंदिया, सब्वे तिरिक्खजोणिया सव्वे Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दशवैकालिक सूत्र अध्ययनं ४. नेरइया, सव्वे माया, सब्वे देवा, सत्वे पाणा, परमाहम्मिया, एसो खलु छठो जीवनिकायो तसकायो त्ति पवुच्चद। इच्चेसि छण्हं जीवनिकायाणं नेव सयं दंड समारंभिज्जा, नेवन्नेहिं दंड समारंभाविज्जा, दंड समारंभन्ते वि अन्ने न समणुजाणेजा, जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मोण वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतपि अन्नं न समाजाणामि । तस्स भंते पडिकमामि निन्दानि गरिहामि अप्पाणं चोसिरामि ॥ सायथाः-पृथ्वी कायिका, अपकायिका, तेजस्कायिका, वायुकायिका, वनस्पतिकायिका, त्रसकायिका | पृथ्वी चित्तवत्याख्याता, अनेकजीवा, पृथक्सत्वा, अन्यत्र 'शस्त्रपरिणतायाः। आपश्चित्तवत्याख्याता अनेक जीवा: पृथक्सत्वा अन्यत्रशस्त्रपरिणताभ्यः । तेनश्चित्तवदाख्यातं अनेकनीवम् पृथकसत्वम् अन्यत्रशस्त्रपरिणतात् । वायुचित्तवानाख्यातोऽनेकजीवः पृथक्सत्वोऽन्यत्र शस्त्रपरिणतात् । वनस्पतिश्चित्तवत्याख्याताऽनेकनीवा पृथक् सत्वाऽन्यत्रशस्त्रपरिणतायाः। सा यथा-अग्रबीना, मूलवीजा, पर्वबीना, स्कन्धवीना, बीजरुहा, संमूर्च्छना, तृणलता, वनस्पति कायिका सवीजाचित्तवत्याख्याताऽनेकज़ीवाऽन्यत्रशस्त्रपरिणतायाः ॥ ते ये पुनरिमेऽनेके बहवस्त्रसाः प्राणिनस्तेयथा अंडजाः, पोतनाः, जरायुना', रसनाः, संस्वेदनाः, संमूर्च्छनाः औत्पातिका, येषां केषां च प्राणिनामभिक्रान्तं, प्रतिक्रान्तं, संकुचितं, प्रसारितं, रुतं, भ्रान्तं, त्रसितं, पलायितमागतिर्गतिः (तैः) विज्ञाता येच कीटपतंगा याश्चकुन्युपिपीलिकाः सर्वेद्वीन्द्रियाः सर्वे त्रीन्द्रियाः ૧ શસ્ત્રથી છેદાથા વગરની. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. सर्वे चतुरिन्द्रियाः सर्वेपंचेंद्रियाः, सर्वतिर्यग्योनयः, सर्वेनारकाः, सर्वे मनुनाः, सर्वदेवाः परमाधार्मिकाश्च एषः खलुषठो जीवनिकायस्त्रस कायइति प्रोच्यते ॥ इत्येषांषगणां जीवनिकायानां (जीवनिकायेषु) नैव स्वयंदंड समारभेत, नैवान्यैर्दण्डं समारंमयेत्, दण्डान् समारभमाणानप्य न्यान् न समनुजानीयात् । यावज्जीव त्रिविधं त्रिविधेन मनसा, वचसा, कायेन, नकरोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजा नामि तस्य (तस्मात्) हे भदन्त (भगवन् ) प्रतिक्रमामि, निन्दा मि, गहें, आत्मानं व्युत्सृजामि ॥ पढमे भन्ते ! महत्वए? पाणाइवायाभो वेरमणं । सबै भन्ते ! पाणाइवायं पञ्चक्खामि । से सुहुमं वा, वायरं वा तसं वा, थावरं वा, नेव सयं पाणे अइवाइज्जा, नेवऽन्नहि पाणे अइवायाविज्जा, पाणे अइवायन्तेऽवि अन्ने न समगुजाणामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतपि अन्नं न समाजाणामि, तस्स भंते ! पडिकमामि निन्दामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। पढमे भन्ते ! महन्वए उवडिप्रोमि सव्वानो पाणाइवायायो वेरमणं ॥१॥ प्रथमे भदन्त (हे भगवन्) महाव्रते? प्राणाति पाताद् विरमणम्, सर्वं भदन्त (हेभगवन्) प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि, तत् सूक्ष्मं वा, वादरं वा, त्रसं वा, स्थावरं वा, नैवस्वयं प्राणिनमति पातयामि, नैवान्यैः प्राणिनमतिपातयामि, प्राणानतिपात यतोऽप्यन्यान् न समनु जानामि, यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा, Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक सूत्र अध्ययनं ४. वचसा, कायेन, न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं नसमनुजा नामि, तस्य (तस्माद्) भदन्त (हे भगवन् ) प्रतिक्रमामि, निन्दामि, गहें, आत्मानंव्युत्सनामि, प्रथमे भदन्त (हे भगवन् ) महाव्रते उपस्थितोऽस्मि, सर्वस्मात् प्राणातिपाताद्विरमणं ॥१॥ ___ अहावरे दुम्चे भन्ते ! महन्वए मुसाबायाश्रो वेरमणं । सर्व भन्ते ! मुसावायं पञ्चक्खामि । से कोहा वा, लोहा वा, भया वा, हासा वा नेव सये मुर्स वइजा नेवऽन्नेहि मुसं वायाविब्जा, मुसं वयन्ते वि अन्न न समणुजाणामि जावज्जीवाए, तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारण न करेमि न कारवेमि करतपि अन्नं न समगुजाणामि । तस्स भन्ते ! पडिकमामि निन्दामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । दुच्चे भन्ते ! महब्बए उवडियोमि सवायो मुसावायायो वेरमणं ॥२॥ ___अथापरे द्वितीये भदन्त (हे भगवन् ) महाव्रते मृषावादाद्विरमणम् , सर्वभदन्त (हे भगवन् ) मृषावादप्रत्याख्यामि, तद्यथा क्रोषाहा, लोभाहा, भयाहा, हास्याहा, नेव स्वयंमृषावदामि, नेवान्यैर्मषावादये, मृषावदतोऽप्यन्यान् न समनुनानामि, यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा, वचसा, कायेन, नकरोमि नकारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि, तस्य (तस्माद) भदन्त (हे भगवन् ) प्रतिक्रमामि, निन्दामि, गहें आत्मानं व्युत्सनामि, द्वितीये, भदन्त (हेभगवन् ) महाव्रते उपस्थितोऽस्मि, सर्व स्मान् मृपावादाद्विरमणम् ॥२॥ ___ अहावरे तच्चे भन्ते ! महन्वए? अदिन्नादाणाश्रो वेरमणं । सव्वं भन्ते ! अदिनादायं पञ्चक्खामि । से गामे वा, नगरे Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जैन सिद्धांत पाठमाळा. वा, रगणे वा, अष्प वा, वहुं वा, अणुं वा, थूलं वा वित्तमंत वा, अचित्तमतं वा, नेव सय अदिन्नं गिरिहजा, नेवऽन्नेहि अदिन्न गिगहाविज्जा, अदिन्नं गिरहन्ते वि अनेन समणुजाणामि जावजीवाए तिविहं निविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारबेमि करतंपि अन्नं न समाजाणामि । तस्स भन्ते ? पडिकमामि निन्दामि गरिहामि अप्पाणं बोसिरामि तच्चे भन्ते ! महब्बए उवडियोमि सन्चायो अदिनादाणाग्री चरमणं ॥३॥ अथापरे तृतीये भदन्त (हे भगवन् ) महाव्रते अदत्तादाना द्विरमणम् , सर्व भदन्त (हे भगवन् ) अदत्तादानं प्रत्याख्यामि । तद् ग्रामे वा नगरे वा अरण्ये वा अल्पं वा बहु वा, अणु वा, स्थूलं वा, चित्तवडा, अचित्तवता, नैवस्वयं प्रदत्त गृह्णामि, नैवान्यैरदत्तं ग्राहयामि, अदत्तं गृह्णतोऽप्यन्यान न समनु जानामि, तस्य (तस्माद्) भदन्त (हे भगवन् ) प्रतिक्रमामि, 'निन्दामि, गहें, आत्मानव्युत्सृजामि तृतीये भदन्त (हेभगवन् ) महाव्रते उपस्थितोऽस्मि, सर्वस्माददत्तादानाद्विरमणम् ||३|| अहावरे चउत्थे भन्ते ! महन्वए मेहुणाश्रो वेरमणं । सब भन्ते ! मेहुणं पञ्चक्खामि । से दिव्य वा, माणुसं वा, तिरिक्खजोणियं वा, नेव सयं मेहुणं सेविजा, नेवन्नहि मेहुणं सेवाविजा, मेहुणं सेवन्ते वि अन्ने न समाजाणामि । जावजीवाए तिविहं तिविहेणं अणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतपि अन्नं न समाजाणामि । तस्स भन्ते ! पडिकमामि निन्दामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । चउत्थे भन्ते ! महब्बए उवठिोमि सन्चायो मेहुणाओवेरमरणं ॥ ४॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. प्रतिक्रमामि, निन्दामि, गर्हे, आत्मानं व्युत्सृजामि । पंचमे भवन महाव्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्मात् परिग्रहाद्विरमणम् ॥५॥ १४ महावरे छुट्टे भन्ते ! वय राइभोरणाश्रो वेरमणं । सर्व्व भन्ते ! राहभोयां पच्चक्खामि । से असणं वा पाय वा, खाइ वा साइमं वा । नेव सर्व राई भुंजिजा नेवन्नेहिं राई जाविजा, राई भुंजतेऽवि अन्ने न समगुजाणामि । जावजीवार, तिविहं तिविहेरी मणेरी वायाए कापणं न करेमि न काम करतपिन्नं न समजाणामि । तस्स भन्ते पकिमामि निन्दामि गरिहामि श्रप्पा वोसिरामि । बड़े भंते ! ar sage मि सव्वाश्रो राहभोश्रणायो वेरमणं ॥ ६ ॥ चेयाई पंच महत्वयाई राहभोगावेर माछाई प्रतहियट्टियाए उपजिता गं विहरामि ॥ अथापरे षष्ठे भवन् ! व्रते रात्रिभोजनादूविरमणम् सर्व भवन् ! रात्रिभोजनं प्रत्याख्यामि । तदर्शनं वा पानं वा खाद्यवा 1 स्वाद्यं वा नैवस्वयं रात्रौ भुझें, नैवान्ये रात्रीभोजयामि, रात्रौभुआनानप्यन्यान् न समनुजानामि । यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वचसा कायेन नकरोमि नकारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि, तस्य (तस्माद् ) भवन् प्रतिक्रमामि, निन्दामि, गहें, आत्मानं व्युत्सृजामि । षष्ठे भवन् व्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्माद्ात्रिभोजनादृ 1 'विरमणम् ॥६॥ इत्येतानि पञ्च महाव्रतानि रात्रिभोजन विरमणषष्ठानि आत्महितार्थमुपसंपद्य विहरामि || से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडियपच्चrateपावकम्मे दिशा वा राम्रो वा एगप्रो वा परिसागो वा सुते वा जागरमा वा से पुढविं वा भित्ति वा सिलं वा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दशवकालिक सूत्र अध्ययनं ४, १५ लेखवा ससरक्खं वा कार्य ससरक्ख वा वत्थ हत्थेणवा पारण वा कष्टेण वा किलिंचेण वा अंगुलियाए वा सिलागए वा सिलागहत्येण वा न प्रालिहिजा, न विलिहिज्जा, न घहिज्जा, न भिदिजा अन्नं न प्रालिहाविजा न विलिहाविजा न घट्टाविजा न मिंदाविजा । अन्न प्रालिहंत वा, विलिहंत वा, घहत चा, भिदंत वा न समणुजाणिजा। जावज्जीवाए तिविह तिविहेण मणेणं वायाए कारण न करेमि न कारवमि करते पि अन्न न समाजाणामि तस्स । भते! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥२॥ स भिक्षुर्वा भिक्षुकीवा संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यात पापकर्मा, दिवा वा रात्रौ वा एकाकी वा परिषद्तो वा सुप्तो वा जाग्रहा पृथिवों वा भित्तिं वा शिलां वा लोटं वा सरजस्कं वा कार्य सरजस्कं वा वस्त्र, हस्तेन वा, पादेन वा, काप्टेन वा, 'किलिचेन वा, अंगुलिकया वा, शलाकया वा, शलाकाहस्तेन वा, नाऽऽलिखेत् , नविलिखेत् , नघट्टयेत , नभिन्द्यात् अन्य नाऽऽलेखयेत्, न विलेखयेत् , नघट्टयेत् , नभेदयेत् , अन्यमालिखन्तं वा, विलिखन्तं वा, धट्टयन्तं वा, भिन्दन्तं वा, न समनुजानामि, यावज्जीवं त्रिविधंत्रिविधेन मनसा वचसा कायेन नकरोमि नकारयामि । कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुनानामि तस्य (तस्माद्द) भवन् ! प्रतिक्रमामि, निन्दामि, गहें, आत्मानंव्युत्सनामि ॥१॥ से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे, दिघा वा, राम्रो वा, एगो वा, परिसागो वा, सुत्ते वा, जागरमाणे वा, से उदर्ग घा, भोर्स वा, हिम वा, महियं वा, करगं घा, हरितणुगे वा, सुद्धोदगं ૧ ખીલાથી. - - Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. वा, उदल्लं वा कार्य, उदउलं वा वस्थ, ससिणिद्धं वा कार्य, ससिणिद्ध वा वत्थ न प्रामुसिजा, न संफुसिजा, न श्रावीलिजा, न पवीलिजा, न अक्खोडिजा, न पक्खोडिजा, न श्रायाविजा, न पयाविजा, अल्नं न श्रामुसाविजा, न संफुसाविजा, न प्रावीलाविजा, नं पवीलाविजा, न अक्खोडाविजा, न पक्खोडाविजा, न अायाविजा, न पयाविजा, अन्न प्रानुसतं वा, संफुर्सतं वा, प्राविलंत वा, पवीलेत वा, अक्खोडतं वा, पक्खोडतं वा, पायावन्तं वा, पयावन्तं वा न समणुजाणिज्जा, जावजीवाए, तिविहं तिविहेण मणेण वायाए कारण न करेमि न कारवेमि करन्त पि अन्लं न समाजाणामि । तस्स भन्ते ! पडिकमामि निन्दामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ २॥ - स भिक्षुर्वा, भिक्षुकी वा, संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यात पापकर्मा, दिवा वा, रात्रौवा, एकाकी वा, परिषद्गतोवा, सुप्तो वा, जाग्रहा, तदुदकं वा,'अवश्यायं वा,हिमं वा, मिहिकां वा,करकां वा, हरतनुंवा, शुद्धोदकं वा, उदकाई वा कायं, उदका वा वस्त्रम् , नाऽऽमृशेत्, न संस्टशेत् , नाऽऽपीडयेत् , न प्रपीडयेत् , नाऽऽ स्फोटयेत् , न प्ररफोटयेत् , नाऽऽतापयेत् , न प्रतापयेत्, अन्य नाऽऽमर्शयेत्, न संस्पर्शयेत्, नाऽऽपीडयेत् , न प्रपीडयेत् , नाssस्फोटयेत्, न प्रस्फोटयेत् नाऽऽतापयेत् न प्रतापयेत्, अन्यमामृगन्तम्, वा संस्टशन्तम् , वाऽऽपीडयन्तम् वा प्रपौडयन्तम्, वाऽऽस्फोटयन्तम् वा प्रस्फोटयन्तम् वा, आतापयन्तम् वा प्रतापयन्तम् वा, न समनुजानामि, यावजीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वचसा ૧ ઠારનું પાણી. ૨ ધુંસરનું પાણી. ૩ ઝાકળ. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दशवकालिक सूत्र अध्ययनं ४. १७ कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि, तस्य (तस्मात् ) भवन् ? प्रतिक्रमामि, निन्दामि, गहे, आत्मानं व्युत्सृनामि ॥२॥ से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा, संजयविरयपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे, दिशा वा, राम्रो वा, एगो वा, परिसागश्री वा, सुत्ते वा, जागरमाणे वा, से अगणिं वा इंगालं वा, मुग्मुरं वा, अचि वा, जाल वा, अलायं वा, सुद्धागणि वा, उधं वा, न उजिजा, न घटिजा, न मिदिजा, न उजालिजा, न पजालिजा, न निवाविजा, अन्नं न उजाविजा, न घट्टाविजा, न भिदाविजा, न उजालाविज्ञा, न पजालाविजा, न निवाविजा, अन्नं उंजन्त वा, घट्टतं वा, भिदंत वा, उजालंतं वा, पजालंतं वा, निव्वावंतं वा, न समजाणिजा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करत पि अन्नं न समगुजाणामि । तस्स भन्ते! पडिकमामि निन्दामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥३॥ स भिक्षुर्वा, भिक्षुकीवा, संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यात पापकर्मा, दिवा वा, रात्रौ वा, एकाकी वा, परिषदगतो वा, सुप्तो वा, जाग्रहा, स अग्निवा अंगारंवा, ममुरंवा, अर्चाि, ज्वालां वा, अलातं वा, शुद्धाग्नि वा, उल्कां वा, नोत्सिञ्चेत् , न घट्टयेत् , न भिन्द्यात् , नोज्ज्वालयेत् , नप्रज्वालयेत् , न निर्वाययेत् , अन्यनोत्सेचयेत् , न घट्टयेत् , न भेदयेत् , नोज्ज्वालयेत् , न प्रज्वालयेत् , ननिर्वापयेत् , अन्यमुसिञ्चन्तं वा, घट्टयन्तं वा, भिन्दन्तं वा, उज्ज्वालयन्तं वा, प्रज्जालयन्तं वा, निर्वापयन्त वा, न समनुजानामि, यावजीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वचसा कायेन Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जैन सिद्धांत पाठमाळा. न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि, तस्माद भवन् ! प्रतिक्रमामि, निन्दामि, गहें आत्मानं व्युत्सृजामि ॥३॥ से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा, सजयविरयपडिहयपश्चक्खायपावकम्मे, दिया वा, रामो वा, एगो वा, परिसागो वा, सुत्ते वा, जागरमाणे वा, से सिरण वा, विहुयणेण वा, तालियटेण वा, पत्तेण वा, पत्तमंगेण वा, साहाप वा, साहाभंगण वा, पिहुणेण वा, पिहुणहत्येण वा, चेलेण बा, चेलकनेण वा, हत्येण वा, सुहेण वा, अप्पणो वा कार्य, वाहिरं वा वि पुग्गलं न फुमिजा, न वीएज्जा, अन्न न फुमाविजा, न चीप्राविजा, अन्नं फुमंत वा, वीअंतं वा न समाजाणिज्जा जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतपि अन्न न समगुजाणामि । तस्स भन्ते! पडिकमामि निन्दामि गरिहामि अप्पाणं पोसिरामि ॥४॥ स भिक्षुर्वा, भिक्षुकीवा, संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यातपाप कर्मा, दिवावा, रात्रौ वा, एकाकी वा, परिषद्गतो वा, सुप्तो वा, जाग्रहा, स सितेन वा, विधुवनेन वा, तालवृन्तेन वा, पत्रेण वा, पत्रभंगेन वा, शाखया वा, शाखामंगेन वा, पिच्छेनवा, पिच्छहस्तेन वा, 'चैलेन वा, चैलकर्णेन वा, हस्तेन वा, मुखेन वा, आत्मनो वा कायं, बावापिपुद्गल नफूत्कारयामि, न वीजयामि, अन्यन फूत्कारयामि न वीजयामि, अन्यफूत्कुर्वन्तं वा, वीजयन्तं वा न समनुजानामि, यावजीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वचसा कायेन नकरोमि नकारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि, तस्माद भदन्त (हे भवन् ) प्रतिक्रमामि निन्दामि गहें आत्मानं व्युत्सृजामि ॥४॥ ૧ વસ્ત્રથી. ૨ વસ્ત્રના છેડાથી. मनुजानामि, यावलीमा अन्यत्कुन्निन वीजयामि, अन्न Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक सूत्रं प्रध्ययनं ४. से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा, संजयविश्यपडियपञ्चक्खा पावकम्मे, दिया वा राम्रो वा, एगो वा, परिसागयो चा, सुत्ते वा, जागरमाणे वा, से दीपसु वा, बीयपट्टे वा, रुढेसु वा, रुढपट्टे वा, जापसु वा, जायपरट्टेसु बा, हरिपसु चा, हरियपरट्टे वा, छिन्ने वा, छिनपट्टे वा, सचित्तेसु चा, सचित्तकोलपडिनिस्सिएसु वा न गच्छेजा, न चिडेजा, न निसीइजा, न तुहिजा, अन्नं न गच्छाविजा, न चिट्ठाविजा, न निसीभाविजाः न तुमहाविजा, अन्नं गच्छतं वा, चिट्ठतं वा, निसीतं वा, बड़ंत वा न समजाणामि जावजीवाए तिविद्धं तिविहेण मणे वायाए कापणं न करेमि न कारवेनि करतपिनं न समगुजाणामि । तस्त भन्ते ! पडिक सामि निन्दामि गरिहामि अप्पा वोसिरामि ॥ ५ ॥ सभिक्षुर्वा भिक्षुकी वा संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यात पापकर्मा, दिवा वा रात्रौवा एकाकी वा परिषद् गतो वा सुप्तो वा जाग्रहास बीजेषुवा, वीजप्रतिष्ठेषुवा, रूढेषु वा, रूढप्रतिप्ठेषुवा, जातेपुवा, जातप्रतिष्ठेषु वा, हरितेषु वा, हरितप्रतिष्ठेषु वा, छिन्नेषुवा, छिन्नप्रतिष्ठेषु वा, सचित्तेषु वा, सचित्तकोल प्रतिनिनितेषु वा, नगच्छामि, नतिष्ठामि, ननिषीदामि, नत्वग् वर्तयाभि, अन्यंन गमयामि, नस्थापयामि, ननिपादयामि, नत्वगूवर्तयामि, अन्यंगच्छन्तं वा, तिष्ठन्तं वा, निषीदन्तं वा, त्वग्वर्तयन्तं वा, न समनुजानामि, यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वचसा कायेन नकरोमि नकारयामि कुर्वन्तमप्यन्येन समनुजानामि तस्माद् भवन् । प्रतिक्रमामि निन्दामि गर्हे आत्मानंव्युत्सुनामि ॥५॥ १६ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाउमाळा. से भिक्खू वा, मिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपश्चक्खायपावकम्मे, विश्रा वा, राश्रो वा, एगोवा, परिसागो वा, सुत्ते वा, जागरमाणे वा, से कोडं था, पयंग वा, कुथु वा, पिपीलियं वा, हत्थेसि वा, पायसि वा, बाहुँसि वा, उरुंसि वा, उदरसि वा, सीतसि वा, वत्यसि वा, पडिग्गहसि वा कंवलसि वा, पायपुच्छर्णसि वा, रयहरणसि वा, गुच्छर्गसि वा, उंडगसि वा, दंडगसि वा, पीढगंसि वा, फलसि वा, सेजंसिया, संथारगसिवा, अन्नयरंसि वा तहप्पगारे उवगरणजाए तो संजवामेव पडिलेहिय पडिलेहिय पजिन पमजिन एगंतमवाणिजा, नो णे संघायमावजिजा ॥६॥ सं भिक्षु भिक्षुकी वा संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यात पापकर्मा दिवा वा, रात्रौ वा एकाकी वा परिषद्गतो वा सुप्तो वा जाग्रहा स कोटं वा, पतंग वा, कुंथु वा पिपीलिकां वा, हस्ते वा, पादे वा, बाहौ वा, अरुणि वा, उदरे वा, शीर्षे वा, वस्त्रे वा, प्रतिग्रहे वा, कम्बले वा, पादप्रोञ्च्छने वा, रजोहरणे वा, गुच्छके चा, "उंदके वा, दंडके वा, पीठके वा, फलके वा, शय्यायां वा, संस्तारके वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे उपकरणजाते ततः संयतमेव प्रतिलिख्य प्रतिलिख्य प्रमृज्य प्रमृज्यकान्तमपनयामि नो संघातमापादयामि ॥६॥ अजयं चरमाणो अ, पाणभूयाई हिंसइ । वन्धर पावयं कम्मत से होइ कडु फल ॥१॥ अयतं चरंश्च, प्राणिभूतानि हिनस्ति । बध्नाति पापकं कर्म, तस्मात्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥१॥ ૧ માત્ર કરવાનું ભાજન. - - - - Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४॥ दशवकालिक सूत्रं अध्ययनं ४. २१ अजय चिटुमाणो अ, पाणभूयाई हिंसइ , वैधइ पावयं कम्मं ते से होइ कडुअं फल अयतन्तिष्ठंश्च, प्राणिभूतानि हिनस्ति । बध्नाति पापकं कर्म, तस्मात्तस्य भवति कटुकं फलम् . ॥२॥ अजयं प्रासमाणो श्र, पाणभूयाइ हिंसइ । बन्धड पावयं कम्म, तं से होइ कडुग्रं फल अयतमासीनश्च प्राणिमूतानि हिनस्ति । वध्नाति पापकं कर्म तस्मात्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥३॥ अजयं सयमाणो अ, पाणभूयाइ हिंसइ ।' बंधड पावयं कम्म, सं से होइ कडुअं फलं अयतं शयानश्च, प्राणिभूतानि हिनस्ति । वध्नाति पापकं कर्म, तस्मात्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥४॥ अजयं भुंजमाणो अ, पाणभूयाइ हिंसह ।। बंधइ पावयं कम्म, तं से होइ कडुध फलं ॥५॥ अयतं भुआनश्च, प्राणिभूतानि हिनस्ति ।' बध्नाति पापकं कर्म, तस्मात्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥५॥ अजयं भासमाणो अ, पाणभूयाइ हिंसइ । बंधइ पावयं कम्म, ते से होइ कडुभं फल ॥ अयतं भाषमागाश्च प्राणिभूतानि हिनस्ति ।। वघ्नाति पापकं कर्म, तस्मात्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥६॥ कह चरे कह चिठे, कहमासे कहं सए । कह भुंजन्तो भासंतो, पावकम्मं न बंधा कथं चरेत् कथंतिप्ठेत् , कय मासीत कथं शयीत । कथं भूनानो भाषमाणः, पापकर्म न खन्नाति ॥७॥ ॥७॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैन सिद्धांत पाठमाळा. जयं चरे जयं चिट्ठे, जयमासे जयं सए । जयं भुजन्तो भासतो, पावकम्मं न बंधइ यतं चरेद्यतं तिष्ठेत् यंत मासीत यतं शयीतं । यतं भुञ्जानो भाषमाणः, पापकर्म न बध्नाति सव्वभूयष्पभूयस्स, सम्मं भूयाइ पासो । पिहिप्रासवस्स दंतस्य, पावकम्मं न धर सर्व भूतात्मभूतस्य, सम्यग् भूतानि पश्यतः । पिहितास्रवस्य, दान्तस्य पापकर्म न बध्यते पढमं ना तो दया, एवं चिह्न सव्वसंजय । tarur किं काही, किंवा नाही सेयपावगं प्रथमं ज्ञानं ततो दया एवं तिष्ठति सर्वसंयतः । अज्ञानी किं करिष्यति, किवा ज्ञास्यति श्रेयः पापकम् ॥१०॥ सोधा जाणार कल्लां, सोचा जागर पावगं । उभयं पि जागा सोचा, जं सेयं तं समायरे श्रुत्वा जानाति कल्याणं श्रुत्वा जानाति पापकम् । उभयेऽपिजानाति श्रुत्वा यच्छ्रेयस्तत् समाचरेत् जो जीवे वि न यागह, जीवे वि न यागइ | जीवाजीवे प्रयाणंतो, कहं सो नाहीह संजमं यो जीवानपि ननानाति, अजीवानपि न जानीते । जीवाजीवावजानन् कथं स ज्ञास्यति संयमम् जो जीवे वि वियागेह, अजीवे वि वियाह । जीवाजीवे बियाणंतो, सो हु नाहीह संजमं यो जीवानपि विजानाति, अजीवानपि विजानाति । जीवाजीवौ विजानन्, स हि ज्ञास्यति संयमम् ; ||5|| 11511 Hall ॥९॥ ॥१०॥ ॥११॥ ॥११॥ ||१२|| 118311 112311 ॥१३॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥श्था दशवैज्ञालिक सूत्र अध्ययनं ४. २३, जया जीवमजीवे य, दोवि एए वियाणा ।। तया गई बहुविहं, सव्वं जीवाण जाणड यदा जीवाजीवौ च, द्वावपि-एतौ विजानीते । तदा गति बहुविधाम् , सर्वनीवानां जानाति ॥१४॥ जया गई वहुविहं, सम्वजीवाण जाणड । तया पुराणं च पावं च, बंध मुक्खं च जाणइ । ॥१५॥ यदा गति बहुविधाम् , सर्वजीवानां जानाति । तदां पुण्यं च पापं च, बंधं मोदं च जानाति ॥१६॥ जया पुण्णं च पावं च, बंधं मुक्खं च जाणह ।। तया निविदए भोए, जे दिव्वे जे य माणुसे ॥१॥ यदा पुण्यं च पापं च, बंध मोक्षं च जानाति । तदा 'निर्विन्ते भोगान् , यान्दिव्यान्यान् च मानुषान् ॥१६॥ जया निविदए भोए, जे दिव्वे जे य माणुसे । तया चयह संजोग, सन्भिन्तरं वाहिरं ॥१७॥ यदा निर्विन्ते भोगान् , यादिव्यान् यान् च मानुषान् । तदा त्यजति संयोगम् , साम्यन्तरं बाह्यम् ॥१७॥ जया चयइ संजोग, समितरं वाहिरं । तया मुंडे भवित्ताणं, पन्वइए अणगारियं यदा त्यजति संयोगम् , साम्यन्तरं बाह्यम् । तदा मुण्डो भूत्वा, प्रव्रजत्यनगारिताम् जया मुंडे भवित्ताणे, पवंडए अणगारिय। तया संवरमुकिलु, धम्म फासे अणुत्तरं ૧ અસાર માને છે. ॥१८॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२०॥ ॥२॥ ॥२१॥ 'जैन सिद्धांत पाठमाळा. यदा मुण्डो भूत्वा, प्रवनत्यनगारिताम् । । तदा संवरमुत्कटं, धर्म स्टशत्यनुत्तरम् जया संवरमुक्टुिं, धम्म फासे अणुत्तरं । तया धुणइ कम्मरयं, अवोहिकलुसंकडं 'यदा संवरमुत्सृष्टं, धर्म स्टशत्यनुत्तरम् । । तदा धुनाति कर्मरजः, अबोधिकलुषंकृतम् जया धुणइ कम्मरयं, अवोहिकलुसं कडं । तया,सन्चत्तगं नाणं, देसणं चाभिगच्छा यदा धुनाति कर्मरजः, अबोधिकलुषं कृतम् । तदा सर्वत्रगं ज्ञानं, दर्शनं चाभिगच्छति जया सव्वत्तगं नाणं, दसणं चाभिगच्छह । तया लोगमलोग च, जिणो जाणइ केवली यदा सर्वत्रगं ज्ञानं दर्शनं चाभिगच्छति । तदा लोकमलोकं च, जिनो जानाति केवली जया लोगमलोग च, जिणो जाणइ केवली। तया जोगे निरूभित्ता, सेलेसिं पडिवजा यदा लोकमलोकं च, जिनो जानाति केवली । तदा योगाविरुष्य, शैलेशी प्रतिपद्यते जया जोगे निलंभित्ता, सेलेसिं पडिवजा ।। तया कम्म खवित्ताणं, सिद्धि गच्छह नीरो । यदा योगानिरुध्य, शैलेगी प्रतिपद्यते । तदा कर्म क्षपयित्वा, सिद्धि गच्छति नीरजा. जया कम्म खवित्ताणं, सिद्धि गच्छइ नीरो। या लोगमत्ययस्थो, सिद्धो हवा सासो ॥२२॥ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक सूत्र अध्ययनं ५. ॥२५॥ ॥२६॥ ॥२७॥ यदा कर्म क्षपयित्वा सिद्धि गच्छति नीरजाः । तदा लोकमस्तकस्यः सिद्धो भवति शाश्वतः सुहसायगस्स समरएस्स, सायाउलगस्स निगामसाइस्स । उच्छोलणापहोमस्स, दुल्लहा सुगई तारिसगस्स ॥२६॥ सुखस्वादकस्य श्रमणस्य, साताकुलस्य निकामशायिनः । 'उत्सोलनाप्रधाविनश्श्र, दुर्लभा सुगतिस्ताद्दशस्य तोगुणापहाणस्स, उज्जुमा खन्तिसंजमरयस्य । परीसहे जिणंतस्स, सुलहा सुगई तारिसगस्स तपोगुणप्रधानस्य, ऋजुमतेः क्षान्तिसंयमरतस्य । परिसहान् जयत: सुलभा, सुगतिस्तादृशस्य पच्छा वि ते पयाया, खियं गच्छति श्रमरभवणाएँ । जेसिं पियो तो संजमो अ खंती अ वंभचेरं च पश्चादपि ते प्रयाताः, क्षिप्रं गच्छन्त्यमरभवनानि । येषां प्रियाणि तपः संयमश्च क्षान्तिश्च ब्रह्मचर्यञ्च ॥२८॥ इच्चेयं छज्जीवणिनं, सम्मद्दिट्ठी सया जए । दुल्लई लहित सामराणं, कम्मुगा न विराहिज्जासि ॥ त्तिवेमि २६|| इति वज्जीवणिया गामं चउत्थं अमयणं समत्तं ॥४॥ इत्येतां षड्जीवनिकां सम्यग्दृष्टिः सदा यतः । दुर्लभं लब्ध्वा श्रामण्यं कर्मणा न विराधयेत् ॥इति ब्रवीमि ॥ इतिषड्जीवनिकानाम चतुर्थमध्ययनं समाप्तम् ॥ 1 ॥२९॥ " २५ ॥२७॥ ॥२वा ॥ ग्रह पिंडेसणा गाम पंचमज्य | ॥ अथपिण्डेषणा नाम पञ्चममध्ययनम् ॥ संपत्ते भिक्खकालम्मि, असंभंतो अमुच्छिश्रो । इमेरा कम्मजोगेण, भत्तपाण गवेसर ૧ વારવાર મેવાની ક્રિયા કરનારની. ॥शा Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ दशवकालिक सूत्र अध्ययन ". इंगाल छारियं रासिं, तुसरासिं च गोमयं । ससरक्वेहि पाएहि, संजश्रो त नइकमे ॥७॥ अंगारं क्षारिक राशि, तुषराशिं च गोमयम् । सरजस्काभ्यां पादाम्या, संयतस्तं नातिक्रमे ॥७॥ न चरेज वासे पासते, महियाए व पडतिए । महावाए व वायते, तिरिच्छसंपाइमेनु वा न चरेद् वर्षे वर्षति, 'मिहिकायां वा पतन्त्याम् । महावाते वा वाति, तिर्यक् संपातिकेषु वा ॥ न चरेज वेससामते, बंभचेरवसागुए । वंभयारिस्सदतस्स, होजा तत्थ विसोत्तिमा न चरेद्वेश्या सामन्ते, ब्रह्मचर्यावसानके । ब्रह्मचारिणो दान्तस्य, भूयात्तत्र विस्त्रोतसिका ॥९॥ प्रणाययणे चरंतस्स, संसगीए अभिक्खणं । होज धयाणं पीला, सामरणम्म भ संसो ॥३०॥ अनायतने चरतः, संसर्गेणाभीक्षणम् । भूयादव्रतानां पीडा, श्रामण्ये च संशयः ॥१०॥ तम्हा पत्रं विप्राणिता, दोसं दुग्गवड्दणं । वजए वेससामन्तं. मुणी एगंतमस्सिए तम्मादेवं विज्ञाय, दोपं दुर्गतिवर्धकम् । वनयेवेश्यासामन्तं, मुनिरकान्तमाश्रितः साणं सूरनं गावि, दितं गोणं हयं गयं । संडिम्भं कलहं जुद्धं, दरो परिवजए (1) मी. (२) ५२Bi Pाय सारे. (३) भनाविध. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ * - - जैन सिद्धांत पाठमाळा. श्वानं सुतां गां, हप्तं गोणं हयं गजम् । सडिम्म कलहं युद्ध, दूरतः परिवर्जयेत् , ॥१२॥ अणुन्नए नावणए, अप्पहिढे प्रणाउले । इंदियाई जहाभाग, दमइत्ता मुणो चरे . ॥१३॥ अनुन्नतो नावनतः, अप्रहृष्टोऽनाकूलः । इन्द्रियाणि यथाभाग, दमयित्वा मुनिश्चरेत् ॥१३॥ दवदवस्स न गच्छेजा, भासमाणो अ गोअरे । हसन्तो नाभिगच्छेजा, कुलं उच्चाययं सया ॥१४॥ द्रुतंद्रुतं न गच्छेत् , भाषमाणश्च गोचरे । हसन्नाभिगच्छेत् , कुलमुच्चावचं सदा ॥१४॥ पालो थिग्गलं दारं, संधिंदगभवणाणि । चरन्तो न विणिजमाए, संकट्ठाणं विवज्जए ॥१५॥ आलोकं स्थगितं द्वारं, संघिमुदक भवनानि च । चरन्न विनिध्यायेत् , शंकास्थानं विवर्जयेत् रनो गिहवईणं च, रहस्सारक्खियाण य । . संकिलेसकरं ठाणं, दुरो परिवजए राज्ञो गृहपतीनाच, रहस्यं 'आरक्षिणां च । संक्लेशकरं स्थानं, दूरतः परिवर्जयेत् पडिकुठं कुल न पविसे, मामगं परिवजए । अचियत्तं कुल न पविसे, चियत्तं पविसे कुल १७॥ प्रतिकुष्टं कुलं न प्रविशेत् , मामकं परिवर्जयेत् । ' अप्रीतिकं कुलं न प्रविशेत् , प्रीतिकं प्रविशेत्कुलम् ॥१७॥ साणीपावारपिहिनं, अप्पणा नावपंगुरे । कवार्ड नो पल्लिज्जा, उग्गहसि प्रजाइमा १८॥ ૧ પાણીઆરા. ૨ કોટવાળાનાં. ૩ નિષેધ કરાયેલું. - Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१८॥ दशवकालिक सूत्र अध्ययनं ५. 'शाणीप्रावारपिहितं, आत्मना नापवृणुयात् । कपाटं न प्रणोदयेत् , 'अवग्रहमयाचित्वा गोपरगपविट्ठो अ, पञ्चमुत्तं न धारए । प्रोगासं फासुग्रं नथा, अणुनविय वोसिरे ॥१॥ गोचराग्रप्रविष्टश्च, व मूत्रं न धारयेत् । अवकाशं प्राशुकं ज्ञात्वा, अनुज्ञाप्य च व्युत्सृजेत् ॥१९॥ नीय दुवारं तमसं, कुढगं परियजए । अचखुविसो जस्थ, पाणा दुप्पडिलेहगा ॥२०॥ नीचद्वारं तामसं, कोष्ठकं परिवर्जयेत् । अचक्षुर्विषयो यत्र, प्राणिनो दुष्प्रतिलेखनीयाः ॥२०॥ जत्थ पुष्फाई वीमाई, विप्पानाई कोहए । अहुणोवलितं उल्लं दळूणं परिवजए ॥२१॥ यत्र पुष्पाणि बीजानि, विप्रकीर्णानि कोष्टके । अधुनोपलिप्तमाई, दृष्ट्वा परिवर्जयेत् एलगं दारगं साणं, बच्छगं वा वि कुठए । उल्लंविधान पविसे विउहिताण च संजए . ॥२२॥ "एडकं दारकं श्वानं, वत्सकं वापि कोष्ठके । उल्लध्य न प्रविशेत् , व्युह्य च संयतः ॥२२॥ असंसत्तं पलोइजा, नाइदुरावलोअए। उप्फुल्लं न विनिज्माए, नियष्टिज अयंपिरो ॥२३॥ असंसक्तं प्रलोकयेत् , नापि दरादवलोकयेत् । 'उत्फुल्ल न विनिध्यायेत् , "निवर्तेताजल्पाकः ॥२३॥ १ पत्री. २ मासा. ३ भभूत्र. ४ मांगवाणु ૫ બકરો દ દષ્ટિ વિકાસીને. ૭ બોલ્યા વગર. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२४॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ ॥२६॥ ३० जैन सिद्धांत पाठमाळा. अभूमि न गच्छेजा, गोरगगनो मुणी । कुलस्स भूमि जाणिवा, मिश्र भूमि परकमे अतिमूमिं न गच्छेत् , गोचराग्रगतो मुनिः । कुलस्य भूमि ज्ञात्वा, मितां भूमि पराक्रमेत् तत्थेव पडिलेहिना, भूमिभागविअक्षणो । सिणाणस्स य वधस्स, संलोग परिवजए, तत्रैव प्रतिलेखयेत् , भूमिभाग विचक्षणः । स्नानस्य च वर्चसः, सलोकं परिवर्जयेत् दगमट्टिप्रायाणे, बीमाणि हरिपाणि । परिवज्जतो चिद्विजा, सविदिध समाहिए । उदकमृत्तिकादाने (मागें), बीजानि हरितानि च । परिवर्जयन् तिछेत् , सर्वेन्द्रियसमाहितः तत्थ से चिट्ठमाणस्त, आहारे पाणभोगण । अकप्पिनं न इच्छिन्जा, पडिगाहिज्ज कपिण तत्र तस्य तिष्ठतः, आहरेत्पान भोजनम् । अकल्प्य नेच्छेत् , प्रतिगृहीयात्कल्पिकम् आहारन्तो सिमा तत्थ, परिसाडिन भोषणं । दिति पडिमाइक्खे, न मे कापड तारिस आहरन्ती स्यात्तत्र, 'प्रतिशातयेत् भोजनम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न में कल्पते तादृशम् जमहमाणी पाणाणि, वीप्राणि, हरिपाणि । संजमकरि नचा, तारिसिं परिवज्जए ૧ વેરી નાખે. ॥२६॥ ॥२७॥ ॥२७॥ ॥२८॥ ॥२६॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक सूत्रं अध्ययनं ५. संमर्दयन्ती प्राणिनः, बीजानि हरितानि च । असंयमकरी ज्ञात्वा, तादशी परिवर्जयेत् ॥२९॥ साहट्ट निक्खिवित्ता ण, सचित्त ट्टियाणि य । तहेव समणठाए, उदगं संपणुल्लिया ॥३०॥ संहृत्य निक्षिप्य, सचित्तं घट्टयित्वा । तथैव श्रमणार्थ, उदकं संप्रणुद्य ॥३०॥ श्रोगाहहत्ता चलइत्ता, आहारे पाणभोमण । दिति पडियाइक्खे, न मे कप्पा तारिस ॥३॥ अवगाह्य चालयित्वा, आहरेत्पान भोजनम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥३१॥ पुरेकम्मेण हत्थेण, वीए भायणेण वा । दितिनं पडिभाइक्खे, न मे कप्पड तारिस Bરૂરી पुरः कर्मणा हस्तेन, दा भाजनेन वा । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥३२॥ एवं उदउल्ले ससिणिद्धे, ससरक्खे मट्टियागोसे।। हरिपाले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे ॥३॥ एवमुदकाट्टैण सस्निग्धेन मृत्तिकोषाभ्यां सरजस्केन । हरितालेन हिगुलेन, मनः शिलांजनेन लवणेन ॥३॥ गेरुन वनि सेदिन, सोरहिअपिटकुक्कुसकर ।। उकिटमसंसट्टे, संसट्टे चेव बोद्धब्वे 'गैरिक'वर्णिका शेटिका, सौराष्ट्रिका "पिष्टकुकुसकतेन । उल्लष्टा संस्टेष्टाभ्यां, संसृष्टश्चैव बोदव्यः (हस्तः) ॥३४॥ ૧ ગેરૂ. ૨ પીળી માટી. ૩ ચાકખડી. ફટકડી ૫ લોટ અને કુસકાવાળા ૬ ફળનું નામ. ૭ ફળનુ નામ. ॥३४॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाला. असंसदृण हत्थेणं, दबीए भायणेण वा । दिज्जमाणं न इच्छिज्जा, पच्छाकम्मं जहि भवे ॥३५॥ असंसृष्टेन हस्तेन, दया भाजनेन वा । .दीयमानं नेच्छेत् , पश्चात्कर्म यत्र भवेत् ॥३५॥ संसटेणय हत्थेण, दवीए भायणेण वा ।। ।। दिज्जमाणं पडिच्छिज्जा, जं तत्थेसणियं भवे ॥३॥ संसृष्टेन हन्तेन, दव्यो भाजनेन वा । दीयमानं प्रतीच्छेत् , यत्तत्रैषणीयं भवेत् ॥३६॥ दुराहं तु भुजमाणाणं, एगो तत्थ निमतए । दिज्जमाणं न इच्छिज्जा, छंदं से पडिलेहर ॥३७॥ द्वयोस्तु भुजानयोः, एकस्तत्र निमंत्रयेत् । . दीयमानं नेच्छेत् , छन्दं तस्य प्रतिलेखयेत ॥३७॥ दुरहं तु भुंजमाणाण, दो वि तत्थ निमंतए । दिन्जमाणं पडिच्छिज्जा, जे तत्थेसणियं भवे ॥३८॥ इयोस्तु भुजानयोः, द्वावपि तत्र निमंत्रयेताम् । दीयमानं प्रतिच्छेत् , यत्तत्रैषणीयं भवेत् ॥३८॥ गुन्धिणीए उवण्णत्य, विविहं पाणभोषणं । . भुजमाणं विवन्जिज्जा, भत्तसेसं पडिच्छए 112E1 (गर्भिण्या) गुर्विण्या उपन्यस्तै, विविधं पानभोजनम् । भुज्यमानं विवर्ण्य, भुक्तशेष प्रतीच्छेत् ॥३९॥ सिधा य समणट्टाए, गुश्विणी कालमासिणी । उठिा वा निसीइज्जा, निसन्ना वा पुणुए ॥४०॥ 'स्याच्च श्रमणार्थ, गर्भिणी (गर्विणी) कालमासिनी । उत्थिता वा निषीदेत् , निषण्णा वा पुनरुत्तिष्ठेत् ॥४०॥ ૧ કદાચિત. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४२॥ दशवकालिक सूत्रं अध्ययनं ५. उ. १ ३३ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिमं । दितिश्र पडिप्राइक्खे, न मे कप्पइ तारिस तद्भवेद् भक्तपानं तु, संयतानामकल्पितम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४१॥ थणगं पिजमाणी, दारगं वा कुमारित्रं । त निक्खिवितु रोअंत, आहार पाणभोयणं स्तनकं पाययन्ती, दारकं वा कुमारिकाम् । तं रुदन्तं निक्षिप्य, आहरेत्पानभोजनम् ॥४२॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाणं अकप्पियं । दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पा तारिस ॥४३॥ तद्भवेद् भक्तपानं तु, संयतानामकल्पितम् । ददतो प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् जं भवे भत्तपाणं तु, कप्पाकप्पम्मि संकियं । दिति पडिभाइक्खे, न मे कप्पइ तारिस पक्षा यभवेद् भक्तपानं तु, कल्पाकल्पे शंकितम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४४॥ दगवारेण पिहि, नीसाए पीढएण वा । लोढेण वा विलेवेण, सिलेसेण वा केणइ उदकवारेण पिहितं, 'नि.सारिकया पीठकेन वा । लोप्ठेन वा विलेपेन, श्लेषेण वा केनचिटू ४५॥ तं च उभिदिया दिजा, समणठाए व दावए ।। दितिर्थ पडिप्राइक्वे, न मे कप्पर तारिसं ૧ પત્થરની ખરલે કરી. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. ३४. ॥४६॥ " तच्च उद्भिद्य दद्यात्, श्रमणार्थं वा दायक: ( दापयेत् ) । ददतं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । जं जाणिजा सुणिजा वा, दाणहा पगडं इमं अशनं पानकं वापि, खाद्यं स्वाद्यं तथा । यज्जानीयाच्छृणुयाद्वा, दानार्थं प्रकृतमिदम् तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाणं प्रकपित्र्यं । दितिप्रं पडिप्राइवे, न मे कप्पर तारिसं तद्भवेद्र भक्तपानं तु, संयतानामप्रकल्पितम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा | जं जाणिजा सुणिजा वा, पुण्णठ्ठा पगडं इमं अशनं पानकं वापि, खाद्यं स्वाद्यं तथा यज्जानीयाच्छृणुयाद्वा, पुण्यार्थं प्रकृतमिदम् तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण कपिनं । दितियं पडिप्राइखे, न मे कप्पर तारिसं तद्भवेद्र भक्तपानं तु, संयताना मकल्पितम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते ता शम् असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । जं जाणिजा सुणिजा वा, वणिमठा पगडे इमं अशनं पानकं वापि, खाद्यं स्वाद्यं तथा । यज्जानीयाच्छृणुयाद्वा, वनीपकार्थ प्रकृतमिदम् तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण कपि । दितियं पडिप्राइखे, न मे कप्पर तारिसं ॥४७॥ ॥४७॥ 118511 118511 ॥४६॥ ॥४९॥ ॥५०॥ ॥५०॥ ॥५१॥ 119811 ॥५२॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ दवैकालिक सूत्र अध्ययनं ५. उ. १ तद्भवेद्र भक्तपानं तु संयतानामकल्पितम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, | न मे कल्पते तादृशम् असणं पाणगं वावि, खाईमं साइमं तहा । जं जाणिजा सुणिजा वा, समणट्ठा पगडं इमं अशनं पानकं वापि खाद्यं स्वाद्यं तथा । यज्जानीयाच्छृणुयाद्वा, श्रमणार्थं प्रकृतमिदम् तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण कप्पिनं । दिति पडिप्राइक्खे, न मे कप्पर तारिसं तद्भवेभक्तपानं तु संवतानामकल्पितम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् उद्देसियं कीयगड, पूइकम्मं च प्राह । मोरपमिच, मीसजायं विवज्जय श्रद्देशिकं क्रीतकृतं, पूतिकर्म चाहृतम् । 'अध्यवपूर्वकं प्रामित्यं, मिश्रजातं च वर्जयेत् उन्मानं से प्र पुच्छिजा, कस्सहा केण वा कर्ड । सुच्चा निस्संकियं सुद्धं, पडिगाहिज, संजय उद्गमं तस्य च पृच्छेत् कस्यार्थ केन वा कृतम् । श्रुत्वा निःशंकितं शुद्धं, प्रतिगृह्णीयात् संयतः असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । पुप्फेसु हुज उम्मीस, वीएसु हरिएलु वा अशनं पानकं वापि, खाद्यं स्वाद्यं तथा । पुष्पैर्भवेदुन्मिश्रं, बीजैर्हरितैश्च वा 7 तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । दिति पडिखे, न मे कप्पर तारिसं 114501 ૧ સાધુ માટે ઉમેરી કરેલું. ૨ સધુ નિમિતે ઉછીનું લેવાયેલું. ३५ ॥५२॥ 114311 ॥५३॥ ॥५४॥ 119801 ॥५५॥ ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५६॥ ॥५७॥ ॥५७॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ત जैन सिद्धांत पाठमाळा ॥ ६० ॥ तद्भवेद्र भक्तपानं तु, संयतानामकल्पितम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । उदगम्मि हुज निक्खितं, उत्तिगपणगेसु वा अशनं पानकं वापि, खाद्यं स्वाद्यं तथा । उदके भवेन्निक्षिप्तं, 'उत्तिगपनकेषु वा तं भवे भक्तपाणं तु, संजयाण प्रकम्पिय । दिति पडिष्प्राक्वे, न मे कप्पर तारिस तद्भवेद्र भक्तपानं तु, संयतानामकल्पितम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । ते उम्मि (अगणिम्मि) होज निक्खित्तं तं च संघट्टिया दए ॥ ६१ ॥ अशनं पानकं वापि, खाद्यं स्वाद्यं तथा । तेजसि भवेन्निक्षिप्तं तच्च संघट्य दद्यात् तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिनं । दितिश्रं पडियारक्खे, न मे कप्पर तारिसं तद्भवेद् भक्तपानं तु, संयतानामकल्पितम् ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् एवं उस्सक्किया प्रोसक्किया, उज्जालिया पजाजिश्रा निव्याविया, उस्सिविया निस्सिचिया, उववन्तिया ( उव्वन्तिया) श्रोवारियादए । एवमुत्सिच्या वसर्प्य, उज्ज्वाल्य प्रज्वाल्य निर्वाप्य उत्सिच्य निषिच्य, अपवर्त्यवतार्य दद्यात् ॥६२॥ ૧ કીડીના દા ઉપર. 119511 ॥५६॥ ||१९|| ॥६०॥ ॥६९॥ દુ ॥६३॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥५॥ { \ दशवकालिक सूत्र अध्ययनं ५. उ. १ ३७ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिमं । दितिधे पडिआइक्खे, न मे कप्पद तारिसं तमवेद भक्तपानं तु, संयतानामकल्पितम् ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥६॥ हुज कई सिलं वावि, इटालं वावि एगया । उवि संकभठाए, तं च हुज चलाचलं भवेत्काष्ठं शिलां वापि, 'इप्टकां वाप्येकदा स्थापित संक्रमार्थ, तच्चभवेच्चलाचलम् न तेण भिक्खू गच्छिज्जा, दिछो तत्थ असंजमो । गंभीरं सिर चेव, सन्विदिनसमाहिए न तेन भिक्षुर्गच्छेद, द्रप्टस्तत्रासंयमः । गंभीरं शुषिरं चव, सन्द्रियसमाहितः निस्सेणि फलग पीढं, उस्सवित्ता ण मारहे । मंचं कील च पासायं समणढाए व दावए निःश्रेणि फलकं पीठं, उत्सृत्याहरेत् (आरोहेत्) । मञ्च किलञ्च प्रासाद, श्रमणार्थ वा दधात् ॥६॥ दुल्हमाणी पचडिजा, (पडिवजा) हत्थं पायं व लसए । पुढवीजीवे वि हिंसेजा जे अतनिस्सिमा जगे ! दरुहमाणा प्रपतेत् , हस्तौ पादौ च लूपयेत् ( खण्डयेत् ) पृथिवीजीवानपि हिस्यात् ,(तथा)यानि तनिश्रितानि 'जगंति।। एवारिसे महादोसे, जाणिऊण महेसिणो । तम्हा मालोहडं भिक्खं, न पडिगिण्हति संजया HEN ॥७॥ - ૧ ઈટ. ૨ પ્રકાશવિનાનું. પેલું. ૪ ખીલે. ૫ પ્રાણીઓ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाला. एतादृशान्महादोषान् , ज्ञात्वा महर्षयः । तस्मान्मालाहृतां भिक्षा, न प्रतिगृह्णन्ति संयता: कदं मूलं पलंवं वा, प्रामं छिन्नं च सचिरं । तुवाग सिंगवेरं च, प्रामगं परिवजए ||७010 कन्दं मूलं 'प्रलम्वं वा, आमंच्छिन्नं च 'सन्निरं। 'तुम्बाकं 'शंगवेरं च, आमकं परिवर्जयेत् ॥७॥ तहेव सतुचुन्नाई, कोलचुन्नाई श्रावणे । सक्कुलि फाणि पूध, अन्नं वा वि तहाविहं ॥७॥ तथैव सक्तुचूर्णानि, "कोलचूर्णान्यापणे । 'शष्कुली "फाणितं यूपं, अन्यद्वापि तथाविधम् ॥७॥ विकायमाणं पसढं, रएण परिफासि । दितिर्थ पडिभाइक्खे, न मे कप्पड़ तारिस ॥७२॥ विक्रीयमाणं प्रसा, रजसा परिस्टप्टं। ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥७२॥ बहुअहिनं पुग्गलं, अणिमिस वा बहुकंटवं । अस्थियं तिंदुयं विल्लं, उच्छुखंड व सिंदलि ॥७३॥ बिहवस्थिक "पुद्गलं, "अनिमिषं बहु कंटकन् । अस्थिकं तिन्दुकं बील्वं, इतुखण्डं च शाल्मलीम् ॥७३॥ अप्पे सिधा भोत्रणजाए बहुउन्मिय धम्मिए (2) । दितिधे पडिभाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥७॥ अल्पं स्याद भोजनजातं, वहूज्झितधर्मकम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥७॥ १ ताणस. २ पानुश. 3 तुम: ४ा. ५ मारनी भूश. ૬ તલસાંકળી. ૭ ગોળ. ૮ પુડલા. ૯ ઠળીઓવાળું. ૧૦ મીતાફલ. ૧૧ ફલનું નામ છે. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. एianaकमित्ता, प्रचितं पडिलेहिया । जयं पडिद्वविजा, परिप्प पडिक्कमे एकान्तमवक्रम्य, अचितं प्रतिलेखयेत् । यत परिष्ठापयेत्, परिष्ठाप्य परिक्रमेत् सिया अ गोरनागश्रो, इच्छिला परिभुत्तुयं । कुगं भितिमूलं वा, पडिलेहिताण फासु स्याच्च गोचराग्रगत:, इच्छेत्परिभोक्तुम् । कोष्ठकं भित्तिमूलं वा, प्रतिलेख्य प्रासुकम् प्रणुन्नविन्तु मेहावी, पडिच्छिन्नाम्नि संबुडे । हत्थगं संपमजित्ता, तत्थ भुंजिज संजय अनुज्ञाप्य मेघावी, प्रतिच्छन्ने संवृतः । ४० हस्तकं संसृज्य, तत्र भुञ्जीत संयत • तत्थ से भुजमाणस्स अट्टिको सिमा । neageni ara, वावि तहावि तत्र तस्य भुञ्जानस्य, अस्थिकं कंटकः स्यात् । तृणकाष्ठशर्कराश्वापि, अन्यद्वापि तथाविधम् तं वित्तु न निक्खिवे, आपण न कए । हत्थेण तं गहेऊण, एगंतमवकमे तडुत्क्षिप्य न निक्षिपेत्, आस्येन न त्यजेत् । हस्तेन तद्गृहीत्वा, एकान्त मवक्रमेत् एjanearत्ता, चितं पडिलेहिया । जयं परिट्ठविजा, परितृप्प पडकमे एकान्तमवक्रम्य, अचितं प्रतिलेख्य । यतं परिष्टापयेत् परिष्टाप्य प्रतिक्रमेत् . ॥६६॥ 115311 FRII ॥८२॥ 115311 ॥८३॥ ॥८४॥ ॥८४॥ ॥६॥ ॥८५॥ 115 ॥८६॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥२७॥ ॥८७॥ ॥॥ ॥८॥ ICE दशवकालिक सूत्रं अध्ययनं ५. उ. १ सिमा अभिक्खुइच्छिजा सिजमागरम भुत्तुमं । सपिंडपायमागम्म, उडुरं पडिलेहिया स्याच भिक्षुरिच्छेत् , शय्यामागम्य भोक्तुम् । सपिण्डपातमागभ्य, 'उन्दुकं प्रतिलेखयेत् विणएण पविसित्ता, सगासे गुरुणोमणी । इरियावहियमायाय, प्रागश्रो श्र पडिकमे विनयेन प्रविश्य, सकाशे गुरोर्मुनिः । ईपिथिकामादाय, भागतश्च प्रतिक्रमेत् आभोइत्ताण नीसेस, अइभारं च जहकर्म । गमणागमणे चेव, सत्त पाणे व संजए आभोगयित्वा निःशेष, अतिचारं च यथाक्रमम् । गमनागमनयोश्चैव, भक्तपानयोश्च संयतः उज्जुप्पनो अणुविग्गो, अवक्खित्तेण चेअसा । पालोए गुरुसगासे, जे जहा गहियं भवे ऋजुप्रज्ञोऽनुद्विग्नः, अव्याक्षिप्तेन चेतसा । आलोचयेद् गुरुसकाशे, यद्यथा गृहीतं भवेत् । न सम्ममालोइमं हुजा, पुब्बि पच्छा व जे कडं। पुणो पडिकमे तस्स, चोसट्ठो चिंतए इमं न सम्यगालोचितं भवेत् , पूर्व पश्चाद्वा यत्कृतम् । पुनः प्रतिक्रमेत्तस्य, व्युत्सृष्टः चिन्तयेदिदम् अहो जिणेहिं असावजा, वित्ती साहूण देसिया। मुक्खसाहणहेउस्स, साहुदेहस्स धारणा अहो जिनैरसावद्या, वृत्तिः साधूनां दर्शिता । मोक्ष साधन हेतोः, साधुदेहस्य धारणाय ૧ ભજનસ્થાન, ૨ જાણીને. ॥९॥ leol ॥९ ॥ ॥९ ॥ MERH ॥१२॥ - - Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. णमुक्कारेण पारिता, करिता जिणसंथवं । समाये पढवित्ताणं, वीसमेज खणं मुणी नमस्कारेण पारयित्वा कृत्वा जिनसंस्तवम् । स्वाध्यायं प्रस्थाप्य, विश्राम्येत्क्षणं मुनिः वीसमंतो इमं चिंते, हियमहं लाभमहियो । जद मे अणुहं कुजा, साहु हुज्जाभि तारियो विश्राम्येदं चिन्तयेत्, हितमर्थं लाभार्थिकः यदि मेऽनुग्रहं कुर्यात्, साधुर्भवामि तारितः साहवो तो चित्तेणं, निमंतिज जहकमं । जइ तत्थ के इच्छा, तेहिं सद्धिं तु भुंजए साधूस्ततः सुचित्तेन, निमंत्रयेद्यथाक्रमम् । यदि तत्र केचिदिच्छेयुः तैः सार्धं तु भुञ्जीत अह कोड न इच्छिजा, तम्रो भुंजिज एकथो । आलोप भायणे साहु, जयं अपरिसाडिधं ॥९६॥ अथ कोऽपि नेच्छेत्, ततो भुञ्जीतैककः । 'आलोके भाजने साधुः, यतमपरिशातितम् तिचगं च कsi च कसायं श्रंबिलं च महुरं लवणं वा, एलद्धमन्नत्थपत्तं महु घयं व भुंजिकज सजए ॥६७॥ (आर्या) - तिक्तं च कटुकं च कषायं, अम्लं च मधुरं लवणं वा । एतद्धं अन्यार्थप्रयुक्तं, मधुघृतमिव भुञ्जीत संयतः ॥९७॥ श्ररसं विरसं वावि, सह वा असुइथं । उल्लं वा जइ वा सूकं, मंथुकुम्मासभोगणं ૧ પ્રકાશવાળા. ४२. ॥६३॥ ॥९३॥ äી ॥९४॥ ॥६५॥ ॥९५॥ Πεğl 118501 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक सूत्र अध्ययनं ५. उ. २ अरसं विरसं वापि, सूचितं वाऽसूचितम् । आर्द्र वा यदि वा शुष्कं मन्धु कुल्माष भोजनम् ॥९८॥ 1 ४३ उप्पर्ण नाइहोलिजा, अप्पं वा वहु फालु । मुहाल मुहाजीवी, भुंजिजा दोसवजिणं उत्पन्नं नातिहीलयेत्, अल्पं वा बहुप्रासुकम् । मुधालब्द्धं मुधाजीवी, भुञ्जीत दोष वर्जितम् दुलाहा मुहादाई, मुहाजीवीवि दुल्लहा । मुहादाई मुहाजीवी, दो वि गच्छति सुग्गर ॥ ति वेमि ॥१००॥ दुर्लभोमुधादायी, मुधाजीव्यपि दुर्लभः । ॥९९॥ leall ॥१००॥ सुधादायी सुधाजीवी, द्वावपि गच्छतः सुगतिम् ॥ इति पिंडेसणाए पढमो उद्देसो समत्तो ॥ इति ब्रवीमि - इतिपिण्डेषणाया: प्रथम उद्देशः समाप्तः ॥ पडिग्गहं संलिहित्ताणं, लेवमायाइ संजय । दुगंध वा सुगंध वा सबै भुजे न छइए प्रतिग्रहं संलिहा, लेपमात्रया संयतः । दुर्गन्धं वा सुगन्धं वा, सर्वं भुञ्जीत न त्यजेत् सेजा निसीहियाए, समावनो गोरे । श्रयावयट्टा भुच्चा णं, जह तेणं न संथरे शय्यायां नैषधिक्यां, समापन्नश्च गोचरे । यावदर्थं भुक्त्वा, यदि तेन न संस्तरेत् तो कारणसमुपण्णे, भत्तपाणं गवेसए । विहिणा पुव्वउत्तण, इमेणं उत्तरेण य ॥३॥ ૧ જ્યેનવાળુ, ૨ ખદરનું ચૂર્ણ. ૩ જવ અડદના બાકળા. ॥१॥ ॥१॥ ॥२॥ ॥२॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. ततः कारण उत्पन्ने, भक्तपानं गवेषयेत् । विधिना पूर्वोक्तेन, अनेनोत्तरेण च ४४ काले निक्खमे भिक्खू, कालेण य पडिक्कमे । अकाल च विवजित्ता (जा), काले कालं समायरे कालेन नि:क्रामेद्र भिक्षुः कालेन च प्रतिक्रामेत् । अकालं च विवर्ज्य, काले कार्यं समाचरेत् 9 1 अकाले चरसि भिक्खु, कालं न पडिलेहसि । stari च किलासि, सन्निवेसंच गरिहसि 2 काले चरसि भिक्षो, कालं न प्रतिलेखयसि । आत्मानं च क्लामयसि, संनिवेशं च गर्हसि सह काले चरे भिक्खु, कुज्जा पुरिसकारिअं । लाभोत्ति न सोइजा, तवो त्ति अहियासप सति काले चरेदभिक्षुः कुर्यात् पुरुषकारकम् । अलाभइति न शोचेत्, तपइत्यधिषहेत तच्चावया पाणा, भत्तद्वार समागया । तं उज्जुनं न गच्छिना, जयमेव परकमे तथैवोच्चावचाः प्राणिनः, भक्तार्थं समागताः । 'तदृजुकं न गच्छेत्, यतमेव पराक्रमेत् गोरग्गपविट्टो प्र न निसीइज कत्थई । कह च न पधिजा, चित्ताण व संजय गोचराय प्रविष्टव, न निषीदेत् कुत्रापि । कथां च न प्रबनीयात् स्थित्वा च संयतः अम्ल फलिहं दारं, कवार्ड वा वि संजय । referer a fafear, गोवरमागश्र मुणी १ तेनी साभी. 1 " ॥३॥ 11811 11811 H५॥ 11911 ॥६॥ ॥७॥ ॥७॥ ||८|| 11511 nan Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक सूत्रं प्रध्ययनं ५. उ. २ अर्गलां परिधं द्वारं, कपाटं वापि संयतः । अवलंव्य न तिष्ठेत्, गोचरानगतोमुनिः समणं माहणं वावि, किविणं वा वणीमगं । उवसंकर्मतं भत्तट्टा, पाणहाए व संजए श्रमणं ब्राह्मणं वापि, कृपणं वा वनीपकम् । संक्रामन्तं भक्तार्थं, पानार्थमेव संयतः तमकमित्तु न पविसे, न चिट्टे चक्खुगोरे । एर्गतमवकमित्ता तत्थ चिट्टिज संजय तमतिक्रम्य न प्रविशेत्, न तिष्ठेच्चक्षुर्गोचरे । एकान्तमवक्रम्य, तत्र तिष्ठेत्संयतः वणीमगस्स वा तस्स, दायगस्सुभयस्स वा । अप्पत्ति सिया हुजा, लहुत्त पवयणस्स वा वनीपकस्य वा तस्य दायकस्य उभयोर्वा । " प्रीतिः स्याद्भवेद्, लघुत्वं प्रवचनस्य वा डिसेहिए व दिन्ने वा, तो तम्मि नियत्तिए । उवसंकमिज भत्तठ्ठा, पाणहाए व संजय प्रतिषिद्धे वा दत्ते वा, ततस्तस्मिन्निर्वृत्ते । उपसंक्रामेद्भक्तार्थं, पानार्थमेव संयतः उप्पलं पढमं वावि, कुमु था भगदेति । अन्नं वा पुप्फसचितं तं च संलुंचिष्या दए उत्पलं पद्मं वापि, कुमुदं वा 'मगदन्तिकाम् । अन्यद्वा पुष्पं सचित्तं तच्चसंलुञ्च्य दद्यात् ૧ મેગરાનું પુલ, ४५ ॥९॥ ॥१०॥ ॥१०॥ ॥११॥ ॥११॥ "દો ॥१२॥ in ॥१३॥ ફી ॥ १४ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिधे । दिति पडिभाइक्खे, न मे कपड़ तारिस तद्भवेद् भक्तपानं तु, संयतानामकल्पितम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशन् ॥१६॥ उप्पल पउर्म वावि, कुमुग्रं वा मगदंतिघ्रं । अन्न षा पुष्फसञ्चितं, ते च सम्महिना दए उत्पलं पदें वापि, कुमुदं मगदन्तिकाम् । अन्यहा पुप्पं सचित्त, तच्च संमृद्य दद्यात् तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिनं । दितिनं पडिभाइक्खे, न मे कप्पड तारिस ॥१७॥ तद्भवेद् भक्तपानं तु, संयतानामकल्पितम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् सालु_ वा विरालियं, कुमुधे उप्पलनालियं । मुणालिनं सासवनालि, उच्छखंड अनिवुड 'शालूकं वा विरालिकां, कुमुदमुत्पलनालिकाम् । मृणालिकां सर्वपनालिका, इक्षुखण्डमनिवृत्तम् ॥१॥ तरुणगं वा पवाल, रुक्खस्स तणगस्त वा। अन्नस्स वा वि हरिप्रस्स श्रामगं परिवज्जए तरुणकं वा प्रवाल, वृक्षस्य तृणकस्य वा । अन्यस्य वापि हरितस्य, आमकं परिवर्जयेत् ॥१९॥ तरुणियं वा छिवार्डि, आमिनं भजिनं सयं । दितिर्थ पडिलाइनखे, न मे कप्पइ तारिस . ॥२०॥ तरुणिकां वा क्षिपार्टि वा, आमिकां भर्जितां सख्त् । ददंती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥२०॥ ૧ કમલનો કંદ. ૨ પલાશને કુન્દ. ૩ મગની ફળી. MEIGHTTHE - Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक सूत्र अध्ययनं ५. उ. २ ४७ तहा कोलमणुस्सिनं, वेलुधे कासवनालि। तिलपप्पडगं नीम, प्रामगं परिवजए । ॥२१॥ तथा 'कोलमस्विन्नं, वेणुकं काश्यपनालिकाम् । तिलपर्पटकं निवं, चामकं परिवर्जयेत् ॥२॥ तहेव चाउलं पिटुं, विभई वा तत्तनिब्बुडं । , तिलपिडपूइपिन्नाग, प्रामा परिवजए ॥२॥ तथैव तान्दुल पिष्टं, विकटं वा तप्तानिवृत्तम् । तिलपिष्ट पूतिपिण्याकं, आमकं परिवर्जयेत् कविट्ठ माउलिंग च, मूलग मूलगतिश्र । श्राम असत्थपरिणय, मणसा वि न पत्थए ॥२३॥ कपित्थं 'मातुलिगं च, मूलकं मूलकर्तिकाम् । आमकमशस्त्रपरिणतं, मनसापि न प्रार्थयेतू ॥२३॥ तहेब फलमणि, वीप्रमणि जाणिमा । विहेलग पियाल च, श्रामगं परिवजए ॥२४॥ तथैव 'फलमन्थन् , "बीजमन्यून ज्ञात्वा । विभीतकं "प्रियालं च, आमकं परिवर्जयेत् २४॥ समुत्राणं चरे भिक्खू , कुलमुखावयं सया । नीयं कुलमहक्कम्म, ऊसदं नाभिधारए समुदानं चरेभिक्षुः, कुलमुच्चावचं सदा । नीच कुलमतिक्रम्य, “उत्सृतं नाभिधारयेत् ||२६|| अदीणो वित्तिसिजा, न विसीपज पंडिए । अमुच्छियो भोणम्मि मायण्णे एसणारए R ૧ નહિ રાધેલું. ૨ શ્રીપર્ણ વૃક્ષનું ફુલ. ૩ સરસવનો ખોળ. ૪ ક. ૫ બીજેરૂ. ૬ બદર ચૂર્ણ. ૭ જવચૂર્ણ. ૮ રાયણનાં ફળ, वनपूर Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. अदीनोवृत्तिमेषयेत् , न विषीदेत्पण्डितः । अमच्छितोभोजने, मात्राज्ञ एषणारतः ।। |॥२६॥ बहुं परघरे अस्थि, विविहं खाइमसाइमं । न तत्थ पंडिअो कुप्पे, इच्छा दिज परोन वा ॥२७॥ बहुपरगृहअस्ति, विविध खाद्य स्वायम् । । न तत्र पण्डितः कुप्येत् , इच्छा दद्यात् परो न वा ॥२७॥ सयणासणवत्यं वा, भत्तं पाणं च संजए। । अन्तिस्स न कुप्पिज्जा, पच्चक्खे वि अदिसो ॥२८॥ शयनासनवस्त्रं वा, भक्तपानं च संयतः । अदभ्यो न कुप्येत् , प्रत्यक्ष अपि च दृश्यमाने ॥२८॥ इथिनं पुरिसं वावि, डहरं वा महल्लगे । वंदमाणं न जाइजा, नो अणं फरुसंवर ॥RER स्त्रियं पुरुषं वापि, तरुणं वा महान्तम् ( वृद्धं)। वन्दमानं न याचेत, न च तं परुष वदेत् । ॥२९॥ जे न वंदे न से कुष्पे, वैदियो न समुक्कसे । एवमन्नेसमाणस्स, सामण्णमणुचिट्ठा ॥३०॥ यो न वन्देत न तस्मै कुप्येत् , वन्दितो न समुत्कर्षेत् । एवमन्वेषमाणस्य, श्रामण्यमनुतिष्ठति ॥३०॥ सिमा एगइनो लधुं, लोमेण विणिगृहह । मामेयं दाइयं संत, दट्टणं सयमायए स्यादेकाकी लब्ध्वा, लोभेन विनिगृहते ममेदं दर्शितं सत् , द्रष्टवा स्वयमादद्यात ॥३१॥ पत्तट्ठा गुरुप्रो लुद्धो, वहुं पावं पकुवा । त्तोसो असे (सो) होइ, निव्वाणं च न गच्छा ॥३२॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ - ॥३२॥ ॥३४॥ ॥३॥ दशवैज्ञालिक सूत्रं अध्ययनं ५. उ. २ आत्मार्थगुरुकोलुब्धः, बहु पापं प्रकरोति । दुस्तोषकश्च स भवति, निर्वाणं च न गच्छति सिमा एगइयो लडु, विविहं पाणमोअणं । भगं भद्दगं भुवा, विव विरसमाहरे स्यादेकाकी लब्ध्वा, विविधं पानभोजनम् । भद्रकं भद्रकं भुक्त्वा , विवर्णं विरसमाहरेत् जाणंतु ता इमे समणा, पाययट्ठो अयं मुणी । संतुष्टो सेवए पंत, लूहवित्ती सुतोसयो जानन्तु तावदिमे श्रमणाः, आत्मार्थ्ययं मुनिः । सन्तुष्टः सेवते 'प्रान्तं, रूक्षवृत्तिः सुतोषक: पूयणटा जसोकामी, माणसम्माणकामए । वहुं पसवइ पावं, मायासल्लं च कुवा पूजनार्थ यशस्कामी, मानसन्मानकामुकः । बहु प्रसूते पापं, माया शल्यं च कुरुते सुरं वा मरगं वावि, अचं चा मजगं रसं । ससक्खं न पिवे भिक्खू , असं सारखमप्पणो सुरां वा मेरकां वापि, अन्यं वा मद्यकं रसम् । 'ससाक्षी न पिवेदभिक्षुः, यशः संरचनात्मनः पियए एगो तेणो, न मे कोई विप्राणइ । तस्स परसह दोसाई, नियडि च मुणेह मे पिवति एकस्तेनः, न मां कोऽपि विजानाति । तस्य पश्यत दोषान् , निकति च शणुत मम वट्टइ मुंडिया तस्स, मायामोसं च भिक्खुणो । अयसो अ अनिवार्ण, सय्यं च असाहया । १ असार. २ पतीनी साक्षा । ॥३५॥ ॥३॥ ॥३७॥ ॥३७॥ ॥5॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ॥३८॥ ॥३॥ ॥३९॥ ॥४०॥ ॥४०॥ जैन सिद्धांत पाठमाळा. वर्धते शौंडिका तस्य, मायामृषा च मिक्षोः। अयशश्चानिर्वाणं, सततं चासाधुता निच्चुग्विग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहि दुम्मई । तारिसो मरणते वि, न पाराहेह संवरं नित्योद्विग्नो यथा स्तेन:, आत्मकर्मभिर्दुर्मतिः । तादृशो मरणान्तेऽपि, नाराधयति संवरम् पायरिए नाराहेइ, समणे प्रावि तारिसो। गिहत्था वि णं गरिहति जेण जाणति तारिसं आचार्यान्नाराधयति, श्रमणाश्चापि तादृशः । गृहस्थापि तं गर्हन्ते, येन जानन्ति तादृशम् एवं तु अगुणप्पेही, गुणाणं च विवज्जए । तारिसो मरणते वि, ण पाराहेइ संवरं एवं त्वगुणप्रेक्षी, गुणानां च विवर्नकः । ताहशो मरणान्तेऽपि, नाराधयति संवरम् तवं कुबइ नेहावी, पनीनं वजए रसं । मज्जप्पमायविरो, तवस्सी अइउकस्सो तपः कुरते मेधावी, प्रणीतं वयति रसम् । मद्यप्रमादविरतः, तपस्वी अत्युत्कर्षक: तस्स परसह कल्लाणं, अणेगसाहपूधा विउल अत्थसंजुत्तं, कित्तइत्सं तुणेह मे तस्य पश्यत कल्याण, अनेकसाधुपूजितम् । विपुलमर्थसंयुक्तं, कीर्तयिष्ये शृणुत मे एवं तु गुणप्पेही, अगुणाणं च विवजए (ो) । तारिसो मरणते चि, पाराहेइ संवरं ॥४॥ ॥४१॥ ॥४२॥ ॥४२॥ near Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक सूत्र अध्ययनं ५. उ. २ ५१ एवं तु गुणप्रेक्षी, अगुणानां च विवर्नकः । तादृशो मरणान्तेऽपि, आरानोति संवरम् ॥४१॥ पायरिए पाराहेर, समणे प्रावि तारिसो। गिहत्या वि ण पूयंति, जेण जाणति तारिस ॥४५॥ प्राचार्यानाराधयति, श्रमणाश्चापि तादृशः। गृहस्थाअपि तं पूजयंत्ति, येन जानन्ति तादृशम् ॥४५॥ तवतेणे वयतेणे, रुवतेणे अ जे नरे । प्रायारभावतेणे श्र, कुवर देवकिविसं ॥४६॥ तपःस्तेनो वचःस्तेन:, रूपस्तेनश्च यो नरः । आचारभावस्तेनश्च, कुरुते देवकिल्विषम् ॥४६॥ लखूण वि देवत्तं, उववन्नो देवकिन्धिसे । तत्थावि से न याणाइ, किं मे किया इर्म फलं लब्ध्वाऽपि देवत्वं, उपपन्नो देवकिल्बिषे । तत्रापि स न जानाति, कि मम कृत्वेदं फलम् ॥४७|| तत्तो वि से चइत्ताणं, लम्भइ एलमूअगं । नरंग तिरिक्खजोणि वा, वोही जत्थ सुदलहा ॥४८॥ ततोऽपि सच्युत्वा, लभत एडमकताम् । नरकं तिर्यग्योनि वा, बोधियंत्र सुदुर्लभा ॥४८॥ एनं च दोसं दट्टणं, चायपुत्तेण भासिनं । अणुमायं पि मेहावी, मायामोसं विवजए ॥४॥ एतं दोपं च दृष्ट्वा, ज्ञातपुत्रेण भाषितम् । अणुमात्रमपि मेधावी, मायां मृषा विवर्जयेत् ॥१९॥ सिक्खिऊण भिक्खेसणसोहि, संजयाण बुद्धाण सगाले । तत्थ भिम् सुप्पणिहिदिए, तिब्बलगुणवं विहरिजासि ॥ त्ति बेमि ॥५०॥ ॥४७॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ॥५॥ : ॥६॥ 11811 ॥६॥ ॥७॥ दगवैकालिक सूत्रं अध्ययन . नन्नन्य परिसं वृत्त, ॐ लोए परमदुच्चरं । विउलढाणमाइस्स, न भूभं न भविस्सइ नान्यत्रेदशं व्रतं, यलोके परमदुष्करम् । विपुलस्थानभाजः, नमूतं न भविप्यति सखुडविभत्ताणं, वाहियाणं च जे गुणा। अक्खंडफुडिया कायब्वा, तं सुणेह जहा तहा 'मक्षुल्लकव्यक्तानां, व्याधिमतां च ये गुणाः । अखण्डाम्फुटिताः कर्तव्याः, तच्छृणुत यथातथा दस अटु य ठाणाई, जाई वालोऽवरज्मा । तत्य अन्नयरे काणे, निग्गंथत्तानो भस्सइ दग अष्ट च स्थानानि, यानि बालोऽपराव्यति । तत्रान्यतरस्मिन् स्थाने, निग्रन्थत्वाद्मश्यति वयकं काय, अक्रप्पो गिहिभायणं । पलियंकतिसिजा य, सिणाणं सोहवजणं व्रतपटू कायपटुं, अकल्पो गृहिभाजनम् । पर्यक: निषद्या च. म्नानं शोभावर्जनम् तस्थिम एढभं ठाणं, महार्शरण सिधे । अहिसा निउणा दिहा, सब भूपतु संजमो तत्रेदं प्रथम स्थानं, महावीरेण देशितम् । अहिसा निपुणा दृष्टा, सर्वभूतेषु संयमः जाति लोप पाणा, तसा अदुव थावरा । ते जाणमजाणं वा, न हणे जो विधायए यावन्तो लोके प्राणिन: सा अधवा स्थावराः । तान जानन्नजानन वा, न हन्यान्नोऽपि घातयेत ૧ બાલ અને વૃદ્ધોના. ॥७॥ ॥८॥ ॥९॥ ॥१०॥ ॥१०॥ - - Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१॥ ॥१२॥ ॥१२॥ ॥१३॥ जैन सिद्धांत पाठमाळा. सम्वे जीवा वि इच्छति, जीविडं न मरिजिडं । तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वजयंति णं सर्वे जीवाप्रपीच्छन्ति, जीवितुं न मर्तुम् । तस्मात्प्राणिवघं घोरं, निर्ग्रन्था वर्जयन्ति तम् अप्पणट्ठा परटा वा, कोहा वा जइ वा भया । हिंसगं न मुसं घूधा, नोवि अन्नं वयावए आत्मार्थं परार्थं वा, क्रोधाद्वा यदि वा भयात् । हिंसकं नो मृषाबूयात् , नोप्यन्य वादयेत् मुसावायो य लोगम्मि, सवसाहूहि गरिहियो । अविस्सासी य भूधाणं, तम्हा मोस विवजए मृषावादश्च लोके, सर्वसाधुभिर्गर्हितः । अविश्वास्यश्च भूतानां, तस्मान्मृषा विवर्जयेत् वित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ या वहुं । दंतसोहमित्त पि, उग्गहसि प्रजाइया चित्तवंतमचित्तं वा, अपं वा यदि वा बहुम् । दन्तशोधनमात्रमपि, अवग्रहमयाचित्वा तं अप्पणा न गिण्हंति, नो वि गिण्हावए परं। अनं वा गिण्हमाणं पि, नाणुजाणंति संजया तमात्मना न गृहन्ति, नोऽपि ग्राहयन्ति परम् । अन्यं वा गृह्णन्तमपि, नानुजानन्ति संयताः अवंभचरि घोरं, पमायं दुरहिडिकं । नायरति मुणी लोए, भेाययणवजिणो अब्रह्मचर्यं घोरं, प्रमादं दुरधिष्टितम् । नाचरन्ति मुनयो लोके, भेदायतनवर्जिनः ॥१४॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥१७॥ ॥१७ ॥१८॥ ॥१६॥ दशवकालिक सूत्रं अध्ययनं ६. मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्तये । तम्हा मेहुणसंसर्ग, निग्गेथा वजयति णं मूलमेतदधर्मस्य, महादोषसमुच्छ्य म् । तस्मान्मैथुनसंसर्ग, निग्रंथा वर्जयन्ति तम् विड्सुम्भेइमं लोणं, तिल्ल सप्पि च फाणिनं । न ते सन्निहिमिच्छंति, नायपुत्तवोरया 'बिडमुदभेद्यं लवणं, तैलं सर्पिश्च फाणितम् । न ते सन्निधिमिच्छन्ति, ज्ञातपुत्रवचोरताः लोहस्सेसअणुफासे, मन्ने अन्नयरामवि । जे सिया सन्निहि कामे, गिही पच्वइए न से लोमस्यैष अनुस्पर्शः, मन्येऽन्यतरामपि । यः स्यात्सन्निधि कामयेत् , गृही प्रव्रनिता न सः अपि वत्थं च पायं वा, कंवलं पायपुंछणं । दपि संजमलजहा, धारति परिहरति अ यदपि वस्त्रं च पात्रं वा, कम्बलं पादपुञ्च्छनम् । तदपि संयमलज्जाथ, धारयन्ति परिहरन्ति च न सो परिग्गहो चुचो, नायपुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिगहो चुत्तो, इइ वुत्तं महसिणा न स परिग्रह उक्तः; ज्ञातपुत्रेण त्रायिणा । मूर्छापरिग्रह उक्तः, इत्युक्तं महर्पिणा सम्वत्युवहिणा बुद्धा, संरक्षणपरिग्गहे । अवि अप्पणोऽवि देहम्मि, नायरंति समाइयं सर्वत्रोपधिना बुद्धाः, संरक्षणपरिग्रहे । अप्यात्मनोऽपि देहे, नाचरन्ति ममत्वम् १ प्रा. २ मा ३ थोरी ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२०॥ ॥२२॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२२॥ - Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ॥२३॥ ||२३|| ॥२४॥ ॥२४॥ ॥२५॥ जैन सिद्धांत पाठमाळा. अहो नि तो कम्म, सन्वबुद्धहि वशिनं । जा य लज्जासमा वित्ती, एगभत्तं च भोअणं अहो नित्यं तपः कर्म, सर्व वुद्धैवर्णितम् । यापल्लज्जासमावृत्तिः, एकभक्तं च भोजनम् सति मे सुहमा पाणा, तसा अदुव थावरा । 'जाई राम्रो अपासंतो, कहमेसणि चरे सन्तीमे सूदमाः प्राणिनः, सा अथवा स्थावराः । यान् रात्रावपश्यन् , कथमेषणीयं चरेत् । उदउल्लं वीअसंसतं, पाणा निवाडिया महि । दिया ताई विवजिजा, राम्रो तत्थ कहं चरे उदका बीजसंसक्तं, प्राणिनो निपतितामयां । दिवा तान् विवर्जयेत् , रात्रौ तत्र कथं चरेत् एनं च दोसं दट्टणं, नायपुत्तेण भासियं । . सम्वाहारं न भुजंति, निग्गंथा राइभोधणं एतं च दोषं दृष्टवा, ज्ञातपुत्रेण भाषितम् । सर्वाहारं न भुञ्जते, निर्ग्रन्था रात्रिभोजनम् पुढविकार्य न हिंसति, मणसा वायसा कायसा । तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिना पृथ्वीकार्य न हिसन्ति, मनसा वचसा कायेन । त्रिविधेन करणयोगेन, संयताः सुसमाहिताः पुढविकार्य विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए । तसे अ विविहे पाणे, चक्लुसे अ अवखुसे पृथ्वीकार्य विहिसन् , हिनस्ति तु तदाश्रितान् । वसांश्च विविधानप्राणिनः, चाक्षुषाश्चाचाक्षुषान् ॥२६॥ ॥२६॥ ॥२६॥ ॥२७॥ ॥२७॥ ॥२८॥ ॥२८॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक सूत्र अध्ययनं ६. तरहा एवं विद्याणित्ता, दोसं दुग्गइवदुणं । पुढविकायसमारंभ, जावज्जीचाए वज्रए तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गति वर्धनम् । पृथ्वी काय समारंभ, यावज्जीवं वर्जयेत् 9 कार्य न हिंसति, मणसा वायसा कायसा । तिविहेण करणजोपण, संजया सुसमाहित्रा अकार्य न हिसंति, मनसा वचसा कायेन । त्रिविधेन करणयोगेन संयताः सुसमाहिताः कार्य विहिता, हिंसई उ तयस्सिए । तसे विविहे पाणे, चक्खुसे मक्खुसे अप्कायं विहिसन, हिनस्ति तु तदाश्रितान् । त्रसाश्च विविधान् प्राणिनः, चाक्षुषाश्राचाक्षुषान् तम्हा एवं विप्राणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं । प्राउकायसमारंभं, जावज्जीवाए वज्जए तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गतिवर्धनम् | अप्कायसमारंभ, यावज्जीवं वर्जयेत् जायते न इच्छति, पावगं जलइत्तए । तिक्खमन्नयरं सत्यं, सन्वो विदुरासयं जाततेजस नेच्छन्ति, पावकं ज्वालयितुम् । तीक्ष्णमन्यतरच्छस्त्रं, सर्वतोऽपि दुरासदम् पाणं पडणं वार्षि, उ अणुदिसामवि । हे वाहिणो वा वि, दहे उत्तरम्रो वि श्र प्राच्यां प्रतीच्यां वापि, उर्ध्वमनुदिवपि । अघो दक्षिणतो वापि, दहत्युत्तरतोऽपि च १,७ R ॥२९॥ 113011 113011 ॥३६॥ ॥३१॥ ફરા ॥३२॥ મી ॥३३॥ n 113 811 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३५॥ ॥३६॥ ॥३६॥ ॥३७॥ जैन सिद्धांत पाठमाळा. भूप्राणमेसमाधाश्रो, हन्यवाहो न संसो। तं पईवपयावट्ठा, संजया किंचि नारभे मूतानामेष आघातः, 'हव्यवाहो न संशयः । तं प्रदीपप्रतापार्थ, संयता: किचिन्नारभन्ते तम्हा एयवियाणित्ता, दोस दुम्गइवड्ढणं । तेउकायसमारंभ, जावज्जीवाए वजए तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गतिवर्धनम् । तेज:कायसमारंभ, यावजीवं वर्जयेत् अणिलस्स समारंभ, वुद्धा मनति तारिस । सावजबहुलं चेनं, नेनं ताईहिं सेविध अनिलस्य समारंभ, बुद्धामन्यन्ते तादृशम् । सावद्यबहुलं चैव, नैनं त्रायिभिः सेवितम् तालिघंटेण पत्तेण, साहाविहुणेण वा । न ते वीइउमिच्छंति, वीमावेउण वा पर तालवृन्तेन पत्रेण, शाखाविधूननेन वा । न ते वीजितुमिच्छति, वीजयितुं वा परम् जं पिवत्थं व (च) पायं वा, कंवलं पायपुंकणं । न ते वायमुईति, जयं परिहरति अ यदपि वस्त्रं च पात्रं वा, कम्बलं पादपोंच्छनम् । न ते वातमुदीरयन्ति, यतं परिहरन्ति च तम्हा एवं विप्राणित्ता दोसं दुग्गइवढणं । वाउकायसमारंभ, जावज्जीवाइ वजए तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गतिवर्घनम । वायुकायसमारंभ, यावजीवं वर्जयेत् ॥३७॥ ॥३८. ॥३८॥ ॥३॥ ॥४०॥ ॥४०॥ मनि Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ - ॥४१॥ ॥४२॥ दशवकालिक सूत्र अध्ययनं ६. घणस्सई न हिंसति, मणसा पयसा कायसा। तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमहिमा वनस्पतिम् न हिसन्ति, मनसा वचसा कायेन । त्रिविधेन करणयोगेन, संयताः सुसमाहिताः । वणस्सई विहिसतो, हिंसइ उ तयस्सिए । तसे प्रविविहे पाणे, चक्खुसे अप्रचक्खुसे वनस्पति विहिसन् , हिनस्ति तु तदाश्रितान् । त्रसाश्च विविधान्प्राणिनः, चातुपाश्चाचाक्षुषान् तम्हा पयं वियाणित्ता, दोसं दुग्गइवणं । वणस्सई समारंभ, जावजीवाए (5) वजए तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गतिवर्धनम् । वनस्पतिसमारंभ, यावज्जीवं वर्जयेत् तसकायं न हिसंति, मणसा वयसा कायसा। तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया त्रसकायम् न हिसन्ति, मनसा वचसा कायेन । त्रिविधेन करणयोगेन, संयताः सुसमाहिताः तसकार्य विहिंसंतो, हिंसई उ तस्सिए । तसे अविविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे वसकायं विहिसन् , हिनस्ति तु तदाश्रितान् । साश्च विविधान्प्राणिनः, चाक्षुषाश्चाचाक्षुषान् तम्हा एवं विप्राणित्ता, दोस दुग्गइवढणं । तसकायसमारंभ, जावज्जीवाए (इ) वजए तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गति वर्धनम् । त्रसकाय समारंभ, यावज्जीव वर्जयेत् ॥४३॥ ॥४४॥ ॥४५॥ ॥४६॥ ॥४॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ me ॥४७॥ ॥४७॥ ॥८॥ ॥४८॥ ॥४॥ जैन सिद्धांत पाठमाळा. जाई चत्तारि भुजाई, इसिणाहारमाइणि । ताई तु विवज्जतो, संजसं अणुपालए यानि चत्वार्यभोज्यानि, ऋषिणाहारादीनि । तानि तु विवर्जयन् , संयममनुपालयेत् पिंड सिजं च वत्थं च, चउत्थं पायमेव य । अकापियं न इच्छिज्जा, पडिगाहिज कम्पियं पिण्डं शय्यां च वस्त्रं च, चतुर्थं पात्रमेव च । अकल्पिकं नेच्छेत् , परिगृह्णीयात्कल्पिकम् जे नियागं ममायति, कीअमुडेसिबाहर्ड । वहं ते समणुलाणंति, इइ उ (बु) तं महेसिणा ये नियागं ममायन्ति, क्रीतमौदेशिकमाहृतम् | वधं ते समनुजानन्ति, इत्युक्तं महर्षिणा तम्हा असणपाणाई, कीयमुदेसिधाहर्ड । वजयंति ठिअप्पाणो, निर्गथा धम्मजीविणो तस्मादशनपानादि, क्रीतमौदेशिकमाहृतम् । वर्जयन्ति स्थितात्मानः, निम्रन्या धर्मजीविनः कैसेसु कंसपाएसु, कुंडमोएसु वा पुणो । भुंजती असणपाणाई, पायारा परिभस्सह कांस्येषु कांस्यपात्रेषु, 'कुण्डमोदेषु वा पुनः । मुजानोऽशनपानानि, आचारात्परिभृश्यति सीयोदगसमारंभे, मत्तधामणछड्डणे । जाई छनति भूभाई, दिट्ठो तत्थ असंजमो शीतोदकसमारंभे, अमत्रधावनोज्झने । यानि छिद्यन्ते भूतानि, दुष्टस्तत्रासंयमः ૧ માટીના વાસણમા. ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५२॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥५३॥ ॥५४॥ ॥५५॥ दशवकालिक सूत्रं अध्ययनं ६. पच्छाकम्मे पुरेकम्भ, सिमा तस्थ न कप्पद । पअमटुं न भुति, निग्गंथा गिहिमायणे पश्चात्कर्म पुर:कर्म, स्यात्तत्र न कल्पते । एतदर्थं न भुञ्जते, निग्रन्थागृहिभाजने प्रासंदीपलिके, अचमासालासु वा । अणायरिश्रमजाणं, प्रासइत्तु सहतु वा आसन्दीपर्योपु, 'मञ्चेप्वाशालकेषु वा । अनाचरितमार्याणां, आसितुं शयितुं वा नासंदीपलिअंकेसु, न निसिजा न पीढए । निगंथा पडिलहाप, बुद्धवुत्तमहिहगा नासन्दीपर्यवेषु, न निषद्यायां न पीठके । निर्ग्रन्था अप्रतिलेख्य, बुद्धोक्तमधिष्ठातारः गंभीरविजया एए, पाणा दुप्पडिलेहगा। प्रासंदी पलिधेको थ, पयमढ़ विधजिना गभीरविजया एते, प्राणिनो दुःप्रतिलेख्या. । आसन्दी पर्यश्च, एतदर्थं विवर्जितः गोपरगपविट्टल्स, निसिजा जस्स कप्पा । इमेरिसमणायारं, भावजइ अवोहिनं गोचराग्रप्रविष्टस्य, निषद्या यस्य न कल्पते । एवमीडशमनाचारं, आपद्यतेऽवोधिकम् विवत्ती वंभचेररस, पाणाणं च वहे वहो । वणीमगपडिग्यायो, पडिकोहो अगारिणं विपत्तिब्रह्मचर्यस्य, प्राणानां च वधे वधः । चनीपकप्रतिघात । प्रतिक्रोधोऽगारिणाम् ૧ આસન વિશેષ, ૨ અંધકારમા રહેલા. ॥५५॥ ॥५६॥ ॥१६॥ ॥५७॥ ॥५८॥ ॥५८|| - - - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥६॥ जैन सिद्धांत पाठमाळा. प्रगुती वंभचेरस्स, इत्थीग्रो वा वि संकणं । कुसीलवद्वणं ठाणं, दुरो परिवजए अगुप्तिब्रह्मचर्यस्य, स्त्रीतो वापि शंकनम् । कुशीलवर्धनं स्थानं, दूरतः परिवर्जयेत् ॥१९॥ तिहमन्नयरागस्स, निसिजा जस्स कप्पड । जराए अभिभूअस्स, वाहिस्स तवस्सिको त्रयाणामन्यतरस्य, निषद्या यस्य कल्पते । जरयाभिभूतस्य, व्याधिमतस्तपस्विनः चाहियो वा अरोगी वा, सिणाणं जो उ पत्थए । बुहंतो होइ पायारो, जढो हवा संजमो व्याधिमान् वाऽरोगी वा, स्नानं यस्तु प्रार्थयेत् । व्युत्क्रान्तो भवत्याचारः, त्यक्तो भवति संयमः संतिमे सुहुमा पाणा, घसा भिलगासु । जे भिक्खू सिणायंतो, विप्रडेणुप्पिलावए ॥६॥ सन्तीमे सूदमाः प्राणिनः, 'घसासु भिलुगासु च । यश्चभिक्षुः स्नान , विकतेनोत्प्लावयति ॥६२॥ तम्हा ते न सिणायति, सीएण उसिणेण वा। जावज्जीव वयं घोरं, प्रसिणाणमहिहगा ॥६॥ तस्मात्ते न स्नान्ति, शीतेनोष्णोदकेन वा । यावजीचं व्रतं घोरं, अस्नानमधिष्ठातारः ॥३॥ सिणाणं अदुवा कक, लुद्धं पउमगाणि । गायस्सुन्वट्टणहाए, नायरति कयाइ वि स्नानमथवा कल्कं, लोनं पद्मकानि च । गात्रस्योद्वर्तनाथ, नाचरन्ति कदापि च ૧ ક્ષાર ભૂમિમાં. ૨ તે પ્રકારની અન્ય ભૂમિએ વિષે. - - Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक सूत्र अध्ययनं ६. , ॥६७॥ नगिणस्स वाषि मुंडस्स, दोहरोमनहंसिनो । मेहुणा उवसंतस्स, किं विभूसाय कारि ननस्य वापि मुंडस्य, दीर्घरोमनखवतः । मैथुनादुपशान्तस्य किं विभूषया कार्यम विभूसावत्ति भिक्खू, कम्मं बंधइ चिक्कणं । संसारसायरे घोरे, जेणं पडइ दुरुत्तरे विभूषा प्रत्ययं भिक्षुः कर्म बध्नाति चिक्कणं । संसारसागरे घोरे, येन पतति दुरुत्तारे विभूसावति चेत्रं, बुद्धा मनति तारिसं । सावजं बहुलं चेयं, नेयं ताईहिं सेविधं विभूषाप्रत्ययं चेतः, बुद्धामन्यन्ते तादृशं । सावद्यबहुलं चैतत्, नैतत् त्रायिभिः सेवितम् खर्वति पाणममोहसिणो, तवे रया संजम अजवे गुणे । धुणंति पावाई पुरेकडाई, नवाई पावाई न ते करंति ॥६८॥ क्षपयन्ति श्रात्मानममोहदर्शिनः तपसिरताः संयमार्जवगुणे । धुन्वन्ति पापानि पुराकृतानि, नवानि पापानि न ते कुर्वते ॥ ६८ ॥ सभोवता श्रममा अकिंचणा, सविजविजाणुगया जसंसिणो । उउप्पसने विमले व चंदिमा, सिद्धिं विमणाई उर्वेति (वयंति) ताणो ॥ त्ति बेभि ॥ ६६ ॥ सदोपशान्ताश्रममाअकिंचनाः स्वविद्यविद्यानुगतायशस्विनः । ऋतुप्रसन्नोविमलइव चंद्रमाः सिद्धिं (च) विमानान्युपयंति त्रायिणः इति ब्रवीमि ॥ ॥६७॥ ॥ इति छ धस्मत्थकाममयणं समन्तं ॥ ६ ॥ ॥ इति षष्ठं धर्मार्थकामाध्ययनं समाप्तम् ॥ ६३ ॥६५॥ ॥६५॥ ||६६। ॥६६॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जैन सिद्धांत पाठमाला. - अह सुवकसुद्धीणाम सत्तमं अज्झयणं. ॥ अथ सुवाक्यशुद्धिर्नाम सप्तममध्ययनम् ॥ । चउण्हं खलु भासाणं, परिसंखाय पनवं । दुहं तु विणयं सिक्खे दोन भासिज सबसो ॥१॥ चतसृणां खलु भाषाणां, परिसंख्याय प्रज्ञावान् । • द्वाभ्यां तु विनयं शिक्षेत, द्वेन भाषेत सर्वशः ॥१॥ जा असञ्चा अवत्तव्वा, सचामोसा अजा मुसा। जा अ बुद्धहि नाइन्ना, न त,भासिज पन्न ॥२॥ या च सत्याऽवक्तव्या, सत्यामृषा च या मृषा । या च बुद्धैर्नाचीर्णो, न तां भाषेत प्रज्ञावान् ॥२॥ असचमोसं सच्चं च, प्रणयजमककसं । समुप्पेहमसंदिद्ध, गिरं भासिज पन्न असत्यामृषा सत्यां च, अनवद्यामकर्कशाम् । समुत्प्रेदयाऽसंदिग्धां, गिरं भाषेत प्रज्ञावान् एयं च अट्टम वा, जंतु नामेइ सासयं । स भासं सम्बमोसं च (पि), तंपि धरी विवजए ॥४ एतं चार्थमन्यं वा, यं तु नामयति शाश्वतम् | स भाषां सत्यामृषां च, तामपि धीरोविवर्जयेत् et वितह पि तहामुत्ति, जं गिरं भासए नरो। तन्हा सो पुठो पावणं, किं पुण जो मुसं वए वितथामपि तथामूर्ति, यां गिरं भाषते नरः । तस्मात् स स्टष्टः पापेन, कि पुनर्यो मृषा वदेत् तम्हा गच्छामो अक्खामो, श्रमुर्ग वा णे भविस्सइ । अहं वाणं करिस्सामि, एसो वाणं करिस्सा Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाउमाळा. - तथैव काणं काणइति, पण्डकं पण्डकइति वा । व्याधिमंतं वापि रोगीति, स्तेनं चोरइति नो वदेत् ॥१२॥ एएणनेण अटेणं, परो जेणुवहम्मइ । पायारभावदोसन्नू, न त भासिज्ज पण्णवं ॥१३॥ एतेनान्येनार्थेन, परोयेनोपहन्यते । श्राचारभावदोषज्ञः, न तं भाषेत प्रज्ञावान् । तहेव होले गोलि त्ति, साणे वा वसुलि त्ति श्र। दमए दुहए वा वि, नेवं भासिज पण्णवं ॥१४॥ तथैव होलोगोल-इति, श्वा वा वसुलइति च । द्रमकोदुर्भगो वापि, नैवं भाषेत प्रज्ञावान् ॥१४॥ अजिए पजिए वावि अम्मो माउस्सिम ति अ। पिउस्तिए भायणिजत्ति, धूए णत्तुणिप्रति अ ॥१५॥ आजिके प्राजिके वापि, अम्ब मातृष्वसइति । पितृण्वस गिनेयीति, दुहितर्नप्रीति च हले हलिति अभित्ति, सट्टे सामिणि गोमिणि । होले गोले वसुलि ति, इस्थिभनेवमालवे हले हले इति अन्ये इति, भट्टे इति स्वामिनि गोमिनि । होले गोले वसुले इति, स्त्रियं नैवमालपेत् ॥१६॥ णामधिज्जेण णं बूया, इत्थीगुत्तेण वा पुणो। जहारिहमाभिगिम, बालविज लविज वा . ॥१७॥ नामधेयेन तां ब्रूयात् , स्त्रीगोत्रेण वा पुनः।। यथार्हमभिगृह्य, आलपेटू लपेद्वा ॥१७॥ अजए पजए वा वि, वप्पो चुल्लपिउ ति । माउलो भाइणिज त्ति, पुत्ते णतुणि त्ति अ १ नथुस. २ खीमी समाधन छ. ॥१८॥ - Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥१८॥ ॥१९॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२०॥ दशवकालिक सूत्र अध्ययनं ७. आर्यक: प्रार्यकोवापि, पिता चुल्लपितेति च । मातुल: भागिनेयइति, पुत्र नप्तइति च हे भो! हलित्ति अन्नित्ति, भट्टा सामिन गोमिश्र । होल गोल वसुलित्ति, पुरिस नेवमालवे हेभो हलेति अन्येति, भर्तः स्वामिन् गोमिन् च । होल गोल वसुलेति, परुषं नैवालपेत् नामधिज्जेण णं श्रा, पुरिसगुत्तेण वा पुणो । जहारिहमभिगिज्म, पालविज लविज वा नामधेयेनैनं ब्रूयात् , पुरुषगोत्रेण वा पुनः । यथार्हममिगृह्य, आलपेल्लपेदू वा पंचिदिशाण पाणाणं, एस इत्थी अयं पुमं । जाव णं न विजाणिजा, ताव जाइ त्ति पालवे पञ्चेन्द्रियाणां प्राणिनां, एषा स्त्री अयं पुमान् । यावदेन न विजानीयात् , तावजातिरित्यालपेत् तहेव मणुस पहुं, पक्खिं वा वि सरीसिवं । थूले पमेइले वझे, पाइमित्ति अनो वए तथैव मनुष्यं पशु, पक्षिणं वा सरीसृपम् । स्थूल: प्रमेदुरो वध्यः, पाक्य इति च नो वदेत् परिखुढे त्ति णं ना, चूना उचिए ति । संजाए पीणिए वावि, महाकाय त्ति पालवे परिवृद्ध इत्येनं ब्रूयात् , यादुपचितइति च । संजातः प्रोणितो वापि, महाकायइत्यालपेत् तहेव गायो दुज्माश्रो दम्मा गोरहग त्ति । चाहिमा रहजोगी ति, नेवं भासिज पण्णवं ॥२३॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२२॥ २३॥ ॥२३॥ ॥२४॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ जैन सिद्धांत पाठमाळा. तथैव गावोदोह्याः, दम्या गोरथकाइति च । वाह्या रथयोग्याः, नैवं भाषेत प्रज्ञावान् जुबं गवि त्ति णं वा धेनुं रसदय त्ति अ । रहस्से महल्लए वा वि, ए संवहणिति अ युवा गौरिति ब्रूयात्, धेनुंरसदेति च । ह्रस्वं महदूवापि, वदेत्संवहनमिति च तहेव गंतुमुजाणं, पव्वयाणि वणाणि । arat महल्ल पेहाए, नेवं भासिज पण्णवं तथैव गत्वोद्यानं, पर्वतान् वनानि च । वृक्षान्महतः प्रेय, नैवं भाषेत प्रज्ञावान् अलं पासायखंभाणं, तोरणाणि गिहाणि च । फलिहग्गलनावाणं, अलं उद्गदोणिणं अप्रासादस्तंभानां, तोरणानां ग्रहाणां च । परिधार्गलानावां, अलमुदकद्रोणीनां पीढए चंगबेरे अ, नंगले मइयं सिया । जंतलट्ठी व नाभी वा, गंडिया व अलं सिचा पीठकाय 'चंगवेराय, लांगलाय मयिकाय स्यात् । यंत्रयष्टये वा नाभये वा, गण्डिकायै वालं स्युः घासणं सवणं जाणं, हुजा वा किंचुवस्सए । भूप्रोवाइणि भासं नैव भासिज पण्णवं आसनं शयनं यानं भूयाद्वा किंचिदुपाश्रये । भूतोपघातिनीं भाषां, नैव भाषेत प्रज्ञावान् 113811 ॥२५॥ ॥२५॥ રા ॥२६॥ ॥२७॥ ॥२७॥ ॥२८॥ ॥२८॥ ॥२३॥ ॥२९॥ ૧ કાšપાત્રી માટે ૨ હળ માટે. ૩ ગાડીના પૈડાં વચ્ચેની નાભિ માટે ૪ સાનીની પુકી માટે. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक सूत्र अध्ययनं ७. तहेव गंतुमुज्जाणं, पव्वयाणि वणाणि च । रुक्खा महल्ल पेहाए, एवं भासिज्ज पण्णवं तथैव गत्वोद्यानं, पर्वतान् वनानि च । वृक्षान् महतः प्रेक्ष्य, एवं भाषेत प्रज्ञावान् जाइमंता इसे रुक्खा, दीह्रवट्टा महालया । पयायसाला विडिमा, वए दरिसणि त्ति अ जातिमन्तइमे वृक्षाः, दीर्घवृत्ता महालयाः । प्रजातशाखाविटपिनः, वदेद्र दर्शनीयाइति च तहा फलाई पक्काई, पायखजाइ नो वए । वेलोइयाई टालाई, वेहिमाइ ति नो वए तथा फलानि पक्वानि, पाकखाद्यानि नो वदेत् । वेलोचितानि कोमलानि, द्वैधिकानि इति नो वदेत् असंथडा इमे अंबा, वहुनिव्वडिमा फला । वइज बहुसंभूआ, भूरूव त्ति वा पुणो 'असमर्थत आम्राः, बहुनिर्वर्तितफला: । वदेदू बहुसंभूताः, भूतरूपाइति वा पुनः तहेबोसहीयो पक्कायो, नीलिओ कवी अ । लाइमा भजिमाड त्ति, पिहुखज त्ति नो वए तथैवौषधयः पक्काः, नीलाश्ववयश्च । लवनवत्यो भर्जनवत्यः, टयुकखाद्या इति नो वदेत् रूढा बहुसंभूया, थिरा प्रसढा वि । गभिप्राय पाप्रो, संसाराउ ति आलये रूढा बहुसंभूताः, स्थिरा उत्सृताअपि च । गर्भिताः प्रसूताः, संसारा इत्यालपेत् ૧ નમી ગયેલા. ६६ 113011 ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३१॥ ॥३२॥ ॥३२॥ ॥३३॥ ॥३३॥ ॥३४॥ 113811 ॥३५॥ ॥३५॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३६॥ ॥३६॥ ॥३७॥ ॥३७॥ ॥३८॥ जैन सिद्धांत पाठमाळा. तहेव संखडि नशा, कि कज त्ति नोपए। तेणगं वावि वज्मि त्ति, सुतिथि त्ति अप्रावगा तथैव 'संखडी ज्ञात्वा, कृत्यं कार्यमिति नो वदेत् । स्तेनकं वापि वध्यइति, सुतीर्था इति चापगाः संखडि संखडि वूश्रा, पणिभट्ट त्ति तेणगं । वहुसमानि तित्याणि, प्रावगाणं विभागरे संखडी संखडी ब्रूयात् , पणितार्थमितिस्तेनकं । बहुसमानि तीर्थानि, आपगानां व्यागृणीयात् । तहा नईश्रो पुण्णाश्रो, कायत्तिज त्ति नी वए । नावाहि तारिमाउ ति, पाणिपिज ति नो वए तथानद्यः पूर्णाः कायतरणीया इति नो वदेत् । नौमिस्तरणीया इति, प्राणिपेयाइति नो वदेत बहुवाहडा अगाहा, बहुसलिलुप्पिलोदगा। बहुवित्थडोद्गा प्रावि, एवं भासिज पण्णवं बहुभृता अगाधाः, बहुसलिलोत्पीडोदकाः । बहुविस्तीर्णोदकाश्चापि, एवं भाषेत प्रज्ञावान् तहेव सावज जोग, परस्सट्टा अनिटिअं। कीरमाणं ति वा नचा, सावज न लवे मुणी तथैव सावधं योगं, परस्यार्थ च निष्ठितम् । । क्रियमाणमिति वा ज्ञात्वा, सावधं न लपेन्मुनिः सुकडि त्ति, सुपक्कि त्ति, सुच्छिन्ने सुहडे मडे । सुनिट्टिए सुलहित्ति, सावज वजए मुणी सुरुतमिति सुपक्कमिति, सुच्छिन्नं सुहृतं मृतम् । सुनिष्ठितं सुलष्टमिति, सावधं वर्जयेन्मुनिः ૧ સાવદ્યકિયા. ॥३८॥ ॥३६॥ ॥३९॥ ॥४०॥ ॥४०॥ ॥४१॥ ॥४१॥ - Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४४॥ दशवकालिक सूत्रं अध्ययनं ७. ७१ पयत्तपक्कि त्ति व पकमालवे, पयत्तछिन्न त्ति व छिन्नमालवे। पयत्तलहित्ति व कम्महेउ, पहारगादित्ति व गाढमालवे ॥४२॥ प्रयत्नपक्वमिति पक्कमालपेत् , प्रयत्नच्छिन्नमितिवाछिन्नमालपेत्। प्रयत्नलष्टमिति वा कर्महेतुकं गाढप्रहारमिति वा गाढमालपेत्।४२॥ सबुक्कसं परग्धं वा, अउल नस्थि एरिसं । अविक्किममवत्तव्वं, अचित्तं चेव नो वए ॥४३॥ सर्वोत्कर्ष परायं वा, अतुलं नास्तीदशम् । असंस्कृतमवक्तव्यं, अप्रीतिकं चैव नो वदेत् ॥४३॥ सव्वमेधे वइस्सामि, सव्वमेधे ति नो वए । अणुवीइ सत्वं सम्वत्थ, एवं भासिज पण्णवं सर्वमेतद् वदयामि, सर्वमेतदिति नो वदेत् । अनुचिन्त्य सर्वं सर्वत्र, एवं भाषेत प्रज्ञावान् ॥४४॥ सुक्कीनं वा सुविक्की, अकिज्ज किजमेव वा । इमं गिण्ह इमं मुंच, पणि नो वियागरे ॥४५॥ सुक्रोत वा सुविक्रीतं, अक्रेय केयमेव वा । इदं गहाणेदंमुच, पणितं नो व्यागणीयात् ॥४५॥ अप्पग्धे वा महन्धे वा, कप वा विक्कए विदा । पणिहे समुप्पन्ने, अणवज्ज विभागरे ॥॥ अल्पार्थे वा महा वा, क्रये वा विक्रयेऽपि वा । पणितार्थे समुत्पन्ने, अनवद्यं व्यागणीयात् ॥४६॥ तहेवासंजयं धीरो, पास एहि करहि वा। सरचिट्ठ वयाहित्ति, नेवं भासिज पण्णवं ॥४७॥ तथैवासंयतं धीरः, आस्व एहि कुरुवा । शेव तिप्ठ वदेति, नैवं भाषेत प्रज्ञावान् ॥४७|| Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ - जैन सिद्धांत पाठमाळा. बहवे इमे असाहू , लोए वुच्चंति साहुणो । न लवे असाहुं साहुत्ति साहुं साहुत्ति पालवे । बहवइम असाधवः, लोक उच्यन्ते साधवः । न लपेदसाधु साधुरिति, साधु साधुरित्यालपेत् ॥४८॥ नाणदसणसंपन्न, संजमे अ तवे रयं । एवं गुणसमाउत्त, संजय साहुमालवे ॥४॥ ज्ञानदर्शनसपन्नं, संयमे च तपसि रतम् । एवं गुणसमायुक्तं, संयतं साधुमालपेत् ॥४९॥ देवाणं मणुाणं च, तिरिमाणं च बुग्गहे । अमुगाणं जो होड, मा वा होउत्ति नो वए ॥५०॥ देवानां मनुनानां च, तिरश्चां च विग्रहे । अमुकानां जयो भवतु, मा वा भवत्विति नो वदेत् ॥५०॥ वाश्रो वुटु व सीउण्हं, खेम धार्य सिवं ति वा । कया गु हुज एआणि, मा वा होउ ति नो वए ॥५१॥ वायुवि॒ष्टं च शीतोष्ण, क्षेमं 'ध्रातं शिवमिति. वा ।। कदा नु भवेयुरेतानि, मा वा भवेयुरिति नो वदेत् ॥११॥ तहेव मेहं व नहं वं माणवं, न देवदेव त्ति गिरं वइजा । समुच्छिए उनए वा पोए, वइज्ज वा वुट बलाहय त्ति ॥५२॥ तथैव मेधं वा नभोवा मानवं, न देवं देवइति गिरं वदेत् । समुच्छित उन्नतो वा पयोदः, वेदेवा वृष्टो बलाहक इति ॥५२॥ अंतलिक्खे ति णं बूमा, गुज्माणुचरित्र त्ति । रिद्धिमंतं नरं दिस्त, रिद्धिमंत ति पालवे अन्तरिक्षमिति तदबयात् , गुह्यानुचरितमिति च । ऋद्धिमन्तं नरं दृष्टवा, ऋद्धिमानित्यालपेत् ॥५३॥ १ सुण, बानो राज आणि में प्रा - - Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • दशवकालिक सूत्र अध्ययनं ७. ७३ तहेव सावजणुमोणी गिरा, श्रोहारिणी जा य परोवघाइणी। से कोह लोह भय हास माणवो, न हासमाणो वि गिरंवइजा ॥५४॥ तथैव सावधानुमोदिनी गिरा, अवधारिणी या च परोपघातिनी। तांक्रोधलोभभयहास्येभ्योमानवः, न हसन्नपि गिरं वदेत् ॥१४॥ सुवकलुद्धि समुपेहिया मुणी, गिर ज दुठं परिवजए सया । मिश्र अदुठे अणुवीइ भासए, सयाण मज्मे लहई पसंसणं ॥५५॥ सुवाक्यशुद्धिंसमुत्प्रेक्ष्य मुनिः, गिरां च दुष्टां परिवर्जयेत्सदा। मितमदुष्टमनुचिन्त्य भाषते, सतां मध्ये लमते प्रशंसनम् ||१५|| भासाइ दोसे अ गुणे अजाणिवा, तीले अदुट्टे परिवजए सया। छसुसंजए सामणिए सया जए, वइज्ज बुद्धे हिप्रमाणुलोमि६॥ भाषायादोषानगुणान् च ज्ञात्वा, तस्याश्च दुष्टाया: परिवर्नकःसदा। षट्सु संयतः श्रामण्ये सदा यतः,वदेबुध्यो हितमानुलोमिक॥५६॥ परिक्खभासी लुसमाहिदिए, चउकसायावगए अणिस्सिए । स निझुणे धुत्तमलं पुरेकर्ड, पाराहए लोगमिणं तहा परं ॥५॥ परीदयभाषी सुसमाहितेन्द्रियः, अपगतचतु:कषायोऽनिश्रितः। स निघूनोति 'धून्नमल पुराहतं, आराधयति लोकमिमं तथा परम् ति बेमि ।। इति सुवक्कसुद्धीनाम सत्तमं अज्झयणं समत्त ॥७॥ इतिब्रवीमि--इतिसुवाक्यशुध्धिनामसप्तममध्ययनं संपूर्णम् ॥ अह अायारपणिही अहममज्झयणं ॥ ॥ अथ आचारप्रणिधिनामाऽष्टममध्ययनम् ॥ प्रायारपणिहिं लड़े, जहा कायव भिक्खुणा । तं मे उदाहरिस्सामि, प्राणुपुचि सुणेह मे ॥॥ ૧ કમળ. - - Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ । जैन सिद्धांत पाठमाळा. आचारप्रणिधिलब्ध्वा , यथा कर्तव्यं भिक्षुणां । तदभवदम्य उदाहरिष्यामि, आनुपूर्व्या शृणुत मम ॥१॥ पुढविद्गगणिमारुश्र, तणरुक्खस्स बीयगा । तसा अ पाणा जीव त्ति, इइ कुत्तं महेसिणा ॥२॥ पृथिव्युदकाग्निमारुताः, तृणवृत्तसबीजकाः । त्रसाश्च प्राणिन जीवाइति, इत्युक्त महर्षिणा . ॥२॥ तेसिं अच्छणजोएण, निश्च होश्रध्वयं सिमा । मणसा कायवक्केण, एवं हवइ संजए तेषामक्षण योगेन, नित्यं भवितव्यं स्यात् । मनसाकायवाक्येन, एवं भवति संयतः पुढवि भित्ति सिल लेलु, नेव भिंदे न संलिहे । तिविहेण करणजोएण, संजए सुसमाहिए पक्षा एथिवी भित्तिशिलां लोष्ठं, नैव भिद्यात् नैव संलिखेत् । त्रिविधेन करणयोगेन, संयतः सुसमाहितः ॥४॥ सुद्धपुढवीं न निसीए, ससरक्खम्मि अ पासणे । पमजितु निसीइजा, जाइत्ता जस्स उम्गहं (सचेत) शुध्धष्टथिव्यां न निषीदेत् , सरजस्के चासने। प्रमृज्यनिषीदेत् , याचयित्वा यस्याऽवग्रहम् सीअोदगं न सेविजा, सिलावुटु हिमाणि श्र। उसिणोदगं तत्तफासुग्रं, पडिगाहिज्ज संजए ॥६॥ शीतोदकं न सेवेत, शिलावृष्टं हिमानि च | उष्णोदकं तप्तप्रासुकं, प्रतिगृहणीयात् संयतः उदउल्लं अप्पणोकाय, नेव पुंछ न' संलिहे । समुप्पेह तहाभूध, नो णं संघट्टए मुणी ૧ અહિંસાગથી. ||५|| ७॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ ॥७॥ ॥८॥ ॥॥ दशवकालिक सूत्रं अध्ययनं ८. उदकामात्मनः कार्य, नैव पुञ्छयेन् न संलिखेत् । समुत्प्रेदयतथामूतं, नो एनं संघट्टयेन्मुनिः इंगालं अगणिं अश्विं, अलायं वा सजोइनं । न उजिजा न घट्टिजा, नो णं निव्वावए मुणी अंगारमग्निमर्चिः अलातं वा सज्योतिः । नोसिञ्चन्नोघट्टयेत् , नैनं निर्वापयेन्मुनिः तालिघंटेण पत्तेण, साहाए विहुयणेण वा । न वीइज अप्पणो कार्य, बाहिरं वा वि पुग्गल तालवृन्तेन पत्रेण, शाखयाविधुवनेन वा । न वीजयेदात्मनःकाय, वाह्यं वापि पुद्गलम् तणरुक्खं न छिदिजा, फलं मूलं च कस्सइ । श्रामगं विविहं वीअं, मणसा वि ण पत्थए तृणवृत्तं न च्छिद्यात् , फलं मूलं च कस्यापि । आमकंविविधं बीजं, मनसापि न प्रार्थयेत् । गहणेसु न चिट्ठिजा, वीएसु हरिएलु वा । उदगम्मि तहा निच्च, उत्तिगपणगेसु वा गहनेषु न तिष्ठेत् , वीजेषु हरितेषुवा । उदके तथा नित्यं, उत्तिगपनकयो, तसे पाणे न हिसिजा, वाया अदुव कम्मुणा । उवरो खब्वभूएसु, पासेज्ज विविहं जगं त्रसान्प्राणिनो न हिंस्यात् , वाचाथवा कर्मणा । उपरतःसर्वभूतेषु, पश्येद्विविधं जगत् अह सुहुमाइ पेहाए, जाई जाणित्तु संजए । दयाहिगारी भूएसु, श्रास चिट्ठ सएहि वा ॥१०॥ ॥१०॥ ॥१ ॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१२॥ ॥१३॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. अष्टौ सूक्ष्माणि प्रेक्ष्य, यानिज्ञात्वा संयतः। दयाधिकारी भूतेषु, आसीत तिष्टेत् गयीत च ॥१३॥ कयराई अहसुहमाई, जाई पुच्छिन्न संजए । इमाई ताई मेहावी, श्राइक्विज विअक्खणो ॥१४॥ कतराणि अष्टसूदमाणि, यानि एच्छेत्संयतः । इमानि तानि मेधावी, आचक्षीतविचक्षणः ॥१४॥ सिणेहं पुप्फसुहुमं च, पाणुत्तिंग तहेव य । पणगं वीथ हरिमं च, अंडमुहुमं च अट्टमं स्नेहं पुप्पसूक्ष्मं च, प्राण्युत्तिगौं तथैव च । पनकं वीजहरितं च, अण्डसूम चाप्टमम् एवमेयाणि जाणित्ता, सव्वभावेण संजए । अप्पमत्तो जए निच्च, सविदिअसमाहिए एवमेतानि ज्ञात्वा, सर्वमावेन संयतः । अप्रमत्तो यतेत नित्यं, सर्वेन्द्रियसमाहितः । धुवं च पडिलेहिजा, जोगसा पायकवलं । सिजमुच्चारभूमि च, संथारं अदुवासणं ॥१७॥ ध्रुवं च प्रतिलेखयेत् , (योगेसति) योगेन पात्रकम्वलम् । शय्यामुच्चारभूमि च, संस्तारमथवासनम् उचारं पासवणं, खेल सिंघाणतल्लिनं । फासुग्रं पडिलेहित्ता, परिहाविज संजए उच्चारं प्रस्रवण, श्लेष्म संघ्राण जल्लिकम् । । प्रासुकं प्रतिलेख्य, परिण्ठापयेत्संयतः ॥१८॥ पविसित्तु परागारं, पाणटा भोअणस्स वा । जयं चिटु मिश्रं भासे, न य रुवेसु मणं करे ॥१६॥ १ भा. . In ॥२८॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ ७७ - ॥१९॥ . ॥२०॥ ॥२॥ ॥२१॥ दशवकालिक सूत्र अध्ययनं ८. प्रविश्य परागारं, पानार्थ भोजनाय वा । यतं तिप्ठेन्मितं भाषेत, न च रूपेषु मनःकुर्यात् वहु सुणेइ कण्णेहिं, वहुं अच्छीहि पिच्छइ । न य दिलं सुन सन्वं, भिक्खू अक्खाउमरिहइ बहुशणोति कर्णाभ्यां, बहु अक्षिम्यां पश्यति । न च दृष्टं श्रतं सर्व, भिक्षुराख्यातुमर्हति सुश्र वा जइ वा दिहं, न लविज्जो वधाइनं । न य केण उवाएणं गिहिजोगं समायरे श्रुतं वा यदिवा दृष्टं, न लपेदौपघातिकम् । न च केनोपायेन, गृहियोग समाचरेतू निहाणं रसनिज्जूढ़, भगं पावर्ग ति वा । पुटो वावि अपुट्ठो वा, लाभालाभ न निदिसे निष्ठानं रसनिव्यूढं, भद्रकं पापकमिति वा । पष्टो वाप्यष्टप्टो वा, लाभालाभौ न निर्दिशेत् न य भोप्रणम्मि गिद्धो, चरे उछ अयंपिरो । अफासुग्रं न भुजिजा, कीमुदेसिपाहड न च भोजने गृद्धः, चरेदुञ्च्छमजल्पाकः । अप्रासुकं न भुञ्जीत, क्रीतमौद्देशिकमाहृतम् सनिहिं च न कुविजा, अणुमायं पि संजए । मुहाजीवी असंवद्ध, हविज जगनिस्सिए सन्निधि च न कुर्वीत, अणुमात्रमपि संयतः । मुधाजीव्यसंवद्धः, भवेज्जगन्निश्रितः लूहवित्ती सुसंतुढे, अप्पिच्छे सुहरे सिधा । प्रासुरत्तं न मच्छिन्जा, सुच्चा गं जिणसासणं ॥२२॥ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२३॥ પારકા ॥२४॥ ।२५॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक सूत्र अध्ययनं ८. सजानन्नाजानन् वा, कृत्वाऽधार्मिकं पदम् । संवृणुयात्क्षिप्रमात्मानं, द्वितीयं (पुनः) तन्नसमाचरेत् ॥३१॥ प्रणायारं परक्कम्म, नेव गृहे न निण्हवे । सूई सया वियडभावे, प्रसंसत्ते जिदिए अनाचारं पराक्रम्य, नैव गूहेत ननिहुबीत । शुचिः सदाविकटभाव:, असंसक्तोर्जितेन्द्रियः मोहं वयणं कुजा, आयरिअस्स महप्पणो । तं परिगिज्म वायाए, कम्मुणा उववायए अमोघं वचनं कुर्यात्, आचार्यस्य महात्मनः । तं परिगृह्य वाचया, कर्मणोपपादयेत् अधुवं जीविप्रं नचा, सिद्धिमगं विश्राणिया । विणिट्टिज भोगेसु, पाउं परिमियमप्पणो अधुवं जीवितं ज्ञात्वा सिद्धिमार्ग विज्ञाय । विनिवतत भोगेभ्यः, आयुः परिमितमात्मनः वलं थामं च पेहाए, सद्धामारुग्गमप्पणी । वित्तं कालं च विन्नाय, तहप्पाणं निजुंजर बलं स्थामं च प्रेक्ष्य, श्रद्धामारोग्यमात्मनः । क्षेत्र कालं च विज्ञाय, तथात्मानं नियुञ्जीत जरा जाव न पीडेर, वाही जाव न चढइ | जाविंदिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे ? जरा यावन्न पीडयति, व्याधिर्यावन्नवर्धते । यावदिन्द्रियाणि न हीयंते, तावदू धर्मसमाचरेत् कोहं माणं च मायंच, लोभ व पाववडणं । मे चत्तारि दांते उ, इच्छंती हिश्रमप्पणी ७६ ||३२|| ॥३२॥ ॥३३॥ ॥३३॥ In 113811 ॥३५॥ जु३५॥ 113611 ॥३६॥ ॥३७॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा.. क्रोधं मानंच मायां च, लोभं च पापवर्धनम् । 1. वमेच्चतुरो दोषान् , इच्छन्हितमात्मनः ॥३७॥ कोहो पीई पणासेइ, माणो विणयनासणो। , माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सबविणासणो । ॥३॥ क्रोधःप्रीति प्रणाशयति, मानो विनयनाशनः । । मायामित्राणिनाशयति, लोभः सर्वविनाशक: ॥३८॥ उवसमेण हणे कोहं, माणं महवया जिणे । मायमजवभावेण, लोभ संतोसनो जिणे ॥३ उपशमेन हन्यानोपं, मानं मार्दवेन जयेत् । मायां च ऋजुभावेन, लोभ संतोषतो जयेत् ॥३९॥ कोहोश्र माणो श्र अणिग्गहीश्रा, माया प्रलोभो अपवढमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुर्णब्भवस्स Maok क्रोधश्चमानश्चानिंगहीतौ, माया च लोभश्चप्रवर्धमानौ । चत्वारएते कृत्स्ना कषायाः, सिंचत्ति मूलानि पुनर्भवस्य ॥४०॥ रायणिएमु विणयं पउंजे, धुवसीलयं सययं न हावइजा । कुम्मुव्व अल्लोणपलीणगुत्तो, परकमिजा तवसंजमम्मि ॥४१॥ रत्नाधिकेषु विनयं प्रयुञ्जीत, ध्रुवशीलतां सततं न हापयेत् । कूर्मइवालीनप्रलीनगुप्तः, पराक्रमेत् तपःसंयमे ॥४१॥ निदं च न बहु मनिज्जा, सप्पहासं विवजए। .. मिहो कहाहि न रमे, सज्मायम्मि रो सया ॥४॥ निंद्रां च न बहुमन्येत, सपहास विवर्जयेत् । मिथःकथासु न रमेत, स्वाध्याये रतः सदा ॥४२॥ जोगं च समणधम्ममि, मुंजे अनलसो धुर्व । ॥४३॥ जुत्तो असमणधम्मम्मि, श्रहं लहइ अणुत्तरं Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४३॥ ॥४३॥ ॥श्या ॥४॥ ॥५॥ दशवकालिक सूत्र अध्ययनं ८ जोगं च समणधम्मम्मि, मुंजे अनलसो धुवं । शुचो असमणधम्मम्मि, अटुं लहइ अणुत्तरं योगंच श्रमणधर्मे, युञ्जीताऽनलसो ध्रुवम् । युक्तश्च श्रमणधर्म, अर्थलभतेऽनुत्तरम् इहलोगपारत्तहिनं, जेणं गच्छइ सुम्गाई । बहुस्सुग्रं पज्जुवासिजा, पुच्छिजस्थविणिच्छ इहलोकपरत्रहितं, येन गच्छति सुगतिम् । बहुश्रुतं पर्युपासीत, एच्छेदयविनिश्चयम् हत्थं पायं च कायं च, पणिहाय लिहदिए । अल्तीणगुत्तो निसिए, सगासे गुरुणो मुणी हस्तं पादं च कायं च, प्रणिधाय जितेन्द्रियः । आलीनगुप्तोनिषादेत् , सकाशे गुरोर्मुनिः न पक्खो न पुरश्रो, नेव किश्चाण पिढयो । न य अहं समासिज, चिहिजा गुरुतिए न पक्षतो न पुरतः, नवकृत्यानां पृष्ठतः। नच ऊरुसमाश्रित्य, तिप्ठेद् गुरूणामन्तिके अच्छियो न भासिजा, भासमाणस्स अंतरा। पिट्टिमंसं न खाइजा, मायामोसं विवजए अष्टष्टो न भाषेत, भापमाणस्यान्तरा। 'एष्टिमासं न खादेत् , मायां मृपा विवर्जयेत् । अपत्ति जेण लिया, पातु कुप्पिज वा परो। सवसो त न भासिजा, भासं अहिअगामिर्णि अप्रीतिकं येन स्यात् , आशुकुप्येहा परः। सर्वशन्तां नमापेत, मापामहितगामिनीम् १ निवा. ॥४५॥ ilean ॥४६॥ 12G ॥४॥ ॥४८॥ - Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४॥ ॥४९॥ ॥५०॥ ॥५०॥ ॥५२॥ जैन सिद्धांत पाठमाळा. दिट्ट मित्रं असंदिदं, पडिपुन विमं जिभ । अयंपिरमणुविग्गं, भास निसिर अत्तवं दृष्टां मितामसंदिग्धां, प्रतिपूर्णा व्यक्तां जिताम् । अजल्पनशीलामनुद्विग्नां, भाषांनिसृजेदात्मवान् आयारपन्नतिधर, दिठिवायमहिजगं । वायविक्खलिश्र नबा, न तं उवहसे मुणी आचारप्रज्ञप्तिधरं, दृष्टिवादमधीयानं । वाग्विस्खलितं ज्ञात्वा, नतमुपहसेन्मुनिः नक्खतं सुमिणं जोग, निमित्त मंतभेसर्ज। गिहिणो तं न आइक्खे, भूमाहिगरणं पर्य नक्षत्रं स्वप्नं योग, निमित्त मंत्रभेषजे । गहिणस्तन्नाचतीत, भूताधिकरणं पदम् अन्नटुं पगडं लयणं, भाज सयणासणं । उच्चारभूमिसंपन्नं, इत्थीपसुविजिथं अन्याथें प्ररुतंलयन, भजेल्शयनासनम् । उच्चारभूमिसपन्नं, स्त्रीपशुविवर्जितम् । विवित्ता अ भवे सिजा, नारीणं न लवे कहं । गिहिसंयवं न कुजा, कुजा साहूहिं संथवं विविक्ता च भवेच्छय्या, नारीणां न लपेत्कथाम् । गृहिसंस्तवं न कुर्यात् , कुर्यात्साधुभिः संस्तवम् जहा कुक्कुडपोअस्स, निश्च कुललश्रो भयं । एवं खु वंभयारिस्स, इत्थीविग्गहलो भयं यथा कुक्कुटपोतस्य, नित्यं 'कुललतो भयम् । एवं खलु ब्रह्मचारिणः, स्त्रीविग्रहतो भयम् १ विलाडी. ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५२॥ ॥५३॥ ॥५३॥ ॥५४॥ ॥५४॥ - Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५७॥ दशवकालिक सूत्र अध्ययनं ८. चित्तमित्तिं न निज्माए, नारिं वा सप्रलंकिअं । भक्खरं पिव दहणं, दिहिं पड़िसमाहरे चित्रभित्तिं न निध्यायेत् , नारी वा स्वलंकृताम् । भास्करमिव दृष्टवा, दृष्टिं प्रतिसमाहरेत् हत्थपायपडिच्छिन्नं, कन्ननासविगप्पिनं । अवि वाससयं नारिं, वंभयारी विवजए हस्तपादप्रतिच्छिन्नां, कर्णनासाविकताम् । वर्षशतिकामपि नारी, ब्रह्मचारी विवर्जयेत् विभूसा इस्थिसंसग्गी, पणीनं रसभोअणं । नरस्सत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा विभूषा स्त्रीसंसर्गः, प्रणीतं रसभोजनम् । नरस्यात्मगवेपिणः, विषं तालपुटं यथा अंगपश्चंगसंठाणं, चारुल्लविप्रपेहिनं। इत्थीणं तं न निज्माए, कामरागविवडणं अंगप्रत्यंगसंस्थान, चारुलपितपेक्षितम् । स्त्रीणां तन्ननिध्यायेत् , कामरागविवर्धनम् विसपसु मणुण्णेतु, पेम नाभिनिवेसए । अणि तेसी विणाय, परिणाम पुग्गलाण य विषयेषु मनोनेपु, प्रेम नाभिनिवेशयेत् । अनित्यं तेया विज्ञाय, परिणाम पुद्गलानां च पोन्गलाणं परिणाम, तेसिं नच्चा जहा तहा । विणीप्रतिण्हो विहरे, सीईभूएण अप्पणा पुद्गलानां परिणाम. तेपा ज्ञात्वा यथा तथा । विनीत तृप्णो विहरेत , शीतीमूतेनात्मना ॥५७॥ ॥५६॥ H५॥ ॥५९॥ ॥६॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैन सिद्धांत पाठमाळा. जाइ सद्धाइ निक्खंतो, परिप्रायद्वाणमुत्तमं । तमेव अणुपालिजा, गुणे प्रायरिश्रसंमए यया श्रद्धया निःक्रान्तः, पयोयस्थानमुत्तमम् । तदेवानुपालयेत् , गुणेष्वाचार्यसमतेषु ॥६॥ तवं चिम संजमजोगय च, समायजोगं च सया अहिए। सूरे व सेणाइ समत्तमाउहे, अलमप्पणो होइ अलं परेसि ॥६॥ तपश्चेदं संयमयोगकं च, स्वाध्याययोगं च सदाऽधिष्ठाता।' शूर इव सेनयासमाप्तायुधः, अलमात्मनो भवत्यलंपरेषां॥६२॥ सज्झायसुझाणरयस्स ताइणो, अपावभावस्स तवे रयस्स। विमुज्मई जैसि मल पुरेकर्ड, समीरिध रुपमल व जोइणा३॥ स्वाध्यायसुध्यानरतस्य तायिनः, अपापभावस्यतपसि रतस्य । विशुध्यत्यस्यमलं पुराहतं, समीरित रूप्यमलमिवज्योतिषा॥६॥ से तारिसे दुक्खसहे जिइदिए, सुरण जुत्ते अममे अकिंचणे। विरायई कम्मघणमि अवगए,कसिणभपुडावगमे व चंदिमा॥६॥ सताहशो दुःखसहो जितेंद्रियः, श्रुतेन युक्तोऽममोऽकिचनः । विराजते कर्मघनेऽपगते, कृत्स्नाभ्रपुटापगमे इव चंद्रमाः ॥६॥ त्ति बेमि॥ इति श्रआयारपणिहीणामं अट्टममामयणं समन्तं ॥८॥ इति ब्रवीमि-आचारप्रणिधिनामाष्टममध्ययनं समाप्तम् ॥८॥ अह विणयसमाहीणाम नवममझयणं ॥ अथ विनयसमाधिनाम नवममध्ययनम् ॥ थंभा व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे । सो चेव उ तस्स अभूइभावो, फलं व कीरस वहाय होह॥१॥ स्तंभाहा क्रोधाहामायाप्रमादात् , गुरुसकाशे विनयं न शिक्षते। सचैवतु तस्याभूति भावः, फलमिव कीचकस्य वधाय भवति॥१॥ १ असंपत्तिभाव. २ वांश. - Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक सूत्रं अध्ययनं ६. उ. १ ८५ जे प्रावि मैदि ति गुरुं विदत्ता, डहरे इमे अप्पसुप त्ति नया। हीलंति मिच्छ पडिवजमाणा, करंति पासायण ते गुरुणं ॥२॥ ये चापिमंदमितिगुरुं विदित्वा, डहरों ऽयमल्पश्रुत इति ज्ञात्वा । हीलयन्ति मिथ्यात्वं प्रतिपद्यमानाः, कुर्वन्याशातनांतेगुरूणाम। पगईए मंदा वि भवंति एगे, डहरा विश्र जे सुप्रवुद्धोववेना । आयारमंता गुणसुटिअप्पा, जे हीलिमा सिहिरिव भास कुजा। प्रकृत्यामन्दा अपिभवन्त्येके, डहरा अपिच ये श्रुतबुध्योपपेताः। आचारवन्तो गुणसुस्थितात्मानः, ये हीलिता शिखीवभस्मऊर्यु:३ जे श्रावि नागं डहरं ति नच्चा, पासायए से अहिप्राय होइ। एवायरिय पि हु होलयंतो, निअच्छई जाइपहं खु मंदो (दे) ॥४॥ यश्चापिनागंडहरमिति ज्ञात्वा, आशातयति स अहितायभवति । एवमाचार्यमपि खलु हीलयन्, नियच्छति जातिपन्थानं हु मन्दः॥ प्रासीविसो वावि परं सुरुडो, किंजीवनासाउ परंतु कुजा । आयरिश्रपाया पुण अप्पसन्ना, अवोहिपासायण नत्थि मुक्खो। आशीविषो वापि परं सुरुष्टः, किंजीवनाशायाः परं नु कुर्यात् । आचार्यपादा:पुनरप्रसन्नाः, अबोधिं आशातनया नास्तिमोक्षः॥५॥ जो पावग जलिश्रमवकमिजा, प्रासीविसं वा विहु कोवइज्जा। जो वा विसंखायइ जीविट्ठी, एसोवमासायणया गुरूणं ॥६॥ यःपावकंज्वलितमवक्रम्येत् , आशीविष वापि खलु कोपयेत् । योवाविषखादति जीवितार्थी, येषोपमाशातनयागुरूणाम् ॥६॥ सिधा हु से पावय नोडहिजा, पासीविसो वा कुविनोन भक्खे। सिमा विसं हालहलं न मारे, न प्रावि मुक्खो गुरुहीलणाए hin स्यात्खलुसपावको नो दहेत , आशीविषो वा कुपितो न भक्षयेव। स्याविषंहालाहलं नमारयेत् , न चापि मोतोगुरुहीलनया ॥७॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. जी पव्वयं सिरसा भितुमिच्छे, सुत्त व सीह पड़ियोहाना। जो वा देए सत्तिग्गे पहार, एसोर्वमासायणंया गुरुणं ॥८॥ यःपर्वतं शिरसाभेत्तुमिच्छेत् , सुप्तं वा सिंह प्रतिबोधयेत् । योवादद्यात् शक्त्यग्रेप्रहार, एषोपमाशातनया गुरूणाम् ॥८॥ सिया हु सीसेण गिरि पि भिंदे, सिया हु सीहो कुवित्रो न भक्खे। सिमा न मिंदिज वसतिगं, न प्रावि मुक्खो गुरुहीलणाए । स्यात्खलु शीणगिरिमपिमिन्यात् ,स्यात्खलुसिंहःकुपितोनभक्षयेत् स्यान्नभिन्द्याचशक्त्यग्र, नचापिमोक्षोगुरुहीलनया ॥९॥ पायरिअपाया पुण अप्पसन्ना, अवोहियासायण नत्यि मुक्खो। तम्हा अणावाहनुहाभिकखी, गुरुप्पसायाभिमुहो रमिजा ॥१०॥ आचार्यपादाःपुनरप्रसन्नाः, अबोर्धिमशातनया नास्तिमोक्षः । ' तस्मादनाबाधसुखाभिकांक्षी; गुरुप्रसादाभिमुखो रमेत ॥१०॥ जहाहिअन्गी जलणं नमसे, नाणाहुईमतपयाभिसित्तं । एवायरिनं उवचिजा, अणतनाणोवगनो वि संतो ॥११॥ यथाहिताग्निचलननमस्यति, नानातिमंत्रपदाभिषिक्तम् । एवमाचार्यमुपतिष्ठेत, अनंतज्ञानोपगतोऽपिसन् जस्संतिए धम्मपयाइ सिक्खे, तस्सतिए वेणइयं पउंजे । सकारए सिरसा पंजलीयो, कायस्गिरा भो मणसा अनिश्च ॥ यस्यांतिके धर्मपदानिशिक्षेत, तस्यांतिकेवेनेयिकंप्रयुञ्जीत । सत्कारयेत् शिरसापांजलिकः, कायेनगिराभोमनसाचनित्यम् १२ लज्जा दया संजमवभचेरं, कल्लाणभागिस्स विसोहिठाणं । जे मे गुरू सययमणुसासयंति, तेहिं गुरू सययंपूश्यामि ॥१३॥ लज्जादयासंयमो ब्रह्मचर्य, कल्याणभाजिनो विशुद्धिस्थानम् । ये मां गुरवःसततमनुशासयंति; तान्गुरून सततं पूजयामि॥१३॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक सूत्रं अध्ययन ६. उ. २ ८७ जहा निसंते तवणञ्चिमाली, पभासई केवलभारहं तु । एवायरिओ सुअसीलवुद्धिए, विरायई सुरमझे व इदो ॥१४॥ यथानिशांते तपन्नचिौली, प्रभासते केवलं भारतंतु । एवमाचार्य:श्रुतशीलबुध्ध्या, विराजते सुरमध्यइवेन्द्रः ॥१४॥ जहाससी कोमुइजोगजुत्तो, नक्खत्ततारागणपरिपुडप्पा। खेसोहई विमल अभमुक्के, एवं गणी सोई भिक्खुमझे ॥१५॥ यथाशशीकौमुदीयोगयुक्तः, नक्षत्रतारागणपरिवृतात्मा । खे शोभतेविमलेऽभ्रमुक्के, एवंगणीशोभते भिक्षुमध्ये ॥१९॥ महागरा प्रायरिआ महेसी, समाहिजोगे सुअसीलदुद्धिए । संपाविउकामे अणुत्तराई, धाराहए तोसइ धम्मकामी ॥६॥ महाकरानाचार्यान्महर्षिणः, समाधियोगैः श्रुतशीलवुध्ध्या। संप्राप्तुकामः अनुत्तराणि, आराधयति तोषयतिधर्मकामी ॥१६॥ सुच्चा ण नेहाची लुभासिवाई, सुरसूलए आयरिश्रप्पमत्तो । पाराहइत्ताण गुणे अणेगे, से पावई सिद्धिमणुत्तरं॥त्ति बेमि १७ श्रुत्वामेधावीसुभापितानि, शुश्रूषयेदाचार्यानप्रमत्तः । आराधयित्वागुणाननेकान् , सप्राप्नोतिसिद्धिमनुत्तराम् ॥१७॥ ॥ इति विगतमाहिझयणे पढमो उहेसो समत्तो॥ इति ब्रवीमि--इति विनयसमाव्यध्ययनेप्रथमउद्देश: समाप्त: मूलाउ संधप्पभवो दुमस्स, खंघाउ पच्छा साविति साहा । साहप्पसाहा विरुहति पत्ता, तो सि (से) पुष्पं च फलं रसोप्राश मूलात्स्कन्धप्रभवोद्रुमस्य, स्कन्धात्पश्चात्समुपयन्तिशाखाः । शाखाप्रशाखाभ्योविरोहन्तिपत्राणि,ततस्तस्यपुप्पं च फलंरसश्चाश एवं धम्मस्स विणयो, मूलं परमो से मुक्खो। जेण कित्तिं सुग्रं सिग्ध, नीलेसं चाभिगच्छा Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ॥३॥ ॥३॥ ॥४॥ . जैन सिद्धांत पाठमाळा. एवंधर्मस्यविनयः, मूलंपरमस्तस्यमोक्षः । येन कीर्ति श्रुतश्लाध्यं, नि:शेषचाभिगच्छति ॥२॥ जे प्रचंडे मिए थद्धे, दुव्वाई नियडी सढे। बुज्मा से प्रविणीअप्पा, कई सोधगये जहा यश्चचण्डोमृग:स्तब्धः, दुर्वादीनिरुतिमानशठः । , उद्यते स अविनीतात्मा, काष्ठं स्रोतोगतं यथा विणयम्मि जो उवाएणं, चोइनो कप्पद नरो। दिव्वं सो सिरिमिजति, दंडेण पडिसेहए विनये य उपायेन, नोदितःकुप्यतिनरः । दिव्यां स श्रियमायान्तीम् , दण्डेन प्रतिषेधयति ॥४॥ तहेव अविणीअप्पा, उववमा हया गया । दीसंति दुहमेहता, प्राभिश्रोगमुवठिया ॥५॥ तथैवाविनीतात्मानः, औपवाह्या हयागनाः । दृश्यन्ते दुःखमेधमानाः, आभियोग्यमुपस्थिताः ॥६॥ तहेव सुविणीअप्पा, उववज्मा हया गया। दीसंति सुहमेहंता, इढेि पत्ता महायसा ॥६॥ तथैव सुविनीतात्मानः, औपवाह्या हयागजाः । दृश्यन्ते सुखमेधमानाः, ऋद्धि प्राप्ता महायशसः तहेव अविणीअप्पा, लोगसि नरनारियो । दीसति दुहमेहता, छाया ते विगलिंदिया ॥७॥ तथैवाविनीतात्मानः , लोकेनरनार्यः दृश्यन्ते दुःखमेधमानाः, 'छातास्ता विकलेन्द्रियाः ॥७॥ दंडसत्थपरिज्जुना, असम्भवयणेहि । कलणा विवन्नवंदा, खुम्पिवासपरिगया , १ घबायेलु Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक सूत्रे श्रध्ययनं ६. उ. २ दण्डशस्त्रपरिजीर्णाः, असभ्यवचनैश्च । करुणा व्यापन्नच्छेदसः, क्षुत्पिपासापरिगताः तहेव सुविणीअप्पा, लोगंसि नरनारियो । दीसंति सुहमेहता, इट्ठि पत्ता महायसा तथैव सुविनीतात्मानः, लोके नरनार्यः । दृश्यन्ते सुखमेधमानाः, ऋद्धि प्राप्तामहायशसः तव श्रवणीयप्पा, देवा जक्खा अ गुज्रुगा । दीसंति दुहमेहता, अभियोगमुर्वाद्वया तथैवा विनीतात्मानः, देवायचाश्र 'गुह्यकाः । दृश्यन्ते दुःखमेधमानाः, 'आभियोग्यमुपस्थिताः तहेव सुविणोप्पा, देवा जक्खा श्र गुज्रुगा । दोसंति सुहमेहता, इड्डि पत्ता महायसा तथैवसुविनीतात्मानः, देवायत्ताश्चगुह्यकाः । दृश्यन्ते सुखमेधमानाः, ऋद्धि प्राप्तामहायशसः जे प्रायरिउवज्झायाणं, सुस्सूसावयणं करा । तेसि सिक्खा पवढंति, जलसित्ता इव पायवा ये आचार्योपाध्यायानाम्, शुश्रूषावचनकरा: । तेषां शिक्षाः प्रवर्धन्ते, जलसिता इव पादपाः अप्पणठ्ठा परठ्ठा वा, सिप्पा उणिश्राणि । गिहिणो उवभोगठ्ठा, इहलोगस्स कारणा आत्मार्थं वा परार्थं वा, शिल्पानि नैपुण्यानि च । गृहिण उपाभोगार्थ, इह लोकस्य कारणात् जेण वधं वहं घोरं, परिश्रावं च दारुणं । सिक्खमाणा निश्रच्छंति, जुत्ता ते ललिडंदिया १ भवनपति देव. २ चाकरपणु. पह ॥८॥ Hell ॥९॥ ||१०|| ॥१०॥ ॥११॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१३॥ રી Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० जैन सिद्धांत पाठमाळा येन बन्धं वधं घोरं, परितापं च दारुणम् । शिक्षमाणाः नियच्छन्ति, युक्तास्ते ललितेन्द्रियाः ते वितं गुरुं पूति तस्स, सिप्पस कारणा । सकारति नर्मसंति, तुट्टा निद्देसवत्तिणो तेऽपि तं गुरुं पूजयन्ति तस्य शिल्पस्य कारणात् । सत्कारयन्ति नमस्यन्ति, तुष्टा निर्देशवर्तिनः किं पुण जे सुग्गाही, अनंतहि कामए । आयरिया जं वए भिक्खू, तम्हा तं नाइवत्तर किपुनर्यः श्रुतग्राही, अनन्तहितकामुकः । आचार्या यद् वदेयुर्भिक्षुः, तस्मात्तन्नातिवर्तेत नीयं सिद्धं गई ठाणं, नीयं च श्रासणाणि । नीयं च पाए वंदिजा, नीद्यं कुजा अंजलि नीचैः शय्यां गति स्थानम् निचैश्वासनानि च । नीचैश्वपादौ वन्देत, निचैः कुर्याच्चाञ्जलिम् संघट्टत्ता कारणं, तहा उवहिणामवि । खमेह वराहं मे, वइज न पुणु त्ति त्र संघटय्य कायेन, तथोपधिनापि । क्षमध्वमपराधं मे, वदेन्न पुनरिति च दुगो वा पोषण, चोइथो वह रहं । एवं बुद्धि किचाणं, कुत्तो वृत्तो पकत्वद दुर्गेार्वा प्रतोदेन, नोदितो वहतिरथम् । एवं दुर्बुद्धिः कृत्यानाम्, उक्त उक्तः प्रकुरुते प्रालवते लवंते वा न निसिजाए पडिस्णे । मुत्तणं श्रासणं धीरो, सुस्साए पडिरसुणे ॥ १४ ॥ ॥१५॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१८॥ ॥१६॥ ॥१९॥ ॥२०॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. पायारमट्ठा विणयं पउंजे, सुस्सूसमाणो परिगिज्म वर्क । जहोवाट अभिकखमाणो, गुरुं तु नासायइ स पुजो ॥२॥ आचारार्थं विनयंप्रयुञ्जीत, शुश्रूषमाणः परिगृह्यवाक्यम् । यथोपदिष्टमभिकांक्षमाणः, गुरुं तु नाशातयति स पूज्यः ॥२॥ रायणिएसु विणयं पांजे, डहरा वि अजे परिप्रायजिट्ठा । नीअत्तणे वट्टइ सञ्चवाई, प्रोवायवं वककरे स पुज्जो ॥३॥ रत्नाधिकेषु विनयं प्रयुञ्जीत, डहरा अपि च ये पर्यायज्येष्ठाः । निचेस्त्वे वर्ततेसत्यवादी अवपातवान् वाक्यकरः स पूज्यः॥३॥ अन्नायउंछ चरई विसुद्ध, जवणठया समुश्राणं च निछ । अलधुधं नो परिदेवाजा, लधुं न विकत्थई स पुजो ॥४॥ अज्ञातोञ्च्छं चरति विशुद्ध, यापनार्थ समुदानचनित्यम् । अलब्ध्वा नोपरिदेवयेत, लब्ध्वान विकत्थते स पूज्यः ॥॥ संथारसिजासणभत्तपाणे, अपिच्छया अइलाभे वि संते। जो एवमप्पाणभितोसइजा, संतोसपाहन्नरप स पुज्जो ॥५॥ संस्तारशय्यासनभक्तपानेषु, अल्पेच्छताऽतिलाभेऽपिसति । य एवमात्मानमभितोषयेत्, संतोषप्राधान्यरतः स पूज्यः ॥५॥ सका सहेउं प्रासाइ कंटया, अप्रोमया उच्छहया नरेणं । प्रणासए जो उ सहिज कंटए, वईमए कनसरे स पुजो ॥६॥ शक्याः सोढुमाशयाकंटकाः, अयोमया उत्सहमानेन नरेण । अनाशयायस्तु सहेत कंटकान, वाड्मयान्कर्णशरान् स पूज्यः॥६॥ मुहुत्तदुक्खा उहवंति कंटया, अश्रोमया ते वितश्रो सुउद्धरा। 'वायादुरुत्वाणि दुरुधराणि, वेराणुबंधीणि महन्भयाणि ॥७॥ मुहूर्तदुःखास्तु भवन्ति कंटकाः, अयोमयास्तेऽपि तत:सूद्धराः । वाचादुरुक्तानि दुरुद्धराणि वैरानुवन्धीनि महाभयानि ॥७॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक सूत्र अध्ययनं ६. उ. ३ समावयंता वयणाभिघाया, कनंगया दुम्मणि जणंति । धम्मु ति किच्चा परमग्गसूरे, जिइंदिए जो सहई स पुजो ॥८॥ समापतन्तो वचनाभिधाता:, कर्णंगतादौमनस्यं जनयन्ति । धर्म इति कृत्वापरमानशूरः, जितेन्द्रियो यः सहते स पूज्य:।।८।। अवण्णवायं च परम्मुहस्स, पञ्चक्खनो पडिणीअं च भासं। श्रोहारणि अप्पिकारणिं च, भासंन भासिज सया स पुजो॥ अवर्णवादं च पराङ्मुखस्य, प्रत्यक्षतः प्रत्यनीकां च भाषाम् । अवधारिणीम प्रियकारिणी च, भाषां न भाषेत सदा स पूज्यः॥९॥ अलोलुए अक्कुहए अमाई, अपितुणे प्रावि प्रदीणवित्ती । नो भावए नो वि अभाविप्पा, अकोउहल्ले असया स पुजो ॥१०॥ अलोलूपोऽकुहूकोऽमायो, अपिशुनश्चाप्यअदीनवृत्तिः । नोभावयेन्नोऽपि च भावितात्मा, अकौतुहलश्चसदास पूज्यः॥१०॥ गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू , गिण्हाहि साहू गुण मुंचऽसाहू। विप्राणिया अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसेहि समो स पुजो ॥१६॥ गुणे:साधुरगुणैरसाधुः, गृहाण साधुगुणान् मुंचासाधुगुणान् । विज्ञायात्मानमात्मना, यो रागद्वेषयोः समः स पूज्यः ॥११॥ तहेव डहरं च महल्लगं वा, इत्थी पुमं पवइयं गिहि वा । नो हीलए नो वि अखिसइजा,थमं च कोहं च चए संपुजो॥१२॥ तथैव डहरं महान्त वा, स्त्रियं पुमांस प्रव्रजितं गहिणं वा । नोहीलयेत् नोऽपि च खिसयेत, स्तंभ च क्रोघंच त्यजेत्स पूज्यः।।. जे माणिया सययं माणयंति, जत्तेण कन्नं व निवेसयंति । ते माणए माणरिहे तवस्सी, जिइंदिए सञ्चरए स पुज्जो ॥१३॥ येमानिताः सततंमानयन्ति, यत्नेन कन्यामिवनिवेशयन्ति । तान्मानयेन्मानार्हान् तपस्वी, जितेन्द्रियः सत्यरतः सःपूज्यः॥१३॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन सिद्धांत पाठमाला. तेसिं गुरुणं गुणसायराणे, सुधाण मेहावी सुभासिआई। चरे मुणी पंचरए तिगुत्तो, चउकसायावगए स पुजो ॥१४॥ तेषां गुरूणांगुणसागराणाम् , श्रुत्वामेधावीसुभाषितानि । चरेन्मुनिःपंचरतस्त्रिगुप्तः, चतुःकषायापगतःस पूज्यः ॥१४॥ गुरुमिह सययं पडिभरित्र मुणी, जिणमयनिउणे अभिगमकुसले। धुणिय रयमलं पुरेकर्ड, भासुरमउलं गई वह (गय)ति बेमि॥ गुरुमिहसततंपरिचर्यमुनिः, जिनमतनिपुणोऽभिगमकुंशलः । धूत्वारजोमलपुराकतम् , भासुरामतुलांगतिं व्रजति ॥१५॥ ___॥ इति विणयसमाहीए तइनो उद्देसो समतो॥ इति ब्रवीमि-इति विनयसमाधेस्तृतीयउद्देशः समाप्तः । सुभं मे पाउस ! तेणं भगवया एवमक्खायं । इह खलु थेरेहि भगवंतेहिं चत्वारि विणयसमाहिहाणा पन्नत्ता । कयरे खलु ते थेरेहि भगवंतेहिं चत्तारि विणयसमाहिहाणा पन्नत्ता!! इमें खलु ते थेरेहि भगवंतेहिं चत्तारि विणयसमाहिहाणा पन्नत्ता । तं जहा-विणयसमाही, सुप्रसमाही, तवसमाही, पायारसमाही। विणए सुए अतवे, आयारे निच पडिया। अभिरामयति अप्पाणं, जे भवंति जिइंदिया" ॥१॥ श्रुतं मया आयुष्मन् ! भगवता एवमाख्यातम् । इह खलुस्थ विरैर्भगवदभिश्चत्वारि विनयसमाधिस्थानानि प्रज्ञप्तानि । कतराणिखलुतानि स्थविरैर्भगवदभिश्चत्वारि विनय समाधिस्थानानि प्रज्ञप्तानि ? इमानि खलुतानि स्थविर्भगवदभिश्चत्वारि विनयसमाधिस्थानानि प्रज्ञप्तानि । तद्यथा विनयसमाधिः श्रुतसमाधिः, तपः समाधिः, आचारसमाधिः। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक सूत्र अध्ययनं २.उ. ४ विनयेश्रुते च तपसि, आचारे नित्यं पण्डिताः । अभिरामयन्त्यात्मानम्, येभवन्ति जितेन्द्रियाः ॥१॥ चडविहा खलु विणयं समाही भव । तं जहा - प्रणुसासितो सुस्सुसर । सम्मं पडिवजह | वयमाराहा । न य भवइ अत्तसंपग्गहिए । चत्थं पयं भवइ । भवइ प्र इत्थ सिलोगो ॥ " पेहे हिप्राणुसासणं, सुस्सुसह तं चं पुणो अहिडिए । न यमाणमपण मज्जा, विषयसमाहिप्राययट्टिए ?" ॥२॥ चतुर्विधः खलु विनयसमाधिर्भवति, तद्यथा, अनुशास्यमानः शुश्रूषते, सम्यक् प्रतिपद्यते, वच आराध्यति, (वेदमाराधयति ) नचभवति, आत्मसंप्रगृहीतः, ( अहंकारखान्) चतुर्थंपदंभवति । भवतिचात्र श्लोकः ६५ प्रार्थयतेहितानु शासनं (कं), शुश्रूषते तं पुनरधितिष्ठति । नच मानमदेनमाद्यति, विनयसमाधौ (वा) आयतार्थी ॥२॥ ति खलु सुप्रसमाही भवद्द। तं जहा सुद्धं मे भविस्सर भव । एगमगचित्तो भविस्सामि त्तिं श्रज्काइवयं भवइ । श्रप्पाणं ठावइस्सामि ति अज्काइव्वयं भवइ । ठिश्रो परं ठावहस्सामि त्ति माइग्रव्वयं भवइ । चउत्थं पर्यं भवइ । भवद्द प्र इत्थ सिलोगो ॥ 95 ॥३॥ नाणमेगग्गचित्तो अ, ठिम्रो अठावर परं । सुत्राणि श्र अहिजित्ता, रम्रो सुसमाहिप चतुर्विधःखलु श्रुतसमाधिर्भवति, तद्यथा श्रुतं (मया ) मे भविष्यती त्यध्येतव्यं भवति, एकाग्रचित्तो भविष्यामीत्यध्येतव्यम् भवति, श्रात्मानं स्थापयामी त्यध्येतव्यम् भवति, स्थितः परंस्थापयिष्यामीत्यध्येतव्यं भवति, चतुर्थंपदंभवति । भवति चात्र श्लोकः ॥ " ज्ञानमेकाग्रचित्तश्व स्थित्तश्चस्थापयतिपरम् । सूत्राणिचाधीत्य, रतः श्रुतसमाध ॥३॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन सिद्धांत पाठमाळा. ___ चउचिहा खलु तवसमाही भवइ । तं जहा-नो, इहलोगहयाए तवमहिडिजा, नो. परलोगाए तवमहिहिजा, नो कित्तिवनसहसिलोगहाए तवमहिडिजा, नन्नत्य निजरछयाए तवमहिडिजाचउत्थं पयं भवइ । भवद अ इत्थ सिलोगो।। विविहगुणतवोरए, निश्च भवइ निरासए निजरहिए। तवसा धुणइ पुराणपावर्ग, जुत्तोसया तवसमाहिए " ॥४॥ ___ चतुर्विधःखलु तपःसमाधिर्भवति, तद्यथा नो इह लोकार्थं तपोऽधितिष्ठेत् , नो परलोकार्थ तपोऽधितिष्ठेत् , नो कीर्तिवर्ण शब्दलोकार्थं तपोऽधितिष्ठेत् । नान्यत्रनिराात् तपोऽधितिष्ठेत, चतुर्थपदंभवति । भवति चात्र श्लोकः' “ विविधगुणतपोरतः, नित्यंभवतिनिराशकोनिजरार्थी । तपसाधुनोतिपुराणपापकम् , युक्तःसदातप:समाधों ॥४ चटविहा खलु आयारसमाही भवइ । तं जहा-नो इहलोगट्टयाए आयारमहिडिजा, नो परलोगठयाए आधारमहिहिज्जा, नो कित्तिवन्नसहसिलोगहयाए पायारमहिहिज्जा, नवत्थ प्रारहंतेहि हेऊहिं आयारमहिडिजा। चउत्थं पयं भवह भवइ अ इत्थ सिलोगो। जिणवयणरए अतितिणे, पडिपु नाययमाययाहिए। प्रायारसमाहिसंवुडे, भवइ अदंते भावसंघए ॥५॥ चतुर्विधःखलु आचारसमाधिर्भवति, तद्यथा नौ इहलोकार्थमाचारमधितिष्ठेत , नो परलोकार्थमाचारमधितिष्ठेत् , न कीर्तिवर्णशब्दश्लोकार्थमाचारमधितिष्ठेत् , नान्यत्र आहेतम्योहेतुभ्य आचारमधितिष्ठेत् चतुर्थपदभवति । भवति चात्र श्लोकः " जिनवचनरतोरतोऽतितिनः, प्रतिपूर्णमायतार्थी । प्राचारसमाधिसंवृतः, भवतिचदांतोंभावसंधायकः Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दशवकालिक सूत्रं अध्ययनं १०. ६७ अभिगम चउरो समाहियो, सुविसुद्धो सुसमाहिप्पो । विउलहिणं सुहावहं पुणो, कुब्वा असो पयखेममप्पणो l अभिगम्य चतुर:समाधीन , सुविशुद्धःसुसमाहितात्मा । विपुलहितं सुखावहं पुनः, कुरुते च स पदक्षेममात्मनः ॥६॥ जाइमरणाप्रो मुच्चइ, इत्थत्थं च चएइ सव्वसो। सिद्धे वाहवइ सासए, देवे वा अप्परए महिहिए ॥त्ति बेमि ॥७॥ जातिमरणाभ्यांमुच्यते, 'इत्थस्थंचत्यजतिसर्वशः । सिद्धो वा भवतिशाश्वतः, देवोवाल्परनामहर्डिकः ॥७॥ इति विणयसमाहो नाम चउत्थो उद्देसो। नवमममयणं समत्ता इति ब्रवीमि--इति विनयसमाधिनाम चतुर्थउद्देशः ॥ नवममध्ययनं समाप्तम् ९ ॥ अह भिक्खू नामं दसममझयणं ॥ अथभितुर्नाम दशममध्ययनम् निक्खम्ममाणाइ अ बुद्धवयणे, निश्चं चित्तसमाहिलो हविजा। इत्यीण वसं न प्रावि गच्छे, वंतं नो पडिप्रायइ जे स भिक्खू ॥१॥ निष्क्रम्याज्ञयाचवुद्धवचने, नित्यंचित्तसमाहितोभवेत् । स्त्रीणांवश न चापिगच्छेत् , वान्तं नो प्रत्यापिवतियःस भिक्षुः॥ पुढविं न खणे न खणावर, सीओदगं न पिए न पित्रावए । अगणि सत्थं जहा सुनिसिनं, तं न जले न जलावर जे समिक्स्डू पृथिवी न खनेन्नखानयेत् , शीतोदकंनपिवेन्नपाययेत् । अग्निशस्त्रं यथासुनिशितम् , तं न ज्वलेन्नज्वालयेद्यः सभिक्षुः।। अनिलेण न वीए न कोयावए, हरियाणि न छिन छिंदावए । वीमाणि सया विवजयंतो, सचित्तं नाहारए जे स भिक्ख ॥२॥ १ पा लोक संबंधित - Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. अनिलेन न वीजयेतूनवीजयेत् , हरितानिनच्छिद्यान्नच्छेदयेत् । बीनानि सदाविवर्जयन् , सचित्तं नाहरेद् यः सभिक्षुः ॥३॥ वहणं तसथावराण होइ, पुढवितणकहनिस्सिाणं । तम्हा उद्देसिधेन मुंजे नो वि पए न पयावए जे स भिक्खू॥४॥ हननंत्रसस्थावराणांभवति, एथिवीतृणकाष्ठनिश्रितानाम् । तस्मादौदेशिकं न मुञ्जीत, नोऽपिपचेन्नपाचयेत् यःसभिक्षुः ॥४॥ रोइन नायपुत्तवयणे, अत्तसमे मनिज छप्पि काए । पंच य फासे महन्बयाई, पंचासवसंवरे जे स भिक्खू ॥५॥ रोचयित्वाज्ञातपुत्रवचनानि, आत्मसमान्मन्येतषडपिकायान् । पंच च स्टशेन्महाव्रतानि, पंचालवसंवरो यः सभिक्षुः ॥५॥ चत्तारि वमे सया कसाए, धुवजोगी हविज बुध्धवयणे। अहणे निजायस्वरयए, गिहिजोगं परिवजए जेस भिक्खू ॥६॥ चतुरोंवमतिसदाकषायान् , ध्रुवयोगीभवतिबुद्धवचने । अधनोनिर्जातरूप्यरजतः, ग्रहियोगपरिवर्जयेद्यःसभिक्षुः ॥६॥ सम्मदिठी सया अमूढे, अस्थि हु नाणे तवे संजमे । तवसा धुणइ पुराणपावर्ग, मणवयकायसुसंबुडे जे स भिक्खू ॥७॥ सम्यग्दृष्टिः सदाऽमूढः, अस्ति खलु ज्ञानेतपसिसंयमे च । तपसा धुनातिपुराणपापकं, मनोवच:कायसुसंवृतोयः सभिक्षुः||७|| तहेव असगं पाणगं वा, विविहं खाइमसाइम लभित्ता । होही अहोसुर परे वा, तं न निहे न लिहावए जे स भिक्ख ॥८॥ तथैवाशनपानकं वा, विविधखाद्यस्वाधलब्ध्वा । भविष्यत्यर्थःश्वःपरस्मिन्, तन्ननिधत्ते ननिधापयेद्य:सभितुः॥८॥ तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमसाइमं लभित्ता । छदिन साहम्मिमाण भुजे, भुच्चा सज्झायरए जे स भिक्खूil Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक सूत्र अध्ययनं १०. तथैवाशनपानकं वा, विविधखाद्यस्वाद्यं लब्ध्वा । छंदित्वा(आहूय)समानधार्मिकान भुक्त, मुक्त्वास्वाध्यायरतोय:सभिक्षु न य धुम्गहिनं कहं कहिना, न य कुम्पे निहुईदिए पसंते। संजमधुवजोगजुत्ते, उव सतेउवहेडए जे स भिक्खू ॥१०॥ नचवैग्रहिकीकथांकथयेत् , नचकुप्येन्निभृतेन्द्रिय:प्रशान्तः । संयमब्रुवयोगयुक्तः, उपशान्तोऽविहेठकोय:सभिक्षुः ॥१०॥ जो सहइ हु गामकंटए, अक्कोसपहारतजणायो । भयभेरवसहसप्पहासे, समासुहृदुक्खसहे अजे स भिक्खू ॥११॥ यःसहते हु नामकंटकान् , आक्रोशप्रहारतर्जनाश्च । 'भैरवमयशब्दसंग्रहासे, समसुखदुःखसहश्चयःसभिक्षुः ॥११॥ पडिम पडिचजिया मसाणे, नो भोयए भयभेरवाई दिस्स । विविहगुणतवोरएन नि, न सरीरं चामिकखए जेस भिक्ख ॥ प्रतिमांप्रतिपद्यश्मगाने, नोबिभेतिभयभेरवाणि इप्टवा । विविधगुणतपोरतश्चनित्यं, नगरीरंचाभिकांक्षेतयःसभितुः॥१२॥ असा वोसियत्तदेहे, अनुढे व हए लूसिए वा । पुढविसमे मुणी हविजा, अनिाणे अकोउहल्ले जे स भिक्॥ असलव्युत्सृष्टत्यक्तदेहः, आकुष्टों वा हतोवालूपितोंवा । पृथिवीसमोमुनिभवेत् , अनिदानोऽकुतूहलोयासभिक्षुः ॥१३॥ अभिभूय कारण परीसहाई, समुद्धरे जाइपहाउ अप्पयं । वित्तुजाईमरण महन्भयं, तवेरए सामणियजेस भिकाबू ॥१४॥ अभिभूयकायेन परिपहान् , समुद्धरेनातिपयादात्मानम् । विदित्वा जातिमरणं महाभयं,तपसिरतः श्रामण्येयः सभिन्नुः।१४ १ भयानक शलवाला स्थानमां. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैन सिद्धांत पाठमाळा. हत्थ संजय पाय संजय, वायसंजर संजईदिए । अप्पर सुसमाहिप्पा, सुत्तत्थं च विश्राणह जे स भिक्खु ॥ हस्तसंयत: पादसंयतः, वाकसंयतः संयतेन्द्रियः । आध्यात्मरतः सुसमाहितात्मा, सूत्रार्थंचविजानातिय: सभिक्षुः। १५१ उवहिम्मि अमुच्छि अगिद्धे, अन्नायकं पुलनिप्पुलाए । कविकसन्निहिश्रो विरए, सव्वसंगावगए म जे स भिक्खू | १६ | उपधावमूर्च्छितोऽगदः, अज्ञातोंच्छीपुलाकनिःपुलाकः । क्रयविक्रयसंनिधितोविरतः, सर्वसंगापगतश्चयः समिक्षुः ॥ १६ ॥ अलोल (लु) भिक्खू न रसेसु गिज्भे, उकं चरे जीविष्वनाभिकखी। इचि सकारण पूर्ण च, चए ठिप्रपा आणि जे स भिक्खु ॥ अलोलो भिक्षुर्नरसेषुगृध्येत्, उंच्छंचरेज्जीविताना भिकांक्षी | ऋद्धिच सत्कारं पूजनंच त्यजेस्थितात्माड' निभोयः सभिक्षुः॥ १७॥ न परं वज्जासि श्रयं कुसीले, जेणं च कुप्पिज न तं वइजा । जाणिव पत्ते पुनपावं, प्रत्ताणं न समुकसे जे स भिक्खू | १८ | नपरंवदेदयंकुशीलः, येन च कुप्यति न तद्वदेत् । ज्ञात्वाप्रत्येकंपुण्यपापं, आत्मानं न समुत्कर्षेद्यः सभिक्षुः ॥ १८ ॥ न जाइमन्ते न य रूवमत्ते, न लाभमत्ते न हुएण मते । मयाणि सव्वाणि विवजइत्ता, धम्मज्माणरए जे स भिक्खू |१६| न जातिमत्तोनचरूपमत्तः, नलाभमत्तों न श्रुतेनमत्तः । मदान्सर्वान्विवये, धर्मध्यानरतो यः सभितुः पवेअर अपयं महामुनी, धम्मे ठिम्रो ठावयद परपि । निक्aम्म वज्जिज कुसोललिंग, न आवि हासं कुहए जेस भिक्खू प्रवेदयेदार्य पदंमहामुनिः, धर्मेस्थितः स्थापयतिपरमपि । निष्क्रम्य वर्जयेत्कुशीललिगं, न चापिहास्यंकुहकंयः सः सभिक्षुः॥ ॥ १९ ॥ १ मायाहीन. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक सूत्र प्रथमा चूलिका. १०१ तं देहवास असुई असासयं, सया चए निश्चहिअद्विअप्पा । हिंदित्तु जाइमरणस्स बंधणं, उवेइ भिक्खू अपुणागमंगई गति मि तदेहवासमशुचिमशाश्वत,सदात्यजतिनित्यहितस्थितात्मा । छित्त्वाजातिमरणयोवन्धनं, उपैतिभिक्षुरपुनरागमांगतिम् ॥२॥ इति भिक्खू नाम इसमममयणं समतं ॥ इति ब्रवीमि--इति भितुनामदशममध्ययनसमाप्तम् . अह रइवका पढमा चूलिया ॥ ॥ अथरतिवाक्या प्रथमा चूलिका ॥ इह खलु भो पन्बइएण उप्पण्णदुक्खेण संजमे अरइसमावनचित्तेणं श्रोहाणुप्पेहिणा अणोहाइपणं चेव हयरस्सिगयंकुसपोयपडागाभूआई इमाई अट्ठारस ठाणाई सम्म संपडिलेहिब्वाई भवंति। तं जहा-हं भो! दुस्समाइ दुप्पजीवी ॥१॥ लहुसगा इत्तरिया गिहीणं कामभोगा ||२|| भुज्जो असाइबहुला मणुस्सा ॥३॥ इमे अमे दुक्खे न चिरकालोवठ्ठाइ भविस्सइ ॥४॥ प्रोम्जणपुरस्कार ॥५॥ वंतस्स य पडिप्रायणं ॥६॥ अहरगइवासोवसंपया ॥७॥ दुल्लहे खलु भो! गिहीणं धम्मे गिहिवासमझे वसंताण ॥८॥ प्रायके से वहाय होड Hel संकप्पे से वहाय होइ ॥१०॥ सोवक्केसे गिहवासे, निरुवकेसे परिआए ॥१३॥ बंधे गिहवासे, मुक्ने परिपाए ॥१२॥ सावज्जे गिहवासे, अणवज्जे परिपाए ॥१३॥ वहुसाहारणा गिहीणं कामभोगा ॥१४॥ पत्चेनं पुनपावं ॥१५॥ अणिच्चे खलु भो! मणुप्राण जीविए कुसमाजलविंदुचंचले ॥१६॥ वहुं च खलु भो! पावं कम्मं पगडे ॥१७॥ पावाणं च खलु भो! कडाण कामाणं पुन्धि दुचिन्नाणं दुपडिकंताणं वेइत्ता मुक्खो नस्थि अवेत्ता तवसा वा मोसइत्ता ॥१६॥ अहारसमं पर्य भवइ, भवइ श्र इत्थ सिलोगो: Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैन सिद्धांत पाठमाळा. इह खलु भो ? प्रव्रजितेनोत्पन्नदुःखेनसंयमेऽरतिसमापन्नचितेन 'अवधानोत्प्रेक्षिणा अनवधावितेन चैव हयरश्मिगजांकुशपोतपताका भूतानि इमान्यष्टादशस्थानानि सम्यक् संप्रतिलेखितव्यानि भवन्ति, तद्यथा-हंभो ! दुःसमाधे ! दुःप्रजीविन् ! (दुःसमाः दुःपनीविनः (जीवा.),॥१॥ लघवः इत्वरा गृहिणां कामभोगाः ॥२॥ भूयश्चस्वातिबहुला मनुष्याः ॥३॥ इदं च मे दुःख न चिर: कालोपस्थायि भविष्यति ॥४॥ अवमजनपुरस्कारः ॥५॥ वान्तस्य च प्रत्यादानम् ॥६॥ अधोगतिवासोपसंपदा ॥७॥ दुर्लभःखलु भोः गृहिणांधर्मोगहिवासमध्ये वसताम् ॥८॥ आतंकस्तस्यवधायभवति ॥९॥ संकल्पस्तस्यवधायभवति ॥१०॥ सोपक्लेशोगृहवासो निरुप क्लेश:पर्यायः ॥११॥ बन्धोगृहवासः, मोक्षःपर्यायः॥१२॥ सावद्यो गृहवासः, अनवद्यःपर्यायः ॥१३॥ बहुसाधारणागृहिणां कामभोगाः ॥१४॥ प्रत्येकं पुण्यपापं ॥१५॥ अनित्यं खलु भोः मनुजानां जीवितं कुशाग्रजलबिन्दुचंचलम् ॥१६|| बहु च खलुभो: पापं कर्म प्रकृतम् ॥१७॥ पापानां च खलुभोः छतानां कर्मणां पूर्व दुश्चरितानां दुःपरिक्रान्तानां वेदयित्वामोक्षोनास्ति अवेदयित्वा तपसा वा क्षपयित्वा (मोक्षोऽस्ति) ॥१८॥ ____ अष्टादशमं पदंभवति, भवतिचात्रश्लोक: जया य चयई धम्म, अणज्जो भोगकारणा । से तत्थ मुच्छिए बाले, प्रायई नावबुज्झई ॥१॥ यदा च त्यनतिधर्म, अनार्यो भोगकारणात् । स तत्र मूर्छितोबालः, आयति नावबुध्यते १ संयमथी बहार जवानी इच्छावाळाए. २ मायावाळा. - Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिक सूत्रं प्रथमा चूलिका. १०५ | भुंजित भोगाईं पसज्म चेअसा, तहाविहं कट्टु असंजमं बहुं । गई च गच्छे प्रणहिन्मिश्रं दुहं, बोही अ से नो सुलहा पुणोपुणां ॥ भुक्तत्वाभोगान्प्रसह्य चेतसा, तथाविधं कृत्वाऽसंयमं बहुम् । गतिच गच्छेदन 'भिध्यातांदुःखां, बोधिश्वतरयन सुलभा पुनः पुनः इमस्स तानेरइस्स जंतुणो, दुहांवणीप्रस्स किलेसवत्तिणो । पलिप्रोवमं झिज्जर सागरोवमं, किमंग पुण मज्म इमं मणोदुहं ॥ अस्यतावन्नैरयिकस्यजंतोः, दु:खोपनीतस्य क्लेशवर्तिनः । पल्योपमं क्षीयते सागरोपमं, किमंग ! पुनर्ममेदं मनोदुःखम् ॥ १५ ॥ मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सर, प्रसासया भोगपिवास जंतुणो । न चे सरीरेण इमेण विस्सा, भविस्साई जीविप्रपजवेण मे ॥ १६ ॥ नमेचिरं दुःखमिदं भविष्यति, आशाश्वता भोगपिपासा जन्तोः । नचेच्छरीरेणानेनापयास्यति, भविष्यतिजीवितपर्ययेण मे ॥ १६ ॥ जस्लेवमप्पा उ हविज्ञ निच्छिश्रो, चइज देहं न हु धम्मसासणं । तं तारिसं नो पहलिंति इंदिया, उर्विति वाया व सुदंसणं गिरिं ॥ यस्यैवात्माभवेन्निश्चितः त्यजेद्देहं नखलु धर्मशासनम् । तंतादृशं नोप्रचालयन्तीद्रियाणि, उपयन्तिवाताइव सुदर्शनंगिरि । इचेव संपरिसम्म बुद्धिमं नरो, आयं उवायं विविहं विश्राणिया । कारण वाया पडु माणसेणं, तिगुत्तिगुत्तो जिणवयणमहिदिजासि ॥ त्ति बेमि ॥१८॥ इत्येवसंदृश्यबुद्धिमान्नरः, आयमुपायविविधं विज्ञाय । कायेन वाचाऽथवामानसेन, त्रिगुप्तिगुप्तोजिनवचनमधितिष्ठेत् ॥ इति रइवका पढमा चूला समत्ता ॥ १ ॥ इतिब्रवीमि - इतिरतिवास्याप्रथमा चूलिकासमाप्ता. १ हलकी. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. ॥ अह विवित्तचरिया बीया चलिग्रा.॥ ॥ अथविविक्तचर्याद्वितीयाचूलिका ॥ चूलिभं तु पवक्खामि, सुर्थ केवलिभासिनं । ज मुणितु सुपुण्णाण, धम्मे उप्पजए मई ॥१॥ चूलिकां तु प्रवदयामि, श्रुतां केवलिभाषिताम् । यां श्रुत्वा सपुण्यानाम् , धर्मउत्पद्यतेमतिः अणुसोअपहिए बहुजणम्मि, परिसोशलद्धलक्खेणं । । पडिसोअमेव अप्पा, दायन्बो होउकामेणं ॥२॥ अनुसोत प्रस्थितेबहुजने, प्रतिस्रोतोंलब्ध्धलक्ष्येण । प्रतिस्रोतएवात्मा, दातव्यो 'भवितुकामेन अणुसोत्रहो लोभो, पडिसोयो पासवो सुविहिआणं। अणुसोयो संसारो, पडिसोयो तस्स उत्तारो ॥३॥ अनुस्रोतःसुखोलोका, प्रतिस्रोतासवः सुविहितानाम् । अनुस्रोतःसंसारः, प्रतिस्रोतस्तस्मादुत्तारः तम्हा अायारपरकमेण, संवरसमाहिवहुलेण । चरिया गुणा अनियमा अ, हुति साहूण दहब्बा पा तस्मादाचारपराक्रमेण, संवरसमाधिबहुलेन । चर्यागुणाश्चनियमाः, ये भवन्तिसाधूनांद्रष्टव्याः ॥४॥ अणिएप्रवासो समुभाणचरित्रा, अन्नायउँछं पयरिकया । अप्पोवही कलहविवजणा अं, विहारचरिमा इसिणं पसत्था॥ अनियतवासः समुदानचर्या, अज्ञातोञ्च्छं प्रतिरिक्तताच । अल्पोपधिः कलहविवर्ननाच, विहारचर्या ऋषीणां प्रशस्ता|शा श्राइनो माणविवजणा श्र, भोसन्नदीहाहडभत्तपाणे। संसहकप्पेण चरिज भिक्खु, तजायसंसह जई जइज्जा ॥६॥ १ मोक्षनी इच्छावाळाप Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक सूत्र द्वितीया चूलिका. ॥७॥ आकीर्णवमानविवर्जनाच, उत्सन्नदृष्टाहृतभक्तपानम् । संसृष्टकल्पेन चरेदभिक्षुः तज्जातसंसृष्टे यतिर्यतेत ॥६॥ श्रमजमंसासि श्रमच्छरीया, अभिक्खणं निव्विगई गया था । भिक्खण काउस्सग्गकारी, सज्झायजोगे पयो हविजा ॥ अमद्यमांसाशी अमात्सर्यः, अभीदणं निर्विकृर्तिगतश्च । अभीक्ष्णं कायोत्सर्गकारी, स्वाध्याययोगेप्रयतो भवेत् न पढिनविजा सयणासणाई, सज्ज, निसिज्जं तह भत्तपाणं । गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तभावं न कहिं पि कुजा || न प्रतिज्ञापयेच्छयनासनानि शय्यांनिषद्यां तथाभक्तपानं । ग्रामे कुले वा नगरे वा देशे, ममत्वभावं न क्वचिदपिकुर्यात् । गिहिणो वेश्यावडियं न कुजा, अभिवायणं चणपूयणं वा । असंकिलिट्टेहिं समं वसिजा, मुजी चरित्तस्स जो न हाणी ॥ गृहिणोवैयावृत्यं न कुर्यात्, अभिवादनवन्दनपूजनं वा । असंक्लिष्टैः समंवसेत्, मुनिश्चारित्रस्य यतो न हानिः ॥९॥ नया लभेज्जा निउण सहायं, गुणाहिथं वा गुणग्रो समं वा । इको वि पावाई विवज्जयंतो, विहरिज कामेसु प्रसजमाणो ॥१०॥ नयावलभेत निपुणं सहाय, गुणाधिकं वा गुणतः समं वा । एकोऽपि पापानि विवर्जयन् विहरेत्कामेप्वसज्यमानः ॥ १० ॥ सच्चरं वा वि परं पमाणं, वीश्रं च वासं न तहि सज्जा । सुत्तस्स मग्गेण चरिन्ज भिक्खू, सुतस्स अत्थो जह श्राणवे ॥ संवत्सरं वापिपरं प्रमाण, द्वितीयं च वर्षं न तत्र वसेत् । सूत्रस्यमार्गेण चरेद्रभिक्षुः, सूत्रस्यार्थो यथाज्ञापयति ॥११॥ जो पुव्वरत्तावररत्तकाले, संपिक्खए अप्पगमप्पपणं । किं मे कडे किं च मे किश्वसेसं, किं सक्कणिज्जं न समायरामि ॥ ; १०७ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२०८ जैन सिद्धांत पाठमाळा. यः पूर्वरात्रापररात्रकाले, संप्रेक्षेत आत्मानमात्मना । किमयाकृतं किचमया कृत्यशेषं, किशक्यं न समाचरामि ॥ १२ ॥ किं मे परो पासर किंच अप्पा, किं वाहं खलि श्रं न विवज्जयामि। इथेव सम्मं श्रणुपासमानो, श्रणागयं नो पडिवंध कुज्जा ॥१३॥ किममपरः पश्यति किचात्मा, किवाहं स्खलितं नविवर्जयामि । इत्येव सम्यगनुपश्यन्, अनागतं नो प्रतिबन्धं कुर्यात् ॥ १३॥ जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं, कारण वाया श्रदु माणसेण । तत्थेव धीरो पडिसाहरिज्जा, प्रान्नयो खिप्पमिव क्खीणं ॥ यत्रैवपश्येत् कद्रादुः प्रयुक्तं, कायेनवाचाऽथवामानसेन । तत्रैवधीरः प्रतिसंहरेत्, आकीर्णः क्षिप्रमिव 'खलिनम् ॥ १४ ॥ जस्सेरिसा जोग जिइंदिप्रस्स, घिईमध्यो सप्पुरिसस्स निच्वं । तमाहु लोए पडिवुद्धिजीवी, सो जीग्रह संजमजीविएणं ॥ १५॥ यस्येदृशो योगोजितेन्द्रियस्य धृतिमतः सत्पुरुषस्य नित्यम् । तमाहुलक प्रतिबुद्धजीविनं, सजीवति संयमजीवितेन ॥ १५ ॥ अप्पा खलु सयं रन्यो, सव्विदिपहिं सुसमाहिहि । खो जाइप उवेइ, सुरक्खि सव्वदुहाण सुच्चर ॥ आत्माखलु सततंरक्षितव्यः सर्वेन्द्रियैः सुसमाहितैः । अरक्षितोजातिपन्थानमुपैति सुरक्षित: सर्वदुः खेभ्योमुच्यते ॥ १६ ॥ ॥ति बेमि ॥ १६॥ इति विवित्तचरिया वीमा चलिया समत्ता ॥ इति ब्रवीमि - इति विविक्तचर्या द्वितीया चूलिका समाप्ता २ ॥ इति दसवेलिश्रं सुत्तं समत्तंग शुभं भवतु. ॥ इति दशवैकालिकं सूत्रं समाप्तम् शुभं भवतु || , १ चोकई. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नमो समणस्स भगवओ महावीरस्स * नमःश्रमणायभगवतेमहावीराय श्री ऊत्तराध्ययन सूत्रम् . श्री उत्तराध्ययनसूत्रम् छायायुतम् ॥१॥ ॥२॥ ॥विण्यसुयं पढ़मं अज्झयणं ।। विनयश्रुतनामप्रथममध्ययनम् ॥ संजोगा विप्पमुक्कस्स, अणगारस्स भिक्खुणो। विणयं पाउकरिस्सामि, प्राणुपुब्बि सुणेह मे संयोगाद्विप्रमुक्तस्य, अनगारस्यभिक्षोः । विनयंप्रादुःकरिप्यामि, आनुपूर्व्याशणुत मे श्राणानिसकरे, गुरुणमुववायकारए । इंगियागारसंपन्ने, सेविणोए त्ति वुचई आज्ञानिर्देशकरः, गुरूणामुपपातकारकः । इंगिताकारसंपन्नः, स विनयीत्युच्यते प्राणाऽनिदेसकरे, गुरुणमणुववायकारए । पडिणीए असंवुद्ध, प्रविणीप त्ति बुचई आज्ञाऽनिर्देशकरः, गुरूणामनुपपातकारकः । 'प्रत्यनीकोऽसंबुद्धः, अविनयीत्युच्यते जहा सुणी पूइकन्नी, निक्कसिजई सव्वसो । एवं दुस्सीलपडिणीए, मुहरी निकसिचाइ १ शत्र जेवो. ॥२॥ __nen - Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. यथाशुनीपूतिकर्णी, नि: कास्यते सर्वतः । एवं दुःशीलः प्रत्यनीकः, मुखारि: निःकास्यते कणकुण्डगं चरत्ताणं, विहूं भुंजर सूयरे । एवं सोलं चहत्ताणं, दुस्सीले रमई मिए कणकुण्डकंत्यक्त्वा, विष्टां भुक्तेशूकरः । एवंशीलत्यक्त्वा, दुःशीलो रमते मृगः सुणिया भावं साणस्स, सूयरस्स नररस य । fare वेज पाणमिच्छन्तो हियमप्पणो ११० श्रुत्वाभावंशुनः, शूकरस्य नरस्य च । विनयेस्थापयेदात्मानं, इच्छन् हितमात्मनः तम्हा विणयमेसिज्जा, सीलं पडिल भेजओ । बुद्धयुत नियागद्दी, न निक्कसिजर कण्डुर्ड तस्माद्विनयमेषयेत्, शीलंप्रतिलभेतयतः बुद्धपुत्रोनियेोगार्थी, ननिःकास्यतेकुतश्चित् निसन्ते सियामुहरी बुद्धाणं अन्तिर सया । अजुताणि सिक्खिजा, निरट्टाणि उचज्जए निः शान्तः स्यान्मुखारिः, बुद्धानामन्तिके सदा । अर्थयुक्तानि शिक्षेत, निरर्थानि तु विवर्जयेत् सासियो न कुप्पिज्जा, खंति सेविज पण्डिए । खुडेहिं सह संसगिंग, हासं कीड च वज्जए अनुशासितो न कुप्येत्, क्षांतिं सेवेत पण्डितः । क्षुद्रैः सहसंसर्ग, हास्यं क्रीडां च वर्जयेत् माय चण्डालियं कासी, बहुयं मा य आलवे । काले य अहिज्जित्ता, तो साइज्ज एगगो ॥४॥ ॥५॥ 11211 ॥६॥ ॥६॥ ॥७॥ ||७|| ॥5॥ 11511 ॥६॥ ॥९॥ ॥१०॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्य. १ मा च चाण्डालिकं कार्षीः बहुकं मा चालपेत् । कालेन चाधीत्य ततोध्यायेदेककः कुछ न निहविज्ज कयाइ वि । १११ ॥११॥ च चण्डालिय कडे कडे त्ति भासेज्जा, प्रकडं नो कडे ति य कदाचिच चांडालिकं कृत्वा, ननिहुबीत कदापिच । कृतंकृतमेवभाषेत, अकृतमकृतमिति च (भाषेत) ॥११॥ मा गलियस्सेव कसं, वयणमिच्छे पुणो पुणो । कसं व दमाइणे, पावगं परिवजय मा गलिताश्वइवकरां, वचनमिच्छेत्पुनःपुनः । कशमिवदृष्ट्राऽऽकीर्णः पापकं परिवर्जयेत् ॥१२॥ saणासवा थूलवया कुसीला, मिउंपि चण्डं पकरिन्ति सीसा। चित्ताणुया लहु दक्खोववेया, पसायए ते हु दुरासयपि ॥१३॥ 'अनाश्रवाःस्थूलवचसःकुशीलाः, मृदुमपिचण्डं प्रकुर्वतेशिष्याः । चित्तानुगा: लघुदादयेोपपेताः प्रसादयेयुस्तेखलुदुराश्रयमपि ॥ १३ ॥ नापुट्ठो वागरे किचि, पुट्ठो वा नालियं वप । कोहं असच कुब्वेज्जा, धारेज्जा पियमध्वियं नाष्टष्टोव्यागुणीयात् किंचित्, ष्टष्टोवाना लीकंवदेत् । क्रोधमसत्यंकुर्यात् धारयेत्प्रियमप्रियम् ॥ १४॥ ॥१४॥ ॥१०॥ ॥१२॥ 1 ॥१५॥ अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो । अप्पा दन्तो सुही हो, अस्सि लोए परत्थ य आत्माचैवदमितव्य;, आत्माखलुदुर्दमः । आत्मादान्त:(दान्तात्मा)सुखीभवति, अस्मिँल्लोकेपरत्र च ॥१५॥ वरं मे अप्पा दन्तो, संजमेण तवेण य । माहं परे हि दम्मंतो, वंधणेहि वहेहि य ॥१६॥ १ गुरु वचनमां नहि रहेनारा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. - ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१८॥ ॥१६॥ वरंमयात्मादान्तः, संयमेन तपसा च । माहं परैःमितः, बन्धनैर्वधैश्च पडिणीयं च बुद्धाणं, वाया अटुव कम्मुणा । श्रावी वा जइवा रहस्से, नेव कुज्जा कयाइवि प्रत्यनीकं च बुद्धानां, वाचाथवा कर्मणा । आविर्वा यदिवारहसि, नैवकुर्यात्कदापि च न पक्खो न पुरो, नेव किश्वाण पिटुनो। न जुजे ऊरुणा ऊरु सयणे नो पडिस्तुणे नपक्षतोनपुरतः, नैवकत्यानांप्टप्ठतः । न युजीतोरुणोरे, शयने नो प्रतिशृणुयात् नेव पल्हत्थियं कुजा, पक्वपिण्डं च संजए । पाए पसारिए वावि, न. चिठे गुरुणन्तिए नेवय॑स्तिकांकुर्यात् , पक्षपिण्डं च संयतः। पादौप्रसार्य वापि, नैवतिष्ठेद्गुरूणामन्तिके प्रायरिएहिं वाहित्तो, तुसिणीश्रो न कयाइवि । पसायपेही नियोगही, उवचिडे गुरु सया आचार्याहृतः, तुष्णि न कदापि च । प्रसादप्रेतीनियोगार्थी, उपतिष्ठेद् गुरुं सदा श्रालवन्ते लवन्ते वा, न निसीएज्ज कयाइवि । चइणमासणं धीरो, जो जत्तं पडिन्सुणे , आलपतिलपतिवा, ननिषीदेकदापि च । त्यक्त्वासनं धीरः, यतोयुक्तं प्रतिशृणुवात् पासणगो न पुच्छेजा, नैव सेज्जागो कयाइवी। प्रागम्मुक्कडुओ सन्तो, पुच्छिज्जा पंजलीउडो ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२०॥ ॥२२॥ ॥२१॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र प्रत्ययनं १ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२३॥ रा आसनगतो न पृच्छेत् , नेवशय्यागतः कदापि च । आगम्य उत्कटिकःसन् , एच्छेत्प्राञ्जलिपुटः एवं विणयजुत्तस्स, सुत्तं प्रत्थं च तदुभयं । पुच्छमाणस्स सीसस्स, पागरिज जहानुयं एवंविनययुक्तस्य, श्रुतमथतदुभयम् । पृच्छतःशिप्यम्य, व्यागृणीयाद्यथाश्रुतम् मुसं परिहरे भिक्खू , नय अोहारिणि वए । भासादोसं परिहरे, मायं च वज्जए सया मृषापरिहरेदभिक्षुः, न चाववारिणो वढेत् । भाषादोषंपरिहरेत् , मायां च वर्जयेत्सदा न लवेज्ज पुट्टो सावज्ज, न निरर्दु न मम्मयं । अप्पणछा परवा वा, उसयस्सन्तरेण वा नवदेत्यष्टःसावा, ननिरर्थ न मर्मकम् । आत्मार्थ परार्थं वा, उभयोरन्यतरेण वा समरेसु अगारेसु, सन्धीसु य महापहे । एगो एगस्थिर सद्धि, नेव चिट्टे न संलवे *समरेषु अगारेषु, संधिषु च महापथे । एकएकस्त्रियासार्घ, नैवतिष्ठेनसलपेत् मे बुद्धाणुसासन्ति, सीएण फरसेण वा । मम लामो त्ति पेहाए, पया तं पडिस्तुणे यन्मांबुद्धा अनुशासति, गीतेनपरुपेण वा, ममलाम इतिप्रेन्य, प्रयतस्तत्प्रतिशणुयात् अणुसासणमोवार्य दुकडस्सय चोयणं । हियं तं मण्णी पण्णो, वेसं होइ असाहुणो १ उकडे प्रासन बेसीने. २ लुहारली कोइ. ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ ॥२६॥ ॥२६॥ ॥२७॥ ॥२७॥ ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ . जैन सिद्धांत पाठमाळा ॥२८॥ IRE ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३०॥ ॥३१॥ अनुशासनमौपायं, दुग्छतस्यचनोदनम् । हितंतन्मन्यतेप्राज्ञः, द्वैष्यं भवत्यसाधोः हियं विगयभया बुद्धा, फरसंपि अणुसासणे । वेसं त होइ मूढाण, खन्तिसोहिकरं पर्य हितंविगतभयाबुद्धाः, परुषमप्यनुशासनम् । द्वैयंतभवतिमूढानां, क्षान्तिशुद्धिकरंपदम् प्रासणे उचिठेज्जा, अणुञ्चे अकुए थिरे । अप्पुटाई निरुहाई, निसीएज्जप्पकुमकुए आसनेउपतिष्ठेत् , अनुच्चेकुचेस्थिरे । अल्पोत्थायीनिरुत्थायी, निषोदेदल्पकुक्कुचः कालेण निक्त्रमे भिक्खू , कालेण य पडिकमे । अकालं च विवज्जित्ता, काले कालं समायरे कालेनिष्कामेदभिक्षुः, कालेन च प्रतिक्रामेत् । अकालं च विवर्य, कालेकार्य समाचरेत् परिवाडीए न चिछज्जा, भिक्खू दत्तेसणं चरे । पडिरूवेण एसित्ता, मियं कालेण भक्खए परिपाट्यांन तिष्ठेत् , भिक्षुर्दतैषणांचरेत् । प्रतिरूपेणैषयित्वा, मितंकालेन भक्षयेत् नाइदूरमणासन्ने, नन्नेसि चक्छुफासो । एगो चिट्ठज्ज भत्तहा, लेपित्ता तं नइकमे नातिदूरमनासन्नः, नान्येषांचक्षुःस्पर्शतः । एकस्तिष्ठेद्भक्तार्थ, उल्लयतनातिकामेत् नाइउच्चे व नीए वा, नासन्ने नाइदूरो। फासुयं परकर्ड पिण्डं, पडिगाहेज्ज संजए ॥३१॥ Iરૂરી ॥३२॥ ॥३३॥ ॥३३॥ ॥३४॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं १ ११५ नात्युचनिचैर्वा, नासन्नोनातिदरतः । प्रासुकंपरस्तंपिण्डं, प्रतिगृहणीयात्सयतः ॥३३॥ अप्पपाणेऽप्पवीयम्मि, पडिच्छन्नम्मि संबुडे । समयं संजए भुंजे, जयं अपरिसाडियं अल्पप्राणेऽल्पवीजे, प्रतिच्छन्ने संवृते (स्थाने)। समकंसंयतोभुञ्जीत, यतमपरिशाटिकं ॥३॥ सुकरित्ति सुपक्कित्ति, सुच्छिन्ने सुहढे मडे । सुणिहिए सुलद्धित्ति, सावज वजए मुणी ॥३॥ मुरुतमितिसुपक्वमिति, सुच्छिन्नसुहृतमृतम् । सुनिष्टितंसुलष्टमिति (सुलध्यमिति),सावधवर्जयेन्मुनिः॥३६॥ रमए पण्डिए सासं, हयं भई व वाहए । बाल सम्मइ सासंतो, गलियस्सं व बाहए ॥३७॥ रमतेपण्डितान् शासन् , हयंभद्रमिववाहकः । वालं श्राम्यति शासन , गलिताश्चमिववाहक: ॥३७॥ खड्या मे चवेडा मे, अकोसा य वहा य मे। कल्लाणमणुसासन्तो, पावदिद्वित्ति मई ॥३॥ खट्टकामे चपेटामे, आक्रोशाश्चवधाश्रमे । कल्याणमनुशिप्यमाणः, पापदृष्टिरितिमन्यते ॥३८॥ पुत्तो मे भाय नाइ ति, साहू कल्लाण मन्नई । पावदिहि उ अप्पाण, सासं दासि ति मन्दई HERI पुत्रोमे भ्राता ज्ञातिरिति, साधुःकल्याणमन्यते । पापदृष्टिस्त्वात्मान, शिप्यमाणोदासइतिमन्यते ॥३९॥ न कोवर पायरिय, अप्पाणपि न कोवए । बुद्धोवघाई न सिया, न सिया तोत्तगवेसए ॥४०॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ||४|| ॥४२॥ ॥४२॥ जैन सिद्धांत पाठमाळा. नकोपयेदाचार्य, आत्मानमपि न कोपयेत् । बुद्धोंपघाती न स्यात् , नस्यात्तोत्रगषक: पायरियं कुवियं नच्चा, पत्तिएण पसायए । विज्मवेज पंजलीउडो, वएज न पुणुत्तिय आचार्यकुपितंज्ञात्वा, प्रीत्याप्रसादयेत् । विध्यापयेत्पांजलिपुटः, वदेन्नपुनरिति च धम्मजियं च ववहार, बुद्धेहायरियं सया। तमायरन्तो ववहारं, गरहं नाभिगच्छई धर्मार्जितंच व्यवहारं, बुबैराचरितंसदा । तमाचरन्व्यवहारं, गही नाभिगच्छति मणोगयं वकगय, जाणित्तायरियस्स उ । तं परिगिज्म वायाए, कम्मुणा उववायए मनोगतंवाक्यगतं, ज्ञात्वाऽऽचार्यस्यतु । तपरिगृह्यवाचया, कर्मणोपपादयेत् । वित्ते अचोइए निञ्च, खिप्पं हवा सुचोइए । जहोवइटुं सुकर्य, किच्चाई कुबई सया 'वित्तोऽनोंदितोंनित्यं, क्षिप्रभवतिसुनोंदितः । यथोपदिष्टं सुकृतं, कत्यानिकुरुतेसदा नचा नमइ मेहावी, लोए कित्ती से जायए । हबई किच्चाणं सरणं, भूयाणं जगई जहा ज्ञात्वानमतिमेघावी, लोकेकीर्तिस्तस्यजायते । भवतिकृत्यानांगरणं, भूतानां जगतीयथा पुजा जरस पसीयन्ति, संबुद्धा पुव्वसंधुया । पसन्ना लाभइस्संति, विउल अट्टियं सुयं १ विनयादि गुणयुक. ॥४३॥ ॥४३॥ ॥ष्टा ॥४४॥ ॥४॥ ॥४६॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जन सिद्धांत पाठमाळा. परीसहे ३ उसिण परिसहे ४ दसमसयपरीसहे ५ अचेलपरीसहे ६ अरइपरीसहे ७ इत्थीपरीसहेक चरियापरीसहे निसीहियापरीसहे १० सेजापरीसहे ११ अक्कोसपरीसहे १२ वहपरीसहे १३ जायणापरीसहे १४ अलाभपरीसहे १५ रोगपरीसहे १६ तणफासपरीसहे १७ जल्लपरीसहे १८ सकारपुरकारपरीसहे १६ पन्नापरीसहे २० अन्नाणपरीसहे २१ ईसणपरीसहे २२ ।। श्रुतं मया आयुग्मन् ? तेन भगवता एवमाख्यातं इह खलु द्वाविशतिः परिषहाः श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिताः । यान् भिक्षुः श्रुत्वा ज्ञात्वा जित्वाऽभिभूय मिक्षाचर्यायां परिव्रजन् स्टष्टो न विहन्येत कतरे खलुते द्वाविशतिः परिषहाः श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिताः । यान् भितुः ' श्रुत्वा ज्ञात्वा जित्वाऽभिभूय मिक्षाचर्यायां परिव्रजन् स्टटो न विहन्येत, इमे खलु ते द्वाविशतिः परिषहाः श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिताः यान् भिक्षुः श्रुत्वाज्ञात्वा जित्वाऽभिभूय मिक्षाचर्यायां परिव्रजन स्पष्टो न विहन्येत ते यथातुधापरिषह: १ पिपासापरिषहः २ शीतपरिषहः ३ उष्णपरिवहः ४ दंशमशकपरिषहः ५ अचेलपरिषहः ६ अरतिपरिषहः ७ स्त्रीपरिषह: ८ चर्यापरिषहः९ निषद्यापरिषहः १० शय्यापरिषहः ११ आक्रोशपरिषहः १२ वधपरिषहः १३ याचनापरिपहः .१४ अलाभपरिषहः १५ रोगपरिषहः १६ तृणस्पर्शपरिषहः १७ जल परिषहः १८ सत्कारपुरस्कारपरिषहः १९ प्रज्ञापरिषहः २० अज्ञानपरिषहः २१ दर्शनपरिषहः २२ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं २ ॥१॥ ॥२॥ ॥२॥ ॥३॥ परीसहाणं पविभत्ती, कासवेणं पवेइया । तं मे उदाहरिस्सामि, श्राणुपुबि सुणेह मे परिषहाणां प्रविभक्तिः, काश्यपेन प्रवेदिता । तां भवतां उदाहरिष्यामि, भानुपुव्यो शृणुतमे दिगिपरिगए देहे, तवस्सी भिक्खू थामवं । नविंदे न मिंदावर न पए न पयावए दिगिच्छापरिगते देहे, तपस्वीमिनः स्थामवान् । नच्छिद्यात् नच्छेदयेत् , नपचेत् न पाचयेत् कालीपवंगसंकासे, किसे धमणिसंतए । मायन्ने असणपाणस्स, अदीणमणसो चरे कालीपर्वाङ्गसंकाशः, कशोधमनिसततः । मात्रज्ञोऽशनपानयोः, अदीनमनाश्चरेत् तो पुट्ठो पिवासाए, वोगुच्छी लजसंजए । सीअोदगं न सेविजा, वियडस्सेसणं चरे तत: स्टष्टः पिपासया, जुगुप्सो लज्जासंयतः । शीतोदकंन सेवेत, विकृतस्यैषणां चरेत् छिन्नावाएसु पंथेसु, पाउरे सुपिवासिए । परिसुकमुहादीणे, तं तितिखे परीसह च्छिन्नापातेषुपथिषु, आतुरः सुपिपासितः । परिशुष्कमुखोऽदीन:, ततितिक्षेत परिषहम् चरंत विरयं लूह, सीयं फुसइ एगया । नाइवेलं मुणी गच्छे, सोचाणं जिणसासणं चरन्तं विरतं रूक्ष, शीतं स्टशति एकदा । नातिवेलं मुनिर्गच्छेत, श्रुत्वा जिनशासनम् ॥४॥ NEN Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ॥७॥ जैन सिद्धांत पाठमाळा. न में निवारणं अस्थि वित्ताणं न विजई। अहं तु अगि सेवामि, इइ भिक्खू न चिंतए नमे निवारणमस्ति, छविस्त्राणं न विद्यते । अहंतु अग्नि सेवे, इति भिक्षुर्नचिन्तयेत् ॥७॥ उसिणंपरियारेणं, परिदाहेण तजिए । प्रिंसु वा परियावर्ण, सायं नो परिदेवए उष्णपरितापेन, परिदाहेन तर्जितः । ग्रीष्मेषु वा परितापेन, सातं नो परिदेवेत ॥॥ उण्हाहितत्तो मेहावी, सिणाणं नो वि पत्थए । गायं नो परिसिंवेजा, न वीएजा य अप्पर्य उण्णाभितप्तो मेधावी, स्नानं नापि प्रार्थयेत् । गानों परिसिंचेत् , नवीजयेदात्मानम् ॥९॥ पुढो य दसमसपहि, समरे व महामुणी । नागो संगामसीसे वा, सूरो अभिहणे परं ॥१०॥ स्टष्टश्चदंशमशकैः, समएव महामुनिः । नागः संग्रामशीर्षे इव, शूरोऽभिहन्यात्परम् न संतसे न वारेजा, मणे पि न पोसए । उवेहे न हणे पाणे, भुंजते मंसप्लोणियं । ॥११॥ न संबसेत् न वारयेत् , मनोऽपिनो क्षयेत् । । उपेक्षेत न हन्यात् प्राणिनः, भुानान्मांसशोणितम् ॥११॥ परिजुण्णेहिं वत्थेहि, होक्खामि त्ति अचेलए । अदुवा सचेले होक्खामि, इह भिक्खून चितए ॥१२ परिजीर्णैस्त्रैः, भविष्यामीत्यचेलकः । "अथवा सचेलको भविष्यामि. इतिभिक्षुर्नचिंतयेत ॥१२॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ ॥१३॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१४॥ ॥१५॥ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं २. एगयाऽचेलए होइ, सचेले आवि एगया । एयं धम्महियं नञ्चा, नाणी नो परिदेवए एकदा ऽचेलको भवति, सचेलको वाऽपि एकदा । एतं धर्म हितं ज्ञात्वा, ज्ञानी नो परिदेवेत गामाणुगाम रीयंत, अणगार अकिचणं । अरई अणुप्पवेसेजा, तं तितिक्खे परीसह ग्रामानुग्राम रोयमाणं, अनगारमकिचनम् । अरतिरनुप्रविशेत् , तं तितिक्षेत् परिपहम् अरई पिटुओ किच्चा, विरए आयरक्खिए । धम्मारामे निरारम्भे, उवसन्ते मुणी चरे अरति पृष्ठतः कृत्वा, विरत आत्मरक्षकः । धर्मारामे निरारंभः, उपशान्तो मुनिश्चरेत् सगो एस भणूसाणं, जाओ लोगम्मि इथियो । जस्स एया परिन्नाया, सुकडं तस्स सामण्णं संग एष मनुष्याणां, या लोके स्त्रियः । येनैताः परिज्ञाताः, सुकृतं तस्य श्रामण्यम् 'एयमादाय मेहावी, पङ्कभूया उ इस्थिश्रो । नो ताहि विणिहानेजा, चरेजत्तगवेसए एवमादाय मेधावी, पंकभूताः स्त्रियः । नो ताभिर्विहन्येत, चरेदात्मगवेषकः एग एव चरे लाढे, अभिभूय परीसहे । गामे वा नगरे वावि, निगमे वा रायहाणिए एक एव चरेल्लाढः, अभिभूय परिपहान् । ग्रामे वा नगरे वापि, निगमे वारानधान्याम् ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१८॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1॥२०॥ ૨૨૨ जैन सिद्धांत पाठमाळा. असमाणे चरे भिक्खू, नेव कुजा परिन्गहं । असंसत्ते गिहत्थेहि, अणिएप्रो परिव्वए असमानश्चरेद्रभिक्षुः, नैव कुर्यात्परिग्रहम् । असंसक्तो गृहस्थेः, अनिकेतनः (सन् ) परिव्रजेत् ॥१९॥ सुसाणे सुन्नगारे वा, रुक्खमूले व एगो । अकुक्कुप्रो निसीएन्जा, न य वित्तासए परं श्मशाने शुन्यागारेवा, वृतमूले चेककः । अकुक्कुचः निषीदेत् , न च त्रासयेत्परम् ॥२०॥ तत्थ से चिट्ठमाणस्स, उवसम्माभिधारए । संकाभीमो न गच्छेजा, उडित्ता अन्नमासणं ॥२॥ तत्र तस्य तिष्ठतः, उपसर्गाः (तान् ) अभिधारयेत् । शंकाभीतो न गच्छेत् , उत्थायान्य दासनम् R१॥ उच्चावयाहि सेजाहि, तवस्सी भिक्खू थामवं । नाइवेल विहनिजा, पावदिट्टी विहन्नई ॥२२॥ उच्चावचाभिः शय्याभिः, तपस्वी भिक्षुः स्थाभवान् । . नातिले विहन्यात् , पापदृष्टिविहन्यात ॥२२॥ पइरिकुवस्सयं लटु, कल्लाणमदुव पावयं । किमेगराई करिस्सइ, एवं तत्थऽहियासए ॥२३॥ प्रतिरिक्तमुपाश्रयं लब्ध्वा , कल्याणमथवा पापकम् । कि एकरात्रं करिष्यति, एवं तत्राधिसहेत अक्कोसेजा परे भिक्खु, न तेसिं पडिसंजले । सरिसो होइ वालाणं, तम्हा भिक्खू न संजले ॥२॥ आक्रोशेत्परः भिक्षु, न तस्मै प्रतिसंज्वलेत् । सहशो भवति बालानां, तस्मादभिक्षुर्नसंज्वलेतू ॥२४॥ ॥२३॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रं अध्ययन २ १२३. सोचाणं फरसा भासा, दारुणा गासकण्टगा । तुसिणीग्रो उवेहेज्जा, न तायो मणसीकरे ॥२५॥ श्रुत्वा परुषाः भाषाः, दारुणाः ग्रामकंटकाः ।। तूष्णीक उपेक्षेत, नताः (नतापो) मनसि कुर्यात् ॥२९॥ हयो न संजले भिक्खू , मणपि न परोसए । तितिक्खं परमं नचा, भिक्खू धम्म समायरे IR0 हतो न संज्वलेदभिक्षुः, मनोऽपि न प्रदूषयेत् । तितिक्षां परमां ज्ञात्वा, भिक्षुधम विचिन्तयेत् ॥२६॥ समणं संजय दंत, हणिज्जा कोइ कत्थई । नस्थि जीवस्स नासुत्ति, एवं पेहेज्ज संजए આપણા श्रमण संयतं दान्तं, हन्यात्कोऽपि कुत्रचित् । नास्ति जीवस्य नाश इति, एवं चिन्तयेत्संयतः ॥२७॥ दुक्करं खलु भो निश्च, अणगारस्स भिक्खुणो । सव्वं से जाइयं होइ, नस्थि किंचि अजाइयं ॥२८॥ दुःकरं खलु भो नित्यं, अनगारस्य भिक्षोः । सर्व तस्य याचितं भवति, नास्तिकिचिदयाचितम् ॥२८॥ गोयरमापविट्ठस्स, पाणीनो सुप्पसारए । सेश्रो अगारवासुत्ति, इइ भिक्खू न चिंतए ॥२६॥ गोचराग्र प्रविष्टस्य, पाणिः न सुप्रसारकः । श्रेयानगारवासः, इति भितुर्नचिन्तयेत् ॥२९॥ परेसु घासमेसेजा, भोयणे परिणिटिए । लद्धे पिण्डे अलद्धे वा, नाणुतप्पेज पंडिए ॥३०॥ परेषुग्रासमेषयेत् , भोजने परिनिष्ठिते । नानुतपेत्यण्डितः, लब्द्धे पिण्डे अलब्रे वा . ॥३०॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥३१॥ ॥३१॥ ॥३२॥ ॥३२॥ ॥३३॥ जैन सिद्धांत पाठमाळा. अज्जेवाहं न लब्भामि, अविलाभो सुए सिया । जो एवं पडिसंचिक्खे, अलाभो तं न तज्जए अद्यैवाहं न लभे, अपिलाभ:श्वःस्यात् । यदिएवं प्रतिसमीक्षेत, अलाभस्तं न तर्जयेत् नचा उप्पइयं दुक्खं, वेयणाए दुट्टिए । अदीणो थावए पत्रं, पुढो तत्थहियासए ज्ञात्वोत्पतितंदुःख, वेदनयादुःखादितः । अदीनःस्थापयेत्प्रज्ञां, स्टष्टस्तत्राधिसहेत . तेगिच्छं नाभिनंदेजा, संचिक्खत्तगवेसए । एवं खु तस्स सामण्णं, जं न कुजा न कारवे चैकित्स्यं नाभिनंदेत् , सतिष्ठेदात्मगवेषकः । एवंखलु तस्य श्रामण्यं, यन्नकुर्यात् न कारयेत् अचेलगस्स लूहस्स, संजयस्स तवस्सिणो । तणेसु सयमाणस्स, हुज्जा गायविराहणा अचेलकस्यरूक्षस्य, संयतस्य तपस्विनः । तृणेषुशयानस्य, भवेद्गात्रविराधना प्रायवस्स निवाएण, अउला हवर वेयणा । एवं नशा न सेवंति, तंतुजं तणतजिया आतपस्यनिपातेन, अतुलाभवतिवेदना । एवंज्ञात्वा न सेवन्ते, तंतुनं तृणतर्जिताः किलिन्नगाए मेहावी, पंकेण व रएण वा । धिंसु वा परियावेण, सायं नो परिदेवए क्लिन्नगात्रोमेधावी, पंकेन वा रजसा वा । ' ग्रीष्मे वा परितापेन, सातं नो परिदेवेत ॥३३॥ ॥३४॥ ॥३४॥ ॥३५॥ ॥३१॥ ॥३६॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं २ १२५ - ॥३७॥ ॥३७॥ ॥३८ ॥३॥ वेएन निजरापेही, पारियं धम्मणुत्तरं । जाव सरीरमेउत्ति, जल्लं कारण धारए वेदयेन् निर्जराप्रेक्षी, आर्यधर्ममनुत्तरं । यावतशरीरभेदः, जल्लं (मलं) कायेन धारयेत् अभिवायणमन्भुटाणं, सामी कुजा निमंतणं । जे ताई पडिसेवन्ति, न तेसिं पीहए मुणी अभिवादनमभ्युत्थानं, स्वामीकुर्याननिमंत्रणं । येतानि प्रतिसेवन्ते, नतेभ्यःस्टहयेन्मुनिः अणुक्कसाई अप्पिच्छे, अन्नाएसी अलोलुए। ' रसेसु नाणुगिज्मेजा, नाणुतप्पेज पन्नवं अणुकषायोऽल्पेच्छ:, अज्ञातैषी अलोलुपः, रसेषु नानुगृध्येत् , नानुतप्येत् प्रज्ञावान् से नूर्ण भए पुवं, कम्माऽणाणफला कडा । जेणाहं नाभिजाणामि, पुढो केणइ कण्हुई स नूनं मयापूर्व, कर्माण्यज्ञातफलानि कतानि । येनाहंनाभिजानामि, पृष्टः केनाऽपि कस्मिन् अह पच्छा उइज्जन्ति, कम्माऽणाणफला कडा । एवमस्सासि अप्पाणं, नचा कम्मविवागयं अथपश्चादुदेष्यन्ति, कर्माणिनानाफलानिरुतानि । एवमाश्वासयात्मानं, कमविपाकंज्ञात्वा निरगम्मि विरो, मेहुणामो सुसंवुडो । जो सक्वं नाभिजाणामि, धम्मं कलाणपावर्ग निरर्थके विरतः, मेथुनात्सुसंवृतः । यदिसाक्षान्नाभिजानामि, धर्मकल्याणपापर्क ॥३९॥ ॥४०॥ ॥४॥ ॥४१॥ ॥४२॥ ॥४२॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. ॥४५॥ तवोवहाणमादाय, पडिम पडिवजयो । एवंपि विहरो मे, छडमे न नियट्टई ॥४॥ तपउपधानमादाय, प्रतिमांप्रतिपद्य । एवंविहरतोमे, छमस्थं ननिवर्तते ॥४३॥ नथि नूगं परेलोए, इट्टी वावी तवस्सियो। अदुवा वंचिोमित्ति, इइ भिक्खू न चिंतए नास्तिनूनपरलोकः, ऋद्धि वापि तपस्विनः । अथवावश्चितोऽस्मि, इतिभिक्षुर्नचिन्तयेत् अभू जिणा अस्थि जिणा, 'अदुवावि भविस्सई । मुसं ते एवमासु, इह भिक्खू न चिंतए अभूवजिनाःसन्तिजिनाः, अथवाऽपिभविष्यन्ति । मृषातएवमाहुः, इतिभिक्षुर्नचिन्तयेत् ॥४५॥ एए परीसहा सने, कासवेण पवेइया। जे भिक्खू न विहम्मेजा, पुट्ठो केणइकण्हुई एतेपरिषहाःसर्वे, काश्यपेन प्रवेदिताः । यान्ज्ञात्वाभिक्षुर्नविहन्येत, पृष्ट फेनाऽपिकुत्रचित् ॥ति बेमि ॥ इति दुग्ध परिसहभायण समत्तं ॥२॥ इतिबवीमि-द्वितीयपरिषहाध्ययनं समाप्तम् ॥ अह तइ चाउरंगिज्जं अज्झयणं । ॥ अथ तृतीयं चातुरणीयमध्ययन प्रारम्यते ।। चत्तारि परमंगाणि दुलहाणीह जन्तुणो । माणुसतं सुई सद्धा, संजमम्मि य पीरियं चत्वारि परमांगानि, दुर्लभानीह जन्तोः । मनुण्यत्वं श्रुतिः श्रद्धा, संयमे च वीर्यम् Meen Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ३. १२७ ॥२॥ समावन्नाण संसारे, नाणागोत्तासु जासु । कम्मा नाणाविहा कट्ट, पुढो विस्संभया पया समापन्नाः संसारे, नानागोत्रेषु जातिषु । कर्माणि नानाविधानिकृत्वा, पृथगू विश्वमृतः प्रजाः एगया देवलोएसु, नरपतु वि एगया । एगया आसुरं काय, श्राहाकम्मेहिं गच्छई एकदा देवलोकेषु, नरकेप्वप्येकदा ।। एकदाऽऽसुरं काय, यथा कर्मभिर्गच्छति एगया खत्तियो होइ, तो चण्डालबुक्कसो। तो कीडपयंगो य, तो कुन्थुपिवीलिया एकदा क्षत्रियो भवति, ततश्चण्डालो वोक्सो | ततःकीट पतंगश्च, ततःकुंयुः पिपीलिका एवमावट्टजोणीसु, पाणिणो कम्मकिब्धिसा । ननिविजन्ति संसारे, सबसु व खत्तिया एवमावर्तयोनिघु, प्राणिनः कर्मकिल्विषाः । ननिर्विद्यन्ते संसारे, सर्वार्थेष्विव क्षत्रिया कम्मसंगेहिं सम्मूढा, दुक्खिया बहुवेयणा । प्रमाणुसासु जोगीसु, विणिहम्मन्ति पाणिणो कर्मसंगैः समूढाः, दुःखिता बहुवेदनाः । अमानुषोषु योनिषु, विनिहन्यन्ते प्राणिनः कम्माणं तु पहाणाए, प्राणुपुन्वी कयाइउ । जीवा सोहिमणुप्पत्ता, प्राययंति मगुस्सयं कर्मणांतु प्रहान्या, आनुपुर्व्या कदाचन । जीवाः शुद्धिमनुप्राप्ताः, ददते मनुष्यताम् ||७॥ ॥७॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जैन सिद्धांत पाठमाळा. माणुस्सं विमा लडु, सुई धम्मस्स दुल्लहा । जं सोचा पडिवज्जन्ति, तवं खंतिमहिसयं मानुष्यं विग्रहं लब्ध्वा श्रुतिर्धर्मस्य दुर्लभा । यं श्रुत्वाप्रतिपद्यन्ते तपःक्षान्तिमहिस्रताम् श्रहच सवणं लघु, सद्धा परमदुल्लहा । सोचा नेप्राउयं मां, वहवे परिभस्साई कदाचिच्छ्रवणं लब्ध्ध्वा, श्रद्धा परमदुर्लभा । श्रुत्वानैयायिकं मार्ग, बहवः परिभ्रश्यन्ति सुई चल सद्धं च वीरयं पुण दुखहं । बहवे रोयमाणावि, नो य णं पडिवजय श्रुतं च लब्ध्वा श्रद्धांच, वीर्यपुनर्दुलभम् । बहवोरोचमानाअपि, नो एतत्प्रतिपद्यते माणुसम्म प्रयाश्रो, जो धम्मं सोच सद्दहे । तबस्सी वोरियं लडु, संबुडे निडुणे रयं मानुष्यत्व आगतः, योधर्मं श्रुत्वा श्रदूधते । तपस्वी वीर्य लव्वा, संवृतोनिर्धुनोतिरजः सोही उज्जुयभूयस्स, धम्मो बुद्धस्स चिट्ठई | निव्वाणं परमं जाइ, वयसित्तिन्व पावर शुद्धिर्भवति ऋजूभूतस्य च धर्मः शुब्धस्यतिष्ठति । निर्वाणपरमंयाति, घृत सिक्तइव पावकः fafia कम्सुणों हेउ, जसं संचिणु खतिए । सरीरं पाढवं हिच्चा, उर्दू एकमई दिसं वेविग्धिकर्मणोहेतुं, यशः संचिनु शान्त्या । पार्थिवंशरीरंहित्या, उर्ध्वप्रक्रामतिदिशम् 11F11 11511 Hall ॥९॥ ॥१०॥ ॥१०॥ ॥११॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१२॥ શરી ॥१३॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं श्रध्ययनं ३. विसालिसेहिं सीलेहिं, जक्खा उत्तरउत्तरा । महासुका व दिप्पंता, मन्नता अपुणञ्चवं विसदृशैः शीले:, यताउत्तरोत्तराः । महाशुक्लाइवदीप्यमानाः, मन्यमाना अपुनश्रयवम् अप्पिया देवकामाण, कामरुवविउब्विणां । उ कप्पे चिठ्ठन्ति, पुव्वा वाससया बहू अर्पित देवकामान्, कामरूपवैक्रेयिणः । उर्ध्व कल्पेषु तिष्ठन्ति, पूर्वाणिवर्षशतानि बहूनि तत्थ ठिच्चा जहाठाणं, जक्खा आउक्खप चुया । उवेन्ति माणुस जोणि, से दसंगेऽभिजायई तत्रस्थित्वायथास्थानं, यक्षात्रायुः क्षयेच्युताः । उपयान्तिमानुषयोनिम् स दशांगोऽभिजायते खेत्तं वत्युं हिरण्णं च पसवो दासपोरुसं । चत्तारि कामखन्धाणि, तत्थ से उबवजई क्षेत्रंवास्तु हिरण्यञ्च पशवोदासपौरुषेयम् । चत्वारः कामस्कन्धाः, तत्र स उत्पद्यते मित्तवं नायव होइ, उच्चागोए य वण्णवं । अपायंके महापन्न, अभिजाए जसोवले मित्रवान्ज्ञातिवान्भवति, उच्चैर्गोत्रो वीर्यवान् । अल्पातंकोमहाप्राज्ञः, अभिजातोयशस्वीवली , भोचा माणुस्सर भए, अप्पाडरुवे प्राउयं । पुचि विसुद्धसद्धम्मे, केवलं वोहि वुझिया भुक्त्वा मानुष्कान्भोगान्, अप्रतिरूपान्यथायुः । पूर्वं विशुद्धसदूधर्मा, केवलांबोधिदुधध्वा १२६ ॥ १४॥ ॥१४॥ ||१५|| 118911 ॥१६॥ ॥१५॥ ॥१७॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥ १८॥ Pl} ॥१९॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं ४, वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इमम्मि लोए अदुवा परत्या। दीवप्पणट्टेव अर्णतमोहे, नेयाउयं दट्टमदठुमेव वित्तेन त्राणं न लमेत प्रमत्तः, अस्मिल्लोकेऽथवापरत्र । दीपप्रणप्टइवानन्तमोहः, नैयायिकदृष्ट्वाऽप्यदृष्ट्व ॥५॥ सुत्तेनु यावी पडिबुद्धजीवी, न वीससे पण्डिए प्रामुपन्ने । घोरा मुहत्ता अवलं सरीरं, भारंडपक्खी व चरेऽपमत्ते ॥ सुप्तेषु चापिप्रतिबुध्धजीवी, नविश्वस्यात्पण्डितप्राशुप्रज्ञः । घोरा मुहूर्ता अवलं शरीरम् , भारण्डपक्षीवचराऽप्रमत्तःसन् ॥६॥ चरे पयाई परिसंकमाणो, जे किंचि पास इह मण्णमाणो। लाभत्तरे जीविय व्हहता, पच्छा परिनाय मलावधंसी ॥७॥ चरेत्पदानि प्रतिशंकमानः, यत्किञ्चित्पाशमिहमन्यमानः । लाभान्तरे जीवितंबृहयित्वा, पश्चात्परिज्ञायमलापध्दंसी ॥४॥ छन्दनिरोहेण उवेइ मोक्खें, आसे जहा सिक्खिस्वम्मधारी । पुवाई वासाई चरेप्पमत्ते, तम्हा मुणी खिप्पमुह मोक्खं ॥८॥ छंदोनिरोधेनोपैतिमोक्षम् , अश्वोयथाशिक्षितवर्मधारी। पूर्वाणिवर्षाणि चरेटप्रमत्तः, तस्मान्मुनिःक्षिप्रमुपैतिमोक्षम् ॥८॥ स पुन्बमे न लभेज पच्छा, एसोवमा सासयदाढयाणं । विसीयई सिढिले पाउयम्मि, कालोवणीए सरीररस भेए 10 स पूर्वमेवं न लभेतपश्चात् , एषोपमाशाश्वतवादिकानाम् । विषीदतिशिथिलआयुपि, कालोपनीतेशरीरस्य भेदे ॥२॥ खिप्पं न सके। विवेगमेड, तम्हा समुहाय पहाय कामे । समिञ्च लोयं समया महेसी, आयाणरक्खी चरऽप्पमत्ती ॥१०॥ क्षिप्रंनशक्नोतिविवेकमेतुं, तस्मात्समुत्थायपहायकामान । समेत्यलोकसमयामहर्षिः, आत्मरक्षी चराऽप्रमत्तः ॥१०॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. मुहं मुहं मोहगुणे जयन्तं, अणेगरूवा समणं चरन्त। फासा फुसन्ति असमंजसंच, न तेसि भिक्खू मणसा पउस्से ॥ मुहर्मुहर्मोहगुणानजयन्तं, अनेकरूपा:श्रमणंचरन्तम् । स्पर्शा:स्टशन्त्यसमंजसंच, न तेषुभिक्षुर्मनसाप्रदुप्येत् ॥११॥ मन्दा य फासा बहुलोहणिजा, तहप्पगारेसु मणं न कुज्जा। रक्खिज कोहं विणएज माणं, मायं न सेवेन पहेज लोहं ॥१२॥ मन्दाश्चस्पर्शा बहुलोभनीयाः, तथाप्रकारेषुमनोनकुर्यात् । रक्षेत्क्रोधं विनयेत मान, मायांनसेवेतप्रजह्याल्लोभम् ॥१२॥ जे संखया तुच्छपरप्पवाई, ते पिजदोसाणुगया परज्झा। एए अहम्मे ति दुगुंछमाणो, कंखे गुणे जाव सरीरभेउ ॥१३॥ ये संस्कृतास्तुच्छपरप्रवादिनः, तेप्रेमद्वेषानुगता:परवशाः । एतेऽधर्माइतिजुगुप्समानः, कांतगुणान्यावच्छरीरभेदः ॥१३॥ ॥त्ति बेमि ॥ इति असंखयं चउत्थं अज्मयणं समत्तं ॥४॥ ॥ इति ब्रवीमि इति असंस्कृतं चतुर्थमध्ययनं समाप्तं ॥ अह अकाममरणिज्ज पञ्चमं अज्झयणं । ॥अथाकाम मरणीयं पञ्चममध्ययनं ॥ अण्णवसि महोघसि, एगे तिपणे दुरुत्तरे। तत्थ एगे महापन्ने, इमं पण्हमुदाहरे अर्णवान्महौषात् , एके तीर्णा दुरुत्तरात् । तत्रैको महाप्रज्ञः, इमं प्रभमुदाहृतवान् ॥१॥ सन्तिमे य दुवे ठाणा, अक्खाया मरणन्तिया । अकाममरणं चेव, सकाममरणं तहा स्त इमे हे स्थाने, आख्याते मरणान्तिके । अकाममरणं चैव, सकाममरण तथा ॥२॥ ॥शा ॥२॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययनं ५. १३३ ॥३॥ ॥५॥ वालाणं अकामं तु, मरणं असई भवे । पण्डियाणं सकामं तु, उक्कोसेण सई भवे वालानामकाम तु, मरणमसरुदभवेत् । पण्डितानां सकामंतु, उत्कर्षेण सद् भवेत् तत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं ।। कामगिद्धे जहा वाले, भिसं कूराई कुवाई तत्रत्यं (तत्रेद) प्रथम स्थान, महावीरेण देशितम् । कामगृद्धः (सन् ) यथावाल:, भृश क्रूराणि करोति जे गिद्धे कामभोगेसु, एगे कूडाय गच्छई। न मे दिवे परे लोए, वखुदिट्ठा इमा रई यो गृद्धः कामभोगेषु, एकः 'कूटायगच्छति । न मयादृष्टः परलोका, चतुर्दष्टेयं रतिः हत्थागया इमे कामा, कालिया ने अणागया । को जाणइ परे लोए, अस्थि वा नत्थि वा पुणो हस्तगता इमे कामाः, कालिका येऽनागताः । को जानाति परलोकः, अस्ति वा नास्ति वा पुनः जणेण सद्धि होक्खामि, इइ वाले पगभई । कामभोगाणुरापणं, केस संपडिवजई. जनेन साधू भविष्यामि, इति बाल: प्रगल्भते । कामभोगानुरागेण, क्लेशं स प्रतिपद्यते तम्रो से दण्ड समारभई, तसेसु थावरेसु य । अहाए य अणठाए, भूयगाम विहिसई । ततो दण्डं समारमते, त्रसेषुस्थावरेषु च । अर्थाय चानर्थाय, भूतग्राम विहिनस्ति । नरकस्थानमा. ॥६॥ ॥७॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैन सिद्धांत पाउमाळा. हिंसे वाले मुसावाई, माइल्ले पिसुणे सढे । भुंजमाणे सुरं मंसं, सेयमेयं ति मन्नई Hell हिस्रो वालो मृषावादी, मायी च पिशुनः शठः । भुञ्जानः सुरांमांस, श्रेयो म इदमितिमन्यते ॥९॥ कायसा वयसा मत्ते, वित्ते गिद्धे य इस्थिसु । दुहयो मलं संचिणइ, सिलुणागु व मट्टियं ॥१०॥ कायेन वचसामत्तः, वित्तेगृद्धश्चस्त्रीषु । द्विधामलसंचिनोति, शिशुनाग इव मृत्तिकाम् तो पुटो श्रायंकणं, गिलाणो परितप्पई । पभीओ परलोगस्स, कम्माणुप्पेहि अप्पणों ततःस्पृष्ट आतंकेन, ग्लानःपरितप्यते । प्रभीतःपरलोकात् , कर्मानुप्रेदयात्मनः सुया मे नरए ठाणा, असीलाणं च जा गई । वालाणं कुरकम्माणं, पगाढा जत्थ वेयणा ॥१॥ श्रुतानि मयानरकस्थानानि, अशीलानां च यागतिः । बालानां क्रूरकर्मणाम् , प्रगाढा यत्र वेदना तत्थोववाइयं ठाणं, जहा मेयमणुस्सुयं । श्राहाकम्मेहि गच्छन्तो, सो पच्छा परितप्पई ॥१३॥ तत्रौपपातिकं स्थानम् , यथामयानुश्रुतम् | यथाकर्मभिर्गच्छन्सः, पश्चात्परितप्यते ॥१३॥ जहा साांडो जाणं, समंहिचा महापहं । विसमं मग्गमोइण्णो, अक्खे भग्गम्मि सोयई ॥१४॥ यथाशाकटिकोजानन् , समहित्वामहापथम् । - विषममार्गमुत्तीर्णः, अभग्नइवशोचति ॥१४॥ ॥१२॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१६॥ ॥१७॥ उत्तराध्ययनसून अध्ययनं ३ एवं धर्म विउक्कम्म, अहम्म पडिबजिया । वाले मच्चुमुई पत्ते, अक्खे भग्गे व सोयई एवंधर्मव्युत्क्रम्य, अधर्म प्रतिपद्य । वालोमृत्युमुखप्राप्तः, अभग्नइवशोचति तो से भरणन्तम्मि, वाले संतसई भया । अकाम मरणं मरई, धुत्ते व कलिणाजिए तत:स मरणान्ते, वालःसंत्रस्यतिभयात् । अकाममरणंम्रियते, धूर्तइवकलिनाजितः एवं अकाममरण, वालाणं तु पवेइयं । एत्तो सकाममरण, पण्डियाणं सुणेह मे एतदकाममरण, वालानांतुप्रवेदितम् । इत:सकाममरणम् , पण्डितानांशणुतमे मरणं पि सपुण्णाणं, जहा मेयमणुस्सुयं । विष्पसपणनणाघार्य, संजयाण नुसीमयो मरणमपिसुपुण्यानां, ययामयेतदनुश्रुतम् । विप्रसन्नमनाघातं, संवतानां वश्यवताम् न इमं सब्वेसु भिक्खूसु, नइमं सब्वेसु गारिनु । नाणासीला अगारस्था, विसमसीला य भिक्खुणो नेदंसर्वेषांभिक्षूणां, नचेदंसर्वेषांमगारिणाम् | नानाशीलाअगारस्थाः, विषमशीलाश्चभिक्षवः सन्ति एगेहिं भिक्खूहि, गारत्या संजमुत्तरा। गारत्थेहि य सम्वेहि, साहवो संजमुत्तरा सन्त्येकेभ्योभिक्षुभ्यः, गृहस्था:संयमोत्तराः । अगारस्थेभ्यःसर्वेभ्यः, साधवःसंयमोत्तराः ॥१७॥ ॥१६॥ ॥१६॥ ॥२०॥ ॥२०॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन सिद्धांत पाठमाळा. चीराजिणं नगिणिणं, जडी संघाडिमुण्डिणं । एयाणि वि न तायन्ति, दुस्सील परियागय ॥२२॥ चौराजिनं नमत्वं, जटित्वंसंघाटित्वंमुण्डत्वम् । एनान्यपि न त्रायन्ते, दुःशीलंपर्यायगतम् ॥२१॥ पिंडोलएब्ब दुस्सीले, नरगाश्रो न मुचई । भिक्खाए वा गिहत्ये वा, सुब्बए कम्मई दिवं ॥२२॥ पिण्डावलगोऽपिदुःशीलो, नरकान्नमुच्यते । भिक्षादोवागृहस्थोबा, सुव्रतोदिवंक्रामति ॥२२॥ अगारिसामाइयंगाणि, सही कारण फासए । पोसहं दुहनो पक्खं, एगराय न हावर ॥२३॥ अगारीसामायिकांगानि, श्रद्धो कायेनस्टशति । पौषधमुभयोःपक्षयोः, एकरात्रं न हापयेत् ॥२२॥ एवं सिक्खासमावन्ने, गिहिवासे वि सुम्चए । मुच्चई छविपन्बाश्री, गच्छे जक्खसलोगयं एवंशिक्षासमापन्नः, गृहिवासेऽपिसुव्रतः । मुच्यतेछवि:पर्वण(औदारिकशरीरात्),गच्छेद्यक्षसलोकतामा२४॥ अह जे संवुडे भिक्खु, दोण्हं अन्नयरे सिया । सब्ब दुक्खपहीणे वा, देवे वावि महिलिए પરવા अथयःसंवृतोमिक्षुः, द्वयोरन्यतरस्मिन्स्यात् । सर्वदुःखप्रक्षीणोबा, देवोवाऽपिमहर्धिक: ॥२६॥ उत्तराई विमोहाई, जुईमन्ताणुपुत्वसो। समाइण्णाई जक्खेहि, आवासाउं जसंसिणो उत्तराणि विमोहानि, द्युतिमन्त्यनुपूर्वशः । समाकीर्णानि यक्षः, आवासानियशस्विनः ॥२६॥ ॥२४॥ ॥२६॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं ३. १३७ - - दीहाउया इहिमन्ता, सामद्धा कामरुविणो । अहुणोववनसंकासा, भुजो अश्चिमालिप्पमा ॥२७॥ (ते)दीर्घायुपोऋधिमन्तः, समृध्या:कामरूपिणः । अधुनोत्पन्नसंकाशाः, भूयोऽर्चिमालिप्रभाः ॥२७॥ ताणि ठाणाणि गच्छन्ति, सिक्खित्ता संजम तवं । भिक्खाप वा गिहिल्ये वा, जे सन्ति परिनिम्बुडा ॥२८॥ तानि स्थानानिगच्छन्ति, गिभित्वा संयम तपः । भिक्षुका वा गृहस्था वा, ये सन्ति परिनिवृत्ताः ॥२८॥ तेसिं सोचा सपुजाण, संजयाण बुसीमओ। न संतसंति मरणंते, सीलवन्ता बहुस्सुया ॥२ ॥ तेषां श्रुत्वा सत्पूज्यानां, संयतानां वश्यक्ताम् । न संत्रस्यन्ति मरणान्ते, शीलवन्तो वहुश्रुता: ॥२९॥ तुलिया विसेसमादाय, दयाधम्मस्स खन्तिए । विपसीएज मेहावी, तहाभूएण अप्पणा तोलयित्वा विशेषमादाय, दया धर्मस्य क्षात्या । विप्रसीदेन्मेधावी, तथामृतेनात्मना ॥३०॥ तनो काले अभिप्पए, सट्टी तालिसमन्तिए । विणरज लोमहरिसं, भेयं देहस्स फंखए ॥३२॥ ततः काल अभिप्रेते, श्रही तादृग (गुरु) मन्तिके । विनयेल्लोमहर्ष, भेट देहस्य कांन्नेत ॥११॥ अह कालम्मि संपत्ते. प्राचायाय समुस्सयं ।। सकाममरणं मरई, तिदमनयर मुणी ॥३२॥ अथकाले संप्राप्ने, आयातयन समुच्छिनन् । सकाममरणेन मियने, त्रयाणामन्यतरेण मुनिः ॥20॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जैन सिद्धांत पाठमाळा. - ॥ति वेमि ॥ इति श्रकाममरणिज पंचम अज्मयणं समत्तं ॥५॥ इति ब्रवीमि।। इति अकाम मरणीयं पंचममध्ययनं समाप्तम् ॥ ॥ अह खुड्डागनियंठिजं छठं अज्झयणं ॥ ॥अथ क्षुल्लक निग्रंथीयं षष्ठमध्ययनं ॥ जावन्तऽविजापुरिसा, सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुप्पन्ति बहुसो मूढा, संसारम्मि अणन्तए ॥१॥ यावन्तोऽविद्याः पुरुषाः, सर्वे ते दुःखसंभवाः । लुप्यन्ते बहुशो मूढाः, संसारेऽनन्तके समिक्ख पण्डिए तम्हा, पासजाई पहे बहू । अप्पणा सच्चमेसेजा, मेति भूएसु कप्पए । समीदय पण्डितस्तस्मात् , पाशजातिपथान्वहून् । आत्मना सत्यमेषयेत् , मैत्री भूतेषु कल्पयेत् माया पिया पहुसा भाया, भजा पुत्ता य श्रोरसा । नालं ते मम ताणाए, लुप्पंतस्स सकस्मुणा माता पिता स्नुषा भ्राता, भार्या पुत्राश्चौरसाः । नालंतेममत्राणाय, लुप्यमानस्य स्वकर्मणा एयम8 सपेहाए, पासे समियदसणे । छिन्दे गेहि सिणेहं च, न कंखे पुत्वसंथुयं एतमर्थ स्वप्रेक्षया, पश्येत् समितदर्शनः । छिन्द्याद्गृद्धिं स्नेहं च, न कांक्षेत पूर्वसंस्तवम् गवासं मणिकुण्डलं, पसवो दासपोरुस । सब्वमेयं चहत्ताण, कामरूवी भविस्ससि गवाश्व मणिकुण्डलं, पशवो दासपौरुषम् । सर्वमेतत्त्यक्त्वा त्वं, कामरूपी भविष्यसि Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ॥६॥ ॥६॥ ॥७॥ ॥७॥ ॥८॥ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययनं. ६ थावर जंगमं चेव, धणं धनं उवक्खरं । पञ्चमाणस्स कम्मेहिं, नालंदुक्खाश्रो मोप्रणे स्थावरं जंगमं चैव, धनं धान्य मुपस्करम् । पच्यमानस्य कर्मभिः, नालं दुःखान्मोचने अज्मत्थं सवो सव्वं, दिस्स पाणे पियायए । न हणे पाणिगो पाणे, भयवेरायो उवरए अध्यात्मस्थं सर्वतः सर्वं, दृष्ट्वा प्राणान्प्रियात्मकान् । नहन्यात्प्राणिनः प्राणान् , भयवैरादुपरतः श्रायाण नरय दिस्स, नायएज तणावि । दोगुञ्छी अप्पणो पाए, दिन्नं भुंजेज भोयणं 'आदानं नरकमिति दृष्ट्वा, नाददीत तृणमपि । जुगुप्स्यात्मनः पात्रे, दत्तं भुञ्जीत भोजनम् इहमेगे उ मनन्ति, अप्पचक्खाय पावगं । पायरियं विदित्ताण, सम्वदुक्खा विमुच्चई इहैके मन्यन्ते, अप्रत्याख्याय पापकम् । आर्यत्वं विदित्वा, सर्वे दुःखेम्यो विमुच्यते भणता अकरेन्ता य, वन्धमोक्खपइण्णिणो । वायाविरियमेत्तेण, समासासेन्ति अप्पयं -- भणन्तोऽकुर्वन्त:, च बन्धमोक्षप्रतिज्ञिनः । वागवीर्यमात्रेण, समाश्वासयन्त्यात्मानम् न चित्ता तायए भासा, कुत्रो विजाणुसासणं । विसमा पावकम्मेहि, वाला पंडियमाणिणो नचित्रास्त्रायन्तेभाषाः, कुतोविद्यानुशासनम् । विषण्णाः पापकर्मभिः, वाला: पण्डितमानिनः १ प्रदत्तग्रहणम् ॥९॥ ॥१०॥ ॥१०॥ ॥१२॥ ॥११॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१२॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१३॥ ॥१४॥ १४० जैन सिद्धांत पाठमाळा. जे केइ सरीरे सत्ता, वण्णे रुवे य सव्वसो । मणसा कायवक्केण, सम्वे ते दुक्खसम्भवा ये के शरीरे सक्ताः, वर्णरूपे च सर्वशः । मनसा कायवाक्येन, सर्वे ते दुःख संभवाः श्रावना दीहमद्धाणं, संसारम्मि अणन्तए । तम्हा सर्वादसं पस्सं, अप्पमत्तो परिन्वए आपन्ना दीर्घमध्वानं, संसारेऽनन्तके | तस्मात्सर्वदिशं दृष्ट्वा, मुनिरप्रमत्तः परिव्रजेत् पहिया उडमादाय, नावकंखे कयाइ वि। पुब्बकम्मक्खयहाए, इमं देहं समुद्धरे वाह्यमुवं मादाय, नावकांक्षेत्कदापि च । पूर्वकर्मक्षयार्थ, इमं देहं समुद्धरेत् विविञ्च कम्मुणो हेर्ड, कालखी परिव्वए । मायं पिंडस्स पाणस्स, कई लभू ण भक्खए विविच्य कर्मणो हेतुं, कालकांक्षी परिव्रजेत् । मात्रां पिण्डस्य पानस्य, कृतं लब्ध्वा भक्षयेत् सन्निहिं च न कुवेजा, लेवमायाए संजए । पक्खीपत्तं समादाय, निरवेक्खो परिवएं संनिधि च न कुर्वीत, लेपमात्रया संयतः । पक्षीपत्रमिव समादाय, निरपेक्षः परिव्रजेत् एसणासभिश्रो लज्जू , गामे अणियश्रो चरे । अप्पमत्तो पमत्तेहि, पिण्डवायं गवेसए एषणासमितो लज्जावान , ग्रामेऽनियतश्चरेत् । अप्रमत्तः प्रमत्तेभ्यः, पिण्डपातं गवेषयेत् ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१५॥ ॥१७॥ |१७|| Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं ७. एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी, अणुत्तरदसी अणुत्तरनाण दसणधरे अरहा नायपुत्ते, भगवं वेसालिए वियाहिए ॥ एवं स उदाहृतवान् अनुत्तरज्ञान्यनुत्तरदर्शी अनुत्तरज्ञानदर्शनधरः, अर्हन्ज्ञातपुत्र: भगवान् वैशालिको विख्याता ॥ ॥त्ति बेमि ॥ इति खुट्टागनियंठिब्ज छठं अज्झयणं समत्तं ॥६॥ ॥ इति ब्रवीमि ॥इति तुल्लक निग्रंथीयं पष्ठमध्ययनं समाप्त॥६॥ ॥२॥ ॥१॥ રા ॥ अह एलयं सत्तमं अज्झयणं ॥ ॥अथैलकनाम सप्तममध्ययन ॥ जहाएसं समुद्दिस्स, कोइ पोसेज एलयं । श्रोयण जवसं देजा, पोसेजावि सयङ्गणे अथादेश समुद्दिश्य, कोऽपि पोषयेदेलकम् । ओदनं यवसं दद्यात् , पोषयेदपि स्वकांगणे तो से पुढे परिवूढे, जायमेए मुहोदरे । पीणिए विउले देहे, श्रापस परिकखए तत: स पुष्टः परिवृढः, जातमेदो महोदरः । प्रीणितो विपुलेदेहे, आदेश परिकांक्षति जाव न एइ पाएसे, ताव जीवइ से दुही । अह पत्तम्मि आएसे, सीसं केत्तूण भुजई यावन्नेत्यादेशः, तावजीवति स दुःखी। अथप्राप्त आदेशे, शीर्ष छित्वा भुज्यते जहा से खलु उरव्मे, श्राएसाए समीहिए । एव वाले अहम्मिठे, ईहई नरयाउर्य यथा सः खलुरभ्रः, आदेशाय समीहितः । एवंवालोऽधर्मिष्ठः, ईहतेनरकायुः IR॥ ॥३॥ 11211 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १४२ जैन सिद्धांत पाठमाळा. हिसे बाले मुसावाई, श्रद्धाणमि विलोवए । अन्नदत्तहरे तेणे, माई के नु हरे सढे हिस्त्रोबालोमृषवादी, अध्वनिविलुम्पकः । अन्यादत्तहरःस्तेनः, मायीकन्नुहरःशठः इत्यीविसयगिद्धे य, महारंभपरिगहे । भुंजमाणे सुरं मंसं, परिवूढे परंदमे स्त्रीविषयेषुगृद्धः च, महारंभपरिग्रहः । भुजानः सुरांमासं, परिवृढः परंदमः । प्रयकक्करभोइ य, तुंडिल्ले चियलोहिए । पाउयं नरए कंखे, जहाएसं घ एलए अनकर्करभोजी च, तुन्दिल: चित्तलोहितः । आयुर्नरकाय कांक्षति, यथाऽऽदेशमिवैडकः . प्रासणं सयणं जाणं, वित्तं कामे य भुजिया । दुस्साहडं धणं हिच्चा, बहु संचिणिया रयं आसनं शयनं यानं, वित्तंकामान्मुक्त्वा । दुःखाहृतंधनत्यक्त्वा, बहु संचित्यरजः तो कम्मगुरू जंतू, पच्चुप्पन्नपरायणे । अय व्व ग्रागयाएसे, मरणतम्मि सोयई तत:कमेगुरुनन्तुः, प्रत्युत्पन्नपरायणः । अनइवागत आदेशे, मरणान्ते शोचति तो पाउपरिक्लीणे, चुया तेहा विहिंसगा। श्रापुरीयं दिसं वाला, गच्छन्ति अवसा तमं ततआयुषिपरिक्षीणे, च्युतदेहाविहिस्रकाः । श्रासुरीदिशंबालाः, अवशागच्छन्तितामसम् ॥३॥ ॥९॥ ॥१॥ ॥१०॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जैन सिद्धांत पाठमाळा. दुहो गई बालस्स, श्रावई वहमूलिया । देवत्तं माणुसतंच, जं जिए लोलयासढे ॥१७॥ द्विधागतिर्बालस्य, आपवधमलिका। देवत्वंमनुष्यत्वंचहारितः, यस्माज्नितोलोलयाशठः ॥१७॥ तो जिए सई होइ, दुविहिं दोग्गइंगए । दुलहा तस्स उम्मम्गा, श्रद्धाए सुचिरादवि ॥१८॥ ततोजितो(विषयैः)सदभवति, भवतिद्विविधांदुर्गतिगतः। 'दुर्लभातस्योन्मज्ना, अहाप्रभूतकालेसुचिरादपि ॥१८॥ एवं जियं सहाए, तुलिया वालं च पण्डियं । मूलियं ते पवेसन्ति, माणुसिं जोणिमेन्ति जे ॥१६॥ एवंजितसंप्रेदय, तोलयित्वाबालंचपण्डितम् । मूलकतेप्रविशन्ति, मानुषीयोनि यान्ति ये ॥१९॥ वेमायाहिं सिक्खाहिं, जे नरा गिहिसुब्वया । उर्वन्ति माणुसं जोणि, कम्मसचा हु पाणिणो ॥२०॥ विमात्राभिःशिक्षाभिः, ये नराःगृहिसुवृताः । उपयान्तिमानुषींयोनि, कर्मसत्या:खलुप्राणिनः ॥२०॥ जेसिं तु विउला सिक्वा, मूलियं ते अइच्छिया । सीलवन्ता सवीसेसा, अदीणा जन्ति देवयं ॥२२॥ येषांतुविपुलाशिक्षा, मूलकं तेऽतिक्रान्ताः । शीलवन्त:सविशेषाः, अदीनायान्तिदेवत्वम् ॥२१॥ एवमहीणवं भिक्खू, अागारिं च वियाणिया। कहण्णु जिञ्चमेलिक्खं, जिश्चमाणे न संविदे ॥२२॥ एवमदैन्यंभिक्षु, अगारिणं च विज्ञाय । कथंनुजेतव्यमीहश, जीयमानो न संविद्यातू ॥२२॥ १ निर्गमन बहार निकबु. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं ७ १४, जहा कुसग्गे उदगं, समुद्देणसमं मिणे । एवं माणुसगा कामा, देवकामाण अंतिए ॥२३॥ यथाकुशाग्रउदकं, समुद्रेण समं मिनुयात् । एवं मानुप्यका:कामाः, देवकामानामन्तिके ॥२३॥ कुसम्गमेत्ता इमे कामा, सनिरुद्धमि आउए । कस्स हेडं पुराकाउं, जोगवखे न संविदे ॥२४॥ कुगाग्रमात्रा इमे कामाः, सन्निरुद्धे आयुषि ! कम्य हेतुं पुरस्लत्य, योगक्षेमं न संविद्यान ॥२॥ इह कामाणियट्टत्स, अत्तहे अवरमई । सांचा नेयाउयं मन्न, जं भुजो परिभस्सई इह कामाऽनिर्वृतम्य, आत्मार्थोऽपराव्यति । श्रुत्वा नैयायिकमार्ग, ये(श्रुत्वाऽपि)भूयः परिभ्रश्यति ॥२५॥ इह कामणियहस्स, अत्तहे नावरमई । पूइदेहनिरोहेणं, भवे देवि ति मे सुयं REn इह कामनिवृतस्य, आत्मार्थोनापराध्यति । पूतिदेहत्यागेन, भवेदेवइति मया श्रुतम् इट्टी जुई जमो वण्णो, पाउ मुहमणुत्तरं । भुज्जो जत्थ मणुस्सेसु, तत्थ से उववजई ॥२७॥ ऋद्विद्युतियशोवर्णः, आयु:सुखमनुत्तरम् । भूयो यत्र मनुप्येषु, तत्र स उत्पद्यते ॥२७॥ यालस्स.पस्स वालतं, अहम पडिवजिया । चिचा धम्म अहम्मिटे, नरए उववजई रण) बालस्य पश्य बालत्वं, अधर्म प्रतिपद्य । त्यक्त्वा धर्ममधर्मिष्ठः, नरक उत्पद्यते ॥२८॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैन सिद्धांत पाठमाळा. धीरस्स पस्स धीरतं, समधम्माणुवत्तिणो । विद्या धम्मं धम्मिट्ठे, देवेसु उववजई, धीरस्य पश्य धीरत्वं सर्वधर्मानुवर्तिनः । त्यक्त्वाऽधर्मं धर्मिष्ठः, देवेषूत्पद्यते तुलियाण वालभावं, प्रवालं चैव पंडिए । चऊण वालभावं, प्रवालं सेवई मुणि तोलयित्वा बालभावं, अवालं चैव पण्डितः । त्यक्त्वा बालभावं, अबाल सेवते मुनिः ॥ ग्रह काविलीयं श्रमं भयणं । अथ कापिलिकमष्टममध्ययनं ॥२६॥ ॥२९॥ ॥ ति वेमि ॥ इति पलयज्मयणं समत्तं ॥ ७॥ इति ब्रवीमि इत्येलकाध्ययनं समाप्तं ||७|| ||३०|| ॥३०॥ अधुवे प्रसासयम्मी, संसारम्मि दुक्खपउराए । किं नाम होज तं कम्मयं, जेणाहं दुम्माई न गच्छेजा अध्रुवेऽशाश्वते, संसारे दुःखप्रचुरे । किंना मतद्भवेत्कर्मकं, येनाहं दुर्गति न गच्छेयम् विजहित्तु पुन्त्रसंजोयं, न सिणेहं कहिंचि कुवेजा । असिणेहसिणेहकरेहि, दोसपप्रोसेहि मुच्चए भिक्खू विहाय पूर्वसंयोग, न स्नेहं कस्मिंश्चित् । M अस्नेह : स्नेहकरेषु (विषयेषु), दोषप्रदोषेभ्यो मुच्यते भिक्षुः ॥२॥ तो नाणदंसणसमग्गो, हियनिस्सेसाय सव्वजीवाणं । तेसिं विमोदखणट्टाए, भासई मुणिवरो विगयमोहो ततो ज्ञानदर्शनसमग्रः (सन् ), हिंतनिःश्रेयसाय सर्वजीवानाम् । तेषां विमोक्षार्थं, भाषते मुनिवरो विगत मोहः ॥३॥ ॥३॥ ॥१॥ ॥१॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे प्रध्ययनं Pl सव्वं ग्रंथं कलहं च, विप्पज्जहे तहाविहं भिक्खू । सव्वेसु कामजासु, पासमाजो न लिप्पई ताई सर्वं ग्रन्थंकलहं च, विप्रजह्यात्तथाविधंभिक्षुः । सर्वेषु कामजातेपु, पश्यन् (अपि)न लिप्यते त्रायी भोगामिसदोसविसन्ने, हियनिस्सेयसवुद्धिबोधत्ये । वालेय मन्दिर मूढे वार्ड मच्छिया व खेलग्मि भोगामिषदोषविषण्णः, हितनिःश्रेयसवुद्धिर्विपर्यस्तः । बालश्वमन्दोमूढः, बध्यते मक्षिकेव लेप्मणि दुप्परिचया इमे कामा, नो सुजहा धीरपुरिसेहिं । अह सन्ति सुव्वया साहू, जे तरन्ति श्रतरं वणिया वा ॥६॥ दुःपरित्याज्या इमे कामाः, नो सुत्यजा अधीरपुरुषः । अथ सन्ति सुव्रताः साधवः, ये तरन्त्यतरंसंसारम् समणामु एगे वयमाणा, पाणवहं मिया प्रयाणन्ता । मन्दा निरयं गच्छन्ति वाला पावियाहि दिट्ठीहिं ॥५॥ ॥૬॥ ૪૭ 1 पाणे य नाइवाएजा से समीइ त्ति बुधई ताई । तो से पावयं कर्म, निलाइ उदगं व थलाश्री प्राणानुयो नातिपातयेत् स समितइत्युच्यते त्रायी । तस्मात्तस्य पापकर्म, निर्यातित्युदकं स्थलादिव १ परतीर्थकाः = म्रन्य मतवाढी. 18n 11811 ॥७॥ ॥७॥ श्रमणा एके 'वदन्तः, प्राणवधं मृगा अजानन्तम् । मन्दा नरकं गच्छन्ति, बालाः पापिकाभिर्दृष्टिभिः नहु पाणवहं श्रणुजाणे, मुज कयाह सव्वदुक्खाणं । एवंप्रायरिएहि श्रक्खायं, जेहिं इमो साहुधम्मोपात्तो ॥ न खलु प्राणबधमनुजानन्, सुच्यते कदाचित्सर्वदुःखैः । एवमाचार्यैराख्यातं यरेष साधुधर्मः प्रज्ञप्तः 11501 Hell ॥९॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. ॥१०॥ जगनिस्सिएहिं भूएहि, तसनामेहि थावरेहि च । नो तेसिमारभे दंड, मणसा वयसा कायसा चेव ॥१०॥ जगनिश्रितेषु भूतेषु, त्रसेषु स्थावरेषु च। । न तेषांदण्डमारभेत, मनसावचसाकायेन चैव सुद्धसणाम्रो नचाण, तत्थ ठवेज भिक्खू अप्पाणं । जायाए धासमेसेजा, रसगिद्धे, न सिया भिक्खाए ॥१॥ शु?षणां ज्ञात्वा, तत्र स्थापयेद् भिक्षुरात्मानम् । . 'यात्रायां ग्रासमेषयेत् , रसगृद्धो न स्यादभिक्षाकः ॥११॥ पन्ताणि चेव सेवेजा, सीयपिंड पुराणकुम्मासं । अदु वुक्कसं पलागं वा, जवणठाए निसेवए मंथु ॥१२॥ प्रान्तानि चैव सेवेत, शीतपिण्डं पुराणकुल्माषान् । अथवाबुक्कसं पुलाकं, यापनार्थ निषेवते मन्थुम् ॥१२॥ जे लक्षणं च सुविणं, अङ्गविज च जे पउंजंति । नहु ते समणा वुश्चति, एवं प्रायरिएहि अक्खायं ॥१३॥ ये लक्षण च स्वप्नं, अंगविद्यां च ये प्रयुञ्जन्ति । न खलु ते श्रमणा उच्यन्ते. एवमाचार्येराख्यातम् ॥१३॥ इहजीवियं अणियमेत्ता, पमहा समाहिजोएहि। , ते कामभोगरसगिद्धा, उववजान्ति प्रासुरे काए ॥१४॥ इहजीवित मनियंत्र्य(अनियम्य), प्रभ्रष्टा:समाधियोगेभ्यः । ते कामभोगरसगृद्धाः, उत्पद्यन्त प्रासुरे काये ॥१४॥ तत्तो वि य उव्वहिता, संसार वहु अणुपरियन्ति । बहुकम्मलेवलित्ताणं, वोही होइ सुदुलहा तेर्सि ततोऽपि य उधृत्य, संसारंबवनुपर्यटन्ति । बहुकर्मलेपलिप्तानाम् , बोधिर्मवतिसुदुलमा तेषाम् ॥१५॥ १ सयमयात्रामा. २ उहत्य-फरीने. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययन ६ कसिपि जो इमं लोयं, पडिपुण्णं दलेजा इमस्स । तणाव से न संतुस्से, इह दुष्पूरए इमे आया कृत्स्नमपि य इर्मलोकं, प्रतिपूर्ण दद्यादेकस्मै । तेनापि मन संतुप्येत् इति दुःपूरकोऽयमात्मा जहा लाही तहा लोहो, लाहा लोहो पवई । दोमासकयं कर्ज, कोडीए विन निद्वियं } यथा लाभस्तथा लोभः, लाभालोभः प्रवर्धते । द्विमाप कृतं कार्य, कोटयाऽपि न निष्ठितम् जो रक्खसीसु गिज्भेज्जा, गंडवच्छासु ऽणेगचित्तासु । जाओ पुरिसं पलोभित्ता, खेलन्ति जहा व दासेहि न राक्षसीषु गृध्येत्, गण्ड वक्षस्वनेकचित्तासु । याः पुरुषं प्रलोभय्य, क्रीडन्ति दासैरिव नारीसु नोवगिज्जा, इत्थी विप्पजहे प्रणागारे | धम्मं च पेसलं ना, तत्थ उवेज भिक्खू अप्पाणं नारीषु नोपगृध्येत्, स्त्रीर्विप्रजह्यादनगर: । धर्मं च पेशलं ज्ञात्वा, तत्रस्थापयेदभिक्षुरात्मानम् Re १ सोनानो सिस्को. २ राजसो समान खोने वि. E ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१॥ Kh ॥ १९॥ एस धम् rears, कविलेणं च विसुद्धपन्नेणं । तरिहिन्ति जे उ काहिन्ति, तेहिं प्राराहिया दुवे लोग ॥२०॥ इत्येषधर्म आख्यातः, कपिलेन च विशुद्धप्रज्ञेन । तरिष्यन्ति ये तु करिष्यन्ति, तैराराधितौ द्वौलोकौं ॥२०॥ त्ति बेमि ॥ इति काविलीयं श्रहमं श्रयणं ॥८॥ इति बवीमि - इति कापिलिकमप्टममध्ययनम् ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. ॥ अह णवमं नमिपवज्जा णाममयणं ।। ॥अथ नवमं नमिप्रव्रज्यानामाऽध्ययनम् ।। चइऊण देवलोगांनो, उववन्नो माणुसम्मि लोगम्मि । उवसन्तमोहणिज्जो, सरई पोराणिय जाई ॥१॥ च्युत्वा देवलोकात् , उपपन्नो मानुषे लोके । उपशान्तमोहनीयः, स्मरति पौराणिको जातिम् ॥१॥ जाई सरित्तु भयवं, सयंसंबुद्धो अणुत्तरे धम्मे । पुत्रं ठवेत्तु रज्जे, अभिणिक्खमई नमी राया ॥२॥ जाति स्मृत्वा भगवान् , स्वयं संबुद्धोऽनुत्तरे धर्मे । पुत्रं स्थापयित्वा राज्ये, अभिनिःकामति नमिराजा ||२|| से देवलोगसरिसे, अन्तेउरवरगयो वरे भोए। मुंजित्तु नमी राया, बुद्धो भोगे परिश्चयई ॥३॥ स देवलोकसदृशान् , अंत:पुरवरगतों वरान्मोगान् । भुक्त्वा नमिराजा, बुद्धो भोगान्परित्यजति ॥३॥ मिहिलं सपुरजणवय, वलमोरोहं च परियणं सन्वं । चिच्चा अभिनिक्खन्तो, एगन्तमहिडिश्रो भयवं ॥४॥ मिथिलां सपुरजनपदां, बलमवरोधं च परिजनंसर्वम् । त्यक्त्वाऽभिनिष्क्रान्तः, एकान्तमधिष्ठितोभगवान् कोलाहलगभूयं, प्रासी मिहिलाए पन्वयन्ताम्म । तझ्या रायरिसिम्मि, नमिम्मि अभिणिक्खमन्तम्मि ॥५॥ कोलाहलकभूतम् , आसोन्मिथिलायां प्रव्रजति(सति)। तदाराजर्षी नमो, अभिनिष्क्रामति अभुटियं रायरिसि, पव्वजाठाणमुत्तमं । सको माहणरूपेण, इम वयणमवी Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन है. १५६ अम्युत्थितंराजर्षि, उत्तमं प्रव्रज्याम्यानं (पति)। शक्रो ब्राह्मणरूपेण, इदं वचनमब्रवीत् किण्णु भो अज मिहिलाए, कोलाहलगसंकुला।। सुन्वन्ति दारुणा सद्दा, पासाएसु गिहेसु य llull किन्नु भो आर्य ! मिथिलायां, कोलाहलकसंकुलाः । श्रूयन्तेदारुणा शब्दाः, प्रासादेषु गृहेषु च ॥७॥ पयमई निसामित्ता, हेऊकारणचोइयो । तो नी रायरिसी, देविन्दं इणमब्ववी एतमर्थं निशम्य, हेतुकारणनोदितः । ततो नमीराजर्षिः, देवेन्द्रमिदमत्रवीत् ॥॥ मिहिलाए चेइए वच्छे, सीबच्चाए मणोरमे । पत्तपुष्फफलोए, वहूर्ण बहुगुणे सया मिथिलायांचैत्यवृते, शीतच्छायेमनोरमे। पत्रपुष्पफलोपेते, बहूनां बहुगुणे सदा ॥९॥ वारण हीरमाणम्मि, चेझ्याम्म मणोरमे । दुहिया असरणा अत्ता, एए कन्दन्ति भो खगा वातेन द्वियमाणे, चेत्ये मनोरमे | दुःखिता अशरणा आर्ताः, एते क्रन्दन्ति भो ! ग्वगाः ॥१०॥ एयमई निसामित्ता, हेऊकारणचाइयो। तो नमि रायरिसिं, देविन्दा इणमववी एतमर्थ निशभ्य, हेतुकारणनोदितः । ततोनमिराजर्षि (प्रति), देवेन्द्र इदमब्रवीत् एस अग्गी य वाऊ य, एवं 'उज्झइ मन्दिरं । भय अमेउरं तेणं, कीन गं नावपेमवह MER Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैन सिद्धांत पाठमाळा. ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१४॥ एषोऽग्निश्चवायुश्च, एतदू दह्यते मन्दिरम् । भगवन् अंतःपुरं तेन, कस्मानावप्रेक्षसे एयमढ़ निसामित्ता, हेऊकारणचोइयो। तंश्रो नसि रायरिसी, देविन्दं इणमन्ववी एतमर्थनिशम्य, हेतुकारणनोदितः । ततोनमीराजर्षिः, देवेन्द्रमिदमब्रवीत् सुहं वसामो जीवामो, जेसि मो नत्थि किंवणं । मिहिलाए डज्ममाणीए, न मे डज्मइ किंचणं सुखं वसामो जीवामः, येषां नो नास्ति किचन । मिथिलायां दद्यामानायां, न मे दह्यते किचन चत्तपुत्तकलत्तस्स, निब्वाधारस्स भिक्खुणो । पियं न विज किचि, अप्पियं पि न विजई त्यक्तपुत्रकलत्रस्य, निर्व्यापारस्य भिक्षाः। प्रिय न विद्यते किचित् , अप्रियमपिनविद्यते बहुं खु मुणिणो भई, अणगारस्स भिक्खुणो । सव्वश्रो विप्पमुक्कस्स, एगन्तमणुपस्सो बहु खलु मुनेर्भद्र, अनगारस्य भिक्षोः । सर्वतो विप्रमुक्तस्य, एकान्तमनुपश्यतः पयमई निसामित्ता, हेजकारणचोइयो। तमो नमि रायरिसिं, देविन्दो इणमब्बवी एतमर्थ निशम्य, हेतुकारणनोदितः । ततो नमिराजर्षि, देवेन्द्र इदमब्रवीत् पागारं कारपत्ताणं, गोपुरट्टालगाणि च । उस्सूलगसयग्धीप्रो, तो गच्छसि खत्तिया ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं प्रत्ययनं ६. } प्राकारं कारयित्वा 'गोपुरा 'ट्टालकानि च । उत्सूलकाः शतनीः, ततों गच्छ क्षत्रिय ! एयमहं निसामित्ता, हेऊकारणचोओ। तो नमी रायरसी, देविन्दं इणमब्ववी एतमर्थं निशम्य हेतुकारणनोदितः । ततो नमीराजर्षि, देवेन्द्रमिदमब्रवीत् सद्धं नगरं किया, तवसंवरमन्गलं । खन्ति निउणपागारं तिगुत्तं दुप्पभ्रंसयं श्रद्धां नगरं कृत्वा, तपः संवरमर्गलाम् । क्षान्ति निपुणप्राकारं, त्रिगुप्तं दुःप्रधर्षिकम् धणुं परकर्म किया, जीवं च इरियं सया । धि च केवणं किचाण, सचेण पलिमन्थप धनुः पराक्रमं कृत्वा, जीवांचेर्या सदा धृति च केतनं कृत्वा, सत्येन परिमनीयात् तवनारायजुत्तेण, भित्तूण कम्मर्कचुयं । सुणी विगयसंगामो भवाओं परिमुच्चर तपोनाराचयुक्तेन, भित्वा कर्मकंचुकम् । मुनिर्विगत संग्रामः, भवात्परिमुच्यते एयम निसामित्ता, हेउकारणवोइयो । तो नमि रायरिसिं, देविन्द्रो इणमवी एतमर्थ निशम्य हेतुकारणनोदितः । ततो नर्मिराजर्षि, देवेन्द्र इदमत्रवीत् पासाए कारत्ताणं, बद्धमाणगिहाणि य । वालमापोइयाश्री य, तो गच्छसि खतिया १५३ ॥१८॥ Re ॥१९॥ ॥२०॥ ||२०|| ॥२॥ ॥२१॥ રો ॥२२॥ રફી ॥२३॥ રા १ गडनो दरवाजो. २ कोलानो कोठो ३ खाईयो, ४ सेंकडोने यो नाना यांत्रिक - हथियार विशेष Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. ॥२५॥ प्रासादान्कारयित्वा, वर्धमान गृहाणि च । बालाप्रपोतिकाच, ततोगच्छ क्षत्रिय ॥२४॥ एयमई निसामित्ता, हेऊकारणचोइयो। तश्री नमी रायरिसी, देविन्दं इणमम्बवी एतमर्थ निशम्य, हेतुकारणोदितः। ततो नमीराजर्षिः, देवेन्द्रमिदमब्रवीत् । ॥२५॥ संसय खल्लु सो कुणई, जो मग्गे कुणई घरी जत्थेव गन्तुमिच्छेजा, तत्थ कुन्जेज सासयं Ran संशयं खलु स कुरुते, यो मार्गे कुरुते गृहम् । यत्रैवगन्तु मिच्छेत् , तत्रैव कुर्वीत शाश्वतम् एयमटुं निसामित्ता, हेऊकारणचोइयो। तयो नमि रायरिसिं, देविन्दो इणमब्बी ॥२७॥ एतमर्थ निशम्य, हेतुकारणनोदितः। ततो नमिराजर्षि, देवन्द्र इदमब्रवीत् ॥२७॥ आमोसे लोमहारे य, गठिभेए य तकरे । नगरस्स खेम काऊणं, तो गच्छसि खत्तिया ॥२८॥ आर्मोषान्लोमहरान् , ग्रंथिभेदाश्चतस्करान् (निवार्य)। नगरस्य क्षेमं कृत्वा, ततो गच्छ क्षत्रिय ॥२८॥ एयम निसामित्ता, हेऊकारणयोइयो। तो नमी रायरिसिं, देविन्द इणमब्ववी Rel एतमर्थं निशम्य, हेतुकारणनोदितः। ' ततोनमीराजर्षिः, देवेन्द्रमिदमब्रवीत् ॥२९॥ असई तु मणुस्सेहि, मिच्छा दंडो पजुई। अकारिणोऽत्य बज्मन्ति, मुई कारो जणों - ॥३०॥ - Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययनं । ॥३०॥ ॥३२॥ ॥३१॥ ॥३॥ असछत्तुमनुष्यैः, मिथ्यादण्डःप्रयुज्यते । अकारिणोऽत्रवध्यन्ते, मुच्यते कारको जनः एयम निसामित्ता, हेऊकारणचोइयो। तो नमिरारसिं, देविन्दो इणमध्ववी एतमर्थ निशम्य, हेतुकारणनोदितः । ततोनमिराजर्षि, देवेन्द्रइदमब्रवीत् जे के पत्थिवा तुझ, नानमन्ति नराहिवा । वसे ते ठावइत्ताण, तमो गच्छसि खत्तिया ये केचन पार्थिवास्तुभ्यं, न नमन्ति नराधिप । वशे तान्स्थापयित्वा, ततो गच्छ क्षत्रिय एयम निसामित्ता, हेऊकारणचोइयो। तमो नमी रायरिसि, देविदं इणमध्यवी एतमर्थं निशम्य, हेतुकारणनोदितः । ततोनमोराजर्षिः, देवेन्द्रमिदमब्रवीत् जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुजए जिए । एग जिणेज अप्पागं, एस से परमो जो यःसहसंसहस्राणां, 'संग्रामे दुर्जये जयेत् । एकंजयेदात्मानं, एष तस्य परमों जयः अप्पणामेव जुज्झाहि, कि ते जुल्मेण बज्मंयो। अप्पणामेवमप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए आत्मनैव सह युध्यख, किं ते युद्धेन बाह्यतः । । आत्मनैवात्मानं, जित्वासुखमेधते पंचिन्दियाणि कोह, माण,मायं तहेव लोहं च दुखायं चेव अप्पाणं, सव्वं अप्पे जिए जियं ॥३३॥ ॥३३॥ ॥३४॥ ॥३४॥ ॥३५॥ ॥३५॥ ॥३६॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययनं ६. ॥४२॥ घोराश्रमंत्यक्त्वा, अन्यं प्रार्थयसे आश्रम ! इहैव पौषधरतः, भव मनुनाधिप एयमट्ट निसामित्ता, हेऊकारणचोइयो । तमो नमी रायरिसी, देविन्द इणमन्वबी ne एतमर्थं निशम्य, हेतुकारणनोदितः। ततो नमीराजर्षिः, देवेन्द्रमिदमब्रवीत् ॥४॥ मासे मासे तु जो बालो, कुसग्गेण तु मुंजए । न सो सुयक्खायधम्मस्स, कल अग्धइ सोलसिं ॥४॥ मासे मासे तु यो वालः, कुशाग्रेण तु मुक्के । न सः स्वाख्यातधर्मस्य, कलामर्षति षोडशीम् ॥४॥ एयमढ़ निसामित्ता, हेऊकारणचोइयो। तन्नो नमि रायरिसि, देविन्दो इणमञ्चवी पतमधे निगम्य, हेतुकारणनोदितः । ततो नमिराजर्षि, देवेन्द्र इदमब्रवीत् ॥४॥ हिरण मुवण मणिमुत्तं, कसं दूस च वाहणं । कोसं वहावइत्ताण, ती गच्छसि खत्तिया हिरण्यं सुवर्ण, मणिमुक्तं कांस्य दप्यं च वाहनम् । कोशं वर्षयित्वा, ततो गच्छ क्षत्रिय एयम निसामित्ता, हेअकारणचोइयो। तमो नमी रायरिसी, दविंदं इणमन्ववी एतमथं निशम्य, हेतुकारणनोदितः । ततो नमी राजर्षिः, देवेन्द्रमिदमब्रवीत् ॥४७॥ सुवष्णहप्पस्स उपन्चया भये, सिया हु केलाससमा असंखया। नरस्सलुद्धस्स न तेहिं किंचि, इच्छा हुागाससमा अन्तिया ॥४५॥ lleen Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैन सिद्धांत पाठमाळा. सुवर्णस्य रुप्यस्य च पर्वता भवेयुः, स्यात्कदाचित्खलु कैलाससमाअसंख्यकाः। नरस्य लुब्ध्वस्य न तैः किचित् , इच्छा हु आकाशसमा अनन्तिकाः ॥४८॥ पुढवी साली जवा चेव, हिरणं पसुभिस्सह । पडिपुण्ण नाल मेगस्स, छ विज्जा तवं चरे ॥४॥ पृथिवी शालिर्यवाश्चैव, हिरण्यं पशुभिः सह । प्रतिपूर्ण नालमेकस्मै, इति विदित्वा तपश्चरेत् ॥४९॥ एयमट्ट निसामित्ता, हेऊकारणचोइयो। तश्रो नमि रायरिसि, देविन्दो इणमव्ववी ॥५०॥ एतमर्थ निशम्य, हेतुकारणनोदितः । ततो नमिराजर्षि, देवेन्द्र इदमब्रवीत् ॥५०॥ अच्छेरगमन्भुदए, भोए चयसि पत्थिवा । असन्ते कामे पत्थेसि, संकप्पेण विहम्मसि आश्चर्यमभूतान् , भोगान्त्यनसिपार्थिव । ' असतःकामान्प्रार्थयसे, संकल्पेन विहन्यसे एयमई निसामित्ता, हेऊकारणचोइयो। तश्रो नमी रायरिसी, देविन्द इणमन्ववीं ॥५२॥ एतमर्थनिशम्य, हेतुकारणनोदितः । ततोनमीराजर्षिः, देवेन्द्रमिदमब्रवीत् ॥५२॥ सल्ल कामा विसं कामा, कामा प्रासीविसोवमा । कामे पत्थेमाणा, अकामा जन्ति दोगई ॥५३॥ शल्यकामा:विषंकामाः, कामाआशीविषोपमाः। कामान्प्रार्थयमाना (अपि,) अकामा यान्ति दुर्गतिम् ॥५३॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययनं ६ अहे वयन्ति कोहेणं, माणेण श्रहमा गई । माया गई पडिग्धाश्रो, लोभाभो दुहश्रो भयं अधोव्रजन्तिक्रोधेन, मानेनाधमागतिः । मायया सुगतिप्रतिघातः, 'लोभादृद्विधाभयम् अवउज्झिऊण माहणरूवं, विउन्विऊण इन्दत्तं । वन्दर प्रभिणन्तो, इमाहि महुराहि वम्मूहि अपो ब्राह्मणरूपं, विकृत्येन्द्रत्वम | वन्दतेऽभिष्टुवन्, आभिर्मधुराभिर्वाग्भिः श्रही ते निजियो कोहो, अहो माणां पराजिओ । अहो निरकिया माया, श्रहो लोभो वसीको महोत्वयानिर्जितः क्रोधः, अहो च मानः पराजितः । अहो माया निराकृता, अहो लोभो वशीकृतः अहो ते जवं साहु, अहो ते साहु मद्दवं । अहो ते उत्तमाखन्ती. श्रहो ते मुत्ति उत्तमा अहो ते आर्जवं साधु, अहो ते साधु मार्दवं । महोतवत्तमाक्षान्तिः, अहों ते मुक्तिरुत्तमा इह सि उत्तमो भन्ते, पच्छा होहिसि उत्तमो । लोगुत्तमुत्तमं ठाणं, सिद्धिं गच्छसि नीर इहा स्युत्तम भगवन् पश्चाद्भविप्यस्युत्तमः । लोकोत्तमोत्तमस्थानं सिद्धिं गच्छसि निरजाः एवं श्रभित्थुणन्तो, रायरिसिं उत्तमाए सद्धाप । पयाहिणं करेन्तो, पुणो पुणो बन्दई सक्को एवमभिष्टुवन्, राजर्षिमुत्तमयाश्रद्धया । प्रदक्षिणांकुर्वन् । पुनः पुनर्वन्दते शक्र. १ मालोक ने परलोक. २ छोडी दइने १५६ ॥५४॥ ॥५४॥ ॥५५॥ 119911 ॥५६॥ ॥५६॥ ॥५७॥ ॥५७॥ ॥५८॥ 119511 likel ॥५९॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. तो वन्दिऊण पाए, चकंकुसलक्खणे मुणिवरस्स । श्रागासेणुप्पइयो, ललियचवलकुंडलतिरीडी ॥६॥ ततोवन्दित्वा पादौ, चक्रांकुशलक्षणौ मुनिवरस्य । आकाशेनोत्पतितः, ललितचपलकुण्डलकिरीटी ॥६॥ नमी नमेइ अप्पाणं, सक्खं सक्केण चोइनो । चइऊण गेहं च वेदेही, सासण्णे पज्जुवडिओ पाई नमिर्नमयत्यात्मानं, साक्षाच्छक्रेण नोदितः । त्यक्वागृहं च वैदेही, श्रामण्ये पर्युपस्थितः एवं करेन्ति संवुद्धा, पाडया पवियफ्षणा । विणियन्ति भोगेसु, जहा से नमी रारिसि ॥२॥ एवंकुर्वन्तिसंबुद्धाः, पण्डिता प्रविचक्षणाः । विनिवर्तन्तेभोगेभ्यः, यथा स नमीराजर्षिः ॥६॥ ।। त्ति बेमि ॥ इति नमिपञ्चजा नाम नवम अज्मायणं समत्तं ॥६॥ इतिब्रवीमि--इतिनमिप्रव्रज्यानामनवममध्ययनम् समाप्तं ॥अह दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं । . ॥ अथ द्रुमपत्रकंदशममध्ययनं ॥ दुमपत्तए पंड्डयए जहा, निवडइ राइगणाण प्रधए । एवं मणुयाण जीविय, समयं गोयम मा पमायए ॥१॥ द्रुमपत्रकंपाण्डुरकं यथा, निपततिरात्रिगणानामत्यये । एवंमनुजानांजीवितं, समयंगौतम मा प्रमादी: कुसग्गे जह श्रोसविन्दुए, थोवं चिइ लम्बमाणए । एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम मा पमायए कुशाग्रे यथाऽवश्यायबिन्दुः, स्तोकंतिष्ठतिलम्बमानका! एवंमनुजानां जीवितं, समयगौतम मा प्रमादी: ॥२॥ २|| Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययनं १०. १६१ इ इत्तरियम्मि पाउए, जीवियए बहुपञ्चवायए । बेहुणाहि रयं पुरे कडं, समय गोयम मा पमायए इतीत्वर आयुषि, जीवितके वहुप्रत्युपायके । विधुनीहि रज:(कर्म)पुरासतं, समय गौतम मा प्रमादीः ॥३॥ अल्लहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सयपाणिणं । गाढा य विवाग कम्मुणो, समयं गोयस मा पमायए | दुर्लभः खलु मानुष्यो भवः, चिरकालेनापि सर्वप्राणिनाम् ।। गाढाश्चविपाका कर्मणां, समयं गौतम मा प्रमाढी: ॥४॥ गुढविकायमइगयो, उक्कोसं जीवो उ संबसे । कालं संखाईय, सगयं गोयम मा पमायए पृथिवीकायमतिगतः, उत्कर्षतोजीवस्तुसंवसेत् । कालं सख्यातीतं, समय गौतम मा प्रमादी: ॥९॥ प्राउकायमगो , उकोसं जीवो उ संवसे । काल संखाईयं, समयं गायम मा पमायए ॥६॥ अपकायमतिगत: उत्कर्षतोजीवन्तुसंवसेत् । काल संख्यातीतं, समयं गौतम मा प्रमादी: तेउकायमइगयो, उक्कोसं जीवो उ संरले । कालं संखाध्य, समयं गोयम मा पमामए ॥७॥ तेजःकायमतिगतः, उत्कर्पतोजीवस्तुसवसेत् । काल संख्यातीतं, समय गौतममा प्रमाठी: ॥७॥ भाउकायमगो, उक्कोसं जीवो उ संबसे । कालं संखाईयं, समय गोयम मा पमायण वायुकायमतिगतः, उत्करतोजीवस्तुसवसेत् । कानं संग्यातीतं, समयं गौतम मा प्रमादी: ॥८॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥॥ ॥१०॥ ॥१०॥ शा जैन सिद्धांत पाठमाळा. वणस्सइकायमइगो, उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालमणन्तदुरन्तयं, समय गोयम मा पमायए वनस्पतिकायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तुसंवसेत् । कालमनन्तं दुरन्तं, समयं गौतम मा प्रमादी: बेइन्दियकायमइगो, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालं संखिवसनियं, समयं गोयम मा पमायए द्वीन्द्रियकायमतिगतः, उत्कर्षतोजीवस्तुसंवसेत् । कालं संख्येयसंज्ञितं, समयं गौतम मा प्रमादी: तेइन्दिकायमइगयो, उक्कोस जीवो उ संवसे । काल संखिजसन्नियं, समय गोयम मा पमायए त्रीन्द्रियकायमतिगतः, उत्कर्षतोजीवस्तुसंवसेत् । कालं संख्येयसंज्ञितं, समयं गौतम मा प्रमादीः चरिन्दियकायमइगयो, उक्कोसं जीवो उ संबसे । कालं संखिजसन्नियं, समयं गोयम मा पमायए । चतुरिन्द्रियकायमतिगतः, उत्कर्षतोनीवस्तुसंवसेत् । काल संख्येयसंज्ञितं, समयं गौतम मा प्रमादी: पंचिन्दियकायमइगो, उक्कोसं जीवो उ संवसे । सत्तभवगहणे, समय गोयम मा पमायए पंचेन्द्रियकायमतिगतः, उत्कर्षतोजीवस्तुसंवसेत् । सप्ताष्टमवग्रहणानि, समयं गौतम मा प्रमादी: देवे नेरइए अइगयो, उक्कोसं जीवो उ संवसे । इकभवगहणे, समयं गोयम मा पमायए देवान्नैरयिकाश्चातिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् । एकैकमवग्रहणं, समयं गौतम मा प्रमादी: ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१४॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं १०. एवं भवसंसारे, संसरइ सुहासुहेहि कम्महि । जीवो पमायबहुलो, समयं गोयम मा पमायए ॥१५॥ एवं भवसंसारे, संसरति शुभाशुभैः कर्मभिः । जीव: बहुलप्रमादः, समय गौतम मा प्रमादी: ॥१५॥ लण वि माणुसत्तणं, पारिश्रत्तं पुणरवि दुलहं । बहवे दसुया मिलक्खुया, समयं गोयम मा पमायए ॥१६॥ लब्ध्वापि मानुषत्वं, आर्यत्वं पुनरपिदुर्लभम् ।। बहवो दस्यवो म्लेच्छाः , समय गोतम मा प्रमादीः ॥१६॥ लण वि पारियतणं, अहीणपंचेन्दियया हु दुल्लहा । विगलिन्दियया हु दीसई, समयं गोयम मा पमायए ॥१७॥ लब्ध्वाप्यायत्वं, अहीनपंचेन्द्रियता खलु दुर्लभा । विकलेन्द्रियता खलु दृश्यते, समयं गौतम मा प्रमादीः ॥१७॥ अहीणपंचेन्दियत्तं पि से लहे, उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा । कुतिथिनिसेवए जणे, समयं गोयम मा पमायए ॥१८॥ अहीनपंचेन्द्रियत्वमपि स लभते, उत्तमधर्मश्रुति:खलुदुर्लभा । कुतीर्थिनिषेवको जनो (दृश्यते), समयं गौतम मा प्रमादी:॥१८॥ लभ्रूण वि उत्तम सुई, सदहणा पुणरवि दुल्लहा । मिच्छत्तनिसेवए जणे, समय गोयम मा पमायए लब्ध्वाप्युत्तमां श्रुति, श्रद्धानं पुनरपि दुर्लभम् । मिथ्यात्वनिषेवको जनो(दृश्यते), समयं गौतम मा प्रमादीः॥१९॥ धम्म पि हु सद्दहन्तया, दुल्लहया कारण फासया । इह कामगुणेहि मुच्छिया, समयं गोयम मा पमायए ॥२०॥ धर्ममपि खलु श्रद्दधतः, दुर्लभकाः कायेन स्पर्शकाः । इह कामगुणैछिता (दृश्यन्ते), समयं गौतम मा प्रमादी:॥२०॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैन सिद्धांत पाठमाळा. परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पण्डुरया हवन्ति ते । से सोयवले य हायई, समय गोयम मा पमायए ॥२१॥ परिजीर्यति तव शरीरकं, केशाः पाण्डुरका भवन्ति ते ।। · तत्कोत्रवलंचहीयते, समयं गौतम मा प्रमादी: परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पण्डुरया हवन्ति ते । से चालवले य हायई, समयं गोयम मा पमायए ॥२२॥ परिजीयति तव शरीरकं, केशा पाण्डुरका भवन्ति ते । तच्चक्षुर्वलंचहीयते, समय गौतम मा प्रमादी: ॥२२॥ परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पण्डुरया हबन्ति ते । से घाणवले य हायई, समय गोयम मा पमायए ॥२३॥ परिजीर्यति तवशरीरकं, केशा:पाण्डुरकाभवन्तिते । तयाणवलं च हीयते, समयं गौतम मा प्रमादीः ॥२३॥ परिजूरह ते सरीरयं, केसा पण्डरया हवन्ति ते । से जिब्भवले य हायई, समयं गोयम मा पमायए ॥२४॥ परिजीयति ते शरीरकं, केशाःपाण्डुरका भवन्ति ते। तजिहवावलं च हीयते, समयं गौतम मा प्रमादीः ॥२४॥ परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पण्डुरया हन्ति ते । से फासवले य हायई, समयं गोयम मा पमायए परिजीर्यति ते शरीरकं, केशा पाण्डुरका भवन्ति ते । तत्स्पर्शवलं च हीयते, समयं गौतम मा प्रमादीः ॥२९॥ परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पण्डुरया हवन्ति ते । से सव्ववले य हाई, समयं गोयम मा पमायए ॥॥ परिजीर्यति ते शरीरकं, केशा पाण्डुरका भवन्ति ते ।। तत्सर्वबलं च हीयते, समयं गौतम मा प्रमादीः ॥२६॥ ॥२५॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं प्रध्ययनं १० ॥२८॥ ॥२८॥ ॥ २३ ॥ अर गण्डं विसुइया, थायंका विविहा फुसन्ति ते । fless विद्वंस ते सरीरयं समयं गोयम मा पमायए ॥ २७॥ अरतिर्गण्डं विसूचिका, आतंका विविधाः स्पृशन्ति ते । विहियतेविब्वम्यति ते शरीरकं, समय गौतम मा प्रमादीः ॥२७॥ वोच्छिन्द सिणेहमणो, कुमुयं सारइयं व पाणियं । से सन्वसिणेहर्वाज, समयं गोयम सा पमायए व्युच्छिन्दि स्नेहमात्मनः, कुमुदं शारदमिव पानीयम् । तत्सर्व स्नेहवर्जितः समयं गौतम मा प्रमादी: विचाण धणं च भारियं, पव्वइयो हि सि अणगारियं । मा वन्तं पुणो विविए, समयं गोयम मा पमायए त्यक्त्वा धनं च भार्या, प्रब्रजितों ऽस्यनगारिताम् । मा वान्तंपुनरप्यापिबेः समयं गौतम मा प्रमादी: वय मित्तवन्धवं, विउलं चैव धणोहसंचयं । मातं विइयं गए, समयं गोयम मा पमायए अपो मित्रवान्धवं विपुलं चैव धनौघसंचयम् । मा त्वं द्वितीयवारं गवेषय, समयं गौतम मा प्रमादीः ॥३०॥ न हु जिणे अज दिस्सई, बहुमए दिस्सर मग्गदेसिए । संपइ नेयाउए पहे, समयं गोयम मा पमायण, ॥३१॥ * न खलुजिनोऽद्यदृश्यते, (तथापि ) 'बहुमतः खलुदृश्यते ' मार्गदेशकः सम्प्रति नैयायिके पथि, समयंगौतम मा प्रमादी: ॥३१॥ सोहि कष्टगापहं मोहण्णोसि पहं महालयं । मच्छसि मगं बिसोहिया, समयं गोयम मा पमायए ||२९|| 113011 ॥३२॥ * आ वेड पादोंमा प्रभु गौतमने स्थिर करव। भविष्यमा पण भव्य पुरुषो शुं मानीने स्थिर थशे ? ते बताव्यु छे १ घण्णा पुरुषोए आचरेलो. २ मोक्ष बतावनार (मार्ग) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. अवशोध्य कंटकपथं, अवतीर्णोऽसि पन्थानं महालयं । गच्छसि मार्गविशोध्य, समयं गौतम मा प्रमादीः ॥३२॥ अवले जह भारवाहए, मा मग्गे विसमे वगाहिया । पच्छा पच्छाणुतावए, समयं गोयम मा पमायए ॥३३॥ अबलो यथा भारवाहकः, मा (त्वंभूः) मार्ग विषमवगाह्य । पश्चात्पश्चादनुतप्यते, समयं गौतम मा प्रमादीः ॥३३॥ तिण्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिसि तीरमागो । अभितुर पारं गमित्तए, समय गोयम मा पमायए ॥३॥ तीर्ण:खल्व स्वर्णव महान्तं, किं पुनस्तिष्ठसि तीरमागतः । अभित्वरस्व पारं गन्तुं, समयं गौतम मा प्रमादीः ॥३४॥ अकलेवरसेणि उस्सिया, सिद्धि गोयम लोयं गच्छसि । खेमं च सिवं अणुत्तरं, समयं गोयम मा पमायए ॥३५॥ अकलेवरश्रेणिमुच्छित्य, सिद्धि गौतम लोकं गच्छसि । क्षेमं च शिवमानुत्तरं, समयं गातम मा प्रमादी: ॥३॥ बुद्धे परिनिम्बुडे चरे, गामगए नगरे व संजए । सन्तीमग्गं च व्हए, समयं गोयम मा पमायए ॥६॥ बुद्धः परिनिवृतश्चर, प्रामगतो नगरे वा संयतः । शान्तिमार्गं च व्हयेः, समयंगौतम मा प्रमादी: ॥३६॥ बुद्धस्स निसम्म भासियं, सुकहियमपभोवसोहियं । राग दोसं च विन्दिया, सिद्धिगई गए गोयमे ॥३७॥ बुद्धस्य निशम्य भाषितं, सुकथितमर्थपदोपशोभितम् । राग द्वेषं च छित्त्वा, सिद्धिगतिं गतो गौतमः ॥३७॥ ॥त्ति बेमि ॥ इति दुमपत्तयं समत्तं ॥१०॥ इति ब्रवीमि-इतिद्रुमपत्रकं समाप्तम् ॥ - Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२॥ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययनं ११. १६७ ॥ अह बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झयणं ॥ ॥ अथ बहुश्रुतपूजमेकादशमध्ययनम् ॥ संजोगा विप्पमुक्कस्स, अणगारस्स भिक्षुणी । आयारं पाउकरिस्सामि, प्राणुपुन्विं सुणेह मे संयोगाद्विप्रमुक्तस्य, अनगारस्य भिक्षोः । आचारं प्रादुःकरिष्यामि, आनुपुर्व्या शणुत मे ॥१॥ जे यावि होइ निन्विज्जे, थद्धे लुद्धे अणिग्गहे । अभिक्खणं उल्लवई, अविणीए अवहुस्सुए ॥२॥ यश्चापि भवति निर्विद्यः, स्तब्धोलुब्धोंऽनिग्रहः । अभीदणमुल्लपति, अविनीतोऽबहुश्रुतः अह पंचहि ठाणेहि, जहिं सिक्खा न लन्भई । थम्भा कोहा पमाएणं, रोगेणालस्सएण य ॥३॥ अथ पंचभिःस्थानः, यै:शिक्षा न लभ्यते । स्तंभात्कोधात्प्रमादेन, रागेणालस्येन च अह अहहिं ठाणेहि, सिक्खासीलि त्ति बुचई । अहस्सिरे सया दन्ते, न य मम्ममुदाहरे ॥शा अथाष्टभिःस्थानैः, शिक्षाशील इत्युच्यते । अहसनशील:सदा दान्तः, न च मर्मोदाहरः man नासीले न विसीले, न सिया अइलोलुए। अकोहणे सञ्चरए, सिक्खासीलि त्ति वुच्चई नाऽशीलो न विशीलः, न स्यादतिलोलुपः। अक्रोधनःसत्यरतः, शिक्षागील इत्युच्यते अह चोइसहि ठाणेहिं, वट्टमाणे उ संजए । अविणीए-बुच्चई सो उ, निवाणं च न गच्छह ॥५॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२०॥ जैन सिद्धांत पाठंमाळा. यथारेणुपरिकीर्णः, कुञ्जरःषष्टिहायनः । बलवानप्रतिहतः, एवं भवति बहुश्रुतः जहा से तिक्खसिंगे, जायखन्धे विरायई । वसहे जहाहिबई, एवं हवइ बहुस्सुए यथा स तीक्ष्णशंगः, जातस्कन्धो विराजते । वृषभो यूथाधिपतिः, एवं भवति बहुश्रुतः जहा से तिक्खदाढे, उदग्गे दुप्पहंसए। सीहे मियाण पवरे, एवं हवइ बहुस्सुए यथा स तीदणदंष्ट्रः, उदग्रो दुष्प्रधर्षः । सिहो मृगाणां प्रवरः, एवं भवति बहुश्रुतः जहा से वासुदेवे, संखचक्कगयाघरे । अप्पडिहयवले जोहे, एवं हवइ बहुस्तुए यथा स वासुदेवः, शंखचक्रगदाधरः । अप्रतिहतवलो योधः, एवं भवति बहुश्रुतः जहा से चाउरन्ते, चक्कवट्टी महिदिए । चोद्दसरयणाहिवई, एवं हवइ बहुस्सुए यथा स चतुरन्तः, चक्रवर्ती महर्द्धिकः । चतुर्दशरत्नाधिपतिः, एवं भवति बहुश्रुतः जहा से सहस्सक्खे, वनपाणी पुरन्दरे । सके देवाहिवई, एवं हवइ बहुस्सुए यथा सहस्राक्षः, वज्रपाणिःपुरंदरः । शक्रों देवाधिपतिः, एवं भवति बहुश्रुतः जहा से तिमिरविद्धसे, उचिढन्ते दिवायरे । जलन्ते इव तेएण, एवं हवड बहुस्तुए ॥२॥ રરા ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२३॥ - ॥२४॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययनं ११ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ ॥२६॥ ॥२६॥ ॥२७॥ यथा स तिमिरध्वंसकः, उत्तिष्ठन् दिवाकरः । ज्वलन्निव तेजसा, एवं भवति बहुश्रुतः जहा से उडुबई चन्दे, नक्खत्तपरिवारिए । पडिपुण्णे पुण्णमासीए, एवं हवइ बहुस्सुए यथा स उडुपतिश्चन्द्रः, नक्षत्रपरिवारितः । प्रतिपूर्णः पौर्णमास्यां, एवं भवति बहुश्रुतः जहा से समाइयाणं, कोठागारे सुरक्खिए । नाणाधनपडिपुण्णे, एवं हवइ बहुस्सुए यथा स सामाजिकानां, कोप्ठागारःसुरक्षितः । नानाधान्यप्रतिपूर्णः, एवं भवति बहुश्रुतः जहा सा दुमाण पदरा, जम्बू नाम सुदंसणा । प्रणाढियस्स देवस्स, एवं हवइ बहुस्सुए यथा सा द्रुमाणां प्रवरा, जम्बूर्नाम सुदर्शना । अनादृतस्य देवस्य, एवं भवति बहुश्रुतः जहा सा नईण पचरा, सलिला सागरंगमा । सीया नीलवन्तपवहा, एवं हवा वहुस्सुए यथा सा नदीनां प्रवरा, सलिला सागरंगमा । शीता नीलवत्प्रवहा, एवं भवति बहुश्रुतः जहा से नगाण पपरे, सुमहं मन्दरे गिरी । नाणोसहिपजलिए, एवं हवइ बहुस्सुए यथा स नगानां प्रवरः, सुमहान्मन्दरो गिरिः। नानौषधिप्रज्वलितः, एवं भवति बहुश्रुतः जहा से सयंभुरमणे, उदही अक्खनोदए । नाणारयणपडिपुण्णे, एवं हवा वहुस्सुए ॥२७॥ ॥२८॥ ॥२८॥ R1 ॥२९॥ ॥३०॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैन सिद्धांत पाठमाळा. यथा स स्वयंभूरमणः, उदधिरक्षयोंदकः। । नानारत्नप्रतिपूर्णः, एवं भवति बहुश्रुतः ॥३०॥ समुद्दगम्भीरसमा दुरासया, अचलिया केणइ दुप्पहंसया। सुयस्स पुण्णा विउलस्स ताइणो, खवित्तु कम्मं गइमुत्तमं गया।३१ समुद्रगंभीरसमा दुरासदाः, अचकिताः केनापि दुःप्रवर्षाः । श्रतेनपूर्णाः विपुलेनत्राषिणः, क्षपयित्वा कर्मगतिमुत्तमां गताः॥३१॥ तम्हा सुयमहिडिजा, उत्तमढगवेसए । जेणप्पाणं परं चेव, सिद्धि संपाउणेजासि ॥३२॥ तस्माच्छ्तमधितिष्ठेत् , उत्तमार्थगवेषकः । येनात्मानंपरं चैव, सिद्धि संप्रापयेत् ॥३२॥ ॥त्ति बेमि ॥ इति बहुस्सुयपुजं एगारसं अज्झयणं समत्तं ॥१२॥ ॥ इति ब्रवीमि-इति बहुश्रुतपूजमेकादशमध्ययनं समाप्तं ॥ ॥ अह हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं ॥ ॥ अथ हरिकेशीयं द्वादशमध्ययनं ॥ सोवागकुलसंभूयो, गुणुत्तरधरो मुणी । हरिएसवलो नाम, पासि भिक्खू जिइन्दिो श्वपाककुल संभूतः, उत्तरगुणधरों मुनिः । हरिकेशबलोनाम, आसीदभिक्षुर्जितेन्द्रियः इरिएसणभासाए, उचारसमिईसु य । जो प्रायाणनिक्खेवे, संजो सुसमाहियो ई बैंषणाभाषोच्चार समितिषु च । यत आदाननिक्षेपे, संयतः सुसमाहितः ॥२॥ मणगुत्तो वयगुत्तो, कायगुत्तो जिइन्दियो । भिक्खहा वम्भइन्जम्मि, जन्नवाडे उवहिनो ॥१॥ ॥२॥ ||३|| Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययनं १२ १७३ ॥४॥ मनोगुप्तो वचोगुप्तः, कायगुप्तोजितेन्द्रियः । मिक्षार्थं ब्रह्मज्ये, यज्ञपाट उपस्थितः तं पासिऊण एजन्त, तवेण परिसोसियं । पन्तोवहिउवगरणं, उवहसन्ति अणारिया तं दृष्टवाऽऽयान्तं, तपसा परिशोषितम् । प्रांतोपध्युपकरणं, उपहसन्त्यनाः जाईमयपडियद्धा, हिंसगा अजिहन्दिया । अवम्सचारिणो बाला, इमं वयणमब्दवी जातिमदप्रतिस्तव्याः, हिसका अजितेन्द्रियाः । अब्रह्मचारिणोवाला:, इदं वचनमब्रुवन् ॥५॥ कयरे आगच्छह दित्तरूवे, काले विकराले फोकनासे । प्रोमचेलए पंसुपिसायभूए, संकरदूसं परिहरिय कण्ठे ॥६॥ कतर आगच्छति दीप्तरूपः, कालोविकराल: फोक्कनासः । अवमचेलक:पांशुपिशाचभूतः, संकरदृष्यपरिधृत्यकठे ॥६॥ कयरे तुम इय अदसणिज्जे, काए व प्रासाइहमागयो सि । श्रोमचेलया पंपिसायभूया, गच्छक्खलाहि किमिहं डिनो सि ।। कतरस्त्वमित्यदर्शनीयः, कया वाऽऽशयेहागतोऽसि । अवमचेलकपांशुपिशाचभूतः, गच्छाऽपसरकिमिहस्थितोऽसि॥७॥ अक्खे तहिं तिन्दुयरुक्खवासी, अणुकम्पो तस्स महामुणिरस । पच्छायश्ता नियंग सरीरं, इमाई वरणाइमुदाहरिथा ॥८॥ यक्षस्तम्मिन (काले) तिन्दुकवृक्षवासी,अनुकम्पकस्तस्य महामुनेः। 'प्रच्छाद्य निजकं शरीरं, इमानि वचनान्युदाहृतवान् ॥८॥ समणो अहं संजश्रो वम्भयारी, विरोधणण्यणपरिगहायो। परप्पवितस्स उ भिक्खनाल, अन्नस्स अट्ठा इहमागयो मि ॥ll १ नुनिना शरीरमा प्रवेश करीने. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जैन सिद्धांत पाठमाळा. श्रमणोऽहं संयतो ब्रह्मचारी, विरतों धनपचनपरिग्रहात् । परप्रवृतस्य तु भिक्षाकाले, अन्नार्थमिहाऽऽगतोऽस्मि ॥९॥ वियरिजइ खजइ भुजई अन्न पभूर्य भवयाणमेयं । जाणाहि मे जायणजीविणुत्ति, सेसावसेस लमऊ तवस्सी ॥१०॥ वितीर्यते खाद्यते भुज्यते, चानं प्रभूतं भवतामेतत् । जानीत मां याचनजीविनमिति, शेषावशेषं लभताम् तपस्वी ॥ उवक्खडं भोयण माहणाण, अत्तहियं सिद्धमिहेगपक्वं । नऊ वयं परिसमन्नपाणं, दाहामु तुज्म किमिहं ठिमोसि ॥११॥ उपस्कृतं भोजनं ब्राह्मणानां, आत्मार्थकं सिद्धमिहैकपक्षम् । नतुवयमीदशमन्नपानं, तुभ्यं न दास्यामः किमिहस्थितोऽसि।॥११॥ थलेसु वीयाइ ववन्ति कासगा, तहेव निन्ने सु य आससाए । एयाए सद्धाए दलाह मज्झ, पाराहए पुण्णमिणं खुखितं ॥१२॥ स्थलेषु बीजानि वपन्तिकर्षकाः, तथैवनिम्नेषु चाऽऽशंसया । एतया श्रद्धया दध्वं मह्यं, अाराधयत पुण्यमिदं खलु क्षेत्रम् ॥ खेचाणि अम्हं विइयाणि लोए, जहिं पविण्णा विरुहन्ति पुण्णा । जे माहणा जाइविजोववेया, ताई तु खेत्ताई सुपेसलाई ॥१३॥ क्षेत्राण्यस्माकं विदितानि लोके, येषु प्रकीर्णानि विरोहन्तिपुण्यानि ये ब्राह्मणा जातिविद्योपपेताः, तानि तु क्षेत्राणि सुपेशलानि ।। कोहो य माणो य वहो य जेसिं, मोसं प्रदत्तं च परिग्गहं च। ते माहणा जाइविजाविहूणा, ताई तु खेत्ताइ सुपावयाई ॥१४॥ क्रोधश्च मानश्च वधश्चयेषां, मृषाऽदत्तं च परिग्रहं च । ते ब्राह्मणा जातिविद्याविहीनाः, तानि तु क्षेत्राणि सुपापकानि ॥ तुम्भेत्थ भो भारधरा गिराण, अलुन जाणेह अहिज वेए । उचावयाई सुणिणो चरन्ति, ताई तु खेत्ताइ सुपेसलाई ॥१५॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं श्रध्ययनं १२ १७५ यूयमत्र भो ! भारघरागिरां, अर्थं न जानीथाधीत्य वेदान् । उच्चावचानि चरन्तिमुनयः, तानि तु क्षेत्राणि सुपेरालानि ॥ १५ ॥ अभावयाणं पडिकूलभासी, पभाससे किं तु सगासि श्रहं । एवं विणस्स नपाणं, न य णं दाहामु तुमं नियण्ठा ॥१६॥ अध्यापकानां प्रतिकूलभाषिन्, प्रभाषसे कि तु सकाशेऽस्माकम् । अप्येतद्विनश्यत्वन्नपाणं, न च तदास्यामस्तुभ्यं निर्ग्रन्थ ? ॥१६॥ समिहि मम सुसमाहियस्स, गुत्तीहि गुत्तस्स जिइन्दियस्स । जर मे न दाहित्य प्रसणिज्जं, किमज्ज जन्नाण लहित्य लाहं ॥१७॥ समितिभिर्मह्यं सुसमाहिताय, गुप्तिभिर्गुप्ताय जितेन्द्रियाय । यदि मह्यं न दास्यथाऽथैषणीयं किमद्य यज्ञानां लप्स्यध्वे लाभम् | १७ | के इत्थ खत्ता उवजोइया वा, अज्भावया वा सह खण्डिएहि । खुदण्डेण फलपण हन्ता, कण्ठम्मि घेत्तूण खलेज जो णं ॥ १८ ॥ केऽत्र चत्रा उपज्योतिषा वा अध्यापका वा सह 'खण्डिकैः । एनं तु दण्डेन फलकेन हत्वा कंठं गृहीत्वा निष्कारयेयुः ये॥ १८ ॥ वयाणं वयणं सुणेत्ता, उद्धाइया त्थ बहू कुमारा । दण्डेहिं वित्तहिं कसेहि चेव, समागया तं इसि तालयन्ति ॥१६॥ अध्यापकानां वचनं श्रुत्वा, उधावितास्तत्रबहवः कुमाराः । दण्डैर्वैत्रै:कौश्चैव, समागतास्तमृषि ताडयन्ति " ॥१९॥ रन्नो तहि कोसलियस्स धूया, भद्द त्ति नामेण श्रणिन्दियंगी । तं पासिया संजय हम्माणं, कुद्धे कुमारे परिनिव्ववेइ ॥२०॥ राज्ञस्तत्र कौशलिकस्य दुहिता, भद्रेतिनाम्नाऽनिदितांगी | तं दृष्ट्वा संयतं हन्यमानं, क्रुद्धान्कुमारान्परिनिर्वापयति ॥२०॥ देवाभियोगेण निग्रोइरणं, दिन्नामु रन्ना मणसा न झाया। नरिन्ददेविन्दभिवन्दिएणं, जेणामि वंता इसिणा स एसो ॥२१॥ १ विद्यार्थी सायं. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. देवाभियोगेन नियोजितेन, दत्ताऽस्मि राज्ञा मनसा न व्याता। नरेन्द्रदेवेन्द्राभिवन्दितेन, येनास्मि वान्ता ऋषिणा स एषः॥२१॥ एसो हु सो उम्गतवो महप्पा, जितिन्दिो संजश्रो वम्भयारी। जो मे तया नेच्छा दिजमाणि, पिउणा सयं कोसलिएण रा॥२२॥ एष खलु स उग्रतपा महात्मा, जितेन्द्रियःसंयतो ब्रह्मचारी । यो मां तदा नेच्छति दीयमानां, पित्रास्वयं कौशलिकेन राज्ञा||२२॥ महाजसो एस महाणुभागों, घोरन्वनो घोरपरकमो य । मा एवं होलेह अहीलणिज्जं, मा सच्चे तेएण भे निदहेजा ॥२३॥ महायशा एष महानुभागः, घोरव्रतो घोरपराक्रमश्च । मैनं हीलयताहीलनीय, मा सर्वान्तेजसा भवतो निर्धाक्षीत् २३॥ एयाइं तीसे वयणाई सोचा, पत्तीइ भदाइ सुभासिगई । इसिस्स व्यावडियद्ययाए, जक्खा कुमारे विणिवारयन्ति ॥२४॥ एतानि तस्यावचनानि श्रुत्वा, पल्या भद्राया:सुभाषितानि । ऋवेवैयावृत्यर्थ, यक्षाः कुमारान् विनिवारयन्ति ॥२४॥ ते घोररूवा ठिय अन्तलिक्खेऽसुरा तहि त जण तालयन्ति । ते भिन्नदेहे रहिरं वमन्ते, पासित्तु भद्दा इणमा भुज्जो ॥२५॥ ते घोररूपाः स्थिता अन्तरिक्षे, असुरास्तत्र त जनं ताडयन्ति । तान भिन्नदेहान्रुधिरं वमतः, दृष्ट्वा भद्रेदमाह भूयः . ॥२९॥ गिरिं नहेहि खणह, अयं दन्तेहि खायह । जायतेय पाहि हणह, जे भिक्खुं अवमत्रह ॥२६॥ गिरि नखेः खनथ, अयो दंतः खादथ । जाततेजसं पादैर्हथ, ये भिक्षुमवमन्यथ प्रासीविसो उगतको महेसी, धोरम्बयो घोरपरको य । प्रगणिं व पक्वन्द पयंगसेणा, जेभिक्खुयं भत्तकाले वहेह ॥२७॥ ॥२६॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं १२. १७७ आशीविष उग्रतपा महर्षिः, घोरव्रतो घोरपराक्रमश्च । अग्निमिव प्रस्कन्दथ पतंगसेना, ये भिक्षुकं भक्तकाले विध्यथा॥२७॥ सीसेण एवं सरण उवेह, समागया सव्वजणेण तुम्भे । जड इच्छह जीवियं वा धणं या, लोगपि एसो कुविनोडहेजा२८॥ शीर्षण शरणमुपेत, समागताः सर्वजनेन यूयम् ।। यदीच्छथ जीवितं वा धनं वा, लोकमप्येष कुपितो दहेत॥२८॥ अवहेडियपिडिसउत्तमंगे, पसारिया बाहु अकरमचिटे। निन्भेरियच्छे रहिरं वमन्ते, उ मुहे निम्गयजीहनेते ॥२६॥ अवहेठितष्टप्ठसदुत्तमांगान् , प्रसारितवाहूनकर्मचेप्टान् । प्रसारिताक्षान् रुधिरं वमतः, उर्ध्वमुखानिर्गतजिह्वानेत्रान् ॥२९॥ ते पासिया खण्डिय कहभूए, विमणो विसणी अह माहणो सो। इसिं पसाएइ सभारियायो, हीलं च निन्दं च खमाह भन्ते!॥३०॥ तान्दृष्ट्वा खण्डिकान्काष्ठभूतान, विमना विषण्णोऽथ ब्राह्मणः सः। ऋषि प्रसादयति सभार्याकः, हीलां च निन्दां च क्षमध्वं भदन्त! ॥ बालेहि मूढेहि प्रयाणपहि, जं हीलिया तस्स खमाह भन्ते । महप्पसाया इसिणो हवन्ति, न हु मुणी कोवपरा हवन्ति ॥३१॥ वालैमूढेरज्ञैः यद हीलितास्तत्तमध्वम् भदन्त । । महाप्रसादा ऋषयो भवन्ति, न खलु मुनयः कोपपराभवन्ति॥३॥ पुचि च इण्हि च अणागयं च, मणप्पदोसो न मे अस्थि कोइ । जक्खा हु वेयावडियं करेन्ति, तम्हाड एए निहया कुमारा ॥३२॥ पूर्वं चेदानी चानागतं च, मन:प्रवेषो न मेऽस्ति कोऽपि । यक्षाः खलु वैयावृत्त्यं कुर्वन्ति,तस्मात्सल्वेते निहता:कुमाराः॥३२॥ अत्थं च धम्म च वियाणमाणा, तुभ न वि कुप्पह भूइपना । तुभ तु पाए सरण उवमो, समागया सव्वजणेण अम्हे ॥३३॥ । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जैन सिद्धांत पाठमाळा. अर्थं च धर्मं च विजानानाः, ययं नापि कुप्यथ भूतिप्रज्ञाः । युष्माकं तु पादौ शरणमुपेमः, समागताः सर्वजनेन वयम् ॥३३ अश्वेमु ते महाभाग, न ते किंचि न अश्चिमो । भुंजाहि सालिम कूर, नाणावंजणसंजुयं . ॥ ४॥ अर्चयामस्त्वां महाभाग, न तव किचिन्नार्चयामः । भुदव शालिमयं 'कूर, नानाव्यञ्जनसंयुतम् ॥३४॥ इमं च मे अस्थि पभूयमन्न, तं भुजसू अम्ह अणुमाहट्टा । बाढं ति पडिच्छा भत्तपाणं, मासस्स ऊ पारणए महप्पा ॥३५॥ इदं च मेऽस्ति प्रभूतमन्नं, तदू मुंश्वास्माकमनुग्रहार्थम् । बाढमिति प्रतीच्छति भक्तपानं, मासस्य तु पारणके महात्मा॥३५॥ तहियं गन्धोदयपुप्फवासं, दिव्वा तहिं वसुहारा य बुट्टा । पहयायो दुन्दुहीयो सुरेहि, श्रागासे अहो दाणं च धुढे ॥३६॥ तत्र गंधोदकपुष्पवर्ष, दीव्या तत्रवसुधारा च वृण्टा । प्रहता दुन्दुभयः सुरैः, आकाशेऽहों दानं च घुष्टं ॥३६॥ सक्खं खु दीसइ तवोधिसेसो, न दीसई जाइविसेसु कोई । सोवागपुत्तं हरिएससाहुँ, जस्सेरिसा इढि महाणुभागा ॥३७॥ साक्षात्खलु दृश्यते तपोविशेषः, न दृश्यते जातिविशेष:कोऽपि । श्वपाकपुत्रं हरिकेशसाधु, यस्येदशी ऋद्धिर्महानुभागा ॥३७॥ किं माहणा जोईसमारभन्ता, उदएण सोहिं बहिया विमन्गहा । जं मग्गहा बाहिरियं विसोहि, न त सुइठं कुसला वयन्ति ॥३८॥ किंब्राह्मणा ज्योतिःसमारभमाणाः,उदकेन शुद्धि बाह्यां विमागेयथ । या मार्गयथ बाह्यां विशुद्धि, न तत स्विष्टं कुशला वदन्ति३८॥ कुसं च जूवं तणकहमग्गि, सायं च पायं उदगं फुसन्ता । पाणाइ भूयाइ विहेडयन्ता, भुजो वि मन्दा पकरेह पावे ॥३६॥ १ राधेला चोखा. २ राइता वगेरे सहित. ३ योग्य. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं १२ १७६ - कुशं च यूपं तृणकाष्टमग्निं, सायं च प्रातरुदकं स्टशन्तः । प्राणिनों भूतान् 'विहेठमाना: भूयोऽपि मन्दा:प्रकुरुथ पापम३९॥ कह चरे भिक्खु वयं जयामो, पावाइ कम्माइ पुणोल्लयामो । अक्वाहि णे संजय जक्खपूइया, कहं सुइटै कुसला वयन्ति ॥४०॥ कथं चरामो भिक्षो वयं यजामः पापानि कर्माणि पुनः प्रणुदामः । आख्याहि नः संयत! यक्षपूजितकथं स्विष्टं कुशला वदन्ति॥४०॥ छजीवकाए असमारभन्ता, मोसं प्रदत्तं च असेवमाणा। परिग्गहं इस्थिनो माण माय, एयं परिन्नाय चरन्ति दन्ता॥४॥ पङ्जीवकायानसमारभमाणाः, मृषाऽदत्तं चासेवमानाः । परिग्रहं स्त्रियो मानं मायां, एतत्परिज्ञाय चरन्ति दान्ताः||४|| सुसंबुडा पंचहि संवरहिं, इह जीवियं प्रणवकखमाणा । वोसहकाया सुइचत्तदेहा, महाजय जयइ जन्नसिह ४शा सुसंवृताः पंचभिः संवरैः, इह जीवितमनवकांर्ततः । व्युत्सृष्टकायाः शुचित्यक्तदेहाः, महाजयं यजन्ते श्रेष्ठयज्ञ॥४२॥ के ते जोई के व ते जोइठाणे, का ते सुया किं व ते कारिसंग । एहा य ते कयरा सन्ति भिक्खू, कयरेण होमेण हुणासि जोई। किते ज्योतिः कि वा तेज्योतिःस्थान,कास्ते सुचः किते करीषांगम् एघाश्च ते कतराः शान्तिर्मिती, कतरेण होमेन जुहोषि ज्योतिः तवो जोर्ड जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारसंग । कम्मेहा संजमजोगसन्ती, होम हुणामि इसिणं पसत्य या तपो ज्योतिर्जीवो ज्योतिःस्थान, योगाः सुचः गरीरं करीपांगम् । कर्मेधाः संयमयोगा:शान्तिः, होमेन जुहोम्यपीणां प्रशस्तेना४४॥ के ते हरए के य ते सन्तितित्थे, कहि सिणाओ व रयं जहासि । प्राइक्खणे संजय जक्खपूइया, इच्छामो नाउं भवनोसगासा४५|| 1 नाना जीवोने दुख अापता छता. २ कडही. ३ अग्निन प्रदीपन करनार. ४ चारित्रल्प यज्ञवडे. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जैन सिद्धांत पाठमाळा. . . करते हृद:किंचं ते शान्तितीर्थं, कस्मिनै स्नातो वा रजो जहासि। ' अख्याहि न संयत यक्षपूनित! इच्छामो ज्ञातुं भवतः सकाशे ॥ धम्मे हरण दम्भे सन्तितित्थे, अाविले प्रत्तपसन्नलेसे। जहिं सिणाश्रो विमलो विसुद्धो, सुसीइओ पजहामि दोस।४६। धर्मो हूदी ब्रह्म शान्तितीर्थं, अनाविल आत्मप्रसन्नलेश्ये । , यस्मिन् स्नातों विमलो विशुद्धः, सुशीतीभूतः प्रजहामि दोषम्।। एवं सिणाण कुसलेहि दिटुं, महासिणाणं इसिणं पसत्यं । जहि सिणाया विमला विसुद्धा, महारिसी उत्तमं ठाणं पत्ते ॥४७॥ एतत्स्नानं कुशलैदेष्टं, महास्नानमृषीणां प्रशस्तम् । यस्मिन्स्नाता विमला विशुद्धाः, महर्षय उत्तमं स्थानंप्राप्ताः॥४७॥ : ॥ त्ति वेमि ॥ ति हरिएसिजं अज्मयणं समत्तं ॥१२॥ इति ब्रवीमि इति हरिकेशीयमध्ययनं समाप्तं ॥ ':॥ अह चित्तसंम्भूइज्जं तेरहम अज्झयणं ।। ॥ अथ चित्तसंभूतीयं त्रयोदशमध्ययनं ॥ जाईपराजिनो खलु, कासि नियाणं तु हथिणपुरस्मि । चुलणीएं वंम्भदत्तो, उववंचों पंउमगुम्माओ जीर्तिपराजितः खलु, अकार्षीत् निदानं तु हस्तिनापुरे । चुलन्यां ब्रह्मदत्तः, उपपन्नः पद्मगुल्मात् कम्पिल्ले सम्भूश्रो, चित्तो पुण जानों पुरिमतालम्मि । सेडिकुलम्मि विसाले, धम्मं सोऊण पवानो कांपील्ये संमूतः, चित्तः पुनर्मातः पुरिमताले । श्रेष्ठिकुले, चिशाले, धर्मं श्रुत्वा प्रवनितः कम्पिल्लम्मि य नगरे, समागया दो वि चित्तसम्भूया। सुहदुक्खफलविवागं, कहन्ति ते एकमेक्कस्स २R ॥२॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं १३ तं पूर्वस्नेहेन कृतानुरागं, नराधिपं कामगुणेषु गृद्धम् । धर्माश्रितस्तस्य हितानुप्रेक्षी, चित्त इदं वचनमुदाहृतवान् ॥ १५॥ सव्वं विलवियं गीयं, सत्वं न विडम्बियं । ॥१६॥ सन्दे श्राभरणा भारा, सव्वे कामा दुहाबहा • १.८३ ॥१६॥ सर्वं विलपितं गीतं, सर्वं नृत्यं विडम्बितम् | सर्वाण्याभरण्यानि भाराः, सर्वे कामा दुःखावहाः बालाभिरामेसु दुहावसु, न तं सुहं कामगुणेसु रायं । विरत्तकामाण तबोधणाणं, जे भिक्खुणं सीलगुणे रयाणं ||१७|| बालाभिरामेषु दुःखावहेषु, न तत्सुखं कामगुणेषु राजन् । विरक्तकामानां तपोधनानां, यदुभिक्षूणां शीलगुणेषु रतानाम् | १७|| नरिंद जाई श्रहमा नराणं, सोवागजाई दुहयो गयाणं । जहिं वयं सव्वजणस्स वेस्सा, वसी सोवागनिवेसणेसु ॥१८॥ नरेन्द्र जातिरघमा नराणां श्वपाकजातिईयो गतयोः । यस्यामावाम् सर्वजनस्य द्वेप्यो, अवसाव श्वपाकनिवेशनेषु ॥१८॥ तीसे य जाईइ उ पावियाए, इच्छामु सोवागनिवेसणेलु । सव्वस्स लोगस्स दुर्गछणिजा, इहं तु कम्माइ पुरे कडाई ||१६|| तस्यां च जातौ तु पापिकायां, उषितौस्वःश्वपाकनिवेशनेषु । सर्वस्य लोकस्य जुगुप्सनीयौ,'अस्मिंस्तु कर्माणि पुराकृतानि ॥ १९॥ सो दाणिसिं राय महाणुभागो, महिट्टियो पुण्णफलोववेश्रो । चरन्तु भोगाइ प्रसासयाई, प्रादाणहेउ प्रभिणिक्खमाहि ||२०|| स इदानीं राजन् महानुभागः, महष्यिकः पुण्यफलोपेतः । त्यक्त्वा भोगानशाश्वतान्, आदानहेतोरभिनिःक्राम ॥२०॥ इह जीविए राय प्रसासयम्मि, धणियं तु पुष्णाई अकुल्यमाणो । से सोयई मचुमुहोबणीप, धम्मं अकाऊण परंमि लोए ॥२१॥ १ आलोक्मां Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैन सिद्धांत पाठमाळा. इह जीविते राजन्नशाश्वते, 'धनितं तु पुण्यान्यकुर्वाणः । स शोचति मृत्युमुखोपनीतः, धर्ममकत्वा परस्मॅिल्लोके ॥२१॥ जहेह सीहो व मिय गहाय, मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले । न तस्स माया व पिया व भाया, कालम्मि तम्मंसहरा भवन्तिार। यथेह सिहोवा मृगं गृहीत्वा, मृत्युनेर नयति खल्वन्तकाले । न तस्य माता वा पिता च भ्राता, काले तस्यांशधरा भवन्ति॥२२॥ न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइयो, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा। एको सय पचणुहोइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं ॥२३॥ न तस्य दुःखविभजन्ते ज्ञातयः, न मित्रवर्गा न सुता न बान्धवाः। एक: स्वयं प्रत्यनुभवति दुःख, कर्तारमेवानुयाति कर्म ॥२३॥ चिच्चा दुपयं च चउप्पयं च, खेत्तं गिहं धणधनं च सव्वं । सकम्मवीयो अवसो पयाइ, परं भत्रं सुंदर पावगं वा ॥२४॥ त्यक्त्वा द्विपदं च चतुष्पदं च, क्षेत्र गृहं धनं धान्यं च सर्वम् । स्वकर्मद्वितीयोऽवशः प्रयाति, परभवं सुन्दरं पापकं वा ॥२४॥ तं एकगं तुच्छसरीरंग से, चिईगयं दहिय उ पावगेणं । भज्जा य पुत्तोवि य नायत्रो वा, दायारमनं अणुसंकमन्ति॥२५॥ तदेककं तुच्छशरीरकं तस्य, चितिगतं दग्ध्वा तु पावकेन । भायो च पुत्रोऽपि च ज्ञातयो वा, दातारमन्यमनुसंक्रामन्ति॥२॥ उवाणिजई जीवियमप्पमार्य, वणं जरा हरइ नरस्स राय । पंचालराया वयणं सुणाहि, मा कासि कम्माइ महालयाई ॥२६॥ उपनीयते जीवितमप्रमाद, वर्णं जरा हरति नरस्य राजन् । पंचालराज ! वचनं शणु, मा कार्षीः कर्माणि महालयानि॥२६॥ अहं पि जाणामि जहेह साहू, ज मे तुम साहसि वक्कमेयं । भोगा इमे संगकरा हवंति, जे दुजया प्रजो अम्हारिसेहि ॥२७॥ १ अत्यत. २ पवेन्द्रिय क्ध जेवा. - Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन १३ १८५ अहमपि जानामि यथेह साधो, यन्मम त्वं साधयसि वाक्यमेतत् । भोंगा इमे संगकरा भवन्ति, ये दुर्जया आर्य! अस्मादृशैः॥२७॥ हत्थिणपुरम्मि चित्ता, दट्टणं नरवई महिडीयं । कामभोगेसु गिद्धेणं, नियाणमसुहं कडं ॥२॥ हस्तिनापुरे चित्र ? दृष्ट्वा नरपति महधिकम् । कामभोगेषु गृध्येन, निदानमशुभ कृतम् ॥२८॥ तस्स मे अपडिकम्तस्स, इमं पयारिसं फर्श । जाणमाणो विधम्म, कामभोगेसु मुच्छियो तस्मान्ममाप्रतिकान्तस्य, इदमेतादृश फलम् । जानानोऽपि यदूधर्म, कामभोगेषु मूर्च्छितः ॥२९॥ नागो जहा पंकजलाबसन्नो, दल थलं नाभिलमेइ तीरं । एवं वयं कामगुणेनु गिद्धा, न मिक्खुणो मामणुव्वयामो ॥३०॥ नागों यथा पंकनलावसन्नः, दृष्ट्वा स्थलं नाभिसमेतितीरम् । एवं वयं कामगुणेषु गृद्धा', नो भिक्षोर्मार्गमनुव्रजामः ॥३०॥ अचेइ कालो तरन्ति राइयो, न यावि भोगा पुरिसाण निद्या । विच भोगा पुरिसं चयन्ति, दुमं जहा खीणफलं व पक्खी ॥३१॥ अत्येति कालस्त्वरन्ते रात्रयः, न चापिभोगाः पुरुषाणां नित्याः उपेत्य भोगाःपुरुष त्यजन्ति, द्रुमं यथा क्षीणफलमिव पक्षिणः३१॥ जइ त सि भोगे चइडं असत्तो, अजाई कमाई करेहि रायं । धम्मे ठिो सवपयाणुकम्पी, तो होहिसि देवो इसो विउब्वी ॥३२॥ यदि त्वमसि भोगान्त्यक्तुमशक्तः, आर्याणि कर्माणि कुरुष्व राजन् । धर्मे स्थितःसर्वप्रजानुकंपी, तस्माद् भविष्यसि देवइतोवैकेयी३२॥ न तुम भोगे चइऊण बुद्धी, गिद्धोसि प्रारम्भपरिगहेसु । मोह को एत्तिउ विप्पलायो, गच्छामि राय आमन्तिनोसि ॥३०॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- १८६ जैन सिद्धांत पाठमाळा. न तव भोगान् त्यक्तुं बुद्धिः, गृहोऽस्यारंभपरिग्रहेषु । मोघं कृत एतावान्विप्रलापः, गच्छामि राजन्नामंत्रितोऽसि॥३३॥ पंचालरायावि य वम्भदत्तो, साहुस्स तस्स वयणं अकाउं । अणुत्तरे भुंजिय कामभोगे, अणुतरे सो नरए पविट्ठो ॥३॥ पंचालराजोंऽपि च ब्रह्मदत्तः, साधोस्तस्य वचनमकत्वा । अनुत्तरान् भुक्त्वा कामभोगान् , अनुत्तरे स नरके प्रविष्टः॥३४॥ चित्तो वि कामेहि विरत्तकामो, उदग्गचारित्ततवो महेसी । अणुत्तरं संजम पालइत्ता, अणुत्तरं सिद्धिगई गयो ॥३५॥ चित्रोऽपि कामेभ्यो विरक्तकामः, उदग्रचारित्रतपा महर्षिः । अनुत्तरं संयम पालयित्वा, अनुत्तरी सिध्धिगतिगतः ॥५॥ ॥त्ति बेमि ॥ इति चित्तसम्भूइज तेरहम अज्मयणं समत्तं ॥१३॥ इतिबवीमि-इति चित्रसंभूतीयं त्रयोदशमध्ययनं समाप्तं ॥ ॥ अह उसुयारिजं चोदहमं अज्झयणं । ॥अथेषुकारीयं चतुर्दशमध्ययनं ।। देवा भवित्ताण पुरे भवम्मि, केई चुया एगविमाणवासी। पुरे पुराणे उसुयारनामे, खाए समिद्धे सुरलोगरम्मे ॥१॥ देवा भूत्वा पूर्वे भवे, केचिच्च्युता एकविमानवासिनः । पुरे पुराण इषुकारनाम्नि, ख्याते समृध्धे सुरलोकरम्ये ॥१॥ सकम्मलेसेण पुराकरणं, कुलेसुदग्गेसु य ते पसूया । निविण्णसंसारभया जहाय, जिणिंदमागं सरणं पवना ॥२॥ स्वकर्मशेषेण पुराकतेन, कुलेषुदग्रेषु च ते प्रसूताः। निर्विण्णा:संसारभयात्त्यक्त्वा(संसार), जिनेन्द्रमार्ग शरणं प्रपन्नाः॥ पुमत्तमागम्म कुमार दो वी, पुरोहियो तस्स जसा य पत्ती । विसालकित्ती य तहेसुयारो, रायस्थ देवी कमलावई य ॥३॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं १४ १८७ पुंस्त्वमाऽऽगम्य कुमारौ द्वावपि, पुरोहित:(च)तस्य यशा च पत्नी विशालकीर्तिश्चतथेषुकारः,राजात्र देवी कमलावती च ॥३॥ जाईजरामअभयाभिभूया, वहिविहाराभिनिविट्ठचित्ता । संसारचक्कस्स विमोक्खणठा, दट्टण ते कामगुणे विरत्ता ॥m जातिजरामृत्युभयाभिमूतौं, बहिर्विहारामिनिविष्ट चित्तौ। संसारचक्रस्य विमोक्षार्थ,दृष्ट्वा (साधु)तौ कामगुणेभ्यो विरक्तौ॥४॥ पियपुत्तगा दोनि वि माहणस्स, सकम्मसीलस्स पुरोहियस्स। सरितु पोराणिय तत्थ जाई, तहा सुचिणं तवसंजमं च ॥५॥ प्रियपुत्रको द्वावपि ब्राह्मणस्य, स्वकर्मशीलस्य पुरोहितस्य । स्मृत्वा पौराणिकी तन्ननाति, तथा सुचीर्णं तपः संयमं च ॥५॥ ते कामभोगेसु असजमाणा, माणुस्सपर्नु जे यावि दिव्वा । मोक्खाभिकखी अभिजायसहा, तातं उवागम्म इमं उदाहु ॥६॥ तौ कामभोगेष्वसजन्तौ, मानुष्यकेषु ये चापि दिव्या:(तेषु)। मोक्षामिकाक्षिणावभिजातश्रद्धा,तातमुपागम्येदमुदाहरताम्॥६॥ असासयं दट्ट इमं विहार, बहुअन्तरायं न य दीहमाउं । तम्हा गिहंसि न रई लभामो, आमन्तयामो चरिस्सामु मोणं ॥७॥ अशाश्वतं दृष्टवेमं विहारं, वहवन्तरायं न च दीर्घामायुः । तस्माद्गृहे न रतिं लभावहे, आमंत्रयावश्चरिप्यावो मौनम् ॥७॥ अह तायगो तत्थ मुणीण तेसिं, तवस्स वाघायकर वयासी। इमं वयं वेयवित्रो वयन्ति, जहा न होई असुयाण लोगो ॥८॥ अथ तातकस्तत्र मुन्योस्तयोः, तपसो व्याघातकरमवादीत् । इमां वाचं वेदविदो वदन्ति, यथा न भवत्यसुतानां लोकः॥८॥ अहिज वेए परिविस्स विप्पे, पुचे परिठ्ठप्प गिर्हसि जाया । भोघाण भोए सह इस्थियाहि, आरणगा होह मुणी पसत्या Mell. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ जैन सिद्धांत पाठमाळा. अधीत्य वेदान्परिवेष्य विमान् , पुत्रान्परिष्ठाप्य गृहे जातौं । मुक्त्वा भोगान् सह स्त्रीमिः, आरण्यको भवतं मुनी-प्रशस्तौ ॥ सोयमिगणा पायगुणिन्धणेणं, मोहाणिला पजलणाहिएणं । संतत्तभावं परितल्पमाण, लालप्पमाण बहुहा बहुं च ॥१०॥ शोकाग्निनाऽऽत्मगुणेन्धनेन, मोहानिलादधिकप्रज्वलनेन । संतप्तभावं परितप्यमान, लालप्यमानं बहुधा बहु च ॥१०॥ 'पुरोहियं तं कमसोऽणुणन्तं, निमंतयन्तं च सुए धणेणं जहकम कामगुणेहिं चेव, कुमारगा ते पसमिक्ख वकं ॥११॥ पुरोहितं तं क्रमशोऽनुनयन्तं, निमंत्रयन्तं च सुतौ धनेन । यथाक्रमं कामगुणैश्चैव, कुमारको तौ प्रसमीदय वाक्यम् ॥११॥ चेया अहीया न भवन्ति ताण, भुत्ता दिया निन्ति तमं तमेणं । जाया य पुत्ता न हवन्ति ताण, कोणाम ते अणुमन्नेज एयं ॥१२॥ वेदा अधीता न भवन्ति त्राणं,भोजिता हिजा नयन्ति'तमस्तमसि जाताश्च पुत्रा न भवन्ति त्राणं, को(पुरुष:)नाम तवानुमन्येतैतत् ।। खणमित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा पणिगामसुक्खा । संसारमोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणस्थाण इ कामभोगा॥१३॥ . क्षणमात्रसौख्या बहुकालदुःखाः, प्रकामदुःखा अनिकामसौख्याः । संसारमोक्षस्य विपक्षभूताः, खानिरनर्थानां तु कामभोगाः ॥१३॥ परिचयन्ते अणियत्तकाभे, अहो य राम्रो परितप्पमाणे । अन्नप्पमत्ते धणमेसमाणे, पप्पोति मच्चुं पुरिसे जरं च ॥१४॥ . परिव्रजन्ननिवृत्तकामः, अति च रात्रौ परितप्यमानः | ' 'अन्यप्रमत्तो धनमेषयन् , प्राप्नोति मृत्यु पुरुषो.जरां च ॥१४॥ इमं च मे अस्थि इमं च नत्थि, मिमं च मे किच मिमं अकिञ्च । ते एवमेव लालप्पमाणं, हरा हरति त्ति कहं पमायो ? ॥१५॥ । १ सातमी नरकमां. २ वीजा माटे दूषित प्रवृत्ति करनार. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रं अध्ययनं १४. १८६ इदं च मेऽस्ति इदंच नास्ति, इदं च मे कृत्यमिदमकृत्यम् । तमेवमेवं लालप्यमानं, हरा हरन्तीतिकथं प्रमादः ॥१५॥ धणं पभूयं सह इस्थियाहि, सयणा तहा कामगुणा पगामा । तवं कए तप्पइ जस्स लोगो, ते सव्व साहीणमिहेव तुम्भं ॥१६॥ धनं प्रभूतं सह स्त्रीमिः, स्वजनास्तथा कामगुणाः प्रकामाः । तपः कृते तप्यते यस्य लोकः, तत्सर्व स्वाधीनमिहैव युवयोः।।१६॥ धणेण किं धम्मधुराहिगारे, सयणेण वा कामगुणेहि चेव । समणा भविस्सामु गुणोहधारी, वहिविहारा अभिगम्म मिक्खा१७॥ धनेन किं धर्मधुराधिकारे, स्वजनेन वा कामगुणैश्चैव । श्रमणौ भविष्यावो गुणौधधारिणौ, बर्हिर्विहारावभिगम्य भिक्षाम् जहा य अममी अरणी असन्तो, वीर धयं नेल्लमहा तिलेसु । एमेव जाया सरीरंसि सत्ता, संमुई नासइ नायचिट्टे ॥१८॥ यथा चाग्निरणितोऽसन् , क्षीरे धृतं तैलं महातिलेपु। एवमेव जातौ शरीरे सत्वाः,संमूर्च्छन्ति नश्यन्ति नावतिष्ठन्ते१८॥ नोइन्दियग्गेज्म अमुत्तभावा, अमुत्तमाया वि य होइ निच्चो । अज्मत्थहे निययस्स वधी, संसारहेडं च वयन्ति बन्धं ॥१॥ नो इन्द्रियग्राह्योऽमूर्तभावात् , अमूर्तभावादपि च भवति नित्यः। अध्यात्महेतुर्नियतस्य बन्धः, संसारहेतुं च वदन्ति वन्धम् ॥१९॥ जहा वयं धम्म अजाणमाणा, पात्रं पुरा कम्ममकासि मोहा । शोरुममाणा परिरक्खियन्ता,तं नेव भुजो वि समायरामो॥२०॥ यथाऽऽवां धर्ममजानानौ, पापं पुराकर्माका मोहात् । अवरुध्यमानौ परिरक्ष्यमाणो, तन्नेव भूयोऽपि समाचरावः।।२०।। अभाहयम्मि लोम्मि, सम्बनो परिवारिप । अमोहाहि पडन्तीहि, गिर्हसि न रई लभे ॥२२॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२३॥ जैन सिद्धांत पाठमाळा. अभ्याहते लोके, सर्वतः परिवारिते । अमोघामिः पतन्तीभिः, गृहे न रति लभावहे केण अभाहनो लोगो, केण वा परिवारियो । का वा अमोहा वुत्ता, जाया चिन्ताबरो हुमे केनाभ्याहतो लोकः, केन वा परिवारितः । का वाऽमोघा उक्ताः, जातौ ? चिन्तांपरो भवामि मच्चुणाऽभाहो लोगो, जराए परिवारिभो। अमोहा रयणी वुत्ता, एवं ताय विजाणह मृत्युनाम्याहतो लोकः, जरया परिवारितः। अमोघा रात्रय उक्ता, एवं तात विजानीहि जा जा वञ्चइ रयणी, न सा पडिनियतई । अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइनो या या व्रजति रजनीः, न सा प्रतिनिवर्तते अधर्म कुर्वाणस्य, अफला यान्ति रात्रयः जा जा वचा रयणी, न सा पडिनियाई । धम्म च कुणमाणस्स, सफला जन्ति राइयो या या व्रजति रजनी, न सा प्रतिनिवर्तते । धर्मं च कुर्वाणस्य, सफला यान्ति रात्रयः एगो संवसित्ताणं, दुहनो सम्मत्तसंजुया । पच्छा जाया गमिस्सामो, भिक्खमाणा कुले कुले एकतः समुष्य, 'हये सम्यक्त्वसंयुताः। पश्चाज्जातो गमिष्यामः, भिक्षमाणा गृहे गृहे जस्सस्थि मधुणा सक्ख, जस्स वऽस्थि पलायणं । जो जाणे न मरिस्सामि, सो हु कंखे सुए सिया १ शस्त्रधारावडे. २ चारेजणा. ॥२४॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ ॥२६॥ ॥२६॥ ॥२७॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रं अध्ययनं. १४ - यस्यास्तिमृत्युनासख्यं, यस्य वास्ति पलायनम् | यो जानीते न मरिष्यामि, स खलु काक्षति श्वः स्याता२७॥ अज्जेव धम्म पडिवजयामो, जहि पवना न पुणब्भवामो । अणागय नेव य अस्थि किंचि, सद्धाखमंणे विणइत्तु राग ॥२८॥ अद्यैव धर्म प्रतिपद्यावहे, यं (धर्म) प्रपन्नौ न 'पुनर्भविष्यामः । अनागतं नैवचास्ति किचित, श्रद्धाक्षम नो विनीय रागम्॥२८॥ पहीणपुत्तस्स हु नस्थि वासो, वासिहि भिक्खायरियाइ कालो। साहाहि रुक्खो लहई समाहि, छिन्नाहि साहाहि तमेव खाणु ॥२६॥ प्रहीणपुत्रस्य खलु नास्ति वासः, वासिष्टि! भिक्षाचर्यायाः कालः। शाखामिवृक्षोलभतेसमाधि,छिन्नाभिःशाखाभिस्तमेवस्थाणुम्(जानीहि) पंखाविहूणो व जहेह पक्खी, भिवविहूणो व्व रणे नरिन्दो । विवनसारो वणियो व पोए, पहीणपुत्तो मि तहा अहंपि ॥३०॥ पक्षविहीन इव यथेह पक्षी, भृत्यविहीन इव रणे नरेन्द्रः । विपन्नसारो वणिगिवपोते, प्रहीनपुत्रोऽस्मि तथाऽहमपि ॥३०॥ सुसभिया कामगुणा इमे ते, संपिण्डिा अम्गरसप्पभूया । भुंजामु ता कामगुणे पगाम, पच्छा गमिस्सामु पहाणमग्गं ॥३॥ सुसंभृताः कामगुणा इमे ते, सपिण्डिता अय्यरसप्रभूताः । भुनीवहि तान् कामगुणान् प्रकामं, पश्चाद गमिष्यावः प्रधानमार्ग। भुत्ता रसा भोइ जहाइ णे वयो, न जीवियहा पजहामि भोए। लाभ अलाभं च सुहं च दुक्खं, संचिक्खमाणो चरिस्सामि मीणा भुक्ता रसा भवति!जहत्यस्मान् वया, न जीवितार्थ प्रजहामि भोगान् लाभमलाभं च सुखंच दु:खं, संवीक्षमाणश्वरिप्यामि मौनम् ॥३२॥ मा हु तुम सोयरियाण सम्मरे, जुण्णो व हंसो पडिसोत्तगामी । भुंजाहि भोगाइ मए समाण, दुक्खं खु भिक्खायरियाविहारो॥३३॥ १ फरीवार संसारी. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ 'जैन सिद्धांत पाठमाळा.. मा खलु त्वं 'सौंदर्याणां स्मार्षीः, जीर्ण इव हंसः प्रतिस्रोतोंगामी मुंदव भोगान् मया समं, दुःख खलु भिक्षाचर्याविहारः ॥३३॥ जहा य भोई तणुयं भुयंगो, निम्मोयणि हिच पलेड मुत्तो। ' एमेए जाया पयहन्ति भोए, ते हैं कह नाणुगामस्स्मेको ॥३४॥ यथा च भवति! तनुनी भुजंगः, निर्मोचनी हित्वा पर्यंत मुक्तः । एवमेतौ जालौ प्रजहीतो भोगान,तौ(ति)अहंकथनानुगमिप्याम्येक: छिन्दित्तु जालं अवलं व रोहिया, मच्छा जहा कामगुणे पहाय! धोरेयसीला-तवसा उदारा, धीरा हु भिक्खारियं चरन्ति ॥३५॥ छित्त्वा जालमबलमिव रोहिताः,मत्स्या यथाकामगुणानप्रहाय । धौरेयशीलास्तपसोदाराः, धीराः खलुभिक्षाचर्या चरन्ति॥३६॥ नहेब कुंचा समईकम्मता, तयाणि जालाणि दलितु हंसा । पति पुत्ता य पई य मझ, ते हकह नाणुगमिस्समेका ॥३६॥ नभसीव क्रौंचाः समतिक्रामन्तः, ततानि जालानि दलित्वा हंसाः परियांति पुत्रौ च पतिश्चमम, तानहं कथं नानुगमिप्याम्येका३६॥ पुरोहियं तं ससुर्य सदारं, सोचाऽभिनिक्खम्म पहाय भोए । कुडुम्वसारं विउल्लत्तमंच, रायं भिक्खं समुवाय देवी ॥३७॥ पुरोहितं तं ससुते सदारं, श्रुत्वाऽभिनि:क्रम्य प्रहाय मोगान् । कुटुंवसारं विपुलोत्तमं च, राजानमभीदणं समुवाच देवी ॥३७|| वंतासी पुरिसो राय, न सो होइ पसंसियो। माहणेण परिश्चत्तं, धणं आयाउमिच्छसि ||३|| वांताशी-पुरुषो राजन् , न स भवति प्रशंसनीयः । ब्राह्मणेन परित्यक्त, धनमादातुमिच्छसि सव्वं जग जइ तुरं, सन्वं वावि धणं भवे । सब पि ते अपजत, नेव ताणाय तं तव १ स्नेहीयोना भोगोने. २ कांचळी. Bal Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - उत्तराध्ययनसूत्रं अध्ययनं १४ १९३ सर्व जगद्यदि तव, सर्व वापि धनं भवेत् । सर्वमपि त अपर्याप्तं, नैव त्राणाय तत्तव ॥३९॥ मरिहिसि रायं जया तया वा, मणोरमे कामगुणे पहाय । एको हु धम्मो नरदेव ताणं, न विजई अन्नमिहेह किचि ॥eon मरिष्यसि राजन् यदा तदा वा, मनोरमान् कामगुणान्प्रहाय । एकः खलु धर्मो नरदेव त्राणं, न विद्यतेऽन्यमिहेह किचित्॥४०॥ नाहं रमे पक्षिणि पंजरे वा, संताणछिन्ना चरिस्सामि मोण । अकिंचणा उज्जुकडा निरामिसा, परिगहारम्भनियत्तदोसा ॥४॥ नाहं रमे पक्षिणी पञ्जर इव, छिन्नसंताना चरिप्यामि मौनम् । अकिचना ऋजुता निरामिषा, परिग्रहारंभदोषनिवृत्ता ॥४१॥ दवग्गिणा जहा रण्णे, उज्ममाणेसु जन्तुसु । अन्ने सत्ता पमोयन्ति, रागहोसवसं गया दवामिना यथारण्ये, दह्यमानेषु जन्तुषु । अन्ये सत्त्वाः प्रमोदन्ते, रागद्वेषवशं गताः ॥४२॥ एवमेव चयं मूढा, कामभोगेसु मुच्छिया। डम्ममाणं न बुज्झामो, रागद्दोसग्गिणा जगं ॥३३॥ एवमेव वयं मूढाः, कामभोगेषु मूर्छिताः । दह्यमानं न बुध्यामहे, रागद्वेषाग्निना जगत् ॥४३॥ भोगे भोच्चा वमित्ता य, लहभूयविहारिणो । श्रामोयाणा गच्छन्ति, दिया कामकमा इव भोगान् भुक्त्वा वान्त्वा च, लघुभूतविहारिणः । आमोदमाना गच्छन्ति, द्विनाः कामक्रमा इव 11४४|| इमे य बद्धा फन्नन्ति, मम हत्थजमाया । वयं च सत्ता कामेसु, भविस्सामो जहा इमे ॥४ ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैन सिद्धांत पाठमाळा. अक्कोसवहं विइत्तु धीरे, मुणी चरे लाढे निश्चमायगुत्ते । अन्वरगमणे श्रसंपहिडे, जे कसिणं अहियासए स भिक्खू ॥३॥ आक्रोशवधं विदित्वा धीरः, मुनिश्चरेल्लाढो नित्यमात्मगुप्तः । अव्यग्रमना असंग्रहृष्टः, यः कृत्स्नमध्यासयेत् स भिक्षुः ॥३॥ पन्तं सयणासणं भइत्ता, सीउण्हं विविहं च दसमसगं । अवगमणे असंपहिहे, जे कसिग अहियासए स भिक्ख ॥४॥ प्रान्तं शयनासनं भजित्वा, शीतोष्णं विविधं च दंशमशकम् । अव्यग्रमना असंप्रहृष्टः, यः कृत्स्नमध्यासयेत् स मित्तः ॥४॥ नो सक्कइमिच्छई न पूय, नो वि य बन्दणगं कुयो पसंसं । से संजए सुब्बए तवस्सी, सहिए आयगवेसए स भिक्खू ॥५॥ न सत्रुतिमिच्छति न पूजा, नोऽपि च वन्दनकं कुतःप्रशंसां । स संयतः सुव्रतस्तपस्वी, सहित आत्मगवेषकः स भिक्षुः ॥५॥ जेण पुण जहाइ जीवियं, मोहं वा कसिणं नियच्छई । नरनार पजहे सया तवस्ती, न य कोहलं उवेइ स भिक्खू ॥ येन पुनर्जहाति जीवितं, मोहं वा कत्त्नं नियच्छति । नरनारि प्रजह्यात् सदा तपस्वी, न च कौतूहलमुपैति स भिक्षुः ॥ छिन्नं सरं भोममन्तलिक्वं, सुमिणं लक्खणदण्डवत्थुविज। अंगवियारं सरस्स विजयं, जे विजाहिंन जीवइ स भिक्खू ॥७॥ 'छिन्नं स्वरं भोम मन्तरिक्ष, स्वप्नं लक्षणदण्डवास्तुविद्याम् "अंगविकारं 'स्वरस्यविजयं, यो विद्याभिन जीवति स भितुः॥७॥ मन्तं मूलं विविहं वेजचिन्त, वमणविरेयणधुमणेत्तसिणाणं । श्राउरे सरणं तिगिच्छियं च, तं परिनाय परिपए स भिक्खू॥ १ छेदनक्रियायुक्त विद्या. २ षड्जादि राग. ३ पृथ्वीप वगेरे. ४ माकाशना ग्रहादि. ५ शरीरमां तथा नेत्रादिना फरवा. ६ दुर्गाशंगालादिना स्वरोनी चिकित्सा. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - उत्तराध्ययनसूत्रं अध्ययनं १५. मंत्रं मूलं विविधं वैद्यचिन्तां, वमनविरेचनधूमनेत्रस्नानं ।। आतुरस्मरणं चिकित्सकं च, तत् परिज्ञाय परिव्रजेत् स भिक्षुः खत्तियगणउग्गरायपुत्ता, माहणभोइय विविहा य सिप्पिणो। नो तेसि वयह सिलोगपूर्य, तं परिन्नाय परिवए स भिक्खू पEn क्षत्रियगणोपराजपुत्राः, ब्राह्मणा भोगिका विविधाश्च शिल्पिनः। नो तेषां वदति श्लोकपूजा, तत्परिज्ञाय परिव्रजेत् स भिक्षुः॥९॥ गिहिणो जे पन्चइएण दिहा, अप्पवइएण व संयुयाहविजा। तेसिं इहलोइयफलहा, जो संथवं न करे स भिक्खू ॥१०॥ गृहिणो ये प्रनितेन दृष्टाः, अप्रव्रनितेन च संस्तुता भवेयुः । तेषामिहलौकिकफलार्थ, यःसंस्तवं न करोति स भितुः ॥१०॥ सयणासणपाणभौयणं, विविहं खाइमसाइम परेसि । अदए पडिसेहिए नियण्ठे, जे तत्थ न पउस्सई स भिक्खू ॥१॥ शयनासनपानभोजनं, विविध खाद्यं स्वाध परैः। अभिः प्रतिषिद्धः निग्रन्थो, यस्तत्र न प्रदुप्यति स भिक्षुः११ जं किंचि आहारपाणगं विविहं, खाइमसाइमं परेसिं लधुं । जो तं तिविहेण नाणुकम्पे, मणवयकायसुसंवुडे स भिक्खू ॥१२॥ यत्किचिदाहारपानकं विविधं, खाद्य स्वाद्यं परेम्यो लब्ध्वा । यस्तत् त्रिविधेन नानुकंपेत, संवृतमनोवाक्कायः स भिक्षुः॥१२॥ आयामगं चेव जवोदणं च, सीयं सोवीरजवोदगं च । न होलए पिण्डं नीरसंतु, पन्तकुलाई परिवए स भिक्खू॥१३॥ आयामकं चैव यवौदनं च, शीतं 'सौवीरं यवोदकं च । न हीलयेत्पिण्ड निरसं तु, प्रान्तकुलानि परिव्रजेत्स भिक्षुः ।। सहा विविहा भवन्ति लोए, दिव्या माणुस्सगा तिरिच्छा। भीमा भयमेरवा उराला, जो सोचान विहिजई स भिक्खूशा १ कांजी, Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जैन सिद्धांत पाठमाळा. Rom शब्दा विविधा भवन्ति लोके, दिव्या मानुप्यकास्तरश्चाः। मीमो भयभैरवा उदाराः, यः श्रुत्वा न विभेति स भिक्षुः॥१४॥ वाद विविहं समिच लोए, सहिए खेयाणुगप य कोवियप्पा। पन्ने अभिभूय सवदंसी, उवसन्ते अविहेडए स भिक्खू ॥१५॥ वाद विविध समेत्य लोके, सहितः खेदानुगतश्चकोविदात्मा। प्राज्ञोऽभिभूय सर्वदर्गी, उपशान्तोऽविहेटकः स भिक्षुः ॥१५॥ असिप्पजीवी अगिहे अमित्ते, जिइन्दिए सब्बयो विप्पमुक्के । अणुकसाई लहुअप्पभक्ती, चिच्चा गिहं एगर स भिक्खु॥१६॥ अशिल्पजीव्यगृहोऽमित्रः, जितेन्द्रियः सर्वतो विप्रमुक्तः , अणुकषायी लध्वल्पभक्षी, त्यक्त्वा गृहमेकचरः स भिक्षुः॥१६॥ त्ति बेमि ॥ इति समिक्खुयं समतं ॥ इतिबवीमि-इतिसभिक्षुकं समाप्तं ॥अह बम्भचेरसमाहिठाणाणाम सोलसमं अज्झयणं॥ अथ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानं नाम षोडशमध्ययनं सुयं मे पाउस-तेणं भगवया एवमक्खायं । इह खलु थेरेहि भगवन्तेहिं दस वम्भरतमाहिठाणा पनन्ता, जे भिकरबू सोचा निसम्म संजमबहुले संवरवहुले समाहिवहुले गुत्ते गुतिदिए गुत्तवम्भयारी सया अप्पमत्ते विहरेजा । कयर खलु ते रहि भगवन्तेहिं दस वम्भचेरसमाहिठाणा पन्नत्ता, जे भिक्खू सोच्चा निसम्म संजमबहुले संवरवहुले समाहिबहुले गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तवम्भयारी सया अप्पमत्ते विहरेजा। इमे खलु ते थेरेहिं भगवन्तेहिं दस दम्भचेरठाणा पन्नता, जे भिक्खू Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययनं १६ २६९ सोच्वा निसम्म संजमवडले संवरवहुले समाहिदहुले गुत्ते गुतिदिए गुत्तवम्भयारी सया अप्पमत्ते विहरेजा॥ तं जहा विवित्ताई सयणासणाई सेवित्ता हवइ से निम्मन्ये । नो इन्थीपसुपण्डगसंसत्ताई सयणासणाई सेविना हबइ से निग्गन्ये । तं कहमिति चे । आयरियाह । निगन्थस्स खलु इन्थिपम्नुपण्डगसंसत्ताई सयणासणाई सेवमाणस वम्भयारिस्स वम्भचेरे संका वा कंखा वा बिगिच्छा वा समुप्पजिजा, भेदं वा लभेजा, उस्मार्य वा पाणिजा, दीहकालियं वा रोगायकं हवेजा, केलिपनत्तानो धम्माओ भंसेजा। तम्हा नो इत्थिपसुपण्डगसंसत्ताई सयणासणाई सेवित्ता हवइ से निगन्ये ॥१॥ श्रुतं मया आयुप्मन् ? तेन भगवतवमाख्यातम् , इह खलु स्थविरैर्भगवद्भिर्दश ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि प्रज्ञप्तानि, तानि भिक्षुः श्रुत्वा निशम्य बहुलसंयमो वहुलसंवरो बहुलसमाधि गुप्तो गुप्तेन्द्रियो गुप्तब्रह्मचारी सदाऽप्रमत्तोविहरेत् । कतराणि खलु तानि? स्थविरभगवद्भिर्दशब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि प्रजप्तानि, यानि भिक्षुः श्रुत्वा निशम्य बहुलसयमो वहुलसंवरो वहुलसमाधिगुप्तो गुप्तेन्द्रियो गुप्तब्रह्मचारी सदाऽप्रमत्तो विहरेत् । इमानि खलु स्थविरभगवद्भिर्दशब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि प्रज्ञप्तानि,यानि भिक्षुः श्रुत्वा निशम्य बहुलसंयमो बहुलसंवरो वहुलसमाधिगुप्तो गुप्तेन्द्रियो गुप्तब्रह्मचारी सदाऽप्रमतो विहरेत् । तद्यथा विविक्तानि शयनासनानि सेविता, भवति स निग्रन्थः । न स्त्रीपशुपण्डकसंसक्तानि शयनासनानि सेविता भवति स निग्रन्थ । तत् कथमितिचेत्? आचार्य आह, निग्रन्थस्य Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जैन सिद्धांत पाठमाळा. खलु स्त्रीपशुपण्डकसंसक्तानि, शयनासनानि सेवमानस्य ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शंका वा कांक्षा वा 'विचिकित्सा वा समुत्पद्येत, भेदं वा लभेत, उन्मादं वा प्राप्नुयात् , दीर्घकालिको वा रोगातको भवेत् , केबलिप्रज्ञप्ताद धर्माद् अश्येत् , तस्मान्नो, स्त्रीपशु पण्डकससक्तानि शयनासनानि सेविता भवति स निर्गन्थः ॥१॥ ___ नो इत्थीण कहं कहित्ता हवा से निगन्थे । तं कहमिति चे। पायरियाह । निग्गन्थस्स खलु इत्थीण कहं कहेमाणस्स बम्भवारिस्स वम्भचेरे संका वा कंखा वा विगिच्छा वा समुपजिजा, भेदं वा लभेजा, उम्मायं वा पाउणिजा, बीहकालिय वा रोगायक हवेजा, केलिपन्नत्ताओ धम्मायो भंसेजा । तम्हा नो इत्थीण कहं कहेजा ॥२॥ नो स्त्रीणां कथा कथयिता भवति स निर्ग्रन्थः, तत्कथमि तिचेत् ? आचार्य आह । निर्ग्रन्थस्य खलु स्त्रीणां कथां कथयतो ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शङ्का वा काउक्षा वा विचिकित्सा वा समुत्पयेत, भेदं वा लभेत, उन्मादं वा प्राप्नुयात दीर्घकालिको वा रोगातको भवेत , केवलिप्रज्ञप्ताद धर्माद भ्रश्येत् , तस्मान्नोस्त्रीणां कथां कथयेत् ॥२॥ ___ नो इत्थी सद्धिं सन्निसेन्जागए विहरित्ता हवइ से निगन्थे । तं कहमिति चे। पायरियाह । निग्गन्थरस खलु इत्थीहि सद्धि सभिसेजागयरस वम्भचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुष्पजिजा, भेदं वा लभेजा, उम्मायं वा पाणिजा, दीहकालिय वा रोगायक हवेजा, केवलिपन्नत्ताओ धम्माश्रो भंसेजा । तम्हा खलु नो निगथे इत्थीहि सद्धि समिसेज्जागए विहरेजा ॥३॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं १६. २०१ नो स्त्रीभिः सार्ध सन्निषद्यागतो विहर्ता भवति स निर्ग्रन्थः, तत्कथमितिचेत् ! आचार्य प्राह । निम्रन्थस्य खलु स्त्रीभिः साधं सन्निषद्यागतस्य ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शड्का वाऽऽकाडक्षा वा विचिकित्सा वा समुत्पद्येत, भेदं वा लभेत, उन्मादवा प्राप्नुवात् , दीर्घकालिकोवा रोगातको भवेत् ; केवलिप्रज्ञप्तादू धर्माद भ्रश्येत् तस्मात्खलु नो निग्रन्थः स्त्रीभिः साधं सन्निषद्यागतो विहरेत् ॥३॥ नो इत्थीण इन्दियाई मणोहराई मणोरमाई आलोइत्ता निज्माइत्ता हवइ से निगन्थे । तं कहमिति चे। पायरियाह । निग्गन्थस्स खलु इत्थीण इन्दियाई मणोहराई मणोरमाई पालोएमाणस्स निज्झायमाणस्स बम्भयारिस्स वम्भर संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुप्पजिजा, भेदं वा लभेजा, उम्मायं वा पाउणिजा, दोहकालियं वा रोगायक हवेजा, केवलिपन्नत्ताश्री धम्मायो भंसेजा । तम्हा खलु नो निग्गन्थे इत्थीणं इन्दियाई मणोहराई मणोरमाई पालोएजा निजमाएजा ॥४॥ नो त्रीणामिन्द्रियाणि मनोहराणि, मनोरमाण्यालोकयिता निर्व्याता भवति स निग्रन्थः। तत्कथमितिचेत् ! आचार्य आह । निग्रन्थस्य खलु स्त्रोणामिन्द्रियाणि मनोहराणि मनोरमाण्यवलोक मानस्य निर्ध्यायतो ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शङ्का वाऽऽकाक्षा वा विचिकित्सा वा समुत्पद्येत, भेदं वा लभेत, उन्मादंबा प्राप्नुयात् , दीर्घकालिको वा रोगातको भवेत् ; केवलिप्रज्ञप्ताद धर्मादू भ्रश्येत् तस्मात् खलु नो निग्रंथः स्त्रीणामिन्द्रियाणि मनोहराणि मनोरमाण्यालोकयेन्निायेत् ||४|| Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. नो इत्थीणं कुडुन्तरंसि वा दुसत्तरंसि वा भित्तन्तरंसि वा कूयस वा रुस वा गीयसद्दं वा हसियस वा थणियसहं वा कन्दियस वा विलवियस वा सुणेता हवाइ से निगन्ये । तं कहमिति चे । प्रायरियाह । निगन्थस खलु इत्थी कुट्टन्तरंसि वा सन्तरंसि वा भित्तन्तरंसि वा यस वा रुइयसहं वा गीयसद्दं वा हसियस वाणियस वा कन्दियसद्दं वा विलवियस वा सुणेमाणस्स बम्भयारिस्स बम्भचेरे संका वा कंखा वा बिगिच्छा वा समुप्पजिजा, भेदं वा लभेजा, उम्मार्थ वा पाउणिजा, दीहकालिये वा रोगायकं हवेजा केवलिपन्नत्ताओ धम्मायो भंसेज्जा । तम्हा खलु तो निमान्थे इत्थीणं कुन्तरंसि वा दूसन्तरंसि वा मित्तंसि वा कृइयसहं वा सहयसहं वा गीयसदं वा हसियस वा थणियस कन्दियसद्दं वा विलवियस वा सुणेमाणे विहरेजा ॥ ५ ॥ २०२ नो स्त्रीणां कुड्यान्तरे वा दूष्यान्तरे वा भित्यन्तरे वा कूजितशब्दं वा, रुदितशब्दं वा, गीतशब्दं वा, हसितशब्दं वा, स्तनितशब्दं वा क्रन्दितशब्दं वा, विलपितशब्दं वा, श्रोता (न) भवति स निर्ग्रन्थ, तत्कथमितिचेत् ? आचार्यश्राह । निर्ग्रन्यस्य खलु स्त्रीणांकुंड्यान्तरे वा, दुप्यान्तरे वा भित्त्यन्तरे वा, कुजितशब्द वा, रुदितशब्दं वा, गीतशब्दं वा हसित शब्द वा स्तनितशब्दं वा क्रन्दितशब्दं वा, विलपितशब्दं वा, अण्वतो ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शडकावा काढक्षा विचिकित्सा वा समुत्पद्येत भेदं वा लमेत, उन्मादं वा प्राप्नुयात् दीर्घकालिको वा रोगातङ्को भवेत्, केवलिप्रज्ञप्ताद् धर्माद् भ्रश्येत् । तस्मात् खलु नो निर्ग्रथः स्त्रीणां कुज्यान्तरेवा, ढप्यान्तरे वा, भित्यन्तरेवा, Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रं अध्ययनं १६. २०३ कूजितशब्दं वा, रुदितशब्दं वा गीतशब्दं वा, हसितशब्द वा, स्तनितशब्द वा, क्रन्दितशब्दं वा, विलपितशब्दं वा, अण्वन् विहरेत् ॥५॥ __नो निगन्थे पुब्बरय पुन्बहीलियं अणुसरित्ता हवइ से निग्गन्थे। तंकहमिति चे।आयरियाह । निगन्थस्स खलु पुबरयं पुवकीलियं अणुसरमाणस्स वम्भयारिस्स वम्भचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुप्पजिजा, भेदं वा लमेजा, उम्मायं वा पाउणिजा, दीहकालियं वा रोगायक हवेजा, केवलिपन्नत्तानो धम्मायो भंसेजा। तम्हा खलु नो निग्गन्थे पुत्वरयं पुन्वकीलियं अणुसरेजा ॥६॥ नो निर॑थः पूर्वरतं पूर्वक्रीडित मनुस्मर्ता भवेत् स निग्रंथ: तत्कथमितिचेत् ! आचार्य आह । निर्ग्रन्थस्य खलु पूर्वरतं पूर्वक्रीडित मनुस्मरतों ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शड्का वा काक्षा वा विचिकित्सा वा समुत्पद्येत भेदं वा लभेत उन्मादं वा प्राप्नुयात , दीर्घकालिकों वा, रोगातको मवेत् , केवलिप्रज्ञप्ताद धर्माद भ्रश्येत, तस्मात् खलु नो निग्रंथः पूर्वरतं पूर्वक्रीडितमनुस्मरेत् ॥६॥ ___ नो पणीयं श्राहारं श्राहरित्ता हवइ से निम्मन्थे । तं कहमिति चे । शायरियाह । निखान्थस्स खलु पणीयं श्राहारं आहारेमाणस्स बम्भयारिस्स वम्मचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुप्पजिजा, भेदं वा लभेजा, उम्मायं वा पाउणिजा, दीहकालियं वा रोगायक हवेजा, केवलिपन्नत्तानी धम्माओ भंसेजा। तम्हा खलु नो निग्गन्ये पणीयं श्राहार प्राहारेजा ॥७॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैन सिद्धांत पाठमाळा. नो प्रणीत माहरमाहर्ता भवेत् स निर्मन्थः। तत्कथमितिचेत्! आचार्य आह । निर्ग्रन्थस्य खलु प्रणोतमाहारमाहरतो ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शडका वा, काङक्षा वा विचिकित्सा वा समुत्पद्येत , भेदं वा लभेत, उन्मादं वा प्राप्नुयात् , दीर्घकालिको वा रोगातको भवेत् केवलिप्रज्ञप्ताद धर्माद अश्येत् , तस्मात् खलु नो निग्रन्थः प्रणोतमाहरेत् ॥७॥ नो अइमायाए पाणभोयणं आहारेत्ता हवइ से निगन्थे । तं कहमिति चे । प्रायरियाह । निग्गन्थस्स खलु अइमायाए पाणभोयणं प्राहारेमाणस्स बम्भयारिस्स वम्भचेरे संका वा कंखा वा विगिच्छा वा समुप्पजिजा, भेदं वा लभेजा, उम्मायं चा पाउणिजा, दोहकालियं वा रोगायक हवेजा, केलिपनत्तानो धम्माओ भसेजा । तम्हा खलु नो निग्गन्थे अइमायाए पाणभोयणं आहारेज्जा ॥८॥ नो अतिमात्रया पानभोजनमाहर्ता भवति स निर्ग्रन्थः तत् कथमितिचेत् ? आचार्य आह । निर्ग्रन्थस्य खल्वतिमात्रया पानभोजनमाहरतो ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्य शङ्कावा काझावा, विचिकित्सा वा समुत्पद्येत, भेदं वा लभेत, उन्मादं वा प्राप्नुयात , दीर्घकालिको वा रोगातको भवेत् , केवलिप्रज्ञप्तादधर्माद भ्रश्येत् , तस्मात् खलु नो निर्ग्रन्थोऽतिमात्रया पानभोननमाहरेत् ॥८॥ नो विभूसाणुवादी हवइ से निमान्ये । तं कहमिति चे । पायरियाह । विभूसात्तिए विभूसियसरीरे इस्थिजणस्स अभिलसणिजे हवइ । तो गं तस्स इस्थिजणेणं अभिलसिजमाणरस वम्भचेरे संका वा कंखा वा विगिच्छा वा समुप्प Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं १६. जिजा, भेदं वा लमज्जा, उम्मायं वा पाउणिजा, दीहकालियं वा रोगायकं हवेजा, केवलिपनत्तानो धम्माओं भंसेज्जा । तम्हा खलु नो निग्गन्ये विभूसाणुवादी हविजा ॥६॥ नो विभूषानुपाती भवति स निग्रंन्यः तत् कथमितिचेत् आचार्य आह । विभूषावतिको विभूपितशरीरः स्त्रीजनम्याभिलपनीयो भवति, ततस्तस्य स्त्रीजनेनाभिलप्यमाणस्य शडकावा काक्षावा विचिकित्सावा समुत्पद्येत, भेदं वा लभेत, उन्मादं वा प्राप्नुयात् दीर्घकालिको वा रोगातको भवेत् केवलिप्रज्ञप्ताद धर्माद भ्रश्येत् तस्मात् खलु नो निग्रन्थो विभूषानुपाती भवेत्।९॥ नो सदस्वरसगन्धफासाणुवादी हवा से निमान्ये । तं कहमितिचे। पायरियाह । निग्गन्थस्स खलु सहस्वरसगन्धफासाणुवादिस्स वम्भयारिस्स वम्भचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुप्पजिम्ला, भेदं वा लभेजा, उम्माय वा पाणिना, दीहकालियं वा रोगायक हवेजा, केलिपनत्तानो धम्मालो मंसेजा। तम्हा खलु नो सहरूवरसगन्धफासाणुवादी भवेनासे निग्गन्ये । दसमे वम्भचेरसमाहिठाणे हवइ ॥१०॥ नो गन्दरुपरसगन्धस्पर्शानुपाती भवति स निर्ग्रन्थः तत्कथ. मितिचेत् ? आचार्य आह निन्यस्य खलु शब्दरूपरसगन्धस्पर्शानु पातिनो ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शडकावा काडूतावा विचिकित्सावा समुत्पद्येत, भेदं वा लभेत, उन्माद वा प्राप्नुयात् , दीर्घकालिको वा रोगातको भवेत, केवलिप्रज्ञप्तादू धर्माद् भ्रश्येत् , तस्मात् खलु नो शब्दरूपरसगन्धस्पर्शानुपाती भवेत् स निग्रन्धः । दशम ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानभवति ॥१०॥ हवन्ति इन्थ सिलोगा । तं जहा । भवन्त्यत्र श्लोकाः तद्यथा Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ॥२॥ जैन सिद्धांत पाठमाळा. जं विवित्तमणाइण्णं, रहियं इस्थिजणेण य । वम्भचेरस्स रक्खट्टा, प्रालय तु निसेवर यविविक्तमनाकीण, रहितं स्त्रीननेन च । ब्रह्मचर्यस्य रक्षार्थ, आलयं तु निषेवेत मणपल्हायजणणी, कामरागविवढणी । बम्भचेररो मिक्खू, थीकहं तु विवजए । मनःप्रहादजननी, कामरागविवर्धनीम् । ब्रह्मचर्यरतो भिक्षुः, स्त्रीकथां तु विवर्जयेत् समं च संथवं थीहि, संकहं च अभिक्खणं । वम्भचेररो भिक्खू, निश्चसो परिवजए समं च संस्तवं स्त्रीभिः, संकथा चाभीक्ष्णम । ब्रह्मचर्यरतो भिक्षुः, नित्यशः परिवर्जयेत् अंगपञ्चंगसंठाणं, चारुल्लवियपेहियं । बम्भचेररमो थीणं, चक्खुगिज्मं विवजए अंगप्रत्यंगसंस्थानं चारूलपितप्रेक्षितम् । ब्रह्मचर्यरतःस्त्रीणां, चक्षुर्ग्राह्य विवर्जयेत् कूइयं रुइयं, गीय, हसियं थणियकन्दियं । बम्भचेररओ थीणं, सोयगिझ विवजए कूजितं रुदितं गीतं, हसितं स्तनितक्रन्दितम् । ब्रह्मचर्यरतः स्त्रीणां, श्रोत्रग्राह्यं विवर्जयेत् हासं किड रई दप्पं, सहसावित्तासियाणि य । वम्भचेररओ थोणं, नाणुचिन्ते कयाइवि हास्य क्रीडां रति दर्प, सहसापि त्रासितानि च। ब्रह्मचर्यरतः स्त्रीणां, नानुचिन्तयेत्कदापि च ।। ॥५॥ ॥६॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं १६. ૨૦૭ || पणीय भत्तपाणं तु, खिप्पं मयविवढणं । वम्भचेररमो भिक्खू, निच्चसो परिवजए प्रणीतं भक्तपानं तु, क्षिप्र मदविवर्धनम् । ब्रह्मचर्यरतो भिक्षुः, नित्यशः परिवर्जयेत् ॥७॥ धम्मलद्धं मियं काले, जत्तत्थं पणिहाणवं । नाइमत्तं तु मुंजेजा, वम्भचेररमो सया धर्मलब्धं मितं काले, यात्रा प्रणिधानवान् । नाऽतिमात्रे तु भुञ्जीत, ब्रह्मचर्यरत• सदा ॥८॥ विभूसं परिवज्जेज्जा, सरीरपरिमण्डणं । वम्भररमो भिक्खू, सिंगारत्थं न धारण विभूषां परिवर्जयेत् , शरीरपरिमण्डनम् । ब्रह्मचर्यरतो भिक्षुः, शृंगारार्थ न धारयेत् ॥९॥ सहे रुवे य गन्चे य, रसे फासे तहेव य । पंचविहे कामगुणे, निचसो परिवजए ॥२०॥ शब्दानरूपाश्च गन्धाश्च, रसान्स्पर्शास्तथैवच । पंचविधान्कामगुणान् , नित्यशः परिवर्जयेत् ॥१०॥ पालो थोजणाइण्णो, थोकहा य मणोरमा । संथवो चेव नारीणं, तासि इन्दियदरिसणं ॥३१॥ आलयः स्त्रीजनाकीर्णः, स्त्रीकथा च मनोरमा । संस्तवाश्चैव नारीणां, तासामिन्द्रियदर्शनम् ॥११॥ कुइयं रुइयं गीय, हासभुत्तासियाणि य । पणीय भत्तपाणं च, अइमाय पाणभोयणं ॥२॥ कूजितं रुदितं गीतं, (स्मृतानि) हास्यमुक्तासितानिच । प्रणोतं भक्तपानं च, अतिमानं पानभोजनम् ॥१२॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूर्व अध्ययनं १७ २०६ । ॥ ग्रह पावसमणिज्जं सत्तदहं ग्रयणं ॥ अथ पापमणीयं सप्तदशमध्ययनं ॥ १६ ॥ जे केइ उ पव्वइए नियण्डे, धम्मं सुणित्ता विणत्रवन्ते । सुदुलहं लहिडं वोहिला, विहरेज्ज पच्छा य जहासुहं तु ॥ ॥ यः कश्चित्तु प्रव्रजितो निर्यन्थः, धर्मं श्रुत्वा विनयोपपन्नः । सुदुर्लभं लब्ध्वा बोधिलाभ, विहरेत् पश्वाच्च यथासुखं तु ॥१॥ सेज्जा दढा पाउरणम्मि प्रत्थि उप्पज्जई भी नहेब पाउं । जाणामि जे वट्टर आउसुचि, कि नाम कादामि सुपण भन्ते ॥ शय्या दृढा प्रावरणं मेऽस्ति, उत्पद्यने भोक्तुं तथैव पातुम् । जानामि यद्वर्तत आयुष्मन्निति, किं नाम करिष्यामि श्रनेन भगवन् जे केई पञ्चइए, निवासीले पनामती | भोच्चा पेच्चा सुहं सुबह, पावसमणिचि दुई यः कश्चित् प्रब्रजितः, निद्रागील: प्रकामशः । भुक्त्वा पीत्वा सुखं स्वपिति, पापश्यमण इत्युच्यते आयरियउवज्झाएहि, सुयं विषयं च गाहिए । . ते वेब खिंसर्ड वाले, पावसमणि धि आचार्योपाध्यायैः श्रुतं विनयं च त्राहितः । ताश्चैव खिंसति बाल:, पापश्रमण इत्युच्यते आयरियाणं, सम्म न fears | अप्पपिए थ, पावसमणि त्ति दुई , आचार्योपाध्यायानां सम्यग् न परितृप्यति । अप्रतिपूजकः स्तब्धः, पापश्रमण इत्युच्यते सम्महमाणे पाणाणि, वीयाणि हरियाणि य । असंजय संजयम्नमाणो. पावसमणि त्ति हुई ॥e॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥४॥ 11'11 11311 un Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥७॥ ॥७॥ ॥ जैन सिद्धांत पाठमाळा. संमर्दयमानः प्राणिना, बीनानि हरितानि च । असंयतः सयतमन्यमानः, पापश्रमण इत्युच्यते संथारं फलगं पीढं, निसेनं पायकम्वल । अप्पमजियमारहा, पावसमणि त्ति बुचई संस्तारं फलकं पीठं, निषद्यां पादकंवलम् । अप्रमृज्यारोहति, पापश्रमण इत्युच्यते दवदवत्स चरई, पमत्ते य अभिक्खणं । उल्लंघणे य चण्डे य, पावसमणि त्ति दुबई द्रुतं द्रुतं चरति, प्रमत्तश्चाभीक्ष्णम् । उल्लंघनश्च चण्डश्य, पापश्रमण इत्युच्यते पडिलेहेइ पमत्ते, अवउज्झइ पायकम्बलं । पडिलेहा अणाउत्त, पावसमणि त्ति वुच्चई प्रतिलेखयति प्रमत्तः, अपोज्झति पादकम्बलम् । प्रतिलेखनायामनायुक्तः, पापश्रमण इत्युच्यते पडिलेहेइ पमत्ते, से किंचि हु निसामिया । गुरुपारिभावए निञ्च, पावसमणि त्ति बुचर्ड प्रतिलेखयति प्रमत्तः, स किञ्चित्खलु निशम्य । गुरुपरिभावको नित्यं, पापश्नमण इत्युच्यते वहुमाई पमुहरे, थद्धे लुद्धे अणिग्गहे । असंविभागी अवियत्ते, पावसमणि त्ति बुचई बहुमायी प्रमुखरः, स्तब्धो लुब्धोऽनिग्रहः । असंविभाग्यप्रीतिकः, पापश्रमण इत्युच्यते विवाद च उदोरेइ, अहम्मे अत्तपन्नहा । शुगहे कलहे रत्ते, पावसमणि त्ति दुबई ॥९॥ ॥१०॥ ॥१२॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं श्रध्ययनं १७. 7 12 विवादं चोदीरयति, अधर्मे आत्मप्रज्ञाहा । व्युदग्रहे कलहे रक्तः, पापश्रमण इत्युच्यते प्रथिरासणे कुकुर, जत्थ तत्थ निसीयई । सम्मिश्रणउत्ते, पावसमणि त्ति वुचई अस्थिरासन: 'कुत्कुच:, यत्र तत्र निषीदति । आसनेऽनायुक्तः, पापश्रमण इत्युच्यते ससरक्खपाए सुवई, सेजं न पडिलेहइ । संधारण अणउत्ते, पावसर्माण ति बुधई मरजम्कपाद: स्वपिति, अय्य न प्रतिलेखयति संस्तारकेऽनायुक्तः, पापश्रमण इत्युच्यते दुदहीविगईयो, श्राहारे भिक्खणं । र य तबोकम्मे, पावसमणि ति बुवई दुग्धदधिविकृती आहारवत्यभीक्ष्णम् । अरतश्च तपःकर्मणि, पापश्रमण इत्युच्यते - अत्यन्तम्मिय सूरम्मि, ग्राहारे श्रभिक्खणं चो पडिचोपड, पावसर्माण ति चई → अस्तमयति च सूर्य आहारयत्यमीदणम् । नोदितः प्रतिनोदयति, पापभ्रमण इत्युच्यते आयरियपरिचार्ड, परपासण्डसेवर । गाणगणिए दुब्भूए, पावसमणिति बुवाई आचार्यपरित्यागी, परपापण्डसेवकः । गाणंगणिको दुर्मृतः पापश्रमण इत्युच्यते सयं गेहं परिवल, परगेहंसि वावरे । निमित्त्रेण य ववहरs, पावसमणि तिges 11250 १ दास्यविक्या करनार. २ मासे एक सप्रदायमांधी बीजे एम बदल्या करे. " " २११ ++ ॥१२॥ ॥३॥ " ॥१३॥ 22 [9] : ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१शा ॥१६॥ ||१|| ॥१७॥ ॥१॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैन सिद्धांत पाठमाळा. स्वकीयं गृहं परित्यज्य, परगृहे व्यामियते । निमित्तेन व्यवहरति, पापश्रमण इत्युच्यते सनाइपिण्डं जेमेर, नेच्छई सामुदाणिवं । गिहिनिसेज्जं च वाहे, पावसमणि न्ति कुम्बई स्वज्ञातिपिण्डं भुके, नेच्छति समुदा निकम् । गृहिनिषद्यां च वाहयति, पापश्रमण इत्युच्यते ॥ १८॥ ॥ १९ ॥ एवारिसे पंचकुसीलसंडे, रूबंधरे मुणिपवराण हेडिमे । श्रयंसि लोए विसमेव गरहिए, न से इहं नेव परस्थ लोए ||२०|| एतादृशः पञ्चकुशीलसंवृतः, रूपघरो मुनिप्रवराणामधोंवर्ती । ॥ अथ संजइजं अट्ठारह अभय ॥ || संयतीयमष्टादृशमध्ययनं ॥ ॥१३॥ लोके विषमिव गर्हितः, न स इह नैव परत्रलोके ॥२०॥ जे वज्जए एप सया उ दोसे, से सुधर होइ मुणीण मज्झे । प्रयंसि लोए अमयं च पूइए, श्राराहए लोगमिण तहा परं ॥२१॥ यो वर्जयेदेतान्सदा तु दोषान् स सुब्रतो भवति मुनीनां मध्ये | अस्मिलोकेऽमृतमिव पूजितः, श्राराधयति लोकमिमं तथा परम् ॥ त्ति बेमि ॥ इति पोवसमणिजं तत्तदहं ग्रज्मयणं समत्तं ॥१७॥ इति पापश्रमणीयं सप्तदशमध्ययनं समाप्तं ॥ १७ ॥ कम्पिले नवरे राया, ऊदिवाहने । नामेण संजय नाम, far उर्वाणि काम्पील्ये नगरे राजा, उदीर्णबलवाहनः । नाम्ना संजयो नाम, मृगव्यामुपनिर्गतः हयाणीए गयाणी, रहाणीए तहेव य । पायताणोप महया, cart परिवारि ॥१॥ ॥१॥ IRI Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन १८ हयानीकेन गजानीकेन, रथानोकेन तथैव च । पदात्यनीकेने महता, सर्वतः परिवारितः ॥२॥ मिए छुहिता हयगी, कम्पिल्लुजाण केसरें । भीए सन्ते मिए तत्थ, वहेइ रसमुच्छिए ॥३॥ मृगान्क्षिप्त्वा हयगतः, काम्पिल्यकेसरोंद्याने । भीतान् श्रान्तान् मृगान् तत्र, विध्यति रसमूच्छितः । ॥३॥ अह केसरम्मि उज्जाणे, अणगारे नवोधणे । सज्झायमाणसंजुत्ते धम्मज्माण कियायइ अथ केसर उद्याने, अनगारस्तपोधनः । स्वाध्यायध्यानसंयुक्तः, धर्मध्यानं ध्यायति ॥४॥ अप्फोवमण्डवम्मि, झायई खावयासवे । तस्सांगए मिगे पासं, वहेह से नराहिवे 'अफोवमण्डपे, ध्यायति क्षपितासंवः । तम्यागतान्मृगान् पाश्च, (हन्ति)विष्यति स नराधिपः ॥५॥ अह आसगो राया, खिष्पमागम्म सो तहिं । हए मिए उ पसित्ता, अणगारं तत्थ पासई Mall अथाश्वगतो राजा, क्षिप्रमागम्य से तस्मिन् (तंत्र)। हतान्मृगान्तु दृष्ट्वा, अनगार तत्र पश्यति अह राया तत्थ संभन्तो, अणगारो मणाहनो। मए उ मन्दपुण्णेणं, रेसगिद्धेण वित्तुणा ॥७॥ अथ राजा तत्र संभ्रान्तः, अनंगीरों मनाग हतः । मया तु मन्दपुण्येन, रसँगृध्धेनं घातुकेन ॥७॥ आसं विसजइत्ताण, अणगारस्स सो नियो । विणपण वन्दए पाए, भगवं पत्थ मे खमें १ दाना माडवा नीचे. - Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत. पाठमाळा. २१४ No Im अश्व विसृज्य, अनगारस्य स नृपः । 1 विनयेन वन्दते पादौ, भगवन्नत्र मे (अपराधं ) क्षमस्व ॥८॥ अह मोणेण सो भगवं, अणगारे झाणमस्सिए । रायाणं न पडिमन्ते, तो राया भयहुओ अथ मौनेन स भगवान्, अनगारों ध्यानमाश्रितः । राजानं न प्रतिमंत्रयते, ततो राजा भयद्रुतः संजय मम्मीति, भगवं वाराहि मे । कुद्धे तेपण अणगारे, डहेज्ज नरकोडियो संजयोऽहमस्मीति भगवन् व्याहर मां । क्रुद्धस्तेजसाऽनगारः, दहेत नरकोटी: rer पत्थिवा तुब्भं, अभयदाया भवाहि य । आणिचे जीवलोगम्मि, किं हिंसाए पसजसी अभयं पार्थिव ? तव अभयदाता. भव च । अनित्ये जीवलोके, किं हिसायां प्रसजति जया सव्वं परिच्चज्ज, गन्तव्वमवसस्स ते । अणिच्चे जीवलगास्म कि रज्जम्मि पसज्जसी यदा सर्वं परित्यज्य, गन्तव्यमवशस्य ते । अनित्ये जीवलोके, किं राज्ये प्रसजति जीवियं चेव रूवं च विज्जुसंपायचंचलं । जत्थ तं मुज्कसी राय, पेच्चत्थं नावबुज्भसे जीवितं चैव रूपं च विद्यत्संपातचंचलम् । € यत्र त्वं मुह्यसि राजन्, 'प्रेत्यार्थं नावबुध्यसे दाराणि य सुया चेव, मित्ता य तह बन्धवा । जीवन्तमणुजीवन्ति, मयं नाणुव्वयन्ति य १ परलोक मांट. 712 ॥६॥ ॥९॥ ॥१०॥ ॥१०॥ ॥११॥ ॥११॥ Kn ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१३॥ ॥१४॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं श्रध्ययनं १८ दाराश्च सुताश्चैव, मित्राणि च तथा बान्धवाः । जीवन्तमनुजीवन्ति, मृतं नानुव्रजन्ति च नोहरन्ति मयं पुत्ता, पितरं परमदुक्खिया । पितरो वि तहा पुत्ते, बन्धू रायं तवं चरं निःसारयन्ति मृतं पुत्राः, पितरं परमदुःखिताः । पितरोऽपि तथा पुत्रान् बन्धववो राजन् ! तपश्चरेः ॥ १५॥ तो तेणज्जिए दन्ने, द्वारे य परिरक्खिए । कोलन्ति नरा रायं, हट्टतुटुमलंकिया ततस्तेनार्जिते द्रव्ये, दारेषु च परिरक्षितेषु । क्रीडन्त्यन्ये नरा राजन्, हृष्टतुष्टाऽलंकृताः तेणावि जं कयं कम्मं, सुहं वा जइ वा दुहं । कम्मुणा तेण संजुत्तो, गच्छई उ परं भ , तेनापि यत्कृतं कर्म, शुभं वा यदि वाऽशुभम् । कर्मणा तेन संयुक्तः, गच्छति तु परभवम् सोऊण तस्स सो धम्मं, अणगारस्स श्रन्तिप । महया संवेगनिवेद, समावतो नराहियो श्रुत्वा तस्य स धर्म, अनगारस्यान्तिके । महान्तं संवेगनिर्वेद, समापन्नो नराधिपः संजय चाडं रजं, निक्खन्तो जिणसासणे । गद्दभालिस्स भगवो, श्रणगारस्स अन्तिए संजयस्त्यक्त्वा राज्यं, निष्क्रान्तो जिनशासने | गर्दभाभगवतः, अनगारस्यान्तिके चिचा रहूं पeosप, खत्तिए परिभासा । जहा ते दीसई रुवं, पसने ते तहा मणी २६५ ॥ १४॥ ॥ ॥ ॥१६॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१७॥ ||25|| ॥१॥ ॥१६॥ ॥ १९ ॥ ૫૨૦] Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥२०॥ ॥२१॥ પાર ॥२२॥ जैन सिद्धांत पाठमाळा. त्यक्त्वा राष्ट्र प्रव्रजितः, क्षत्रियः परिभाषते । यया ते दृश्यते रूपं, प्रसन्नं ते तथा मनः किनामे सिंगोत्ते, कस्सट्टाए व माहणे । कहं पडियरसी बुद्धे, कंहं विणीए ति बुञ्चसी कि नाम कि गोत्रम् , कस्यार्थं वा माहनः । कथ प्रतिचरसि बुद्धान् , कथं विनीत इत्युच्यसे संजो नाम नामेण, तहा गोतेण गोयमो । गहभाली ममायरिया, विजाचरणपारगा संयतोनाम नाम्ना, तथा गोत्रेण गौतमः । गर्दभालयो ममाचार्याः, विद्याचरणपारगाः किरियं अकिरियं विणयं, अन्नाणं च महामुनी। एपहिं चउहि ठाणेहि, मेयन्ने कि पभासई क्रियामकियां विनयः, अज्ञानं च महामुने । एतेषु चतुःषु स्थानेषु, तत्वज्ञाः कि प्रभाषन्ते इइ पाउकरे बुद्धे, नायए परिणिन्दुए । विजाचरण संपन्ने, सच्चे सञ्चपरकमे इति प्रादुःकरोति बुद्धः, ज्ञातकः परिनिवृतः। विद्याचारित्रसंपन्नः, सत्यवान् सत्यपराक्रमः पडन्ति नरए घोरे, जे नरा पावकारिणी। दिव्वं च गई गच्छन्ति, चरित्ता धम्ममारियं पतन्ति नरके घोरे, ये नराः पापकारिणः । दिव्यां च गतिं गच्छंति, चरित्वा धर्ममार्यम् ॥२३॥ २३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराभ्ययन सूत्रं अंध्ययनं १८. मायावुझ्यमेयं तु, मुसाभासां निरस्थिया । संजममाणोऽवि अहं, वसामि इरियामि य रक्षा मायोदितमेतत्तु, मृषामाषा निरर्थिका । संयच्छन्नप्यहम् , वसामि ईर्यायां च ॥२६॥ सक्नेए विइया मज्म, मिच्छादिछी प्रणारिया । विजमाणे परे लोए, सम्म जाणामि अप्पयं ॥२७॥ सर्वएते विदिता मया, मिथ्यादृष्टयोऽनार्याः । विद्यमाने परेलोके, सम्यग् जानाम्यात्मानम् ॥२७॥ अंहमासि महापाणे, जुइमं वरिससोवमे । जा सा पालिमहापाली, दिब्या परिससंयोवमा R अहमासम् 'महाप्राणे, द्युतिमान् वषेशतोपमः । या सा पालि महापालिः, दिव्या वर्षशतोपमा ॥२९॥ से चुप चम्मलागानी, माणुस भवमांगए । अप्पणो य परेसि च, प्राडं जाणे जहाँ तहा २६ स च्युतो ब्रह्मलोकात , मानुष्यं भवमागतः । आत्मनश्च परेषां च, आयु नामि यथा तथा: ॥२९॥ नाणारई, च छन्दं च, परिवंजेज सैंजए । अणट्ठा जे य सव्वस्था, उइ विजमिणुसंचरे ॥३०॥ ननारुचि च छन्दश्व, परिवर्जयेत् संयतः। अनी ये च सर्वार्थाः, इति विद्यामनुसंचरेः ॥३०॥ पडिकमामि पसिणाणं, परमंतेहिं वा पुणो । अहो उहिए अहोराय, इइ विजा तवं चरे ॥३१॥ प्रतिक्रमामि प्रश्नेभ्यः, परमंत्रेभ्यो वा पुनः। अहो उत्थितोऽहोरात्रं, इति विद्वान् तपश्चरेत् ॥३१॥ १ विमानतुं नाम २ काल प्रमाणे ३ मोटु काल प्रमाण Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जैन सिद्धांत पाठमाळा. जं च मे पुच्छसी काले, सम्म सुद्धेण चेयसा । ताई पाउकरे वुद्धे, तं नाणं जिणसासणे ॥३२॥ यच्च मां पृच्छसि काले, सम्यक् शुद्धेन चेतसा | । तत्प्रादुरकरोबुद्धः, तज्ज्ञानं जिनशासने ॥३२॥ किरियं च रोयई धीरे, अकिरियं परिवजए । दिठ्ठीए दिछीसम्पन्ने, धम्म चर सुदुचरं ॥३३॥ क्रियां च रोचयेद् धीरः, अक्रियां परिवर्जयेत् । 'दृष्ट्या दृष्टिसंपन्नः, धर्म चर सुदुश्वरम् ॥३३॥ एयं पुण्णपयं सोचा, अत्थधम्मोवसोहियं । भरहो वि भारहं वासं, चिच्चा कामाइ पवए ॥३॥ एतत्पुण्यपदं श्रुत्वा. अर्थधर्मोपशोभितम् । भरतोऽपि भारत वर्ष, त्यक्त्वा कामान् प्राब्राजीत् ॥३४॥ सगरो वि सागरन्त, भरहवासं नराहियो । इस्सरियं केवलं हिच्चा, दयाइ परिनिव्वुडे सगरोऽपि सागरान्तं, भरतवर्ष नराधिपः । ऐश्वर्य केवलं त्यक्त्वा, दयया (संयमेन) परिनिवृतः ॥३५॥ चहत्ता भारहं वासं, चक्कवट्टी महदियो । पव्वजमभुवगो, मघवं नाम महाजसो ॥२६॥ त्यक्त्वा भारतं वर्ष, चक्रवर्ती महद्धिकः । प्रव्रज्यामभ्युपगतः, मघवा नाम महायशाः सर्णकुमारो मणुस्सिन्दो, चकवट्टी महद्वियो। पुत्तं रज्जे उठेऊणं, सो वि राया तवं चरे ॥३७॥ सनत्कुमारो मनुष्येद्रा, चक्रवर्ती महर्डिकः । पुत्रं राज्ये स्थापयित्वा, सोऽपिराजा तपोऽचरत् ॥३७॥ ॥३५॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ॥१८॥ ॥३॥ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ११. चइता भारहं वासं, चकवट्टी महदियो । सन्ती सन्तिकरे लोए, पत्तो गइमणुत्तरं त्यक्त्वा भारत वर्ष, चक्रवर्ती महर्दिकः । शान्तिः शान्तिकरो लोके, प्राप्तो गतिमनुत्तराम् इक्खागरायवसभी, कुन्यू नाम नरीसरा । विक्खायकित्ती भगवं, पत्तो गइमणुत्तरं इक्ष्वाकुराजवृषभः, कुन्युनामा नरेश्वरः । विख्यातकीर्तिभगवान् , प्राप्तो गतिमनुत्तराम् सागरन्तं चइत्ताणं, भरहं नरवरीसरो। अरो य अरयं पत्तो, पत्तो गइमणुत्तरं सागरान्तं त्यक्त्वा, भारतं नरवरेश्वरः । अरश्चारजः प्राप्तो, प्राप्तो गतिमनुत्तराम् चइत्ता भारहं वासं, चइता वलवाहणं । चइत्ता उत्तमे भोए, महापउमे तवं चरे त्यक्त्वा भारतं वर्ष, त्यक्त्वा बलवाहनम् । त्यक्त्वोत्तमान् भोगान् , महापद्मस्तपोऽचरत् एगच्छत् पसाहित्ता, महि माणनिसूरणो। हरिसेणो मणुस्सिन्दो, पत्तो गइमणुचरं एकच्छत्रां प्रसाध्य, मही माननिषूदनः (मर्दक) । हरिषेणो मनुप्येन्द्रः, प्राप्तो गतिमनुत्तरान् अनियो रायसहस्सेहि, सुपरिधाई दम परे । जयनामो जिणक्खायं, पत्तो गइमणुत्तरं अन्वितो राजसहः, सुपरित्यागी दममचारीत् । जयनामा जिनाख्यातां प्राप्तो गतिमनुतराम् ॥४०॥ ॥४२॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४४॥ ॥४४॥ ॥४५॥ ॥४५॥ २२० जैन सिद्धांत पाठमाळां. दसण्णरज्जं मुदियं, चहत्तांणं मुणी चरे । दसणभद्दो निक्खन्तो, सक्ने सकेणे चोइश्रो दशाणराज्यं मुदितं, त्यक्त्वा मुनिरचरत् । दशाणभद्रो निःक्रान्तः, सक्षिाशकेण नोदितः नमी नमेइ अप्पाणं, सक्खं सक्केण चोईयो । चइऊण गेहं वइदेही, सामण्णे पज्जुवडियो नमि मयत्यात्मानं, साक्षाच्छेक्रेण नोदितः। त्यक्त्वा गृहं वैदेही, श्रामण्ये पर्युपस्थितः करकण्डू कलिंगेसु, पंचालेंसु ये दुम्मुहो । नमी राया विदेहेसु, गन्धारेसु य नगई करकण्डुः कलिंगेषु, पंचालेषु च द्विमुखः नमीराजा विदेहेषु, गन्धारेषु च निर्गतिः एए नरिन्दवसभा, निक्खन्ता जिणसासणे । पुत्ते रज्जे ठवेऊण, सामण्णे पञ्जवठिया एते नरेन्द्रवृषभाः, निःक्रान्ता जिनशासने । पुत्रान राज्ये स्थापयित्वा, श्रामण्ये पर्युपस्थिताः सोवीररायवसभो, चहत्तीण मुंणी चरे। उदायणो पव्वइयो, पत्तो गहमणुत्तरं सौंवीरराजवृषभः, त्यक्त्वा मुनिरचरत् । उदायनः प्रव्रजितः, प्राप्तो गतिमनुत्तराम् तहेव कासीराया, सेश्रोसच्चपरकमे । कामभोगे परिच्चज, पहणे कम्ममहावणं तथैव काशीराजः, श्रेयःसत्यपराक्रमः । .. काममोगान् परित्यज्य, प्राहन् कर्ममहावनम् ॥४६॥ ॥४७॥ ॥४७॥ ॥४८॥ ॥४॥ ॥४९॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जैन सिद्धांत पाठमाळा. - ॥१॥ ॥ मियापुत्तीयं एगणवीसइमं अज्झयणं ॥ ॥ मृगापुत्रीयमेकोनविशतितममध्ययनं ॥ सुग्गीवे नयरे रम्मे, काणणुजाणसोहिए । राया बलभहि त्ति, मिया तस्सग्गमाहिसी ॥१॥ सुग्रीवे नगरे रम्ये, काननोद्यानशोभिते । राजा वलभद्र इति, मृगा तस्यानमहिषी तेसिं पुत्ते बलसिरी, मियापुत्ते त्ति विस्सुए। अम्मापिऊण दइए, जुवराया दमीसरे ॥२॥ तयोः पुत्रो बलश्रीः, मृगापुत्र इति विश्रुतः । । अम्बापित्रोदयितः, युवराजो दमीश्वरः ॥२॥ नन्दणे सो उ पासाए, कीलए सह इथिहि । देवे दोगुन्दगे चेव, निच मुइयमाणसो ॥३॥ नन्दने स तु प्रासादे, क्रीडति सह स्त्रीभिः । देवों दोगुन्दकश्चैव, नित्यं मुदितमानसः । मणिरयणकोट्टिमतले, पासायालोयणट्टियो । आलोएइ नगरस्स, चउकत्तियचच्चरे । मणिरत्नकुट्टिमतले, प्रासादालोकनस्थितः । आलोकयति नगरस्य, चतुष्कत्रिकचत्वरान् अह तत्थ अइच्छन्त, पासई समणसंजयं । तवनियमसंजमधर, सीलहूँ गुणागरं अथ तत्रातिक्रामन्तं, पश्यति संयतश्रमणं । तपोनियमसंयमधरं, शीलाढ्यं गुणाकरम् ॥५॥ तं देहई मियापुत्ते, दिट्टीए अणिमिसाए उ । कहि मोरिसं रूवं, दिद्वपुव्वं मए पुरा ॥६॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं श्रध्ययनं २६ तं पश्यति मृगापुत्र, दृष्टयाऽनिमेषया तु । क्व मन्य ईदृशं रूपं, दुष्टपूर्व मया पुरा साहुस्स दरिसणे तस्स, अज्भवसाणम्मि सोहणे । मोहं गयस्स सन्तस्स, जाडसरणं समुत्पन्न साधोर्दर्शने तस्य, अध्यवसाने शोभने । गतमोहस्य सतः, जातिस्मरणं समुत्पन्नम् जाईसरणे समुपपन्ने, मियापुत्ते महिडिए । सरई पोराणि जाई, सामण्णं च पुरा कर्य जातिस्मरणे समुत्पन्ने, मृगापुत्रो महर्द्धिकः । स्मरति पौराणिकी जाति, श्रामण्यं च पुराकृतम् बिसएहि श्ररजन्तों, रजन्तो संजमस्मि य । अस्मापियरसुवागम्म, इमं वयणमवची विषयेष्वरज्यन्, रज्यन् संयमे च । पितरावुपागम्य, इदं वचनमब्रवीत् ६९२३ ॥ ६ ॥ 11911 11911 11511 11511 llell ॥९॥ सुयाणि मे पंच महत्वयाणि, नरएस दुक्खं च तिरिक्खजोणिषु । निविणकाम मि महण्णवाश्रो, प्रणुजाणह पव्वइस्सामि अम्नी ॥ श्रुतानि मया पंचमहाव्रतानि नरकेषु दु.खं च तिर्यग्योनिषु । निर्विण्णकामोऽम्मि महार्णवात्, अनुजानीत प्रव्रजिप्यामि पितरौ ? श्रम ताय मए भांगा, भुत्ता बिसफलोबमा | पच्छा कडुयविवागा, अणुवन्धदुहावहा मात स्तात मया भोगाः, भुक्ता विषफलोपमा । पश्चात् कटुकविपाकाः, अनुबन्धदु:खावहाः इमं सरीरं श्रणिचं, सुई सुइसंभवं । प्रसासयावासमिणं, दुखकेसाण भावणं દા ॥११॥ ॥१२॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जैन सिद्धांत पाठमाळा. इदं शरीरमनित्यं, अशुच्यशुचिसंभवं । अशाश्वता वासमिदं दुःख क्लेशानां भाजनम् असासर सरीरम्मि, रडं नोवलभामहं । पृच्छा पुरा व चयवत्रे, फेणबुव्यसन्निभे अशाश्वते शरीरे, रति नोपलभेऽहम् । पश्चात् पुरा वा त्यक्तव्ये, फेनबुद बुदसंनिभे माणुसते प्रसारम्मि, वाहीरोगाण आलए । जरामरणवत्थस्मि, खर्णपि न रमामहं मनुष्यत्व असारे, व्याधिरोगाणामालये । जरामरणग्रस्ते, क्षणमपि न रमेऽहम् जम्मं दुक्खं जरा दुफ्लं, रोगाणि मरणाणि य । हो दुक्खो हु संसारी, जत्थ कीसन्ति जन्तवो जन्म दुःखं जरादुःखं, रोगाश्व मरणानि च । अहो दुःखः खलु संसार:, यत्र क्लिश्यन्ति जन्तवः ॥१५॥ UPEN खेतं वत्युं हिरण्णं च पुत्तारं च बन्धवा | वरताणं इमं देहं गन्तव्वमवसहस मे क्षेत्र वास्तु हिरण्यं च पुत्रदारं च बान्धवान् । त्यवे देहं गन्तव्यमवशस्य मे. " जहा कम्पागफलाण, परिणामो न सुन्दरो । एवं भुताण भांगाणं, परिणामो न सुन्दरो यथा किपाकफलानां, परिणामो न सुन्दरः । एवं भुक्तानां भोगानां परिणामो न सुन्दरः श्रद्धा जो महंत तु पापवई । गच्छन्तो सो दुही हो, हातहार पीडिघो ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१.४॥ ॥१५॥ ॥१५॥ ॥१७॥ ॥१॥ ॥१॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं श्रध्ययनं. १९ अध्वानं यो महान्तं तु, अपाधेयः प्रव्रजति । गच्छन् स दुःखी भवति, क्षुधातृष्णया पीडित: एवं धम्मं अकाऊणं, जो गच्छह परं भवं । गच्छन्तो सो दुही होइ, वाहीरांगेहिं पीडियो एवं धर्ममकृत्वा, यो गच्छति पर भवम् । गच्छन् स दुःखी भवति, व्याधिरोगेः पीडितः श्रद्धाणं जो महंत तु, सपाहेश्रो पवजई । गच्छन्तो सो सुही होइ, छुहातण्हाविवजिश्रो अध्वानं यो महान्तं तु, सपाथेयः प्रव्रजति । गच्छन् स सुखी भवति, क्षुधातृष्णाविवर्जितः एवं धम्मं पि काऊर्ण, जो गच्छह परं भवं । गच्छन्तो सो सुही होइ, अप्पकस्मे भवेयणे एवं धर्ममपि कृत्वा, यो गच्छति परं भवम् । गच्छन् स सुखी भवति, अल्पकर्माऽवेदन: जहा गेहे पलित्तम्मि, तस्स गेहस्स जो पहू । सार भण्डाणि नीणे, असारं अवमा यथा गृहे प्रदीप्ते तस्य गृहस्य यः प्रभुः । सारभाण्डानि निःकाशयति, असारमपोज्झति एवं लोए पलित्तम्मि, जराए मरणेण य । अप्पाणं तारइस्सामि, तुम्भेहि घणुमन्निश्रो एवं लोके प्रदीप्ते, जरया मरणेन च । आत्मानं तारयिष्यामि, युष्माभ्यामनुमतः दिन्तम्मापियरो, सामणं पुत्त दुच्चरं । गुणाणं तु सहस्सा, धारयन्वाई भिक्खुणो २२५ ॥१८॥ ॥१६॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२०॥ ॥२१॥ ॥२१॥ ||२२|| ॥२२॥ tat ॥२३॥ {R} Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२५॥ ॥२६॥ जैन सिद्धांत पाठमाळा. तं ब्रतोऽम्बापितरौ, श्रामण्यं पुत्र दुश्चरम् । गुणानां तु सहस्राणि, धारयितव्यानि भिक्षोः समया सबभूएसु, सत्तुमित्तेस्तु वा जगे । पाणाइवायविरई, जावजीवाए दुकर समता सर्वभूतेषु, शत्रुमित्रेषु वा जगति । प्राणातिपातविरतिः, यावज्जीवं दुष्करा निश्चकालप्पमतेणं, मुसावायविषजणं । भासियव्वं हियं सच, निचाउत्तेण दुक्कर नित्यकालाप्रमत्तेन, मृषावादविवर्जनम् । भाषितव्यं हितं सत्यं, नित्यायुक्तेन दुष्करं दन्तसोहणमाइस्स, अदत्तस्स विवजणं । अणवज्जेसणिजस्स, गिण्हणा अवि दुकरं दन्तशोधनादेः, अदत्तस्य विवर्जनम् | अनवद्यैषणीयस्य, ग्रहणमपि दुःकरम् विरई अवम्भचेरस्स, कामभोगरसन्नुणा । उम्गं महब्वयं वम्भ, धारेयन्त्र सुदुक्करं । विरतिरब्रह्मचर्यस्य, कामभोगरसज्ञेन । उग्रं महाव्रतं ब्रह्मचर्य, धारयितव्यं सुदुःकरम् धणधन्नपेसवग्गेसु, परिगहविवजणं । सवारम्भपरिच्चायो, निम्ममत्तं सुदुक्कर धनधान्यप्रेप्यवर्गेषु, परिग्रहविवर्जनम् । सर्वारंभपरित्यागः, निर्ममत्वं मुदुःकरम् चउबिहे वि श्राहारे, राईभोयणवजणा । सन्निहीसंचयो चेव, वज्जेयन्वो सुटुक्कर ॥२७॥ ॥२७॥ ॥२८॥ ॥२८॥ ॥२६॥ ॥२९॥ ॥३०॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं १६ २२७ - ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३१॥ ॥३२॥ ॥३२॥ चतुर्विधेऽप्याहारे, रात्रिभोजनवर्जना। सन्निधिसंचयश्चैव, वर्जितव्यः सुदाकरः छुहा तण्हा य सीउण्डं, दंसमसगवेयणा । अक्कोसा दुक्खसेना य, तणफासा जलमेव य क्षुधा तृषा च शीतोष्ण, दंशमशकवेदना । आक्रोशा दु:खशय्या च, तृणस्पा 'जल्लमे व च तालणा तजणा चेव, वहवन्धपरीसहा । दुक्खं भिक्खायरिया, जायणा य अलाभया ताडना तनना चैव, वघबन्धौ परिषहौ। दुःखं भिक्षाचर्यायाः, याचना चालाभता कायोया जा इमा वित्ती, केसलोश्रो य दारुणो । दुक्खं वम्भन्वयं घोरं, धारेउ य महप्पणो कापोती येयं वृत्तिः, केशलोचश्च दारुणः । दुःखं ब्रह्मवतं घोरं, धतुं च महात्मना सुहोइनो तुम पुत्ता, सुकुमालो सुमजियो । न हु सी पभू तुमं पुत्ता, सामण्णमणुपालिया सुखोचितस्त्वं पुत्र !, सुकुमारश्च सुमज्जितः। न खल्वसि प्रमुस्त्वं पुत्र !, श्रामण्यमनुपालयितुम् जावज्जीवमविस्सामो, गुणाणं तु महन्भरी । गुरुप्रो लोहमारु ब्व, जो पुत्ता होइ दुब्बहो यावज्जीवमविश्रामः, गुणानां तु महाभारः। गुरुको लोहमार इव, यः पुत्र! भवति दुर्वहः आगासे गंगसोउ ब, पडिसोउ व्व दुत्तरो। वाहाहिं सागरो चेव, तरियन्वो गुणोदही ॥३३॥ ॥३४॥ ॥३६॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जैन सिद्धांत पाठमाळा. ॥३६॥ . ॥३७॥ ॥३७॥ ॥३८॥ ॥३॥ आकाशे गंगास्रोत इव, प्रतिस्रोतोवद्दुस्तरः। 'बाहुभ्यां सागरथैव, तरितव्यो गुणोदधिः वालुयाकवलो चेच, निरस्साए उ संजमे । प्रसिधारागमणं चेव, दुक्करं चरित्रं तवो . वालुकाकवलश्चैव, निःस्वादस्तु संयमः । असिधारागमनं चैव, दुःकरं चरितुं तपः अही वेगन्तदिट्टीए, चरित्ते पुत्त दुक्करे । जवा लोहमया चेव, चावेयच्या सुदुक्करं अहिरिवैकान्तदृष्टयाः, चारित्रे पुत्र ! दुष्करे । 'यवा लोहमयाश्चैव, चर्वयितव्याः सुदुःकराः जहा अम्मिसिहा दित्ता, पाउं होइ सुदुक्करा । तहा दुक्करं करेउं जे, तारूण्णे समणत्तणं यथाग्निशिखा दीप्ता, पातुं भवति सुदुःकराः । तथा दुप्करं कर्तुं यत् , तारुण्ये श्रमणत्वम् जहा दुक्खं भरे जे, होइ वायस्स कोत्थलो। तहा दुक्खं करेउं जे, कोबेणं समणतणं यथा दुःख भर्तुं यो, भवति वायों: कोस्थलः । तथा दुःकरं कर्तुं यत् , क्लीवेन श्रामण्यम् जहा तुलाए तोलेडं, दुक्करो मन्दरो गिरी । तहा निहुयं नीसंकं, दुकरं समणत्तणं यथा तुलया तोलयितुं, दुःकरो मन्दरो गिरिः । तथा निभृतं निशक, दु:करं श्रमणत्वम् जहा भुयाहि तरिउं, दुकरं रयणायरो । तहा अणुवसन्तेणं, दुक्करं दमसागरो ॥३॥ ॥४०॥ ॥४०॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ॥४२॥ ॥३॥ ॥३॥ reen ॥४॥ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं १६. यथा भुजाभ्यां तरीतु, दुःकरो रत्नाकरः। तथानुपशान्तेन, दुःकरो दमसागरः भुंज माणुस्सए भोगे, पंचलखणए तु । भुत्तभोगी तो जाया, पच्छा धम्म चरिस्ससि मुंदव मानुष्यकान् भोगान्, पंचलक्षणकान् त्वम् । भुक्तभोगी ततो जात ? पश्चादू धर्म चरिष्यसि सो वितऽम्मापियरो, एवमेयं जहा फुडं। इह लोए निष्पिवासस्स, नस्थि किंचिवि दुक्करं स ब्रूतेऽम्बापितरौ, एवमेतद्यथास्फुटम् । इहलोके नि:पिपासस्य, नास्ति किचिदपि दुःकरम् सारीरमाणसा चेव, वैयणाश्रो अनन्तसो । मए सोढायो भीमानो, असई दुक्खभयाणि य शारीरमानस्यश्चैव, वेदना अनन्तशः। मया सोढा भीमा', असकृद् दुःखभयानि च जरामरणकान्तारे, चाउरन्ते भयागरे। मए, सोढाणि भीमाणि, जम्माणि मरणाणि य जरामरणकान्तारे, चातुरन्ते भयाकरे। मया सोटानि भीमानि, नन्मानि मरणानि च जहा इई अगणी उण्हो, एसोऽणन्तगुणो तहि । नरपसु वेयणा उण्हा, अस्साया वेइया मया यथेहाग्निरुष्णा, इतोऽनन्तगुणस्तत्र । नरकेषु वेदना उप्णाः, असाता वेदिता मया जहा इमं इहं सीय, पत्तोऽणन्तगुणो तहि । नरपसु वेयणा सीया, अस्साया वेइया मए ॥४५॥ ॥४॥ ॥४॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४८॥ ॥४९॥ ॥५०॥ ॥५०॥ २३० जैन सिद्धांत पाठमाळा. यथेदमिह शोतं, इतोऽनंतगुणं तत्र । नरकेषु वेदना शीता, असाता वेदिता मया कन्दन्तो कंदुकुम्भीसु, उद्वपात्रो अहोसिरो। हुयासणे जलन्तम्मि, पक्कपुव्वो अणन्तसो क्रन्दन् कन्दुकुंभीषु, उर्ध्वपादोऽधःशिराः । हुताशने ज्वलति, पक्कपूर्वोऽनन्तशः महादवग्गिसंकासे, मरुम्मि वइरवालुए । कलम्बवालुयाए य, दट्ठपुचो अणन्तसो महादवाग्निसंकाशे, मरौ वज्रवालुकायाम् । कदम्बवालुकायां च, दग्धपूर्वोऽनन्तशः रसन्तो कन्दुकुम्भीसु, उर्ल्ड बद्धो अबन्धवो । करवत्तकरकयाईहिं, छिनपुन्यो अणन्तसो रसन् कन्दुकुंभीषु, उर्ववद्धोऽबान्धवः । करपत्रककचैः, छिन्नपूर्वोऽनन्तशः अइतिक्खकंटगाइण्णे, तुंगे सिम्बालपायवे । . खेवियं पासबद्धणं, कट्टोकदाहि दुक्करं . अतितिक्ष्णकण्टकाकीर्ण, तुंगे शिवलिपादपे । 'क्षेपितं पाशवध्धेन, कर्षणापकर्षणैर्दुःकरम् महाजन्तेसु उच्छू वा, पारसन्तो सुभेरवं । पीडियो मि सकम्मेहि, पावकम्मो अणन्तसो महायंत्रेष्विक्षुरिव, आरसन्सुभैरवम् । पीडीतोऽस्मि स्वकर्मभिः, पापकर्माऽनन्तशः कूवन्तो कोलसुणरहि, सामेहिं सबलेहि य । फाडियो फालिश्रो छिनो, विष्फुरन्तो अणेगसो १ भोगव्यु. ॥११॥ ॥५२॥ ॥५२॥ ॥५३॥ ॥५३॥ ॥५४॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययनं १९ कूजन कोलशुनकैः, श्यामैः शबलैश्च । पातितः स्फाटितः छिन्नः, विस्फुरन्ननेकशः ॥५४॥ असीहि अयसिवण्णाहि, भल्लेहि पट्टिसेहि य । छिन्नो भिन्नो विभिन्नो य, अोइण्णो पावकम्मुणा असिभिरतसीकुसुमवर्णैः, भल्लीभिः पर्शिश्च । छिन्नो भिन्नो विभिन्नश्च, अवतीर्णः पापकर्मणा ॥५५॥ अवसो लोहरहे जुत्तो, जलन्ते समिलाजुए। चोइओ तोत्तजुत्तेहि, रोझो वा जह पाडियो अवशो लोहरथे युक्तः, ज्वलति समिलायुते । 'नोदितस्तोत्रयोक्त्रैः, गवयो वा यथा पातितः ॥१६॥ हुयासणे जलन्तम्मि, चियासु महिसो विव । दह्रो पक्को य अवसो, पावकम्मेहि पावित्रो ॥१७॥ हुताशने ज्वलति, चितासु महिष इव । दग्धः पक्वश्वावशः, पापकर्मभिः प्रावृतः ॥५ ॥ बला संडासतुण्डेहि, लोहतुण्डेहिं पक्खिहि । विलुतो विलवन्तो हं, ढकगिद्धेहिंऽणन्तसो बलात् संदंशतुण्डैः, लोहतुण्डैः पक्षिभिः । विलुप्तो विलपन्नहम् , ढंकगृधेरनन्तश: ॥१८॥ तण्हाकिलन्तो धावन्तो, पत्तो वेयरिणि नदि । जलं पाहि ति चिन्तन्तो, खुरधाराहि विवाइनो तृष्णाक्लान्तो धावन् , प्राप्तो वैतरणी नदीम् । जलं पास्यामीति चिन्तयन् , शुरधाराभिर्व्यापादितः ॥१९॥ उपहाभितत्तो संपत्तो, प्रसिंपत्तं महावणं । असिपत्तेहिं पडन्तेहि, छिन्नपुव्वो अणेगसो ॥६॥ १ नाकमां नाथ घाली चावखाथी प्रेरायेलो. ॥५॥ - Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २३२ जैन सिद्धांत पाठमाळा. उप्णाभितप्तः संप्राप्तः, असिपत्रं महावनम् । असिपत्रः पतद्भिः छिन्नपूर्वोऽनेकशः मुग्गरेहिं मुसंडीहि, सुलेहिं मुसलेहि य । गया संभग्गगत्तेहि, पत्तं दुक्खं अणन्तसो ॥१॥ 'मुद्गर,संढीमिः, शुलेर्मुशलैश्च । गदासंभग्नगात्रः, प्राप्तं दुःखमनन्तशः खुरेहि तिक्वधारेहि, छुरियाहिं कप्पणीहि य । कप्पियो फालिश्रो छिन्नो, उछित्तो य अणेगसो ॥ शा तुरे: तोदणधारैः, क्षुरिकाभि: कल्पनीभिश्च । कल्पितः पाटितः छिन्नः, उत्कृतश्चानेकशः पासेहिं कूडजालेहि, मिश्रो वा अवसो अहं । वाहियो बद्धरुद्धो वा, बहू चेव दिवाइयो ॥३॥ पाशैः कूटनालैः, मृग इवावशोऽहम् । वाहितो बद्धरुद्धो वा , बहुशश्चैव व्यापादितः ॥६॥ गलेहिं मगरजालेहि, मच्छो वा अवसो अहं । उल्लियो फालिश्रो गहियो, मारियो य अणन्तसो ॥४॥ गलैमकरजालैः, मत्स्य इवावशोऽहम् । उल्लिखितः पाटितो गृहीतः, मारितश्चानन्तशः वोदसएहिं जालेहि, लेप्पाहि सउणो विव । गहिनो लग्गो बद्धो य, मारियो य अणन्तसो विदंशकालः, लेप्याभिः शकुन इव । गृहीतो लग्नो वडश्च, मारितश्चाऽनन्तशः कुहाडफरसुमाईहि, बढ़ईहिं दुमो विव। कुट्टिओ फालिश्रो छिन्नो, तच्छियो य अणन्तसो ॥६६॥ १ शस्त्र नाम. ॥६५॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं १६. २३३ - {}â}} ॥६७॥ कुठारपरश्वादिभिः, वार्षिकैर्दुम इव । कुटित: पाटितः छिन्नः, तक्षितश्चानन्तश. चवेडमुट्टिमाईहिं, कुमारेहि अयं पित्र । नाडियो कुट्टियो भिन्नो, चुण्णिों व अणन्तसो चपेटामुष्टयादिभिः, कुमारैरय इव । ताडित: कुट्टितो भिन्नः, चूर्णितश्चानन्तशः तत्ताई तम्बलोहाई, तउयाई सीसयाणि य । पाइयो कलकलन्ताई, आरसन्तो सुमेरवं तप्तानि ताम्रलोहादीनि, 'पुकानि सिसकानि च । पायितः कलकलायमानानि, पारसन सुमेरवं तुहं पियाई मसाई, खण्डाई सोल्लगाणि: य । खाइयो मि समंसाई, अग्गिवण्णाइऽणेगसो तव प्रियाणि मांसानि, खण्डानि सोडकानि च । खादितोऽस्मि स्वमांसानि, अग्निवर्णान्यनेकशः तुहं पिया सुरा सीह, मेरो य महूणि य । पाइयो मि जलन्तीनों, वसानो रुहिराणि य तब प्रिया सुरा सीधुः, मेरका च मधूनि च । पायितोऽस्मि ज्वलन्तीः, वसा रुधिराणि च निछ भीएण तत्थेण, दुहिएण, वहिएण य । परमा दुहसंवद्धा, वेयणा वेदिता मए नित्यं भीतेन त्रस्तेन, दुःखितेन व्यथितेन च । परमा दुःखसंवदाः, वेदना वेदिता मया तिन्वचण्डप्पगाढायो, घोरायो अदुस्सहा । महन्भयाभो भीमाश्रो, नरपसु वेदिता मए . १ लाख. २ मा कयन परमावामीन है, ॥७०॥ ॥७०॥ ॥७॥ [७२॥ - - Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥७२॥ ॥७३॥ ॥७३॥ ॥७४॥ ॥७॥ २३४ जैन सिद्धांत पाठमाळा. तीवाश्चण्डप्रगाढाय, घोरा अति दुःसहाः । महाभया भीमाः, नरकेषु वेदिता मया । जारिसा माणुसे लोए, ताया दीसन्ति वेयणा । पत्तो अणन्तगुणिया, नरए दुक्खवेयणा यादश्यो मानुष्ये लोके, तात दृश्यन्ते वेदनाः ।। इतोऽनन्तगुणिताः नरकेषु दुःखवेदनाः सन्वभवेसु अस्साया, वेयणा वेदिता मए । निमेसन्तरमितपि, जे साता नत्थि वेयणा सर्वभवेष्वसाता, वेदना वेदिता मया । निमेषान्तरमात्रमपि, यत्साता नास्ति वेदना तं विन्तम्मापियरो, छन्देणं पुत्त पन्वया । नवरं पुण सामण्णे, दुक्खं निप्पडिकम्मया तं ब्रूतोऽम्बापितरौ, छन्दसा पुत्र! प्रव्रज । नवरं पुनः श्रामण्ये, दुःख नि:प्रतिकर्मता सो बेइ अम्मापियरो, एवमेयं जहा फुड । पडिकम्मं को कुणई, अरण्णे मियपक्खिणं स ब्रूतेऽम्बापितरौ, एवमेतद्यथा स्फुटम् । प्रतिकर्म कः करोति, अरण्ये मृगपक्षिणाम् एगभूए अरण्णे व, जहा उ चरई मिगे । एवं धम्म चरिस्सामि, संजमेण तवेण य एकमूतोऽरण्ये वा, यथा तु चरति मृगः । एवं धर्म चरिष्यामि, संयमेन तपसा च जहा मिगस्स प्रायको, महारण्णम्मि जायई । अञ्चन्तं रुक्खमूलम्मि, को पं ताहे तिगिच्छिई ॥७५. ॥७॥ ॥७६॥ ॥७६॥ ॥७७॥ ॥७७॥ ॥७८ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं १६ यथा मृगस्याऽऽतंकः, महारण्ये जायते । तिष्ठन्तं वृक्षमुले, कस्तं तदा चिकित्सति ॥७॥ को वा से प्रोसह देइ, को चा से पुच्छई सुहं । को से भत्तं च पाणं वा, श्राहरितु पणामए, lisell को वा तस्मै औषधं दत्ते, को वा तस्य पृच्छति सुखम् । कस्तरस्मै भक्तं च पानं वा, आहृत्य प्रणामयेत् ॥७९॥ जया से सुही होइ. तया गच्छइ गोयरं । भत्तपाणस्स अट्ठाए वल्लराणि सराणि य ॥०॥ यदा स सुखी भवति, तदा गच्छति गोचरम् । भक्तपानस्याथ, वल्लराणि सरांसि च | ॥८॥ खाइत्ता पाणियं पाउं, चल्लरेहि सरेहि य । मिगचारियं चरित्ताणं, गच्छई मिगचारिय शा खादित्वा पानीयं पीत्वा, वलरेषु सरस्सु च । मृगचर्या चरित्वा, गच्छति 'मृगचर्या एवं समुट्टियो भिक्खु, एवमेव अणेगए । मिगचारियं चरिताणं, उहूं पक्कमई दिसं एवं समुत्थितो भिक्षुः, एवमेवाऽनेककः । मृगचर्या चरित्वा, उर्व प्रक्रामते दिशम् । ॥२॥ जहा मिए एग अणेगचारी, अणेगवासे धुवगोचरे य।। एवं मुणी गोयरिय पविटे, नो होलए नो वि य खिसएन्जा ॥३॥ यथा मृग एकोऽनेकचारी, अनेकवासो ध्रुवगोचरश्च । एवं मुनिर्गोचर्या प्रविष्टः, नो हीलयेन्नोऽपिच खिसयेत्॥८॥ मिगचारियं चरिस्सामि, एवं पुत्ता जहासुई । अम्मापिऊहिणुन्नाप्रो, जहाइ उवहिं तहा १ पोताने स्थाने Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जैन सिद्धांत पाठमाळा. मृगचर्यौ चरिष्यामि, एवं पुत्र ! यथासुखम् । अम्बापितृभ्यामनुज्ञातः, जहात्युपधि तथा मिगचारियं चरिस्सामि सव्वदुक्खविमोक्खणि 1 तुमेहिं अग्भणुन्नाश्रो, गच्छ पुत्त जहासुहं मृगचर्या चरिष्यामि, सर्वदुःखविमोक्षिणीम् । युष्माम्यामनुज्ञातः, गच्छ पुत्र ! यथासुखम् एवं सो अम्मापियरो, प्रणुमाणित्ताण वहुविहं । ममत्तं छिन्द ताहे, महानागो व कंचुर्य एवं सोऽम्बापितरौ, अनुमान्य बहुविधम् । ममत्वं छिनत्ति तदा, महानाग इव कंचुकम् वित्तं च मित्ते य, पुत्तदारं च नायो । रेणुयं व पडे लग्गं, निदुणित्ताण निमाओ ऋद्धि वित्तं च मित्राणि च पुत्रदाराँश्च ज्ञातीन् । रेणुकमिव पटे लग्नं, निर्धूय निर्गतः पंचमहव्वयजुत्तों, पंचहि समिधो तिगुत्तिगुत्तो य । सम्भिन्तरवाहिरश्रो, तवोकम्मसि उज्जुश्र पंचमहाव्रतयुक्तः, पंचभिः समितस्त्रिगुप्तिगुप्तश्च । साम्यन्तरबाह्ये, तपः कर्मणि उद्युक्तः निम्ममो निरहंकारो, निस्संगो चत्तगारवो । समो य सव्वभूपसु, तसेसु थावरेसु य निर्ममो निरहंकारः, निःसंगस्त्यक्तगौरवः । समश्च सर्वभूतेषु, त्रसेषु स्थावरेषु च लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा | समो निन्दापसंसासु, तहा माणायमाणप्रो ॥ ८४ ॥ ॥६५॥ 115411 ॥६॥ ॥८६॥ 115011 115011 ॥६८॥ ||८|| ॥६६॥ ॥८९॥ 112011 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं १९ - लाभालामे सुखदुःखे, जीविते मरणे तथा । समो निन्दाप्रशंसयोः समो मानापमानयोः ॥९ ॥ गारवेस्तु कसापसु, दण्डसल्लभएमु य । नियत्तो हाससोगाओ, अनियाणो अवन्धवो In गौरवेभ्य: कपायेभ्यः, दण्डशल्यभयेभ्यश्च । निवृत्तो हास्यशोकात् , अनिदानोऽत्रांधवः ॥९॥ अणिन्सिपो इहं लोए, परलोए अणिस्सियो । बासीचन्दणकप्पो य, असणे अणसणे तहा अनिश्रित इह लोके, परलोकेऽनिश्रितः । वासीचन्दनकल्पश्च, अगनेऽनशने तथा ॥९२॥ अप्पसत्यहि दारेहि, सम्वनो पिहियासवे । अमप्पप्रमाणजोगेहि, पसत्यदमसासणे រ अप्रगत्तेभ्यो द्वारेभ्यः, सर्वतः पिहितानवः । अध्यात्मध्यानयोगः, प्रशस्तदमशासन: ॥१३॥ एवं नाणेण चरणेण, दसणेण तवेण य । भावणाहि य सुद्धाहिं, सम्म भावेत्तु अप्पयं पूर्व ज्ञानेन चरणेन, दर्शनेन तपसा च | भावनामिश्च शुद्धाभिः, सम्यग् भावयित्वाऽऽत्मानम् ॥१४॥ वहुयाणि उ वासाणि, सामण्णमणुपालिया । मासिएण उ भत्तेण, सिद्धि पत्तो अणुत्त HE बहुकानि तु वर्षाणि, श्रामण्यमनुपाल्य । मासिकेन तु भक्तेन, सिद्धिं प्राप्तोऽनुत्तराम् ॥९ ॥ एवं करन्ति संवुद्धा, पण्डिया पवियक्खणा । विणिपट्टलि भोगेसु, मियापुत्ते जहामिसी ॥स्था Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जैन सिद्धांत पाठमाळा. - एवं कुर्वन्ति संबुद्धाः, पण्डिताः प्रविचक्षणाः । विनिवर्तन्ते भोगेभ्यः, मृगापुत्रो यथा ऋषिः ॥१६॥ महापभावस्स महाजसस्स, मियाइ पुत्तस्स निसम्म भासियं । तवपहाणं चरियं च उत्तम, गइप्पहाणं च तिलोगविस्तुत।।१७॥ महाप्रभावस्य महायशसः, मृगायाः पुत्रस्य निशम्य भाषितम् । तपःप्रधानं चारित्रं चोत्तम, प्रधानगतिंच त्रिलोकविश्रुताम् ॥१७॥ वियाणिया दुक्खविवद्धर्ण धणं, ममत्तबन्धं च महाभयावहं । सुहावहं धम्मधुरं अणुत्तरं, धारेज निवाणगुणावह मह ।।६८| विज्ञाय दुःखविवर्धनं धनं, ममत्वबन्धं च महाभयावहम् । सुखावहां धर्मधुरामनुत्तरां, धारयध्वं निर्वाणगुणावहांमहतीमा९८॥ ति बेमि ॥इति मयापुत्तीयं अज्मयणं समतं ॥१९॥ इति ब्रवीमि-इति मृगापुत्रीयमध्ययनं समाप्तं ॥१९॥ ॥अह महानियण्ठिज्जं वीसइमं अज्झयणं । ॥ अथ महानिर्ग्रन्थीयं विशतितममध्ययनं ।। सिद्धाण नमो किञ्चा, संजयाणं च भावनो। प्रत्थधम्मगई तचं, अणुसद्धिं सुणेह मे ॥१॥ सिद्धान् नमस्कृत्य, संयताश्च भावतः । अर्थधर्मगति तथ्यां, अनुशिष्टि श्रुणुत मम पभूयरयणो राया, सेणियो मगहाहिवो । विहारजत्तं निजानो, मण्डिकुच्छिसि चेइए ॥२॥ प्रभूतरत्नो राजा, श्रेणिको मगघाधिपः । विहारयात्रया निर्यातः, मण्डितकुक्षौ चैत्ये ॥२|| Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं श्रध्ययनं २०. नाणादुमलयाइणं, नाणापक्खिनिसेवियं । नाणाकुसुमसंकुनं, उज्जाणं नन्दणोवमं नानाद्रुमलताकीर्ण, नानापक्षिनिषेवितम् । नानाकुसुमसंछन्नं, उद्यानं नन्दनोपमम् तत्थ सो पासई साहु, संजयं सुसमाहियं । निसिनं रुक्खमूलग्मि, सुकुमालं सुहोइयं तत्र स पश्यति साधु, संयतं सुसमाहितम् । निषण्णं वृक्षमूले, सुकुमारं सुखोचितम् तस्स रूवं तु पासित्ता, राइणो तम्म संजए । अचन्तपरमो श्रासी, अउलो रूवविहो तस्य रूपं तु दृष्ट्वा, राजा तस्मिन् संयते । अत्यन्तपरम आसीत्, अतुलो रूपविस्मयः अहो वण्णो अहो रुवं, अहो अजस्स सोमया । हो खन्ती हो मुत्ती, ग्रहो भोगे प्रसंगया हो वर्णो हो रूपं, अहो आर्यस्य सौम्यता | अहो क्षान्तिरहो मुक्तिः, अहो भोगेऽसंगता तस्स पाए उ वन्दित्ता, काऊण य पयाहिणं । नाइदूरमणासन्ने, पंजली पडिपुच्छई तस्य पादौ तु वन्दित्वा, कृत्वा च प्रदक्षिणाम् । नातिदुरमनासन्नः, प्राञ्जलिः परिष्टच्छति तरुणो सि जो पन्चदथ्यो, भोगकालम्मि संजया । उवहियो सि सामण्णे, एयमहं सुणेमि ता तरुणोऽस्यार्य ! प्रब्रजितः, भोगकाले संयतः । उपस्थितोंऽसि श्रामण्ये, एतमर्थ शृणोमि तावत् ર૧ ॥३॥ ॥३॥ ||४|| 11811 ॥५॥ ||शा ॥६॥ || 2 || 11911 11011 ||5|| 1111 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१०॥ ॥११॥ २४० जैन सिद्धांत पाठमाळा. श्रणाहोमि महाराय, नाहो मज्म न विजई । अणुकम्पगं सुर्हि वावि, केचि नाभिसमेमहं अनाथोऽस्मि महाराज!, नाथो मम न विद्यते । . अनुकम्पकं सुहृद वापि, कंचिन्नाभिसमेम्यहम् तो सो पहसिनो राया, सेणियो मगहाहियो । एवं ते इडिमन्तस्स, कहं नाहो न विजई ततः स प्रहसितों राजा, श्रेणिको मगधाधिपः । एवं ते ऋद्धिमतः, कथं नाथो न विद्यते होमि नाहो भयंताणं, भोगे भुंजाहि संजया । मित्तनाईपरिखुडो, माणुस्सं खु सुदुल्लहं भवामि नाथो भदन्तानां, भोगान् मुंव संयत ? मित्रज्ञातिपरिवृतः (सन् ), मानुष्यं खलु सुदुर्लभं अप्पणा वि प्रणाहोऽसि, सेणिया मगहाहिवा । अप्पणा प्रणाहो सन्तो, कस्स नाहो भविस्ससि आत्मनाप्यनाथोऽसि, श्रेणिक ! मगधाधिप । आत्मनाऽनाथो सन् , कस्य नाथो भविष्यसि एवं वुत्तो नरिन्दो सो, सुसंभन्तो सुविम्हिनो । वयणं अस्सुयपुत्वं, साहुणा विमायलिश्रो एवमुक्तो नरेन्द्रः सः, सुसंभ्रान्तः सुविस्मितः । वचनमश्रुतपूर्व, साधुना विस्मयान्वितः अस्सा हत्थी मणुस्सा मे, पुरं अन्तेउरं च मे । भुंजामि माणुसे भागे, प्राणा इस्सरियं च मे अश्वा हस्तिनो मनुष्या मे, पुरमन्तःपुरं च में। भुनज्मि मानुण्यान्भोगान, आज्ञैश्वर्य च मे . ॥११॥ ॥१२॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४ ॥१४॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययनं २० - ॥१५॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१६॥ ॥१७॥ एरिले सम्पयाम्मि, सव्वकामसमप्पिए । कह प्रणाही भवइ, मा हु भन्ते मुसं वए ईद संपदग्ने, समर्पितसर्वकामे । कथमनाथो भदति, मा खलु भदन्त ? मृषा वदतु न तुम जाणे अणाहस्स, श्रन्थं पोत्थं च पस्थिवा। जहा अणाहो भवई, सगाहो वा नरहिवा । न त्वं जानोषेऽनाथस्य, अर्थं प्रोत्यां च पार्थिव !। यथाऽनाथो भवति, सनायो वा नराधिप ! सुणेह मे महाराय, अक्सित्तेण चेयसा । जहा अणाहो भवई, जहा मेयं पत्तियं शृणु मे महाराज !, अव्याक्षिप्तेन चेतसा । यथाऽनाथो भवति, यथा मयैतत् प्रवर्तितम् कोसम्वी नाम नयरी, पुराण पुरभेयणी। तत्थ प्रासी पिया मज्म, पभूयधणसंचयो कौशाम्बी नाम्नी नगरी, पुराणपुरभेदिनी । तत्रासीतपिता मम, प्रभूतधनसंचयः पढमे ए महाराय, अउला मे अच्छिवेयणा । ग्रहोत्था विउलो दाहो, सव्वगत्तेपु पस्थिवा प्रथमे वयसि महाराज !, अतुला मेऽक्षिवेदना। अभूद विपुलो दाहः, सर्वगात्रेषु पार्थिव ? सत्यं जहा परमतिक्र, सरीरविवरन्तरे । श्रावलिल घरी कुद्धो, एवं मे अच्छिवेयणा शस्त्रं यथा परमतीक्ष्ण, शरीरविवरांतरे । आपीडयेदरिः क्रुद्धः, एवं मेऽक्षिवेदना १ भावार्थ. ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१६॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२०॥ - Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा pm ॥२२॥ ॥२२॥ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२३॥ तियं मे अन्तरिच्छं च, उत्तमंग व पोडई । इन्दासणिसमा घोरा, वेयणा परमदारुणा त्रिकं म 'अन्तरेच्छ च, उत्तमांगं च पिडयति । इन्द्राशनिसमा घोरा, वेदना परमदारुणा उवड़िया मे पायरिया, विजामन्ततिगिच्छगा । अबीया सत्थकुसला, मन्तमूलविसारया उपस्थिता ममाचार्याः, विद्यामंत्रचिकित्सकाः । अद्वितीयाः शास्त्रकुशलाः, मत्रमूलविशारदाः ते मे तिगिच्छ कुन्वन्ति, चाउप्पाय जहाहियं । न य दुक्खा विमोयन्ति, एसा मज्म अणाहया ते मे चिकित्सां कुर्वन्ति, 'चतुष्पादां यथाख्याताम् । न च दुःखादविमोचयन्ति, एषा ममाऽनाथता पिया मे सव्वसारंपि, दिजाहि मम कारणा। न य दुक्खा विमोयन्ति, एसा मज्म अणाहया पिता मे सर्वसारमपि, अदान् मम कारणात् । न च दुःखाद्विमोचयति, एषा ममाऽनाथता माया वि मे महाराज, पुत्तसोगदुहट्टिया। न य दुक्खा विमोयन्ति, एसा मझ प्रणाहया माताऽपि मे महाराज !, पुत्रशोकदुःखातो । न च दुःखाद्विमोचयति, एषा ममाऽनाथता भायरो मे महाराय, सगा जेट्टकोणहगा । न य.दुक्खा विमोयन्ति, एसा मज्म अणाहया भ्रातरो मे महाराज ? स्वका ज्येष्ठकनिष्ठकाः। न च दुःखादिमोचयन्ति, एषा ममाऽनाथता १ इच्छा भग्लु हृदय २ चार प्रकारला उपायवाळी. ॥२४॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ ॥२६॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ४३ - ॥२७॥ ॥२७॥ ॥२८॥ ॥२८॥ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं २० भरणीम्रो मे महाराय, सगा जेटुकणिठगा । न य दुक्खा विमोयन्ति, एसा मज्म अणाहया भगिन्यों में महाराज !, स्वका ज्येष्ठकनिष्ठकाः । न च दुःखाद्विमोचयन्ति, एषा ममाऽनाथता भारिया में महाराय, अणुरत्ता अणुव्वया ।। अंसुपुण्णेहि नयणेहि, उरं मे परिसिचई भार्या मे महाराज ! , अनुरक्ताऽनुव्रता । अश्रुपूर्णाभ्यां नयनाभ्यां उरो मे परिसिञ्चति अन पाणं च हाणं च, गन्धमल्लविलेवणं । मए नायमनायं वा, सा वाला नेव भुजई अन्नं पानं च स्नानं च, गन्धमाल्यविलेपनम् । मयाज्ञातमज्ञातं वा, सा वाला नेव भुंक्ते खणं पि मे महाराय, पासायो मे न फिई । न य दुक्खा विमोएइ, एसा मज्झ अण्णहया क्षणमपि मे महाराज ? पाश्वतो मे नापयाति । न च दुःखादिमोचयति, एषा ममाऽनाथता तश्रो हं एवमासु, दुक्खमा हु पुणो पुणो । वेयणा अणुविउ जे, संसारम्मि अणन्तए ततोऽहमेवमब्रुवम् , दुःक्षमा हु पुन:पुनः। वेदनाऽनुभवितुं या, संसारेऽनन्तके संयं च जइ मुभेजा, क्यणा विउला इयो । खन्तो दन्तो निरारम्भो, पन्चए अणगारियं सकच्च यदि मुच्ये, वेदनाया विपुलाया इतः । क्षान्तो दान्तो निरारभः, प्रव्रजाम्यनगारिताम् ॥२९॥ Mon ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३२॥ ॥३२॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪ जैन सिद्धांत पाठमाळा. एवं च चिन्तइत्ताणं, पसुत्तो मि नराहिबा । परीयत्तन्तीए राईए, वेयणा में खयं गया ॥३३॥ एवं च चिन्तयित्वा, प्रसुप्तोऽस्मि नराधिप ? परिवर्तमानायां रात्रौ, वेदना मे क्षयं गता ॥३३॥ तो कल्ले पभायम्मि, आपुच्छिताण बन्धदे । खन्नो दन्तो निरारम्भो, पबइयोऽणगारियं ॥३४॥ तत: 'कल्यः प्रभाते, आटच्छय बान्धवान् । क्षान्तो दान्तो निरारंभा, प्रव्रजितोऽनगारिताम् ॥३४॥ तो हं नाहो जायो, अप्पणो य परस्स य । सव्वेसिं चेव भूयाणं, तसाण थावराण य ततोऽहं नाथो जातः, आत्मनश्च परस्य च । सर्वेषां चैव भूतानां, सानां स्थावराणाम् च अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नन्दणं वणं आत्मा नदी वैतरणी, आत्मा मे कूटशाल्मली। आत्मा कामदुधा धेनुः, आत्मा मे नन्दनं वनम् ॥३६॥ अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य ।. अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्टिय सुपट्टिो ॥३७॥ आत्मा कर्ता विकरिता च, दुःखानां च सुखानां च।। आत्मा मित्रममित्रश्च, दुःप्रस्थित: सुप्रस्थितः ॥३॥ इमा हु अन्ना वि अणाहया निवा, तमेगचित्तो निहुप्रो सुणेहि । नियण्ठधम्म लहीयाण वी जहा, सीयन्ति एगे वहुकायरा नरा॥३८॥ इयं खल्वन्याप्यनाथता नप ?, तामेकचित्तो निभृतः शृणु । निर्ग्रन्थधर्म लब्ध्वाऽपि यथा, सीदन्त्येके बहुकातरा नराः॥३८॥ १ निरोगी. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन खूत्रं अध्ययनं २० २४५ - जो पवईत्ताण महन्बयाई, सम्मं च नी फासयई पमाया। निग्गप्पा य रसेसु गिद्धे, न मूलयो छिन्नइ बन्धणं से ॥३॥ यः प्रवज्य महाव्रतानि, सम्यक् च नों स्टशति प्रमादात् । अनिगृहीतात्मा च रसेषु गृहः, न मुलतः छिनत्ति बंधनं सः आउत्तया जस्स न अस्थि काइ, इरियाए भासाए तहेसणाए । आयाणनिक्खेवदुर्गुणाए, न वीरजार्य अणुजाइ मगं ॥४०॥ आयुक्तता यस्य नास्ति कापि, ईर्यायां भाषायां तथैषणायाम् । आदाननिक्षेपजुगुप्सनासु, न वीरयातमनुयाति मार्गम् ॥४०॥ विरं पि से मुण्डाई भवित्ता, अथिरन्बए तवनियमेहि भट्टे। चिरं पि अप्पाण किलेसइत्ता, न पारए होइ हू संपराए ॥४॥ चिरमपि स मुण्डरुचिर्भूत्वा, अस्थिरव्रतस्तपोनियमेभ्यो भ्रष्टः । चिरंमप्यात्मानं क्लेशयित्वा, न पारगो भवति खलु संपरायस्य।। पोल्ले व मुट्ठी जह से असारे, अयन्तिए कूडकहावणे वा । राढामणी वेरुलियप्पगासे, अमहग्धए होइ हु जाणएसु ॥४२॥ सुषिरेव मुष्टियथा स असारः, अयंत्रितः कूटकार्षापण इव । राढामणिवैडूर्यप्रकाश:, अमहाघको भवति खलु ज्ञेषु ॥४२॥ कुसीललिंग इह धारइत्ता, इसिज्मयं जीविय वूहदत्ता । असंजए संजयलप्पामाणे, विणिग्यायमागच्छद से चिरंपि ॥४॥ कुशीललिगमिह धारयित्वा, ऋषिध्वज जीवितं बृहयित्वा । असंयतः सयतमिति लपन, विनिधातमागच्छतिस चिरमपि॥४३॥ विसं तु पीय जंह कालकूड, हणाइ सत्यं जह कुमाहोय । एसोवि धम्मो विसोववन्नो, हणाइ वेयोल इवाविवनो Ben विषं तु पीत यथा कालकूट, हिनस्ति शस्त्रं यथा कुगृहीतम् । एषोऽपिधर्मो विषयोपपन्न:, हन्ति वेताल इवावि पन्नः॥४४॥ १ नहि क्श येलो. - Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. जे लक्षणं सुविण पउंजमाणे, निमित्तकोऊहलसंपगाढे । कुहेडविजासवदारजीवी, न गच्छई सरणं तम्मि काले ॥४५॥ यो लक्षणं स्वप्नं प्रयुजानः, निमित्तकौतुहलसंप्रगाढः । कुहेटकविद्यालवद्वारजीवी, न गच्छति शरणं तस्मिन् काले॥४५ तमंतमेणेव उसे असीले, सया दुही विप्परियामुवेइ । संधावई नरगतिरिक्खजोणि, मोणं विराहेत्तु असाहुरुवे ॥४६॥ तमस्तमसैव तु स अशीलः, सदा दुःखी विपर्यासमुपैति । संघावति नरकतिर्यग्योनीः, मौंन विराध्याऽसाधुरूपः ॥४६॥ उहेसियं कीयगडं नियागं, न मुंचई किंच अणेसणिज । अन्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता, इत्तो चुए गच्छा कट्ट पाया औद्देशिकं क्रीतकृतं नियागं, न मुंचति किंचिदनेषणीयम् । अग्निरिव सर्वभक्षीभूत्वा, इतथ्यतो(दुर्गति)गच्छति कृत्वा पापम् न त अरी कंउछेत्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पया । से नाहइ मच्चुमुहं तु पत्ते, पच्छाणुतावेण दयाविहूणो ॥४८॥ न तदरिः कंठछेत्ता करोति, यत्तस्य करोत्यात्मीया दुरात्मता । स ज्ञास्यति मृत्युमुख तु प्राप्तः, पश्चादनुतापेन दयाविहीनः॥४८॥ निरट्टिया नग्गरुई उ तस्स, जे उत्तमटुं विवज्जासमेइ । इमे वि से नत्थि परे वि लोए, दुहश्रो वि से मिजइ तत्थ लोए॥ निरथिका नाग्न्यरुचिस्तु तस्य, य उत्तमाथ विपर्यासमेति । अयमपि तस्य नास्ति परोऽपि लोकः,द्विधापि सक्षीयते तत्र लोके एमेव हा छन्दकुसीलरूवे, मग विराहित्तु जिणुत्तमाणं । कुररी विवा भोगरसाणुगिद्धा, निरहसोया परियावमेइ ॥१०॥ एवमेव यथा छन्दकुशीलरूपा, मार्ग विराध्य जिनोत्तमानाम् । कुररीव भोगरसानुगृद्धा, निरर्थशोका परितापमेति ॥९॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९ - - ॥५७ जैन सिद्धांत पाठमाळा. पुच्छिऊण मर तुन्भ, माणविग्यानो जो करो। निमन्तिया य भोगेहि, ते सर्व मरिसेहि मे दृष्ट्वा मया युष्माकं, ध्यानविघातस्तु यः कृतः । निमंत्रिताश्च भोगः, तत्सर्व मर्षयतु मे ॥७॥ एवं थुणित्ताण स रायसीहो, अणगारसीहं परमाइ भत्तीए। सोरोहो सपरियणो सन्धवों, धम्माणुरत्तो विमलेण चेयसा ॥ एवं स्तुत्वा स राजसिहः, अनगारसिहं परमया भक्त्या । सावरोधः सपरिजनः सबान्धवः,धर्मानुरक्तो विमलेन चेतसा॥१८॥ ऊससियरोमकूवो, काऊण य पयाहिणं । अभिवन्दिऊण सिरसा, अइयाओं नराहिवो उच्छवसितरोमकूपः, कृत्वा च प्रदक्षिणाम् । अभिवन्ध शिरसा, अतियातो नराधिपः ॥९॥ इयंरो वि गुणसमिद्धो, तिगुत्तिगुतो तिदण्डविरो य । विहग इव विष्पमुक्को, विहरई वसुई विगयमोहो ॥६॥ इतरोऽपि गुणसमृद्धः, त्रिगुप्तिगुप्तसिदण्डविरतश्च । विहंग इव विप्रमुक्तः, विहरति वसुधायां विगतमोहः ॥३०॥ ति बेमि ॥ महानियण्ठिंज वीसइम अज्मायणं समत्तं ॥२०॥ इति ब्रवीमि महानिग्रंथीय विशतितममध्ययनं समाप्तं ॥ ॥ अंह समुद्दपालीय एगवीसइमं अज्झयणं ।। ॥ अथ समुद्रपालीयमेकविशमध्ययनं ।। वम्पाए पालिए नाम, सावए प्रासि वाणिए । पहावीरस्स भगवश्रो, सीसे सो उ महप्पणो चम्पायां पालितो नाम, श्रावक आसी, वणिकू। महावीरस्य भगवतः शिष्यः स तु महात्मनः Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं २१. २४३ ॥३॥ ॥३॥ ॥ निग्गन्ये पावयणे, सावए से वि कोविए । पीएण ववहरन्ते, पिहुण्डं नगरमागए नैनन्थे प्रावचने, श्रावकः सोऽपि कोविदः । पोतेन व्यवहरन, पिहुण्डं नगरमागतः । पिहुंढे घवहरन्तस्स, वाणिनो देइ धूयरं । तं ससत्तं पइगिज्म, सदेसमह पत्थिश्रो पिहुण्डे व्यवहरते (तस्मै), वणिग् ददाति दुहितरम् । तां ससत्त्वां प्रतिगृह्य, स्वदेशमथ प्रस्थितः अह पालियस्स घरिणी, समुद्दम्मि पसवई । अह वालए तहिं जाए, समुद्दपालि ति नामए अथ पालितस्य गृहिणी, समुद्रे प्रसूते (स्म)। अथ बालकस्तस्मिाते, समुद्रपाल इति नामतः खेमेण भागए चम्पं, सावए वाणिए घरं । संवदुई घरे तस्स, दारए से सुहोइए। क्षेमेणागते चम्पायां, श्रावके वणिनि गृहम् । संवर्धते गृहे तस्य, दारकः स सुखोचितः वावत्तरी कलाश्रो य, सिक्सई नीइकोविए । जोवणेण य संपचे, सुरुवे पियदसणे द्वासप्तति कलाश्च, शिक्षितो नीतिकोविदः । यौवनेन च संपन्नः, सुरूप. प्रियदर्शनः तस्स रूक्वई भजं, पिया प्राणेड रूविणिं । पासाए कीलए रस्मे, देवो दोगुन्दनो जहा तस्य रूपवती भायों, पिताऽऽनयंति रूपिणीम् । प्रासादे क्रीडति रम्ये, देवो दोगुंदको यथा llon Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैन सिद्धांत पाठमाळा. अह अनया कयाई, पासायालोयणे ठियो । वज्म मण्डणसोभाग, वझ पासह वज्मगं ॥८॥ अथान्यदा कदाचित् , प्रासादालोकने स्थितः । वध्यमण्डनशोभाकं, वध्यं पश्यति 'वध्यगम् तं पासिऊण संवेग, समुद्दपालो इणमब्बवी । अहोऽसुभाण कम्माणं, निजाणं पावर्ग इस NER तं दृष्ट्वा संवेग, समुद्रपाल इदमब्रवीत् । अहो अशुभानां कर्मणां, निर्याणं पापकमिदम् ॥९॥ संबुद्धो सो तहिं भगवं, परमसंवेगमागो। श्रापुच्छम्मापियरो, पन्चए अणगारियं ॥१०॥ संबुद्धः स तत्र भगवान् , परमसंवेगमागतः । आटच्छय मातापितरौ, प्रव्रजितोऽनगारिताम् जहित्तु समान्थमहाकिलेसं, महन्तमोहं कसिणं भयावहै । परियायधम्म च भरोयएजा, क्याणि सीलाणि परीसहे य॥११॥ हित्वा सद्ग्रन्थमहाक्लेश, महामोहं कृत्स्नं भयावहम् । पर्यायधर्म चाभिरोचयति, व्रतानि शीलानि परिषहाश्च ॥११॥ अहिंससचं च प्रतेणगं च, तत्तो य वम्म अपरिगाहं च । पडिवजिया पंच महन्वयाणि, चरिज धम्म जिणदेसियं विदू॥१२॥ अहिसा सत्यं चास्तेनकं च, ततश्चाब्रह्मापरिग्रहं च । । प्रतिपद्य पंचमहाव्रतानि, चरति धर्मं जिनदेशितं विद्वान् ॥१२॥ सम्वेहि भूएहि दयाणुकम्पी, खन्तिक्खमे संजयवम्भयारी । सावजजोगं परिवजयन्तो, चरिज भिक्खू सुसमाहिइदिए ॥१३॥ सर्वेषु मूतेषु दयानुकम्पी, क्षान्तितमः संयतब्रह्मचारी। सावद्ययोगं परिवर्जयन् , चरेदभिक्षुः सुसमाहितेन्द्रियः ॥१३॥ १ वध्यभूमिपरजता. - Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उत्तराध्ययन सूर्य अध्ययनं २१. २५१ कालेण कालं विहरेज रहे, बलावलं जाणिय अप्पणो य । सीहोव सद्देण न सन्तसेन्जा, वयजोग सुथान असम्भमाहु ॥१४॥ कालेन कालं विहरेत् राष्ट्रे, वलमवलं ज्ञात्वाऽऽत्मनश्च । सिह इव शब्देन न संत्रस्येत् , वागयोग श्रुत्वा नासम्यं ब्रूयात्।। उवेहमाणो उ परिचएजा, पियमप्पियं सब तितिक्खएजा । न सब सव्वत्थऽभिरोयएजा, न यावि पूर्य गरहं च संजए॥१५॥ उपेक्षमाणस्तु परिव्रजेत् , प्रियमप्रियं सर्व तितिक्षेत् । न सर्वं सर्वत्रामिरीचयेत् , न चापि पूनां गहीं च संयतः॥११॥ प्रणेगच्छन्दामिह माणवेहि, जे भावों संपगरेइ भिक्खू । भयभेरवा तत्थ उइन्ति भीमा, दिव्वा माणुस्सा अदुवा तिरिच्छा ॥ अनेकछंदांसीह मानवेषु, यान्मावतः संप्रकरोति भिक्षुः । भयभैरवास्तत्रोवन्ति भीमाः, दिव्या मानुप्या अथवा तेरश्चाः॥१६॥ परीसहा दुब्बिसहा अणेगे, सीर्यान्त जत्था वहुकायरा नरा । से तस्य पत्ते न वहिज भिक्खू, संगामसीसे इव नागराया ॥१७॥ परिषहा दुर्विषहा अनेके, सीदति यत्र बहुकातरा नराः । स तत्र प्राप्तो नाव्यथत भितुः, संग्रामशीर्ष इव नागराजः।१७॥ सीभोसिणा दसमसा य फासा, पायंका विविहा फुसन्ति देहं । अकुक्कुभो तत्थऽहियासपज्जा, रयाइ खेवेज पुरे कयाई ॥१८॥ शीतोष्णा दंशमशकाश्च स्पर्शाः, आतंका विविधाश्च स्टशंति देहम्। अकुत्कुचस्तत्राधिसहेत, रजांसि क्षपयेत् पुराकृतानि ॥१८॥ पहाय रागं च तहेव दोस, मोहं च भिक्खू सततं वियक्खणो। मेरु व चारण अकम्पमाणो, परीसहे पायगुत्ते सहेजा ॥१६॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जैन सिद्धांत पॉठमोळा. प्रहाय रागं च तथैव द्वेष, मोहं च मितेः सततं विचक्षणः । मेरुरिव वातेनाकंपमानः, परिषहान् गुप्तात्मा सहेत ॥१९॥ अणुन्नए नावणए महेसी, न यावि पूर्य गरहं च संजए। स उजुभावं पंडिवजे संजए, निवाणमन्गं विरएं उई ॥२०॥ अनुन्नतो नावनतो महर्षिः, न चापि पूनां गही च संयतः। स ऋजुभावं प्रतिपद्यं संयतः, निर्वाणमार्ग विरत उपैति॥२०॥ अरइरइसहे पहीणसंथवे, विरंए श्रीयहिएं पहाणव । परमट्टपरहि चिट्टई, छिनसोए अममे अकिंचणे ॥२२॥ अरतिरतिसहः प्रहीणसंस्तवः, विरत आत्महितः प्रधानवान् । परमार्थपदेषु तिष्ठति, छिन्नशोकोऽममोऽकिचनः ॥२१॥ विवित्तलयणाइ भएज ताई, निरोवलेवाइ असंथडाई । इसीहि चिण्णाई महायसेहि, कारण फासेज परीसहाई ॥२२॥ विविक्तलेयनानि भजेत त्रायी, निरुपलेपान्यसंस्कृतानि । ऋषिभिश्चीर्णानि महायशोमिः, कायेन स्टशति परिषहान्॥२२॥ सन्नाणनाणोवगए महेसी, अणुत्तरं चरिडं धम्मसंचयं । अणुत्तरे नाणधर जसंसी, श्रोमांसई सूरिए वन्तलिंक्खे ॥२३॥ सज्ञानज्ञानोपगतो महर्षिः, अनुत्तरं चरित्वा धर्मसंचयम् । अनुत्तरो ज्ञानधरो यशस्वी, अवभासते मूर्य इवान्तरिक्ष।।२३॥ दुविहं खऊण य पुण्णपावं, निरंगणे सव्वो विप्पमुक्के। तरित्ता समुंई महाभवो| समुहपाले अपुणागर्म गए ॥२४॥ द्विविध क्षेपयित्वा च पुण्यपापं निरंगन: सर्वतो विप्रमुक्तः । तीवा समुद्रमिव महामवौघ, संमुद्रपालोऽपुनरागमां गतमा२४॥ आत्ति बेमि ॥ इति समुहपालीयं एगवीसइम अज्मयणं समतं ॥२१॥ इति ब्रवीमि इति समुद्रपालीयमेकविशमध्ययनं समाप्त॥२१॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रा उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं २२, २५३ ॥ अह रहनेमिनं वावीसइमं अज्झयणं ॥ ॥ अथ रथनेसीयं द्वाविंशमध्ययनं ॥ सोरियपुरम्मि नयरे, पासि राया महिडिए । वसुदेदु ति नामेणं, सयलक्खणसंजुए शौर्यपुरे नगरे, आसीद्वाजा महर्दिकः । वसुदेव इति नाम्ना, राजलक्षणसंयुतः तस्स भज्जा दुवे प्रासी, रोहिणी देवई तहा । तासि दोण्हं दुचे पुत्ता, इट्टा रामकेसवा तस्य भार्ये द्वे आस्तां, रोहिणी देवकी तथा । तोद्वयोह्रौं पुत्रौ, इष्टौ रामकेशवौ सोरियपुरम्मि नयरे, पासि राया महिहिए । समुद्दविजए नाम, रायलक्खणसंजुए शौर्यपुरे नगरे, आसीद्राजा महद्धिकः । समुद्रविजयो नाम, राजलक्षणसंयुतः तस्स भजा सिवा नाम, तीसे पुत्तो महायसो। भगवं अरिनेमि ति, लोगनाहे दमीसरे तस्य भार्या शिवा नाम्नी, तस्याःपुत्रो महायशाः । भगवानरिष्टनेमिरिति, लोकनाथा दमीश्वरः सोऽरिट्टनेमिनामो उ. लक्खणस्सरसंजनों । असहस्सलक्खणधरो, गोयमो कालगन्छवी स अरिष्टनेमिर्नामा तु, स्वरलक्षणसंयुतः । अप्टसहस्रलक्षणधरः, गौतमः कालकच्छवि: वजरिसहसंघयणो, समचउरंसो कसोयरो। तस्स रायमईकन्न, भज्ज जायह केसवो ॥धा ॥४॥ पा Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ जैन सिद्धांत पाठमाळा. - ॥६॥ ॥॥ वर्षभनाराचसंहननः, समचतुरस्रो मषोदरः। तस्य राजीमती कन्यां, भार्यार्थ याचते केशवः श्रह सा रायवरकना, सुसीला चारुपेहणी । सन्वलक्खणसंपन्ना, विज्जुसोयामणिप्पभा अथ सा राजवरकन्या, सुशीला चारुक्षिणी। सर्वलक्षणसंपन्ना, विद्युत् सौदामिनीप्रभा अहाह जणश्रो तीसे, वासुदेवं महिहियं । इहागच्छउकुमारो, जा से कनं ददामि हं अथाह जनकस्तस्याः, वासुदेवं महर्चिकम् । इहागच्छतु कुमारः, येन तस्मै कन्यां ददाम्यहं सम्बोसहीहिं हवियो, कयकोउयमंगलो । दिवजुयलपरिहिश्रो, प्राभरणेहिं विभूसिनो सौषधिभिः स्नपितः, कृतकौतुकमंगलः । दिव्ययुगलपरिहितः, आभरणेविभूषितः मत्तं च गन्धहत्यि, वासुदेवस्स जेहगं । प्रारूनो सोहए अहियं, सिरे चूडामणी जहा मत्तं च गन्धहस्तिनं, वासुदेवस्य ज्येष्ठकम् । आरूढः शोभतेऽधिकं, शिरसि चूडामणिर्यथा श्रह ऊसिएण छत्तेण, चामराहि य सोहिए । दसारचक्केण य सो, सव्वश्रो परिवारियो अथोच्छितेन छत्रेण, चामराभ्यां च शोभितः । दशाहचक्रेण च सः, सर्वतः परिवारितः चउरंगिणीए सेणाए, रइयाए जहक्कम । तुरियाण सन्निनाएण, दिव्वेण गगणं फुसे ॥९॥ ॥१२॥ ॥१२॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं २२. २५५ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१३॥ ॥१४॥ चतुरंगिण्या सेनया, रचितया यथाक्रमम् । तर्याणां सन्निनादेन, दिव्येन गगनस्टशा एयारिसाए इट्टीए, जुत्तीए उत्तमाइ य । नियगायो भवणाओ, निजाश्रो वहिपुंगवो एतादृश्या अध्या, द्युत्योत्तमया च । निजकाद् भवनात् , निर्यातो वृष्णिपुंगवः अह सो तत्थ निजन्तो, दिस्स पाणे भयहुए । वाडेहिं पंजरेहिं च, सन्निरुद्ध सुदुक्खिए अथ स तत्र निर्यन् , दृष्ट्वा प्राणिनो भयद्रुतान् । वाटकैः पञ्जरैश्च, सन्निरुद्वान् सुदुःखितान् जीवियन्तं तु सम्पत्ते, मंसहा भक्खियम्बए । पासित्ता से महापन्ने, सारहिं इणमन्ववी जीवितान्तं तु संप्राप्तान , मांसार्थ भक्षयितव्यान् । दृष्ट्वा स महाप्राज्ञः, सारथिमिदमब्रवीत् कस्स अट्ठा इमे पाणा, एए सब्वे सुहेसिणो । वाडेहिं पंजरेहि च, सन्निरुद्धा य अच्छहिं कस्यार्थमिमे प्राणिनः, एते सर्वे सुखपिणः । वाटकैः पञ्जरैश्च, सन्निरुद्धाश्च तिष्ठन्ति अह सारही तनो भणई, एए भद्दा उ पाणिणो । तुम विवाहकजम्मि, भोयाउं बहुं जणं अथ सारथिस्ततो भणति, एते भद्रास्तुप्राणिनः । युप्माकं विवाहकायें, भोजयितुं वहुँ जनम् सोऊण तस्स वयणं, वहुपाणिविणासणं । चिन्तेइ से महापन्नो, साणुक्कोसे जिए हिज ॥१५॥ ॥१७॥ ॥१७॥ ॥१॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २५६ जैन सिद्धांत पाटमाळा. श्रुत्वा तस्य वचनं, बहुप्राणिविनाशनम् । चिन्तयति स महाप्राज्ञः, 'सानुक्रोशो जीवेषु तु ॥१८॥ जइ मज्म कारणा एए, हम्मन्ति सुबहू जिया। न मे एयं तु निस्सेसं, परलोगे भावरसई ॥१६॥ यदि मम कारणादेते, हनिप्यन्ते सुबहवो जीवाः । न म एतन्निःश्रेयसं, परलोके भविष्यति ॥१९॥ सो कुण्डलाण जुयलं, मुत्तमं च महायसो । प्राभरणाणि य सवाणि, साहिस्स पणामए ॥२०॥ स कुण्डलयोयुगलं, सूत्रकं च महायशाः । आभरणानि च सर्वाणि, सारथये प्रणामयति ॥२०॥ मणपरिणामो य को, देवा य जहोइयं समोइण्णा । सव्वदीइ सपरिसा, निक्खमणं तस्स काउं जे ॥२१॥ मन:परिणामे च कृते, देवाश्च यथोचितं समवतीर्णाः । सर्वा सपरिषदः, निष्क्रमणं तस्य कर्तुम् ये ॥२१॥ देवमणुस्सपरिचुडो, सिवियारयणं तो समारुढो । निक्खमिय वारगायो, खययंम्मि द्विश्रो अगवं ॥२२॥ देवमनुष्यपरिवृतः, शिचिकारत्नं ततः समारूढः । निःक्रम्य द्वारकातः रैवतके, स्थितो भगवान् ॥२२॥ उजाणं संपत्तो, श्रोइण्णी उत्तमाउ सीयात्रो । साहस्सोइ परिसुडो, श्रह नियमई उचिदाहिं ॥२३॥ उद्यान संप्राप्तः, अवतीर्ण उत्तमायाः शिविकायाः । सहस्रेण परिवृतः, अथ नि:कामति तु चित्रानक्षत्रे ॥२३॥ ग्रह से सुगन्धगन्धीए, तुरियं मउकुंचिए । सयमेव लुचई केसे, पंचमुट्ठीहिं समाहिओ १ दयावाळो. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं २२. अथ स मुगन्धगन्धिकान् , त्वरितं मृदुककुंचितान् । स्वयमेव लुञ्चति केशान् , पंचमुष्टिभिः समाहितः ॥२१॥ वासुदेवो य णं भणा, लुत्तकेसं जिइन्दियं । इच्छियमणोरहं तुरिय, पावसु तं दमीसरा वासुदेवश्च (त) भणति, लुप्तकेशं जितेन्द्रियम् । इप्सितमनोरथं त्वरितं, प्राप्नुहि त्वं दमीश्वर ! ॥२५॥ नाणेणं ईसणेणं च, चरित्तेण तहेव य । खन्तीप मुत्तीए, वट्टमाणो भवाहि र ज्ञानेन दर्शनेन च, चारित्रेण तथैव च । क्षान्त्या मुक्त्या, वर्षमानो भव च एवं ते रामकेसा , दसारा य वह जणा। अस्टिनेमि वन्दित्ता, अभिगया चारगापुरि ॥२७॥ एवं तौ रामकेरावौ, दगाहांश्च बहुजनाः । अरिष्टनेमि वन्दित्वा, अभिगता द्वारकापुरीम् २७॥ सोऊण रायकना, पन्दनं सा जिणस्स उ । नोहासा य निराणन्दा, सोगेण उ समुत्थिया ॥२॥ श्रुत्वा राजकन्या, प्रव्रज्यां सा निनस्य तु । निहाया च निरानन्दा, शोकेन तु (समवमृता) समुत्थिना॥२८॥ राईमई विचिन्तइ. विल्यु मम जीवियं । जा हं तण परिश्चत्ता, लयं पचाउं मम Ran राजीमती विचिन्तयति, विगम्तु मम जीवितम् । याऽहं तेन परित्यक्ता, श्रेयः प्रव्रनिनु मम ॥२२॥ श्रह सा भमरसरिभ. कुचफजगपसाहिए । सममेद लुचई केमे, बिहमन्ता ववस्तिया Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. अथ सा भ्रमरसन्निभान्, 'कुर्चफनक प्रसाधितान् । स्वयमेव लुंचति केशान्, धृतिमती व्यवसिता वासुदेवो य णं भणा, लुत्तकेसं जिइन्दियं । संसारसागरं घोरं, तर कन्ने लहुँ लडे ॥३॥ वासुदेवश्च तां भणति, लुप्तकेशां जितेन्द्रियाम् । संसारसागरं घोरं, तर कन्ये लघुलघु ॥३१॥ सा पवाया सन्ती, पवावेसी तहिं बहुं । सयणं परियणं चेव, सीलवन्ता बहुस्सुया રૂરી सा प्रवनिता सती, प्रव्राजयामास तस्यां बहून् । स्वजनान् परिजनश्चैिव, शीलवती बहुश्रुता गिरि रेवतयं जन्ती, वासेणुल्ला उ अन्तरा । पासन्ते अन्धयारम्मि, अन्तो लयणस्स ठिया ॥३३॥ गिरि रैवतकं यांती, वर्षेणार्दा त्वन्तरा । वर्षत्यन्धकारे, अन्तरा लयनस्य (सा) स्थिता ॥३३॥ चीवराई विसारन्ती, जहा जाय त्ति पासिया । रहनेमी भगचित्तो, पच्छा दिट्ठो य नीड वि चीवराणि विस्तारयन्ती, यथानातेति दृष्ट्वा । रथनेमिर्भग्नचित्तः, पश्चाद् दुष्टश्च तयापि भीया य सा तहिं दई, एगन्ते संजयं तयं । बाहाहि काउ संगोप्फ, वेवमाणो निसीयई ॥३५॥ भीता च सा तत्र दृष्ट्वा, एकान्ते संयतं तकं । बाहुभ्यां कृत्वा "संगोफ, वेपमाना निघोदति ॥३५॥ १ जाडा दांतावालो लोखीयो. २ झोणावातावाळी कांक्सी. ३ जल्दी जल्दी, ४ अंगगोपन, ॥३४॥ - Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं २२ २५६ - ग्रह सो वि रायपुत्तो, समुहविजयगनो। भीयं पवेत्रियं दई, इमं वकं उदाहर ॥३॥ अथ सोऽपि राजपुत्रः, समुद्रविनयांगजः । भीतां प्रवेपितां दृष्ट्वा, इदं वाक्यमुदाहृतवान् रहनेमी अहं भहे, सुल्वे चारुभासिणी । मर्म भयाहि सुतणु, न ते पीला भविस्सई ॥३७॥ रथनेमिरहं भद्रे ! सुरूपे ! चारुभाषिणि !! मां भजस्व सुतनो !, न ते पोडा भविष्यति ॥३७॥ एहि ता भुजिमो भोए, माणुस्सं खु सुदुलहं । भुत्तभोगी तो पच्छा, जिणमन्गं चरिस्समो ॥३८॥ ऐहि तावद भुञ्जीवहि भोगान् , मानुष्यं खलु सुदुर्लभम् । भुक्तभोगौ ततः पश्चात् , जिनमार्ग चरिप्यावः ॥३८॥ दहण रहनेमि तं, भगुजोयपराजियं । राईमई असम्भन्ता, अप्पाणं संवरे तहिं ॥३॥ दृष्ट्वा रथनेमि तं, भग्नोद्योगपराजितम् । राजीमत्यसंभ्रान्ता, आत्मानं समवारीत् तत्र !॥३९॥ अह सा रायवरकता, सुहिया नियमावए । जाई कुलं च सीलं च, रक्खमाणी तयं वए अथ सा रानवरकन्या, सुस्थिता नियमव्रते । जाति कुलं च शील च, रक्षन्ती तकमवदन् ॥४०॥ जइ सि रवेण वेसमणो, ललिएण नलकुबरो। तहा वि ते न इच्छामि, जइ सि सक्खं पुरंदरो यद्यसि रूपेण वैश्रमणः, ललितेन नलकूबरः। तथापि त्वां नेच्छामि, यद्यसि साक्षात् पुरंदरः mor Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं २३. उग्गं तवं चरित्ताणं, जाया द्रोणि वि केवली । सब कम्म खवित्ताणं, सिद्धि पत्ता अणुत्तरं उग्रं तपश्चरित्वा, जातौ द्वावपि केवलिनौ। . सर्व कर्म क्षपयित्वा, सिद्धि प्राप्तावनुत्तराम् । ॥४६॥ एवं करेन्ति संबुद्धा, पण्डिया पवियक्खणा । विणियट्टन्ति मांगेसु, जहा सो पुरिसोत्तमो Meen एवं कुर्वन्ति संबुद्धाः, पण्डिताः प्रविचक्षणाः। विनिवर्तन्ते भोगेभ्यः, यथा सः पुरुषोत्तमः ॥४९॥ त्ति बेमि॥ रहनेमिज्जंवावीसइम अज्मायणं समत्तं ॥२॥ इति ब्रवीमि रथनेमीयं द्वाविंशतितममध्ययनं समाप्तं ।। ।। अह केसिगोयमिज्जं तेवीसइमं अज्झयणं ॥ .: अथ केशिगौतमीयं त्रयोविशमध्ययनं ।। जिणे पासि त्ति नामेण, अरहा लोगपूइयो । संबुद्धप्पा य सम्बन्लू, धम्मतित्थयरे जिणे निनः पाश्व इति नाम्ना, अर्हन्लोकपूजितः । संबुद्धात्मा च सर्वज्ञः धर्मतीर्थकरो जिनः तस्स लोगपदीवस्स, आसि सीसे महायसे । केसी कुमारसमणे, विजाचरणपारगे तस्य लोकप्रदीपस्य, आसीच्छिष्यो महायशाः । । केशी कुमारश्रमणः, विद्याचरणपारगः प्रोहिनाणतुए बुध्धे, सीससंघसमाउले । गामाणुगाम रीयन्ते, सावत्यि पुरमागए अवधिज्ञानश्रुताभ्यां वुद्धः, शिप्यसंघसमाकुल: । ; ग्रामानुग्राम,रीयमाणः, श्रावस्ती नगरीमागतः ।...॥३॥ ॥२॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जैन सिद्धांत पाठमाळा. तिन्दुयं नाम उज्जाणं, तम्मी नगरमण्डले । फासुए सिज्जसंधारे, तत्थ वासमुवागए तिन्दुकं नामोद्यानं, तस्या नगर मण्डले । प्रासुके शय्यासंस्तारे, तत्र वासमुपागतः ग्रह तेणेव कालेणं, धम्मतित्थयरे जिणे । भगवं वद्धमाणि त्ति, सव्वलोम्मि विस्सुए अथ तस्मिन्नेव काले धर्मतीर्थकरो जिनः । भगवान् वर्धमान इति, सर्वलोके विश्रुतः तस्स लोगपदीवस्स, प्रासि सीसे महायसे । भगवं गोयमे नाम, विजाचरणपारए 2 तस्य लोकप्रदीपस्य, श्रासीच्छिष्यो महायशाः । भगवान्गौतमो नाम, विद्याचरणपारगः बारसंगविक बुद्धे, सीससंघ समाडले । गामाणुगामं रीयन्ते, से वि सावत्थिमागए द्वादशाङ्गविद बुद्ध:, शिष्यसंघसमाकुलः 1, ग्रामानुयामं रीयमाणः सोऽपि श्रावस्तीमागतः कोदुगं नाम उज्जाणं, तम्मी नगरमण्डले । फासुए सिजसंथारे, तत्थ वासमुवागण कोष्टकं नामोद्यानं, तस्या नगरमण्डले । प्रासुके शय्यासंस्तारे, तत्र वासमुपागतः केसी कुमारसमणे, गोयमे य महायसे । उमवि तत्थ विहरिसु, भल्लीणा सुसमाहिया केशी कुमारश्रमण गौतमश्च महायशाः । उभावपि तत्र व्यहाष्टम् श्रालीनौ सुसमाहितौ ॥४॥ 11811 በ ॥५॥ ॥६॥ ॥६॥ ७ ||७|| all 11511 HER well Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनंसूत्रं अभ्ययनं २३. उभयो सीससंघाणं, संजयाणं तर्वास्सणं । तत्य चिन्ता समुप्पन्ना, गुणवन्ताण ताइणं उभयोः शिष्यसंघानां संयतानां तपस्विनाम् । तत्र चिन्ता समुत्पन्ना, गुणवतां त्रायिणान् केरिसो वा इमो धम्मो, इमो धम्मो व केरिसो । प्रायारधम्मपाणिही, इमा वा साव केरिसी कीदृशो वायं धर्मः, अयं धर्मो वा कीदृशः । आचारधर्मप्रणिधिः, अयं वा स वा कीदृशः चाउजामो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खियो । देसि वद्धमाणेण पासेण य महापुणी चतुर्यामश्च यो धर्मः, योऽयं 'पंचशिक्षितः । देशितो वर्धमानेन, पार्श्वेण च महामुनिना अचेल य जो धम्मो, जो इमां सन्तरुत्तरो । एगकअपबन्नाणं, विसेसे किं न कारणं अचेलक यो धर्मः योऽयं सांतरोत्तरः । एककार्यप्रपन्नयोः, विशेषे किनु कारणम् ग्रह ते तत्थ सीसाणं, विनाय पवितकियं । समागमे कयमई, उभयो केसिगोयमा अथ तौ तत्र शिष्याणां विज्ञाय प्रवितर्कितम् । समागमे कृतमती, उभौ केशिगौतमौ गोयमे पडिवन्नू, सीससंघसमाउले । जे कुलमवेक्खन्तो, तिन्दुयं वणमागओ ર 112011 ॥१०॥ ॥११॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१२॥ 112311 ॥ १३॥ ht 113811 ॥१५॥ १ पांच महाव्रतयुक्त, २ अल्पोपधिवालो. ३ महावीर स्वामी करतां उक्त पत्रादि सामग्री प्ररूपनार. Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैन सिद्धांत पाठमाला. . ॥११॥ ॥१७॥ ॥१७॥ ॥१८॥ गौतमः 'प्रतिरूपज्ञः, शिष्यसंधसमाकुलः । • ज्येष्ठं कुलमपेक्षमाणः, तिन्दुकं वनमागत्तः केसी कुमारसमणे, गोंयम दिस्समागयं ।। । पडिरुवं पडिवति, सम्म संपडिवजई । केशी कुमारश्रमणः, गौतमं दृष्ट्वागतम् । प्रतिरूपां प्रतिपत्तिम , सम्यक् संप्रतिपद्यते पलाल फासुयं तत्थ, पंचमं कुसतणाणि य । गोयमस्स निसेजाए, खिप्प संपणामए, पलाल प्रासुकं तत्र, पंचमं कुशतृणानि च । . गौतमस्य निषद्याय, क्षिप्रं संप्रणामयति । केसी कुमारसमणे, गोयमे यं महायसे । उभयो निसण्णा साहन्ति, चन्दसूरसमपभा केशी कुमारश्रमणः, गौतमश्च महायशाः । उभौ निषण्णौ शोभेते, चन्द्रसूर्यसमप्रमो समागया बहू तत्थ, पासंडा कोउगा मिया ! ' गिहत्थाणं अणेगानो साहस्सीश्रो समागया समागता बहवस्तत्र, पाषण्डा: कौतुकान् मृगाः ।। ग्रहस्थानामनेकानां, सहस्राणि समागतानि देवदाणवगन्धवा, जक्खरक्खसकिन्नरा।। अदिस्साणं च भूयाणं, पासी तत्थ समागमो । देवदानवगन्धर्वाः, यक्षराक्षसकिन्नराः । । । अदृश्यानां च भूतानां, आसीत्तत्र समागमः पुच्छामि ते महाभाग, केसी गोयममब्बी । दमो केसि वुवन्तं तु, गोयमो इणमब्ववी १ विनयनाजाण. २ योग्य. ॥१६॥ १६॥ ॥२०॥ ॥२०॥ ॥२३॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २३ २६५ पृच्छामि त्वां महाभाग! केशी गौतममब्रवीत् । ततः केशिन बवन्तं तु, गौतम इदमब्रवीत्। पुच्छ भन्ते जहिच्छ ते, केसि गोयमपञ्चवी। तो केसी अणुन्नए, गोयम इणमन्वची ॥२२॥ पृच्छतु भदन्त ! यथेष्टं ते, केशिनं गौतमोऽब्रवीत् । तत: केशी अनुज्ञातः, गौतममिदमब्रवीत् ॥२२॥ चाउनासो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खियो। देसियो वद्धमाणेण, पासेण य महामुणी चतुर्यामश्च यो धर्मः, योऽयं पंचशिक्षितः । । देशितो वर्धमानेन, पार्श्वेण च महामुनिना २३॥ एकजपवनाण, विसेसे किं नु कारणं,। धम्मे दुविहे मेहावी, कहं विप्पञ्चयो न ते ॥२४॥ एककार्यप्रपन्नयोः, विशेपे किन्नु कारणम् । धर्मे द्विविधे मेधाविन ! कथं 'विप्रत्ययो न ते (तव) ॥२४॥ तो केसि वुवन्तं तु, गोयमो इणमञ्चधी । 'पन्ना समिक्खए धम्म, तत्तं तत्तविणिच्छियं ॥२५॥ ततः केशिनं ब्रुवन्तं तु, गौतम इदमब्रवीत् । प्रज्ञा समीक्षते, धर्मतत्त्व तत्वविनिश्चय ॥२५॥ पुरिमा उज्जुजडा उ, वंकजडा य पच्छिमा । मज्झिमा उज्नुपन्ना उ, तेण धम्मे दुहा कर ॥२६॥ पूर्व ऋजुनडास्तु, वक्रजडाश्च पश्चिमाः । मध्यमा ऋजुप्रज्ञास्तु, तेन धर्मो द्विघात: ॥२६॥ पुरिमाणं दुन्निसोझो उ, चरिमाणं दुरणुपालो। कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसोझो नुपालो ॥२७॥ १ भविषम (सदेह) २ चरम तरिना मनुयायीमो. Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ||२७|| ॥२८॥ ॥२८॥ ॥२६॥ ॥२९॥ २६६ जैन सिद्धांत पाठमाळा. पूर्वेषां दुर्विशोध्यस्तु चरमाणां दुरनुपालकः । कल्पो मध्यमगानां तु, सुविशोध्यः सुपालक: साहु गोयम! पन्ना ते, छिन्नो मे संसनो इमो । अनो वि संसश्रो मज्म, तं मे कहसु गोयमा साधु गौतम ! प्रज्ञा ते, छिन्नो मे संशयोऽयम् । अन्योऽपि संशयो मे, तं मां कथय गौतम ? अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो सन्तस्त्तरो। देसिनो बद्धमाणेण, पासेण य महाजसा अचेलकश्च यो धर्मः, योऽयं सान्तरोत्तरः । देशितो वर्धमानेन, पार्वेण च महायशसा पगकजपवनाण, विसेसे किं नु कारणं । लिंगे दुविहे मेहावी, कहं विष्पवयो न एककार्यप्रपन्नयोः, विशेषे किन्नु कारणम् । लिगे द्विविधे मेधाविन ? कथं विप्रत्ययो न ते केसिमेव बुवाणं तु, गोयमो इणमब्बवी । विनाणेण समागम्म, धम्मसाहणमिच्छियं केशिनमेवं ब्रुवाणं तु, गौतम इदमब्रवीत् । विज्ञानेन समागम्य, धर्मसाधनमिष्टम् एचयत्थं च लोगस्स, नाणाविहविगप्पणं । जत्तत्थं गहणथं च, लोगे लिंगपभोयणं प्रत्ययार्थं च लोकस्य, नानाविधविकल्पनम् । यात्रार्थ 'ग्रहणार्थ च, लोंके लिगप्रयोजनम् ग्रह भवे पहना उ, मोक्खसम्भूयसाहणा । ' नाणं च दसर्ण चेव, चरितं चेव निच्छर १ पोते साधु के तेषु भान रहे माटे. ॥३०॥ ॥३२॥ ॥३२॥ ॥३३॥ - - Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं १६. २६७ अथ भवेत्प्रतिज्ञा तु, मोक्षसभूतसाधनानि । ज्ञानं च दर्शनं चैव, चारित्रं चैव 'निश्चये ॥३३॥ साहु गोयम पन्ना ते, छिन्नो मे संसनो इमो। अन्नो वि संसो मझ, तं मे कहसु गोयमा ॥३॥ साधु गौतम ! प्रज्ञा ते, छिन्नो मे संशयोऽयम् । अन्योऽपि संशयो मम, तं मां कथय गौतम ! ॥३॥ प्रणेगाणं सहस्साणं, मज्झे चिट्ठसि गोयमा । ते य ते अहिगच्छन्ति, कहं ते निजिया तुमे ॥३५॥ अनेकानां सहस्राणां, मध्ये तिष्ठसि गौतम ! । ते च त्वामभिगच्छन्ति, कथं ते निर्जितास्त्वया ॥३५॥ एगे जिए जिया पंच, पंचजिए जिया दस । दसहा उ जिणित्ताणं, सवसतू जिणामहं ॥३६॥ एकस्मिन् जिते जिताः पंच, पंचसु नितेषु जिता दश। दशधा तु नित्वा, सर्वशत्रून् जयाम्यहम् ॥३६॥ सत्तू य इइ के वुत्ते, केसी गोयममब्बवी । तमो केसि बुवंतं तु, गोयमो इणमञ्ववी ॥३७॥ रात्रवश्व इति के उक्ताः, केशी गौतममब्रवीत् । ततः केशिनं ब्रुवन्तं तु, गौतम इदमब्रवीत् ॥३७ एगप्पा अजिए सत्, कसाया इन्दियाणि य । ते जिणितु जहानाय, विहरामि अहं मुणी ॥३ . एक प्रात्माऽनितः शत्रुः, कषाया इन्द्रियाणि च । तान् जित्वा यथान्याय, विहराम्यहं मुने! ॥३८॥ १ निधयनययी तो ज्ञानादिन मोदनां साधन के. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A 51 २६ जैन सिद्धांत पाठमाळा. साहु गोयम पन्ना ते, छिन्नो मे संसश्रो इमो। . ., अन्नो वि संसपो मज्झ, तं मे कहा गोयमा ॥३॥ साधु गौतम ! प्रज्ञा ते, छिन्नो मे संशयोऽयम् । अन्योऽपि संशयो मम, तं मां कथय गातम! ॥३९॥ दीसन्ति बहवे लोए, पासवद्धा सरीरिणी । ... मुक्कपासो जहुन्भूत्रो, कहं विहरसी मुणी ॥४॥ दृश्यन्ते बहवो लोके, पाशबद्धाः शरीरिणः । . मुक्तपाशो लघूभूतः, कथं त्वं विहरसि मुने! ॥४०॥ ते पासे सम्बसो छित्ता, निहन्तूण उवायो। . मुक्कपासो लहुन्भूत्रो, विहरामि अहं मुणी तान् पाशान् सर्वशः छित्त्वा, निहत्योपायतः । मुक्तपाशो लघूभूतः, विहराभ्यहं मुने पासा य इइ के वुत्ता, केसी गोयममव्ववी। केसिमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमववी पाशाश्चेति क उक्ताः, केशी गौतममब्रवीत्। '' केंशिनमेवं ब्रुवन्तं तु, गौतम इदमब्रवीत् ॥४२॥ रांगद्दोसादयो तिव्वा, नेहपासा भयंकरा । ' ते हिन्दिचा जहानाय, विहरामि जहकम ॥४३॥ रागद्वेषादयस्तीवाः, स्नेहपाशा भयंकराः। तान्छित्त्वा यथान्याय, विहरामि यथाक्रमम् ॥४॥ साहु गोयम पन्ना ते, छिन्नो मे संसश्रो इम।। अन्नो वि संसो मझ, तं मे कहसु गोयमा ॥४४॥ साधु गौतम! प्रज्ञा ते, छिन्नो मे संशयोऽयम् । । ' अन्योऽपि संशयो मम, तं मां कथय गौतम ! ॥४४॥ ॥४२॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४५ ॥४५॥ ॥४६ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २३ अन्ताहियसंभूया, लया चितुड गायमा । फलेइ विसभक्खीणि, सा उ उद्धरिया कह अन्तर्हृदयसंभूता, लता तिष्ठति गौतम !! फलति 'विषमत्याणि, सा तूधृता कथम् तं लय सव्वसेा चित्ता, उद्धरित्ता समूलियं । विहरामि जहानाय, मुक्को मि विसभक्खणं तां लता सर्वतच्छित्त्वा, उधृत्य समूलिकाम् । विहरामि यथान्यायं, मुक्तोऽस्मि विषभक्षणात् लया य इइ का वुत्ता, केसी गोयममव्ववी । केसिमेवं दुर्वतं तु, गोयमो इणमन्ववी लता चेति कोक्ता, केगी गौतममब्रवीत् । । केशिनमेवं ब्रुवन्तं तु, गौतम इदमब्रवीत् । भवतण्हा लया बुत्ता, भीमा भीमफलोदया । तमुच्छित्तु जहानाय, विहरामि महामुणी भवतृष्णा लतोक्ता, भीमा भीमफलोदया। तामुच्छित्य यथान्याय, विहरामि महामुने! साहु गोयम पन्ना ते, छिन्नो मे संसो इमो । अन्ना वि संसो मज्म, तं मे कहसु गोयमा साधु गौतम! प्रज्ञा ते, छिन्नो मे संशयोऽयम् अन्योऽपि संगयो मम, तं मां कथय गौतम ! संपजलिया शेरा, अम्गी चिइ गोयमा । जे डहन्ति सरीरत्थे, कहं विज्झाविया तुमे संप्रज्वलिता घोराः, अनयस्तिष्ठन्ति गौतम !। ये टहन्ति शरीरस्थाः, कथं विध्यापितास्त्वया १ विप फोनं. २ गानयरी ॥४७॥ ॥८॥ ॥४८॥ ॥५०॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. महामेहप्पस्याभो, गिज्म वारि-जलुत्तमं । सिंचामि सययं देहं, सित्ता नो डहन्ति मे महामेघप्रसूतात् , गृहीत्वा वारि जलोत्तमम् । सिंचामि सततं देह, सिक्ता नो च दहन्ति माम् ॥५॥ अभी यह के वुत्ता, केसी गायममब्बवी । केसीमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी अग्नयश्चेति क उक्ताः, केशी गौतममब्रवीत् । केशिनमेवं ब्रुवन्तं तु, गौतम इदमब्रवीत् ॥५२॥ कसाया अग्गियो वुत्ता, सुयसीलतको जलं । सुयधारामिहया सन्ता, भिन्ना हु न डहन्ति मे ॥५३॥ कषाया अमय उक्ताः, श्रुतशीलतपो जलम् । श्रुतधारामिहताः सन्त:, भिन्नाः खलु न दहति माम् ॥५३॥ साहु गोयम पन्ना ते, चिन्नो मे संसश्रो इमो । अन्नो वि संसो मन्मं, तं मे कहसु गायमा साधु गौतम! प्रज्ञा ते, छिन्नो मे संशयोऽयम् । अन्योऽपि संशयो मम, तं मां कथय गौतम ! ॥१४॥ अयं साहसियो भीमा, दुस्से परिधावई । जसि गोयमश्रारूढा, कहं तेण न हीरसि अयं साहसिको भीमः, दुष्टाश्वः परिधावति । यस्मिन् गौतम ! आरूढा, कथं तेन न द्वियसे ॥५॥ पधावन्त निगिण्हामि, सुयरस्सीसमाहियं । न मे गच्छड उम्मग्गं, मग्गं च पउिवजई प्रधावन्तं निगृह्णामि, श्रुतरश्मिसमाहितम् । - न मे गच्छत्युन्मार्ग, मार्ग च प्रतिपद्यते Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २३ २७१ प्रासे य इइ के वुत्ते, केसी गोयममन्वबी । केसीमेवं धुवंतं तु, गोयमा इणमव्ययी ॥५॥ अश्वश्चेति क उक्तः, केशी गौतममब्रवीत् । केशिनमेव ब्रुवन्तं तु, गौतम इदमब्रवीत् ॥१७॥ मणो साहसीश्रो भीमा, दुट्ठस्सो परिधावई । तं सम्मं तु निगिण्हामि, धम्मसिक्खाइ कन्यन ॥८॥ मनः साहसिको भीमः, दुष्टाश्वः परिधावति । तं सम्यक् तु निगृह्णामि, धर्मशिक्षायें कंधक (इव) ॥५॥ साहु गोयम पन्ना ते, छिन्नो मे संसो इमो । अन्नो वि संसो मज्म, तं मे कहसु गोयमा ॥५६॥ साधु गौतम ! प्रज्ञा ते, छिन्नो मे संगयोऽयम् । अन्योऽपि संशयो मम, तं मां कथय गोतम ! ॥५९॥ कुष्पहा वहवो लोए, जेहि नासन्ति जन्तुणो । अद्धाणे कहं वहन्ता, तं न नाससि गोयमा 'कुपथा बहवो लोके, येर्नश्यन्ति जन्तवः । अध्वनि कथं वर्तमानः, त्वं न नश्यसि गौतम? ॥६॥ जे य मग्गेण गच्छंति, जे य उम्मग्गपट्टिया । ते सब्बे वेड्या मम, तो न नस्सामहं मुणी ये च मार्गेण गच्छन्ति, ये चोन्मार्गप्रस्थिताः । ते सर्वे विदिता मया, तस्मान्न नश्याम्यहं मुने ! मग्गे य इइ के वुत्ते, केसी गोयममब्बवी । केसिमेवं बुवंतं तु, गोंयमो इणमत्रवी ॥२॥ मार्गश्चेति क उक्तः, केशी गौतममब्रवीत् । केशिनमेवं ब्रुवन्तं तु, गौतम इदमब्रवीत् ॥३२॥ १ खोटा स्तामो. Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ૨૭૨ जैन सिद्धांत पाठमाळा. . कुप्पवयणपासण्डी, सम्वे उम्मगठिया । सम्मगं तु जिणक्खायं, पस मग्गे हि उत्तमे ॥३॥ 'कुप्रवचनपापण्डिनः, सर्व उन्मार्गप्रस्थिताः । । । सन्मार्गं तु जिनाख्यातं, (जानीहि)एष मार्गों धुत्तमः ॥३॥ साहु गोयम पन्ना ते, छिन्नो मे संसो इमो । अन्नो वि संसश्रो मझ, तं मे कहा गोयमा । | साधु गौतम ! प्रज्ञा ते, छिन्नो मे. संशयो ऽयम् । अन्योपि संशयो मम, तं मां कथय गौतम ! ॥६॥ महाउदगवेगेण, वुज्झमाणाण पाणिणं । सरणं गई पइठा य, दीव के मन्नसी मुणी ॥५॥ महोदकवेगेन, वाह्यमानानां प्राणिनाम् । । शरणं गति प्रतिष्ठां च, वीर्प कं मन्यसे मुने ? ॥६॥ अस्थि एगो महादीवो, वारिमज्मे महालयो। . महाउदगवेगस्स, गई तत्थ न विजई ॥६६॥ अस्त्येको महाद्वीपः, वारिमध्ये महालयः । । महोदकवेगस्य, गतिस्तत्र न विद्यते , दीवे य इइ के वुत्ते, केसी गोयममचवी । केसिमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्ववी ॥६॥ द्वीप चेति क उक्तः, केशी गौतममब्रवीत् । । केशिनमेवं बुवन्तं तु, गौतम इदमब्रवीत ६७ जरामरणदेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणे । धम्मो दीयो पइहा य, गई सरणमुत्तमं ॥६॥ जरामरणवेगेन, वावमानानां प्राणिनाम् । , धर्मो द्वीपः प्रतिष्ठा च, गतिः शरणमुसमम् , १ कुदर्शनवादीमो Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २३. २७३ - वा ॥६॥ ॥७॥ ॥७॥ ॥७॥ साहु गोयम पन्ना ते , बिन्जो मे संसग्रो इमो। अन्नो वि संसो मझ, तं मे कहनु गायमा साधु गौतम प्रज्ञा ते, छिन्नो मे संशयोऽयम् । अन्योऽपि संशयो मम, तं मां कथय गौतम ? अण्णवंसि महाहंसि, नावा विपरिधावई । जंसि गोयममारुढी, कहं पारं गमिस्ससि अर्णवे महौधे, नौविपरिघावति। यस्यां गौतम प्रारूढः, कथं पारं गमिप्यसि जा उ अस्साविणी नावा, न सा पारस्स मामिणी । जा निरस्ताविणी नावा, सा उ पारस्स गामिणो या 'त्वालाविणी नौः, न सा पारस्य गामिनी। या निरासाविणो नौः, सा तु पारस्य गामिनी नावा य उइ का बुत्ता, केसी गोयममवधी । केसीमेवं वुवंतं तु, गोयमो इणमञ्चचो नौश्चति कोक्ता, केशी गौतममब्रवीत् । केशिनमेवं ब्रुवन्तं तु, गौतम इदमब्रवीत् सरीरमाहु नाव त्ति, जम्बो बुच नाविनो। संसारो अण्णवो वुत्तो, जे तरंति महेसिणो शरीरमाहुनॊरिति, जीव उच्यते नाविकः । ससारोऽर्णव उक्तः, ये तरन्ति महर्षयः साहु गोयम पन्ना ते, छिन्नो मे संसभी इमो । अन्नो वि संसश्रो मझ, तं मे कहसु गोयमा साधु गौतम? प्रज्ञा ते, छिन्नो मे संशयोऽयम् । अन्योऽपि सशयो मम, त मां कथय गौतम ! १ हिमाली ॥७ ॥७२॥ ॥७३॥ ॥७॥ ॥७॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. ॥७॥ ॥७॥ ॥७॥ ॥७७॥ ॥७७॥ अन्धयारे तमे घोरे, चिडन्ति पाणिणो वह्न । को करिस्सइ उजोयं, सबलोयम्मि पाणिणं __ अन्धकारे तमसि घोरे, तिष्ठन्ति प्राणिनो बहवः । । कः करिष्यत्युद्योतं, सर्वलोके प्राणिनाम् उग्गो विमलो भाणू , सब्बलोयपभंकरो। सा करिस्सइ उज्जोयं, सबलायम्मि पाणिणं उद्गतो विमलो भानुः, सर्वलोकप्रभाकरः । सः करिष्यत्युद्योतं, सर्वलोके प्राणिनाम् भानु य ह के वुत्ते, केसी गोयममवी । केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्ववी भानुश्चेति क उक्तः, केशी गौतममब्रवीत् । केशिनमें ब्रुवन्तं तु, गौतम इदमब्रवीत् उग्गयो खीणसंसारा, सम्वन्नू जिणभक्खरो । सो करिस्सइ उज्जोयं, सबलायम्मि पाणिणं "उदगतः क्षीणसंसारः, सर्वज्ञो जिनभास्करः । स करिष्यत्युद्योतं, सर्वलोके प्राणिनाम् साह गोयम पन्ना ते, छिनो मे संसयो इमो । अनी वि संसश्रो अज्झ, तं मे कहसु गोयमा साधु गौतम? प्रज्ञा ते, छिन्नो में संशयोऽयम् । अन्योऽपि संशयो मम, तं मां कथय गौतम ? सारीरमाणसे दुक्खे, बज्झमाणाण पाणिणं । खेम सिवमणावाह, ठाणं किं मन्नसी मुणी शारीरमानसैदुःखैः, बाध्यमानानां प्राणिनाम् । क्षेमं शिवमनाबाधं, स्थानं कि मन्यसे मुने ? १ उगेलो. ॥७॥ ॥७॥ Noall ॥७९॥ 1500 ॥८॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे अध्ययनं २३. अस्थि एवं धुवं ठाणं लोगग्गम्मि दुराहहं । जत्थ नत्थि जरामधू, वाहिणो वेयणा तहा अस्त्येकं ध्रुवं स्थानं, लोकाग्रे दुरारोहम् यत्र नास्ति जरामृत्यू, व्याधयो वेदनास्तथा ठाणे य इइ के कुत्ते, केसी गोयममन्यवी । केसिमेचं युवतं तु, गोयमो इणमत्र्ववी स्थानं चेति किमुक्तं, केशी गौतममब्रवीत् । केशिनमेवं ब्रुवन्तं तु, गौतमइदमब्रवीत् निव्वाणं ति वाहं ति, सिद्धी लोगगमेव य । खेमं सिवं प्रणाबाहं, ज चरति महेसिणो निर्वाणमित्यवाधमिति, सिद्धिर्लोकाग्रमेव च । क्षेमं शिवमनाबाधं, यच्चरन्ति महर्षयः तं ठाणं सासयं वासं, लायम्ममम्मि दुरावहं । जं संपत्ता न सोयन्ति, भवान्तकरा मुणी तत् स्थानं शाश्वतावास, लोकाग्रे दुरारोहम् । यत्सम्प्राप्ता न शोचन्ति भवौघान्तकरा सुने ! इमो । 1 साहु गोयम पना ते, किनो मे संस नमो ते संसयातीत, सन्वसुत्तमहायही साधु गौतम ! प्रज्ञा ते, छिन्नो मे संशयोऽयम् । नमस्तुभ्य संशयातीत! सर्वसूत्रमहोदधे ! एवं तु संसद विशे, केसी धारपरकमे । अभिवन्दित्ता सिरसा, गोयमं तु महायसं एवं तु संशये छिन्ने, केशी घोरपराक्रमः । अभिवन्द्य शिरसा, गौतमं तु महायशसम् ૨૭૧ ॥८१॥ ॥८१॥ 115211 ॥८२॥ 115311 115311 ॥८४॥ ॥८४॥ ॥शा 115911 11580 Feit Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाउनाळा. पंचमहब्बयधन. पडिवजह भावी । पुरिमस्त पञ्छिन्मि, नन्गे ताय नुहावहे पंचनहाव्रतवन, प्रतिपद्यते भावतः । पूर्वन्य पश्चिने, नाग तत्र नुताहे कैसीनोयमत्री निच, तम्मि प्राति सनापने। नुक्सीलसमुकला. महाश्त्यविणिच्छो निगौतमयोनित्य, तम्भिनामोद समागनः । श्रुत्शीलमनुष्कर्षः, 'महाविनिश्यः तासिया परिसा सब्बा, सन्मन्न समुवडिया। संयुया ते पसीयन्तु. भयवं केलिगोयमे तोपिता परिपत्ता, सन्मार्ग समुपस्तिा । संतुतौ तौ प्रसीदतार , भगवन्तौ योगौतमौ ॥ ॥ति वेनि । केतिगोगनिज बीसइम अन्य समता इतित्रवीमि केगिगौतमीयं ज्योविंदमध्ययनं समान्तं ॥२॥ ॥ अह समिइयो चउचीसइमं अज्झयम् ।। ॥ अथ सनितयः (इति) नुर्विशमन्ययनं ।। अट्ठ पबयणमायाप्रो, समिई गुत्ती तहेव य । पंव य समिईमो, तो गुतीउ आहिया अन्य प्रवचनमातरः, समितयो गुप्तवत्येव । पत्र च समितयः, तितो गुप्तय आल्याताः इरियाभासेसणाागे, उसार समिइ इय । नपगुत्ती वयगुत्ती, कायगुत्ती य अना ___ लहान्नादलों लिई Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रं अध्ययन २४. २७७ ॥२॥ ॥३॥ 180 ॥४॥ ॥५॥ इर्याभाषेषणादानोच्चाररूपाः समितय इति । मनोगुप्तिर्वचोगुप्तिः, कायगुप्तिश्चाष्टमा एयाओ अट्ट समिईयो, समासेण वियाहिया । दुवालसंग जिणक्खाये, मायं जत्यं उपवयणं एता अष्टौ समितयः, समासेन व्याख्याताः । द्वादशांग जिनाख्यातं, 'मातं यत्र तु प्रवचनम् आलम्वणेण कालेण, मग्गेण जयणाइ य । चउकारणपरिसुद्ध, संजए इरियं रिए आलंबनेन कालेन, मार्गेण यतनया च । चतु:कारणपरिशुध्धां, संयत ईर्या रीयेत तत्थ पालम्ववणं नाणं, ईसणं चरणं तहा । काले य दिवसे वुत्ते, मग्गे उप्पहजिए तत्रालम्बनं ज्ञानं, दर्शनं चरणं तथा। कालश्च दिवस उक्तः, मार्ग उत्पथवर्जितः दवनों खेत्तो चेव, कालो भावो तहा । जयणा चउन्विहा दुत्ता, तं मे कित्तयो सुण द्रव्यतः क्षेत्रतश्चैव, कालतो भावतस्तथा । यतनाश्चतुर्विधा उक्ताः, ता मे कीर्तयतः शृणु दवनो चक्खुसा पेहे, जुगमित्तं च खेत्तभो ।' कालो जाव रीइजा, उवउत्ते य भावनो द्रव्यतश्चक्षुषा प्रेक्षेत, युगमात्र च क्षेत्रतः । कालतो यावद्रीयेत, उपयुक्तश्च भावतः इन्दियत्थे विवजित्ता, सज्माय चेव पचहा । तम्मुत्ती तपुरकारे, उपउत्तेरियं रिप 'अंतर्भूत थयेलु. lon ॥ना Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥९॥ २७८ जैन सिद्धांत पाठमाळा. इन्द्रियान्विवज्य, स्वाध्यायं चैव पंचधा । तन्मुर्तिः (सन् ) तत्पुरस्कारः, उपयुक्त इर्या रीयेत ॥८॥ कोहे माणे य मायाए, लोभे य उवउत्तया । हासे भए मोहरिए, विकहा तहेब य क्रोधे माने च मायायां, लोभे चोपयुक्तता । हास्ये भये मौखये, विकथासु तथैव च एयाई अट्ट ठाणाई, परिवजितु संजए । असावज्ज मिवं काले, भासं भासिज पनवं ॥१०॥ एतान्यष्टौ स्थानानि, परिवज्य संयतः। असावद्यां मितां काले, भाषांभाषेत प्रज्ञावान् गवसणाए गहणे य परिभोगेसणाय जा । आहारोवहिसेजाए, एए तिन्नि विसोहए गवेषणायां ग्रहणे च, परिभोगैषणा च या। आहारोपधिशय्यासु, एतास्तिस्रोऽपि शोधयेत् उम्गमुप्पायणं पढमे, वीए सोहेज एसणं । परिभोयम्मि चक, विसोहेज जयं जई । उद्गमनोत्पादनदोषान् प्रथमायां,द्वितीयायां शेोधयेदेषणादोषान परिभोगैषणायां 'चतुष्कं, विशोधयेद्यतमान यतिः ॥१२॥ श्रोहोवहावग्गहिय, भण्डगं दुविहं मुणी। गिण्हन्तो निक्खिवन्तो वा, पउंजेज इमं विहि ओधोपधिमौपग्रहिकोपधि, भाण्डकं द्विविधं मुनिः । गृहणन्निक्षिपश्च, प्रयुजीतेमं विधिम् ॥१३॥ चक्खुसा पडिलेहिता, पमज्जेज जयं जई । पाइए निक्खिवेजा वा, दुहश्री वि समिए सया ॥१४॥ १ सयोजनादि मांब्लीयाना चार दोष. श - Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रं अध्ययनं २४. २७६ ॥१४॥ ॥१६॥ ॥१६॥ चक्षुषा प्रतिलेख्य, प्रमार्जयेत् यतो यतिः । आददीत निक्षिपेदवा, द्विाऽपि समितः सदा उधार पासवणं, खेलं सिंघाणजल्लियं । अाहारं उवहि देह, अन वावि नहाविहं उच्चारं प्रनवणं, खेलं सिंघाणं जलकम् । आहारमुपघि देहं, अन्यहापि तथाविधम् अणावायमसंलोए, अणावाप बेब होइ संलोए । श्रावायमसंलोए, अावाए चेव संलोए 'अनापातमसंलोकं, अनापातं चैव भवति संलोकम् । आपातमसलोकं, आपातं चैव संलोकम् अणावायमसंलोए, परस्सणुवघाइए । समे अमुसिरे यावि, अचिरकालकसम्मि य अनापातेऽसंलोके, परम्यानुपघातके । समेशुषिरे चापि, अचिरकालते च विच्छिण्णे दूरमोगाद, नासरे विलविजए । तसपाणवीयरहिए, उच्चाराईणि वोसिर विस्तीर्णे दूरमवगाढे, नासन्ने विलवर्जिते । त्रसप्राणवीनरहिते, उच्चारादीनि व्युत्सृजेत् पयाओं पञ्च समिईयो, समासेण वियाहिया । पत्ता य तमो गुत्तीभो, वोच्छामि अणुपन्बसो एताः पञ्चसमितयः समासेन व्याख्याताः । इतश्च तिलो गुप्तीः, प्रवक्ष्याम्यानुपूर्व्या १ मा बत्रा (ग) स्थंडिलनां विशेषणे के. ॥२७ ॥१७॥ ॥३॥ ॥१८॥ ॥१॥ ॥१९॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - २०॥ ॥२०॥ ॥२१॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२२॥ २८० जैन सिद्धांत पाटमाळा. सच्चा तहेव सोसाय, समोसा तहेव य । चउत्थी असञ्चासा य, मणगुत्तियो चउचिहा सत्या तथैव मृषा च, सत्यामृषा तथैव च । चतुर्थ्यसत्यामृषा च, मनोगुप्तिश्चतुर्विधा संरम्भसमारम्भे, प्रारम्भे य तहेव य । मणं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज जयं जई 'संरभे समारने, 'आरंभे च तथैव च । मनः प्रवर्तमान तु, निवत्तयेद्यत यतिः सच्चा तहेव मोसा य, सचमोसा तहेव य ।' चउत्थी असञ्चमासा य, वइगुत्ती चउविहां सत्या तथैव मृषा च, सत्यामृषा तथैव च । चतुर्थ्यसत्यामृषा तु, वचोगुप्तिश्चतुर्विधा संरम्भसमारम्भे, प्रारम्भे य तहेव य ।' घयं पवत्तमाणं तु नियत्तेज जयं जई । संरंभे समारंभे, आरंभे च तथैव च । वचः प्रवर्तमानं तु, निवर्तयेद्यतं यतिः ठाणे निसीयणे चेव, तहेव य तुयणे । उल्लंघणपलंघणे, इन्दियाण य जुजणे स्थाने निषीदने चैव, तथैव च त्वगवर्तने । उल्लंघने प्रलंघने, इन्द्रियाणां च योजने संरम्भसमारम्भे प्रारम्भम्मि तहेव य । कायं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज जयं जई संरंभे समारंभे, प्रारंभे तथैव च । कार्य प्रवर्तमानं तु, निवर्तयेद्यतं यतिः १ दुष्ट संकल्प. २ दुष्ट विन्तान, ३ मारवा माटे दुव्यान. ॥२३॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२४॥ Hવા , ॥२३॥ - Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययनं २५. या पंच समित्रो, चरणस्स य पवत्तणे । गुत्ती नियत्तणे बुत्ता, सुभत्येसु सव्वसो एताः पंचसमितयः, चरणस्य च प्रवर्तने । गुप्तयों निवर्तने उक्ताः, अशुभार्थेभ्य: सर्वेभ्यः पाथ पवयणमाया, जे सम्मं प्रायरे मुणी । सो खिष्पं सव्वसंसारा, विष्पमुवs fuse एताः प्रवचनमातृः, यः सम्यगाचरेन्मुनिः । सक्षिप्रं सर्वसंसारात् विप्रमुच्यते पण्डितः ॥ त्ति बेमि ॥ इति समि चडवीसइमं प्रायणं समत्तं ॥२४॥ इतिब्रवीमि इतिसमितयश्चतुर्विंशमध्ययनं समाप्तं " 112011 २८१ ॥ ग्रह जन्नइज्जं पञ्चवीसइमं अभयणं ॥ ॥ अथ यज्ञीयं पंचविशतितममध्ययनं ॥ माहणकुलसंमू, श्रासि विप्पो महायसा । जायाई जमजन्मम्मि, जयघोसि त्ति नामो ब्राह्मणकुलसंभूतः, श्रासीहियों महायशाः । यायाजी 'यमयज्ञे, जयवोष इति नामतः इन्दियग्गामनिग्गाही, सग्गगामी महामुनी ।गामाणुग्गाम रीयंते, पत्तो वाणारसिं पुरि इन्द्रियग्रामनिग्राही, मार्गगामी महामुनिः । ग्रामानुग्रामं रीयमाणः, प्राप्तो वाराणसी पुरीम् वाणारसीए बहिया, उज्जाणम्मि मणोरमें । फासुए सेजासंधारे, तत्थ वासमुवागर वाराणस्यां बहिः, उद्याने मनोरमे । प्रासुके शय्यासंस्तारे, तंत्रवासमुपागतः १ पंचमहानतरुप यज्ञने वि. ॥२६॥ ॥२६॥ રા 11211 ॥१॥ મા ॥२॥ ॥३॥ ॥३॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जैन सिद्धांत पाउमाळा. " ग्रह तेणेव कालेणं, पुरीए तत्थ माहणे । विजयदोसि त्ति नामेण, जन्नं जयइ वेयवी अथ तस्मिन्नेव काले पुर्या तत्र ब्राह्मणः । विजयघोष इति नाम्ना, यज्ञं यजति वेदवित् ग्रह से तत्थ अणगारे, मासकखमणपारणे । विजयघोसस्स जन्नम्मि, भिक्खमहा उवट्ठिए अथ स तत्रानगारा, मासक्षमणपारणायाम् । विजयघोषस्य यज्ञे, भिक्षार्थमुपस्थितः समुवहियं तहि सन्तं, जायगो पडिसेहर । नहु दाहामि ते भिक्खं, भिक्खू जायाहि अन्नओ समुपस्थितं तत्र सन्तं, याजकः प्रतिषेधयति । न खलु दास्यामि तुभ्यं भिक्षां, भिक्षो याचस्वान्यतः जे य वेयविऊ विप्पा, जन्नट्ठा य जे दिया । जोइसंगविऊ जे य, जे य धम्माण पारगा ये च वेदविदो विप्राः, 'यज्ञार्थाश्र ये द्विजाः । ज्योतिःशास्त्रांगविदो ये च ये च धर्माणाम् पारगाः जे समत्था समुद्धतं, परमप्पाणमेव य । तेसिं अन्नमिण देयं भो भिक्खू सव्वकामियं ये समर्थाः समुद्ध, परमात्मानमेवच । तेभ्योऽन्नमिदं देयं भो भिक्षो ? सर्वकाम्यम् सो तत्थ एवं पडिसिद्धो, जायगेण महामुनी । न विरुहो न वि तुहो, उत्तमहगवेसप्रो स तत्रैवं प्रतिषिद्धः, याजकेन महामुनिः । नापि रुष्टो नापि तुष्टः, उत्तमार्थगवेषकः यज्ञना प्रयोजनवाळा. ॥४॥ 11811 ॥'॥ 11211 ॥६॥ ॥६॥ · 115|| ॥७॥ 15 1150 ॥ell ॥९॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं २५ २८३ ॥१०॥ ॥१०॥ ॥१२॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१२॥ नन्नई पाणहेउं वा, नवि निवाहणाय वा । तेसि विमोक्खणहाए, इमं वयणमव्ववी नान्नार्थं पानहेतुं वा, नापि 'निर्वाहणाय वा। तेषां विमोक्षणार्थ, इदं वचनमब्रवीत् नवि जाणासि वेयमुह, नवि जन्माण जं मुहं । नक्खत्ताण मुहं जंच, जं च घरमाण वा मुहं नापि जानासि वेदमुख, नापि यज्ञानां यन्मुखम् । नक्षत्राणां मुर्ख यच्च, यच्चधर्माणां वा मुखम् जे समत्था समुद्धत्तुं, परमप्पाणमेव य । न ते तुमं वियाणासि, अह जाणासि तो भण ये समर्थाः समुत्, परमात्मानमेव च । न तान्त्वं विजानासि, अथ जानासि तदा भण तस्सक्खेवपमोक्खं तु, अचयन्तो तर्हि दियो । सपरिसो पंजली हाउं, पुच्छई तं महामुणिं तस्याक्षेपप्रमोक्ष तु, (दातुं) अशक्नुवन्तत्र द्विजः । सपरिषत् प्राञ्जलिर्भूल्ला, एच्छति तं महामुनिम् वेयाणं च मुहं बूहि, वृहि जन्माण जे मुहं । नक्खत्ताण मुहं बूहि, धूहि धम्माण वा मुह वेदानां च मुखं ब्रूहि, ब्रूहि यज्ञानां यन्मुखम् । नक्षत्राणां मुखं ब्रूहि, ब्रूहि धर्माणां वा मुख जे समत्था समुद्धत्तुं, परमप्पाणमेव य । एयं मे संसयं सवं, साहू कहनु पुच्छियो ये समर्थाः समुद्धत, परमात्मानमेव च । एतं मे संशयं सर्व, साधो कथय (मया) एप्टः १वसादि माटे. 112312 ॥१३॥ पक्षा ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१९॥ - Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ जैन सिद्धांत पाठमाळा. - - ran अग्गिहुत्तमुहा वेया, लनट्ठी वेयसा मुहं । नक्खत्ताण मुहं चन्दा, धम्माण कासवो मुह अग्निहोत्रमुखा वेदाः, यज्ञार्थी वेदसां मुखम् । नक्षत्राणां मुखं चन्द्रा, धर्माणां काश्यपो मुखम् । जहा चन्दं गहाईया, चिन्ती पंजलीउडा । चदमाणा नमंसन्ता, उत्तम मणहारिणो ॥१७॥ यथा चंद्र ग्रहादिकाः, तिष्ठन्ति प्राञ्जलिपुटाः । वन्दमाना नमस्यन्तं, उत्तम मनोहारिणः ॥१७॥ अजाणगा जन्नवाई, विजामाहणसंपया। मृदा समायतवसा, भासच्छन्ना इवनिगो अनानाना यज्ञवादिनः, विद्याबाह्मणसंपदाम् । मुढाः स्वाध्यायतपसा, भस्मच्छन्ना इवाग्नयः ॥१८॥ जो लोए वम्भणा वुतो अग्गीच महियो जहा । सया कुसलसंदिट्ट, तं वयं वूम माहणं ॥१॥ यो लोके ब्राह्मण उक्तः, अग्निरिव महितो यथा । सदा कुगलसंदिर, ते वयं बूमो ब्राह्मणम् जान सजइ आगन्तु, पन्चयन्तो न सायइ । रमा अजवयणम्मि, तं वयं वूम माहणं ॥२०॥ यो न स्वजत्यागन्तं, प्रव्रजन्न शोचति । रमत आर्यवचने, तं वयं ब्रमो ब्राह्मणम्, जायरूवं जहाम, निद्धन्तमलपावगं। , रागदोसमयाईय, तं वयं बम’ माहणं • ॥२॥ 'जातरूपं यथा मृष्ट, निमातमलपापकं । रागद्वेषभयातीतं, तं क्या चूमो ब्राह्मणं १ सोनु. Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययनं २५ तवस्सियं किसं दन्तं प्रवचियमंससोणियं । सुव्वयं पत्तनिव्वाणं तं वयं वूम माहणं तपस्विनं कृशं दान्तं, अपचित मांसशोणितम् । सुव्रतं प्राप्तनिर्वाणं, त वयं श्रमो ब्राह्मणं तसपाणे वियाणेत्ता, संगहेण य थावरे । जो न हिंसइ तिविहेण तं वयं वूम माहणं प्राणिनो विज्ञाय संग्रहेण च स्थावरान् । , यो न हिनस्ति त्रिविधेन, तं वयं ब्रूमो ब्राह्मणं कोहावा जड वा हासा, लोहा वा जइ वा भया । सुसं न वयई जो उ, तं वयं वम माहणं क्रोधाद्वा यदि वा हास्यात्, लोभाद्वा यदि वा भयात् । मृषा न वदति यस्तु तं वयं नमो ब्राह्मणं चित्तमन्तमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा बहुं । न गिण्हार प्रदत्तं जे तं चय चूम माहणं चित्तवन्तमचित्तं वा अल्पं वा यदि वा बहुम् । न गृहणात्यदत्तं यः तं वयं नमो ब्राह्मणं दिव्यमाणुसतेरिच्छं, जो न सेवह मेहुणं । मणसा कायवक्केणं, ते वयं बूम माहणं दिव्यमानुष्यंतैरचं, यो न सेवते मैथुनम् । मनसा कायवाक्येन तं वयं नमो ब्राह्मण जहा पोमं जले जाये, नोवलिप्पर वारिणा । एवं अलित्तं कामेहिं तं वयं वूम माहणं यथा पद्मं जले जातं, नोपलिप्यते वारिणा । एवमलिप्तं कामैः, तं वयं ब्रूमो ब्राह्मणम् अलोलुपं मुहाजीवि, अणगारं किंचणं । असंसतं हित्थे, तं वयं वूम माहणं ? २८५ R ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२३॥ રા ॥२४॥ ||२५|| ॥२५॥ રહે ॥२६॥ ॥२७॥ ॥२७॥ ॥२॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . उत्तराध्ययन सूत्रं श्रध्ययनं २५. एतान्प्रादुरकार्षीद् बुद्ध:, यैर्भवति स्नातकः । सर्वकर्मविनिर्मुक्तं तं वयं ब्रूमो ब्राह्मणम् " एवं गुणसमाउत्ता, जे भवन्ति दिउत्तमा । ते समत्था समुद्धतुं परमप्पाणमेव य 3 एवं गुणसमायुक्ताः, ये भवन्ति द्विजोत्तमाः । ते समर्थाः समुद्ध, परमात्मानमेव च एवं तु संसद छिन्ने, विजयघोसे य माहणे । समुदाय तयं तं तु, जयघोसं महामुणि एवं तु संशये छिन्ने, विजयघोषश्च ब्राह्मणः । समादाय ततस्तं तु, जयघोषं महामुनिम् तुट्टे य विजयधासे, इणमुदाहु कथंजली । माणसं जहाभूयं, सुड्डु मे उबसिय तुष्टश्व विजयघोषः, इदमुदाह कृताञ्जलिः । ब्राह्मणत्वं यथाभूतं सुष्ठु म उपदर्शितम् तुम्भेजाया जन्नाणं, तुम्मे वेषविऊ विऊ । जोइसंगविऊ तुम्भे, तुम्मे धम्ममाण पारगा यूयं यष्टारो यज्ञाना, ययं वेदविदो विदुः । ज्योतिषांगविदों यूयं, यूयं धर्माणां पारगाः तुम्मे समत्था समुद्धतुं परमप्पाणमेव य । तमणुहं करेहम्हं, भिक्खेणं भिक्खु उत्तमा ययं समर्थाः समुद्धर्तु, परमात्मानमेव च । तदनुग्रहं कुरुतास्माकं भैयेण भिक्षूतमाः न कर्ज मom भिक्खेण, खिप्पं निक्खमसू दिया । ना भमिहिसि भयावट्टे, घोरे संसारसागरे २८७ 113811 ॥३५॥ ॥३६॥ ॥३६॥ ॥३७॥ ॥३७॥ ॥३८॥ ॥३८॥ ॥३६॥ ॥३९॥ ॥४०॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ जैन सिद्धांत पाठमाळा. न कार्य मम भैदयेण, क्षिप्रं नि:काम द्विज ? मा भ्रम भयावर्ते, घोरे संसारसागरे ॥४॥ उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पई । भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुचई ॥४॥ 'उपलेपो भवति भोगेषु, अभोगी नोपलिप्यते । भोगी भ्राम्यति संसारे, अभोगी विप्रमुच्यते उल्लो सुक्खो य दो छूढा, गोलया मट्टियामया । दो वि प्राडिया कुडे, जो उल्लो सोऽथ लग्गई. ॥४२ आर्द्रः शुष्कश्च द्वौ क्षिप्तौ, गोलको मृत्तिकामयौ । द्वावप्यापतितौ कुडये, य आर्द्रः स तत्र लगति ॥४२॥ एवं लग्गन्ति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । विरत्ता उ न लग्गन्ति, जहा सुक्के उ गोलए ॥४३ एवं लगन्ति दुर्मेधसः, ये नराः कामलालसाः । विरक्तास्तु न लगन्ति, यथा शुष्कस्तु गोलक: एवं से विजयरोसे, जयघोसस्स अन्तिए । अणगारस्स निक्खन्तो, धर्म सोचा अणुसरं एवं स विजयघोषः, जयघोषस्यान्तिके | अनगारस्य निष्क्रान्तः, धर्मं श्रुत्वाऽनुत्तरम् खवित्ता पुब्बकम्माई, संजमेण तवेण य । जयवोसविजयवोसा, सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं क्षपयित्वा पूर्वकमाणि, संयमेन तपसा च । जयघोषविजयघोषौ, सिद्धि प्राप्तावनुत्तराम् ॥४५॥ ॥ति बेमि ॥ इति जनाजं पञ्चवीसइमं प्रज्मयणं समत्तं ॥२५॥ इति ब्रवीमि इति यज्ञीयं पंचविशतितममध्ययनं समाप्त - १ कर्मबंधन, Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं श्रध्ययनं २६. ॥ ग्रह सामायारी छव्वीसमं ॥ अथ समीचारी षड्विशतितममध्ययनं ॥ सामायारि पक्खामि सव्वदुक्खविमोक्खणिं । जं वरित्ताण निग्गन्धा, तिण्णा संसारसागरं समाचारी प्रवक्ष्यामि, सर्वदुःखविमोक्षणीम् । यां चरित्वा निग्रन्थाः तीर्णाः संसारसागरम् पढमा श्रावस्सिया नाम, विइया य निसीहिया । श्रापुच्छणा य तड़या, चउत्थी पडिपुच्छणा प्रथमाssवश्यकी नाम्नी, द्वितीया च नैषेधिकी। आप्रच्छना च तृतीया, चतुर्थी प्रतिप्रच्छना पंचमी इन्दा नाम, इच्छाकारो य छ । सत्तमो मिच्छाकारो उ तहकारी य श्रहमों पंचमी छन्दना नाम्नी, इच्छाकारश्रपप्ठी । सप्तमी मिथ्याकारस्तु, तथाकारश्राष्टमी श्रभुद्वाणं च नवमं, दसमी उपसंपदा । पसा दसंगा साहूणं, सामायारो पोइया अभ्युत्थानं च नवमी, दशमी उपसंपद् । एषा दशांगा साधूना, समाचारी प्रवेदिता गमणे श्रावस्सियं कुजा, ठाणे कुजा निसीहिये । प्रापुच्छणं सयंकरणे, परकरणं पडिपुच्छृणं गमन आवश्यकी कुर्यात्, स्थाने कुर्यान्नपेधिकम् । प्रच्छना स्वयंकरणे, परकरणे प्रतिप्रच्छना दादजाणं, इच्छाकारो य सारणे । मिच्छाकारो य निन्द्रा, तहक्कारो परिलुप २८६ यणं ॥ ॥१॥ ॥ १॥ મો ॥२॥ ॥३॥ ॥३॥ 1120 11211 ॥- ॥ 11211 ទម Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जैन सिद्धांत पाठमाळा. ॥८॥ छंदना द्रव्यजातेन, इच्छाकारश्च सारणे । मिथ्याकारश्च निन्दायां, तथाकारः प्रतिश्रुते श्रब्भुट्ठाणं गुरुपूया, अच्छणे उपसंपदा । एवं दुपंचसंजुत्ता, सामायारी पवेश्या 11011 अभ्युत्थानं गुरुपूजायां, अवस्थाने उपसंपद । एवं द्विपंचसंयुक्ता, समाचारी प्रवेदिता ॥७॥ पुचिल्लम्मि चउभाए, प्राइचम्मि समुहिए । भण्डयं पडिलेहित्ता, वन्दित्ता य तमो गुरुं पूर्वस्मिन् चतुर्भागे, आदित्ये समुत्थिते । भाण्डकं प्रतिलेख्य, वन्दित्वा च ततो गुरुम् पुच्छिन्न पंजलिउडो, किं कायब्धं मए इह । इच्छं निमोइउं भन्ते, वेयावचे व सज्माए ॥९॥ एच्छेत्प्राञ्जलिपुटः, किं कर्तव्यं मयेह । इच्छामि नियोजयितुं भदन्त !, वैयावृत्ये वा स्वाध्याये ॥॥ वेयावच्चे निउत्तेण, काय, अगिलायो । समाए वा निउत्तेण, सम्वदुक्खविमोखणे ॥१०॥ वैयावृत्ये नियुक्तेन, कर्तव्यमग्लान्या । स्वाध्याये वा नियुक्तेन, सर्वदुःखविमोक्षणे दिवसस्स चउरो भागे, भिक्खू कुजा वियक्खणो । तो उत्तरगुणे कुजा, दिणभागेसु चउसु वि दिवसस्य चतुरो भागान्, कुर्याद भिक्षुर्विचक्षणः। तत उत्तरगुणान्कुर्यात् , दिनमागेषु चतुर्वपि पढम पोरिसि सज्झाय, वीर्य माणं मियायई । तइयाए भिक्खायरिय, पुणो चउत्यीह सज्मार्य ॥१२॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं २६. s ॥१२॥ प्रथमायां पौरुप्यां स्वाध्यायं, द्वितीयायां ध्यानं ध्यायेत् । तृतीयायां भिचाचर्या, पुनश्चतुर्थ्या स्वाध्यायम् साढे मासे दुपया, पोसे मासे चउप्पया । चित्तासोएस मासेसु, तिप्पया हवइ पोरिसी पाढे मासे द्विपदा, पौषे मासे चतुष्पदा । चैत्राश्विनयों र्मासयोः, त्रिपदा भवति पौरुषी अंगुलं सत्तर तेणं, पक्खेणं च दुरंगुलं । चट्टए हायए चावि, मासेणं चउरंगुल अडगुलं सप्तरात्रेण, पक्षेण च द्वयंगुलम् | वर्धते हीयते वापि, मासेन चतुरंगुलम् आसाढबहुले पक्खे, भद्दवए कत्तिए य पोसे य । फग्गुणवइसाहेतु य, बोद्धव्वा श्रमरता आषाढे 'पक्षबहुले, भाद्रपदे कार्तिके च पौषे च । फाल्गुने वैशाखे च, बोडव्या अवमरात्रयः जेठ्ठामुले साढसावणे, कहि अंगुलेहिं पडिलेहा | अहि वीतयम्मि, तए दस प्रहहिं चउत्थे ज्येष्ठामूले आषाढे श्रावणे, षभिरंगुलैः प्रतिलेखा । अप्टाभिर्द्वितीयत्रिके, तृतीये दशभिरष्टभिश्चतुर्थे रति पि चउरो भागे, भिक्खू कुजा वियक्खणो । तो उत्तरगुणे कुज्जा, राभावसु चड्सु वि रात्रावपि चतुरो भागान्, भिक्षुः कुर्याद् विचक्षणः । तत उत्तरगुणान्कुर्यात्, रात्रिभागेषु चतवपि पढमं पोरिसि सायं, वीयं भाणं क्रियायई । तड्याए निमोक्खं तु चउत्थी भुज्जो वि सज्मायें १ कृष्णापक्षमा २ पडिलेहरानो काळ. nan ॥१३॥ R8n ॥१४॥ ॥ १५॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१७॥ ॥१॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ जैन सिद्धांत पाउमाळा. प्रथमपौरुण्यां स्वाध्यायं, द्वितीयायां व्यानं ध्यायेत् । तृतीयायां निद्रामोक्षं तु, चतुर्थ्या भूयोऽपि स्वाध्यायम् ॥१८॥ जे नेइ जया रति, नक्षत्तं तम्मि नहचउभाए । संपत्ते विरमेजा, समाय पोसकालम्मि यन्नयति यदा रात्रि, नक्षत्रं तस्मिन्नेव नमश्चतुर्भागे । संप्राप्ते विरमेत् , स्वाध्यायात्प्रदोषकाले ॥१९॥ तम्मेव य नक्षत्ते, गयणचउभागसावसेसम्मि । धेरत्तियपि कालं, पडिलेहिता मुणी कुजा ॥२०॥ तस्मिन्नेव च नक्षत्रे, गगनचतुर्भागसावशेषे । वैरात्रिकमपि कालं, प्रतिलेख्य मुनिःकुर्यात् ॥२०॥ पुन्विल्लम्मि चउभाए, पडिलेहिताण भण्डयं । गुरुं वन्दितु सन्झाय, कुन्जा दुक्खविमोक्खणं ॥२१॥ पूर्वस्मिन् चतुर्भागे, प्रतिलेख्य भाण्डकम् । गुरुं वन्दित्वा स्वाध्याय, कुर्याद्दुःखविमोक्षणम् पोरिसीए चउभाए, वन्दित्ताण तो गुरुं । अपडिकमित्ता कालस्स, भायणं पडिलेहए ॥२२॥ पौरुष्याश्चतुर्भागे, वन्दित्वा ततो गुरुम् ।। अप्रतिक्रम्य कालं, भाजनं प्रतिलेखयेत् ॥२२॥ मुहपोति पडिलेहिता, पडिलेहिज गोच्छग । गोच्छगलइयंगुलिमओ, वत्थाई पडिलेहए ॥२३॥ मुखपत्रिका प्रतिलेख्य, प्रतिलेखयेद् गोच्छकम् । । 'अङ्गुलिलातगोच्छकः, वस्त्राणि प्रतिलेखयेत् ॥२३॥ उई थिरं अतुरियं, पुन्वं ता वत्थमेव पडिलेहे । तो विर्य पष्फोडे, तइयं च पुणा पमजिज १ अागलीयी ग्रहण की छे गुच्छो जेणे एवो मुनि ॥२१॥ ॥२४॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २६. २६३ उर्ध्व स्थिरमत्वरितं, पूर्वं तावद वस्त्रमेव प्रतिलेखयेत् । ततो द्वितीयं प्रस्फोटयेत, तृतीयं च पुनः प्रमृज्यात् ॥२४॥ अणञ्चावियं अवलियं, अणाणुवंधिममोलि चेव । छप्पुरिमा नव खोडा, पाणीपाणिविसोहणं ॥२५॥ अनर्तितमवलितं, अननुवंध्यमौशली चैव । षट्पूर्वा 'नवखोटका: (कर्तव्याः), पाणिप्राणिविशोधनं ॥२१॥ धारभडा सम्मदा, वज्जेयवा य मोसली तइया । पष्फोडणा चउत्थी, विक्खित्ता वेड्या छठी ॥२६॥ प्रारभटा संमर्दा, वनयितव्या च मौशली तृतीया । प्रस्फोटना चतुर्थी, विक्षिप्ता वेदिका षष्ठी ॥२६॥ पसिढिलपलम्बलोला, एगामोसा प्रणेगरूवघुणा । कुणइ पमाणे पमाय, सकियगणणोवर्ग कुजा ॥२७॥ प्रशिथिलं प्रलंबो लोलः, एकामर्षाऽनेकरूपधूना । कुरुते प्रमाणे प्रमाद, शंकिते गणनोपयोगं कुर्यात् ॥२७॥ अणूणाइरित्तपडिलेहा, अविवञ्चासा तहेव य । पढमं पयं पसाथ, सेसाणि 3 अप्पसस्थाई २॥ अनूनाऽतिरिक्ता प्रतिलेखना, अविव्यत्यासा तथैव च । प्रथमं पदं प्रशस्तै, शेषाणि त्वप्रशस्तानि ॥२८॥ पडिलेहणं कुणन्तो, मिहो कहं कुणइ जणवयकहं वा । देइ व पञ्चक्खाणं, वापइ सयं पडिच्छइ वा ॥२६॥ प्रतिलेखनां कुर्वन् , मिथ: कथां करोति जनपदकथां वा । ददाति वा प्रत्याख्यान, वाचयति स्वयं प्रतीच्छति वा ॥२९॥ पुढवी-अाउकाए, तेऊ-बाऊ-वणस्सइ-तसाणं । पडिलेहणापमत्तो, छह पि विराहयो होइ १ नववार खंखेनु Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैन सिद्धांत पाठमाळा. पृथ्व्यपूकाय, तेजोवायुवनस्पतित्रसाणाम् । प्रतिलेखनाप्रमत्तः, षण्णामपि विराधको भवति ॥३०॥ पुढवी-प्राउकाए, तेऊ-वाऊ-वणस्सा-तसाणं । पडिलेहणाबाउत्तो, कण्हं संरक्खनो होइ ॥३१॥ पृथ्व्यप् , तेजो वायुवनस्पतित्रसाणाम् । ' प्रतिलेखनाऽऽयुक्तः, षण्णां संरक्षको भवति तइयाए पोरिसीए, भत्तं पाणं गदेसए । कण्हं अन्नतराए, कारणम्मि समुहिए । ॥३२॥ तृतीयायां पौरुप्यां, भक्तं पानं गवेषयेत् । षण्णामन्यतरस्मिन् , कारणे समुत्थिते ॥३२॥ वेयण वेयावच्चे, इरियट्ठाए व संजमहाए । तह पाणवत्तियाए, छठं पुण धस्मचिन्ताए ॥३३॥ वेदनायै वैयावृत्याय, इर्याय च संयमार्थाय । तथाप्राणप्रत्ययाय, षष्ठं पुनर्धर्मचिन्तायै ॥३३॥ निगन्यो धिइमन्तो, निग्गन्थी वि न करेज छहिं चेव । ठाणेहिं उ इमेहि, अणहक्कमणाइ से होइ . ॥३२॥ निग्नन्थो धृतिमान् , निर्ग्रन्थ्यपि न कुर्याद षभिश्चैव । स्थानस्त्वेभिः, अनतिक्रमणाय तस्य भवति (तानि) ॥३४॥ प्रायके उवसग्गे, तितिक्खया वम्भचेरगुत्तीनु । पाणिदया तवहेडं, सरीरवोच्छेयणहाए ॥३५॥ आतंक उपसर्गे, तितक्षया ब्रह्मचर्यगुप्तिषु । प्राणिदयाहेतोः तपोहेतोः, शरीरव्यवच्छेदार्थाय ॥३५॥ अवसेस भण्डगं गिझ, चक्खुसा पडिलेहए । परमद्धजोयणायो, विहारं विहरए मुणी . ॥३६॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूनं अध्ययनं २६ अवशेषं भाण्डकं गृहीत्वा, चक्षुषा प्रतिलेखयेत् । * पर समर्धयोजनात्, विहारं विहरेन्मुनिः चउत्प पोरिसीप, निक्खिवित्ताण भायणं । सायं च तो कुजा, सदभावविभावणं चतुर्थ्या पौरुप्यां, निक्षिप्य भाजनम् । स्वाध्यायं च ततः कुर्यात्, सर्वभावविभावनम् पारिसीए चउभाए, बन्दिचाण तो गुहं । किमत्ता कालस्स, सेज्जं तु पडिलेहर पौरुप्याचतुर्भागे, वन्दित्वा ततो गुरुम् । प्रतिक्रम्य कालं, शय्यां तु प्रतिलेखयेत् पासवणुधारभूमि च पडिलेहिज जयं जई । काउस्सगं तो कुजा, सव्यदुःखविमोक्खणं प्रसवणोच्चारभूमि च प्रतिलेखयेव यतं यतिः । कायोत्सर्ग ततः कुर्यात्, सर्वदुः खविमोक्षणम् देवसियं च अडयार, चिन्तिजा अणुपुव्वसो । नाणे य दंसणे चेव, चरितस्मि तहेव य देवसिकं चातिचार, चिन्तयेदनुपूर्वशः । ज्ञाने च दर्शने चैव, चारित्रे तथैव च पारियकाउस्सग्गो, वन्दिताण तो गुरुं । देवसियं तु श्रईयार, आालोएज जहकम्मं पारित कायोत्सर्गः वन्दित्वा ततो गुरुम् । देवसिकं त्वतिचारं, आलोकयेद्यथाक्रमम् पडिकमित्त निस्सल्लो, वन्दित्ताण तो गुरुं । काउस्सगं तथ्यो कुजा, सन्चदुक्तविमोक्खणं * वे गाठ उपरांत आहार न ल जड़ने. , २६५ ||३६|| tan 113011 ॥३८॥ ॥३८॥ ॥३६॥ ॥३९॥ 118011 [1801] ॥४१॥ ॥४१॥ કા Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाला. प्रतिक्रम्य निःशल्यः, वन्दित्वा ततो गुरुम् । कायोत्सर्गं ततः कुर्यात्, सर्वदु:ख विमोक्षणम् पारियकाउस्सग्गो, वन्दित्ताण तो गुरुं । थुइमंगलं च काऊण, कालं संपडलेहर पारितकायोत्सर्गः, वन्दित्वा ततो गुरुम् । स्तुतिमंगलं च कृत्वा, कालं संप्रतिलेखयेत् पढमं पोरिसि सज्मायं, विइयं झाणं मियायई । asure निमोक्खं तु सभायं तु चउस्थि प्रथमपौरुप्यां स्वाध्यायं द्वितीयायां ध्यानं ध्यायेत् । तृतीयायां निद्रामोक्षं तु, स्वाध्यायम् तु चतुर्थ्या पोरिसीप चउत्थीए, कालं तु पडिलेहिया । सज्झायं तु तो कुजा, श्रवोहेन्तो असंजय पौरुप्यां चतुर्थ्या, कालं तु प्रतिलेख्य । स्वाध्यायं तु ततः कुर्यात्, अबोधयन्न संयतान् पोरिसीए चउभार, वन्दिऊण तो गुरुं । पडिकमित्त कालस्स, कालं तु पडिलेहर पौरुष्याश्चतुर्भागे, वन्दित्वा ततों गुरुम् । प्रतिक्रम्य कालस्य, कालं तु प्रतिलेखयेत् श्रागए कायवोस्सग्गे, सव्वदुक्खविमोक्खणे । काउस्सगं तो कुजा, सन्दुक्खविमोक्खणं आगते कायव्यूसर्गे, सर्वदुःखविमोक्षणे । कायोत्सर्गं ततः कुर्यात्, सर्वदुःखविमोक्षणम् राइयं च श्रईयारं चिन्तित प्रणुपुन्सी । नामि दंसणंमि य. चरितं तमि य १ गृहस्थीमोने. ॥४२॥ ॥४३॥ ॥४३॥ ॥४४॥ ॥४४॥ ॥४५॥ ॥४५॥ ॥४६॥ ॥४६॥ 112011 ॥४७॥ 113501 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २६ रात्रिकं चातिचारं, चिन्तयेदनुपूर्वगः । ज्ञाने दर्शने च, चारित्रे तपसि च ॥४ ॥ पारियकाउरसग्गो, वन्दिताण तो गुरुं । राइयं तु अईयारं, पालोएज जहकम्म ॥४॥ पारितकायोत्सर्गः, वन्दित्वा ततो गुरुम् । रात्रिकं त्वतिचारं, आलोचयेद्यथाक्रमम् ॥४९॥ पडिक्कमितु निस्सल्लो, वन्दित्ताण तमो गुरुं । काउस्सगं तो कुजा, सम्वदुक्खविमोक्खणं ॥५०॥ प्रतिक्रम्य निःशल्यः, बन्दित्वा ततो गुरुम् । कायोत्सर्गं ततः कुर्यात् , सर्वदुःखविमोक्षणम् ॥५०॥ किं तवं पडियजामि, एवं तत्थ विचिन्तए । काउस्सगं तु पारित्ता, वन्दई य तमो गुरुं । ॥५॥ कि तपः प्रतिपद्ये, एवं तत्र विचिन्तयेत् । कायोत्सर्ग तु पारयित्वा, वन्देत च ततो गुरुम् ॥११॥ पारियकाउस्सग्गो, वन्दित्ताण तो गुरुं । तवं संपडिवजेता, कुजा सिद्धाण संथवं ॥५२॥ पारितकायोत्सर्गः, वन्दित्वा ततो गुरुम् । तपः संप्रतिपद्य, कुर्यात् सिद्धानां संस्तवम् ॥१२॥ एसा सामायारी, समासेण वियाहिया । जं चरित्ता बहू जीवा, तिण्णा संसारसागर ॥५३॥ एपा समाचारी, समासेन व्याख्याता । यां चरित्वा बहवो जीवाः, तीर्णाः संसारसागरम् ॥१३॥ त्ति बेमि ॥ इति सामायारी छब्बीसइमं प्रज्मयणं समचं का इतिब्रवीमि ।।इतिसमाचारीषड्विशतितममध्ययनं समाप्त॥२६॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० जैन सिद्धांत पाठमाळा. न सा मां विजानाति, नापि सा मह्य दास्यति । निर्गता भविष्यति मन्ये, साधुरन्यस्तत्र व्रजतु ॥१२॥ पेसिया पलिउंचन्ति, ते परियन्ति समन्तभो। रायवेटिं च मन्नन्ता, करेन्ति भिउड़ि मुहे ॥१३॥ प्रेषिताः परिकुञ्चन्ति (अपलपन्ति), ते परियन्ति समन्तात् । राजवेष्टिमिव च मन्यमानाः, कुर्वन्ति भृकुटि मुखे ॥१३॥ वाइया संगहिया चेव, भत्तपाणेण पोसिया । जायपक्खा जहा हंसा, पक्रान्ति दिसो दिसिं ॥१४॥ वाचिता: संगृहीताश्चैव, भक्तपानेन पोषिताः. जातपक्षा यथा हंसाः, प्रक्राम्यन्ति दिशो दश ॥१४॥ अह सारही विचिन्तेइ, खलुंकेहि समागयो । किं मम दुइसीसेहि, अप्पा मे श्रवसीयई ॥१५॥ अथ सारथिर्विचिन्तयति, खलुकैः समागतः । । कि मम दुष्टशिष्यैः, आत्मा मेऽवसीदति ॥१६॥ जारिसा मम सीसा उ, तारिसा गलिगदहा । गलिगदहे जहित्ताणं, दढं पगिण्हई तवं ॥१६॥ यादेशा मम शिष्यास्तु, ताशा गलिगर्दभाः।। गलिंगर्दास्त्यक्त्वा, दृढं प्रगृहणाति तपः मिउमदवसंपन्नो, गम्भीरों सुसमाहियो । विहरइ महिं महप्पा, सोलभूएण अप्पणा ॥१७॥ मूदुर्दिवसंपन्नः, गंभीरः सुसमाहितः । विहरति मही महात्मा, शीलभूतेनात्मना ॥१७॥ ॥त्ति बेमि ॥ खलंकिजं सत्तवीसइमं अज्मयणं समत्तं ॥२७॥ इति ब्रवीमि-इति खलुकीयं सप्तविंशमध्ययनं समाप्तं ॥२७॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं २८ ३०१ ॥१॥ ॥ अह मोक्खमग्गगई अठ्ठावीसइमं अज्झयण ॥ ॥ अथ मोक्षमार्गगतिरष्टाविंशममध्ययनं ।। मोक्खमम्गगई तच्च, सुणेह जिणभासियं । चउकारणसंजुत्तं, नाणदंसणलक्खणं मोक्षमार्गगति तथ्यां, शृणुत जिनभाषिताम् । चतुःकारणसंयुक्तां, ज्ञानदर्शनलक्षणाम् ॥२॥ नाणं च दसणं चेव, चरितं च तवो तहा । एस मन्गु ति पत्रत्तो, जिणेहि वरदसिहं ॥२॥ ज्ञानं च दर्शन चैव, चारित्र च तपस्तथा । एष मार्ग इति प्रज्ञप्तः, जिनैर्वरदर्शिभिः ॥२॥ नाणं च दसणं चेव, चरित्तं च तवो तहाँ । एयंमग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छन्ति सोगई ॥३॥ ज्ञानं च दर्शनं चैव, चारित्रं च तपस्तथा । एतं मार्गमनुप्राप्ताः, जीवा गच्छन्ति सुगति तत्य पंचविहं नाणं, सुयं प्राभिनिवोहियं । श्रोहिनाणं तु तइयं, मणनाणं च केवलं Men. तत्र पंचविधं ज्ञानं, श्रुतमाभिनिवोधिकम् । अवधिज्ञानं तु तृतीय, मनःपर्यायज्ञानं च केवलम् ॥४॥ एयं पंचविहं नाणं, दवाण य गुणाग य । पजवाणं च सव्वेसि, नाणं नाणीहि दंसियं ॥५॥ एतत्पंचविधं ज्ञानं, द्रव्याणा च गुणानां च । पर्यवाणां च सर्वेषां, ज्ञानं ज्ञानिभिर्दर्शितम् 11५|| गुणाणमासयो दव्वं, एगव्यस्सिया गुणा । लक्षणं पजवाणं तु. उमनी अस्सिया भवे ॥२॥ Náll Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ "जैन सिद्धांत पाठमाळा. ॥८॥ ॥८॥ HER गुणानामाश्रयो द्रव्यं, एकद्रव्याश्रितागुणाः । लक्षणं पर्यवाणां तु, उभयोराश्रिता:(स्युः)भवन्ति धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गल-जन्तवो। एस लोंगो त्ति पनत्तो, जिणेहि वरदसिहं धर्मोऽधर्म आकाशं, काल: पुद्गलजन्तवः । एष लोक इति प्रज्ञप्तः, जिनैर्वरदर्शिभिः । धम्मो महरूमो आगासं, दवं इविकमाहियं । अणन्ताणि य दवाणि, कालो पुम्गलजन्तवो धर्मोऽधर्म आकाशं, द्रव्यमेकैकमाख्यातम् | अनन्तानि च द्रव्याणि, काल: पुद्गलजन्तवः गइलक्षणो उ धम्मो, अहम्सो ठाणलक्खणो । भायणं सवव्वाणं, नहं योगाहलक्षणं गतिलक्षणस्तु धर्मः, अधर्मः स्थितिलक्षणः । भाजनं सर्वद्रव्याणां, नभोऽवगाहलक्षणम् वत्तणालक्खणो कालो, जीवो उवमोगलक्षणो । नाणेणं ईसणेणं च, सुहेण य दुहेण य वर्तनालक्षणः कालः, जीव उपयोगलक्षणः । ज्ञानेन दर्शनेन च, सुखेन च दुःखेन च नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा । वीरियं उपयोगो य, एवं जीवरस लक्वर्ण ज्ञानं च दर्शनं चैव, चारित्रं च तपस्तथा । वीर्यमुपयोगश्च, एतज्जीवस्यलक्षणम् , सहन्धयार-उजोयो, पभा छाया तो इ वा । वण्णरसगन्धफासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥९॥ Hon ॥१०॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं २८. ३०३ ॥१३॥ शब्दोऽन्धकारउद्योतः, प्रभाच्छायातप इति वा । वर्णरसगन्धस्पर्शाः, पुद्गलानां तु लक्षणम् ॥१२॥ एगनं च पुहत्तं च, संखा संठाणमेव य । संजोगा य विभागा य, पजवाणं तु लक्षणं ॥१३॥ एकत्वं च प्रथकत्वं च, संख्या संस्थानमेव च । संयोगाश्च विभागाच, पर्यवाणां तु लक्षणम् जीवाजीवा य वन्धो य, पुणं पावाऽसवो तहा । संवरो निजरा मोक्खो, सन्तेए तहिया नव ॥१४॥ जीवा अजीवाश्च वन्धश्च, पुण्यं पापानवौं तथा । संवरो निर्जरा मोतः, सन्त्येते तथ्या नव ॥१४॥ तहियाणं तु भावाण, सम्भाये उवपसणं । भावेणं सहहन्तस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं ॥१५॥ तथ्यानां तु भावानां, सद्भाव उपदेशनम् । भावेन श्रदधतः, सम्यक्त्वं तद व्याख्यातम् ॥१५॥ निसम्गुवएसरुई, प्राणाई सुत्त-वीयरुइमेव । अभिगम-वित्थाररुई, किरिया-संखेर धम्मरुई रा निसर्गोपदेशरुचिः, आज्ञारुचिः सूत्रवीजरुचिरेव । अभिगमविस्ताररुचि., क्रियासक्षेपधर्मरुचिः ॥१६॥ भूयन्येणाहिगया, जीवाजीवा य पुण्णपावं च । सह सम्मइयासवसंवरो य रोएइ उ निस्सग्गो ॥१७॥ मूतार्थनाधिगताः, जीवा अजीवाश्च पुण्यं पापं च । सहसंमत्याऽऽनवसंवरौ च, रोचते (यस्मै) तु निसर्गः ॥१७॥ जो जिदिष्ट भावे, चन्चिहे सइहाइ सयमेव । एमेव नन्नह ति य, स निसगह त्ति नायब्बी मा Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जैन सिद्धांत पाठमाळा. यो जिनदृष्टान् भावान , चतुर्विधान् श्रदधाति स्वयमेव ।। एंवमेव नान्यथेति च, निसर्गरुचिरिति ज्ञातव्य: ॥ एए चेव उ भावे, उवह जो परेण सहहई। छंउमत्येण जिणेण वं, उवएसइ ति नायवो एतान् चैव तु भावान् , उपदिष्टान् यः परेण श्रेधाति । छद्मस्थेन जिनेन वा, (स)उपदेशरुचिरिति ज्ञातव्यः ॥१९॥ रागो दोसो मोहो, अन्नाणं जस्स अवगयं होइ। प्राणाए रोयंतो, सो खलु प्राणाई नाम ॥२०॥ रागो द्वेषो मोहः, अज्ञानं यस्यापगंतं भवति । आज्ञया रोचमानः, स खल्वाज्ञारुचिर्नाम ॥२०॥ जो सुत्तमहिजन्तो, सुरण प्रोगाहई उ सम्मत्तं । भंगेण बहिरेण व, सो सुत्तरुद्ध त्ति नायवो ॥२॥ यः सूत्रमधीयानः, श्रुतेनावगाहते तु सम्यक्त्वम् । अंगेन बाह्येन वा, सः सूत्ररुचिरिति ज्ञातव्यः ॥२१॥ पगेण प्रणेगाई, पयाई जो पसरई उ सम्म । उदए ब्व तेल्लविन्दू, सो वीयरुइ ति नायवो एकेनानेकानि, पदानि यः प्रसरति तु सम्यक्त्वम् । उदक इव तैलविन्दुः स बीजरुचिरिति ज्ञातव्यः ॥२२॥ सो होइ अभिगमरुई, सुयनाणं जेण अत्थयो दिटुं। एकारस अंगाई, पइण्णगं दिहिवायो य ॥२३॥ स भवत्यभिगमरुचिः, श्रुतज्ञानं येनार्थतो हण्टम् । एकादशाड्गानि, प्रकीर्णकानि दृष्टिवादश्च दव्वाण सम्वभावा, सचपमाणेहि जस्स उवलद्धा । संचाहि नयविहीहि, वित्थाररुइ ति नायब्धो ॥२४॥ ॥२३॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराव्ययन सूत्र अध्ययनं २८ ३०५ द्रव्याणां सर्वेभावाः, सर्वप्रमाणेयस्योपलव्हाः। सर्वैर्नविधिभिः, विस्ताररुचिरिति ज्ञातव्यः ||२४|| दसणनाणचरित्ते, तवविणप, सच्चसमिगुत्तीसु। जो किरियाभावई, सो खलु किरियाई नाम ॥२५॥ दर्शनज्ञानचारित्रे, तपोविनये सत्यसमितिगुप्तिपु। यः क्रियाभावरुचिः, स खलुक्रियारुचिर्नाम ॥२५॥ प्रणभिग्गहियकुदिही, संखेवाइ ति हाइ नायन्यो । अविसारो पवयणे, अणमिगहियो य सेसेलु ॥२६॥ अनमिगृहीतकुदृष्टिः, संक्षेपरुचिरिति भवति ज्ञातव्यः । अविशारदः प्रवचने, अनभिगृहीतच शेपेषु जो अस्थिकायधम्म, सुयधम्म खलु चरित्तधमं च । सहइ जिणाभिहियं, सो धम्मइ ति नायया ॥२७॥ योऽस्तिकायधर्म, श्रुतधर्म खलु चारित्रधर्म च । श्रदधत्ते जिनाभिहितं, स धर्मरुचिरिति ज्ञातव्य: ॥२७॥ परमत्यसंथवो वा, मुदिष्परमत्थसेवणं वा वि । पावनकुदुसणवजणा, य सम्मत्तसहहणा ॥२८॥ 'परमार्थसंस्तवः, सुदष्टपरमार्थसेवनं वापि । व्यापन्नकुदर्शनवर्नमें च, सम्यक्त्वश्रद्धानं ॥२८॥ बस्थि चरितं सम्मत्तविहणं, दसणे उ भइयच्वं । सम्मत्तचरित्ताई. जुगवं पुवं व सम्मत्तं Rall नास्ति चारित्रं सम्यक्तविहीन, दर्शने तु भक्तव्यम् । सम्यत्वचारित्रे, युगपत्पूर्व च सम्यक्त्वम् ॥२९॥ नादसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुन्ति चरणगुणा । अंगुणिस नस्थि मोक्खो, नस्थि अमोक्खस्स निन्याणं ||३०|| १ तन्वनु गुण कीर्तन. २ भजना. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. 113011 नादर्शनिनो ज्ञानं, ज्ञानेन विना न भवन्ति चारित्रगुणाः । अगुणिनो नास्ति मोक्षः, नास्त्य मोक्षस्य निर्वाणम् निस्संकिय- निक्कखिय- निव्वितिमिच्छा प्रमूढदिट्टी य । उage - थिरीकरणे, वच्छल भावणे ग्रह निःशक्ति निःकांक्षितं, निर्विचिकित्स्य ममूढदृष्टिश्च । उपबृंहास्थिरीकरणे, वात्सल्यप्रभावनेऽष्टौ ॥३.१ ॥ ॥३१॥ ३०६ सामाइयत्थ पढ, छेदोवहावणं भवे बीये । परिहारवितुद्धी, सुमं तह संपरायं च सामायिकमत्र प्रथमं, छेदोपस्थापनं भवेद् द्वितीयम् | परिहारविशुद्धिक, सूक्ष्मं तथा संपरायम् च कसायमहक्वार्थ, छउमत्थस्स जिणस्स वा । एयं चरितकरं चारितं होइ श्राहियं प्रकषायं यथाख्यातं, छद्मस्थस्य जिनस्य वा । एतच्चय' रिक्तकरं, चारित्रं भवत्याख्यातम् तवो य दुविहो बुत्तो वाहिरव्भन्तरो तहा । बाहिरो छन्हिो बुत्तो, एवमभन्तरो तो तपश्च द्विविधमुक्तं, वाह्यमाभ्यन्तर तथा । बाह्यं षड्विधमुक्तं, एवमाभ्यन्तरं तपः नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सहहे । चरित्रेण निगिण्हाई, तवेण परिसुज्झाई ज्ञानेन जानाति भावान्, दर्शनेन च श्रधत्ते । चारित्रेण निगृह्णाति तपसा परिशुध्यति खवेत्ता युवकस्पाई, संजमेण तवेण य । सव्वदुवखपहीणहा, पकर्मान्ति महसिणो १ कर्मने खपावनारू. ॥३२॥ ॥ ॥३३॥ ॥३३॥ ફ્ ॥३४॥ ॥३५॥ 113911 ॥३६॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं २६. ३०७ क्षपयित्वा पूर्वकर्माणि, संयमेन तपसा च । प्रहीणसर्वदुःखार्थाः, प्रक्रामन्ति महर्षयः ॥३६॥ ॥त्ति बेमि ॥ इति मोक्खमग्गगई समत्ता ॥२॥ इतिबवीमि-इतिमोक्षमार्गगति: समाप्ता ॥२८॥ ॥ अह सम्मत्तपरकम एगणतीसइमं अज्झयणं । ॥ अथ सम्यक्त्वपराक्रममेकोनत्रिंगत्तममध्ययनं ।। लुयं मे श्राउसं-तेण भगवया एवमक्खायं । इह खलु सम्मत्तपरकमे नाम अझयणे समणेणं भगवया महावीरणं कासवेणं पत्रेइए, जसम्म सहहित्ता पत्तिइत्ता रोयइत्ता फासिता पालइत्ता तीरिता कित्तइत्ता सोहइत्ता धाराहिता प्राणाए अणुपालइत्ता बहने जीवा सिमान्त बुझान्ति भुचन्ति परिनिवायन्ति सव्वदुक्खाणमन्तं करेन्ति । तस्स णं श्रयम एवम्माहिजइ, तं जहा:-संवेगे निळेए २ घम्ससद्धा ३ गुरुसाहम्मियमुस्खूसणया ४ पालायणया ५ निन्दया । गरिहणया ७ सामाइए ८ चउन्धीसत्यवे वन्दणे १० पडिकमणे ११ काउस्सग्गे १२ पञ्चक्त्राणे १३ थयथुईमंगले २४ कालपडिलेहणया १५ पायच्चित्तकरणे १६ खमावयणया १७ सन्झाए १८ वायणया १६ पडिपुच्छणया २० पडियट्टणया २१ अगुप्पेहा २२ धम्मकहा २३ सुयस्स पाराहपया २४ एगग्गमणसनिवेसणया २५ संजमे २६ तवे २७ बोदाणे २८ सुहसाए २६ अप्पडिवद्धया ३० विवित्तसयणासणसेवणया ३१ विणियणया ३२ संभोगपञ्चक्खाणे ३३ वहिपञ्चरवाणे ३४ आहारपञ्चक्खाणे ३५ फसायपञ्चक्खाणे ३६ जोगपञ्चवरसाण ३७ सरीरपञ्चक्साणे ३८ सहायपञ्चक्खाणे ३६ भत्तपञ्चवखाणे Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ जैन सिद्धांत पाठमाळा. ४० सम्भावपच्चक्खाणे ४१ पडिरूवणया ४२ व्यावचे ४३ सव्वगुणसंपण्णया ४४ वीयरागया ४५ खन्ती ४६ मुत्ती ४७ महवे ४८ प्रज्जवे ४६ भावसच्चे ५० करणसच्चे ५१ जोगसचे ५२ मणगुत्तया ५३ चयगुत्तया ५४ कायगुत्तया ५५ मणसमाधारणया ५६ वयसमाधारणया ५७ कायसमाधारणया ५८ नाणसंपन्नया ५६ इंसणसंपन्नया ६० चरित्तसंपन्नया ६१ सोइन्दियनिगाहे ६२ चखुन्दियनिग्गहे ६३ घाणिन्दियनिमा ६४ जिव्भिन्दियनिग्गहे ६५ फासिन्दियनिगाहे ६६ कोहविजय ६७ माणविजय ६८ मायाविजए ६६ लोहविजए ७० पंजदोसमिच्छादंसणविजए ७१ सेलेसी ७२ प्रकम्मया ॥ ७३ ॥ " श्रुतं मयाऽऽयुष्मन् तेन भगवतैवमाख्यातम् । इह खलु सम्यक्त्वपराक्रमं नामाध्ययनम् श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदितं । यत्सम्यक् श्रद्धाय, प्रतीत्य, रोचवित्वा, स्टष्ट्वा पालयित्वा तीरयित्वा कीर्तयित्वा शोधयित्वाऽऽराधयित्वाऽऽज्ञया अनुपालयित्वा बहवो जीवाः सिध्यन्ति, बुध्यन्ते, मुच्यन्ते, परिनिर्वान्ति, सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्ति, तस्य प्रयमर्थः एवमाख्यायते तद्यथासंवेगः १ निर्वेद २ धर्मश्रद्धा ३ गुरुसाधर्मिकशुभषणम् ४ आलोचना ५ निन्दा ६ गर्दा ७ सामायिकं ८ चतुर्विंशतिस्तव: ९ चन्दनं १० प्रतिक्रमणं ११ कायोत्सर्गः १२ प्रत्याख्यानं १३ स्तवस्तुतिमंगलं १४ कालप्रतिलेखन १५ प्रायश्चित्तकरणं १६ क्षमापना १७ स्वाध्याय: १८ वाचना १९ प्रतिप्रच्छना २० परिवर्तना २१ अनुप्रेक्षा २२ धर्मका २३ श्रुतस्यश्राराधना २४ एकाग्रमनः संनिवेशना २५ संयमः २६ तपः २७ व्यवदानं २८ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं श्रध्ययनं २६. ३०६ सुखशाय: २९ अप्रतिबद्धता ३० विविक्तशयनासनसेवना ३१ विनिवर्तना ३२ संभोगप्रत्याख्यानं ३३ उपधिप्रत्याख्यानं ३४. आहारप्रत्याख्यानं ३५ कषायप्रत्याख्यानं ३६ योगप्रत्याख्यानं ३७ शरीरप्रत्याख्यानं ३८ सहाय्य प्रत्याख्यानं ३९ भक्तप्रत्याख्यानं ४० सद्भावप्रत्याख्यानं ४१ प्रतिरूपता ४२ वैयावृत्यं ४ ३ सर्वगुणसंपन्नता ४४ वीतरागता ४५ क्षान्तिः ४६ मुक्ति: ४७ मार्दवं ४८ आर्जव ४९ भावसत्यं ५० करणसत्यं ५१ योगसत्यं ५२ मनोगुप्तिता १३ बचोगुप्तिता ५४ कायगुप्तिता १५ मनःसमाधारणा ५६ वाक्समाधारणा १७ कायस माधारणा ५८ ज्ञानसंपन्नता ५९ दर्शन संपन्नता ६० चारित्रसंपन्नता ६१ श्रोत्रेन्द्रियनिग्रहः ६२ चतुरिन्द्रियनिग्रहः ६३ घ्राणेन्द्रियनिग्रहः ६४ जिहवेन्द्रियनिग्रहः ६५ स्पर्शेन्द्रियनिग्रहः ६६ क्रोधविजय: ६७ मानविजयः ६८ मायाविनयः ६९ लोभविजयः ७० रागद्वेषमिथ्यादर्शनविजयः ७१ शैलेषी ७२ प्रकर्मता ७३ ॥ संवेगेणं भन्ते जीवे कि जणय ? | संवेगेणं प्रणुत्तरं धम्मसद्धं जणय । श्रणुत्तराए धम्मसद्धाय संवेगं हन्यमागच्छा । प्रणन्ताणुवन्धिको हमाणमायालोमे खवेद । नवंच कम्मं न वन्धः । तप्पश्चायं च णं मिच्छत्तविसोहिं काऊण दंसणाराहर Har | दंसणविसोहीए य णं विसुद्धा प्रत्येगइए तेणेव भवमाहणं सिज्मई । विसोहीए य णं विसुद्वाय तच पुणो भवग्गणं नाइकमा ॥१॥ संवेगेन भदन्त ! जीवः किं जनयति || संवेगेनानुत्तरां धर्मश्रद्धांजनयति । अनुत्तरया धर्मश्रद्धया संवेगंशीघ्रमागच्छति । अनन्तानु Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० जैन सिद्धांत पाठमाळा. वन्धिक्रोधमानमायालोभानक्षपयति । नवं च कर्म न बध्नाति । तत् प्रत्ययिकां च मिथ्यात्वविशुद्धिं कृत्वा दर्शनाराधकों भवति । दर्शनविशुध्ध्या च विशुद्धया अप्येककः तेनैव भवग्रहणेन सिध्यति। विशुद्धया च विशुद्धया तृतीयंपुनर्भवग्रहणं नातिकामति॥१॥ निवेदेणं भन्ते जीवे किं जणयइ ?। निवेदेणं दिव्बमाणुस तेरिच्छिएस कामभोगेनु निन्वेयं हन्वमागच्छइ । सम्वविसएस्सु. विरजइ । सविसपतु विरजमाणे प्रारम्भपरिचायं करेइ । प्रारम्भपरिचायं करेसाणे संसारमगं वोच्छिन्दइ, सिद्धिलग पडियने य हवा ॥२॥ निदेन भदन्त ! जीवः किं जनयति निवेदन दिव्यमानुष्यतैरश्थेषु कामभोगेषु निर्वेदं शीघ्रमागच्छति । तत:सर्वविषयेभ्यो विरज्यति । सर्वविषयेभ्योंविरज्यमान प्रारंभपरित्यागकरोति । आरंभपरित्यागकुर्वाणः संसारमार्गव्युच्छिनत्ति सिद्धिमार्ग प्रतिपन्नश्चभवति ॥२॥ ___ धम्मसद्धाए णं भन्ते जीवे किं जणयइ ? | धम्मसखाए गं सायासोक्खेसु रजमाणे विरजाइ । श्रागारधम् जणं चयइ । श्रणगारिए णं जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं यणमेयण संजोगाईणं वोच्छेयं करेइ अन्धावाहं च सुहं निव्वत्ते ॥३॥ धर्मश्रद्धयामदन्त ! जीवः कि जनयति? । धर्मश्रद्वया सातासुखेषु रज्यमानो विरज्यते। अगारधर्मं च त्यजति । अनगारो जीवः शारीरमानसानां दु:खानां छेदनभेदनसंयोगादीनां व्युच्छेद करोति । अव्याबाधं च सुख निवर्तयति ॥३॥ __ गुरुसाहम्मियसुरसूसणाए ण भन्ते जीवे कि जणयइ ? । गुरुसाहम्मियसुस्सूसणाए णं विणयपडिवत्ति जणयह । विणयपडिवन्ने यणं जीवे प्रणञ्चासायणसीले नेरइयतिरिक्खजोणिय Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २६. ३११ मणुस्सदेवदुग्गईयो निरुम्भइ । वण्णसंजलणभत्तिवहुमाणयाए मणुस्सदेवगईनो निवन्धर्ड, सिद्धि सोग्गई च विसोहेइ । पसत्याई च विणयमूलाई सबकजाई साहेइ । अन्ने य वहवे जीवे विणिइत्ता भव ॥४॥ गुरुसाधर्मिकशुश्रुषणेन भदन्त ! जीव:कि जनयति ? | गुरुसाधर्मिकशुश्रुषया विनयप्रतिपत्ति जनयति। जीवः अनत्याशातनाशीलो नेरयिकतिर्यग्योनी मनुष्यदेवदुर्गतो च निरुणद्धि । वर्णसंज्वलनभक्ति वहुमानतया मनुप्यदेवगती निवन्नाति । सिद्धि सुगति च विशोधयति । प्रशस्तानि च विनयमूलानि सर्वकार्याणि साधयति । अन्याश्च बहून्जीवान्विनेताभवति ।।४।। । आलोयणाए गं भन्ते जीदे कि जणय ? । पालोयणाए णं मायानियाणमिच्छादसणसल्लाणं मोक्खमन्गविग्घाणं अर्णदसंसारवन्धणार्ण उद्धरणं करे। उजुभावं च जणय। उज्जुभावपडिवो यर्ण जीवे अमाई इत्थीवेयनपुंसगवेयं च नबन्धह। पुन्ववद्धं च णं निजरेइ ॥५॥ __ आलोचनया भदन्त! जीव:किं जनयति । आलोचनया मायानिदानमिथ्यादर्शनशल्यानां मोक्षमार्गविघ्नानामनन्तसंसारबंधनानामुध्धरणकरोति । ऋजुभावं च जनयति | ऋजुभावंप्रतिपन्नश्चजीवोsमायी स्त्रीवेदनपुंसकवेदं च न बध्नाति पूर्ववद्धं च निर्जरयति॥५॥ निन्दणयाए भन्ते जीवे कि जणयइ ?। निन्दणयाए णं पच्छाणुनाव जणयइ । पच्छाणुतावणं विरजमाणे करणगुणढि पडिबजइ । करणगुणसेढीपडिक्ले यणं अणगारे मोहणि कम्मं उग्धाएइ ॥ निन्दनेन भदन्त! जीवःकि जनयति! निन्दनयापश्चात्तापं जनयति। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रं अध्ययनं २३ ३१३ पिर । पिहियवयछिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे असवलचरिते अट्टसु पवयणमायासु उवडते प्रपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरइ ॥ ११ ॥ प्रतिक्रमणेन भदन्त ! जीवः किजनयति ? । प्रतिक्रमणेनव्रतच्छिद्राणि पिदधाति । पिहितव्रतच्छिद्रः पुनर्जीवो निरुद्धास्रवोऽशवल चारित्रश्चाष्टासु प्रवचनमातृ षूपयुक्तोऽष्टथक्त्वः सुप्रणिहितों विह-रति ॥ ११॥ काउसग्गेणं भन्ते जीवे किं जणयह? । काउसग्गेणं तीयपडुप्पन्न 'पायच्चित्तं विसोहे । विसुद्धपायच्छित्ते य जीवे निव्चुयहियए प्रहरियभरुत्व भारवहे पसत्थज्भाणोवगए सुहं सुहेणं विहरइ ॥ १२॥ कायोत्सर्गेण भदन्त ! जीवः कि जनयति । कायोत्सर्गेणाऽतीतप्रत्युत्पन्नं प्रायश्चितंविशोधयति । विशुद्धप्रायश्चित्तश्चजीवों निवृतहृदयेऽपहृतभार इवभारवहः प्रशस्तव्यानोपगतः सुखं सुखेन विहरति ॥ १२॥ पञ्चक्खाणं भन्ते जीवे किं जणय ? । ५० प्रसवदाराई निरुम्भः । पञ्चकखाणेणं इच्छानिरोहं जणय इच्छानिरोहं गए. णं जीवे सव्वदव्त्रे विणीयतण्हे सीइए विहरई ॥ १३ ॥ प्रत्याख्यानेन भदंत ! जीवः किं जनयति । प्रत्याख्यानेनास्रवद्दाराणिनिरुणद्धि | प्रत्याख्यानेन इच्छानिरोधंजनयति । इच्छानिरेघगतश्च जीवः सर्वद्रव्येषु विनीततृष्णः शीतीभूतो विहरति ॥ १३ ॥ थयथुइमंगलेण भन्ते जीवे कि जणयइ ? 1 थ० नाणदंसणचरितवोहिलाभं जणयई । नाणदंसणचरित्तवोहिलाभसंपन्ने य णं जोवे अन्तकिरियं कप्पविमाणोववत्तिगं श्राराहणं श्राराहेइ ॥१४॥ स्तवस्तुतिमङ्गलेन भदन्त ! जीवः किंजनयति । स्तवस्तुतिमङ्ग -लेन ज्ञानदर्शनचारित्रबोधिलाभं जनयति । ज्ञानदर्शनचारित्रबोधि Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ जैन सिद्धांत पाठमाळा. लाभसंपन्नश्च जीवोऽन्तक्रियां कल्पविमानोत्पत्तिकामाराधनामारा ध्नोति ॥ १४॥ काल पडिलेहणयाए णं भन्ते जीवे किं जणय ? | का० नाणावरणिजं कम्मं खवे ॥१५॥ कालप्रतिलेखनया भदन्त ! जीवः कि जनयति । कालप्रति - लेखनया ज्ञानावरणीयं कर्मक्षपयति ॥ १५ ॥ पायच्छत्तकरणेण भन्ते जीवे किं जणय ? | पा० शवकम्मविसोहि जणयह । निरइयारे प्रावि भवइ । सम्प्रं च णं पायच्चित्तं पडिवजमाणे सगं च भग्यफलं व विसोहेइ, श्रायारं च आयारफलं च आराहे ॥१६॥ " प्रायश्चित्तकरणेन भदन्त ! जीवः किं जनयति । प्रायश्चित्तकरणेन पापविशुध्धिं जनयति । निरतिचारश्चापिभवति । सम्यक् च प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यमानः सम्यक्त्वमार्ग च सम्यक्त्वमार्गफलं च विशेोषयति आचारमाचारफलं चाराधयति ॥ १६ ॥ antarare णं भन्ते जीवे किं जणयह ? | ख० पल्हायणभावं जणयs । पल्हायणभावमुब गए य. सव्वपाणभूयजीवसत्ते सु मित्तीभावमुप्पाड मितीभावमुवगए याचि जीव भावचिसोहि arry fare भव ॥१७॥ क्षमापनया भदन्त ! जीवः कि जनयति ? | क्षमापनया प्रह्लादन भावं जनयति । प्रहलादभावमुपगतश्चः सर्वप्राणिभूतजीवसत्वेषु मैत्रीभावमुत्पादयति मैत्रीभावमुपगतश्चापिजीवः भावविशुकृित्वा निर्भयो भवति ॥ १७॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रं अध्ययनं २६. ३१५ समारणं भन्ते जीवे कि जणयइ ?। स० नाणावरणिज कर्म खवेइ ॥१८॥ स्वाध्यायेन भदन्त ! जीव:किं जनयति ?! स्वाध्यायेन ज्ञानावरणीयं कर्म क्षपयति ॥१८॥ वायणाए णं भन्ते जीवे किंजणयइ ?। वा० निजरं जणयइ। सुयस्स य अणुसजणाए अणासायणाए वट्टए। सुयस्स अणुसजणाए अणासायणाए वहमाणे तित्थधम्म अवलन्वइ । तित्थ धम्म अवलम्बमाणे महानिञ्जर महापजवसाणे भवइ ॥ll वाचनया भदन्त ! जीव:किं जनयति ?। वाचनया निर्जरां जनयति। सूत्रस्यचानुसज्जनयाऽनासातनायां वर्तते। सूत्रस्यानासातनायांवर्तमानस्तीर्थधर्ममवलम्वते । तीर्थधर्ममवलम्बमानो महानिरो महापर्यवसानो भवति ॥१९॥ पडिपुच्छणयाए णं भन्ते जीवे कि जणयइ ?। प० सुत्तत्य तदुभयाई विसोहेइ । खामोहणिजे कम्मं वोच्चिन्दा ॥२०॥ प्रतिप्रच्छनया भदन्त ! जोव:किं जनयति! । प्रतिप्रच्छिनयासुत्रार्थ तदुभयानि विशोधयति । कांक्षामोहनीय कर्म व्युन्निति ॥२०॥ परियहणाए ण भन्ते जीव कि जणयइ ? | प० जणाई जणयइ, बंजणलद्धि च उप्पाएइ ॥२२॥ परिवर्तनया भदंत! जीवाकिं जनयति परिवर्तनवा जीव: व्यंजनानि जनयति । व्यंजनलव्धिचोत्यादयति ॥२१॥ अणुप्पहार णं भन्ते जीवे कि जणयइ । अ० पाउयबजायो सत्ताम्मप्पगडीयो धणियवन्धणवद्धानो सिढिलवन्धणवद्धानो पकरेइ । दोहकालहिल्यायो हस्सकालहिश्यायो पकरेइ । तिव्वागुभावाओ मन्दाणुभावानो पकरेइ । (बहुपएसग्गायो अप्पपएसम्मायो पकरेइ) पाउयं च णं कम्म सिया बन्धइ, सिया Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. नो बन्धइ । असायावेयणिजं च णं कम्मं नो भुजो भुजो उवविणाइ । अणाइयं च णं श्रणवदां दीहमद्धं चाउरन्तं संसारकन्तारं खिप्पामेव वीइवयड ॥२२॥ अनुप्रेक्षया भदन्त ! किं जनयति ?| अनुप्रेक्षयाऽऽयुवर्जाः सप्तकर्मप्रकृतीर्गाढबन्धनबद्धाःशिथिलबन्धनबध्धा:प्रकरोति । दीर्घकालस्थितिका हृस्वकालस्थितिका:प्रकरोति। तीव्रानुभावा मन्दानुभावाःप्रकरोति। (बहुप्रदेशाया अल्पप्रदेशाग्राः प्रकरोति।) आयुःकर्म च स्याद्वध्नातिस्यान्नबध्नाति। आशातावेदनीयंचकर्मनो भूयोभूयउपचिनोति । अनादिकं चाऽनवदग्रं दीर्घाध्धं संसारकान्तारं क्षिप्रमेवें व्यतिव्रजति ॥२२॥ धम्मकहाए णं भन्ते जीवे कि जणयइ ?। ध० निजरं जणयह । धम्मकहाए णं पवयणं पभावेइ । पवयण पभावेणं जीवे पागमेसस्स भइत्ताए कम्म निबन्धइ ॥२३॥ धर्मकथया भदन्त ! जीव:कि जनयति ? | धर्मकथयानिर्जरां जनयति धर्मकथया प्रवचनप्रभावयति । प्रवचन प्रभावेणजीव आगमिष्यतिकाले भद्रतया कर्म निबध्नाति ॥२३॥ सुयस्स धाराहणयाए गं भन्ते जीवे कि जणयइ ? । सु० अन्नाणं खवेइ न य संकिलिस्सइ ॥२४॥ श्रुतस्याऽऽराधनया भदन्त ! जीव:किं जनयति । श्रुतस्याराधनयाऽज्ञानं क्षपयति न च संक्लिश्यति ॥२४॥ एगग्गमणसंनिवेसणयाए णं भन्ते जीवे कि जणयइ । ए० 'चित्तनिरोहं करेइ ॥२५॥ एकाग्रमन:संनिवेशनया भदन्त ! जीवःकि जनयति?| एकाग्रमनःसंनिवेशनया चित्तनिरोधं करोति ॥२६॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं श्रध्ययनं २६. ३१७ संजमेणं भन्ते जीवे कि जणयइ ? | सं० प्रणयतं जणयइ ॥ २६ ॥ संयमेन भदन्त ! जीवः किं जनयति । संयमेनानहंस्कत्वं जनयति ॥२६॥ तणं भन्ते जीवे किं जणय ? | तवेणं बोदाणं जणयइ ||२७|| तपसा भदन्त ! जीवः किंजनयति । तपसाव्यवदानं जनयति ||२७|| वोदाणं भन्ते जीवे किं जणयह? | वो० अकिरियं जणयः । किरिया भविता तो पच्छा सिज्म, बुज्म मुबइ परिनिव्वायर सन्वदुक्खाणमन्तं करे ||२८|| व्यवदानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? । व्यवदानेनाक्रियांजनयति, अक्रियोमूत्वा ततः पश्चात्सिध्यति, बुध्यते, मुच्यते, परिनिचति सर्वदुःखानामन्तं करोति ॥ २८ ॥ सुहसारण भन्ते जीवे किं जणयइ ? | सु० अणुस्सुयत्तं जणय । श्रणुस्सुयाए णं जीवे अणुकम्पए अणुम्भडे विनयसोगे चरितमोहणिजं कम्मं खवे ॥२६॥ सुखशातेन भदन्त! जीवः किं जनयति ? | सुखशातेनानुत्सुकत्वंजनयति । अनुत्सुकोजीवोऽनुकम्पको ऽनुदूभटो विगतशोकः चारित्रमोहनीयं कर्म क्षपयति ॥ २९॥ 'पडिबडबाए णं भन्ते जीवे किं जणयह ? । श्र० निस्संगतं जणय | निस्संगत्तेणं जीवे एगे एगम्गचित्ते दिया य गोय सजमाणे अपsिes वारि विहारs ||३०|| प्रतिवद्धता भदन्त ! जीवः किं जनयति ? | प्रतिवद्धतया - निःसंगत्वंजनयति । निःसंगत्वेन जीव एकएकाग्रचित्तो दिवाचरात्रौचा ऽसजन्नप्रतिवद्धश्चापिविहरति ॥३०॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. विवित्तस्यणासणयाए णं भन्ते जीवे किं जणय ? । वि० चरितगुत्ति जणयs । चरितगुत्ते य णं जीवे विवित्ताहारे दढचरिते एगन्तरए मोक्खभावपडिवन्ने अहविहकम्मति निजरेइ ॥३१॥ विविक्तशयनासनतया भदन्त ! जीवः किं जनयति । विविक्तशयना सनतया चारित्रगुप्तिजनयति । गुप्तचारित्रो जीवों विविक्ताहारो दृढ चारित्र एकान्तरतो मोक्षभावप्रतिपन्नोऽष्टविधा कर्मग्रन्थि निर्जरयति ॥३१॥ ३१८ · विनियट्टयाए णं भन्ते जीवे किं जणय ? । वि० पावकम्माणं अकरणयाए भुट्टे । पुन्ववद्वाण य निजरणयाए तं नियते । तो पच्छा चाउरन्तं संसारकन्तारं वीइवयः ॥३२॥ विनिवर्तनया भदन्त ! जीवः कि जनयति ? | पापानां कर्मणामकरण तयाऽभ्युत्तिष्ठति । पूर्ववद्धानां च निर्जरणया तन्निवर्तयति । ततः पश्चाचातुरन्तं संसारकान्तारं व्यतिव्रजति ॥ ३२ ॥ संभोगपश्चक्त्राणं भन्ते जीवे किं जणय ? । सं० श्रालम्वणाई खवेइ । निरालम्वणस्स य आयडिया योगा भवन्ति । सपर्ण लाभेण संतुस्सर, परलाभं तो प्रासादेह, परलाभं नो तक, नो पीहेइ, वो पत्ये, नो अभिलसा । परलाभं श्रणस्सायमाणे माणे पमाणे अपत्येमाणे अणभिलसमाणे दुधं सुहसेज उवसंपजित्ता णं विहरह ॥३३॥ संभोगप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः कि जनयति ! | संभोग प्रत्याख्यानेन जीव आलम्बनानिक्षपयति । निरालम्बनस्यचायतार्था योगाभवन्ति स्वेन लाभेन सन्तुष्यति। परस्यलाभंन स्वादयति । नोतर्कयति नोरटहयति नोप्रार्थयति नोऽभिलषति परस्यलाभमना स्वादयन् अतर्कयन् ? Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं श्रध्ययनं २६ अस्टहयन्, अप्रार्थयन्, अनभिलषन्, द्वितीयां सुखशय्यामुपसंपद्यविहरति ॥ ३३ ॥ उवहिपच्चक्खाणेण भन्ते जीवे किं जणय ? 1 ३० अपलिमन्थं जणयह । निरुवहिर णं जीवे निक्कंखी उवहिमन्तरेण य न संकिलिस्साई ||३४|| उपधिप्रत्यारव्यानेनभदन्त ! जीवः कि जनयति । उपधिप्रत्याख्यानेनापरिमन्थं जनयति । निरुपधिको जीवो निराकांक्ष उपधिमन्तरेण च नसंक्लिश्यते ॥३४॥ प्राहारपञ्चक्खाणं भन्ते जीवे किं जणयह? । प्रा० जीवियासंसप्पयोग घोच्छिन्दः । जीवियासंसप्पयोगं वोच्छिन्दित्ता जीवे आहारमन्तरेणं न संकिलिस्सा ॥३५॥ आहार प्रत्याख्यानेनभदन्त ! जीवः कि जनयति । आहारप्रत्याख्या नेन जीविताशंसाप्रयोगं व्यवच्छिनत्ति । जीविताशंसाप्रयोगं व्यवविद्य जीव आहारमन्तरेण न संक्लिश्यते ॥ ३५॥ कसायपच्चक्खाणं भन्ते जीवे किं जणयइ? । क० वीयरागभावं जणय | वीयरागभावपडिवने वि य णं जीव समसुहदुक्खे भवइ ॥३६॥ कषायप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति । कषायप्रत्याख्यानेन वीतरागभावं जनयति । वीतरागभावप्रतिपन्नोजीवः समसुखदुःखोभवति ॥३६॥ जोगपञ्चक्खाणेण भन्ते जीवे कि जणयइ ? । जो० अजोगतं जणयइ । श्रजोगी णं जीवे नवं कम्पं न वन्धर, पुन्यवद्धं निजरे ॥३७॥ ३१६ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. योगप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः कि जनयति । योगप्रत्याख्यानेनायेोगित्वंजनयति । अयोगी हि जीवो नवं कर्म न बध्नाति पूर्वबद्धं च निर्जरयति ॥ ३७॥ सरीरपच्चक्खाणेणं भन्ते जीवे किं जणयह ? | स० सिद्धाहसगुणकित्तणं निवन्ते । सिद्धाइसयगुणसंपन्ने य णं जीवे लोगभ्गसुवगए परमसुही भवः ॥ ३८ ॥ शरीर प्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः कि जनयति ! शरीरप्रत्याख्यानेन सिद्धातिशयगुणकीर्तन निर्वर्तयति । सिद्धातिशयगुणसंपन्नो जीवोंलोकाग्रमुपगतः परमसुखीभवति ॥ ३८ ॥ सहायपञ्चकखाणं भन्ते जीवे किं जणयइ ? । स० पगीभावं जणयs । एगीभावभूए वि य णं जीवे एगतं भावेभाणे अप्प - · सद्दे अप्प पकलहे अप्पकसार श्रव्यतुमतुमे संजमवहुले I ३२० संदरबहुले समाहिए यावि भव ॥३९॥ # 1 सहाय्यप्रत्याख्यानेन भदन्त । जीवः कि जनयति । सहाय्यप्रत्याख्यानेनैकीभावं जनयति । एकीभावभूतोऽपि य जीव एकत्वंभावयन्नल्पशब्दोऽल्पकंझोऽल्पकलहों ऽल्पकषायोऽल्पत्वंत्वः संयमवहुलः संवरबहुलः समाधिबहुलः समाहितश्चापिभवति ॥ ३९ ॥ भत्तपचक्खाणं भन्ते जीवे किं जणय ? | भ० गाई भवसयाई निरुम्भs ॥४०॥ भक्तप्रत्याख्यानेन भदन्त! जीवः किं जनयति । भक्तप्रत्याख्यानेनानेकानि भवतानि निरुणद्धि ||४०|| सम्भावपचक्खाणं भन्ते जीवे किं जणयह? | सब अनियहिं जणय | अनियट्टिपडिवन्ने य श्रणणारे चत्तारि केवलि Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं २६ ३२१ कम्मले खद, तं जहा-णिनं प्रायं नाम गाय । तम्रो पच्छा सिमा त्रुज्मइ मुच्चइ लवदुक्खाणमन्तं करंद ॥शा सदभावप्रत्याख्यानेन भदंत! जीव:किं जनयति ?। सदभावप्रत्या स्यानेनानिवृत्तिं जनयति । अनिवृत्तिं प्रतिपन्नोऽनगारः चत्वारि केवलिसकर्माशान् क्षपयति । तद्यथा वेदनीयमायुःकर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म, तत्पश्चात्सिति, बुध्यते, मुच्यते, परिनिर्वाति सर्वदुः खानामन्तंकरोति ॥४॥ पडिरूवयाए णं भन्ने जीचे कि जणयइ ? | ए० लावियं उणयइ । लघुभूए णं जीवे अप्पमत्ते पागड लगे पसलिये विमुद्धसम्मत्ते सत्तसमिइसमते सबपाणभूयजीवसत्तर वीससणिजस्व अप्पडिलेह जिइन्दिए विललतवसमिइसमभागए यावि भव ॥४॥ प्रतिरूपतया भदन्त! जीव:किं जनयति । प्रतिरूपतया लाघविकतां जनयति । लघुभूतश्चजीवोऽप्रमत्तः प्रकटलिंगः प्रशस्त लिंगोविशुद्धसम्यक्त्वः समाप्तसत्यसमितिः सर्वप्राणभूतजीवसत्वेषु विश्वसनीयरूपोऽल्पप्रतिलेख जितेन्द्रियो विपुलतपःसमिति समन्वागतश्चापि भवति ॥४२॥ यावशेणं भन्ते जीव कि जणयह? । ३० तित्यवरनामगोतं क्रम्म निवन्धह ॥४॥ यावृत्येन भदन्त! जीव:कि जनयति ? | वयावृत्येन तीर्थकरनामगोत्रं कर्म निवघ्नाति ना४३॥ सन्वगुणसंपन्नयाए णं भन्ते जी कि नपय?1. अपुणरायत्ति उणयइ । अपुणरावत्ति पत्तए, य जीव सारी. माणसाणं दुक्खाणं नो भागी भवद Meen Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. सर्वगुणसंपन्नतया भदन्त ! जीव:किं जनयति । सर्वगुणसंपन्न तयाऽपुनरावृत्ति जनयति । अपुनरावृत्ति प्राप्तश्चनीवः शरीरमानसानां दुःखानां नो भागी भवति ॥४॥ वीयरागयाए णं भन्ते जीवे किं जणयइ । वी० नेहाणुबन्धजाणि तण्हाणुबन्धणाणि य वोच्छिन्दह, मणुनामणुन्नेसु सहफरिसरूवरसगन्धेसु चेव विरजइ ॥४५॥ वीतरागतया भदन्त! जीव:कि जनयति । वीतरागतया स्नेहानुचन्धनानि, तृष्णानुबन्धनानि च व्युच्छिनत्ति। मनोज्ञामनोज्ञेषु शब्दस्पर्शरूपरसगन्धेषु चैव विरज्यते ॥४५॥ __ खन्तीए णं भन्ते जीवे कि जणयह ? | ख० परीसहे जिणइ ॥४६॥ क्षान्त्या भदन्त ! जीव:किं जनयति । क्षान्त्या परिषहान् जयति ॥४६॥ मुत्तीए णं भन्ते जीवे कि जणयइ । मु० अकिंचणं जणयह । अकिंचणे य जीये अत्थलोलाणं पुरिषाणं अपत्थणिजो भवइ ॥४७॥ मुक्या भदन्त ! जीवकि जनयति । मुक्त्याऽऽकिचन्यं जनयति । अकिचनश्च जीवोऽर्थलोलानां पुरुषाणामप्रार्थनीयो भवति ॥४७॥ अजवयाए णं भन्ते जीवे किं जणयह? । अ० काउज्जुययं भावुन्जुययं भासुज्जुययं अविसंवायर्ण जणयड । अविसंवायणसंपनयाए ण जीवे धम्मस्स ाराहए भक ॥४॥ आजवेन भदन्त! जीव:कि जनयति ? | आजवेन काय कतां Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं २६. ३२३ मावर्जुकतां भापर्जुकतां अविसंवादनं जनयति। अविसंवादन संपन्नतया जीवो धर्मस्याराधको भवति ४८|| मइवयाए भन्ते जीवे कि जणयइ ? | म० अणुस्सियन्तं जणयइ । अणुस्सियत्तेण जीवे मिउमहवसंपन्ने अह मयट्ठाणाई निहावेइ ॥४क्षा ___ मार्दवेन भदन्त! जीव:कि जनयति! | मार्दवेनानुत्सुकत्वं जनयति । अनुत्सुकत्वेन जीवो मूदुमादेवसंपन्नोऽप्टौ मदम्यानानि निआफ्यति (क्षपयति) ॥४९॥ - भावसच्चेणं भन्ते जीवे किं जणयइ ? | भा० भावविसोहि जणयइ । भावविसोहिप वट्टमाणे जीवे अरहन्तपन्नत्तस्स धम्मस्स पाराहणयाए प्रभुटेइ ! अरहन्तपन्नत्तस्स धम्मस्स पाराहणयाए अभुद्वित्ता परलोगधम्मस्स पाराहए भवड ॥५०॥ भावसत्येन भदन्त ! जीवःकि जनयति? । भावसत्येन भावविशुद्धि जनयति । भावविशुळ्यां वर्तमानो जीवोऽहत्प्रज्ञप्तस्य धर्मम्याराधनाथै अम्युत्तिष्ठते । अर्हत्प्रज्ञप्तस्य धर्मस्याराधनताये अम्युत्याय परलोकधर्मस्याराधका भवति ॥५०॥ , करणसच्चेणं भन्ते जीवे किं जणयह ? । क० करणसत्ति जणयइ । करणसचे वट्टमाणे-जीवे जहावाई तहाकारी यावि भवइ ॥५१॥ करणसत्येन भदन्त ! जीव:कि जनयति । करणसत्येन करण शक्ति जनयति | करणसत्ये वर्तमानो जीवों यथावादी तथाकारी चापि भवति ॥५॥ जोग सन्चेणं भन्ते जीव किं जगयइ? । जो लोग विसाहेमा Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ जैन सिद्धांत पाठमाळा. ससारे न विना ससूत्रा न विनरन्ते संसारकान्ताः ज्ञानसंपन्नतया भदन्त! जीव:कि जनयति? । ज्ञानसंपन्नतयाजीव: सर्वभावाभिगमं जनयति । ज्ञानसंपन्ना जीवश्चातुरन्ते संसारकान्तारै न विनश्यति । यथासूची ससूत्रा न विनश्यति तथा जीवः ससूत्रः संसारे न विनश्यति । ज्ञानविनयतमःचारित्रयोगान् संप्राप्नोति स्वसमयपरसमयविशारदश्चासंघातनीयो भवति ॥५९॥ दसणसंपन्याए णं भन्ते जीवे कि जणयइ ? । दं० भवमिच्छत्तछेयणं करेइ, परं न विज्मायह। परं प्रविमाएमाणे अणुत्तरेण नाणदसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे सम्म भावमाणे विहरइ ॥६॥ दर्शनसंपन्नतया भदन्त ! जीवः किजनयति ? | दर्शनसंपन्नतया भवमिथ्यात्वच्छेदनं करोति । परं न विध्यापयति । परमविध्यापयन्ननुत्तरेण ज्ञानदर्शनेनात्मानं संयोजयन् सम्यग् भावयन् विहरति ॥६०॥ चरित्तसंपन्नयाए णं भन्ते जीवे कि जणयह ? । च० सेलेसीभावं जणयइ । सेलेसि पडिवन्ने य अणगारे चत्तारि केवलिकमसे खवेइ । तो पच्छा सिज्मा वुज्झइ मुचइ परिनिव्वायइ सव्वदुक्खाणमन्तं करेइ ॥६॥ चारित्रसंपन्नतया भदन्त! जीवः कि जनयति । चारित्रसंपनतया शैलेषीभावं जनयति । शैलेषीप्रतिपन्नश्वाऽनगारः चतुरः केवलिकर्माशान क्षपयति । ततः पश्चात्सिध्यति, बुध्यते, मुच्यते सर्वदुःखानामन्तंकरोति ॥६॥ ___ सोइन्दियनिग्महेणं भन्ते जीवे कि जणय ?। सो० मणुनामणुनेसु सद्देसु रागदोसनिग्गहं जणयह । तप्पञ्चायं कर्म न बन्धइ, पुन्धबद्धं च निजरेइ ॥६॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रं अध्ययनं २६. ३२७ श्रोत्रेन्द्रियनिग्रहेण जीवः कि जनयति । श्रोत्रेन्द्रियनिग्रहण .मनोज्ञामनोज्ञेषु शन्देषु रागद्वेषनिग्रहं जनयति । रागद्वेषोत्पन्न तत्प्रत्यय कर्म न बध्नाति । पूर्ववद्ध च निर्जरयति ॥६२॥ चक्खुन्दियनिग्गहेणं भन्ते जीवे किं जणयइ ? । च० मणुनामणुळेसु रूबेतु रागदोसनिग्गह जणयइ । तप्पञ्चइयं कम्म न वन्धs, पुत्रबद्धं च निजरेइ ॥६॥ __ चक्षुरिन्द्रियनिग्रहेण भदन्त! जीवकि जनयति? | चक्षुरिन्द्रियनिग्रहेण मनोज्ञामनोजेषु रूपेषु रागद्वेषनिग्रहं जनयति। तत्प्रत्ययं कर्म न वनाति। पूर्वबद्ध च निर्जरयति ॥३॥ घाणिन्दिय निरगहेणं भन्ते जीवे किं जणयइ ? । घा० मणुधामणुशेतु गन्धेसु रागदोसनिग्गहं जणायइ, तप्पञ्चइयं कम्म न वन्धइ, पुत्ववद्धं च निजरेइ ॥६॥ घ्राणेन्द्रियनिग्रहेण भदन्त ! जीव:कि जनयति । घ्राणेन्द्रियनिग्रहेणमनोज्ञामनोज्ञेषु गन्धेषु रागद्वेषनिग्रहंजनयति। तत्प्रत्ययंकर्म न बन्नाति । पूर्ववद्धचनिर्जरयति ॥६॥ जिमिन्दियनिगहेणं भन्ते जीवे कि जणयइ । जि० मणुनामणुग्नेलु रसेसु रागदोसनिम्गहं जणयइ, तप्पञ्चश्यं कर्म न वन्धर, पुत्ववद्धं च निजरेइ ॥६५॥ जिहवेन्द्रियनिग्रहेण भदन्त ! जीवः किंजनात ? | जिहवेन्द्रियनिग्रहेण मनोज्ञामनोज्ञेषु रसेषु रागद्वेषनिंग्रह जनयति। तत्प्रत्ययंकर्म न बध्नाति । पूर्ववाद च निर्जरयति ॥६॥ फासिन्दियनिग्गहेणं भन्ते जीवे किं जणयड? । फा० मणुशमणुन्लेलु फासेतु रागदोसनिमाह जणयड, तप्पश्चइयं कम्म न वाधर, पुब्वबद्धं च निजरे l Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ३२८ जैन सिद्धांत पाठमाळा. स्पर्शेन्द्रियनिग्रहेण भदन्त ! जीवः किं जनयति । स्पर्शेन्द्रिय निग्रहेण मनोज्ञामनोज्ञेषु स्पर्शेषु रागद्वेषनिग्रहं जनयति । तत्प्रत्ययं कर्म न बध्नाति । पूर्वबधं च निर्जरयति ॥६६॥ कोह विजएणं भन्ते जोवे किं जणयह? को खन्ति जणयड, कोहवेयणिज कम्म न वन्धर, पुव्यवद्धं च निजरेह ॥६७॥ क्रोधविजयेन भदन्त ! जीव: कि जनयति । क्रोधविजयेन क्षान्ति जनयति । क्रोधवेदनीय कर्म न बध्नाति पूर्वबध्धं च निर्जरयति ॥६॥ माणविजएणं भन्ते जीवे कि जणयह ? । मा० महवं जणयइ, माणवेयणिन कम्मं न बन्धइ, पुववद्धं च निजरेइ ॥६॥ ___ मानविनयेन भदन्त ! जीवःकि जनयति! । मानविनयेन मार्द वंजनयति। मानवेदनीयं कर्म नबध्नाति पूर्ववध्वं च निर्जरयति॥६॥ मायाविजएणं भन्ते जीवे कि जणयई ? | मा० अजवं जणयइ । मायावयनिज कम्म नबन्धर, पुववद्धं च निजरेइ ६९ll मायाविनयेन भदन्ता जीव:कि जनयति? । मायाविजयेनार्जवं जनयति। मायावेदनीय कर्म न बध्नाति। पूर्वबद्धं च निर्जरयति॥६९॥ लोभविजएणं भन्ते जीवे कि जणयइ ? । लो० संतोसं जणयह, लोभयणि कम्मै नबन्धइ, पुब्बवद्धं च निजरेइ ॥७०॥ लोभविनयेन भदन्त! जीव:कि जनयति। लोभविजयेन संतोष जनयति। लोभवेदनीयं कर्म नबध्नाति । पूर्वबद्धं च निर्जरयति॥७०॥ पिजदोसमिच्छादसणविजएणं भन्ते जीवे किं जणयइ । पि० नाणदंसणचरिताराहणयाए अब्भुर। अहविहस्स कम्मस्स कम्मर्गाण्ठविमोयणयाए तप्पढमयाए जहाणुपुत्वीय प्रह Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययनं २६ ३२६ वीसइविहं मोहणिज कम्म उग्घाएइ, पञ्चविहं नाणावरणिजं, नवविहं दसणावरणिज्ज, पंचविहं अन्तराश्य, एए तिन्नि वि कम्मंसे जुगर खवेइ । तो पच्छा अणुत्तरं कसिणंपडिपुण्णं निरावरणं वितिमिरं विसुद्धं खोगालोगप्पभावं केवलवरनाणदसणं समुप्पादेइ । जाव सजोगी भवइ, ताव ईरियावहियं कम्म निवन्धइ सुहफारसं दुसमयठियं । तं पढमसमय बद्ध, विश्यसमए वेइयं, तझ्यसमए निजिणं, तं बद्धं पुढं उदीरियं वेइयं निजिण्णं सेयाले य अकम्मया च भव॥७॥ प्रेमद्वेषमिथ्यादर्शनविजयेन भदन्त ! जीव:किं जनयति । रागद्वेषमिथ्यादर्शनविजयेन ज्ञानदर्शनचारित्राराधनायामम्युत्तिष्ठते । अष्टविधस्य कर्मणः कर्ममन्थिविमोचनायें तत्प्रथमतया यथानुपूया अष्टाविंशतिविधं मोहनीयं कर्मोदधातयति । पंचविधं ज्ञानावरगीय, नवविध दर्शनावरणीय, पंचविधमन्तरायिकतानि त्रीण्यपि कर्माणि युगपत् क्षपयति । ततः पश्चादनुत्तरं उत्स्नं प्रतिपूर्ण निरावरण वितिमिरं विशुद्ध लोकालोकप्रभाव केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पादयति । यावत्सयोगी भवति तावदैर्यापथिकं कर्म बध्नाति । सुखस्पर्श हिसमयस्थितिकं तत् प्रथमसमये बद्धं द्वितीयसमये वेदितं तृतीयसमये निर्माण तबद्धं स्टण्टमुदीरितं वेदितं निर्णमेष्यकाले चाकर्मा भवति ॥७१ अह पाउयं पालइत्ता अन्तोमुहत्तद्धावसेसाप, जोगनिरोह करेमाणे बहुमकिरियं अप्पडिवाई सुकमाणं झायमाणे तप्पढमयाए मणजोग निम्भइ, पइजोग निकभइ, कायजोग निरुम्भइ, प्राणपाणुनिरोह करेइ, ईसिपंचरहस्सक्खल्चारणहाए न्य णं अणगारे समुच्छिन्नकिरियं अनियट्टिलुकमाणं मियाय Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. माणे देयणिज्ज आउयं नाम गोतं च एए चत्तारि कम्मसे जुगवं खवेइ ॥७२॥ अथ यावदायुः पालयित्वाऽन्तर्मुहूर्ताद्धावशेषायुप्क:(सन्)योगनिरोधं करिष्यमाणः सूदमक्रियमप्रतिपाति शुक्लध्यानं ध्यायन तत्प्रथमतया मनोयोगनिरुणद्धि मनोयोगनिरुध्य)वागयोगं निरुणद्धि काययोगनिरुणध्यन्न पाननिरोधं करोति।(कृत्वा)पंचस्वाक्षरोच्चाराद्धायां चानगारः समुच्छिन्नक्रियमनिवृत्तिशुक्लध्यानं ध्यायवेदनीयमायुर्नाम गोत्रं. चेतान् चतुरः कर्माशान् युगपत्क्षप यति ॥७२॥ __तो अोरालियतेयकम्माई सव्वाहिं विप्पजहणाहि विप्पजहिता उज्जुसेविपत्ते अफुसमाणगई उर्दू पगसमएणं अविम्गहेणं तत्थ गन्ता सागरोवउत्ते सिज्मइ बुझ जाव अन्त करेह ॥७३॥ ___तत औदारिक तेन:कर्माणि सर्वामिविप्रहाणिभिस्त्यक्त्वा ऋजु, श्रेणि प्राप्तोऽस्पर्शगतिरुव॑मेकसमयेनाविग्रहेण तत्र गत्वा. साकारोपयुक्तः सिध्यति, बुध्यते यावदन्त करोति ॥७३॥ एस खलु सम्मत्तपरकमस्स अज्मयणस्स अट्टे समणेणं भगवया महावीरेण श्राधविए पनविए परूविए सिए उवदंसिए ॥७॥ एष खलु सम्यक्त्वपराक्रमस्याध्ययनस्यार्थः श्रमणेन भगवता महावीरेणाख्यातः प्ररूपितो दर्शित उपदर्शितः।।७४। ॥ति बेमि ॥ इति सम्मत्त परकमे समत्ते ॥२६ ॥इति ब्रवीमि ॥ इतिसम्यक्त्वपराक्रमः समाप्तः ॥२९॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं प्रध्ययनं ३० ॥ ग्रह तवमग्गं तीसइमं श्रयणं । ॥ अथ तपोमार्ग त्रिशमव्ययनम् ॥ जहा उ पावगं कम्मं, रागदोससमज्जियं । खवे तवसा भिक्खू, तमेगभामणो सुण यथा तु पापकं कर्म, रागद्वेषसमर्जितम् । क्षपयति तपसाभिक्षुः, तदेकाग्रमनाः शृणु पाणिवहमुसावाया, प्रदत्तमेहुणपरिमहा विरयो । राईभोयणविरथो, जीवो भव प्रणासवो प्राणिवघमृषावाद, अदसमैथुनपरिग्रहेभ्योविरतः । रात्रिभोजनविरतः, जीवो भवति अनास्रवः पंचसमितिगुतो अकसाथ जिइन्दियो । 'श्रगारवो य निस्सल्लो, जीवो होइ प्रणासवो पंचसमितस्त्रिगुप्तः, अकषायो जितेन्द्रियः । अगौरवश्च निःशल्यः, जोवो भवत्यनास्रवः एएसिं तु विवञ्चासे, रागदोससमज्जियं । खवेइ उ जहा भिक्खू, तमेगग्गमणो सुण एतेषां तु विपर्यासे, रागद्वेषसमर्जितम् । क्षपयति तु यथा भिक्षुः, तदेकाग्रमनाः शृणु जहा महातलायस्स, सन्निरुद्धे जलागमे । उस्सिचणाप तवणाए, कमेणं सोसणा भवे यथा महातडागस्य, संनिरुद्धे जलागमे । उत्सिचनेन तपनेन क्रमेण शोषणा भवेत् एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे । . भवकोडीसंचियं कम्मं, तबसा निजरिजर F ३३६ #Kh ॥१॥ ॥शा PRIM ॥३॥ ॥३॥ ॥४॥ 1181 በቤ ॥५॥ ६ ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - રૂરૂર जैन सिद्धांत पाउमाळा. एवं तु संयतस्यापि, पापकर्मनिरालवे । भवकोटिसंचितं कर्म, तपसा निर्जीयते सो तवो दुविहो वुत्तो, वाहिरन्भन्तरो तहा। वाहिरो छन्विहो वुत्तो, एवमन्भन्तरो तवो तत्तपो द्विविधमुक्तं, बाह्यमाभ्यंतरं तथा । बाह्य षड्विधमुक्तं, एवमाभ्यन्तरं तपः अणसणमूणोयरिया, भिक्खायरिया य रसपरिचायो। . कायकिलेसो संलोणया य बन्झो तवो होइ अनशनमुनोदरिका, भिक्षाचर्या च रसपरित्यागः । -कायक्लेश:संलीनता च, बाह्य तपो भवति इत्तरिय मरणकाला य, अणसणा दुविहा भवे । इत्तरिय सावकंखा, निरवकंखा उ बिइजिया इत्वरिकं मरणकालं च, अनशनं द्विविधं भवेत् । इत्वरि सावकांक्ष, निरवकक्षिं तु द्वितीयम् । ९॥ जो सो इत्तरियतवो, सो समासेण छविहो । सेदितवो पयरतवो, धणों य तह होइ धम्मो य ॥२०॥ यत्त्वित्वरिकं तपः, तत्समासेन षड्विधम् | अणितपः प्रतरतपः, धनतपश्च तथा भवति वर्गतपश्च ॥१०॥ तत्तो य वगवगो, पचमो छठश्रो पाइण्णतवो । मणइच्छियचित्तत्थो, नायब्यो होइ इत्तरिमो ततश्च वर्गवर्गतपः; पंचमं षष्ठं च प्रकीर्णं तपः । मनइप्सितं चित्रार्थ, ज्ञातव्यं भवतीत्वरिकम् । 'जा सा अणसणा मरणे, दुविहा सा वियाहिया। सवियारमवियारा, कायचिटुं पई भवे Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं ३०. यत्तदनशनं मरणे, द्विविधं तदूव्याख्यातम् । सविचारमविचारं, कायचेष्टां प्रति भवेत् हवा सपरिकम्मा, अपरिकम्मा य श्राहिया । नीहारिमनीहारी, आहारच्छेश्रो दोसु वि अथवा सपरिकर्म, अपरिकर्म चाख्यातम् । निहारि अनिहरि, आहारच्छेदो द्वयोरपि श्रोमोयरणं पंचहा, समासणे वियाहियं । दव्यो खेत्तकालेणं, भावेणं पज्जवेहि य अवमौदयं पंचधा, समासेन व्याख्यातम् । द्रव्येण क्षेत्रेण कालेन, भावेन पर्यवैश्व जो जस्स उ श्राहारो, तत्तो श्रोमं तु जो करें | जहणेगसित्थाई, एवं वे यो यस्यत्वाहारः ततोऽवमं तु यः कुर्यात् । जघन्येनेक' सिक्थकं, एवं द्रव्येण तु भवेत् गामे नगरे तह रायहाणिनिगमे य श्रागरे पल्ली | खेडे कव्वडदोणमुहपट्टणमडम्वसंवाहे ग्रामे नगरे तथा राजधान्यां, निगमे चाकरे पलयां | खेटे कटे द्रेोणमुखे, पत्तनमण्डपसंचाचे धासमपण विहारे, सन्निवेसे समायघोसे य । थलिलेणाखन्धार, सत्ये संघट्टकोट्टे य आश्रमपदे विहारे, संनिवेशे समाजघोषे च । स्थलसेनायां स्कन्धावारे, सार्थे संवर्तकोटे च बाडेसु व रत्थासु व, घरे वा पवमित्तियं खेत्तं । कप्पर उ एवमाई, एवं वेत्तेण ऊ भवे १ एक्क्वल. ३३३ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१३॥ na ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१६॥ आरआ ॥१७॥ ॥१८॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ जैन सिद्धांत पाटमाळा. वाटेघु वा रथ्यासु वा, गृहेपुवैवमेतावत् क्षेत्रम् । कल्पतेत्वेवमादि, एवं क्षेत्रेण तु भवेत् ॥१८॥ पेडा य अद्धपेडा, गोमुचिपयंगवीहिया चेव । सम्वुकावट्टायगन्तुंपञ्चागया छट्ठा ॥१६॥ पेटा चार्धपेटा, गोमूत्रिका पतंगवीथिका चैव । शंबूकावर्ता आयतंगत्वापश्चादागता पष्ठी ॥१९॥ 'दिवसस्स पोल्सीणं, चउण्डंपि उ जत्तिनो भवे कालो । एवं चरमाणो खलु, कालोमाणं मुणेयत्वं ॥२०॥ दिवसस्य पौरुषीणां, चतुष्कृणामपि त्वेतावान् भवेत् कालः । एवं चरन्खल, कालावमत्वं ज्ञातव्यम् ॥२०॥ अहवा तइयाए पोरिसीप, ऊणाइ घासमेसन्तो। चऊभागूणाए वा, एवं कालेण ऊ भवे ॥२२॥ अथवा तृतीयायां पौरुष्यां, ऊनायां ग्रासमेषयन् । 'चतुर्भागोनायां वा, एवं कालेन तु भवेत् ॥२१॥ इत्थी वा पुरिसो वा, अलकिश्रो वा नलंकित्रो वावि । अनयरवयत्थो वा, अन्नयरेणं व वत्येण । ॥२॥ स्त्री वा पुरुषो वा, अलंकृतो वाऽनलंकृतो वापि । अन्यतरवयःस्था वा, अन्यतरेण वा वस्त्रेण ॥२२॥ अन्नेण विसेसेणं, वणेणं भावमणुमुयन्ते उ । एवं चरमाणो खलु, भावोमाण मुणेयन्वं ॥२३॥ अन्येन विशेषेण, वर्णेन भावमनुन्मुञ्चन्तु। । एवंचरन्खलु, भावावमत्वं ज्ञातव्यम् ॥२३॥ दव्वे खेत्ते काले, भावम्मि य आहिया उ जे भावो । ' एपहि श्रोमचरो, पजक्चरो भवे भिक्खू । २४॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२५॥ ॥२६॥ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं ३०. द्रव्ये क्षेत्रे काले भावे, चाख्यातास्तु ये भावाः । एतैरवमचरः, पर्यवचरो भवेद् भिक्षुः अहविहगोयरमग तु, तहा सत्तेव एसणा। अभिमाहा य जे अन्ने, भिक्खायरियमाहिया अष्टविधगोचरानं तु, तथा सप्तर्वेषणाः। अभिग्रहाश्च येऽन्ये, भिक्षाचर्यायामाख्याताः खीरदहिसप्पिमाई, पणीय पाणभोयणं । परिवजण रसाणं तु, भणियं रविवजणं क्षीरदघिसर्पिरादि, प्रणीतं पानभोजनम् । परिवर्जन रसानां तु, भणितं रसविवर्ननं ठाणा वीरासणाईया, जीवस्स उ सुहावहा । उम्गा जहा धरिजन्ति, कायकिलेसं तमाहियं स्थानानि वीरासनादीनि, जीवस्य तु सुखावहानि । उग्राणि यथा धार्यन्ते, कायक्लेशः स आख्यातः एगन्तमणावाए, इत्थीपसुविवजिए । संयणासणसेवणया, विवित्तसयणासणं एकान्तेऽनापाते, स्त्रीपशुविवर्जिते । शयनासनसेवनया, विविक्तशयनासनम् एसो वाहिरगंतवो, समासेण वियाहियो। प्रभिन्तरं तवं पत्तो, बुच्छामि अणुपुदवसो एतद् वाह्यं तपः, समासेन व्याख्यातम् । । आभ्यन्तरं तप इतः, वदयेऽनुपूर्वशः पायच्छित्तं विणो, व्यावचं तहेव समाओ । भाणं च विउस्सग्गो, एसो अभिन्तरो तवो ॥२७॥ ॥२७॥ ॥२०॥ ॥२८॥ Rall ॥२९॥ ॥३०॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३२॥ ॥३२॥ जैन सिद्धांत पाठमाळा. प्रायश्चितं विनयः, वैयावृत्यं तथैव स्वाध्यायः, . ध्यानं च व्युत्सर्गः, एतदाभ्यन्तरं तपः पालोयणारिहाईयं, पायच्छित्तं तु वसविहं । ज भिक्खू वहई सम्म, पायच्छित्तं तमाहियं आलोचनादिकं, प्रायश्चित्तं तु दशविधम् । यभितुर्वहति सम्यक्, प्रायश्चित्तं तदाख्यातम् प्रभुहाणं अंजलिकरणं, तहेवासणदायणं । गुरुभत्तिभावसुस्सूसा, विणश्रो एस वियाहिनी अभ्युत्थानमालिकरणं, तथैवासनदानम् । गुरुभक्तिभावशुश्रूषा, 'विनय एष व्याख्यातः पायरियमाईए, वेयावम्मि दसविहे । प्रासेवर्ण जहाथाम, वेयावञ्चं तमाहियं आचार्यादिके, चैयाकृत्ये दशविधे । मासेवनं यथास्थाम, वैयावृत्वं तटाख्यातम् वायणा पुच्छणा चेव, तहेव परियट्टणा । अणुप्पेहा धम्मकहा, सज्मामो पञ्चहा भवे वाचना प्रच्छना चैव, तथैव परिवर्तना। अनुप्रेक्षा धर्मकथा, स्वाध्यायः पंचया भवेत् अट्टाहाणि वजित्ता, झापजा सुसमाहिए । धम्ममुक्काई माणाई, माणं तं तु बुहा वए प्रतिरौद्राणि वर्जयित्वा, ध्यायेत् सुसमाहितः । धर्मशुक्ले ध्याने, ध्यानं तत्तुबुद्धा वदेयुः सयणासणठाणे वा, जे उ भिक्खू न वावरे । कायस्स विउस्सम्मो, छटो सो परिकिसिमो ३३ ॥३४॥ ३५॥ ॥३५॥ UPEn Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥on ॥१०॥ ॥९॥ श्या उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं ३१. मदेसु वम्मगुची, भिक्खुधम्मम्मि दसविहे । ले मिक्खू जयई नियं, से न अच्छा मण्डले मदेषु ब्रह्मचर्यगुप्तिषु, मिनुधर्मे दशविधे। योभिक्षुर्यतते नित्यं, स न तिष्ठति मण्डले उवालगाणं पडिमामु, भिक्खूण पडिमातु य । जे भिक्खू जयई निचं, से न अच्छा मण्डले उपासकानां प्रतिमासु, भिक्षूणां प्रतिमासु च । यो भिक्षुर्यतते नित्यं, स न तिष्टति मण्डले किरियासु भूयगामेसु, परमाहम्मिएमु य । जे भिजू जयई निच, से न अच्छइ मण्डले क्रियासु मूतग्रामेघु, परमाथामिकेषु च । यो भिक्षुर्यतते नित्यं, स न तिटति मण्डले गाहासोलसपहि, तहा प्रसंजमम्मि य । जे भिक्खू जबई निच, से न श्रच्छइ मण्डल गाथापोडगकेषु, तथाऽसंयमे च । यो भिक्षुर्यतते नित्यं, स न तिटति मण्डले वम्मम्मि नायडमयणेसु, ठाणेसु य समाहिए । जे भिक्खू जयई निचं, से न अच्छइ मण्डल ब्रह्मचर्ये ज्ञाताध्ययनेषु, स्थानेषु च समाधः । यो भिनुर्यतते नित्यं, स न तिटति मण्डले एगवीसाए सवले, बावीसाए परीसह । जे भिक्ख जयई निञ्च, से न अच्छा मण्डले एकविंशता गवलेषु (दोषेषु), द्वाविंशतो परिपहेषु । यो भिक्षुर्यतते नित्यं, स न तिष्ठति मण्डले रसा ॥१४॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१८॥ ३४० जैन सिद्धांत पाठमाळा. तेवीसाइ सूयगडे, स्वाहिएतु सुरेसु । जे भिक्ख जयई निच, से न अच्छह मण्डले ॥१६॥ त्रयोविशतिसंख्येषु सूत्रताध्ययनेषु, रूपाधिकेषु सुरेषु च । यो भिक्षुर्यतते नित्यं, स न तिष्ठति मण्डले पणुवीसभावणासु, उद्देसेस दसाइणं । जे भिक्खू जयई नियं, से न अच्छा मण्डले ॥१७॥ पंचविशतिभावनासु, उद्देशेषु दशादीनाम् । यो भिक्षुर्यतते नित्यं, स न तिष्ठति मण्डले ॥१७॥ अणगारगुणेहिं च, पगप्पम्मि तहेव य । जे भिक्खू जयई निलं, से न अच्छा मण्डले अनगारगुणेषु च, प्रकल्पे तथैव च । यो भिक्षुर्यतते नित्यं, स न तिष्ठति मण्डले ॥१८॥ पावसुयपसंगेसु, मोहठाणेसु चेव य । जे भिक्खू जयई निश्च, से न अच्छा मण्डले ॥१६॥ पापसूत्रप्रसंगेषु, मोहस्थानेषु चैव च ।। यो भिक्षुर्यतते नित्यं, स न तिष्ठति मण्डले ॥१९॥ सिद्धाइगुणजोगेतु, तेत्तीसासायणासु य । जे मिक्खू जयई निच, से न अच्छद मण्डले सिद्धातिगुणयोगेषु, त्रयस्त्रिंशदासातनासु च । यो भिक्षुर्यतते नित्यं, स न तिष्ठति मण्डले ॥२०॥ इय एएतु 'ठाणेलु, जे भिक्खू जयई सया । खिप्पं सो सम्वसंसारा, विष्पमुच्चइ पण्डिो ॥२०॥ ॥२२॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसून प्रत्ययनं ३२ ३४१ इत्येतेषु स्थानेषु, यो भिक्षुर्यतते सदा । क्षिप्रं स सर्वसंसारात् , विप्रमुच्यते पण्डितः २१॥ ॥ त्ति वेमि ॥ इति चरणविही समत्ता ॥३१॥ ।। इति ब्रवीमि-इति चरणविधिः समाप्तः ॥३॥ । अह पमायठाणं वत्तीसइमं अज्झयणं ।। ॥ अथ प्रमादस्थान द्वात्रिशत्तममध्ययनं ॥ अचन्तकालस्स समूलगत्स, सबस्स दुक्खस्स उजो पमोक्खो। तंभासयो मे पडिपुण्णचित्ता, खूणेह एगन्तहियं हियत्थं ॥१॥ अत्यंतकालस्य समूलकस्य, सर्वस्य दुःखस्य तु यः प्रमोक्षः । तं भाषमाणस्य मम प्रतिपूर्णचित्ताः, शणुतेकान्तहितं हितार्थम् ॥ नाणस्स सम्बस्स पगासणाए, अशाणमोहस्स विवजणाए । रागस्स दोसन्स य संखएणं, एगन्तसोक्खं समुवेइ मोक्ख ॥२॥ ज्ञानस्य सर्वस्य प्रकाशनया, अज्ञानमोहस्य विवर्जनया। रागस्य द्वेषस्य च संक्षयेण, एकान्तसौख्यं समुपैति मोक्षम् ॥२॥ तत्सेस मन्गो गुरुविद्धसेवा, विवजणा बालजणस्स द्वरा । सम्झायएगन्तनिसेवणा य, सुत्तत्वसंचिन्तणया घिई य ॥३॥ तस्येय मार्गो गुरुवृद्धसेवा, विवर्जना वालननस्य दूरात् । स्वाध्यायकान्तनिषेवणा च, मूत्रार्थसंचितनया धृतिश्च ॥३॥ आहारमिच्छे मियमेसणिनं, सहायर्यामच्छे निउणत्यवुद्धि । निकेयमिच्छेज विवेगजोग्गं, समाहिकामे समणे तवस्सी nen आहारमिच्छन्मितमेषणीय, साहाय्यमिच्छेन्निपुणार्थबुद्धिम् । - निकेतमिच्छेद विवेकयोग्य, समाधिकामः श्रमणस्तपस्वी ॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. न वा लभेजा निउणं सहाय, गुणाहियं वा गुणनो समै वा । एगो वि पावाइ विवजयन्तो, विहरेज कामेसु असजमाणो ॥५॥ न वा लभेत निपुणं साहाय्य, गुणाधिकं वा गुणतः समं वा । एकोऽपि पापानि विवर्जयन् , विहरेत्कामेप्वसनन् ॥५॥ जहा य अण्डप्पभवा वलागा, अण्डं वलागप्पभवं जहा य । पमेव मोहाययणं तु तण्हा, मोहं च तण्हाययणं वयन्ति ॥६॥ यथा चाण्डप्रभवा बलाका, अण्डं चलाकाप्रभवं यथा च । एवमेव मोहायतनां खलु तृष्णां, मोहं च तृष्णायतनं वदन्ति॥६॥ रागो य दोसो वि य कम्मवीय, कम्मं च मोहप्पभवं वयन्ति । कम्मं च जाइमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयन्ति ॥७॥ रागश्च द्वेषोऽपिं च कर्मबीजं, कर्म च मोहप्रभवं वदन्ति । कर्म च जातिमरणयोर्मुलं, दुःखं च जातिमरण वदन्ति ॥७॥ दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हो जस्स न होइ तहा। तण्हा हया जस्सन होइ लोहो, लोहो हो जस्स न किंचणाई॥८॥ दु:ख हतं यस्य न भवतिमोहः, मोहो हतो यस्य नभवति तृष्णा। तृष्णा हता यस्य न भवति लोभा, लोभो हतो यस्य न किचना॥ रागं च दोसं च तहेव मोहं, उद्धत्तुकामेण समृलजालं। जे जे उवाया पडिवजियव्वा, ते कित्तइत्सामि अहाणुपुचिं l रागं च द्वेषं च तथैव मोह, उद्धर्तुकामेन समूलनालम् । ये ये उपायाः प्रतिपत्तव्याः,तान् कीर्तयिष्यामि यथानुपूर्व्या॥९॥ रसा पगाम न निसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं । दित्तं च कामा समभिद्दवन्ति, दुमं जहा साउफलं व पक्खी॥१०॥ रसाः प्रकामं न निषेवितव्याः, प्रायेण रसा दीप्तिकरा नराणाम् । दीप्तं च कामाः समभिद्रवन्ति, दुमं यथास्वादुफलमिवपक्षिण:१० Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रं अध्ययनं ३२. રૂ 9 " जहा दवग्गी परिन्धणे वणे, समारुथो नोवसमं उवेह | एविन्दियग्गी वि पगामभोइणो, न वम्भयारिस्स हियाय कस्सई । १९। यथा दवाग्निः प्रचुरेन्धने वने, समारुतो नोपशममुपैति । एवमिन्द्रियाग्निरपि प्रकामभोजिनः, नब्रह्मचारिणो हिताय कस्यचित् विवित्तसेज्ज्ञासणजन्तियाणं, श्रोमासणाणं दमिइन्द्रियाणं । नरागसत्तू धारिसे चित्तं, पराइयो बाहिरिवोस हेहिं ॥१२॥ विविक्तशय्यासनयंत्रितानां श्रवमाशनानां दमितेन्द्रियाणाम् । न रागशत्रुर्धर्षयति चित्तं, पराजितो व्याधिरिवौषधैः ॥ १२॥ जहा विराला सहस्स मूले, न मूसगाणं वसही पसत्था । एमेव इत्थीनिलयस्स मज्के, न बम्भवारिस्स खमो निवासो ||१३|| यथा विडालावसथस्य मूले न मूषकाणां वसतिः प्रशस्ता । एवमेव स्त्रीनीलयस्य मध्ये, न ब्रह्मचारिणः क्षमो निवासः ॥ १३॥ न रूवलावण्णविलासहासं, न जंपियं इंगियपेहियं वा । इत्यीण विति निषेसत्ता, दुहुं वबल्से समणे तबस्सी ॥१४॥ न रूपलावण्यविलासहास्यं, न जल्पितमिगितं प्रेक्षितं वा । स्त्रीणां चित्तेनिवेश्य (तत्सर्वं), द्रष्टुं व्यवस्येच्छ्मणस्तपस्वी ॥ १४ ॥ अदंसणं चेव प्रपत्थणं च श्रचिन्तणं चेव प्रतिणं च । इत्थीजणस्सारियभाणजुगं, हियं सया वम्भवए रयाणं ॥१५॥ अदर्शनं चैवाप्रार्थनं च, चिन्तनं चैवाकीर्तनं च । स्त्रीजनस्यार्यध्यानयोग्यं हितं सदा ब्रह्मव्रते रतानाम् ॥१५॥ कामं तु देवीहिं विभूसियाहि, न चाइया खोभहउं तिगुत्ता । तहा वि गन्तहियं तिनच्चा, विविचवासो मुणिणं पसन्धो ॥१६॥ 9 कामं तु देवीभिर्विभूषिताभिः, न शक्तिाः क्षोभयितुं त्रिगुप्ताः । तथाप्येकान्तहितमिति ज्ञात्वा, विविक्तवासो मुनीनां प्रशस्तः॥ १६॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. ॥१८॥ मोक्खाभिकखिस्स उ बाणवस्स, संसारभीरस ठियस्स धम्मे । नेयारिसं दुत्तरमन्थि लोए, जहित्थिश्रो वालमणोहराम्रो ॥१७॥ मोक्षाभिकांक्षिणस्तु मानवस्य, संसारभीरोः स्थितस्य धर्मे । नेतादृशदुत्तरमस्ति लोके, यथास्त्रियो चालमनोहराः ॥१७॥ एए य संगे समकमित्ता, सुदुत्तरा चेव भवन्ति सेसा । जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई भवे यवि गङ्गासमाणा ॥ १८ ॥ एताश्चसंगान्समतिक्रम्य, सुखोत्तराचैव भवन्ति गेपाः यथामहासागरमुत्तीर्य, नदी भवेदपि गगासमाना कामागिद्विभवं खु दुक्खं, सन्चरस लोगस्स सदेवरस | जे काइयं माणसियं च किंचि, तस्सन्तगं गच्छ चीयरागो ॥ १.६ ॥ कामानुगृद्धिप्रभवं खलु दुःखं, सर्वस्य लोकस्य सदेवकस्य । यत्कायिकं मानसिकंच किचित्, तस्यान्तकं गच्छति वीतरागः १९ जहा य किस्पागफला समोरसा, रसेण वण्णेण य भुजगाणा । खुड्डए जीविय पञ्चनाणा, एग्रोमा कामगुणा विवागे ॥२०॥ यथा च किपाकफलानि मनोरमाणि, रसेन वर्णेन चभुज्यमानानि । तानि क्षोदयंति जीवित पच्यमानानि, एतदुपमा: कामगुणा विपाके ॥ जे इन्द्रियाणं विसया मणुन्ना, न तेषु भावं निसिरे कयाइ । नामसु मपि कुजा, समाहिकामे समणे तवरसी ॥२१॥ ते य इन्द्रियाणां विषया मनोज्ञा, न तेषु भावं निसृजेत् कापि । न चामनोज्ञेषु मनोऽपि कुर्यात, समाधिकामः श्रमणस्तपस्वी ॥२१॥ चक्रस सर्व गहने वयन्ति तं रागहेतु मणुन्नसाहु । तं दोहे मना, सोय जो तेसु स श्रीरागी ||२२|| चक्षुषो रूपं ग्रहणं वदन्ति, तद् रागहेतु तु मनोज्ञमाहुः । तद् (रूपं) दीपहेतुममनोज्ञमाहुः, समश्च यस्तेषु स वीतरागः ॥ २२॥ ३४४ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ उत्तराध्ययनसून प्रत्ययनं ३२ ३४५ स्वस्त चर गहणं वयन्ति, चन्सुस्स एवं गहणं वन्ति । रागस्स हे समगुन्नमाहु, दोसस्स हेडं अमणुन्नमाहु ॥२३॥ रूपस्य चक्षुहिक वदन्ति, चक्षुपो रूपं ग्राह्यं वदन्ति । रागस्य हेतुं समनोजमाहुः, द्वेषस्य हेतुममनोज्ञमाहुः ॥२३॥ स्वेतु जो गेहिमुवेइ तिबं, अकालिय पावड से विणासं । रागाउर से जह वा पयंगे, बालोयलोले तमु मच्चु ॥Rel रूपेषु यो गृद्धिमुपैति तीव्रा, अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम्। रागातुरः स यथा वा पतंगः, आलोकलोल: समुपति मृत्युम् ॥ जे यादि दोसं समुवे नि, तसि क्खणे ले उ उ दुक्खें । दुहातदोसेण सपण जन्तू, न निश्चि स्वं अवरज्मई से ॥२५॥ यश्चापि द्वेषं समुपैति तीव्र, तस्मिन्क्षणे स तु समुपैति दुःखम्। दुर्दान्तदोषेण स्वकेन जन्तुः, न किचिद्रूपमपराध्यति तम्या|२५|| 'एगन्तरते रुहरसि रुवे, अतालिने से कुणई पनोसं । दुक्खस्स सम्पीलमुड वाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥२॥ एकान्तरक्तो रुचिरे रूपे, एतादृशे सः करोति प्रद्वेषम् । दुःखस्यसपीडामुपैति वालः, न लिप्यते तेन मुनिर्विरागी॥२६॥ रुवाणुगासाणुगए. य जीव, चराचर हिंसा गल्थे । चित्तेहि ते परितावे वाले, पीलेइ अत्तगुरु फिलिट्टे ॥२७॥ रूपानुगाशानुगतश्च जीवान , चराचरान् हिनन्त्यनेकरूपान् । चित्रैम्तान्परितापयति बाला, पीडयति चात्मार्थगुरुः क्लिष्टः ।। ज्वाणुवापण परिगहेण, उप्शयणे रक्खणसन्नियोगे । व वियोगे य कह सुहं से, सम्भोगकाले व अतित्तताम॥२८॥ रूपानुपातेन परिग्रहेण, उतपाइने रक्षणसंनियोगे । व्यये वियोगे च क्वसुख तम्य, संभोगकाले चातृप्तिलामे॥२८॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. रुवे अतित्ते य परिम्गहम्मि, सत्तोवसत्तो न उवेह तुर्द्धि । अतुट्टिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥२६॥ रूपेऽतृप्तश्च परिग्रहे, सक्त उपसको नोपैति तुष्टिम् । अतुष्टिदोषेण दुःखो परस्य, लोभाविल आदत्तेऽदत्तम् ॥२९॥ तहाभिभूयस्स अदचहारिणो, रुवे अतित्तस्स परिमाहे य । मायामुसं बढइ लोभदोसा, तत्यावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥३०॥ तृष्णाभिभूतस्यादत्तहारिणः, रूपेऽतृप्तस्य परिग्रहे च । मायामृषा वर्धते लोभदोषात् , तत्रापि दुःखान्न विमुच्यते सः॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्ययो ब, पयोगकाले य दुही दुरन्ते । एवं अदत्ताणि समाययन्तो, रूवे अतित्तो दुहियो अणिरसो॥३१॥ मृषावाक्यस्य पश्चाचपुरस्ताच, प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः । एवमदत्तानि समाददानः, रूपेऽतृप्तो दुःखितोऽनिश्रः ॥३१॥ रूवाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कुत्तो सुहं होज कयाइ किञ्चि । तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स करण दुक्खा३२॥ रूपानुरक्तस्य नरस्यैवं, कुतः सुखं भवेत्कटापि किचित् । तत्रोपभोगेऽपि क्लेशदुःखं, निर्वतयति यस्य कृते दुःख॥३२॥ एमेव स्वाम्म गोपभोसं, उवेइ दुक्खोहपरंपरायो । पटुचित्तो य चिणाड कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥३३॥ एवमेव रूपे गतः प्रद्वेष, उपैति दुःखौघपरम्पराः । प्रदुष्टचित्तश्च चिनोति कर्म, यत्तस्य पुनर्भवति दु:ख विपाके||३३॥ रूवे विरत्तो मणुप्रो विसोगो, एएण दुक्खाहपरंपरेण । न लिप्पए भवमज्मे वि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिणी पलासं ॥ रूपे विरक्तो मनुजो विशोकः, एतया दुःखौघपरम्परया । न लिप्यते भवमध्येऽपि सन, जलेनेव पुष्करिणी पलाशम्॥३४॥ बाणरत्तस्स नालेसदुबो, निल भवेत्कटा Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं ३२ ३४७ सोयरस सदं गहणं वयन्ति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु । ते दोसहे अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥३५॥ श्रोत्रस्य शब्दं ग्रहणं वदति, तं रागहेतुं तु मनोज्ञमाहुः । तं द्वेषहेतुममनाजमाहुः, समश्च यस्तेषु स वीतरागः ॥३॥ सदस्स सोय गहणं धयन्ति, सोयरस सई गहण वयन्ति । रागस्स हेड समणुन्नमाहु, दोसत्स हे अमणुन्नमाहु ॥३६॥. शब्दस्य श्रोत्रं ग्राहकं वदन्ति, श्रोत्रस्य शब्दं ग्राह्यं वदन्ति । रागस्यहेतुं समनोज्ञमाहुः, द्वेषस्य हेतुममनोज्ञमाहुः ॥३॥ सद्देलु जो गेहिमुवेइ तिन्वं, अकालिये पावइ से विणासं । रागाउरे हरिणमिगे व मुद्धे, सद्दे अतित्ते समुवेइ मच्चु ॥३७॥ शब्देषु यो गृद्धिमुऐति तीब्रां, अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम्। रागातुरो हरिणमृग इव मुग्धः शन्देऽतृप्तः समुपैति मृत्युम्॥३७॥ जे यावि दोसं समुवेइ तिब्ब, तसि क्खणे से उ उवे दुक्खें । दुहन्तदोसेण सएण जन्तू, न किञ्चि सह अवरुज्मई से ॥३८॥ यश्चापि द्वेषं समुपैति तीव्र, तम्मिनक्षणे स तूपति दुःखम् । दुर्दान्तदोषेण स्वकेन जन्तुः, न किचिच्छब्दोऽपराध्यति तस्य३८ एगन्तरत्ते रुइरंसि सहे, अतालिसे से कुई पोसं । दुक्खस्स सम्पीलमुवेइ वाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥३६॥ एकान्तरक्तो रुचिरे शब्दे, अतादृशे सः कुरुते प्रद्वेषम् । दुःखस्य संपीडामुपैति बालः, न लिप्यते तेन मुनिर्विरागः॥३९॥ सद्दाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइऽणेगरूवे । चित्तेहि ते परितावेइ वाले, पीलेइ प्रतद्वगुरु किलिडे ॥४॥ शब्दानुगाशानुगतश्च जीवः, चराचरान्हिनस्त्यनेकरूपान् । चित्रेस्तान्परितापयति वालः, पीडयति चात्मार्थगुरुः किटः|| Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा [દી सहाणुवारण परिग्रहेण, उप्पायणे रक्खणसन्नियोगे । वर विभोगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य प्रतित्तलाभे ॥ ४१ ॥ शब्दानुपातेन परिग्रहेण, उत्पादने रक्षणसंनियोगे । व्यये वियोगे च क्वसुखं तस्य, संभोगकाले चातृप्तिलामे ॥ ४१ ॥ स प्रतिय परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो न उवे तुट्ठि । प्रतुद्विदोषेण दुही परस्स, लोभाविले प्राययई प्रदत्तं ॥४२॥ शब्देऽतृप्तश्च परिग्रहे, सक्त उपसक्तो नोपैति तुष्टिम् । अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य लोभाविल आदत्तेऽदत्तम् ॥ ४२ ॥ तण्हाभिभूयस्स श्रदत्तहारिणो, सद्दे प्रतित्तस्स परिहे य । मायासुसं वढ्ढइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चाई से ॥ ४३ ॥ तृष्णाभिभूतस्यादत्तहारिणः, शब्देऽतृप्तस्य परिग्रहे च ! मायामृषा वर्धते लोभदोषात्, तत्रापि दुःखान्न विमुच्यते सः ४३ मोसस्स पच्छा य पुरत्थो य, पद्मोगकाले यदुही दुरन्ते । एवं श्रदत्ताणि समाययन्तो, सद्दे अतित्तो दुहीयो आणिरसो ||४४|| मृषा (वाक्यस्य) पश्चाच्चपुरस्ताच्च, प्रयोगकाले च दुःखो दुरन्तः। एवमदत्तानि समाददानः शब्देऽतृप्ता दुःखितोऽनिश्रः || १४ || सद्दाणुरतस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज कयाइ किचि । तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वतई जस्स कपण दुखं ॥ ४५ ॥ शब्दानुरक्तस्य नरस्यैवं, कुतः सुखं भवेत्कदापि किचित् । तत्रोपभेागेऽपि क्लेशदुःखं, निर्वर्तयति यस्य कृते दुःखम् ||१५|| एमेव सम्म गयो पोसं, उदेह दुक्सोहपरंपराओ । पठ्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विचागे ॥४३॥ एवमेव शब्दे गतः प्रद्वेषं, उपैति दुःखौधपरम्पराः । प्रदुष्टचित्तश्च चिनोति कर्म, यत्तस्य पुनर्भवति दुःखं विपाके ॥ ४६ ॥ ३४८ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययनं ३२. ફ્ર विसोनो, एपण दुक्खोहपरंपरेण । सद्दे विरतो न लिप्य भवमज्मे वि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिपीपलासं ॥४७॥ शब्दे विरक्तो मनुजो विशोकः, एतया दुःखौधपरम्परया । न लिप्यते भवमध्येऽपि सन्, जलेनेव पुष्करिणी पलाशम् ॥ ४७॥ धाणस्स गन्धे गहणं वयन्ति तं रागहेडं तु मणुन्नमाहु | तं दोसहे श्रमणन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ ४८ ॥ घ्राणस्य गन्धं ग्रहणं वदन्ति तं रागहेतुं तु मनोज्ञमाहुः । तं द्वेषहेतुममनोज्ञमाहुः, समय यस्तेषु स वीतरागः ॥ ४८॥ गन्धस्स घाणं गहणं वयन्ति, घाणस्स गन्धं गहणं वयन्ति । रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेड मणुन्नमाहु ॥४६॥ गन्धस्य घ्राणं ग्राहकं वदन्ति, घ्राणम्य गन्धं ग्राह्यं वदन्ति । रागस्यहेतुं समनोज्ञमाहुः, द्वेषस्य हेतुममनोज्ञमाहुः ॥४९॥ गन्धेषु जो गेहिमुवे तिव्वं, कालियं पावइ से विणासं । रागाउरे श्रोसहगन्धगिद्धे, सप्पे विलाओ विव निक्खमन्ते॥५०॥ गंधेषु यो गृद्धिमुपैतितीव्रां, अकालिकं प्राप्नोतिस विनाशम् । रागातुर औषधगंधगृद्धः, सर्पो बिलान्निवनि:क्रामन् जे यादि दोसं समुवेइ तिव्यं, तंसि क्खणे से उउने दुक्खं । दुद्दन्तदोसेण सरण जन्तू, न किंचि गन्धं अवरमाई से ॥५१॥ 112011. यश्चापि द्वेष समुपैति तीव्रं, तस्मिन्दणे स तूपैति दुःखम् । दुर्दान्तदेोषेण स्वकेन जन्तुः, न किचिद् गन्धोऽपराध्यति तस्य ।। एगन्तरते रुइरंसि गन्धे, अतालिसे से कुणई पत्रांसं । दुक्खस्स संपीलमुह वाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागी ॥ ५२ ॥ एकान्तरक्तो रुचिरे गन्धे, अतादृशे स करोति प्रद्वेषम् । दुःखस्य संपीडामुपैति बालः, न लिप्यते तेन मुनिर्विरागी ॥१२॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ जैन सिद्धांत पाठमाळा. - एगन्तरत्ते सहरंसि रसे, अतालिसे से फुणई पोस । दुक्खस्स संपीलमुवेइ वाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥६५॥ एकान्तरक्तो रुचिरे रसे, अतादृशे.स कुरुते प्रद्वेषम् । दुःखस्य संपीडामुपैति वालः, न लिप्यते तेनं मुनिर्विरागी॥६५॥ रसाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिसाऽणेगरुवे । चित्तेहि ते परितावेद बाले, पीलेइ अत्तगुरु किलो ॥६६ रसानुगाशानुगतश्च जीवः, चराचरान्हिनस्त्यनेकरूपान् । चिस्तान् परितापयति बालः, पीड़यत्यात्मार्थगुरुः क्लिप्टः॥६६॥ रसाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्नियोगे । वए विनोगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तलामे ॥६॥ रसानुपातेन परिग्रहेण, उत्पादने रक्षणसंनियोगे । . व्यये वियोगे च क्व सुखं तस्य, संभागकालेऽपि चातृप्तिलाभे६७॥ रसे अतित्ते य परिगम्मि, सत्तोवसत्तो न उवे तुट्टि। अतुट्टिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥६॥ रसेऽतृप्तश्च परिग्रहे, सक्त उपसक्तो, नोपैति तुप्टिम् । अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य, लोभाविल आदतेऽदतम् ॥६॥ तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, रसे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं बहुइ लोभदोसा, तत्थायि दुक्खा न विमुञ्चई से ॥६॥ तष्णाभिभूतस्यादतहारिणः, रसेऽतातस्य परिग्रहे च । मायामृषा वर्धते लोभदेोषात् ,तत्रापि दुःखान्न दिमुच्यते सः।।६९॥ मासस्स पच्छा य पुरत्थयो य, पयोगकाले य दुही दुरन्ते । एवं अदत्ताणि समाययन्तो, रसे अतित्तो दुहियो अणिस्सा!७०॥ मृषावाक्यस्य पश्याच पुरस्ताच, प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः । . एवमदत्तानि समाददानः, रसेऽतप्तो दुःखितोऽनिश्रः ॥७०॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं श्रध्ययनं ३२ ३५३ S रसाणुरत्तत्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाह किंचि । तत्यो भोगे वि किलेसदुक्खं निव्वत जस्स करण दुक्खं ॥ रसानुरक्तस्य नरस्यैवं, कुतः सुखं स्यात् कदापि किचित् । तत्रोपभोगेऽपि क्लेशदुःखं, निर्वर्तयति यस्य कृते दुःखम् ॥७१॥ एमेव रसम्मि गयो पोर्स, उवेद दुक्खोहपरंपराओ । पट्टचित्तो य चिणाइ कम्मं, जं से पुणी होइ दुहं विचागे ॥ ७२ ॥ एवमेव रसं गतः प्रद्वेषं, उपैति दुःखौघपरम्पराः । प्रदुष्टचित्तश्र चिनोति कर्म, यत्तस्य पुनर्भवति दुःखं विपाके ॥७२॥ रसे विरतो मणु विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्प भववि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ रसे विरक्तो मनुजेो विशेोकः, एतया दुःखौघपरम्परया । न लिप्यते भवमध्ये ऽपि सन्, जलेनेव पुष्करिणीपलाशम् ॥ ७३ ॥ कायस्स फासं ग्रहणं वयन्ति तं रागहेर्ड तु मणुन्नमाहु । तं दोहे श्रणुन्नमा, समो य जो तेतु स वीयरागो ॥७४॥ कायस्य स्पर्श ग्रहणं वदन्ति, तं रागहेतुं तु मनोज्ञमाहुः | त द्वेषहेतुममनोज्ञमाहुः, समश्वयस्तेषु स वीतरागः ॥७४॥ फासरस कार्य गहणं वर्यान्ति, कायस्स फासं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दौसस्स हेड अमणुन्नमाद्दु ॥७५॥ स्पास्य काय ग्राहकं वदन्ति, कायस्य स्पर्श ग्राह्यं वदन्ति । रागस्य हेतुं समनोज्ञमाहु., हेपस्य हेतुममनोज्ञमाहुः ॥७५॥ फासेसु जी गेहिमुवे तिब्बे, अकालिये पावर से विणा । रागाउरे सीयजलावसन्ने, गाहमाहीए महिसे विवने ॥७६॥ स्पर्शेषु यो गृद्धिमुपैति तीव्र, अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् । रागातुरःशीतजलावसन्नः, नाहगृहीतो महिष इवारण्ये ॥ ७६ ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तैसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुइन्तदोसेण सरण जन्तू , न किंचि फासं अवरुज्झई से ॥७॥ यश्चापि द्वेषं समुपैति तीव्र,, तस्मिन्क्षणे स तूपैति दुःखम् । दुर्दान्तदोषेण स्वकेन जंतुः, न किचित्पशेऽपराध्यति तस्य।।७७॥ पगन्तरत्ते रुहरसि फासे, अतालिसे से कुणई परोस । दुक्खस्स संपीलमुवेइ वाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो॥७॥ एकान्तरक्को रुचिरे स्पर्श, अतादृशे स कुरुते प्रद्वेषम् । दुःखस्य संपीडामुपैति बालः, न लिप्यते तेन मुनिर्विरागी७८ फासाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइऽणेगरुवे । चित्तेहि ते परितावेइ वाले, पीलेइ अत्तगुरु किलिडे ॥७॥ स्पर्शानुगाशानुगतश्च जीवः, चराचरान्हिनस्त्यनेकरूपान् । चित्रैस्तान् परितापयति बालः, पीडयत्यात्मार्थगुरुः क्लिष्टः।। फासाणुवारण परिमाहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निनोगे । वए विनोगे य कई सुहं से, संभोगकाले य अतित्तलामे ॥८॥ स्पर्शानुपातेन परिग्रहेण, उत्पादने रक्षणसंनियोगे ।। व्यये वियोगे च कथं सुखं तस्य, संभोगकाले चातृप्तिलाभे ॥ फासे प्रतित्ते य परिग्गहम्मि, सनोवसत्तो न उवे तुहिं । अतुट्टिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले पाययई प्रदत्तं ॥२॥ स्पर्शऽतृप्तश्च परिग्रहे, सक्त उपसको नापति तुष्टिम् । अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य, लोमाविल आदत्तेऽदत्तम् ॥१॥ तहाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, फासे प्रतित्तस्स परिमाहे य। मायामुसं वढइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुचई से॥२॥ तृष्णाभिभूतस्याऽदत्तहारिणः, स्पर्शऽतृप्तस्य परिग्रहे च । मायामृषावर्धते लोभदोषात्, तत्रापि दु:खान्नविमुच्यतेसः॥२॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं श्रध्ययनं ३२ ३.५५ " मोसस्स पच्छाय पुरन्थो य, पयोगकाले य दुही दुरन्ते । एवं प्रदत्ताणि समाययन्तो, फासे अतितो दुहिश्रो प्रणिस्सो ॥ मृषा वाक्यस्य पश्चाच्च पुरस्ताच्च, प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः । एवमदत्तानि समाददानः, स्पर्शेऽतृप्तो दुःखितोऽनिश्रः ॥ ८३ ॥ फासाणुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज कयाइ किचि । तत्योवभोगेवि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स करण दुक्खं ॥ ८४॥ स्पर्शानुरक्तस्य नरस्यैवं, कुतः सुखं भूयात्कदापि किंचित् । तत्रोपभोगेऽपि क्लेशदुःखं, निर्वर्तयति यस्य कृते दुःखम् ||८४ ॥ यमेव फासम्म गयो पोसं, उवेइ दुक्खाहपरंपरायो । पट्टचित्तो य चिणाह कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥८५॥ एवमेव स्पर्शे गतः प्रद्वेषं, उपैति दुःखौधपरम्पराः । प्रदुष्टचित्तश्व चिनोति कर्म, यत्तस्य पुनर्भवति दुःखं विपाके८५ फासे विरतो मां विसोगो, एपण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमज्मे वि सन्तों, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ स्पर्शे विरक्तो मनुनो विशोकः, एतया दुःखौधपरम्परया | न लिप्यते भवमध्येऽपि सन्, जलेनेव पुष्करिणीपलाशम् ||६|| मणस्स भावं ग्रहणं वयन्ति, तं रागहेडं तु मणुन्नमाहु | तं दोसहेडं श्रणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागी ॥८७॥ मनसो भावं ग्रहण वदन्ति, तं रागहेतु तु मनोज्ञमाहुः तं द्वेषहेतुममनेाज्ञमाहुः, समश्वयस्तेषु स वीतरागः भावस्स मणं गहणं वयन्ति, मणस्स भावं गहणं वयन्ति । रागस्स हे समणुन्नमाडु, दोसस्स हेउं श्रणुन्नमाहु 015511 भावस्य मनेा ग्राहकं वदन्ति, मनसो भावं ग्राह्यं वदन्ति । रागस्य हेतुं समनेोज्ञमाहुः, द्वेषस्य हेतुममनेोज्ञमाहुः ||८|| 115011 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ जैन सिद्धांत पाठमाळा. ॥६॥ , भावेसु जो गेहिमुवेर तिव्वं, कालियं पावर से विणासं । रागाउरे कामगुणेसु गिडे, करेणुममा वहिए गजे वा भावेषु यो गृद्धिमुपैति तीव्रां, अकालिकं प्राप्नुते स विनाशम् । रागातुरः कामगुणेषु गृद्धः करेणुमार्गापहृत गज इव ॥८॥ जे यावि दासं समुवे तिव्यं, तंसि कखणे से उ उ दुक्खं । दुद्दन्तदोसेण सपण जन्तू, न किंचि भावं प्रवरुज्झई से ॥ ६०॥ यश्चापि द्वेषं समुपैति तीव्रं तस्मिन्क्षणे स तूपैति दुःखम् । दुर्दान्तदेोषेण स्वकेन जंतुः, न किंचिद्भावोऽपराध्यति तस्य ९० एगन्तरते खरंसि भांगे, अतालिसे से कुणई पोसं । दुक्खस्स संपीलमुवेद बाले, नं लिप्पई तेण सुणी विरागो॥११॥ एकान्तरक्तो रुचिरे भावे, अतादृशे स कुरुते प्रद्वेषम् । दुःखस्य सपीडामुपैति बालः, न लिप्यते तेन मुनिर्विरागो९ १ भावाणुगासागर य जीवे, चराचरे हिंसइऽणेगरूये । चित्तेहि ते परिंताचें बाले, पीलेई अत्तगुरु किलिङ्के ॥ ६२ ॥ भावानुगाशानुगतश्च जीवः, चराचरान्हिनस्त्यनेकरूपान् । चित्रैस्तान्परितापयति बालः, पीडयत्यात्मार्थगुरुः क्लिष्टः ॥९२॥ भावाणुवारण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निभोगें । वर विद्योगे य कई सुई से संभागकाले य प्रतितलीमे ॥१३॥ भावानुपातेन परिग्रहेण, उत्पादने रक्षणसंनियोगे en व्यये वियोगे च कथं सुखं तस्य, संभोगकाले चाऽतृप्तिलाभे९९ भावे श्रति य परिग्गहम्मि, सत्तोवसन्तोन उंवेर तुट्ठि । तुहिदोसेण दुही परस्स, लोभाविजे प्राययई प्रदर्श भावेऽतृप्तश्च परिग्रहे, सक्त उपसक्तो नावैति तुष्टिम् । अतुष्टिदेाषेण दुःखी परस्य, लोभाविल आदतेऽदत्तम् ॥ ९४ ॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययनं ३२. ३५७ तण्डाभिभूयस्स श्रदत्तहारिणो, भावे प्रतित्तस्स परिन्गहे य । मायामु वह लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुधई से | तृष्णाभिभूतस्याऽदत्तहारिणः भावेऽतृप्तस्य परिग्रहे च । मायामृषा वर्धते लोभदाषात्, तत्रापि दुःखान्न विमुच्यते सः ९५ मोसस्स पच्छा य पुरत्ययो य, पयोगकाले यदुही दुरन्ते । एवं श्रताणि समाययन्तो, भात्रे प्रतित्तो दुहियो श्रणिस्सो मृषावाक्यस्य पश्चाच्च पुरस्ताच्च, प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः । एवमदत्तानि समाददत्, भावेऽतृप्तो दुःखितोऽनिश्रः ॥९६॥ भावापुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो लुहं होज कयाइ किंचि । तत्थभोगे वि किलेसदुखं, निव्वत्तई जस्स करण दुक्तं ॥६७॥ भावानुरक्तस्य नरस्यैवं, कुतः सुखं स्यात्कदापि किचित् । तत्रोपभोगेऽपि क्लेशदुःखं, निवर्तयति यस्य कृते दुःखं ॥९७॥ एमेव भावम्मि यो पोसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । पढचित्तो य चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ६८ ॥ एवमेव भावे गत• प्रद्वेष, उपेति दुःखौघपरम्पराः । प्रदुष्टचित्तश्च चिनेोति कर्म, यत्तस्य पुनर्भवति दुःखं विपाके ९८ भावे विरतो मो विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमज्मे वि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ भावे विरक्तो मनुजो विशेोकः, एतया दुःखौध परम्परया | न लिप्यते भवमध्येऽपि सन्, जलेनेव पुष्करिणीपलाशम् ॥९९॥ यविन्दियत्थाय मणस्स प्रथा, दुक्खस्स हेडं मणुयस्स रागिणो। से चैत्र थोवं पि कया दुक्खं न वीयरागस्स करेन्ति किंचि ॥ एवमिन्द्रियार्थाश्च मनसोऽर्थाः, दुःखस्य हेतवेो मनुजस्य रागिणः । ते चैद स्तोकमपि कदापि दुःखं, न वीतरागस्य कुर्वन्ति किंचित Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. न कामभोगा समय उवेन्ति, न यावि भोगा विगई उवेन्ति । जे तप्पनोसी य परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगई उवेइ ॥१०॥ न कामभोगा: समतामुपयन्ति, न चापि भोगा विकृतिमुपयन्ति। यस्तत्पद्वेषी च परिग्रही च, स तेषु मोहाद विकृतिमुपैति १०१॥ कोहं च माणं च तहेव माय, लोहं दुगुच्छ अरई रई च । हालं भयं सोगपुमिस्थिवेयं, नपुंसवेयं विविहे य भारे ॥१०॥ क्रोधं च मानं च तथैव मायां, लोभं जुगुप्सामरति रति च । हास्यं भयं शोकं पुंवेदस्त्रीवेदं, नपुंसकवेदं विविधांश्च भावान् । भावजई एवमणेगरुथे, एवंविहे कामगुणेलु सत्तो। अन्ने य एयप्पभवे विसेसे, कारुण्णदीणे हिरिमे वइस्से ॥१०३॥ आपद्यत एवमनेकरूपान , एवंविधान् कामगुणेषु सक्तः । अन्याश्चैतत्प्रभवान् विशेषान्, कारुण्यदीनों ह्रीमान् द्वेप्यः॥१०३॥ कप्पं न इच्छिन्न सहायलिच्छू, पच्छाणुतावे न तवप्पभावं । एवं वियारे अमियप्पयारे, प्रावजई इन्दियचोरवस्से ॥१०॥ कल्पं नेच्छेत्साहाय्यलिप्सुः, पश्चादनुतापो न तपःप्रभावम् । एवं विकारानमितप्रकारान् , आपद्यत इन्द्रियचौरवश्यः १०४॥ तो से जायन्ति पभोयणाई, निमजिउं मोहमहण्णवम्मि । सुहेसिणो दुक्खविणोयणटा, तप्पश्चयं उज्जमए य रागी ॥१०॥ ततस्तस्य जायन्ते प्रयोजनानि, निमज्जयितुं मोहमहार्णवे । । सुखैषिणो दुःखविनोदनार्थ, तत्प्रत्ययमुद्यच्छति च रागी॥१०॥ विरजमाणस्स य इन्दियत्था, सद्दाइया तावइयप्पगारा । न तस्स सन्धे विमणुनयं वा, निव्वतयन्ती श्रमणुभयं वा ॥१०॥ । विरज्यमानस्य चेन्द्रियार्थाः, शब्दाद्यास्तावत्प्रकाराः । , न तस्य सर्वेऽपि मनोज्ञतां वा, निर्वर्तयन्ति अमनोज्ञतां वा१०६॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - उत्तराध्ययनसूनं अध्ययनं ३२. ३५६ एवं स संकप्पविकप्पणाम्डं, संजायई समयमुवठियस्स । प्रत्ये असंकप्पयो तश्रो से, पहीयए कामगुणेलु तण्हा ॥१०७॥ एवं स संकल्पविकल्पनासु, संजायते समतोपस्थितस्य । अर्थान्संकल्पयतस्ततस्तस्य, प्रहीयते कामगुणेषु तृष्णा॥१०७॥ स वीयरागो कयसबाकिचो, खवेइ नाणावरणं खणेणं। तहेब देसमावरेइ, चन्तरायं पकरेइ कम्मं ॥१०८॥ स वीतरागः कृतसर्वत्यः , क्षपयति ज्ञानावरण क्षणेन । तथैव यद दर्शनमावृणोति, यदन्तरायं प्रकरोति कर्म ॥१०८|| सव्वं तो जाणइ पासए य, अमोहणे होइ निरन्तराए । श्रणासवे माणसमाहिजुत्ते, पाउरखए मोक्खमुबह सुद्धे ॥१०॥ सर्व ततो जानाति पश्यति च, अमोहनो भवति निरंतरायः । अनास्रवों ध्यानसमाधियुक्तः, आयुःक्षये मोक्षमुपैति शुध्धः ।। सो तस्स सबस्स दुहत्त्स मुक्को, ज वाहई सययं जन्तुमेयं । दोहामय विप्पनुको पसत्थो, तो होइ अञ्चन्तसुही कयत्यो ॥१०॥ स तस्मात् सर्वस्माद् दुःखान् मुक्तः, यद् वावते संततंजन्तुमेन दीर्घामयविप्रमुक्तः प्रशस्तः, ततो भवत्यत्यन्तसुखी छतार्थ:११० प्रणाइकालप्पभवस्स एसो, सन्चस्स दुक्खस्स पमोक्खमग्गो । वियाहियो जं समुविच सत्ता, कमेण अञ्चन्तसुही भवन्ति ॥११॥ अनादिकालप्रभवस्येपः, सर्वस्य दुःखस्य प्रमोक्षमार्गः । व्याख्यातः यं समुपेत्य सत्त्वाः क्रमेणाऽत्यन्तसुखिनो भवन्ति११३।। त्ति वेमि ॥ इति पमायट्ठाणं समत्तं ॥३॥ ॥ इति ब्रवीमि ।। इतिप्रमादरथानं समाप्तं ॥३२॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. ॥ ग्रह कम्मप्पयडी तेत्तोसमं अभयणं ॥ ॥ अथ कर्मप्रकृति त्रयस्त्रिशत्तममध्ययनं ॥ अटुं कम्मारं वोच्छामि, प्राणुपुत्रि जहाक्रमं । जेहिं वद्धो अयं जीवो, संसारे परिचट्टई अष्ट कर्माणि वदयामि, आनुपूर्व्या यथाक्रमम् । यैर्वोऽयं जीवः, संसारे परिवर्तते नाणस्सावरणिजं, दंसणावरणं तहा । चेयणिज्जं तहा मोहं, प्राकम्मं तहेव य ज्ञानस्यावरणं, दर्शनावरणं तथा । वेदनीयं तथा मोहं, आयुः तथैव च नामकम्मं च गोयं च अन्तरायं तहेव य । एवमेया करसाई, प्रद्वेव उ समासो नामकर्म च गोत्रं च अन्तरायं तथैव च । एवमेतानि कर्माणि, अष्टौ तु समासतः नाणावरणं पञ्चविहं, सुयं ग्राभिणिवोहियं । ओहिनाणं च तयं, मणनाणं च केवलं ज्ञानावरण पंचविधं श्रुतमाभिनिबोधिकम् । अवधिज्ञानं च तृतीय, मनोज्ञानं च केवलम् निद्दा तहेव पयला, निद्वानिद्दा पयलपयला य । तत्तो य थीणगिद्धी उ, पंचमा होइ नायव्या निद्रा तथैव प्रचला, निद्रानिद्रा प्रचलप्रचला च । ततश्च स्त्यानगृध्धिस्तु, पंचमा भवति ज्ञातव्या H ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥३॥ ॥४॥ 11801 ॥५॥ h ॥५॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं ३३. चमचक्यो हिस्स, दंसणे केवले य श्रावरणे । मवं तु नवविगप्पं, नायव्वं दसणावरणं चतुरचतुरवधेः, दर्शने केवले चावरणे । एवं तु नवविकल्पं, ज्ञातव्यं दर्शनावरणम् वणीयपि यदुविहं, सायमसायं च श्राहियं । सायरस उ वह भेया, एमेव असायस्स वि वेदनीयमपि च द्विविधं, सातमसात चाख्यातम् । सातस्य तु वहवों भेदाः, एवमेवाऽसा तस्यापि मोहणिजपि दुविहं दंसणे चरणे तहा । दंसणे तिविहं वृत्तं चरणे दुविहं भवे मोहनीयमपि द्विविधं दर्शने चरणे तथा । दर्शने त्रिविधमुक्तं, चरणे द्विविधं भवेत् सम्मत्तं चैव मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तमेव य । पयाओ तिन्नि पयडीश्रो, मोहणिजस्स दंसणे सम्यक्त्वं चैव मिथ्यात्वं सम्यइमिथ्यात्वमेव च । एतास्त्रित्रः प्रकृतयः, मोहनीयस्य दर्शने चरितमोहणं कम्मं, दुविहं तं वियाहियं । कसायमोहणिज्जं तु, नोकसायं तदेव य " चारित्रमोहनं कर्म, द्विविषं तद् व्याख्यातम् । कषायमोहनीयं तु, नोकषायं तथैव च सोलसहिमेपणं, कम्मं तु कसायजं । सतविहं नवविहं वा, कम्मं च नोकसायजं ફર્ ॥६॥ ॥६॥ ॥७॥ ॥७॥ 11511 ॥5॥ llell ॥९॥ 112011 ॥१०॥ ॥१॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર जैन सिद्धांत पाठमाळा. षोडशविधं भेदेन, कर्म तु कषायनम् ।. सप्तविधं नवविधं वा, कर्म च 'नोकषायजम् नेरइयतिरिक्खार्ड, मणुस्सा तहेव य । देवाउयं चत्थं तु, या कम्मं चविहं नैरयिकतिर्यगायुः, मनुष्यायुस्तथैव च । देवायुश्चतुर्थं तु, आयुः कर्म चतुर्विधम् नामं कम्मं तु दुविहं, सुहमलुहं च श्राहियं । सुभस्स उ बहू भैया, एमेव असुहस्स वि नामकर्म तु द्विविधम्, शुभमशुभं चाख्यातम् । शुभस्य तु बहवो भेदाः, एवमेवाशुभस्यापि गोयं कम्मं दुविहं, उच्च नियं च श्रहियं । उच्च प्रहविहं होइ, एवं नीयं पि श्रहिये ' गोत्रकर्म द्विविधं, उच्च नीच चाख्यातम् । उच्चमष्टविधं भवति, एवं नीचमप्याख्यातम् दाणे लाभे य भोगे य, उवभोगे वीरिए तहा । पञ्चविहमन्तराय, समासेण वियाहियं दाने लाभे च भोगे च उपभोगे वीर्ये तथा । पंचविधमन्तरायं, समासेन व्याख्यातम् एयाओ मूलपयडीप्रो, उत्तराओ य प्राहिया । परसगं खेत्तकाले य, भावं च उत्तरं सुण एता मूलप्रकृतयः, उत्तराश्चाख्याताः । प्रदेशाग्र क्षेत्रकालौ च भावं चोत्तरं शृणु सवेसिं चैव कम्माणं, पपसग्गमणन्तगं । गष्ठियसत्ताईयं, अन्तो सिद्धाण ग्राहियं १ कषायने पुष्टकरनार हास्यादिजन्य. , ॥११॥ ॥१२॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१३॥ ॥ १४॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१५॥ ॥१६॥ - ॥१६॥ ॥१७॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३ - -- ॥१७॥ ॥१॥ mer ॥१९॥ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं ३३. सर्वेषां चैव कर्मणां प्रदेशाग्रमनन्तकम् । अन्थिकसत्त्वातीत, अन्तरं सिधानामाख्यातम् सम्वजीवाण बम तु, संगहे छहिसागयं । खव्वेसु वि पएसेसु, सन्वं सम्वण वद्धगं सर्वजीवानां कर्म तु, संग्रहे पदिशागतम् ! सर्वैरप्यात्मप्रदेशः, सर्व सर्वेण वध्धकम् उदहीसरिसनामाण, तीसई कोडिकोडीयो। उक्कोसिया ठिई इ, अन्तोमुहुत्तं जहनिया उदधिसदृङ्नाम्नां, त्रिंशत्काटाकाटयः । उत्कृष्टा स्थितिर्भवति, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका प्रावरणिजाण दुण्डंपि, वेयाणिज्जे तहेव य । अन्तराए य कम्मम्मि, ठिई एसा त्रियाहिया. आवरणयोईयोरपि, वेदनीये तथैव च । अन्तराये च कमणि, स्थितिरेषा व्याख्याता उदहीसरिसनामाण, सरि नोडिकोडीयो। मोहणिजस्स उनोसा, अन्तीमुहुर्त जहनिया उदधिसदृन्नाम्नां, सप्ततिः कोटाकाटयः । मोहनीयस्योत्कृष्टा, अन्तर्मुहूर्त जघन्यका तेत्तीस सागरोवमा, उक्कोसेण वियाहिया । ठिइ उ आउकम्मस्स, अन्तोमुहुत्तं जहनिया त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा, उत्कर्षेण व्याख्याता । स्थितिस्त्वायु:कर्मणः, अन्तर्मुहूर्त जघन्यका उदहीसरिसनामाण, वीसई कोडिकोडीयो। नामगोचाणं उकोसा, अन्तो मुकुचं जहभिया । ॥२०॥ ॥२०॥ २२॥ ॥२ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ ॥॥ ५. उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं ३४. किण्हा नीला य काऊ य, तेऊ पम्हा तहेव य । सुकलेसा य छटा य, नामाई तु सहकर्म कृष्णा नीला च कापोती च; तेजोपमा तथैव च । शुक्ललेश्या च षष्ठी च, नामानि तु यथाक्रमम् जीमूयनिद्धसंकासा, गवलरिद्वगसनिमा । खंजाजणनयणनिभा, किण्हलेसा उवण्णी स्निग्धनीमृतसंकाशा, गर्वलारिष्टकसंनिभा । खंजांजनेनयननिभा, कृष्णलेश्या तु वर्णतः नौलासोगसंकासा, चासपिच्छसमप्पभा । बेलियनिसकासा, नीललेसा उ वणंभो नीलाशोकसंकाशा, चाषपिच्छसमप्रभा । स्निग्धवैडूर्यसंकाशा, नीललेश्या तु वर्णत: प्रयसीपुप्फसंकासा, कोइलच्छदनिभा । पारेवयगीवानिमा, काऊलेसा उ वण्णमो अतंसीपुष्पसकाशा, कोकिलच्छदसनिभा । पारापतग्रीवानिमा, कापोतलेश्या तु वर्णतः हिंगुलयघाउसकासी, तरुणाईचसनिमा । सुंयेर्तुण्डपईवनिमी, तेऊलेसा उ घण्णो हिंगुलपातुसंकाशा, तरुणादित्यसनिमा । शुकतुण्डप्रदीपनिभा, तेजोलेश्या तु वर्णतः हरियाल वसकासा, हलिहायसमप्पी । सणासणकुसुमनिमा, पम्हलेसी उपन्यो हरितालभेदसंकाशा, हरिद्राभेदसमप्रभा । 'सणासनकुसुमनिभा, पद्मलेश्या तु वर्णतः १मसति नाम ॥५॥ ६ ७॥ १॥ In Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. ॥९॥ संखंककुन्दसङ्कासा, खीरपूरसमप्पभा । रययहारसंकासा, सुक्कलेसा उवष्णो शेखांक 'कुन्दसंकाशा, क्षीरपूरसमप्रभा । रजतहारसंकाशा, शुक्ललेश्या तु वर्णतः जह कडुयतुम्बगरसो, निम्बरसो कडुयरोहिणिरसो वा । पत्तो वि प्रणन्तगुणो, रसो य किण्हाए नायव्वो यथा कटुकटुंबकरसः, निम्बरसः कटुकरे। हिणीरसो वा । इतोऽप्यनन्तगुणः, रसश्च कृष्णाया ज्ञातव्यः ॥१०॥ 112011 जह तिगडुयस्स य रसो, तिक्खा जह हत्थिपिप्पलीप वा । तो विप्रणन्तगुणो, रसो उ नीलाए नायव्वो ॥११॥ यथा त्रिकटुकस्य च रसः, तीक्ष्णो यथा हस्तिपिप्पल्या वा । इतोप्यनन्तगुणः, रसस्तु नीलाया ज्ञातव्यः " ॥१२॥ 'जह तरुणश्रम्बगरसो, तुवरकविट्ठस्स वावि जारिस पत्तो वि श्रणन्तगुणो, रसो उ काऊए नायव्वो यथा तरुणाम्रकरसः, तुवरकपित्थस्य वापि यादृशः । इतोऽप्यनन्तगुणः, रसस्तु कापोतलेश्याया ज्ञातव्यः जह परिणयम्वगरसो, पक्ककविहस्स वावि जारिसश्रो । पत्तो वि णन्तगुणो रखो उ तेऊर नायच्चो यथा परिणतान्त्रकरसः, पक्ककपित्थस्य वापि यादशः। . इतोऽप्यनन्तगुणः, रसस्तु तेजोलेश्याया ज्ञातव्यः वरवारुणीए व रसो, विविहाण व श्रासवाण जारिसश्रो । महुमेरगस्स व रसो, एतो पम्हाए परपणं ॥१३॥ ॥१३॥ ॥१४॥ १ पुष्पविशेष २ सुंठ, मरी भने तोर्खा, ३ काचु कोड: ३६६ 1 Hell ॥११५ | HERE ॥१२॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययनं ३३ ३६७ वरवारुण्या इव रसः, विविधानामिवासवानाम् यादृशः। मधुमेरकस्येव रसः, इत: पद्मायाः परकेण (भवति) ॥१४॥ खजूरमुहियरसो, खीररसो खण्डसकररसो वा। एत्तो वि अणन्तगुणो, रसो उसुक्काए नायब्बो ॥१५॥ • खजूर मृवीकयो रसः क्षीररसः खण्डशर्करारसा वा । इतोऽप्यनन्तगुणः, रसस्तु शुक्कलेश्याया ज्ञातव्यः ॥१५॥ जह गोमडस्स गन्धो, सुणगमडस व जहा अहिमडस्स । एत्तो वि अणन्तगुणों, लेसाणं अप्पसत्थाणं ॥१६॥ यथा गोमृतकस्य गन्धः, शुनो मृतकस्येवयथा हेर्पतकस्य । इतोऽप्यनन्तगुणो, लेश्यानां तिसृणामपि जह सुरहिकुसुमगन्धो, गन्धवासाण पिस्समाणाणं । एत्तो वि अणन्तगुणो, पसत्थलेसाण तिण्हं पि ॥१७॥ यथासुरभिकुसुमगन्धः, गन्धवासानामप्रशस्तानाम् ।। , इतोप्यनन्तगुणः, प्रशस्तलेश्यानाम् तिटणामपि ॥१७॥ जह करगयस्स फासो, गोजिन्भाए य सागपत्ताणं । एत्तो वि अणन्तगुणो, लेसाणं अप्पसत्याणं यथा ऋकचस्य स्पर्श:, गोजिह्वायाश्च सागपत्राणाम् ।। इतोऽप्यनन्तगुणः; लेश्यानामप्रशस्तानाम् ॥१८॥ जह दूरस्स व फासो, नवणीयस्स व सिरीसकुसुमाणं । पत्तो वि अणन्तगुणो, पसत्थलेसाण तिण्हं पि ॥१६ यथा 'बूरस्येव स्पर्शः, नवनीतस्येव शिरीषकुसुमानाम् । इतोप्यनन्तगुणः, प्रशस्तलेश्यानां तिसृणामपि ॥१९॥ १ द्राक्षनो. २ वनस्पति विशेष. - - Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. तिविहो व नवविहो वा, सत्तावीसहविहेक्कसीनो वा । दुसों तेयालो वा, लेसाणं होइ परिणामो ॥२०॥ त्रिवियो वा नवविधो वा, सप्तविशतिविधएकाशीतिविधो वा । त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशतंविधो वा, लेश्यांनी भवति परिणामः ।। पंचासवप्पमत्तो, तीहि अगुत्तो से अविरंभी य । ' तिब्वारम्भपरिणामो, खुदो साहसिपी नरो ॥२२॥ पंचासवप्रमतः, तिमृभिरगुप्तः पटवविरतश्च । तोवारंभपरिणतः, क्षुद्रः साहसिको नरः URRI नन्धसपरिणामो, निस्संसो अजिइन्दियो । एयजोगसमाउत्तो, किण्हलेसं तु परिणमे ॥२२॥ निध्वंसपरिणाम:, निसंशोऽजितेन्द्रियः । एतद्योगसमायुक्तः, कृष्णलेस्यां तु परिणमेतं इस्सा अमरिस प्रतवो, अविजमाया प्रहौरिया । गेही पासे य सढे, पमत्ते रसलोलुए Ran ईर्ष्याऽमतिपः, अविद्या मायाऽद्वीकता। गृद्धिः प्रद्वेषश्च (यस्य) शठः, प्रमत्तो रसलोलुपः ॥२३॥ सायगवेसए य प्रारम्भीमो अविरो, खुद्दी साहस्सियौ नरो। एयजीगसमाउत्तो, नीललेस तु परिणमे सातागवेषकचारभादविरतः, दुद्रः साहसिको नरः एतद्योगसमायुक्तः, नीललेश्या तुं परिणमैत् ॥२४॥ बके कसमायोरे, नियडिल्ले अंर्गुन्दुए । पलिउंचगप्रोचाहिए, मिच्छविटी प्रणारिए वक्रो वक्रसमाचारस, निकितिमाननूजुकः । 'परिकुंचक औपधिका, मिथ्याद्रष्टिरनार्यः ||२५|| १ पोताना दोषने ढाकनार રી Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रं श्रध्ययनं ३४ उप्फालगदुदुवाई य, तेणे यावि य मच्छरी । एयजोगसमाउत्तो, काऊलेसं तु परिणमे उत्पार्शकदुष्टवादी च, स्तेनश्वापि च मत्सरी । एतद्योगसमायुक्तः कापोतलेश्यां तु परिणमेत् नयावत्ती अचवले, माई कुऊहले । विणीयविणए दन्ते, जांगवं उवहाणवं नीचैर्वृत्तिरचपलः, श्रमाय्यकुतूहलः । विनीतविनयेो दान्तः, योगवानुपधानवान् पियधम्मे दधम्मेऽवजमीर हिएसए । एयजोगसमाउतो, तेऊलेसं तु परिणमे प्रियधर्मा दृढधर्मा, अवद्य भीरुर्हितैषक: एतद्योगसमायुक्तः, तेजेालेश्यां तु परिणमेत् पयणुकोहमाणे य, मायालोभे य पयणुए । पसन्तचित्ते दन्तप्पा, जोगवं उवहाणव प्रतनुक्रोधमानश्च, मायालोभौ च प्रतनुकौ (यस्य ) । प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा, योगवानुपधानवान् तहा पयणुवाई य, उवसन्ते जिइन्दिए । एयजोगसमाउसो, पम्हलेसं तु परिणमे ३६६ ॥२६॥ ॥२६॥ ॥९७॥ ॥२७॥ ॥२८॥ ॥२८॥ ॥२६॥ ॥२९॥ ॥३०॥ तथा प्रतनुवादी च, उपशान्तो जितेन्द्रियः । एतद्योगसमायुक्तः, पद्मलेश्यां तु परिणमेत् श्रट्टरुद्दाणि वखित्ता, धम्मसुकाणि कायए । पसन्तचि दन्तप्पा, समिर गुत्ते य गुत्तिसु श्रार्तरौद्रे वर्जयित्वा धर्मशुद्धव्याने ध्यायति । प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा, समिता गुप्तश्च गुप्तिभिः ॥३९॥ ॥३०॥ ॥३६॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाला ३७० सरागे वीयरागे वा, उवसन्ते जिइन्दिए एयजोगसमाउत्तो, सुक्कलेसं तु परिणमे सरागो वीतरागेा वा, उपशान्तो जितेन्द्रियः । एतद्योगसमायुक्तः, शुक्लेश्यां तु परिणमेत् प्रसंखिजाणोसप्पिणीण, उस्सप्पिणीण जे समया । संखाईया लोगा, लेसाण हवन्ति ठाणाई असंख्येयावसर्पिणीनां, उत्सर्पिणीनां ये समयाः । संख्यातीता लेोकाः, लेश्यानां भवंति स्थानानि मुहुतद्धं तु जहन्ना, तेत्तीसा सागरा मुहुत्तहिया । उक्कोसा होह ठिई, नायव्वा किण्हलेसाए ॥३२॥ ॥३२॥ ॥३३॥ ॥३३॥ ॥३४॥ अन्तर्मुहूर्तं तु जघन्या, त्रयस्त्रिंशत्सागरे |पमा ' मुहूर्ताधिका । उत्कृष्टा भवति स्थितिः, ज्ञातव्या कृष्णलेश्यायाः ॥ ३४ ॥ मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, दस उदही पलियमसंखभागमन्भहिया । उक्कोसा होइ ठिई, नायव्या नीललेसाप ||३५|| अन्तर्मुहूर्तं तु जघन्या, दशसागरे।पमा पल्येोपमासंख्येयभागाधिका उत्कृष्टा भवति स्थिति:, ज्ञातव्या नीललेश्याया: ||३५|| मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, विष्णुदही पलियमसंखभागमन्भहिया । उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा काउलेसाए ॥३६॥ अंतर्मुहूर्त तु जघन्या, त्रिसागरापमापल्येापमा संख्येयभागाधिका । उत्कृष्टा भवति स्थितिः, ज्ञातव्या कापोतलेश्यायाः ॥३६॥ मुहुतद्धं तु जहन्ना, दोष्णुदही पलियमसंखभागमन्भहिया । उक्कोसा होइ दिई, नायव्वा तेउलेसाए ॥३७॥ अंतर्मुहूर्तं तु जघन्या, द्विसागरोपमा पल्योपमासंख्येयभागाधिका । उत्कृष्टा भवति स्थितिः, ज्ञातव्या तेजेालेश्यायाः ॥३७॥ १ मरता पहला भतमुंहर्ते लेश्या भावे तेथी Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रं अध्ययनं ३४. ३७१ मुहत्तद्धं तु जहन्ना, दस होन्ति य सागरा मुहुत्तहिया । उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा पम्हलेसाए ॥३८॥ अन्तर्मुहूर्त तु जघन्या, दश भवन्ति च सागरा मुहूर्ताधिकाः। उत्कृष्टा भवति स्थितिः, ज्ञातव्या पालेश्यायाः ॥३८॥ मुहत्तद्धं तु जहन्ना, तेत्तीसं सागरा मुहुत्तहिया । उक्कोसा होइ ठिई, नायब्वा सुकलेसाए ॥३॥ अन्तर्मुहूर्त तु जघन्या, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा मुहूर्ताधिका । उल्छष्टा भवति स्थितिः, ज्ञातव्या शुक्ललेश्यायाः ॥३९|| एसा खलु लेसाणं, पोहेण ठिई उ चणिया होइ । चउसु वि गईसु एत्तो, लेसाण ठिई तु वोच्छामि ॥४०॥ एषा खलुं लेश्यानां, ओपेनस्थितिस्तु वर्णिता भवति । चैतसृष्वपि गतिष्वितः, लेश्यानां स्थिति तु वदयामि ॥४०॥ दस वाससहस्साई, काउए ठिई जहनिया होइ । तिण्णुदही पलिग्रोवम, असंखभागं च उक्कोसा ॥४॥ दशवर्षसहस्राणि, कापोतलेश्या: स्थिति धन्यका भवति । त्रिसागरापमापल्यापमा, संख्येयभागाधिका चोत्कृष्टा ॥४॥ तिण्णुदही पलिश्रोवम, असंखभागो जहण नीलठिई। दुसउदही पलिग्रोवमनसंखभागं च उकोसा ॥४२॥ त्रिसागरोंपमापल्योपमा,संख्येयभागाधिका तु जघन्येन नीलास्थिति.। दससागरोपमापल्यापमा संख्येयभागाधिका चोत्कटा(भवति)।४२॥ दसउदही पलिग्रोवमानसंखभाग जहनिया होइ । तेतीसंसागराई उक्कोसा, होइ किण्हाए लेसाए ॥३॥ दशसागरोपमा पल्योपमा, संख्येयभागाधिका जघन्यका भवति । त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमोल्छष्टा, भवति प्णलेश्यायाः ॥४॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ जैन सिद्धांत पाठमाळा. एसा नेरइयाणं, लेसाण ठिई उणिया होइ । तेण परं वोच्छामि, तिरियमणुस्साण देवाण get एषा नैरयिकाणां, लेश्यानां स्थितिस्तु वर्णिता भवति । तेन परं वक्ष्यामि, तिर्यङ्मनुष्याणां(च)देवानां (स्थितिः)॥४४॥ अन्तोमुत्तमद्ध, लेसाण ठिई जहिं जहिं जाउ । तिरियाण नराण वा, वजित्ता केवलं लेसं अन्तर्मुहूर्ताद्धां, लेश्यानां स्थितियस्मिन्यस्मिन्यास्तु । तिरश्चां नराणां वा, वर्जयित्वा केवलां लेश्याम् ॥१९|| मुहुत्तदं तु जहन्ना, उक्कोसा होइ पुचकोडीयो । नवहि वरिसेहि ऊणा, नायव्वा मुक्कलेसाए En अन्तर्मुहूर्त तु जघन्या, उत्कृष्टा भवति पूर्वकोटी । नवभिर्वषरूना, ज्ञातव्या शुकलेश्यायाः एसा तिरियनराणं, लेसाण ठिई उ वणिया होई।। तेण परं वोच्छामि, लेसाण ठिईउ देवाणं । ॥४७ एषा (खलु) तिर्यङ्नराणां, लेश्यानां स्थितिस्तु वर्णिता भवति। ततः परं वक्ष्यामि, लेश्यानां स्थितिस्तु देवानाम् ॥४७॥ दस वाससहस्साई, किण्हाए ठिई जहनिया होइ । पलियमसंखिजइमो, उक्कोसो होइ किण्हाए ॥४॥ दशवर्षसहस्राणि, कृष्णाया: स्थितिर्जघन्यका भवति । पल्योपमासंख्येयतमभागा, उत्कृष्टा भवति कृष्णायाः ॥४८॥ जा किण्हाए ठिई खल, उकोसा सा उ समयमभहिया । जहन्नेणं नीलाए, पलियमसंखं च उकोसो या कृष्णायाः स्थितिः खलु, उत्कृष्टा सा तु समयाभ्यधिका । जघन्येन नीलायाः, पल्योंपमासंख्येयभागा चोत्कण्टा ॥१९॥ १ शुक्ल लेश्या वर्षीने. Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं ३४ ३७३ जा नीलाए ठिई खलु, उक्कोसा साउ समयमभहिया। जहन्नेणं काऊप, पलियमसंखं च उक्कोसा ॥५॥ या नीलायाः स्थितिः खलु, उत्कृष्टा सा तु समयाम्यधिका । जघन्येन कापोतलेश्यायाः, पल्योपमासंख्येयभागा चोत्कष्टा||१०॥ तेण परं बोच्छामि, तेऊलेसा जहा सुरगणाणं । भवणवइबाणमन्तरजोइसवेमाणियाणं च । ॥५१॥ ततः परं वक्ष्यामि, तेजोलेश्याया यथा सुरगणानाम् । भुवनपतिवानमन्तर, ज्योतिष्कवैमानिकानाम् च ॥९॥ पलिनोवमं जहन्न, उक्कोसा सागरा उ दुनहिया । पलियमसंखेजेणं, होइ भागेण तेऊए पल्योपमं जघन्या, उत्कृष्टा (स्थितिः) सागरोपमे तु द्वयधिके । पल्योपमासंख्येयेन, भवति भागेन तेजोलेश्यायाः ॥१२॥ दसवाससहस्साई, तेऊए ठिई जन्निया होइ । दुन्नुदही पलिश्रोवमनसंखभागं च उक्कोसा ॥५३॥ दशवर्षसहस्राणि, तेजोलेश्यायाः स्थितिर्नघन्यका भवति । द्विसागरोपमा, पल्योपमासंख्येयभागाधिका चोल्लष्टा ॥१३॥ जा तेऊए ठिई खलु, उक्कासा साउ समयमभहिया । जहन्नणं पम्हाए, दस उ मुहुत्ताहियाइ उक्कोसा ॥५४॥ या तेजोलेश्यायाः स्थितिः खलु, उत्कृप्टा सा तु समयाम्यधिका। जघन्येन पद्मायाः, दशसागरोपमात्वन्तर्मुहूर्ताधिकोत्कृष्टा ॥१४॥ जा पम्हाए ठिई खलु, उक्कासा सा उ समयमभहिया । 'जहन्नेणं सुकाप, तेत्तीस मुहुत्तमभहिया ॥५५॥ या पद्मलेश्याया: स्थितिः खलु, उत्कृष्टा सा तु समयाभ्यधिका' जघन्येन शुक्ललेश्यायाः, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा मुहुर्ताम्यधिका!! Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ जैन सिद्धांत पाउमाळा. किण्हा नीला काऊ, तिनि वि एयानो अहम्मलेसायो। एयाहि तिहिवि जीवो, दुग्गई उववजई ॥५६॥ कृष्णानीलाकापोता, तिस्रोऽप्येताअधर्मलेश्याः (ज्ञेया:)। एताभिस्त्रिमृभिरपिजीवः, दुर्गतिमुपपद्यते ॥५६॥ तेऊ पम्हा सुका, तित्रिवि एयानो धम्मलेसानों एयाहि तिहिवि जीवा, सुग्गई उववजार्ड ॥५७॥ तेजसी पद्मा शुक्ला, तिस्रोऽप्येता धर्मलेश्याः । एताभिस्तिसृभिरपिनीवः, सुगतिमुपपद्यते ॥१७॥ लेसाहि सव्वाहि, पढमे समयम्मि परिणयाहि तु। नहु कस्सइ उववाओ, परे भदे अस्थि जीवस्स ॥५॥ लेश्याभिः सर्वामिः, प्रथमे समये परिणताभिस्तु । न खलु कस्याप्युपपातः, परे भवेऽस्ति जीवस्य ॥१८॥ लेसाहि सवाहि, चरिमे सम्यम्मि परिणयाहिं तु ।। नहु कस्सइ उवधांनो, परे भवे होइ जीवस्स ॥६॥ लेश्याभिः सर्वाभिः, चरमे समये परिणताभिस्तु | न खलु कस्याप्युपपातः, परे भवे भवति जीवस्य ॥१९॥ अन्तमुहुत्तम्मि गए, अन्तमुहतम्मि सेसए चेव । लेसाहि परिणयाहिं, जीवा गच्छन्ति परलोय ॥६॥ अन्तर्मुहूर्ते गते, अन्तर्मुहूर्ते शेषे चैव । लेश्याभिः परिणताभिः, जीवा गच्छन्ति परलोकम् ॥६॥ तम्हा एयासि लेसाणं, प्राणुभावे वियाणिया । अप्पसत्याभो-वजित्ता, पसत्थानोऽहिटिए मुणि ६॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययनं ३५ तस्मादेतासां लेश्यानां, अनुभागान्विज्ञाय । ( लेश्याः) प्रशस्तास्तु वर्जयित्वा, प्रशस्ता अधितिष्ठेन् सुनिः ॥ त्ति बेमि ॥ इति लेसकयणं समत्तं ||३४|| ॥ इति ब्रवीमि - इति लेश्याध्ययनं समाप्तं ॥ ३४ ॥ ॥ अह अणगारज्झयणं गाम पंचतीस मं ॥ ३७५ ॥ अथ अणगाराध्ययनंनाम पंचत्रिशत्तममध्ययनं ॥ सुणेह मे एगगमणा, मगं वुद्धेहि देसियं । जमायरन्तो भिक्खू, दुकखाणन्तकरे भवे ॥२॥ शृणुत म एकाग्रमनसः, मार्ग बुद्धैर्देशितम् । यमाचरन्भिक्षुः, दुःखानामन्तकरों भवेत् गिहवासं परिचज, पवजामस्तिए मुणी । इमे संगे वियाणिजा, जेहिं सजन्ति माणवा गृहवासं परित्यज्य, प्रव्रज्यामाश्रितेो मुनिः । इमान् संगान् विजानीयात्, यैः (सगैः ) सज्यन्ते मानवाः ॥२॥ तहेब हिंसं अलियं, चोजं श्रवम्भसेवणं । इच्छाकामं च लोभ च, सञ्जय परिवज्जए तथैव हिंसामलीक, चौर्यमब्रह्मसेवनम् । 'इच्छाकामं च लेोमं च, संयतः परिवर्जयेत् मणोहरं चित्तवरं, मलधूवेण वासियं । सकवाडं पण्डुरुल्लोयं, मणसावि न पत्थए मनोहरं चित्रगृहं, माल्यधूपेन वासितम्। सकपाटं पांडुराछोच, मनसापि न प्रार्थयेत् १ प्राप्त वस्तुनी वांछा. ॥१॥ ॥१॥ ॥३॥ ॥३॥ 11211 11801 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥५॥ lien जैन सिद्धांत पाठमाळा. इन्दियाणि उ भिक्खुस्स, तारिसम्मि उवस्सए । दुकराई निवारेउं, कामरागविबढणे इन्द्रियाणि तु भिक्षोः, तादृश उपाश्रये । दुष्कराणि निवारयितुं, कामरागविवर्धने सुसाणे सुन्नगारे वा, रुक्समूले व इक्कयो। पारिकके परकडे वा, वासं तत्थाभिरोयए स्मशाने शून्यागारे वा, वृक्षमुले चैककः । प्रतिरिक्त परछते वा, वासं तत्राभिराचयेत् फायम्मि अणावाहे, इत्थीहिं श्रणभिदुए । तत्थ संकप्पए वासं, भिक्खू परमसंजए प्रासुक अनाबाधे, स्त्रीभिरनभिद्रुते । तत्र संकल्पयेद्वास, भिक्षुः परमसंयतः न सयं गिहाई कुग्विजा, व अन्नेहि कारए । गिहकम्मसमारम्भे, भूयाणं दिस्सए वही न स्वयं गृहाणि कुर्यात् , नैवान्यैः कारयेत् । गृहकर्मसमारंभे, भूतानां दृश्यते वधः तसाणं थावराणं च, सुहमाण वादराण य । तम्हा गिहसमारम्भ, संजनो परिवजए सानां स्थावराणां च, सूरमाणां वादराणां च । तस्माद् गृहसमारंभ, संयतः परिवर्जयेत् तहेब भत्तपाणेसु, पयणे पयावणेनु य । पाणभूयघटाए, न पर न पयावए तथैव भक्तपानेषु, पचने पाचने च । ' प्राणभूतदयार्थं, न पचेन्न पाचयेत् ॥७॥ 141 ॥९॥ ॥२०॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M ३२ जैन सिद्धांत पाठमाळा. अलोले न रसे गिद्धे, जिन्भादन्ते अमुच्छिए । न रसट्ठाए मुंजिजा, जवणठाए महामुणी ॥२७॥ अलोला न रसे गृद्धः, दान्तजिह्वाऽमूर्च्छितः । न रसाथ भुञ्जीत, यापनार्थ महामुनिः प्रचणं रयणं चेव, वन्दणं पूयणं तहा । इढीसक्कारसम्माणं, मणसा वि न पत्थर ॥१८॥ अर्चनं रचनां चैव, वन्दनं पूजनं तथा। ऋद्धिसत्कारसन्मानं मनसापि न प्रार्थयेत् ॥१८॥ सुकमाणं झियाएजा, अणियाणे अकिंचणे । वोसहकाए विहरेजा, जाव कालस्स पजो ॥१९॥ शुक्लध्यानं ध्यायेत् , अनिदानोऽकिंचनः । व्युत्सृष्टकायो विहरेत् , यावत्कालस्य पर्यायः ॥१९॥ निज्जूहिऊण श्राहारं, कालधम्मे उवहिए । । जहिऊण माणुसं वोन्दि, पहू दुक्खा विमुच्चई निर्हाय(परित्यज्य) आहारं, कालधर्म उपस्थिते । त्यक्त्वा मानुषी तनु, प्रभुः (स) दु:खाद विमुच्यते ॥२०॥ निमम्मे निरहंकारे, वीयरागो प्रणासवो । संपत्तो केवलं नाणं, सासयं परिणिचुए ॥२१॥ निर्ममो निरहंकारः, वीतरागोऽनास्त्रवः । संप्राप्तः केवलं ज्ञानं, शाश्वतं परिनिवृतः ॥२१॥ ॥त्ति बेमि ॥ इति अणगारज्मयणं समत्तं ॥३५॥ ॥ इति ब्रवीमि-इत्यनगाराध्ययनं समाप्तं ॥३५॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं ३६. ३७६ ॥२॥ ॥ अह जीवाजीवविभत्तीणाम छत्तीसइम अज्झयणं ॥ ॥ अथ जीवानीवविभक्तिनामपट्त्रिंशत्तममध्ययनं ।। जीवाजीववित्ति, सुणेह मे एगमणा इयो । जं जाणिऊण भिक्खू , सम्म जयइ संजमे जीवाजीवविभक्ति, शृणुत म एकमनस इतः । यां ज्ञात्वा मितुः, सम्यग् यतते संयमे जीदा चेव अजीवा य, एस लोप वियाहिए । अजीवदेसमागासे, अलोगे से वियाहिए ॥२॥ जीवाश्चैवानीवाश्च, एष लोका व्याख्यातः । अजीवदेश आकाश, अलोकः स व्याख्यातः दब्बयो खेत्तो चेव, कालो भावनो तहा। परुवणा तेसि भवे, जीवाणमजीवाण य द्रव्यतः क्षेत्रतश्चेव, कालतो भावतस्तथा । प्ररूपणा तेषां भवेत् , जीवानामजीवानां च ॥शा रुविणो चेवल्वो य, अजीवा दुविहा भवे । अरुवी दसहा वुत्ता, रविणो य चउबिहा रूपिणश्वारूपिणश्च, अनीवा द्विविधा भवेयुः । अरूपिणो दशधोक्ताः, रूपिणश चतुर्विधाः ॥४॥ धम्मत्यिकार तसे, तप्पएसे य ाहिए । अहम्मे तस्स देसे य, तप्पपसे य ाहिए धर्मास्तिकायस्तदेशः, तत्पदेशश्चाख्यातः । अधर्मस्तस्यदेशश्च, तत्प्रदेशश्चाख्यातः भ ॥५॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० जैन सिद्धांत पाठमाळा. ዘንቢ ७ ॥७॥ 140 पागासे तस्स देसे य, तप्परसे य पाहिए। प्रद्धासमए चेव, अरुवी दसहा भवे आकाशास्तिकायस्तस्यदेशश्च, तत्प्रदेशश्चाख्यातः । अद्धासमयश्चैव, अरूपिणो दशधा भवेयुः धम्मावरमे य दो चेब, लोगमित्ता वियाहिया । लोगालोगे य ागासे, समए समयखेत्तिए धर्माधी च द्वौचैव, लोकमात्रौ व्याख्यातौ । लोकेऽलोके चाकाशं, समयः 'समयक्षेत्रिका 'धम्माधम्मागासा, तिनिवि एए श्रणाइया । अपजवसिया चेव, सम्बद्धं तु वियाहिया धर्माधर्माकाशानि, त्रीण्यप्येतान्यनादीनि । अपर्यवसितानि चैव, सर्वादं तु व्याख्यातानि समावि सन्तई पप्प, एवमेव वियाहिए । पाएसं पप्प साईए, सपज्जवसिएवि य समयोऽपि संतति प्राप्य, एवमेव व्याख्यातः । आदेश प्राप्य सादिकः, सपर्यवसितोऽपि च खन्धा य खन्धदेसा य, तप्पएसा तहेव य । परमाणुणो य बोधव्वा, रुविणो य चविहा स्कन्धाश्वस्कन्धदेशाश्च, तत्प्रदेशास्तथैव च । परमाणवश्व बोडव्याः, रूपिणश्च चतुर्विधाः 'एगत्तेण पुहत्तेण, खन्धा य परमाणुय । लोगेादेसे लोए य, भायन्वा ते उ खेतो। इत्तो कालविभागं तु, तेसि बुच्छ चउबिह १ भढीद्वीपमा. ॥९॥ ११०॥ - Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रं अध्ययनं ३६. एकत्वेन पृथक्त्वेन, स्कन्धाश्च परमाणवश्व | लोकैकदेशे लोके च भजनीयास्ते तु क्षेत्रतः । इतः कालविभागं तु, तेषां वक्ष्ये चतुविधम् सतई पप्प तेऽणाई, अपज्जवसिपावि य । ठि पडुश्च साईया, सपज्जवसिया विय संततिं प्राप्य तेऽनादयः, अपर्यवसिताश्रपि च । स्थिति प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च श्रसंखकालमुक्को, एक्को समय जहन्नयं । प्रजीवाण य रुवीण, ठिई एसा वियाहिया असंख्यकालमुत्कृष्टा, एकं समयं जघन्यका । अजीवानां च रूपिणां, स्थितिरेषा व्याख्याता प्रणन्तकालमुक्कोर्स, एक्कं समयं जहन्नयं । प्रजीवाण य रुवीणं, अन्तरेयं वियाहियं अनन्तकालमुत्कृष्टं, एकं समयं जघन्यकम् । अजीवानां च रूपिणां, अन्तरमिदं व्याख्यातम् aurat aurt चेव, रसयो फासो तहा । संठाणमो य विभेधो, परिणामा तेसि पंचहा वर्णतो गन्धतश्चैव रसतः स्पर्शतस्तथा । संस्थानतश्च विज्ञेयः परिणामस्तेषां पञ्चधा वष्णयो परिणया जे उ, पञ्चहा ते पकित्तिया । किन्हा नीला य लोहिया, हालिदा सुकिला तहा वर्णतः परिणता येत, पंचधा ते प्रकीर्तिताः । कृष्णा नीलाश्च लेोहिताः, हरिद्राः शुक्लास्तथा ३८१ ११॥ ॥१२॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१५॥ ॥१६ ॥१६ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ जैन सिद्धांत पाठेमाळा. गन्धो परिणया जे उ, दुविहा ते वियाहिया । सुमिगन्धपरिणामा, दुन्भिगन्धा तहेव य गन्धतः परिणता ये तु, द्विविधास्ते व्याख्याताः । सुरभिगन्धपरिणामाः, दुरभिगंधास्तथैव चं ||१७|| रसो परिणया जे उ, पञ्चहा ते पकित्तियां। तित्तकडुयकसाया, अम्विला महुरा तहा ॥१॥ रसतः परिणता ये तु, पञ्चधा ते प्रकीर्तिताः । तिक्ताः कटुकाः कषायाः, आम्ला मधुरास्तथा ॥१८॥ फासो परिणया जे उ, अहहा ते पकिर्तिया । कक्खडा मउग्रा चेव, गरुया लहुया तहा स्पर्शतः परिणता ये तु, अष्टधा ते प्रकीर्तिताः । कर्कशा मूदुकाश्चैव, गुरुका लघुकास्तथा ॥१९॥ सीया उण्हा य निद्धा य, तहा लुक्खा य श्राहिया । -इय फासपरिणया एए, पुग्गला समुदाहिया સારવાં शीता उण्णाश्च स्निग्धाश्य, तथा रूताश्चाख्याताः इति स्पर्शपरिणता एते, पुद्गलाः समुदाहृताः ॥२०॥ संठाणो परिणया जे उ, पञ्चहा ते पकित्तिया । परिमण्डला य वट्टा य, तंसा चउरंसमायया ॥२॥ संस्थानतः परिणता ये तु, पंचधा ते प्रकीर्तिताः। 'परिमण्डलाश्च वृत्ताश्च, त्र्यसाश्चतुरस्रा आयता वण्णयो जे भवे किण्हे, भए से उ गन्धयो । रंसी फासश्रो चेव, भइए संठीणमोवि य । वर्णतो यो भवेत्कृष्णः, भाज्यः स तु गन्धतः । रसतः स्पर्शतश्चैव, भाज्य: संस्थानतोऽपि च ॥२१॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८३ ॥२३॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२४॥ ॥२५॥ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं ३६. वणो जे भवे नीले, भइए से 3 गन्धयो । रसो फासो चेव, भइए संठाणमोवि य वर्णतो यो भवेन्नीलः, भाज्यः स तु गन्धतः । . रसत: स्पर्शतश्चैव, भाज्यःसंस्थानतोऽपि च वण्यायो लोहिए जे उ, भइए से उ गधनी । रसो फासो चेव, भइए संठाणमोवि य वर्णतो लोहितो यस्तु, भाज्यः स तुं गन्धतः । रसतः स्पर्शतश्चैव, भाज्य: संस्थानतोऽपि च चण्णो पीयर जे उ, भइए से उ गन्धयो । रसो फासश्रो चेव, भइए संठाणमोवि य वर्णतः पीतो यस्तु, भाज्यः स तु गंधतः । । । । रसतः स्पर्शतश्चैव, भाज्यः संस्थानतोऽपि चं वण्णायो सुकिले जे उ, भइए से उ गन्धयो । रसो फासो चेव, भइए संठाणमोवि य वर्णतः शुक्लो यस्तु, भाज्य: स तु गन्धतः । रसत: स्पर्शतश्चैव, भाज्य: संस्थानतोऽपि चं गन्धयो जे भवे सुब्भी, भइए से उ वणयो । रसो फासो चेवं, भइए संठाणमोवि य गंधतो यो भवेत्सुरभिः, भाज्यः स तु वर्णतः। रसतः स्पर्शतश्चैव, भाज्य: संस्थानतोऽपि च । गधयो जे भवे दुम्भी, भइए से उ वणश्रो । रसो फासो चेव, भइए संठाणमोवि य गन्धतो यो भवेद् दुरभिः, भाज्यः स तु वर्णतः । रसतः स्पर्शतश्चैव, भाज्य: संस्थानतोऽपि च ॥२५॥ Rn ॥२६॥ ॥२७॥ ॥२७ ॥२८॥ ॥२८॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ जैन सिद्धांत पाठमाळा. रसश्रो तित्तए जे उ, भइए से उ वण्णओ । गन्धो फासो चेव, भहए संठाणप्रोवि य. रसतस्तिक्तो यस्तु, भाज्यः स तु वर्णतः । गंधतः स्पर्शतश्चैव, भाज्यः संस्थानतोऽपि च रसप्रो कडुए जे उ, भइए से उ वण्णो । aar फासो चेव, भइए संठाणोवि य रसतः कटुको यस्तु, भाज्यः स तु वर्णतः । गन्धतः स्पर्शतश्चैव, भाज्य : संस्थानतोऽपि च रसश्री कसाए जे उ, भइए से उ वण्णो । गंध फासो चेव, भहए संठाणोवि य रसतः कषायो यस्तु, भाज्यः स तु वर्णतः । गन्धतः स्पर्शतश्चैव, भाज्य : संस्थानतोऽपि च रस बिले जे उ, भइए से उ वण्णओ । गन्धा फासो चेव, भइए संठाणओवि य रसत आम्लो यस्तु, भाज्यः स तु वर्णतः । गन्धतः स्पर्शतश्चैव, भाज्यः संस्थानतोऽपि च रसश्रो महुरप जे उ, भहए से उ घण्णत्रो । गन्ध फासो चेव, भइए संठाणोवि य रसतो मधुरो यस्तु, भाज्यः स तु वर्णतः । गन्धतः स्पर्शतश्चैव, भाज्यः संस्थानतोऽपि च फासो कक्खडे जे उ, भहए से उ वण्णश्रो । गन्धो रस चेव, भइए संठाणओवि य स्पर्शतः कर्कशेो यस्तु, भाज्यः स तु वर्णतः । गन्धतो रसतचैव, भाज्यः संस्थानतोऽपि च lek ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३०॥ late ॥३१॥ ॥३२॥ ॥३२॥ ||३३|| ॥३३॥ રૂ ॥३४॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययनं ३६. फासयो मउप जे उ, भइए से उ वण्णओ । गन्धरसो चेव, भइ संठाणवि य स्पर्शतो मृदुको यस्तु, भाज्यः स तु वर्णत । गन्धतो रसतश्चैव, भाज्य संस्थानतोऽपि च फासो गुरुप जे उ, भडए से उ वण्णा । गन्धो रसश्रो चेव, भए संठाणवि य स्पर्शतो गुरुको यस्तु, भाज्यः स तु वर्णत' । गन्धतो रसतश्चैव, भाज्यः सस्थानतोऽपि च फासो लहुए जे उ, भइए से उ वण्णयो । गन्धो रस चेव, भइए संठाणोवि य स्पर्शतो लघुको यस्तु, भाज्यः स तु वर्णतः गन्धतो रसतश्चैव, भाज्यः सस्थानतोऽपि च फासो सीयए जे उ, भइए से उ वण्णश्रो । गन्ध रस चेव, भडए काणयवि य स्पर्शतः शीतो यस्तु, भाज्यः स तु वर्णतः । गन्धतो रसतश्चैव, भाज्यः संस्थानतोऽपि च फासो उण्हर जे उ, भइए से उ वण्णश्रो । गन्धओ रस चेव, भइए संठाणओवि य स्पर्शत उष्णो यस्तु, भाज्यः स तु वर्णतः । गन्धतो रसतश्चैव, भाज्यः संस्थानतोऽपि च फासो निद्ध जे उ, भद्दर से उ वण्णयो । गन्धरसचेच भइए संठाणोवि य स्पर्शतः स्निग्धोयन्तु, भाज्यः स तु वर्णतः । रान्तो रमतत्रैव, भाज्यः सस्थानतोऽपि च ३८५ ||३५|| ॥३५॥ ॥३६॥ ॥३६॥ ફી ॥३७॥ ||३८|| ॥३८॥ ॥३९॥ ॥३९॥ ॥२०॥ 118011 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४॥ ॥४२॥ जैन सिद्धांत पाठमाळा. फासो लुक्खए जे उ, भइए से उ वण्णश्रो । गन्धो रसो चेव, भइए संठाणमोवि य स्पर्शतो रूक्षों यस्तु, भाज्यः स तु वर्णतः। गन्धतो रसतश्चैव, भाज्य: संस्थानतोऽपि च परिमंडलसंठाणे, भइए से उ वणो । गन्धमो रसो चेव, भइए से फासमोवि य परिमण्डलसंस्थाने, भाज्यः स तु वर्णतः । गन्धतो रसतश्चैव, भाज्यः स स्पर्शतोऽपि च संठाणो भवे बट्टे, भइए से उ वण्णयो । गन्धो रसो चेव, भइए से फासोवि य संस्थानतो भवेदू वृत्तः, भाज्यः स तु, वर्णतः । गन्धतो रसतश्चैव, भाज्य: स स्पर्शतोऽपि च संठाणयो भवे तसे, भइए से उ वण्णो । गन्धयो रसमो चेव, भइए से फासोवि य संस्थानतो भवेत् त्र्यसः, भाज्यः स तु वर्णतः । गन्धतो रसतश्चैव, भाज्यः स स्पर्शतोऽपि च संठाणो जे चउरंसे, भइए से उ वण्णयो। गन्धयो रसयो चेव, भइए से फासोवि य संस्थानतोयश्चतुरस्त्रः, भाज्यः स तु वर्णत. । गन्धतो रसतश्चैव, भाज्यः स स्पर्शतोऽपि च जे पाययसंठाणे, भइए से उ वणो । गन्धयो रसमो वेव, मइए से फासोवि व य आयतसंस्थानः, भाज्यः स तु वर्णतः । गन्धतो रसतश्चैव, भाज्य: स्पर्शतोऽपि च Heen THANH ॥४४॥ ।४५॥ ॥४॥ ॥४६॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उत्तराध्ययनसूत्रं अध्ययनं ३६. ३८७ एसा अजीवविभत्ती, समासेण वियाहिया । इत्तो जीवविभत्ति, वुच्छामि अणुपुन्बसो एषाऽजीवविभक्तिः, समासेन व्याख्याता । । इतो जीवविभक्ति, वदयाम्यनुपूर्व्या ॥४७|| संसारत्या य सिद्धा य, दुविहा जीवा वियाहिया । सिद्धा णेगविहा वृत्ता, तं मे कित्तयो सुण .. ॥८ ससारस्थाश्च सिद्धाश्च, द्विविधा जीवा व्याख्याताः। सिद्धा अनेकविधा उक्ता , तान्मे कीर्तयत। शृणु - ॥४८|| इत्थी पुरिससिद्धा य, तहेव य नपुंसगा। सलिगे अन्नलिगे य, गिहिलिगे तहेब य ell स्त्रीसिद्धाः पुरुषसिद्धाश्च, तथैव च नपुंसकाः । । म्वलिगा अन्यलिगाश्च, गृहिलिगास्तथैव च ॥६॥ उक्कोसोगाहणाए य, जहन्नमज्झिमाइ य । उई अहे य तिरियं च, समुइम्मि जम्मि य . ॥५०॥ उत्कृष्टावगाहनाया. च, जघन्यमव्यमयोश्च । उर्ध्वमधश्चतिर्यक् च, समुद्रे जले च ॥६॥ दस य नपुंसएसु, वीसं इत्थियातु य । पुरिसेप्नु य अठसय, समएणेगेण सिकाई दश च नपुंसकेषु, विशतिः स्त्रीषु च। पुरुषेषुचाष्टाधिकगतं, समय एकस्मिन् सिध्यन्ति ॥१॥ चत्तारि य गिहलिगे, अन्नलिगे दसेव य । सलिंगेण अहसयं, समपणेगेण सिमई चत्वारश्च गृहलिंगे, अन्यलिगे दशेव च । स्वालिगेनाष्टाधिकशत, समय एकस्मिन् मिव्यन्ति ॥१२॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. उक्कोसोगाहणाए य, सिज्मन्ते जुगवं दुवे । चत्तारि जहन्नाए, मज्मे अत्तर संयं ॥५३॥ उत्कृष्टावगाहनायां च, सिध्यतो युगपटू हौं । चत्वारो जघन्यावगाहनायां, मध्यमावगाहनायामण्टोत्तरं शतम् ।। चउरुहलोए य दुवे समुद्दे, तो जले वीसमहे तहेव य । सय च अहुत्तरं तिरियलाए, समएणेगेण सिझई धुवं ॥५४॥ चत्वार उर्ध्वलोके च हौं समुद्रे, त्रयो जले विशतिरधोलोकेतथैवच । शतंचाष्टोत्तरं तिर्यग्लोके समयएकस्मिन् सिध्यन्ति ध्रुवम् ॥५४॥ कहिं पडिहया सिद्धा, कहिं सिद्धा पइडिया । कहि बोन्दि चइताणं, कत्थ गन्तूण सिझई क्व प्रतिहताः सिद्धाः, क्व सिद्धाः प्रतिष्ठिताः । क्व शरीरं त्यक्त्वा, कुत्र गत्वा सिध्यन्ति ॥१६॥ अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पहिया । इहं बोन्दि चहत्ताणं, तत्थ गन्तूण सिज्मई अलोके प्रतिहताः सिद्धाः, लोकाग्रे च प्रतिष्ठिताः । इह शरीरं त्यक्त्वा, तत्र गत्वा सिध्यन्ति ॥५६॥ बारसहि जोयणेहि, सबढस्सुवरि भवे । सिपम्भारनामा उ, पुढवी छत्तसंठिया द्वादशभियोजनेः, सर्वार्थस्योपरि भवेत् । ईषत्मागभारनाम्नी तु, प्रथिवी छत्रसंस्थिता ॥५॥ 'णयालसयसहस्सा, जोयणाणं तु प्रायया । वयं चेव विस्थिण्णा, तिगुणो तरसेव परिरो ॥१८॥ १ पाच मनुत्तर-विनानो पैकी पाचन विमान, २ आकार. Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययन ३६. ३६ 100 पचचत्वारिंशत्शतसहस्राणि, योजनानां त्वायता। . , तावती चैव विस्तीर्णा, त्रिगुणस्तस्या एव परिरयः(परिधिः)॥५८|| अट्ठजोयणबाहुला, सा मज्झम्मि वियाहिया । परिहायन्ती चरिमन्ते, मच्छिपत्ताउ तणुयरी ॥५॥ अप्टयोजनवाहल्या, सा मध्ये व्याख्याता ।। परिहीयमाना चरमान्ते, मक्षिकापत्रात्तनुतरा ॥१९॥ अजुणसुवण्णगई, सा पुढची निम्मला सहावेण । उत्ताणगच्छत्तगसठिया य, भणिया जिणवरेहि 'अर्जुनसुवर्णकमयी, सा पृथ्वी निर्मला स्वभावेन । उत्तानकच्छत्रसंस्थिता च, भणिता जिनवरैः ॥६॥ संखककुंदसंकासा, पण्डुरा निम्मला सुहा । सीयाए जोयणे तत्तो, लोयन्ता उ वियाहियो ॥ शखांककुन्दसंकाशा, पाण्डुरा निर्मला शुभा | सीताभिधाया योजने ततः, लोकान्तस्तु व्याख्यातः ॥६॥ जोयणस्स उ जो तत्थ, कोसो उपरिमो भवे ।। तस्स कोसस्स छन्भाए, सिद्धाणोगाहणा भवेश योजनस्य तु यस्तत्र, क्रोश उपरिवर्ती भवेत् । . तस्य क्रोशस्य षइ भागे, सिद्धानामवगाहना भवेत् ॥६२॥ तत्य सिद्धा महाभागा, लोगगम्मि पइट्टिया। । । भवपपंचसो मुक्का, सिद्धिं वरगई गया ॥३॥ तत्र सिद्धा महाभागाः, लोकाग्रे प्रतिष्ठिताः। भवप्रपञ्चोन्मुक्ताः, सिद्धि वरगति गताः ॥३॥ १ सफेद सुवर्णपट जेवी २ ३३३ धनुष्य ने ३२ मांगळ. Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० जैन सिद्धांत पाठमाळा. उस्सेहो जेसि जो होइ, भवम्मि चरिमम्मि उ : तिभागहीणो तत्तो य, सिद्धाणोगाहणा भवे 'उत्सेधो यस्य यो भवति, भवे चरमे तु । तृतीयभागहीना ततश्च सिद्धानामवगाहना भवेत् तु एगत्तेण साईया, अपज्जवसियाचि य । पुहतेण प्रणाइया, अपज्जवसियावि य एकत्वेन सादिकाः, अपर्यवसिता अपि च । ष्टथक्त्वेनानादिकाः, अपर्यवसिता श्रपि च रुविण जीवघणा, नाणदंसणसन्निया । अलं सुई संपन्ना, उवमा जस्स नत्थि उ रूपिणो जीवधनाः, ज्ञानदर्शनसंज्ञिताः । अतुलं सुख संपन्नाः, उपमा यस्य नास्ति लोगेगदेसे ते सब्बे, माणदंसणसन्निया । संसारपार नित्थिण्णा, सिद्धिं वराहं गया लोकादेशे ते सर्वे, ज्ञानदर्शनसंज्ञिताः । - संसारपार निस्तीर्णाः सिद्धिं वरगतिं गताः संसारत्था उ जे जीवां, दुविहा ते वियाहिया । तसां य थावरा चैव, थावरा तिविहा तहि संसारस्यास्तु ये जीवाः, द्विविधास्ते व्याख्याताः । साश्व स्थावराचैव स्थावरा स्त्रिविधास्तत्र पुढवी भाउजीवा य, तहेव यं. वणस्सई । tar थावरा तिविहा, तेसिं भेए सुणेह मे पृथिव्यवजीवाश्च तथैव च वनस्पतिजीवाः ।एत्येते स्थावरास्त्रिविधा:, तेषां भेदान्शृणुत मे. 1 · S १ ऊंचाई २ शरीरनो खाली भाग पुराइ जवाथो घन ३ 1 ॥६४॥ ॥६४॥ ॥ ६५॥ ॥६५॥ ॥६६॥ ॥६६॥ ॥ ॥६७॥ ॥च ॥६८॥ fell ॥६९॥ जे सुखनी. Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रं श्रध्ययनं ३६ दुविहा पुढवीजीवा य, सुहुमा वायरा तहा । पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेव दुहा पुणे ॥७०॥ ॥७१॥ द्विविधाः पृथ्वीजीवाश्च, सूक्ष्मा वाढरास्तथा । पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च, एवमेव द्विधा पुनः वायरा जे उपजत्ता, दुविहा ते वियाहिया । सहा खरा य बोधव्वा, सण्हा सत्तविहा तहिं बाद ये तु पर्याप्ताः, द्विविधास्ते व्याख्याताः । ऋक्षणा. खराश्च वोडव्याः, श्लक्ष्णाः सप्तविधास्तत्र ॥ ७१ ॥ किण्हा नीला य रुहिरा य, हालिद्दा सुक्किला तहा पण्डुपणगमट्टिया, खरा छत्तीसईविहा ૧ ॥७०॥ હી ॥७२॥ ॥७३॥ कृष्णा नीलाश्वरुधिराश्च, हरिद्राः शुकास्तथा । पाण्डुवर्णा पनकमृत्तिका, खराष्टथ्वीषटूत्रिशद्वविधा पुढवी व सक्करा बालुवा य, उबले सिला व लोणसे । प्रय तम्त्र तउय-सीसग रूप्प- सुवण्णे य वइरे य पृथ्वी च शर्करा वालुका च, उपलः शिला च लवणोंषौ । यस्ताम्रत्रपुकसीसक, रूप्यसुवर्ण वज्राणि च हरियाले हिंगुलुए, मणोसिला सासगंजण पवाले । अध्भपडलम्भवालय, दायरकार मणिविहाणे 1193,11 {lsall ॥७४॥ हरितालो हिगुलकः, मनः शीला सासकोऽजनं प्रवालम् । अभ्रपटलमभ्रवालुका, वादकाये (च) मणिविधानानि गोमेजर य रुयगे, श्रंके फलिहे य लोहियक्खे थ 1 मरगय-मसारगल्ले, भुयमोयग - इन्दनीले य nel गोमेदकश्च रुचक, अंकरत्नं स्फटिकरत्नं च लोहिताग्न्य मणिच । मरकतमणिर्मसारगडः, भुजगमोचक मणिश्वेन्द्रनीलरत्नंच ॥७५॥ १ नरम २ कट ३ घणी मीग्री वू. ४ वज्र (होरो ). Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जैन सिद्धांत पाठमाळा. चन्दण-गेश्य हंसगम्भे, पुलए सोगन्धिएय बोधव्ये । चन्दप्पहवेरुलिए, जलकन्ते सूरकन्ते य ॥७॥ चंदनं गैरिकमणिहंसगर्भः, पुलकः सौगन्धिकश्च बोहव्यः । चन्द्रप्रभो वैडूर्यः, जलकान्तः *सूर्यकान्तश्च ॥७६॥ एए खरपुढवीए, भेया छत्तीसमाहिया । एगविहमणाणत्ता, सुहुमा तत्थ वियाहिया ॥७७॥ एते खरएरव्याः, भेदाः पत्रिशदाख्याताः । एकविधाअनानात्वाः, सूक्ष्मास्तत्र व्याख्याताः ॥७७॥ सुहमा सबलोगम्मि, लोगटेसे य वायरा । इत्तो कालविभागं तु, बुच्छ तेसिं चउन्विहं सूक्ष्माः सर्वलोके, 'लोकदेशे च बादराः । इत: कालविभागं तु, वदये तेषां चतुर्विधम् संतई पप्पणाईया, अपजवसियावि य । ठिई पडुच साईया, सपजवसियावि य । Beall संतति प्राप्यानादिकाः, अपयवसिता अपि च । स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपि च ॥७९॥ बावीससहस्साई, वासाणुक्कासिया भवे । पाउठिई पुढवीणं, अन्तोमुहत्तं जहनयं 100 द्वाविंशतिसहस्राणि, वर्षाणामुत्लष्टा (स्थितिः) भवेत् । आयुः स्थितिः पृथ्वीकायानां, अन्तर्मुहूर्त जघन्यका ॥८॥ असंखकालमुक्कासं, अन्तोमुहत्तं जहन्नयं । कायठिई पुढवीणं, तं कायं तु अमुचनो ॥६॥ असख्यकालमुत्छष्टा, अन्तर्मुहूर्त जघन्यका । कायस्थितिः पृथ्वीकायजीवानां, तं काय त्वमुंचताम् ॥१॥ * रत्न प्रभादि पृथ्वीमा मणिना भेदना नाम १८ छे छता गोमेदकयो सूर्यकातमणि सुधी १४ज गणवा. १ रत्नप्रभादि पृथ्वीमा. - Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रं अध्ययनं ३६ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥४॥ अणन्तकालमुक्कासं, श्रन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । विजम्मि सए काए, पुढविजीवाण अन्तरं अनन्तकालमुत्कृष्टं, अन्तर्मुहूर्त जघन्यकं । वित्यक्ते स्वकेकाये, पृथ्वीनीवानामन्तरम् एपसि वणनो चेव, गन्धो रसफासो । संठाणदेसश्रो वावि, विहाणाई सहस्ससो एतेषां वर्णतश्चैव, गन्धतो रसस्पर्शतः । संस्थानादेशतो वापि, विधानानि सहस्रशः दुविहा श्राऊजीवा उ, सुहमा वायरा तहा । राजत्तमपजत्ता, एवमेए दुहा पुणो द्विविधा अब्जीवास्तु, सूदमा वादरास्तथा । पयोप्ता अपर्याप्ताः, एवमेते द्विधा पुनः वायरा जे उ पजता, पंचहा ते पकित्तिया । सुद्धोदए य उस्से, हरतणु महिया हिमे बादरा ये तु पर्याप्ताः, पंचधा ते प्रकीर्तिताः। शुद्धोदकं चावश्यायः, 'हरतनुमहिकाहिमम् पविहमणाणत्ता, सुहुमा तत्थ वियाहिया । सुहुमा सबलोगम्मि, लोगदेसे य बायरा एकविधा अनानात्वाः, सूक्ष्मास्तत्र व्याख्याताः । सूक्ष्माः सर्वलोके, लोकदेशे च वादराः सन्तई पप्पणाई एया, अपज्जवसियावि य । ठिई पडुच साईया, सपजवसियावि य सन्तति प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च । स्थिति प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपिं च १ ठगनो झीणो वरसाद २ तृणाग्र जलविंडु. ॥८५॥ ॥८६॥ 115७॥ ॥७॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. सत्तेव सहस्साई, वासाणुक्कासिया भवे । पाउठिई आऊणं, अन्तोमुहत्तं जहनिया ॥८॥ सप्तैव सहस्राणि, वर्षाणामुत्कृष्टा भवेत् । आयु:स्थितिरपां, अन्तर्मुहूर्त जघन्यका ॥८॥ असंखकालमुक्कासं, अन्तोमुहत्तं जहन्नथे । । काठिई श्राऊणं, तं काय तु अमुंची असंख्येयकालमुत्सृष्टा, अन्तर्मुहूर्त जघन्यका ।' कायस्थितिरपां, तं कायं त्वमुंचताम् ||८९॥ अणन्तकालमुक्कांसं, अन्तोमुहत्तं जहन्नयं । ' विजम्मि सए काए, पाऊजीवाण अन्तरं ॥३०॥ अनन्तकालमुत्कृष्टं, अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम् । वित्यक्ते स्वके काये, अप्कायजीवानामन्तरम् ॥९ ॥ एएति चण्णो चेव, गन्धयो रसफासों । संठाणदेसयों वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥९॥ एतेषांवर्णतश्चैव, गन्धतो रसतः स्पर्शतः । संस्थानादेशतो वापि, विधानानि सहस्रशः ॥९॥ दुविहा वणस्सईजीवा, सुहमा बायरा तहा । पजत्तमपजत्ता, एवमेए दुहा पुणों ॥३२॥ द्विविधा वनस्पतिजीवाः, सूक्ष्मा बादरास्तथा । पर्याप्ता अपर्याप्ताः, एवमेते द्विधा पुनः ॥१२॥ वायरा जे उ पजत्ता, दुविहा ते वियाहिया । साहारणसरीरा य, पत्तेगा य तहेव य ॥३३॥ बादरा ये तु पर्याप्ताः, द्विविधास्ते व्याख्याताः । 'साधारणशरीराश्च, प्रत्येकाश्च तथैव च १ अनंतजीवो एक शरीरमा होय तेवा जीवो. २ एक शरीरमा एक जीव होय ते. ॥१३॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं ३६. पत्तेगसरीरानोऽणेगहा ते पकित्तिया ! रुक्खा गुच्छा य गुम्मा य, लया वल्ली तणा तहा || प्रत्येकशरीरा:, अनेकधास्ते प्रकीर्तिताः। वृक्षा गुच्छाश्च 'गुल्माश्च, लता वल्ल्यस्तृणानि तथा • ॥२४॥ वलय पवगा कुहुणा, जलरुहा प्रोसही तहा : हरियकाया वाधवा, पत्तेगाइ वियाहिया लतावलयानि पर्वजाः कुहणाः, जलरुहा औषधयस्तथा । हरितकायाश्च वोडव्याः, प्रत्येका व्याख्याताः . ॥९॥ सहारणसरीरापोऽणेगहा पकित्तिया । .. आलुए मूलए चेव, सिंगवेरे तहेव य . ॥६ साधारणशरीराः, अनेकधास्ते प्रकीर्तिताः। आलुको मूलकश्चैव, शंगवेरकं तथैव च ॥९॥ हरिली सिरिली सस्सिरिली, जावई के य कन्दली ।। पलण्डु लसणकन्दे य, कन्दली य कुहुवए " ' IIEILL हरिली सिरिली सिस्सिरिली, यावतिकश्च कन्दली । पलाण्डुकन्दो लशुनकन्दश्च, कंदली च कुहुव्रतः ॥१७॥ लोहिणी हूयथी हूय, कुहंगा य तहेव य । कण्हे य वजकन्दे य, कन्दे सूरणए तहा लोहिनीकन्दो हुताक्षीकन्दो. इतकन्दः कुहककन्दश्च तथव च कृष्णकन्दश्च वज्रकन्दश्च, कन्दः सूरणकस्तथा ॥९८|| अस्सकण्णी य वोधब्वा, सीहकपणी तहेव य ।' मुगुण्ढी य हलिहा य, गहा एवमाययो अश्वकर्णी च वोद्धव्या, सिहकर्णी तथैव च । मुसंढी च हरिद्रा च, अनेकधा एवमादिका. . ॥९९॥ १ नवमालिकादि २ भूमिमाथी नोकळेला चाकोरे वा. ६ जावत्री. Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१०॥ ॥१०॥ ॥१०॥ ॥११॥ ॥१०॥ जैन सिद्धांत पाठमाळा. एगविहमणाणत्ता, सुहुमा तत्थ वियाहिया । सुहुमा सबलोगम्मि, लोगदेसे य वायरा एकविधाअनानात्वाः, सूदमास्तत्र व्याख्याताः । सूदमाः सर्वलोंके, लोकदेशे च बादराः संतई पप्पणाईया, अपजवसियावि य । ठिई पडुम्च साईया, सपन्जवसियावि य संतति प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च । स्थिति प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपि च दस चेव सहस्साई, वासाणुकोसिया भवे । वणस्सईण पाऊं तु, अन्तोमुहुत्तं जहनिया दशचैव सहस्राणि, वर्षाणामुत्कृष्टं भवेत् । वनस्पतिनामायुस्तु, अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम् आणन्तकालमुक्कोस, अन्तोमुहुत्त जहन्नयं । कायठिई पणगाणं, ते कार्य तु प्रमुंवो अनन्तकालमुत्कृष्टा, अन्तर्मुहूर्त जघन्यका । कायस्थितिः पनकानां, तं कायं त्वमुंचताम् असंखकालमुक्कोस, अन्तोमुहत्तं जहन्नयं । विजढम्मि सए काए, पणगजीवाण अन्तरं असंख्येयकालमुत्कृष्ट, अन्तमुहूर्त जघन्यकम् । वित्यक्ते स्वके काये, पनकजीवानामन्तरम् एएसिं चण्णो चेव, गन्धो रसफासो । संठाणदेसमो वावि, विहाणाई सहस्ससो एतेषां वर्णतश्चैव, गंधतो रसतःस्पर्शतः । संस्थानादेशतो वापि, विधानानि सहस्रशः ॥१०२॥ ॥१०॥ ॥१०॥ ॥१०४॥ ॥१०॥ ॥१०॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे अध्ययनं ३६. ॥ १०६ ॥ }{sl ॥ १०७॥ थावरा तिविहा, समासेण वियाहिया । तो उ तसे तिवि, वुच्छामि श्रणुपुन्वसो इत्येते स्थावरास्त्रिविधाः, समासेन व्याख्याताः । इतस्तु त्रसान् त्रिविधान्, वक्ष्याम्यनुपूर्वशः तेऊ वाऊ य बोधव्वा, उराला य तसा तहा | इच्चे तसा तिविहा, तेसिं भेए सुणेह मे तेजांसि वायवश्व बोद्धव्याः, उदाराश्च त्रसास्तथा । इत्येते त्रसास्त्रिविधा:, तेषां भेदाञ्च्छृणुतमे दुविहा तेऊजीवा उ, सुहमा वायरा तहा । पज्जत्तमपजत्ता, एवमेए डुद्दा पुणो द्विविधास्तेजोजीवास्तु, सूक्ष्मा वाढरास्तथा । पर्याप्ता अपर्याप्ताः, एवमेते द्विधा पुनः वायरा जे उपजत्ता, णेगहा ते वियाहिया । इंगाले मुम्मुरे श्रगणी, श्रविजाला तहेव य बादरा ये तु पर्याप्ता, अनेकधास्ते व्याख्याताः । अंगारो 'मुमुरोऽग्रि, अर्चिला तथैव च उक्काविज्जू य वोधव्वा णेगहा पवमायो । एगविहमणाणत्ता, सुहुमा ते वियाहिया उल्काग्निर्विद्युदग्निश्च बोडव्याः, अनेकधा एवमादिकाः । एकविधा अनानात्वा, सूक्ष्मास्ते व्याख्याताः सुहमा सव्वलोगम्मि, लोगटेसे य वायरा । इत्तो कालविभागं तु, तेसि वुच्छं चव्विहं सूक्ष्माः सर्वलोके, लाकदेशे च वादराः । इत· कालविभागं तु, तेषां वक्ष्यामि चतुर्विधम् 1 १ मिश्र अग्नि ३६७ ॥१०६ ॥ ॥ १०८ ॥ ॥ १०८॥ ||६०६ ॥ ॥१०९॥ * ॥११०॥ 1132011 ॥११॥ ||११|| Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ जैन सिद्धांत पाठमाळा. संत पव्पणाईया, पज्जवसियावि य । ठि पडुच्च साईया, सपजवसियावि य संततिं प्राप्यानादिका, अपर्यवसिता अपि च । स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च , चिण्णेव महोरता, उक्केासेण वियाहिया उठिई तेऊणं, ध्यन्तोमुहुतं जहनिया त्रीण्येवाहोरात्राणि, उत्कर्षेण व्याख्याता | आयुःस्थितिस्तेजसां, अन्तर्मुहर्तं जघन्यका प्रसंखकालमुक्को, अन्तीमुत्तं जहन्त्रयं । कार्याठिई तेऊणं, तं कार्य तु प्रभुंच असंख्येयकालमुत्कृष्टा, अन्तर्मुहूर्त जधन्यका । कायस्थितिस्तेजसां तं कार्यत्वमुंचताम् अणन्तकालमुक्कासं, अन्तोमुत्तं जहन्नयं । विजढस्मि सए काए, तेऊजीवाण अन्तरं अनन्तकालमुत्कृष्टं, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यकम् । वित्यक्ते स्वके काये, तेजोजीवानामन्तरम् refi aorat चेव, गन्धो रसफासयो । संoाणदेो वावि, विहाणाई सहस्सो एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतों रसस्पर्शतः । संस्थानादेशतोवाऽपि, विधानानि सहस्रशः दुविहा वाउजीवा उ, सुहुमा वायरा तहा । पजत्तमपजत्ता, एवमेए दुहा पुणे द्विविधा वायुजीवास्तु, सूक्ष्मा वादरास्तथा । पर्याप्ता अपर्याप्ताः, एवमेते द्विधा पुनः ॥११॥ ॥११२॥ ॥११३॥ ॥११३॥ Al ॥११४॥ ॥११५॥ ॥ ११५ ॥ ॥ ११६ ॥ ॥ ११६॥ {૨ી ॥११७॥ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९९ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं वायरा जे उ पजत्ता, पञ्चहा ते पकित्तिया। उक्कलिया मण्डलिया, घणगुजा सुद्धवाया य ॥११॥ बादरा ये तु पर्याप्ताः, पंचधा ते प्रकीर्तिताः । 'उत्कलिकावायुमण्डलिका वायुः,धनवायुगुंजावायुःशुद्धवाताश्च ।। संवट्टगवाया य, णेगहा एवमायो । एगविहमणाणत्ता, सुहुमा तत्थ विवाहिया ॥११॥ संवर्तकवायवश्च, अनेकधा एवमादय । एकविधा अनानात्वाः, सूक्ष्मास्तत्र व्याख्याताः ॥११९॥ सुहुमा सबलोगम्मि, एगदेसे य दायरा । इत्तो कालविभागं तु, तेसिं बुच्छ चन्विहं ॥१२०॥ सूदमाः सर्वलोके, एकदेशे च बादरा । इत. कालविभाग तु, तेषां वक्ष्ये चतुर्विधम् ___॥१२०॥ सन्तई पप्पणाईया, अपजवसियावि य । ठिई पडुच्च साईया, सपजवसियावि य सन्तति प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च । स्थिति प्रतीत्यसादिकाः, सपर्यवसिता अपि च ॥१२॥ तिण्णेव सहस्साई, वासाणुकोसिया भवे । प्राउठिर्ड वाऊणं, अन्तोमुहत्तं जहनिया પા त्रीण्येव सहस्राणि, वर्षाणामुत्कृष्टा भवेत् । आयुःस्थितिर्वायूनां, अन्तर्मुहूर्त जघन्यका ॥१२॥ असंखकालमुक्कोस, अन्तामुहत्तं जहन्नयं । कायठिई वाऊणं, तं कायं तु अनुचो ॥१२३॥ असंख्येयकालमुत्कष्टा, अन्तर्मुहूर्त जघन्यका । कायस्थितिर्वायूना, तं कायं त्वमुंचताम् ॥१२३॥ १ रहीरहीन वाय ते. २ वटोळीयो Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० जैन सिद्धांत पाठमाळा. अणन्तकालमुक्कासं, अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढम्मि सए काए, वाऊजीवाण अन्तरं ॥१२४॥ अनन्तकालमुत्कप्टं, अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम् । वित्यक्ते स्वके काये, वायुनीवानामन्तरम् ॥१२४॥ एएसिं वण्णो चेव, गन्धयो रसफासो। संठाणदेसश्रो वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥१२५॥ एतेषां वर्णतश्चैव, गन्धतो रसतःस्पर्शतः। संस्थानादेशतोवाऽपि, विधानानि सहस्रशः ॥१२॥ उराला तसा जे उ, चउहा ते पकित्तिया । बेइन्दिय-तेइन्दिय, चउरो पंचिन्दिया चेव ॥१२॥ उदारा: त्रसा ये तु, चतुर्विधास्ते प्रकीर्तिताः। द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाः, चतुरिन्द्रीयाः पञ्चेन्द्रियाचैव ॥१२६॥ बेइन्दिया उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिया। पजत्तमपजत्ता, तेसिं भेए सुणेह मे द्वीन्द्रियास्तु ये जीवाः, द्विविधास्ते प्रकीर्तिताः । पर्याप्ता अपर्याप्ताः, तेशं भेदाञ्च्छृणुत मे ॥१२७॥ किमिणो सेमिंगला चेव, अलसा माइबाहया । वासीमुहा य सिप्पिया, संख संखणगा तहा ॥१२॥ समयः सेोमंगलाश्चैव, अलसा मातृवाहकाः। वासीमुखाश्च शुक्तयः, शंखाः शंखनकास्तथा पल्लोयाणुल्लया चेव, तहेव य बराडगा। जलूगा जालगा चेव, चन्दणा य तहेच य पल्लका अनुपल्लकाश्चैव, तथैव च वराटकाः । जलुका जालकाश्चैव, चन्दनाश्च तथैव च ॥१२९॥ ॥१२७ ॥१२॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं ३६. ४०१ इइ बेइन्दिया एएऽणेगहा एवमायो । लोगेगदेसे ते सव्ने, न सन्चत्य वियाहिया ॥१३०॥ इति हीन्द्रिया एते, अनेकधा एवमादयः । लोकैकदेशे ते सर्वे, न सर्वत्र व्याख्याताः ॥१३०॥ संतई पप्पणाईया, अपजवसियावि य । ठिई पडुच्च साईया, सपञ्जवसियाविय ॥१३॥ संततिं प्राप्यानादिका:, अपर्यवसिता अपि च ।। स्थिति प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपि च ॥१३॥ वासाई वारसा चेव, उक्कोसेण वियाहिया । वेइन्दियाठिई, अन्तामुहत्तं जहानिया ॥१३२॥ वर्षाणि द्वादश चैव, उत्कर्षेण व्याख्याता । द्वीन्द्रियायुःस्थितिः, अन्तर्मुहूर्त जघन्यका संखिजकालमुक्कोस, अन्तोमुहुर्त जहन्नयं । बेइन्दियकाठिई, तं कायं तु अमुंचनो ॥१३॥ संख्येयकालमुत्कप्टा, अन्तर्मुहतं जघन्यका । हीन्द्रियकायस्थितिः, तं कायं त्वमुंचताम् ॥१३॥ अणन्तकालमुक्कोस, अन्तोमुहुतं जहन्नयं । बेइन्लियजीवाणं, अन्तरं च वियाहियं ॥३२॥ अनन्तकालमुत्कष्ट, अन्तर्मुहूत जघन्यकम् । हीन्द्रियजीवानां, अन्तरं च व्याख्यातम् एपसिं वणश्रो चेव, गन्धो रसफासो। संठाणदेसमो वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥२३॥ एतेषां वर्णतश्चैव, गन्धतो रसतः स्पर्शतः। संस्थानादेशतो वापि, विधानानि सहस्रशः ॥ १३६॥ * ॥१३४॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१३७१ ४०२ जैन सिद्धांत पाठमाला. तेइन्दिया उ जे जीवा, दुविहा ते प्रकित्तिया । पजत्तमपजत्ता, तेसि भेए सुणेह मे . ॥१३॥ त्रीन्द्रियास्तु ये जीवाः, द्विविधास्ते प्रकीर्तिताः ।। पर्याप्ता अपर्याप्ताः, तेषां भेदाच्छृणुत मे , १३६॥ कुन्थुपिवीलिउडूंसा, उक्कलुहिया तहा । तणहारकहहारा य, मालूगा पत्तहारगा कुन्युपिपील्युदंशाः, उत्कलिक्ता उपदेहिका स्तथा । तृणहारकाष्ठहाराः, मालूका: पत्रहारकाः ॥१३७॥ कपासहिम्मिजाया, तिदुगा तउसमिंजगा । सदावरी य गुम्मी य, बोधवा इन्दगाइया ॥१३॥ कर्पासास्थिमिञाश्च, तिन्दुकाःत्रपुषमिजकाः शतावरी च गुल्मी च, बोटव्या इन्द्रकायिकाः ॥१३८॥ इन्दगावगमाईया, णेगविहा एवमायनो।। लोगेगडेसे ते सव्वे, न सम्वत्थ वियाहिया ॥१३६॥ इन्द्रगोपकादिकाः, अनेकविधा एवमादिकाः । लोकैकदेशे ते सर्वे, न सर्वत्र व्याख्याताः संतई पप्पणाईया, अपजवसियावि य । ठिई पडुच्च साईया, सपज्जवसियावि य. ॥१४०॥ संतति प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च । स्थिति प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपि च ॥१४॥ एगूणपण्णहारत्ता, उक्कोसेण वियाहिया । तेइन्दियाठिई, अन्तोमुत्तं लहनिया , एकानपंचागदहोरात्राणां, उत्कर्षेण व्याख्याता । - त्रीन्द्रियायुःस्थितिः, अन्तर्मुहूर्त जघन्यका Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं श्रभ्ययनं ३६. खिजकालमुक्को, श्रन्तो मुद्दत्तं जहत्रयं । तेन्द्रियकायठि, तं कार्यं तु श्रमुचो संख्येयकालमुत्कृष्टा, अन्तर्मुहूर्त जघन्यका । " त्रीन्द्रियकायस्थितिः, तं कार्यं त्वमुंचताम् प्रणन्तकालमुक्की, श्रन्तमुतं जनयं । तेइन्द्रियजीवाणं, अंतरं तु वियाहिय अनन्तकालमुत्कृष्टं, अन्तर्मुहूर्त जवन्यकम् । त्रीन्द्रियजीवानां, अन्तरं तु व्याख्यातम् refi aorat चैव गन्धश्रो र सफास । संठाणदेश्रो वावि, विहाणाई सहस्ससी एतेषां वर्णतचैव गन्धतो रसतः स्पर्शतः । सख्यानादेशता वापि विधानानि सहस्रशः चाउरिन्दिया उ जे जोना, दुविहा ने पकित्तिया । पजत्तमुपजत्ता, तेसि भेए सुणेह मे चतुरिन्द्रियास्तु ये जीवाः, द्विविधास्ते प्रकीर्तिताः । पर्याप्ता अपर्याप्ताः, तेषां भेदाञ्च्छृणुत मे 7 f ४०३ 1 अन्धिया पोत्तिया चेव, मच्छिया मसगा तहा ! भमरे कीइपयंगे य, ढिकुणे कुंकणे तहा अधिकाः पौत्तिकाश्चैव, मक्षिका मशकास्तथा । भ्रमराः कीटपतंगाव, ढिकुणाः कुंकणास्तथा कुक्कुडे सिंगिरीडी य, दावत्ते य बिच्छु । डोले भिगीरीडीय, चिरली च्छिवेह कुक्कुटाः शृगरीटी च, नन्दावर्त्ताश्च वृश्विकाः । . डोला मुंगरीटकाश्य, चिरल्यो ऽक्षिवेधकाः 2 - ॥१४२॥ f = ॥ १४२ ॥ ॥१४३॥ ॥१४३॥ ॥ १४४॥ ॥ १४४ ॥ Bo ॥१४५॥ ॥ -॥१४६॥ ५८ ॥१४७॥ ॥१४७॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. अच्छिले माह श्रच्छि, रोडर विचित्ते चित्तपत्तए । उहिजलिया जलकारी य, नीयया तंवगाइया अक्षिला मागधा अक्षाः, रोडकाविचित्राश्चित्रपत्रकाः । • उपधिजलका जलकार्यश्व, नीचकास्ताम्रकादिकाः इय चउरिन्दिया एए, ऽणेगहा एवमायो । लोगस्स एगदेसंमि ते सव्वे परिकित्तिया इति चतुरिन्द्रिया एते, अनेकधा एवमादयः । लेकस्यैकदेशे, ते सर्वे परिकीर्तिताः संत पप्प पाईया, अपजवसिया वियं । ठिहं पड़च साईया, सपज्जवसिया विय संतति प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च । स्थिति प्रतीत्यसादिकाः, सपर्यवसिता अपि च इश्चैव य मासाऊ, उक्कोसेण वियाहिया । चउरिन्दियप्राउठिर्ड, अन्तोमुहुतं जहन्निया ॥ १५०॥ ४०४ L षट् चैव च मांसायुः, उत्कर्षेण व्याख्याता । चतुरिन्द्रियायुः स्थितिः, अन्तर्मुहूर्त जघन्यका संखिजकालमुक्कासं, प्रन्तोमुहुर्त जहन्नयं । aritraratर्याई, त कार्य तु श्रमुचो संख्येयकालमुत्कृष्टा, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका । चतुरिन्द्रियकायस्थितिः, तं कायं त्वमुंचताम् अन्तकालमुक्कासं, अन्तोमुहुतं जहन्नयं । विजढम्मि सए काए, अन्तरं च वियाहियं अनन्तकालमुत्कृष्टं श्रन्तमुहूर्तं जघन्यकम् । वित्यक्के स्वकेकाये, अन्तरं च व्याख्यातम् ॥१४८॥ ॥१४८॥ ॥१४६॥ ॥१४९॥ ॥१५॥ ॥१५९॥ ॥ १५१ ॥ ॥१५२॥ ॥१५२॥ ॥१५३॥ ॥१५३॥ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं ३६ ४ ०५ एएसि वरुणश्रो चेव, गन्धो रसफासो । संठाणदेसमो वावि, विहाणाई सहस्ससो एतेषां वर्णतश्चैव, गन्धतो रसतः स्पर्शतः । संस्थानादेशतो वापि, विधानानि सहस्रशः ॥१५४॥ पंचिन्दिया उ जे जीवा, चउविहा ते वियाहिया । नेरहया तिरिक्खा य, मणुया देवा य प्राहिया ॥१५॥ पंचेन्द्रियास्तु ये जीवाः, चतुर्विधास्ते व्याख्याताः । नैरयिकास्तियश्चश्व, मनुजा देवाश्याख्याताः ॥१५॥ नेपया सत्तविहा, पुढवीसु सत्तसु भवे । रयणामसकराभा, वालुयामा य ाहिया नेरयिका: सप्तविधाः, नरकप्टथ्वीषु सप्तसु भवेयुः । रत्नाभा शर्करामा, वालुकामा चाख्याता पंकामा धुमाभा, तमा तमतमा तहा । इइ नेरच्या एए, सत्तहा परिकित्तिया ॥१५७॥ पंकामा धूमामा, तमःप्रभा तमस्तमःप्रभा तथा । (तत्र) इति नैरयिका एते, सप्तधा परिकीर्तिताः ॥१५॥ लोगस्स पगदेसम्मि, ते सव्वे उ वियाहिया । एतो कालविभागं तु, तेसिं वोच्छं चउन्विह ॥१५॥ 'लोकस्यैकदेशे, ते सर्वे तु व्याख्याताः। इतः कालविभागं तु, तेषां वक्ष्ये चतुर्विधम् ॥१५॥ संतई पप्पणाईया, अपञ्जवसियावि य । ठिई पडुच साईया, सपञ्जवसियावि य संततिं प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च। . स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपि च ॥१५॥ १ अधो लोका. Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ॥१६॥ ॥१६॥ ४०६ जैन सिद्धांत पाठमाळा. सागरोवममेगं तु, उक्कासेणं वियाहिया । पढमाएं जहनेणं, दसवाससहस्सिया सागरोपममेकं तु, उत्कर्षेण व्याख्याता । प्रथमायां जघन्येन, दशवर्षसहस्रिका ॥१६०॥ तिण्णेव सागरी ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । दोचाए जहन्नेणं, एगं तु सागरोवर्म त्रीण्येव सागरोपमाणि तु, उत्कर्षेण व्याख्याता । 'द्वितीयायां जघन्येन, एकं तु सागरोपमम् ॥१६॥ सत्तेव सागरा ऊ, उक्कोसेण विवाहिया । तइयाए जहन्नेणं, तिण्णेव सागरोसा ... ॥१६॥ सप्तैव सागरोपमाणि तु, उत्कण व्याख्याता । तृतीयायां जघन्येन, त्रीण्येव सागरोपमाणि दस सागरोवमा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । , चउत्योए जहनेणं, सत्तेव सागरावसा . ॥१६॥ दशसागरोपमाणि,तु, उत्कर्षेण व्याख्याता। चतुर्थ्या जघन्येन, सप्तैव तु सागरोपमाणि सत्तरस सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । पंचमाए जहन्नेणं, दस चेव सागरोवमा ॥१६॥ सप्तदश सागरोपमाणि तु, उत्कर्षण व्याख्याता। पंचमायां जघन्येन, दश चैव . सागरोपमाणि ॥१६॥ बावीस सागरा ऊ, उक्कोसैण वियाहियो । छडीए जहन्त्रेणं, सतरंस सांगरेविमा ॥१६॥ हाविंशतिः सागरीपमाणि तुं, उत्कर्षेण व्याख्याती । पष्व्यां जघन्येन, सप्तदश सागरोपमाणि Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं प्रध्ययनं ३६. तेत्तीस सागरा ऊ उक्कोण वियाहिया । संतमाप जहनेणं, वाचसं सांगरीवमा त्रयस्त्रित्सागरोपमाणि तु, उत्कर्षेण व्याख्याता । सप्तम्यां जघन्येन, द्वाविंशतिः सागरोपमाणि जा चैव य उठिई, नेरइयाणं वियाहिया । सा तेसिं कायठिई, जहन्नुक्कोसिया भये या चैव चायुः स्थितिः, नैरयिकाणां व्याख्याता । सा तेषां कार्यस्थितिः, जघन्यकोत्कृप्टा भवेत् प्रणन्तकालमुक्फोर्स, अन्तोमुत्तं जहाय । fara ar are, नेरइयाणं तु अन्तरं अनन्तकालमुत्कृष्टं, अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम् । वित्यक्ते स्वकेकाग्रे, नैरयिकाणां त्वन्तरम् एएसिं वण्णय चेवं, गन्धो रसफासो । संठाणदेश्रो वात्रि, विहाणाई सहस्ससो gog ॥१६६॥ ॥ १६६॥ ॥१६७॥ ॥१६७॥ ॥१६८॥ , एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसतः स्पर्शतः । संस्थानादेशतो वापि, विधानानि सहस्रशः पंचिन्दियतिरिक्खाओ, दुर्दिहा ते वियाहिया । समुच्छिमतिरिक्खाओ, गन्भवक्कन्तिया तहो पंचेन्द्रियास्तिर्यञ्च द्विविधास्ते व्याख्याताः । संमूच्किमतिर्यञ्च गर्मव्युत्क्रान्तिकस्तथा दुबिहा ते भवे तिविहा, जलधरां थलचरा तहा । महरा य बोधव्वा, तेसिं भेट सुणेह मे द्विविधास्ते भवेयुंस्त्रिविधाः, जलचराः स्थलचरास्तथा । नमश्चंराश्च बोद्धव्याः, तेषां भेदान् शृणुत में " ॥१६८॥ ॥६६॥ ॥ १६९॥ l૨૭૦ * ॥१७॥ ॥९७६॥ ॥ १७९ ॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ जैन सिद्धांत पाठमाळा. मच्छा य कच्छमा य, गाहा यमगरा तहा। सुंसुमारा य बोधन्वा, पंचहा जलयराहिया ॥१७२॥ मत्स्याश्च कच्छपाश्च, ग्राहाश्च मकरास्तथा । शिशुमाराश्च बोहव्याः, पंचधा जलचरा आख्याताः ॥१७२॥ लोएगदेसे ते सव्वे, न सम्वत्थ वियाहिया । . एत्तो कालविभागं तु, तेसिं वोच्छं चउन्विहं ॥१७॥ लोकैकदेशे ते सर्वे, न सर्वत्र व्याख्याताः । इतः कालविभाग तु, तेषां वक्ष्ये चतुर्विधम् ॥१७॥ संतई पप्पणाईया, अपजवसिया वि य । ठिई पडुश्च साईया, सपजवसिया विय ॥१७॥ सन्तति प्राप्यानादिकाः अपर्यवसिता अपि च । स्थिति प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपि च ॥१७॥ एगा य पुवकोडी, उक्कोसेण वियाहिया। पाउठिई जलयराणं, अन्तोमुहत्तं जहनिया ॥१७५॥ एका च पूर्वकोटी, उत्कर्षेण व्याख्याता। आयुःस्थिति लचराणां, अन्तर्मुहर्त जघन्यका ॥१७॥ पुवकोडिपुहत्तं तु, उक्कोसेण वियाहिया । कायठिई जलयराणं, अन्तोमुहत्तं जहन्नयं ॥१७॥ पूर्वकोटीएथक्त्वं तु, उत्कर्षेण व्याख्याता । कायस्थितिलचराणां, अन्तमुहूर्त जघन्यका अणन्तकालमुक्कोस, अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । विजाम्म सए काए, जलयरायणं अन्तरं ॥१७७॥ अनन्तकालमुत्कृष्टं, अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम् । वित्यक्ते स्वकेकाये, जलचराणामन्तरम् . ॥१७७|| ॥१७६॥ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन ३. ४०६ चउप्पया य परिसप्पा, दुविहा थलयरा भवे । बउप्पया चउविहा, ते मे कित्तयनो सुण ॥१७॥ चतुःपदाश्च परिसर्पाः, द्विविधाः स्थलचरा भवेयुः।. चतुःपदाश्चतुर्विधाः, तान्मे कीर्तयतः शृणु ॥१७८॥ एगखुरा दुखुरा चेव, गण्डीपयसणहप्पया । हयमाइगोणमाइ, गयमाइसीहमाइणो ॥१७॥ एकखुरा विखुराश्चैव, गण्डीपदा: सनखपदाः । हयादयो गोणादयः, गनादयः सिहादयः ॥१७९॥ भुप्रोगपरिसप्पा य, परिसप्पा दुविहा भवे । गोहाई अहिमाई य, एक्केक्काणेगहा भवे ॥१०॥ भुजपरिसा उर:परिसाश्च, परिसपा (एवं) द्विविधा भवेयुः। गोधादयोऽह्यादयश्च, एकैका अनेकधा भवेयुः ॥१०॥ लोएगदेसे ते सव्वे, न सम्वत्थ वियाहिया । एत्तो कालविभागं तु, तेसि वोच्छं चउब्विहं ॥१८॥ लोकैकदेशे ते सर्वे, न सर्वत्र व्याख्याताः । इतः कालविभाग तु, तेषां वदये चतुर्विधम् ॥१८॥ “संतई पप्पणाईया, अपजवसियावि य । ठिई पडुश्च साईया, सपञ्जवसियावि य ॥१५॥ सन्तति प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च । स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपि च ॥१२॥ पालभोवमाई तिणि उ, उक्कोसेण वियाहिया । पाउठिई थलयराणं, अन्तोमुहुत्तं जहनिया ॥१३॥ पल्योपमानि त्रीणि तु, उत्कर्षण व्याख्याता । आयु:स्थितिः स्थलचराणां, अन्तर्मुहतं जघन्यका ॥१८॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० जैन सिद्धांत पाठमाळाः पुवकोडिपुहत्तेणं अन्तोमुहु जहन्निया । कायठिई थलयराणं, अन्तरं तेसिम भवे ॥१६॥ पुर्वकोटोप्टथक्वेन, अन्तर्मुहूत जघन्यका । कार्यस्थिति: स्थलचराणां, अन्तरं तेषामिदभवेत् ॥१८॥ कालमणन्तमुक्कोस, अन्तामुहुन्तं जहाभयं । विजेंढम्म सए काए, थलयराणं तु अन्तरं कालमनन्तमुल्लष्ट, अन्तमुहूर्त जघन्यकम् | . वित्यक्ते स्वके काये, स्थलचराणां त्वन्तरं ॥१८॥ चम्मे उ लोमपक्खी य, तइया समुरगपक्खिया । चियर्यपक्खी य बोधव्वा, पक्षिणी य चन्विहा ॥१६॥ चर्मपक्षिणस्तुरोमपक्षिणश्च, तृतीयभेदःसमुद्रगपक्षिणः । विततपक्षिणश्च बोद्धव्याः, पक्षिणश्च चतुर्विधाः ॥१६॥ लोगेगदेसे ते सव्वे, न सम्वत्थ वियाहिया । इत्तो कालविभागं तु, तेसिं बोच्छ चविहं ॥१७॥ लोकैकदेशे ते सर्वे, न सर्वत्र व्याख्याताः । इतः कालविभाग तु, तेषां वहये चतुर्विधम् १८७|| संतई पप्पणाईया, अपजवसियावि य ।। हिं पहुच साईया, सपञ्जवसियावि य ॥१८॥ सन्ततिं प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसितां अपि च । स्थिति प्रतीत्य सांदिकाः, संपर्यवसिता अपि च ॥१८॥ पलिनोवमस्स भागो, असंखेजामो भवे । पाउठिई खहयराणं, अंन्तोमुहुत्त जहनिया पल्योपमस्य भागः, असंख्येयतमो भवेत् । आयु:स्थितिः खेचराणा, अन्तर्महत धन्यको ॥६॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -tv -- - - - - - - - ... उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन ३६ ४११ असंखभाग पलियस्स, उक्कोसेण उ साहिया। पुर्वकोडीपुहत्तेणं, अन्तोमहत्तं जहनिया ॥१०॥ असंख्येयतमोभागः पल्योपमस्य, उत्कर्षण तु साधिका । पूर्वकोटिप्टथक्त्वेन, अन्तर्मुहूर्त जघन्यका ॥१९ ॥ कार्याठई खहयराणं, अन्तरं तेसिम भवे । अणन्तकालमुक्कोसं, अन्तोमुत्तं जहन्नयं ॥१६॥ कायस्थितिः खेचराणा, अन्तरं तेषामिदं भवेत् । अनन्तकालमुत्कृष्ट, अन्तमुहूर्त जघन्यकम् ॥१९१॥ एएसिं वण्णश्यो चेव, गन्धयो रसफासो। संठाणदेसयो वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥१९॥ ऐतेषावर्णतश्चैव, गन्धतो रमतः स्पर्शतः । संस्थानादेशतो वापि, विधानानि सहस्रशः ॥१९२॥ मणुया दुविहमेया उ, ते मे कित्तयो सुण । संमुच्छिमा य मणुया, गम्भवन्तिया तहा। १९३० मनुजा द्विविधभेदास्तु, तान्मे कीर्तयतः शृणु। समूच्छिमाश्च मनुजाः, गर्भव्युत्क्रान्तिकास्तथा ॥१९३॥ गम्भवुन्तिया जे उ, तिविहा ते वियाहिया ।। कम्मकम्मभूमा य, अंन्तरद्दीवया तही स्था गर्भव्युत्क्रान्तिका ये तु, त्रिविधास्ते व्याख्याताः । कर्मभूमाअकर्मभूमाश्च, अन्तरद्वीपकास्तथा ॥१९॥ पन्नरस तीसविहा, भैया अठवीसंई । संखां उ कमसा तेसि, इ पसा वियाहियों पंचदशविधास्त्रिशदविधा:, मेंदानामष्टाविंशतिः। संख्या तु क्रमशस्तैषा, इत्येषा व्याख्याता ॥१९॥ - - - - - - - - Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाउमाळा. समुच्छिनाण एसेव, मेश्रो होइ वियाहियो । लोगस्स एगदेसम्मि, ते सव्वे वि वियाहिया १६॥ संमृच्छिमाणामेष एव, भेदो भवति व्याख्यातः । लोकस्यैकदेशे, ते सर्वेऽपिव्याख्याताः - ॥१९६॥ संतई पप्पणाईया, अप्पजवसियावि य । ठिई पडुच साईया, सपजवसियावि य ॥१६॥ सन्तति प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च । स्थिति प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपि च ॥१९॥ पलिग्रोवमाउ तित्रिय, उक्कोसेण विश्राहिया । आउहिई मणुयाणं, अन्तोमुहुतं जहनिया ॥१८॥ पल्योपमानि तु त्रीणि च, उत्कर्षेण व्याख्याता । आयु:स्थितिर्मनुजानां, अन्तर्मुहूर्त जघन्यका ॥१९८॥ पलिप्रोवमाई तिणि उ, उक्कोसेण वियाहिया । पुन्बकोडिपुहत्तेणं, अन्तोमुहुत्तं जहनिया पल्योपमानि त्रीणि तु, उत्कर्षेण व्याख्याता । पूर्वकोटोटथक्त्वेन, अन्तर्मुहर्त जघन्यका ॥१९९॥ कायठिई मणुयाणं, अन्तरं तेसिमं भवे । अणन्तकालमुक्कोसं, अन्तोमुहुतं जहन्नयं ॥२०॥ कायस्थितिमनुजानां, अन्तरं तेषामिदं भवेत् । अनन्तकालमुत्कृष्टं, अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम् एएसिं वणश्रो चेव, गन्धो रसफासत्रो । संठाणदेसो पावि, विहाणाई सहस्ससो ॥२०१॥ एतेषां वर्णतश्चैव, गन्धतो रसतः स्पर्शतः । संस्थानादेशतो वापि, विधानानि सहस्रशः ॥२०१॥ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययनं ३६. ४१३ देवा चउबिहा वृत्ता, ते मे कित्तयो सुण । भोमिळवाणमन्तरजोइसवेमाणिया तहा ॥२०२१ देवाश्चतुर्विधा उक्ताः, तान्मे कीर्तयत:शृणु । भौमेया व्यन्तराः, ज्योतिष्कावैमानिकास्तथा ॥२०२ दसहा उ भवणवासी, अट्टहा वणचारिणो । पंचविहा जोइसिया, दुविहा वेमाणिया तहा ॥२०३ दशधा तु भवनवासिनः, अष्टया वनचारिणः । पंचविधा ज्योतिप्काः, द्विविधा वैमानिकास्तथा ॥२०॥ असुरा नागसुवण्णा, विजू अग्गी वियाहिया । दीवादहिदिसा वाया, थणिया भवणवासियो ॥२०४ असुरा नागाः सुवर्णा, विद्युतोऽग्नयोव्याख्याताः । द्वीपा उदधयोदिशो वायवः, स्तनिता भवनवासिनः ॥२०॥ पिसायभूया जक्खा य, रक्खसा किन्नरा किपुरिसा । महारगा य गन्धवा, प्रहविहा वाणमन्तरा ॥२०॥ पिशाचा भूता यक्षाच, राक्षसा: किन्नराः किंपुरुषाः । महोरगाश्च गन्धर्वाः, अष्टविधा व्यन्तरा ॥२०॥ चन्दा सूरा य नक्खत्ता, गहा तारागणा तहा। ठिया विचारिणो चेव, पंचहा जोइसालया ॥२०६॥ चन्द्रसूर्यौ च नक्षत्राणि, ग्रहास्तारागणाम्तया । स्थिरा विचारिणश्चैव, पंचधा ज्योतिरालया: ॥२०॥ वेमाणिया उ जे देवा, दुविहा ते वियाहिया ! कप्पोवगा य बोधवा कप्पाईया तहेव या २०७ वैमानिकास्तु ये देवाः, द्विविधास्ते व्याख्याताः कल्पोपगाश्च बोहल्याः, कल्पातीतास्तथैव च ॥२०७॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . meaninrama ॥२०॥ ॥२८॥ ર૦ણી ॥२०॥ ॥२१॥ जैत सिद्धांत पाठमाला. कप्पोवगा वारसहा, सोहम्मीसाणगा तहा। सणंकुमारमाहिन्दा, बम्भलोगा य लन्तगा कल्पोपगा द्वादशधा, सौधर्मेशानगास्तथा । सनत्कुमारा माहेन्द्राः, ब्रह्मलोकाश्च लान्तकाः महासुपका सहस्सारा, प्राणया पाणया तहा। धारणा अच्चुया चेव, इइ कप्पोवगा सुरा महाशुकाः सहस्राराः, आनताः प्राणतास्तथा। धारणा अच्युताश्चैव, इति कल्पोपगाः सुराः कप्पाईया उजे देवा, दुविहा ते वियाहिया । नोविजाणुतरा चेव, गोविजा नवविहा ताह कल्पातीतास्तु ये देवाः द्विविधास्ते व्याख्याताः । • अवेयका अनुत्तराश्चैव, देयका नवविधास्तत्र हेछिमाहेडिमा चेव, हेडिमामज्झिमा तहा । हेष्ठिमाउवरिमा चेव, मज्झिमाहेडिमा तहा अधस्तनाऽधस्तनाश्चैव, अधस्तनामध्यमास्तथा । • अधस्तनोपरितनाश्चैव, मध्यसाऽधस्तनास्तथा ममिमामज्मिमा चेव, मजिममाउवरिमा तहा । उवरिमाहेटिमा चेव, उवरिमामल्मिमा तहा मध्यममध्यमाश्चैव, मध्यमोपरितनास्तथा । उपरितनाऽधस्तनाश्चैव, उपरितनमध्यमास्तथा उरिमाउवरिमा चेव, इय गेविनगा सुरा । दिजया केजयन्ता य, जयन्ता अपराजिया उपरितनोपरितनाश्चैव, इतिवेयका:सुराः । विजया वैनयंताश्च; जयन्ता अपराजिताः ॥२०॥ ॥२१॥ રા JIR१२॥ ॥२३॥ |२१३॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययनं ३६. सव्वत्थसिद्धगा चव, पंचहाणुत्तरा सुरा । इय वैमाणिया एण्ऽग्रहा एवमायप्रो सर्वार्थसिद्धकाचैव, पंचधानुत्तराः सुराः । इति वैमानिका एते, अनेकधा एवमाद्रयः लोगस्स एगदेसस्मि ते सव्वेवि विग्राहिया | इत्तो कालविभागं तु, तेसि वुच्छं चउहिं लोकस्यैकदेशे, ते सर्वेऽपि व्याख्याताः । इतः कालविभागं तु, तेषां हृदये चतुर्विधम् संत पप्पणाईया, अपज्जर्वासवाचि य । ठि पहुच साईया, सपज्जवसियाचि य संतति प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च । स्थितिप्रतीत्यसादिकाः सपर्यवसिता अपि च , साहीयं सागरं एवं उक्कोसेण ठिर्ड भवे । भोमेजाणं जहणं, दसवाससहस्सिया साधिकं सागरमेकं, उत्कर्षेण स्थितिर्मवेत् । भौमेयानां जघन्येन, दशवर्षसहस्रिका पलिश्रोत्रममेगं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । वन्तराणं जहनेणं, दसवाससहस्सिया पल्योपममेकंतु, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । व्यन्तराणां जघन्येन, दशवर्षसहस्रिका पलिप्रोवममेगं तु, वासलक्खेण साहियं । पलिप्रोम भागो, जोइसेस जहनिया पल्योपममेकं तु, वर्षलनेण साधिकम् । पल्योपमम्याष्टमभागः, ज्योतिष्केषु जघन्यका E ॥२९४॥ ॥२२४॥ Ta ॥२१५॥ ॥२९६॥ ॥२२६॥ ॥२६७॥ ॥२१७॥ ॥२१८॥ ॥२१८॥ KETA ॥२१९ ॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रं श्रध्ययनं ३६ सत्तरस सागराई, उक्कोसेण ठिई भवे । महासुक्के जहन्त्रेणं, चोहस सागरावमा सप्तदश सागरोपमाणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । महाशुक्रे जघन्येन, चतुर्दश सागरोपमाणि अट्ठारस सागराई, उक्कोण oिf भवे । सहस्सारम्मि जहनेणं, सत्तरस सागरोवमा | अष्टादश सागरोपमाणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । सहस्रारे जघन्येन, सप्तदश सागरोपमाणि सागरा श्रउणवीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । प्राणयम्मि जहन्नेणं, अठ्ठारस सागरावमा सागरोपमाणां एकोनविशतिस्तु, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । आनते जघन्येन, अष्टादश सागरोपमाणि वीसं तु सागराई, उक्कोसेण ठिई भवे । पाणयग्णि जहनेणं, सागरा प्रउणवीसई विशतिस्तु सागरोपमाणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । - प्राणते' जघन्येन, सागरोपमाणां एकोनविशतिः सागरा इक्कीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । धारणम्मि जहन्त्रेणं, घीसई सागरोवमा सागरोपमाणां एकविंशतिस्तु, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । आरणे जघन्येन, विंशतिः सागरोपमाणि बावीसं सागराई, उक्कोसेण ठिई भवे । अच्चुयम्मि जहन्नेणं, सागरा इक्कवीसई द्वाविंशति. सागरोपमाणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । अच्युने जघन्येन, सागरोपमाणाम् एकविशतिः ४१७ કા ॥२२६॥ ॥२२७॥ ॥२२७॥ ॥२२५॥ ॥२२८॥ ॥२२६॥ ॥२२९॥ ॥२३०॥ ॥२३०॥ ॥२३१॥ ॥२३१॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ जैन सिद्धांत पाठमाळा. तेवीस सागराई, उक्कोसेण लिई भवे । पढमम्मि जहन्नेणं, बावीसं सागरोवमा ॥२३२॥ त्रयोविंशतिः सागरोपमाणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । प्रथमे (ग्रैवेयके) जघन्येन, द्वाविशतिः सागरोपमाणि ॥२३२|| चउवीस सागराई, उनकोसेण ठिई भवे । बिइयस्मि जहन्नणं, तेवीसं सागरावमा ॥२३३॥ चतुर्विशतिः सागरोपमाणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । . द्वितीये जघन्येन, त्रयोविशतिः सागरोपमाणि ॥२३३॥ पणवीस सागराई, उक्कोसेण लिई भवे । तइयम्मि जहन्नेणं, चउचीस सागरोवमा ॥२३४॥ पंचविंशतिः सागरोपमाणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । तृतीये जघन्येन, चतुर्विंशतिः'सागरोपमाणि ॥२३४॥ छवीस सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । चउत्थम्मि जहन्नेणं, सागरा पणुवीसई ॥२३५॥ पविशतिः सागरोपमाणि, उत्कर्षेण स्थितिभवेत् । चतुर्थे जघन्येन, सागरोपमाणां पञ्चविशतिः ॥२३॥ सागरा सत्तावीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे ।। पञ्चमम्सि जहन्नेणं, सागरा उ छवीसइ ॥२३६ सागरोपमाणां सप्तविशतिस्तु, उत्कर्षण स्थितिभवेत् । पञ्चमे जघन्येन, सागरोपमाणां तु षड्विंशतिः ॥२३॥ सागरा अहवीसंतु, उक्कोसेण ठिई भवे। छठम्मि जहन्नेणं, सागरा सत्तवीसई २३७॥ सागरोपमाणामष्टाविंशतिस्तु, उत्कर्षेण स्थितिभवेत् । षष्ठे जघन्येन, सागरोपमाणां, सप्तविशतिः ॥२३७॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रं श्रध्ययनं ३६ सागरा उणतीसं तु, उक्कोसेण ठिर्ड भवे । सत्तमम्मि जहनेणं, सागरा अवसई सागरोपमाणामेकोनत्रिंशत्तु, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । सप्तमे जघन्येन, सागरोपमाणामष्टाविशति. तीसं तु सागराई, उक्कोसेण ठिई भवे । अट्टमम्मि जहन्नेणं, सागरा प्रउणतीसई त्रिंशत्तु सागरोपमाणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । अष्टमे जघन्येन, सागरोपमाणामेकोनत्रिशत् सागरा इक्कतीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । नवमम्मि जहन्नणं, तीसई सागरोवमा सागरोपमाणामेकत्रिशत्तु, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । नवमे जघन्येन, त्रिशत्सागरोपमाणि तेत्तीसा सागराई, उक्कोसेण ठिई भवे । चउसुपि विजयाईसु, जहनेणेक्कत्तीसई त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । चतुर्ष्वपि विजयोदिषु, जघन्येनैकत्रिंशत् श्रजहन्नमणुक्कोसा, तेत्तीस सागरोवमा । महाविमाणे सव्वठ्ठे, ठिई एसा वियाहिया अजघन्यानुत्कृष्टा, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि । महाविमाने सर्वार्थे, स्थितिरेषा व्याख्याता जा चेव उ उठिई, देवाणं तु वियाहिया । सा तेसिं कायठर्ड, जहन्नमुषकोसिया भवे या चैव त्वायुःस्थितिः, देवानां तु व्याख्याता । सा तेषां कायस्थितिः, जघन्यकोत्कृष्टा भवेत् s ॥२३८५॥ ॥२३८॥ ॥२३६॥ ॥२३९॥ ॥२४०|| ॥२४० ॥ રષ્ટા ॥२४९॥ રા ॥२४२॥ 1128311 ॥२४३॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांत पाठमाळा. " प्रणन्तकालमुक्कोसं, अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढम्मि सए कार, देवाणं हुज अन्तरं अनन्तकालमुत्कृष्टं, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यकम् । वित्यक्ते स्वके काये, देवानां भूयादन्तरम् पपसिं वण्णश्रो चैव गन्धप्रो रसफासो । संठाणदेश्रो वावि, विहाणारं सहस्ससो एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसतः स्पर्शतः । संस्थानादेशतो वापि, विधानानि सहस्रशः संसारत्था य सिद्धा य इय जीवा वियाहिया । रूविणो चेवरूवी य, प्रजीवा दुविहावि य संसारस्थाश्व सिध्याश्व इति जीवा व्याख्याताः । रूपिणश्चैवारूपिणश्च, अजीवा द्विविधा अपि च ४२० : इय जीवमजीवे य, सोच्चा सद्दहिऊण य । सव्वनयाणमणुमय, रमेज संजमे मुणी 7 इति जीवानजीवाश्च श्रुत्वा श्रद्धाय च । 1. सर्वनयानामनुमते, रमेत संयमे मुनिः तो वहूणि वासाणि, सामण्णमणुपालय । इमेण कम्मजोगेण, अप्पाणं संलिहे मुणी ततो बहूनि वर्षाणि श्रामण्यमनुपालय । अनेन क्रमयोगेन आत्मानं संलिखेन्मुनिः बारसेव उ वासाई, संलेहुक्कोसिया भवे । संवच्छरमज्मिमिया, छम्मासा य जहनिया द्वादशैव तु वर्षाणि, संलेखनोत्कृष्टा भवेत् । संवत्सरं मध्यमा, षण्मासा च जघन्यका , 1 ॥२४४॥ ॥२४५॥ ॥२४५॥ ॥२४६ ॥ ॥२४६॥ ॥२४७॥ ॥२४७॥ ॥२४८॥ ॥२४८॥ રષ્ટી ॥२४९॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२१ - उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययनं ३६ पढमे वासचउक्कम्मि, विगई-निज्जूहणं करे । विईए वासचउक्कम्मि, विचित्तं तु तवं चरे २५०॥ प्रथमे वर्षचतुष्के, विकृति निर्यहणं कुर्यात् । द्वितीये वर्षचतुष्के, विचित्रं तु तपश्चरेत् ॥२५॥ एगन्तरमायाम, कट्ट संवच्छरे दुवे । तो संवच्छरद्धं तु, नाइविगिटुं तवं चरे ॥२५॥ एकान्तरमायाम, कृत्वा संवत्सरौ द्वौ। ततः संवत्सरार्घ तु, नातिविकृष्टं तपश्चरेत् तो संवच्छरद्धं तु, विगिळं तु तवं चरे । परिमियं चेव आयाम, तम्मि संवच्छरे करे આરપરા ततः संवरार्धं तु, विरुष्टं तु तपश्चरेत् । परिमितं चैवायाम, तस्मिन् संवत्सरे कुर्यात् २५२॥ कोडीसहियमायाम, कटु संवच्छरे मुणी । मासद्धमासिएण तु, अाहारेण तवं चरे कोटीसहितमायाम, कृत्वा (द्वादशे) संवत्सरे मुनिः । मासिकेनार्धमासिकेन तु, आहारेण तपश्चरेत् ॥२५३।। कन्दप्पमाभियोगं च, किदिवसिय मोहमासुरुतं च । एयाउ दुग्गईओ, मरणम्मि विराहिया होन्ति २५॥ कन्दर्पोऽभियोग्ये च, किल्विषिकं मोहासुरत्वे च । एता दुर्गतिहेतुकाः, मरणे विराधिका भवन्ति मिच्छादसणरत्ता, सनियाणा उ हिंसगा।। इय जे मरन्ति जीवा, तेसिं पुण दुलहा वोही ॥२५५॥ १ त्याग, २ कन्दर्पथी पासुर सुधीनी पांचे भावनायो जाणवी. ॥२५॥ ॥२५॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४२२ जैन सिद्धांत पाठमाळा. मिथ्यादर्शनरक्ताः, सनिदानाः खलु हिसकाः । इति ये नियन्ते जीवाः, तेषां पुनदुर्लभा बोधिः ॥२५॥ सम्मईसगरत्ता, अनियाणा सुक्कलेसमोगाढा । इय जे.मरन्ति जीवा, तेसिं सुलहा भवे वोही ॥२५॥ सम्यग्दर्शनरक्ताः, अनिदानाः शुक्ललेश्यामवगाढाः । ' इति ये नियन्ते जीवाः, तेषां सुलभा भवेद् बोधिः ॥२५६।। मिच्छादसणरत्ता, सनियाणा कण्हलेसमोगाढा । इय जे मरन्ति जीवा, तेसिं पुण दुल्लहा बोही ॥५७॥ मिथ्यादर्शनरक्ताः, सनिदानाः कृष्णलेश्यामवगाढाः । इति ये नियन्ते जीवाः, तेषां पुनर्दुलमा बोधि. ॥२५॥ जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणं जे करेन्ति भावेण । अमला असङ्किलिहा, ते होन्ति परित्तसंसारी ॥२५॥ जिनवचनेऽनुरक्ताः, जिनवचनं ये कुर्वन्ति भावेन । अमला असंक्लिष्टाः, ते भवन्ति 'परित्तसंसारिणः ॥२५॥ वालमरणाणि बहुसो, अकाममरणाणि चेव य बहूयाणि । मरिहन्ति ते वराया, जिणवयणं जे न जाणन्ति ॥२५॥ बालमरणानि बहुशः, अकाममरणानि चैव च बहुकानि । मरिष्यन्ति ते वराकाः जिनवचनं ये न जानन्ति ॥२५९॥ बहुअागमविन्नाणा, समाहिउप्पायगा य गुणगाही। एएणं कारणेणं, परिहा आलोयणं सोड ॥२०॥ बवागमविज्ञानाः, समाध्युत्पादकाश्च गुणग्राहिणः । एतेन कारणेन, अर्हा पालोचनां श्रोतुम् ॥२६०॥ १ भव्यपुरुषो. Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૩ - उत्तराध्ययन सूत्रं अध्ययन ३६. कन्दप्पकुकुयाई तह, सीलसहावहासविगहाई। विम्हावेन्तो य परं, कन्दप्पं भावणं कुणइ ॥१॥ 'कन्दर्पको स्कुच्ये तथा, शीलस्वभावहासविकथाभिः। विस्मापयन् च परं, कान्दी भावना कुरुते ॥२६॥ मन्ताजोगं कार्ड, भूईकम्मं च जे पउंजन्ति । साय-रस-इडिहेडं, अभियोगं भावणं कुणइ - ॥२२॥ मन्त्रयोगं कृत्वा, भूतिकर्म च यः प्रयुक्ते ।। सातरसद्धिहेतोः, (स.) आभियोगी भावनां कुरुते ॥२६॥ नाणस्स केवलीणं, धम्मायरियस्स संघसाहणं । माई अवण्णवाई, किधिसियं भावणं कुणइ ॥२६॥ ज्ञानस्य केवलिना, धर्माचार्यस्य संघसाधूनां । माय्यवर्णवादी, किल्विषिकी भावनां कुरुते ॥२६॥ अणुवद्धरोसपसरो, तह य निमित्तम्मि होइ पडिसेवी । एपहिं कारणेहिं, आसुरियं भावणं कुणइ ॥२६॥ अनुवद्धरोपप्रसरः, तथा च निमित्ते भवति प्रतिसेवी । । एताभ्यां कारणाम्याम् , आसुरिको भावनां कुरुते ॥२६॥ सत्यगहणं विसभक्खणं च, जलणं च जलपवेसो य । अणायारभण्डसेवी, जम्मणमरणाणि वंधन्ति ॥२६५॥ शस्त्रग्रहणं विषमक्षण च, ज्वलनं च जलप्रवेशश्च । अनाचारभाण्डसेवा, (एतानिकुर्वन्तो)जन्ममरणानि बध्नन्ति ।। १ वारंवार हसत्रु के कामक्यानो सलाप. २ बोजो हमे तेवा अभिनय. ३ फल विनानी प्रवृत्ति Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ जैन सिद्धांत पाठमाळा. इय पाउकरे बुद्ध, नायए परिनिए । छत्तीसं उत्तरज्माए, भवसिद्धीयसंमए इति प्रादुष्कृत्य बुध्धः, ज्ञातनः परिनिर्वृतः ।। पत्रिंशदुत्तराध्यायान् , भवसिध्धिकसमतान् । ॥२६६|| तिमि ॥ जीवाजीवविभत्ती समत्त ॥३६॥ ॥ इति ब्रवीमि ॥ जीवाजीवविमक्तिः समाप्ता ।। ॥ इति उत्तरज्झयणं-सुत्तं समत्तं ॥ ॥ इत्युत्तराध्ययनं सूत्रं समाप्त ।। ट श्री जशासह प्रिन्टोन प्रेत-वडी. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तामरस्तोत्रम् . (वसंततिलका वृत्तम् ) भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्रमाणा-सुद्योतकं दलितपापतमोवितानम् । सम्यक् प्रणम्य निनपादयुग युगादा-बालबनं भवनले पततां जनानाम् ॥१॥ यःसंस्तुतःसकलवाड्मयतत्वबोधा-दुद्भूतबुद्धिपटुभि:सुरलोकनाथैः । स्तोत्रै गत्रितयचित्तहरैदारैः, स्तोप्ये किलाहमपि तं प्रथम जिनेंद्रम् ।।२।। बुध्ध्या विनापि विबुधार्चितपादपीठ!, स्तोतुं समुद्यतमतिविंगतत्रपोऽहम् । बाल विहायजलसंस्थितमिदुविव-मन्यःक इच्छतिजनःसहसाग्रहीतुम् ॥३॥ वक्तुंगुणानुगुणसमुद्रौशशाककाता , कस्तेक्षमःसुरगुरुप्रतिमोऽपिबुध्ध्या । कल्पांतकालपवनोद्धतनकचक्र, को वा तरीतुमलमंबुनिधि भुजाभ्याम् ॥४॥ सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश, कर्तु स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः । प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्यमृगोमृगेंद्र, नाभ्येतिकिनिनशिशोःपरिपालनार्थम् ॥५॥ अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम, त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते वलान्मा । यत्कोकिलः किल मधी मधुरं विरौति, तचारुचाम्रकलिकानिकरकेहेतुः॥६॥ त्वसंम्तवेन भवसंततिसन्निबध्ध, पाप क्षणात् क्षयमुपैति गरीरभानाम् । आक्रांतलोकमलिनीलमशेषमाशु, सूर्याशुभिन्नमिवशावरमंधकारम् ॥७॥ मत्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेद-मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात् । चेतो हरिप्यति सतां नलिनीदलेषु, मुक्ताफलद्युतिमुपेति ननूदविदुः ॥८॥ आस्ता तव स्तवनमस्तसमन्तदोषं, त्वत्संकथापि जगतां दुरितानिहन्ति । दूरे सहस्रकिरणः कुल्ते प्रभेव, पद्माकरेषु जलजानि विकाशमांनि ॥९॥ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - संस्कृत स्तोत्र संग्रह नात्यद्भुतं भुवनभूषण भूतनाथ!, भूतगुणैर्भुवि भवंतमभिष्टुवंतः । तुल्या भवंति भवतो ननु तेन कि वा,भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति.१० दृष्ट्वा भवंतमनिमेषविलोकनीय, नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः । पीत्वापय:शशिकरधुतिदुग्धसिंधोः, क्षारंजलंजलनिधेरशितुं क इच्छेत् ॥११. यैः गांतरागरुचिमिः परमाणुभिस्त्वं, निर्मापितत्रिभुवनैकललामभूत!। तावंत एव खलु तेप्यणवः पृथिव्यां, यत्ते समानमपरं नहि रूपमस्ति ॥१२॥ वस्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेत्रहारि, नि:शेषनिर्जितजगजितयोपमानम् । विबं कलंकमलिनं क्व निशाकरस्य, यहासरे भवति पांडुपलाशकल्पम् ॥१३॥ संपूर्णमंडलशशांककलाकलाप!, शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयंति। ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वर नाथमेकं, कस्तान्निवारयति संचरतोयथेष्टम् ॥१४॥ चित्रं किमत्र यदिते त्रिदशांगनाभि-नीतं मनागपि मनो न विकारमार्गम् । कल्पांतकालमरुता चलिताचलेन, कि मंदरादिशिखरं चलितं कदाचित॥१५॥ निघूमवर्तिरपवर्जिततैलपूरः कृत्स्नं जगत्रयमिदं प्रकटीकरोषि । गम्योनजातुमरुतांचलिताचलानां, दीपोऽपरस्त्वमसिनाथ! जगत्प्रकाशः॥१६॥ नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपजगति । नामोधरोदरनिरुद्धमहाप्रभावः, सूर्यातिशायिमहिमासि मुनींद्र! लोके।।१७॥ नित्योदयं दलितमोहमहांधकार, गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम् । विभ्राजते तव मुखानमनल्पकांति, विद्योतयजगदपूर्वशशांकविवम् ॥१८|| कि शर्वरीषु शशिनाहि विवस्वता वा, युष्मन्मुखेंदुदलितेषु तमस्सु नाथ | निष्पन्नशालिवनशालिनि जोवलोके, कार्य कियजलधरैर्नलभारनम्रः ॥१९॥ ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कतावकाश, नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु । तेजःस्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं, नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि॥२०॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तामर स्तोत्रम् मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा 'दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति, किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः, कश्चिन्मनोहरति नाथ भवांतरेऽपि२१॥ स्त्रीणां शतानि शतशो जनयति पुत्रान्, नान्यासुतं त्वदुपमं जननी प्रसृते । सर्वादिशोदधतिभानिसहस्ररश्मि, प्राच्येवदिगजनयतिस्फुरदंशुजालम् ॥२२॥ स्वामामनंति मुनयः परमं पुमांस-मादित्यवर्णममलं तमसः पुरस्तात् । त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयंति मृत्यु; नान्यःशिव:शिवपदस्य मुनीद्री पंथाः२३।। त्वामव्ययं विभुमचित्यमसंख्यमाचं, ब्रह्माणमीश्वरमनंतमनंगकेतुम् | योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं, ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदंति संतः ॥२४॥ बुद्धस्त्वमेवविबुधार्चितबुद्धिबोधात् , त्वं शंकरोऽसिभुवनत्रयशंकरत्वात् । धातासिधीर:शिवमार्गविधेविधानात् ,व्यक्त त्वमेवभगवन् पुरुषोत्तमोऽसि२६॥ तुभ्यं नमस्त्रिभुवनातिहराय नाथ, तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय । तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिनभवोदधिशोषणाय ॥२६॥ को विस्मयोऽत्र यदिनाम गुणैरशेष-स्त्वंसंश्रितो निरवकाशतया मुनीश । दोषेरुपात्तविविधाश्रयजातगर्वैः, स्वप्नातरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि||२७|| उच्चैरशोकतस्संश्रितमुन्मयूख-माभाति रूपममलं भवतोनितांतम् । स्पष्टोल्लसत्किरणमस्ततमोवितान, विम्वं रवेरिव पयोधरपार्श्ववर्ति. ॥२८॥ सिहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे, विभ्राजते तव वपुःकनकावदातम् | विंबं वियद्विलसदशुलतावितानं, तुंगोदयाद्रिशिरसीव सहस्ररश्मेः ॥२९॥ कुंदावदातचलचामरचारुगोम, विभ्राजते तववपुः कलधौतकांतम् । उद्यच्छशांकशुचिनि:रवारिधार-मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौमम् ॥२०॥ छत्रत्रयं तव विभाति शशांककांत-मुच्चे:स्थित स्थगितभानुकरप्रतापम् । मुक्ताफलप्रकरजालविवृद्धशोभ-प्रख्यापयत्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥३१॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ संस्कृत स्तोत्र संग्रह गंभीरताररवपूरितदिग्विभाग-बैलोक्यलोकशुभसंगमभूतिदक्षः । सद्धर्मरानजयघोषणघोषकः सन् ,खे दुंदुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी॥३२॥ मंदारसुंदरनमेरुसुपारिजात-संतानकादिकुसुमोत्करवृष्टिरद्धा । गंधोदबिदुशुभमंदमरुत्प्रपाता, दिव्या दिवः पतति ते वचसां ततिर्वा॥३३॥ शुभ्रप्रभावलयमूरिविभा विभोस्ते, लोकत्रयद्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती। प्रोद्यदिवाकरनिरंतरमूरिसंख्या,दीप्तियत्यपिनिशामपिसोमसौम्याम्॥३४॥ स्वर्गापवर्गगममार्गविमार्गणेप्ट-सद्धर्मतत्त्वकथनैकपटुस्त्रिलोक्यां । दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसर्व-भाषास्वभावपरिणामगुणैः प्रयोज्य:॥३१॥ उन्निव्हेमनवपंकजपुंजकांती, पर्युल्लसन्नखमयूखशिखामिरामौ ।। पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र! धत्तः,पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयंति३६॥ इत्थं यथा तव विभूतिरमूजनेंद्र, धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य । यादवप्रभादिनन्तःप्रहतांधकारा, तादक्कुतोग्रगणस्यविकाशिनोपि॥३७॥ श्योत-मदाविलविलोलकपोलमूल-मत्तभ्रमभ्रमरनादविवृद्धकोपन् । ऐरावताभमिभमुद्धतमापतंतं, दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥३८॥ भिन्नेभकुंभगलदुज्ज्वलशोणिताक्त-मुक्ताफलप्रकरभूषितभूमिभागः । बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि, नाकामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते॥३९॥ कल्पांतकालपवनोंद्धतवह्निकल्पं, दावानलज्वलितमुज्ज्वलमुत्स्फुलिगम् । विश्च निघत्सुमिव सन्मुखमापतंत, त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम् ॥४०॥ रक्तक्षणं समदकोकिलकंठनील, क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतंतम् । आक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशंक-स्त्वन्नामनागदमनी हृदि यस्य पुंसः॥४१॥ वलगत्तरंगगजगणितभीमनाद-मानौ वलं वलवतामपि भूपतीना । उद्यदिवाकरमयूखशिखापविद्धं, त्वत्कीर्तनात्तम इवाशुभिनामुपैति. ॥४२॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत स्तोत्र संग्रह. मोहक्षयादनुभवन्नपि नाथ ! मत्यों, नूनं गुणान् गणयितुं न तव क्षमेत । कल्पांतवांतपयसः प्रकटोऽपि यस्मान्मीयेत केन जलधेर्ननुरत्नराशिः ॥४॥ अभ्युद्यतोऽस्मितवनाथ ! जडाशयोऽपि, कर्तुस्तवं लसदसंख्यगुणाकरस्य । बालेोऽपि किन निजबाहुयुगं वितत्य, विस्तीर्णतां कथयति स्वधियांऽबुराशेः ॥ ये योगिनामपि न यांति गुणास्तवेश, वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः । जाता तदेवमसमीक्षितकारितेयं, जल्पति वा निजगिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥ आस्तामचित्यमहिमा जिनसंस्तवस्ते, नामापि पाति भवतो भवतो जगति । तीव्रातपोपहतपांथजनान्निदाघे, प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ हृद्वर्तिनि त्वयि विभोशिथिलीभवंति, जंतोः क्षणेन निविडा अपिकर्मबंधाः । सद्यो भुजंगममया इव मध्यभाग - मभ्यागते वनशिखंडिन चंदनस्य ॥८॥ मुच्यंत एव मनुजाः सहसा जिनेंद्र, रौद्रैरुपद्रवशतैस्त्वयि वीक्षितेऽपि । गोस्वामिनि स्फुरिततेजसि दृष्टमात्रे, चोरैरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः ॥९॥ त्वं तारको जिन! कथं भविनां त एव, त्वामुद्वहंति हृदयेन यदुत्तरंतः । यद्वाहृतिस्तरति यज्जलमेषनून - मंतर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ||१०|| यस्मिन् हरप्रभृतयोऽपिहतप्रभावाः, सोऽपित्वया रतिपतिः क्षपितः क्षणेन । विध्यापिता हुतभुजः पयसाथ येन, पीतं न कि तदपि दुर्द्धरवाडवेन ॥११॥ स्वामिन्ननल्पगरिमाणमपि प्रपन्ना - स्त्वानंतवः कथमहो हृदये दधानाः । जन्मोदधि लघुतरंत्यतिलाघवेन, चिंत्यो न त महतां यदिवा प्रभावः | १२ | क्रोधस्त्वयायदिविभोप्रथमंनिरस्तो, ध्वस्तास्तदावतकथंकिलकर्मचौराः, प्लोषत्यमुत्रयदिवाशिशिराऽपिलोके, नीलद्रुमाणिविपिनानिनकि हिमानी||१३|| त्वां योगिनो जिन सदा परमात्मरूप - मन्वेषयति हृदयांबुजकोशदेशे । पूतस्य निर्मलरुचेर्यदि वा किमन्य- दक्षस्य संभवि पदं ननुकर्णिकायाः॥१४॥ ४३० Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्याणमंदिरस्तोत्रम् ४३१ ध्यानाज्जिनेश ! भवतो भविनः क्षणेन, देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति । तीव्रानलादुपलभावमपास्य लोके, चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः ||१५|| अतः सदैव जिन यस्य विभाव्यसे त्वं भव्यैः कथं तदपि नाशयसे शरीरं । एतत्स्वरूपमथ मध्यविवर्तिनो हि, यद्विग्रहं प्रशमयंति महानुभावाः ॥ १६ ॥ आत्मा मनीषिभिरयं त्वदभेदबुद्धया, ध्यातो जिनेंद्र भवतीह भवत्प्रभावः । पानीयमप्यमृतमित्यनुचित्यमानं, किं नाम नो विषविकार मपाकरोति ॥१७॥ त्वामेव बीततमसं परवादिनोऽपि, नूनं विभो ! हरिहरादिधिया प्रपन्नाः । कि काचकामलिभिरीश सितोऽपि शखो, नो गृह्यते विविधवर्णविपर्ययेण ॥ १८ ॥ धर्मोपदेशसमये सविधानुभावा - दास्तांजनो भवति ते तरुरप्यशोकः । अभ्युद्गते दिनपतौ समहीरुहोऽपि किं वा विबोधमुपयाति न जीवलोकः १९ ॥ चित्रं विभो कथमवाङ्मुखवृतमेव, विष्वक् पतत्यविरला सुरपुष्पवृष्टिः । त्वद्गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश, गच्छन्ति नूनमधएव हि बंधनानि ॥ २० ॥ स्थाने गभीर हृदयोदधिसंभवायाः पीयुषतां तव गिरः समुदीरयंति । पीत्वा यतः परमसंमदसंगभाजो, भव्या व्रजेति तरसाप्यजरामरत्वम् ॥२१॥ स्वामिन्! सुदूरमवनम्य समुत्पततो मन्ये वदंति शुचयः सुरचामरौवाः । येऽस्मै नतिं विदधते मुनिपुंगवाय, ते नूनमूर्ध्वगतयः खलु शुद्धभावाः ॥२२॥ श्यामं गभीरगिरमुज्ज्वलहेमरत्न - सिंहासनस्थमिह भव्य शिखंडिनस्त्वां । आलोकयंति रभसेन नदंतमुच्चै - श्रामीकराद्विशिरसीव नवांबुवाहम् ॥ २३ ॥ उद्गच्छता तव शितिद्युतिमंडलेन, लुप्तच्छदच्छविरशोकतर्बभूव । सान्निध्यतोऽपि यदिवा तव वीतराग!, नीरागतांव्रजतिकोनसचेतनोपि |२४| भोभोः प्रमादमवधूय भजध्वमेन - मागत्य निर्वृतिपुरीं प्रति सार्थवाहम् | एतन्निवेदयति देवजगत्रयाय, मन्ये नदन्नभिनमः सुर:- भिस्ते. |२५|| Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत स्तोत्र संग्रह. उद्योतितेषु भवता भुवनेषु नाथ, तारान्वितो विधुरयं विहताधिकारः। मुक्ताकलापकलितोच्छुसितातपत्र-व्याजाविधाधृततनुर्बुवमभ्युपेतः ॥२६॥ स्वेन प्रपूरितजगत्रयपिंडितेन, कांतिप्रतापयशसामिव संचयेन । माणिक्यहेमरजतप्रविनिर्मितेन, सालत्रयेण भगवन्नभितो विभासि ॥२७॥ दिव्यत्रजोजिननमन्त्रिदशाधिपाना--मुत्सृज्यरत्नरचितानपिमौलिबंधान् । पादौ अयंति भवतो यदिवा परत्र, त्वत्संगमे सुमनसो न रमंत एव।२८॥ त्वं नाथ जन्मनलधेविपराड्मुखोऽपि, यत्तारयस्यसुमतो निनष्टष्ठलग्नान् । युक्तंहि पार्थिवनिपस्य सतस्तथैव, चित्रं विभो यदसि कर्मविपाकशून्यः॥२९॥ विश्वेश्वरोऽपि जनपालक! दुर्गतस्त्वं, किवाक्षरप्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश ! । अज्ञानवत्यपि सदैव कथंचिदेव, ज्ञानत्वयि स्फुरति विश्वविकाशहेतु ॥३०॥ प्राग्भारसंभृतनभांसि रजांसि रोषा-दुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि । छायापि तैस्तव न नाहता हताशो, प्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा।।३१।। यदर्जदूनितधनौघमदभ्रभीम, भ्रश्यत्तडिन्मुसलमांसलघोरघारम् । दैत्येन मुक्तमथ दुस्तरवारि दवे, तेनैव तस्य जिन! दुस्तरवारिकृत्यम् ||३२|| ध्वस्तोवंकेशविकृताकृतिमयमुंड-प्रालंबभृद्भयदवऋविनियंदग्निः । प्रेतवजःप्रतिभवंतमपीरितो यः, सोऽस्याऽभवत्प्रतिभवो भवदुःखहेतुः।॥३३॥ धन्यास्तएव भूवनाधिपः ये त्रिसंध्य-माराधयंति विधिवद्विधुतान्यकृत्याः । भक्त्योल्लसत्पुलकपक्ष्मलदेहदेशाः, पादद्वयं तव विभो! भुवि जन्मभान||३४|| अस्मिन्नपारभववारिनिघौ मुनीश, मन्ये न मे श्रवणगोचरतां गतोऽसि । आकर्णिते तु तव गोत्रपवित्रमंत्रे, कि वा विपद्विषधरी सविधं समेति ॥३५॥ जन्मांतरेऽपि तव पादयुग न देव!, मन्ये मया महितमीहितदानदक्षम् । तेनेह जन्मनि मुनीश! पराभवानां, जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम् ॥३६॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ स्तोत्रम् नूनं न मोहतिभिरावृतलोचनेन, पूर्वं विभो सकृदपि प्रविलोकितोऽसि । मर्माविधो विधुरयति हि मामनर्थाः, प्रोद्यत्प्रबंधगतयः कथमन्यथैते ॥३७॥ आकर्णितोऽपि महितोऽपिनिरीक्षितोऽपि, नूनंनचेतसिमया विधृतोऽसि भक्त्या । जातोऽस्मि तेनजनबांधव! दुःखपात्रं, यम्मात्क्रियाः प्रतिफलति न भावशून्या ॥ त्वं नाथ! दुःखिजनवत्सल! हे शरण्य, कारुण्यपुण्यवसते! वशिनां वरेण्य ! | भक्त्यानतेमयिमहेश!दयांविधाय, दुःखांकुरोद्दलनतत्परतां विधेहि ॥३९॥ निःसंख्यसारगरणं शरणं शरण्य - मासाद्य सादितरिपुप्रधितावदातम् । त्वत्पादपंकजमपि प्रणिधानवंध्यों, वध्योऽस्मिचेद भुवनपावन ! हाहतो ऽस्मि ॥ ४० ॥ देवेंद्रवद्य! विदिताखिलवस्तुसार!, संसारतारक विभो भुवनाधिनाथ । त्रायस्व देव करुणाह्रद! मां पुनोहि, सीदंतमद्य भयढव्यसनांबुरागे. ॥ ४१ ॥ यद्यस्ति नाथ भवदंघ्रिसरोरुहाणां, भक्तेः फलं किमपि मंततसंचिताया. तन्मेत्वदेकशरणस्य शरण्य! भूयाः, स्वामीत्वमेव भुवनेऽत्र भवांतरे ऽपि ॥ ४२ ॥ इत्थं समाहितधियो विधिवज्जिनेंद्र, सांद्रोडसत्पुलककंचुकितांगभागाः । त्वद्विम्यनिर्मल मुखांबुजवडलक्ष्या, ये संस्तवं तव विभो ! रचयंति भव्याः ॥ ४३ ॥ श्रार्या - जननयनकुमुदचंद्र - प्रभास्वरा स्वर्गसंपदो भुक्त्वा | ते विगलितमलनिचया, अचिरान्मोक्षं प्रपद्यते. • " श्रीचिन्तामणि पार्श्वनाथ स्तोत्रं " ॥ शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ॥ किं कर्पूरमयं सुधारसमयं किं चन्द्ररोचिर्मयं । किं लावण्यमयं महामणिमयं कारुण्यकेलिमयम् ॥ विश्वानन्दमयं महोदयमयं शोभामयं चिन्मयं । शुक्लध्यानमयं वपुर्जिनपतेर्भूयाद्भवालम्बनम् ॥१॥ ४३३ ॥ ४४ ॥ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अचिन्तामा पलानि नाव विमाप ४३४ संस्कृत स्तोत्र संग्रह. पातालं कलयन् धरां धवलयन्नाकाशमापूरयन् । दिक्चक्रं क्रमयन् सुरासुरनरश्रेणि च विस्मापयन् ॥ ब्रह्माण्डं सुखयन् जलानि जलधेः फेनच्छलालोलयन् । श्रीचिन्तामणिपार्श्वसंभवयशोहंसश्चिरं राजते ॥२॥ पुण्यानां विपणिस्तमोदिनमणिः कामेमकुम्भे सृणिमोक्षे निस्सरणिः सुरेन्द्रकरिणी ज्योति प्रकाशारणिः ॥ दाने देवमणि तोत्तमजनश्रेणिः कृपासारिणी । विश्वानन्दसुधाघृणिर्भवभिदे श्रीपार्श्वचिन्तामणिः ॥३॥ श्रीचिन्तामणिपार्श्वविश्वजनतासञ्जीवनस्त्वं मया । दृष्टस्तात! ततः श्रियः समभवन्नाशक्रमाचक्रिणम् ॥ मुक्तिः क्रीडति हस्तयोर्बहुविधं सिद्ध मनोवाञ्छितं । दुर्दैवं दुरितं च दुर्दिनभयं कष्टं प्रणष्टं मम ॥४॥ यस्य प्रौढतमप्रतापतपनः प्रोद्दामधामा जगजङ्घाल: कलिकालकेलिदलनो मोहान्धविध्वंसकः नित्योद्योतपदं समस्तकमलाकेलिगृहं राजते । स श्रीपार्श्वनिनो जने हितकरश्चिन्तामणिः पातु माम् ॥५॥ विश्वव्यापितमो हिनस्ति तरणिर्वालोपि कल्पांकुरो। दारिद्राणि गजावली हरिशिशुः काष्ठानि वढेः कणः ॥ पीयूषस्य लवोऽपि रोगनिवहं यहत्तथा ते विमों । मतिः स्फूर्तिमतो सती त्रिजगतीकष्टानि हर्तु क्षमा ॥६॥ श्रीचिन्तामणिमन्त्रमोहतियुतं ह्रीकारसाराग्नितं । श्रीमहन्नमिऊणपाशकलितं त्रैलोक्यवश्यावहम् ।। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीचिन्तामणि पार्श्वनाथ स्तोत्रम् द्वेषाभूतविषापहं विषहरं श्रेय:प्रभावाश्रयं । सोल्लासं वसहाङ्कितं जिनफुल्लिङ्गा-नन्ददं देहिनाम् ॥ ७ ॥ द्वीश्रीकारवरं नमोक्षरपरं ध्यायन्ति ये योगिनोहृत्पद्म विनिवेश्य पाश्चमधिपं चिन्तामणिसंज्ञकम् ॥ भाले वामभुजे च नाभिकरयोभूयो भुजे दक्षिणे । पश्चादष्टदलेषु ते शिवपद द्विवैर्यान्त्यहो ॥८॥ स्रग्धरा:-नो रोगा नैव शोका न कलहकलना नारिमारिप्रचारा नैवाधिर्नासमाधिनच दरदुरिते दुष्टदारिद्रता नो ॥ नो शाकिन्यो ग्रहा नो न हरिकरिगणा व्यालवैतालजाला जायन्ते पाश्चचिन्तामणिनतिवशतःप्राणिनां भक्तिभानाम् ॥९॥ शार्दूल-गीर्वाणद्रुमधेनुकुम्भमणयस्तस्याङ्गणे रङ्गिणो देवा दानवमानवाः सविनयं तस्मै हितध्यायिनः ।। लक्ष्मोस्तस्य वशाऽवशेव गुणिनां ब्रह्माण्डसंस्थायिनी । श्रीचिन्तामणिपार्श्वनाथमनिशं संस्तौति यो ध्यायति ॥१०॥ मालिनो:-इति जिनपतिपार्श्वः पार्श्वपाख्यियक्षः प्रदलितदुरितौषः प्रीणितप्राणिसार्थः । त्रिभुवनजनवाञ्छादानचिन्तामणिकः । शिवपदतरुवीनं बोधिवीनं ददातु ॥११॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મં संस्कृत स्तोत्र संग्रह • || श्री अमितगतिसूरिविरचित प्राथर्ना पश्चविंशतिः || ॥ उपजातिवृत्तम् ॥ सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोद, क्लिप्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरोतवृत्तौं, सदा ममात्मा विदधातु देव ! शरीरतः कर्तुमनन्तशक्ति, विभिन्नमात्मानमपास्तदोषम् । जिनेन्द्र! कोषादिव खड़यष्टिं, तब प्रसादेन ममास्तु शक्तिः दुःखे सुखे वैरिणि बन्धुवर्गे, योगे वियोगे भवने वने वा | निराकृताऽशेष ममत्ववुः, समं मनो मेऽस्तु सदापि नाथ ! यः स्मर्यते सर्वमुनीन्द्रवृन्दैः, यः स्तूयते सर्वनर मरेन्द्रैः । यो गीयते वेदपुराणशास्त्रैः, स देवदेवो हृदये ममास्ताम् यो दर्शनज्ञानसुखस्वभावः, समस्तसंसारविकारवाह्यः । समाधिगम्यः परमात्मसंज्ञः, स देवदेवेा हृदये ममास्ताम् निषूदते यो भवदुःखजालम्, निरीक्षते यो जगदन्तरालम् | योऽन्तर्गतो योगिनिरीक्षणीयः, स देवदेवो हृदये ममास्ताम् विमुक्तिमार्गप्रतिपादकोयो, यो जन्ममृत्युव्यसनाद्व्यतीतः । त्रिलोकलोकी विकलोऽकलङ्कः, स देवदेवेा हृदये ममास्ताम् कोडीकृताशेषशरीरिवर्गाः, रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः । निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपायः, स देवदेवे । हृदये ममास्ताम् यो व्यापको विश्वजनीनवृत्तिः सिद्धो विबुद्धो धुतकर्मबन्धः । ध्याता धुनीते सकल विकारं स देवदेवो हृदये ममास्ताम् न स्पृश्यते कर्मकलङ्कदोषैः, यो ध्वान्तसंघैरिव तिग्मरश्मिः । निरञ्जनं नित्यमनेकमेकं तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥६॥ 11511 ॥ १० ॥ " ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ 11811 11911 1111 ॥९॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्थना पञ्चविंशतिः २३७ विभासते यत्र मरीचिमालि, न्यविद्यमाने भुवनावमासि । स्वात्मस्थितं बोधमयप्रकाश, तं देवमाप्तंशरणं प्रपद्ये विलोक्यमाने सति यत्र विश्वं, विलोक्यते स्पष्टमिदं विविक्तम् । शुध्धं शिवं शान्तमनाद्यनन्तं, तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥१२॥ येन क्षता मन्मथमानमूर्छा-विषादनिद्राभयशोकचिन्ताः। क्षय्योऽनलेनेव तस्प्रपञ्च-स्तंदेवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥१३॥ प्रतिक्रमण-[प्रभु समीपेस्वात्मचितनं.] विनिन्दनालोचनगर्हणैरह, मनोवाकायकषानिर्मितम् । निहन्मि पापं भवदुःखकारण, मिषग्विषं मन्त्रगुणैरिवाखिलम् ॥१४॥ अतिक्रमं यं विमतेव्यतिक्रम, जिनाऽतिचार सुचरित्रकर्मणः । व्यधामनाचारमपि प्रमादतः, प्रतिक्रम तस्य करोमि शुद्धये ॥१९॥ न संस्तरोऽश्मा न तृण न मेदिनी, विधानतो नो फलको विनिर्मितः । यतो निरस्ताक्षकषायविद्विषः, सुधीमिरात्मैव सुनिर्मलो मतः ॥१६॥ न संस्तरो भद्र! समाधिसाधनं, न लोकपूजा न च संघमेलनम् । यतस्ततोऽध्यात्मरतोभवाऽनिश, विमुच्य सर्वामपिवाह्यवासनाम् ॥१७॥ न सन्ति बाह्या मम केचनार्थाः, भवामि तेषां न कदाचनाहम्। इत्थं विनिश्चित्य विमुच्य बाह्यं, स्वस्थः सदा व भव भद्रा मुक्तये ॥१८॥ आत्मानमात्मन्यविलोक्यमान-स्त्वं दर्शनज्ञानमयो विशुद्धः, एकाग्रचित्तः खलु यत्र तत्र, स्थितोपि साधुलभते समाधिम् ॥१९॥ एका सदा शावतिको ममात्मा, विनिर्मल: साधिगमस्वमावः, बहिर्मवाः सन्त्यपरे समस्ताः, न शाश्वताः कर्मभवाः स्वकीयाः ॥२०॥ यस्यास्ति नेक्यं वपुषापि सार्ध, तस्यास्ति किं पुत्रकलत्रमित्रा, पृथकृते चर्मणि रोमकूपाः, कुतो हि तिष्ठन्ति शरीरमध्ये ॥२१॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२२॥ ४३८ संस्कृत स्तोत्र संग्रह. संयोगतो दुःखमनेकभेद, यतोऽश्नुते जन्म वनेशरोरी, ततस्विधासौ परिवर्ननीयो, यियासुना निर्वृतिमात्मनीनाम् सर्व निराकृत्य विकल्पनाले, संसारकान्तारनिपातहेतुम् , विविक्तमात्मानमवेदयमाणों, निलीयसे त्वं परमात्मतत्त्वे स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् , परेण दत्तं यदि लम्यते स्फुटं, स्वयंकृतं कर्म निरर्थकं तदा विमुक्तिमार्गप्रतिकूलवर्तिना, मया कषायाक्षवशेन दुधिया, चारित्रशुद्धर्यदकारि लोपनं, तदस्तु मिथ्या मम दुष्कृतं प्रभो! ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥ श्री रत्नाकरपञ्चविंशतिः ॥ उपजाति वृत्तम् arcom श्रेय:श्रियां मंगलकेलिसद्मा, नरेंद्रदेवेंद्रनतांघ्रिपद्म! ॥ सर्वज्ञ! सर्वातिशयप्रधान!, चिरंजयज्ञानकलानिधान ! जगत्रयाधार! कृपावतार!, दुर्वारसंसारविकारवैद्य! ।। श्रीवीतरागा त्वयिंमुग्धभावा-द्विज्ञप्रमोविज्ञपयामिकिचित् ॥२॥ किं वाललीलाकलितो न वालः, पित्रो:पुरो जल्पति निर्विकल्पः ॥ तथा यथार्थ कथयामि नाथ !, निजाशयं सानुशयस्तवाग्रे ॥३॥ दत्तं न दानं परिशीलितं च, न शालि शीलं न तपोऽभितप्तम् ॥ शुभोनभावोऽप्यभवभवेऽस्मिन् , विभो मया भ्रांतमहो मुधेव ॥४॥ दाधोऽग्निना क्रोधमयेन दप्टो, दुष्टेन लोभाख्यमहोरगेण || ग्रस्तोऽभिमानानगरेण माया-जालेन बद्धोऽस्मि कथं भजे त्वां ॥५॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुच्छिस्सु सं. ॥ उपजातिवृत्तम् ॥ पुच्चिस्तु णं समणा माहणा य, अगारिणो या परतित्थिद्या य । से के गतहियं धम्ममाहु, प्रणेलिसं साहु समक्खयाए ॥ १ ॥ । ॥ ६ ॥ कहं च गाणं कह दंसणं से, सीलं कहं नायसुतस्स श्रासी ? जाणासि णं भिक्खु जहातहेणं, ग्रहासुतं बूहि जहा णिसंतं ॥ २ ॥ खेयन्नए से कुसलानुपन्ने (०ले महेसी), अणंतनाणी य अनंतदसी । जसंसिणो चक्खुप ठियस्स, जाणाहि धम्मं च धिरं च पेहि ॥ ३ ॥ उड्ड हेयं तिरियं दिसालु, तसा य जे थावर जे य पाणा । fafe समिख पन्ने, दीवे व धम्मं समियं उदाहु ॥ ४ ॥ से सव्वसी अभिभूयनाणी, णिरामगंधे धिइसे ठियप्पा | अणुत्तरे सव्वजगंसि विज्जं, गंथा प्रतीते श्रभए प्रणाऊ से भूपपणे प्रणिमचारी, श्रोतरे धीरे अणतचक्खू । प्रणुत्तरं तप्पति सूरिए वा, वहरोयणिंदे व तमं पगासे प्रणुत्तरं धम्ममिण जिणाणं, णेया मुणी कासव प्रापन्ने । इंदेव देवाण महाणुभाने, सहस्सणेता दिवि णं विसिडे से पाया क्यसागरे वा, महोदही वावि प्रणाले वा असा सुक्के, सक्केच देवाहिवई जुईम से वीरिणं पडिपुन्नवीरिए, सुदंसणे वा जगसब्बसेडे । सुरालए वासिमुदागरे से, चिराय णेगगुणांचवेए सयं सहस्साण उ जोयणाणं, तिकंडने पंडगवेजयंते । से जोयणे णत्रणवते सहत्त्से, उद्धत्सितो हे सहरसमेग घुट्टे णभे चिट्ठा भूमिचट्टिए, जं सूरिया अणुपरिवति । से हमने वहुतणे य, जसि रतिं वेदवती महिंदा से एचए सहमहम्यगासे, विरायति चणमवन्ते । || 9 || तपारे । ॥ १० ॥ ॥ ५ ॥ ॥ ५ ॥ ॥ ६॥ 11 22 11 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत स्तोत्र संग्रह. ॥ १३ ॥ ॥ १४ ॥ ॥ १५ ॥ ॥ १७ ॥ अणुत्तरे गिरिसु य पव्वदुगे, गिरिवरे से जलिएव भोमे मही मज्मंमि ठिते णगिंदे, पन्नायते सूरियसुद्धले से । एवं सिरीप उस भूरिवन्ने, मणोरमे जोयह चिमाली सुदंसणस्सेव जसो गिरिस्स, पचई महतो पव्वयस्स । तोवमे समणे नायपुत्ते, जातीजसोदंसणनाणसीले गिरिवरे वा निसहाऽऽययाणं, रुयप व सेट्टे चलयायताणं । तवमे से जगभूइपन्ने, मुणीण मज्मे तमुदाहु पन्ने अणुत्तरं धम्ममुईरदत्ता, अणुत्तरं भाणवरं कियाइ | सुसुक्कसुकं थपगंडकं संखिदुपगतवदात सुकं अणुत्तरगं परमं महेसी, प्रसेसकम्मं स विसोहत्ता | सिद्धिं गते साइमणतपत्ते, नाणेण सीलेण य दंसणेण रुक्खे जाते जह सामली वा, जंसि रतिं देययती सुवन्ना । वणेसु वा णंदणमाह सेहूं, नाणेण सीलेन य भूइपने थणियं व सहाण प्रणुत्तरे उ, चंदो व ताराण महाणुभाचे । वा चंदणमा सेहूं, एवं सुणीणं श्रपनिहु जहा सयंभू उदहीण सेट्ठे, नागेसु वा धरणिमा सेट्टे । खोप्रो वा रस वैजयंते, तोवहाणे मुणिवेजयंते हत्थी एरावणमा णाए, सीहो सिगाणं सलिलाण गंगा । पक्खीसु वा गरुले वेणुदेवो, निव्वाणवादीणिह णायपुत्ते जोहेसु णाए जह बीससेणे, पुष्फेटु वा जह अरदगा । खत्तीण सेट्टे जह दंतचके, इसीण सेट्टे वह चद्रमाणे दाणाण से अभयप्पयाणं, सच्चेसु वा अणवतं वयंति । तवे चा उत्तम भचेरं, लोगुत्तमे समणे नायपुत्ते ठिण सेट्ठा लवसत्तमा वा सभा सुहम्मा व सभाण सेट्ठा । निव्वाणसेट्ठा जह सव्वधम्मा, ण णायता परमत्थ नाणी ॥ २४ ॥ ॥ १८ ॥ ॥ १६ ॥ ॥ ॥ ॥ २१ ॥ ॥ २२ ॥ ॥ २३ ॥ 8 ॥ १२ ॥ ॥ १६ ॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुच्छिस्तुणं. पुढोवमे धुणइ विगवगेही, न सणिहिं कुम्वति आसुपन्ने । तरिउं समुदं व महाभवोघं, अभयंकरे वीर अणंतचक्खू ॥२५॥ कोहं च माणं च तहेव माय, लोभं चउथं अज्झत्थदोसा। एप्राणि वेता अरहा महेसी, ण फुन्बई पाव ण कारवेइ ॥२६॥ किरियाकिरियं वेणइयाणुवाय, अण्णाणियाणं पडियच्च ठाणं । से सन्चवायं इति वेयश्त्ता, उपट्टिए संजमदीहरायं ॥२७॥ से पारिया इत्थी सराइभत्तं, उवहाणवं दुक्खखयट्टयाए । लोग विदित्ता प्रारं परं च, सव्वं पभू वारिय सन्च वारं ॥२८॥ सांचा य धम्मं अरहतभासिय, समाहित अपदोवसुद्ध । तं सदहाणा य जणा अणाऊ, इंदा व देवा हिव श्रागमिस्सति ॥२६॥ ॥ श्री तत्त्वार्थसूत्रम् ॥ सम्यग्दर्शनानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥१॥ तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥२॥ तनिसर्गादधिगमाद्वा ॥३॥ जीवाजीवास्रववंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् । नामस्थापनाद्रध्यभावतस्तन्यासः ॥५॥ प्रमाणनयैरधिगमः ॥an निर्देशत्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ॥७॥ सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालांतरभावाल्पवहुत्वैश्च ॥८॥ मतिश्रुतावधिमनः पर्यायकेवलानि ज्ञानम् ॥६॥ तत्प्रमाणे ॥१०॥ श्राद्ये परोक्षम् ॥११॥ प्रत्यक्षमन्यत् ॥१२|| मतिः स्मृति: संज्ञा चिताऽभिनिवोध इत्यनर्थातरम् ॥१३॥ तदिद्रियानिद्रियनिमित्तम् ॥१४॥ अवग्रहहाऽपायधारणाः ॥१५॥ वहुबहुविधतिमानिश्रिता संदिग्धध्रुवाणां सेतराणाम् ॥१६॥ अर्थस्या॥१७॥ व्यंजनस्याऽवग्रहः ॥१८॥ न चक्षुरनिद्रियाभ्याम् ॥१६॥ श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादशभेदम् ॥२०॥ द्विविधोऽवधिः ॥२१॥ तत्र भवप्रत्ययो नारक Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફ્ श्री तत्त्वार्थसूत्रम् देवानाम् ||२२|| यथोक्तनिमित्तः षड़विकल्पः शेषाणाम् ||२३|| ऋजुविपुलमती मनः पर्यायः ||२४|| विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ||२५|| विशुद्विक्षेत्र स्वामिविषयेभ्योऽवधिमनः पर्याययोः ॥२६॥ मतिश्रुतयोर्निबधः सर्वद्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु ||२७|| रूपिष्ववधेः ॥२८॥ तदनंतभागे मन: पर्यायस्य ||२६|| सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ||३०|| एकादीनि भाज्यानियुगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः ॥३१॥ मतिश्रुतावधयो ( मतिश्रुतविभंगा ) विपर्ययश्च ॥ ३२ ॥ सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥३३॥ नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दां नयाः ||३४|| आद्यशब्दौ द्वित्रिभेदौ ॥३५॥ ' । इति प्रथमोऽध्यायः । ॥ अथ द्वितीयोऽध्यायः ॥ sava fearful भावौ मिश्रच जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ॥१॥ द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् ॥२॥ सम्यत्वचारित्रे ||३|| ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥४॥ ज्ञानाज्ञानदर्शनदानादिलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपंचभेदाः (यथाक्रमं ) सम्यक्त्व चारित्र - संयमाऽसंयमाच ॥५॥ गतिकषायलिग मिथ्यादर्शनाऽज्ञानासंयताऽसिद्धत्वलेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्येकैकैकैकषड्भेदाः ॥६॥ जीवभव्याभव्यत्वादीनि च ॥७॥ उपयोगो लक्षणम् ॥ ॥ स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ॥ ॥ संसारिणी मुक्ताश्च ॥ १०॥ समनस्का प्रमनस्काः ||११|| संसारिणस्त्रसस्थावरा ||१२|| पृथिव्यंवुवनस्पतयः स्थावराः ||१३|| तेजोवायू द्वींद्रियादयश्च त्रसाः ||१४|| पंचेन्द्रियाणि ||१५|| द्विविधानि ॥ १६ ॥ निर्वृत्युपकरणे द्रव्येंद्रियम् ॥१७॥ लब्ध्युपयोगौ भावेंद्वियम् ॥१॥ उपयोगः स्पर्शादिषु ॥१६॥ स्पर्शनरसनम्राणचक्षुः श्रोत्राणि ॥२०॥ स्पर्शरसगंधरूपशब्दास्तेषामर्था ॥ २१ ॥ श्रुतमनिद्रियस्य ||२२|| वार्खतानामेकम् ||२३|| कुमिपिपीलिकाभ्रमरम Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽध्यायः ૭ नुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ||२४|| संज्ञिनः समनस्काः ||२५|| विग्रहगतों कर्मयोगः ॥२६॥ अनुश्रेणि गतिः ||२७|| अविग्रहा जीवस्य ॥२॥ विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्भ्यः ||२६|| एकसमयोऽविग्रहः ॥१५॥ एकं द्वौ चाऽनाहारकः ||३१|| संमूर्च्छनगर्भोपपाता जन्म ||३२|| सचित्तशीतसंवृत्ताः सेतरा मिश्राचैकशस्तद्योनयः ||३३|| जराखंडपोतजानां गर्भः ||३४|| नारक देवानामुपपातः ॥३५॥ शेषाणां संमूर्च्छनम् ||३६|| श्रदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि ॥३७॥ परं परं सूक्ष्मम् ||३८|| प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राकैजसात् ॥३६॥ अनंतगुणे परे ॥ ४० ॥ प्रतिघाते || ११|| अनादिसंवन्धे च ॥४२॥ सर्वस्य ||४३|| तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्याऽऽचतुर्भ्यः ||४४|| निरुपभोगमंत्यम् ||४५|| गर्भसंमूर्च्छनजमाद्यम् ॥४६॥ वैकियमोपपातिकम् ॥४७॥ लब्धिप्रत्ययं च ॥ ४८ ॥ शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं चतुर्दशपूर्वधरस्यैव ॥ ४६ ॥ तैजसमपि ॥ ० ॥ नारकसंमूहिनो नपुंसकानि ॥ ५१ ॥ न देवाः ॥५२॥ श्रौपपातिकचरम देहोत्तमपुरुषाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः ॥ ५३ ॥ ॥ इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ ॥ अथ तृतीयोऽध्यायः ॥ रत्नशर्करावालुकापंकधूमतमोमहातमः प्रभाभूमयो घनांबुवताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताघोऽधः पृथुतराः ||१|| तासु नारकाः ॥२॥ नित्याशुभतरलेश्यापरिणाम देह वेदनाविक्रियाः ||३|| परस्परोदीरितदुःखाः ॥४॥ संक्तिटासुरीदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ||५|| तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिशत्सागरोपमा सत्त्वानां परा स्थितिः ॥६॥ जंबूद्वीपलवणादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ॥७॥ द्विद्विविष्कंभा: पूर्व पूर्वपरिने - पिणो बलयाकृतयः ॥ ८ ॥ तन्मध्ये मेरुनाभिर्वृत्तो योजनशतसहस्रविष्कंभो Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री तत्त्वार्थसूत्रम् जम्बूद्वीपः In तत्र भरतहमवतहरिविदेहरम्यक्हरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि ॥१०॥ तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः ॥१॥ द्विर्धातकीखण्डे ॥१२॥ पुष्कराधे , ॥१३॥ प्राक् मानुषोत्तरान्मनुष्याः ॥१४॥ श्रार्या म्लेच्छाश्च ॥१५|| भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरुत्तरकुरुभ्यः॥१६॥ स्थिती परापरे त्रिपल्योपमांतर्मुहूर्ते ॥१७॥ तिर्यग्योनीनां च ॥१८॥ ॥ इति तृतीयोऽध्यायः॥ ॥ अथ चतुर्थोऽध्यायः॥ देवाश्चतुनिकायाः ॥१॥ तृतीयः पीतलेश्यः ॥२॥ दशाष्टपंचद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ॥३॥ इंद्रसामानिकवायस्त्रिशपारिषद्यात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विपिकाचकशः ॥४॥ वायस्त्रिशलोकपालवा व्यंतरज्योतिष्काः ॥५॥ पूर्वयोन्द्राः ॥६॥ पीतांतलेश्याः ॥७॥ कायप्रवीचारा आऐशानात् ॥८॥ शेषाः स्पर्शरूपशब्दमन:प्रवीचारा द्वयोर्द्धयोः ॥६॥ परेऽप्रवीचारा॥१०॥ भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाऽ ग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिककुमारा: ॥१६॥ व्यंतराः किंनरकिंपुरुपमहोरगगांधर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः ॥१२॥ ज्योतिष्काः सूर्याश्चंद्रमसो ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णताराश्च ॥१३॥ मेल्लदक्षिणा नित्यगतयो तृलोके ॥१४॥ तस्कृतः कालविभागः ॥१५॥ वहिरवस्थिताः ॥१६॥ वैमानिकाः ॥१७॥ कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ॥१८॥ उपर्युपरि॥१६॥ सौधर्मशानसनत्कुमारमाद्ब्रह्मलोकलांतकमहाशुक्रसहस्त्रारेप्वानताणतयोरारणाच्युतयोवस्तु प्रेवेयकेनु विजयवैजयंतजयंतापराजितेषु सर्वार्थसिद्धे च ॥२०॥ स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्याविशुद्धींद्रियावधिविषयतोऽधिकाः ॥२॥ गतिशरीरपरिग्रहाऽभिमानतो हीना ॥२२ उच्छवासाहारवेदनोपपातानुभावतश्च Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽध्यायः સંઘ साध्याः ||२३|| पीतपद्मशुक्लेश्या द्वित्रिशेषेषु ॥२४॥ प्राशुगैवेयकेभ्यः कल्पाः ||२५|| ब्रह्मलोकालया लोकांतिका ॥२६॥ सारस्वतादित्यवहून्यरुणमर्दतोय तुषिताव्यावाधमरुतोऽरिष्टाश्च ॥२७॥ विजयादिपु द्विवरमाः॥२८॥ औपपातिकमनुष्येभ्य शेयास्तिर्यग्योनयः ||२६|| स्थितिः ||३०|| भवनेषु दक्षिणार्धाधिपतीनां पल्योपममध्यर्थम् ||३१|| शेषाणां पादोने ॥३२॥ असुरेंद्रयोः सागरोपममधिकं च ||३३|| सौधर्मादिवु यथाक्रमम् ॥ ३४ ॥ सागरोपमे ||३५|| अधि च ॥३६॥ सप्त सनत्कुमारे ||३७|| विशेषस्त्रिसप्तदशैकादश त्रयोदशपंचदशभिरधिकानि च ॥३८॥ श्रारणाच्युतादृर्ध्वमेकैकेन नवसु ग्रैवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धे च ॥३६॥ अपरा पल्योपमधिकं च ||४०|| सागरोपमे ||४१ || अधिके च ॥४२॥ परतः परतः पूर्वापूर्वाऽनंतरा ||४३|| नारकाणां च द्वितीयादिषु ॥४४॥ दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम् ||४५|| भवनेषु च ॥ ४६ ॥ व्यंतराणां च ॥४७॥ परा पल्योपमम् ||४|| ज्योतिष्काणामधिकम् ॥४६॥ ग्रहणामेकम् ॥५०॥ नक्षत्राणामर्द्धम् ॥५१॥ तारकाणां चतुर्भागः ॥५२॥ जघन्या त्वष्टभागः ॥ ५३॥ चतुर्भागः शेषाणाम् ||५|४|| ॥ इति चतुर्थोऽध्याय ॥ ॥ अथ पञ्चमोऽध्यायः ॥ जीवकाया धर्माधर्माकाशपुलाः ||१|| द्रव्याणि जीवाश्च ॥२॥ नित्यावस्थितान्यरूपीणि ||३|| रूपिणः पुद्गलाः ॥४॥ प्राकाशादकद्रव्याणि ||५|| निष्क्रियाणि च ॥ ६॥ असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मयोः॥७॥ जीवस्य च ॥८॥ श्राकाशस्याऽनंता: ॥ ॥ संख्येयाऽसंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ||१०|| नाणोः ||११|| लोकाकाशेऽवगाहः ॥१२॥ धर्माधर्मेयाः कृत्स्ने ||१३|| एकप्रदेशादिषु भाज्य:पुगलानाम् ॥१४॥ असंख्येयभागादिपु जीवानाम् ||१५|| प्रदेशसंहारविसर्गाभ्यां प्रदीपवत् ॥ १.६ ॥ गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयेारुपकारः ||१७|| आकाशल्यांऽवगाहः ॥१८॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० श्री तत्वार्थसूत्रम् शरीरवाङ्मनःप्राणापाना पुद्गलानाम् ॥१९॥ सुखदुःखजीवितमरणोपप्रहाश्च ॥२०॥ परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥२१॥ वतना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य ॥२२॥ स्पर्शरसगंधवर्णवंतः पुद्गलाः ॥२३॥ शब्दवंधसौदम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवंतश्च ॥२४॥ प्रणवः स्कंधाश्च ॥२५॥ संघातभेदेभ्यः उत्पद्यते ॥२६॥ भेदादणुः ॥२७॥ भेदसंघाताम्यां चाक्षुषाः ॥२८॥ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ॥२६॥ तद्भा वाव्ययं नित्यम् ॥३०॥ अर्पितानर्पितसिद्धेः ॥३१॥ स्निग्धरूक्षत्वा द्वन्धः ॥३२॥ न जघन्यगुणानाम् ॥३३॥ गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥३४॥ द्वयधिकादिगुणानां तु ॥३५॥ बंधे समाधिको पारिणामिकौ ॥३६॥ गुणपर्यायवद् द्रव्यम् ॥३७॥ कालश्चेत्येके ॥३८॥ सोऽनंतसमयः ॥३६|| द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ॥४०॥ तद्भावः परिणामः ॥४१॥ अनादिरादिमाँश्च ।।४।। रूपिण्वादिमान् ॥४३॥ योगोपयोगी जीवेषु leelt ॥ इति पञ्चमोऽध्यायः॥ अथ षष्ठोऽध्यायः कायवाङ्मनःकर्म योगः ॥२॥ स पात्रकः ॥२॥ शुभः पुण्यस्य ॥३॥ अशुभःपापस्य (शेषं पापम्) पा सकषायाकषाययोः सांपरायिकेपिथयोः ॥५॥ इंद्रियकपायावतक्रियाः पंचचतु पंचपंचविशतिसंख्याः र्वस्य भेदाः ॥६॥ तीव्रमंदज्ञाताज्ञातभाववीयर्याधिकरणविशेषेभ्यरतद्विशेष: विशेषात्तद्विशेष:) ॥७॥ अधिकरण जीवाजीवाः ॥८॥ श्राद्यं संरंभसमाभारंभयोगकृतकारिताऽनुमतकषायविशेषैत्रिनिनिश्चतुश्चैकशः ॥ ६ ॥ वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः परं ॥१०॥ तत्प्रदोषनिहमात्सर्यातरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ॥११॥ दुःखशोकपानंदनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्यस्य ॥१२॥ भूतव्रत्यनु Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽध्यायः ४५१ कंपादानसरागसंयमादियोग शांतिः शौचमितिसदेद्यस्य ॥१३॥ केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ॥१४॥ कपायोदयातीवात्मपरिणामश्चारित्रमोहस्य ॥१५॥ बह्रारंभपरिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः ॥१६॥ माया तैर्यग्योनस्य ॥१७॥ अल्पारंभपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जव च मानुषस्य ॥१८॥ निःशीलव्रतत्वं च सर्वेषां ॥१६॥ सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जरावालतपांसि देवस्य ॥२०॥ योगवक्रताविसंवादन. चाशुभस्य नाम्नः ॥२१॥ विपरीतं शुभस्य ॥२२॥ दर्शनविशुद्धिविनयसंपन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी संघसाधुसमाधिवैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यवहुश्रुतप्रवचनकिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकत्वस्य ॥२३॥ परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोभावने च नोचैर्गोत्रस्य ॥२४॥ तद्विपर्ययो चैत्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥२५॥ विघ्नकरणमंतरायस्य ॥२६॥ ॥ इति षष्ठोऽध्यायः॥ ॥ अथ सप्तमोऽध्यायः॥ हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ॥२॥ देशसर्वतोऽणुमहती ॥२॥ तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पंच पंच ॥३॥ हिंसादिग्विहामुत्र चापायावद्यदर्शनम् ॥४॥ दुःखमेव वा ॥५॥ मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु ॥६॥ जगत्कायस्वभावौ च संवेगवैराम्यार्थम् ॥७॥ प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥८॥ प्रसदभिधानमनृतम् ॥६॥ अदत्तादानं स्तेयम् ॥१०॥ मैथुनमब्रह्म ॥११॥ मूर्छा परिग्रहः ॥१२॥ निःशल्यो व्रती ॥१३॥ अगार्यनगारश्च ॥१॥ अणुवतोऽगारी ॥१५॥ दिग्देशानर्थदंडविरतिसामायिकपौषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागवतसंपन्नश्च ॥१६मारणांतिकी संलेखनां Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ श्री तत्त्वार्थसूत्रम् जोषिता ॥१७॥ शंकाकांक्षाविचिकित्सा ऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवा: सम्यग्धप्रतिचाराः ॥१८॥ व्रतशीलेषु पंच पंच यथाक्रमम् ॥१६॥ वैधवव विच्छेदाऽतिभारारोपणान्नपाननिरोधाः ॥२०॥ मिथ्योपदेशरहरयाभ्या ख्यान कूट लेखक्रियान्यासापहारसाकारमंत्रभेदाः ||२|| स्तेनप्रयोगतदाहतादानविरुद्व राज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहारा ||२२|| परविवाह करणेत्वरपरिगृहीताऽपरिगृहीतागमनाऽनंगकोडातीत्रकामाभिनिवैशाः ॥ २३ ॥ क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणा तिक्रमाः ||२४|| ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमः क्षेत्रवृद्धिस्मृत्यंवर्धानानि ||२५|| श्रानयनप्रेप्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलप्रक्षेपाः ॥२६॥ कन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्याऽसमीक्ष्याधिकरणोपभोगाधिकत्वानि ||२७|| योगदुः प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थापनानि ॥ २५ ॥ श्रप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादाननिक्षेपसंस्तारोपक्रमणानादर स्मृत्यनुपस्थापनानि ॥ २६ ॥ सचित्तसंबद्धसंमिश्राSevageवाहाराः ॥३०॥ सचित्तनिक्षेप पिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमः ||३१|| जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबंधनिदानकरणानि ||३२|| अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ||३३|| विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः ||३४|| ॥ इति सप्तमोऽध्याय ॥ ॥ श्रथाष्टमोऽध्यायः ॥ मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगा वैधहेतवः ॥१॥ सकषायत्वाजीव: कर्मणो योग्याम्पुद्रलानादते ॥२॥ सर्वधः ॥३॥ प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशारतद्विधयः ॥४॥ प्रायो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीय मोहनीयायुष्कनामगोत्रांत रायाः ||५|| पंचनवद्रचष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिशद द्विपंचभेदायथाक्रमम् ॥६॥ मत्यादीनां ॥७॥ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचला स्त्यानगृद्धिवेदनीयानि च ॥ ॥ सदसद्वेये ॥ ॥ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । नवमोऽध्यायः दर्शनचारित्रमोहनीयकषायनोकपायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विषोडशनयभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयानिकपायनोकषायावनंतानुवंध्यप्रख्यानप्रत्याख्यानावरणसंचलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमान मायालोमाः हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सास्त्रो'नपुंसकवेदाः ॥१०॥ नारकर्यग्योनमानुपदेवानि ॥११॥ गतिजातिशीरांगोपांगनिर्माणबंधनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगंधवर्णानुपूर्यगुरुलघूपघातपराघातातपोद्योतोच्छवासविहायोगतयः प्रत्येकगरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तस्थिरादेययशांसि सेतराणि तीर्थकृत्वं च ॥१२॥ उच्चर्नीचश्च ॥१३॥ दानादीनान् ॥१४॥ श्रादितल्तिरजामंतरायस्य च विशत्सागरोपमकोटीकोटयः परा स्थितिः ॥१५॥ सप्त तिर्मोहनीयस्य ॥३॥ नामगोत्रयोचिंगतिः ॥१७॥ त्रयस्त्रिंगवसागरोपमाण्यायुप्तस्य (त्रयस्त्रिगन्सागराण्यधिक्षान्यायुकत्य) ॥१८॥ अपरा बादशमुहूर्ता वेदनीयस्य ॥१६॥ नामगोत्रयोरप्टो ॥२०॥ शेषाणामतर्मुहूर्तम् ॥२१॥ विपाकोऽनुभावः ॥२२॥ स यथानाम ||२३|| ततश्च निर्जरा ॥२४॥ नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकनेत्रावगादस्थिताः सर्वामप्रदेशेष्वनंतानंतप्रदेशाः ॥२०|| सढेवसम्यक् चहास्यरतिपुरुपदशुभायुनामगोत्राणि पुण्यम ॥६॥ ॥ इति अष्टमोऽध्यायः ॥ ॥ अथ नमोऽध्यायः ॥ प्रास्त्रनिरोधः संवरः ॥२॥ स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिपहलयचारित्रः ॥२॥ तपसा निर्जरा च ॥३॥ सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥earn ईर्याभापरणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ॥५॥ उत्तमः नमामाईचार्जवगौत्रसत्यसंयमतपस्यागाऽऽश्चिन्यब्रह्मचर्याणि धर्म an अनित्याशरपसंसारकत्वान्मत्वाशुचित्वान्नवसंवरनिर्जरालोकोधिदुर्लभधर्मस्वात्यातस्वतत्त्वानुचिंतनमनुप्रेक्षा. ॥७॥ मार्गाऽच्यवननिर्जरार्थ परिपोढव्या. Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 456 स्तोत्रम् जिनानां नामभिर्वद्धः, पञ्चषष्टिसमुद्भव यंत्रोऽयं राजते यन्न, तत्र सौख्यं निरन्तरं // 6 // यस्मिन् गृहे महाभक्त्या, यंत्रोऽयं पूज्यते बुध भूतप्रेतपिशाचादे, भयं तन न विद्यते // 7 // सकलगुणनिधानं यन्त्रमेनं विशुद्ध हृदयकालकोशे धीमतां ध्येयरूपं / जयतिलकगुरो, श्रोसूरिराजस्य शिष्यो / वदति सुखनिधानं मोतलक्ष्मीनिवासं // 8 // सतीस्तोत्रं आदौ सती सुभद्रा च, पातु पश्चात्तु सुंदरी ततश्वन्दनवाला च, सुलसा, च मृगावती // 1 // राजीमती ततधूला, दमयन्ती ततःपरम् / पद्मावती शिवा सीता, ब्राह्मी पुनश्च द्रोपदी // कौशल्या च ततः कुन्ती, प्रभावती सतीवरा सतीनामिनयन्त्रोऽयम् , चतुस्लिरात्समुद्भव // 3 // यस्य पार्वे सदायन्त्रो, वर्तते तस्य सांप्रतं भूरिनिद्रा न चायाति, न यान्ति भूतप्रेतकाः // 4 // ध्वजायां नृपतेयस्य, यंत्रोऽयं वर्तते सदा तस्य शत्रुभयं नास्ति, संग्रामेऽरय जय. सदा // 2 // गृहहारे सदा यस्य, यन्त्रोऽयं धियते घर. कार्मणादिफतंत्रस्य, न रयात्तस्य पराभव. l स्तोत्रं सतीनां सुगुरुप्रसादात् , कृतं मयोयोतमृगाधिपेन / य स्तोत्रमेतत् पति प्रभाते, स प्राप्नुते शं सततं मनुष्य // // समाप्तं. //