Book Title: Bhaktmal
Author(s): Raghavdas, Chaturdas
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रधान सम्पादक–पद्मश्री मुनि जिनविजय, पुरातत्त्वाचार्य (सम्मान्य सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर) ग्रन्थाङ्क राघवदास कृत भक्तमाल (चतुरदास कृत टीका सहित) CEBUDD DHEGOO प्रकाश क राजस्थान राज्य संस्थापित राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर ( राजस्थान) RAJASTHAN ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE, JODHPUR, in Education Internet Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रधान सम्पादक–पद्मश्री मुनि जिनविजय, पुरातत्त्वाचार्य (सम्माम्य सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर) ग्रन्थाङ्क ८ राघवदास कृत भक्तमाल (चतुरदास कृत टीका सहित) प्रकाशक राजस्थान राज्य संस्थापित राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर (राजस्थान) RAJASTHAN ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE, JODHPUR. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला राजस्थान राज्य द्वारा प्रकाशित सामान्यतः अखिल भारतीय तथा विशेषतः राजस्थानदेशीय पुरातनकालीन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, हिन्दी आदि भाषानिबद्ध विविध वाङ्मयप्रकाशिनी विशिष्ट ग्रन्थावलि प्रधान सम्पादक पद्मश्री मुनि जिनविजय, पुरातत्त्वाचार्य सम्मान्य सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर; प्रॉनरेरि मेम्बर ऑफ जर्मन प्रोरिएण्टल सोसाइटी, जर्मनी; निवृत्त सम्मान्य नियामक (ऑनरेरि डायरेक्टर ), भारतीय विद्याभवन, बम्बई प्रधान सम्पादक, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, इत्यादि । ग्रन्थाङ्क ८ राघवदास कृत भक्तमाल ( चतुरदास कृत टीका सहित ) प्रकाशक राजस्थान राज्याज्ञानुसार सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर ( राजस्थान) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रमाब्द २०२१ प्रथमावृत्ति १००० राघवदास कृत Jain Educationa International भक्त माल ( चतुरदास कृत टीका सहित ) सम्पादक श्री अगरचन्द नाहटा राजस्थान राज्याज्ञानुसार सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर (राजस्थान ) प्रकाशनकर्त्ता } मुद्रक | जगदीशचन्द्र स्वरकार, अजन्ता प्रिण्टर्स, जोधपुर. भारतराष्ट्रीय शकाब्द १८८५ For Personal and Private Use Only "ख्रिस्ताब्द १९६५ मूल्य रु० ६.७५ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BHAKTAMAL OF RAGHAVADAS (with Commentary by Chaturdas ) Edited by AGARCHAND NAHATA PUBLISHED under the orders of the Government of Rajasthan BY The Director, Rajasthan Oriental Research Institute, JODHPUR (RAJASTHAN). V.S. 2021 Price i Rs. 6,75 1965 A.D. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सञ्चालकीय चक्रव्य भगवद्भक्तों के आदर्श आचरण और त्यागमय जीवन सामान्य जन-जीवन में मार्गदर्शक होते हैं । इस द्वन्द्वात्मक जगत को जटिल परिस्थितियों के कोलों में जब जनता के धार्मिक विश्वास डगमगाने लगते हैं, तो तारण तरण पहुँचवान भक्तों की करुणापरिपूरित अमृतवाणी से ही भवदावदग्ध जनों को शान्ति एवं कर्तव्यपथ का निदर्शन प्राप्त होता है । ऐसे जगदुद्धारक हरि-भक्त सन्तों के पवित्र चरित्र और महिमा का वर्णन अनेक सतसङ्घी एवं गुरुभक्तों ने विविध रूपों में किया है । भक्तमाल, भक्त-परिचयी, मुनि-नाम-माला, साधु- वन्दना श्रादि अनेक प्रकार की रचनाएँ विभिन्न ग्रन्थ- सग्रहों में उपलब्ध होती हैं । ऐसी रचनाओं में महात्मा पयोहारिजी के शिष्य नाभादासजी कृत भक्तमाल प्रसिद्ध है । दादूपंथी, रामस्नेही, निरञ्जनी, राधावल्लभीय, गौडीय श्रौर हितहरिवंशीय सम्प्रदायों के भक्तों के परिचय भी पृथक्-पृथक् भक्तमालों में सन्दृब्ध हुए हैं । दादू सम्प्रदाय के कतिपय भक्तों की परिचायिका चारण कवि ब्रह्मदास कृत भक्तमाल का प्रकाशन प्रतिष्ठान की ओर से 'राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला' के अन्तर्गत ग्रन्थाङ्क ४३ के रूप में किया जा चुका है। दादू सम्प्रदाय का जन्म और विकास राजस्थान में ही हुआ और दादूपंथी भक्तों की वारणी भी अधिकांश में राजस्थानी भाषा में ही निबद्ध है । हरिदास पर नाम हापोजी के शिष्य राघवदासजी ने स्वरचित भक्तमाल अनेक दादूपंथी भक्तों के पावन चरित्रों का चित्रण किया है। इस भक्तमाल की एक टीका भी एतत् सम्प्रदायी शिष्य कवि चतुरदास द्वारा की गई, जिसमें भक्तों का चरित्र विस्तार से दिया गया है । कुछ वर्षों पूर्व राजस्थान के सुप्रसिद्ध उत्साही साहित्यान्वेषक श्री अगरचन्दजी नाहटा ने 'राघवदास कृत भक्तमाल चतुरदास कृत टीका सहित' की एक प्रति की प्रतिलिपि हमें दिखाकर इस कृति को प्रतिष्ठान की ओर से प्रकाशित करने का प्रस्ताव किया जो हमने स्वीकार कर लिया और प्राचीन प्रतियों के आधार पर इसका विधिवत् सम्पादन करने के लिये श्री नाहटाजी से अनुरोध किया । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल __ प्रस्तुत रचना की दो प्रतियाँ प्रतिष्ठान के जयपुर स्थित शाखा-कार्यालय में स्व० पुरोहित हरिनारायणजी विद्याभूषण-संग्रह में विद्यमान हैं। इनमें से एक प्रति सं० १८६१ की अर्थात् चतुरदासजी कृत टीका के रचनाकाल से साढ़े तीन वर्ष बाद ही की लिखित है। इस प्रति की प्रतिलिपि करवा कर श्री नाहटाजी को भेजी गई और अन्य प्राप्य प्रतियो के पाठान्तरों सहित सम्पादन के लिये उन्हें सूचित किया गया। तदनुसार विद्वान् सम्पादकजी ने भूमिका में उल्लिखित प्रतियों को लेकर पाठान्तर प्रादि देते हुए प्रेसकॉपी तैयार कराई। समय-समय पर जिन अन्य प्रतियों की हमें सूचना मिली अथवा बाद में प्रतिष्ठान में जो प्रतियां प्राप्त हुईं, उनके विषय में भी श्री नाहटाजी को जानकारी दी गई और प्रतियाँ उनके अवलोकन व उपयोग के लिये भेजी गईं। हमारा विचार है कि यदि ऐसो राजस्थानो रचनाओं का सम्पादन राजस्थान के विभिन्न भागों अथवा विभिन्न भूतपूर्व रियासतों में लिपिकृत प्रतियों के आधार पर किया जाय, तो भाषाशास्त्र के अन्तर्गत ध्वनिभेद और भाषा-विकास सम्बन्धी अनेक गुत्थियों के हल निकलने के अतिरिक्त कितने ही अन्यान्य रोचक तथ्य भी सामने आ जाते हैं और उनसे नए निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। अस्तु, श्री नाहटाजो द्वारा प्रेस-कॉपी तैयार करा लेने तथा प्रेस में मूल ग्रन्थ का बहुत-सा अंश छप जाने के बाद प्रतिष्ठान में राघवदास कृत भक्तमाल (चतुरदास की टीका सहित) की दो और प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं। उनके विवरण इस प्रकार हैं : (१) प्रतिष्ठान के संग्रहाङ्क २१६७७ पर अंकित प्रति का विवरण : पत्र सं० ६२ पंक्ति प्रति पृष्ठ =१८ ३२४१५.८ सी. एम अक्षर प्रति पंक्ति = ४८ प्रतिलिपि संवत् १६०० वि०। पुष्पिका. इती श्री भक्तमाल टीका सहित राघोदासजी कृत संमस्त भक्तन को जथामात बरनन संपूरण समापतः ॥ छपय छदं ॥३४३॥ मनहर छंद ॥१५०॥ हंसाल छंद ॥४॥ साषी ॥६॥ चौपई ॥२॥ इंदव छंद ॥८॥ एती राघवदासजी कृत संपूरण ॥५७५॥ चतुरदास जी कृत टीका ॥ इंदव अरु मनहर ॥६५३॥ समस्त मुल टीका कवित को जोड ॥१२५५॥ ग्रथ को प्रमाण श्लोक संख्या हजार ॥४५००॥ संबत अष्टादश शतक ॥ दश नवगुन अधिकाहि ॥ भाद्रमास सित प्रतिपदा ॥ भृगुबासर के मांहि ॥ नग्र ग्रंमारुमा मध्ये ल्यषि प्रसतल भगवानदासजी का ता मध्ये लिषि साध रामवयाल दादूपंथ ॥ समत्त ॥१६००॥ मीति भादवा सुदी ॥१२॥ राम रं रं रं रं. ___ इस प्रति में छंद संख्या १,२५५ लिखी है, परन्तु उक्त अंकों को जोड़ने पर १,३०२ पाती है। पृष्ठ संख्या, अनुपाततः प्रति पृष्ठ पंक्ति संख्या और प्रतिपंक्ति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सञ्चालकीय वक्तव्य अक्षर संख्या के गुणन से ४,६६८ श्लोक संख्या आती है, परन्तु अति में ४,५०० ही लिखी है। (२) संख्या २८००० पर अंकित प्रति का विवरण : पत्र सं० १२० पंक्ति प्रति पृष्ठ = १३ माप ३०४ १३ सी. एम. अक्षर प्रति पंक्ति=५० लिपि संवत् १६०४ वि० पुष्पिका-"इति श्री भक्तमाल की टीका संपूरण समापतः ॥ सुभमस्तु कल्याणरस्तु ॥ लेषकपाठकयो ब्रह्म भवतु ॥ छप छंद ॥३३३॥ मनहर छंद ॥१४१॥ हंसाल छंद ॥४॥ साषी ॥३८॥ चौपई ॥२॥ इंदव छंद ॥७५॥ राघोदासजी कृत भक्तमाल संपूर- ६॥ इंदव छंद ॥ चतुरदास कृत टीका सब छ ॥६२१॥ सरबस' कैबित १५ ग्रंथ की श्लोक संख्या ॥४१.१॥" यहाँ प्रति में दोहरा हंसपद लगाकर दक्षिण हाशिए पर निम्न दो दोहे सूक्ष्माक्षरों में लिखे हैं : अष्यर वतीस ग्यन करि, संख्या चार हजार । तामैं प्ररथ अनूप है, बकता लह बिचार ॥१॥ मैं मतः सारू प्रापरणी, ग्रन्थ जो लिष्यो बिचार । संचर घाल प्रति घणो, बकता बकसपहार ॥२॥ लिषतं सुमसथान रामगढ मध्ये ॥ सुकल पक्षे तिथ भादव सुधि पंचमी मंगलवार बार ॥ संबत ॥१६॥४॥ का ॥" इसके आगे "दादूजी दयाल पाट ग्रीब मसकीन ठाठ" आदि पद्य लिखे हैं, जो पुस्तक के पृ० २७० पर मुद्रित हैं। ये पद्य २१६७७ वाली प्रति में नहीं हैं। इस प्रति की पुष्पिका में लिखे अनुसार मूल भक्तमाल की छंद संख्या ५५३ है, परन्तु जोड़ने पर ५९३ पाती है। इसमें टीका के उल्लिखित ६२१ छंद जोड़ने से योग १,२१४ प्राता है, परन्तु प्रति में १,१८५ ही लिखे हैं। प्रति में समस्त श्लोक संख्या ४,१०१ ही लिखी है, परन्तु उपर्युक्त प्रकार से पृष्ठ संख्या, प्रतिपृष्ठ पंक्ति संख्या एवं प्रतिपंक्ति अक्षर संख्या का गुणनफल ४,८७५ आता है। विद्वान सम्पादक श्री अगरचन्दजी ने प्रस्तुत पुस्तक के सम्पादन में पूरी रुचि लेकर पाठ-शोधन, पाठान्तर, सूचनागर्भित प्रस्तावना और आवश्यक परिशिष्ट प्रादि का सङ्कलन कर पुस्तक को उपयोगी बनाने का यथाशक्य पूरा प्रयत्न किया है। तदर्थ वे हमारे धन्यवाद के पात्र हैं। जयपुर के दादूमहाविद्यालय के प्राण स्वामी मंगलदासजी महाराज ने भी अतिरिक्त सूचनाएँ व Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द ] भक्तमाल परिशिष्ट आदि दिये हैं, अतः उन्हें भी धन्यवाद अर्पित करना हमारा कतव्य है। इनके अतिरिक्त जिन विभागीय एवं अन्य विद्वानों ने पुस्तक को पूर्ण बनाने में श्री नाहटाजी का हाथ बटाया है, वे भी प्रशंसा के पात्र हैं। प्रस्तुत प्रकाशन भारत सरकार के शिक्षा मन्त्रालय की ओर से "अाधुनिक भारतीय भाषा-विकास-योजना-राजस्थानो" के अन्तर्गत प्रदत्त आर्थिक सहयोग से किया जा रहा है, तदर्थ भारत सरकार के प्रति हम आभार प्रदर्शित करते हैं। १५-४-६५ राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर. मुनि जिनविजय सम्मान्य सञ्चालक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भमिका भारत अध्यात्म-प्रधान देश है। यहाँ के मनीषियों ने सब से अधिक महत्त्व धर्म को ही दिया है, क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति उसी से होती है और मानव-जन्म का सर्वोच्च श्रेवं अंतिम ध्येय प्रात्मोपलब्धि या परमात्म-पद-प्राप्ति का ही है। साध्य की सिद्धि के लिये साधनों की अनिवार्य आवश्यकता होती है। भारतीय धर्मों में वैसे तो अनेक साधन प्रणालियों को स्थान दिया गया है, पर उन सब का समावेश ज्ञान, भक्ति और कर्म-योग में कर लिया जाता है । मानवों की रुचि, प्रकृति अवं योग्यता में विविधता होने के कारण उनके उत्थान के साधनों में भी भिन्नता रहती है। मस्तिष्क-प्रधान व्यक्ति के लिये ज्ञान-मार्ग अधिक लाभप्रद होता है और हृदय-प्रधान व्यक्ति के लिये भक्तिमार्ग । योग अवं कर्म-मार्ग भी अक सुव्यवस्थित साधन प्रणाली है, क्योंकि जब तक आत्मा का इस शरीर के साथ संबंध है, उसे कुछ न कुछ कर्म करते रहना ही पड़ता है। गीता के अनुसार प्रासक्ति या फल की आकांक्षारहित कर्म ही कर्म-योग है। पतञ्जलि के योगसूत्र में योगमार्ग के आठ अंग बतलाये गये है, उनमें पहले चार अंग हठयोग के अन्तर्गत आते हैं और पिछले चार अंग राजयोग के माने जाते हैं। वेदान्त, ज्ञानमार्ग को महत्व देता है, तो भक्ति-संप्रदाय सब से सरल और सीधा मार्ग भक्ति को ही बतलाता है। जैन धर्म में सम्यक्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को मोक्ष-मार्ग बतलाया गया है। सम्यग्दर्शन में श्रद्धा को प्रधानता दी गई है, अतः उसका संबंध भक्तिमार्ग से जोड़ा जा सकता है, कर्म या योग का चारित्र से ज्ञान तो सर्वमान्य है हो, क्योंकि उसके बिना भक्ति किसकी और कैसे की जाय तथा कर्म कौन-सा अच्छा है और कौनसा बुरा-इसका निर्णय नहीं हो सकता। __अपने से अधिक योग्य और सम्पन्न व्यक्ति के प्रति आदर-भाव होना मानव की सहज वृत्ति ही है। महापुरुष या परमात्मा से बढ़कर श्रद्धा या आदर का स्थान और कोई हो नहीं सकता। गुणी व्यक्ति की पूजा या भक्ति करने से गुणों के भिगवान के सगुण व निर्गुण दो भेद करके उसकी उपासना दोनों रूपों में की जाती है । इस रीति से निर्गुणोपासक व सगुणोपासक भक्त कहा जाता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख ] भक्तमाल प्रति आकर्षण बढ़ता जाता है और इससे अपने गुणों का विकास करने की प्रेरणा और शक्ति प्राप्त होती है। इसलिये ईश्वर या महापुरुष की भक्ति को सभी धर्मों ने महत्वपूर्ण स्थान दिया है। भक्ति कई प्रकार से की जाती है, जिन में से नवधा भक्ति काफी प्रसिद्ध है। भक्ति के द्वारा भगवान को प्राप्त करना या जैन-दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा परमात्म-स्वरूप है, इसलिये परमात्मा के अवलंबन से अपने में छिपे हुने गुणों का विकास कर परमात्मा बन जाना ही भक्ति मार्ग का इष्ट है। जिन-जिन व्यक्तियों ने भक्ति के द्वारा अपना विकास किया, वे 'भक्त' कहलाते हैं। असे भक्तों के नाम स्मरण श्रेवं गुणस्तुति के लिये ही 'भक्तमाल' जैसे ग्रंथों की रचना हुई हैं-भक्तजनों की जीवनी के विशिष्ट प्रसंगों व चमत्कारों आदि का वर्णन इन ग्रंथों में संक्षेप से किया जाता है, जिससे अन्य व्यक्तियों को भी भक्ति की प्रेरणा मिले और वे भक्त बनें । महापुरुषों, संत अवं भक्तजनों तथा अन्य विशिष्ट व्यक्तियों की गुणस्तुति या चरित्र-वर्णनात्मक साहित्य-निर्माण की परंपरा काफी प्राचीन है। वेदों और उपनिषदों में इसके सूत्र पाये जाते हैं। पुराणों तथा रामायण, अवं महाभारत में इस परंपरा का उल्लेखनीय विकास देखने को मिलता है। इसके बाद भी समय-समय पर अनेकों व्यक्तियों के चरित अवं स्तुति-काव्य रचे गये। यह उनकी परपंरा आज भी है और आगे भी रहेगी। असी रचनाओं में कुछ तो व्यक्ति-परक होती हैं और कुछ अनेक व्यक्तियों के संबंध में। 'भक्तमाल', जैसा कि नाम से स्पष्ट है, भक्तजनों को नामावली अवं गुणस्तुति की अक माला है। जिस प्रकार माला में अनेक मनके होते हैं, उसी तरह 'भक्तमाल' में अनेकों संतों अवं भक्तों के नाम तथा उनके जीवन-प्रसंगों का संग्रह किया जाता है। माला नामान्त पद वाली रचनाओं की परम्परामाला द्वारा जप करने की प्रणाली काफी पुरानो है, पर माला नामान्त वाली रचनायें इतनी प्राचीन प्राप्त नहीं होतीं। वैसे करीब बारह सौ वर्षों से प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा में माला व माल नामान्त वाली शताधिक जैन जयमाल आदि रचना प्राप्त होती हैं। संभवतः हिन्दी के कवियों को उन्हीं से अपनी रचनाओं को 'माला या माल' संज्ञा देने की प्रेरणा मिली हो। देखिये, राजस्थान के दिगम्बर जैन ग्रंथ भण्डारों की सूचियाँ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका [ ग सतरहवीं शताब्दी के कवि नाभादास ने सर्वप्रथम भक्तमाल' नामक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ बनाया। उसके बाद तो उसके अनुकरण में 'भक्तमाल' और असी ही अन्य नामों वाली रचनाओं बहुत-सी रचो गयीं ओर प्रायः प्रत्येक भक्ति और संत संप्रदाय के कवियों ने पौराणिक-भक्तों के नाम अवं गुणस्तुति के साथ-साथ अपने संप्रदाय के संत अवं भक्तजनों के नाम तथा चरित्र-संबंधी प्रसंगों का समावेश अपनी रचित भक्तमालों में किया है। सन्त एवं भक्तों को परिचइयाँ१७ वीं शताब्दी से ही हिन्दी में संतों एवं भक्तों के व्यक्तिगत परिचय को देने वाली 'परिचयी' संज्ञक रचनायें भी रची जाने लगीं, ऐसी रचनाओं में सर्व प्रथम अनंतदास रचित पाठ परिचइयाँ प्राप्त हैं, जो कि सं० १६४५ के लगभग को रचनायें हैं। इसके बाद तो छोटी व बड़ी शताधिक परिचयो संज्ञक रचनायें रची गयीं, जिनमें से १५ परिचइयों का आवश्यक विवरण डॉ. त्रिलोकीनारायण दीक्षित ने 'परिचयी-साहित्य' नामक ग्रंथ में प्रकाशित किया है, जो लखनऊ विश्वविद्यालय से सन् १९५७ में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद मैंने असी रचनाओं की विशेष रूप से खोज को, और करीब ७५ रचनामों की जानकारी 'राष्ट्रभारती' के जनवरी और सितंबर १९६२ के अंकों में प्रकाशित मेरे दो लेखों में दी जा चुकी हैं। अब मैं 'भक्तमाल' नामक स्वतंत्र रचनाओं की जानकारी यहाँ संक्षेप में दे देना आवश्यक समझता हूँ। भक्तमाल साहित्य की परम्परानाभादास को भक्तमाल, उसको टोकायें और प्रकाशित संस्करण भक्तों के चरित्र-संबंधी हिन्दी-काव्यों में सब से प्राचीन एवं सब से अधिक प्रसिद्ध ग्रंथ नाभादास की 'भक्तमाल' है। इसकी पद्य संख्या, रचना काल, आदि अभी निश्चित नहीं हो पाये, क्योंकि प्राचीनतम प्रतियों के आधार से इस ग्रन्थ का सम्पादन वैज्ञानिक पद्धति से नहीं हो पाया है। कई विद्वानों की राय में मूलतः इसमें १०८ पद्य (छप्पय) थे, जैसे कि माला के १०८ मनके होते हैं। पर उतने पद्यों वाली प्राचीनतम प्रति अभी तक प्राप्त नहीं है । संवत् १७७० की जिहाँ तक मेरी जानकारी है, संवतोल्लेखवाली प्राचीन प्रति सं० १७२४ की लिखित सरस्वती भण्डार उदयपुर में है। वृन्दावन से प्रकाशित भक्तमाल के पृष्ठ ८६९ में सं० १७१३ की अन्य प्रति का उल्लेख किया है, पर वह कहाँ है-इसकी जानकारी नहीं मिल सकी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ ] भक्तमाल प्रति में १६४ पद्य हैं। प्रियादास की टोका में २१४ पद्य छपे हैं । शुक्लजी ने इसकी छन्द-संख्या ३१६ बतलाई है। इससे मालूम होता है कि समय-समय पर अन्य व्यक्तियों द्वारा प्रक्षेप होता रहा है। और इसलिये इसका रचना-काल भी अभी तक निश्चित नहीं हो पाया। साधारणतया इसका रचना-काल संवत् १६४२ से १७०० तक का माना जाता है। पर मूल ग्रन्थ में रचना-काल दिया हुआ नहीं है और इस ग्रन्थ में जिन व्यक्तियों संबंधी पद्य हैं, उनमें से कई व्यक्ति और उनके ग्रन्थ संवत् १६८६ और १७०० के बीच के समय के हैं। इसलिये श्री वासुदेव गोस्वामी ने इसका रचना-काल संवत् १६८६ के बाद का सिद्ध किया है-(देखें, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ६४, अंक ३-४) । श्री किशोरीलाल गुप्त ने अपने 'भक्तमाल का संयुक्त कृतित्व' नामक लेख में, जो कि ना० प्र० पत्रिका, वर्ष ६३, अंक ३-४ में छपा है, लिखा है कि भक्तमाल अभी जिस रूप में उपलब्ध है, वह एक व्यक्ति की रचना न हो कर ३ व्यक्तियों की रचना है। उन्होंने लिखा है-"भक्तमाल के अनुशीलन से स्पष्ट होता है कि यह ग्रन्थ किसी एक व्यक्ति की रचना न होकर कम-से-कम ३ व्यक्तियों की संयुक्त कृति है। ये ३ व्यक्ति हैं-अग्रदास और उनके शिष्य नारायणदास तथा नाभादास । ......... मेरा ऐसा खयाल है कि नारायणदास के मूल भक्तमाल का परिवर्तन नाभादास ने किया और आज वह जिस रूप में उपलब्ध है, उसे वह रूप देने का श्रेय नाभादास को है । नाभादास ने ग्रन्थ की भूमिका और उपसंहार में कोई परिवर्तन नहीं किया है और भक्तमाल के सभी दोहे नारायणदास की हो रचना हैं । नाभादास ने केवल छप्पयों को ही बढ़ाया है। २४ छप्पय अग्रदास कृत हैं। जिनमें से २ में स्पष्टतः अग्रदास की छाप है। अनदास के छप्पय नाभादासजी ने भक्तमाल को वर्तमान रूप देते समय जोड़े। भक्तमाल के ३० से १६६ संख्यक १७० छप्पयों में भक्तों का विवरण है, इनमें से १०८ छप्पय नाराणदास के होने चाहिये और ६२ नाभादास के।" श्री किशोरीलाल गुप्त ने इस संबंध में विस्तार से प्रकाश डाला है। स्वामी मंगलदासजो को राय में दादूपन्थी राघोदास ने भक्तमाल की रचना नारायणदास रचित भक्तमाल के आधार से संवत् १७१७ में की है। प्रतः उसके तुलनात्मक अध्ययन से भी नारायणदास (नाभा) की भक्तमाल के मूल पद्यों का निर्णय करने में सहायता मिल सकती है। इस सम्बन्ध में वृन्दावन से प्रकाशित भक्तमाल वाला बृहद् संस्करण भी महत्त्व की सूचनाएँ देता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका भक्तमाल की निम्नोक्त टीकामों का उल्लेख विभिन्न ग्रन्थों में देखने में पाया है। १. प्रियादास की टीका 'भक्ति-रस-बोधिनी' सं० १७६९ । में रचित सं० १९८८ में वेंकटेश्वर प्रेस से प्रकाशित संस्करण में मूल पद्य २१४ और टीका पद्य ६२४ । २. 'भक्तमाल प्रसंग' वैष्णवदास कृत (सन् १९०१ की खोज रिपोर्ट में संवत् १८२९ में लिखित प्रति ) पं० उदयशंकर शास्त्री ने वैष्णवदास की टिप्पणी'भक्तमाल-बोधिनी' टीका संवत् १७८२ में लिखी गई, लिखा है। उनकी राय में वैष्णवदास दो हो गये हैं। ____३. लालदास कृत टीका-इसका रचनाकाल अनूप संस्कृत लायब्रेरी की सूची में संवत् १८६८ छपा है, पर राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान में इसकी तीन प्रतियाँ संवत् १८५६, १८७० और १८९३ की लिखी हुई हैं। इसलिये इसकी रचना संवत् १८५६ के पहले की ही समझनी चाहिये । ४. वैष्णवदास और अग्रनारायणदास कृत रसबोधिनी टीका-सन् १९०४ की खोज रिपोर्ट में इसका रचना संवत् १८४४ दिया गया है। ५. भक्तोवर्शी टीका, लालजीदास-इसका विशेष विवरण नीचे दिया जा रहा है। भक्तमाल अर्थात् भक्तकल्पद्रुम ले. श्री प्रतापसिंह, सम्पादक-कालीचरण चोंरासिया गौड़, प्रकाशक-तेजकुमार प्रेस बुक डिपो, लखनऊ। सन् १९५२, बारहवीं वार, मूल्य दस रुपये-बडी साइज पृ० ४६३। इस ग्रन्थ में मंगलाचरण के बाद प्रस्तुत ग्रन्थ और इससे पहले की टीकाओं सम्बन्धी निम्नोक्त विवरण दिया गया है। "छप्पयं छन्द में नाभाजी ने भक्तमाल बनाया। यह माला भक्तजन मरिणगण से भरा है। जिसने हृदय में धारण किया तिसने भगवत को पहिचाना, ऐसी यह माला है। श्री प्रियादासजी माध्वसम्प्रदाय के वैष्णव श्री वृन्दावन में रहते थे। उन्होंने कवित्व में इस भक्तमाल की टीका बनाई। उनके पश्चात् लाला लालजीदास ने सन् ११५८ हिजरी में पारसी में प्रियादासजी के पोते वैष्णवदास के मत से तर्जुमा किया व तर्जुमे का नाम 'भक्तोर्वशो' धरा। यह रहने वाले कांधले के थे, लक्ष्मणदास Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल च ] नाम था। मथुरा की चकलेदारी में सत्संग प्राप्त हुआ। हितहरिवंशजी की गद्दी के सेवक हुये, लालजीदास नाम मिला। राधावल्लभलालजी के उपासक हुये। दूसरा तर्जुमा एक और किसी ने किया है नाम याद नहीं है तीसरा तर्जुमा लाला गुमानीलाल कायस्थ रहने वाले रत्थक के, संवत् १९०८ में समाप्त किया। चौथा तर्जुमा लाला तुलसीराम रामोपासक लाला रामप्रसाद के पुत्र अगरवाले रहनेवाले मोरापुर अम्बाले के इलाके के, कलक्टरी के सरिश्तेदार। उस मूल भक्तमाल और टीका को संवत् १९१३ में बहुत प्रेम व परिश्रम करके शास्त्र के सिद्धान्त के अनुसार बहुत विशेष वाक्यों सहित अति ललित पारसी में उर्दू वाणी लिये हुए तर्जुमा करके चौवीस निष्ठा में रच के समाप्त किया। संवत् उन्नीस सौ सत्रह १९१७ श्रावण के शुक्ल पक्ष में पड़रौना ग्राम में जो श्यामधाम में मुख्य भगवद्धाम है तहाँ श्री राधाराजवल्लभलालजी ठाकुर हिंडोला झूल रहे थे। उसी समय 'उमेदभारतो' नामक सन्यासी रहने वाला ज्वालामुखी के जो कोटकांगड़े के पास है, भक्तमालप्रदीपन नाम पोथीं, जो पंजाब देश में अम्बाले शहर के रहने वाले लाला तुलसीराम ने जो पारसी में तर्जुमा करके भक्तमालप्रदीपन नाम ख्यात किया है, तिसको लिये हुये आये। उनके सत्कार व प्रेमभाव से पोथी हम ईश्वरीप्रतापराय को मिली। जब सब अवलोकन कर गये तो ऐसा हर्ष व आनन्द चित्त को प्राप्त हुआ कि वर्णन नहीं हो सकता। साक्षात् भगवत् प्रेरणा करके मनवांछित पदार्थ को प्राप्त कर दिया। व लाला तुलसीराम के प्रेम व परिश्रम की बड़ाई सहस्रों मुख से नहीं हो सकती। कुछ काल उसके श्रवण व अवलोकन का सुख लिया, तब मन में यह अभिलाषा हुई कि इस पोथी को देवनगरी में भाषान्तर अर्थात् तर्जुमा करें कि जो फारसी नहीं पढे हैं उन सब भगवद्भक्तों को आनन्ददायक हो, सो थोड़ा २ लिखते २ तीसरे वर्ष संवत् उन्नीस सौ तेईस १६१३ अधिक ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को श्री गुरुस्वामी व भगवद्भक्तों की कृपा से यह भक्तमाल नाम ग्रन्थ सम्पूर्ण व समाप्त हुआ, व चौवीस निष्ठा में सत्रह विष्ठा तक तो ज्यों का त्यों क्रमपूर्वक लिखा गया परन्तु अठारहवीं निष्ठा से भक्तिरस के तारतम्य से क्रम में लगाकर इस ग्रन्थ में लिखा है। प्रथम (१) धर्मनिष्ठा जिसमें सात उपासकों का वर्णन और (२) दूसरी भागवतधर्मप्रचारक निष्ठा तिसमें बीस भक्तों को वरणन, तीसरी (३) साधुसेवा निष्ठाव सत्संगातिसमें पन्द्रह भक्तों की कथा, चौथी (४) श्रवण महात्म्य निष्ठा में ४ भक्तों की कथा और पांचवी (५) कीर्तन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका [ छ निष्ठा में १५ भक्तों को कथा है, छठई (६) भेषनिष्ठा तिसमें आठ भक्तों की कथा, सातई (७) गुरुनिष्ठा तिसमें ग्यारह भक्तों की कथा, पाठई (८) प्रतिमा व अर्चानिष्ठा तिसमें पन्द्रह भक्तों की कथा, नवई (8) लीला अनुकरण जैसे "रासलीला राम लीला" इत्यादि तिसमें छहों भक्तों की कथा, दसवीं (१०) दया व अहिंसा तिसमें छवों भक्तों की कथा, ग्यारहवीं (११) व्रतनिष्ठा तिसमें दो भक्तों की कथा, बारहवीं (१२) प्रसाद निष्ठा तिसमें चार भक्तों की कथा, तेरहवीं (१३) धामनिष्ठा तिसमें पाठ भक्तों की कथा, चौदहवीं (१४) नामनिष्ठा तिसमें पाँच भक्तों को कथा, पन्द्रहवीं (१५) ज्ञान व ध्याननिष्ठा तिसमें बारह भक्तों की कथा, सोलहवीं (१६) वैराग्य व शान्तनिष्ठा तिसमें चौदह भक्तों की क्था, सत्रहवीं (१७) सेवानिष्ठा तिसमें दश भक्तों की कथा, अठारहवीं (१८) दासनिष्ठा तिसमें सोलह भक्तों की कथा, उन्नीसवीं (१९) वात्सल्यनिष्ठा तिसमें नव भक्तों की कथा, बीसवीं (२०) सौहार्दनिष्ठा तिसमें छवों भक्तों की कथा, इक्कीसवीं (२१) शरणागती व आत्म-निवेदन निष्ठा तिसमें दस भक्तों की कथा, बाइसवीं (२२) सख्यभावनिष्ठा तिसमें पाँच भक्तों की कथा, तेइसवीं (२३) शृंगार व माधुर्यनिष्ठा तिसमें बीस भक्तों की कथा, चौबीसवीं(२४) प्रेमनिष्ठा तिसमें सोलह भक्तों की कथा का वर्णन लिखा गया।" ६. बालकराम कृत भक्तदाम-गुणचित्रणी टीका-इसकी एक प्रति उदयपुर के सरस्वती भण्डार में है। ४५८ पत्रों को यह प्रति सं० १९३२ की लिखी हुई है। बालकराम ने टीका के अन्त में अपना परिचय देते हुए लिखा है कि रामानुज की पद्धति में रामानन्द हुये उनके पौत्र-शिष्य श्रीपयहारी को प्रणाली में सन्तदास के शिष्य, खेम के शिष्य प्रहलाददास और मीठारामदास हुये। उनके शिष्य बालकदास ने यह टीका बनाई है। डॉ. मोतीलाल मेनारिया ने इसके संबंध में लिखा है कि "नाभाजी के भक्तमाल की यह एक बहुत बड़ो, सरस और भावपूर्ण टीका है। इसमें दोहा, छप्पय आदि कई प्रकार के छन्दों में वर्गन किया गया है, पर अधिकता चौपाई छन्द की ही है। हिन्दी के भक्त कवियों के विषय में नाभादास ने, अपने भक्तमाल में जिन-जिन बातों पर प्रकाश डाला है, उनके अलावा भी बहुत-सी नयी बाते इसमें बतलायी गई हैं और इसलिये साहित्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के साथ-साथ वह संत महात्मानों के इतिहास की दृष्टि से भी परम उपयोगी है। इसका रचनाकाल संवत् ८०० से ११५२तक का है। बालकराम की रचना कहने को नाभाजी के भक्तमाल की टीका है, पर वास्तव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल में इसे एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही समझना चाहिये। यह व्रजभाषा में है, जिस पर राजस्थानी का भी थोड़ा-सा रंग लगा है। कविता बहुत ही सरस और प्रवाहयुक्त है।" इसमें दिये हुये कबीर-चरित्र को मेनारियाजी ने अपने राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज, भाग १ में पूर्ण रूप से उद्ध त कर दिया है। इस ग्रन्थ की अन्य प्रति हिन्दी विद्यापीठ, आगरा के संग्रह में है, उसके अनुसार इसकी रचना सं० १८३३ के फाल्गुन एकादशी सोमवार को हुई है। ७. भक्तरसमाल-ब्रजजीवनदास, रचना सं० १९१४ । सन् १९०६ से १९११ की रिपोर्ट में इसका विवरण प्रकाशित हुया है । पंडित महावीरप्रसाद, गाजीपुर के संग्रह में इसकी प्रति है। विवरण में इसकी श्लोक संख्या ८५० बतलाने से यह बहुत ही संक्षिप्त मालूम देती है। ५. हरिभक्तिप्रकाशिका टीका-खेतड़ी निवासी हरिप्रपन्न रामानुजदास कायस्थ ने इसकी रचना की। जिसे पंडित ज्वालाप्रसाद मिश्र ने विस्तृत करके लक्ष्मी बैंकटेश्वर प्रेस से संवत् १६५६ में प्रकाशित की थी। भूमिका में श्री मिश्रजी ने लिखा है कि "उर्दू, भाषा, संस्कृत, छन्दोबद्ध आदि कई प्रकार की भक्तमाल इस समय मिलती हैं तथा एक इसी भक्तमाल को दोहे-चौपाई में मैंने भी रचना किया है, जो अभी तक प्रकाशित नहीं हुई है।" संवत् १९५५ मुरादाबाद में मिश्रजी ने इस हरिभक्तिप्रकाशिका टीका को नये रूप से लिखके पूर्ण की। ७७६ पृष्ठों का यह ग्रन्थ अवश्य ही महत्वपूर्ण है। हिन्दी पुस्तक-साहित्य' में रामानुजदास कृत हरिभक्तिप्रकाशिका टीका का उल्लेख है। ६. भक्तिसूधास्वादतिलक-इस की रचना अयोध्या निवासी श्री सीतारामशरण भगवानप्रसाद रूपकला ने संवत् १९५० के बाद की है। मूल भक्तमाल व प्रियादास की टीका के साथ इसे संवत् १९५६ में काशी के बलदेवनारायण ने प्रकाशित की। इसका तोसरा संस्करण नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ से प्रकाशित हुआ। इसके अन्त में प्रियादास के पौत्र शिष्य वैष्णवदास रचित भक्त. माल महात्म्य भी छपा है । १००० पृष्ठों का यह ग्रन्थ अपना विशेष महत्व रखता है १०. सखाराम भीक्षेत कृत टीका-'हिंदी में उच्चतर-साहित्य'नामक ग्रन्थ के पृष्ठ ४८० में बम्बई से इसके प्रकाशन का उल्लेख है। इसी ग्रन्थ में तुलसीराम की टीका (?) मंबाउल उलूम प्रेस, सुहाना से प्रकाशित होने का उल्लेख है तथा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका [ झ भक्तमाल के कई संस्करण, (१) नृत्यलाल शोल, कलकत्ता, (२) पंजाब कानोमिकल प्रेस, लाहौर, (३) चश्म-ए-नूर प्रेस, अमृतसर का भी उल्लेख है। पर ये संस्करण मेरे देखने में नहीं आये। 'हिन्दी पुस्तक साहित्य' के पृष्ठ ५३ में तुलसीराम तथा हरिबख्स मुंशी की भक्तमाल का भी उल्लेख है। (११) मलूकदास लिखित भक्तमाल टीका-इसका विवरण सन् १९४१ से १९४३ की खोज रिपोर्ट के पृष्ठ १०५३ में छपा है। ना० प्र० सभा, काशी के पुस्तकालय में संवत् १९६२ की लिखी २६० पत्रों की प्रति है। मलूकदास बैष्णवदास के शिष्य थे और छत्रपुर रियासत में रविसागर के निकट रहते थे। उक्त खोज रिपोर्ट के पृष्ठ १०५२ में भक्तचरितावली ग्रन्थ का विवरण छपा है जिसमें पौराणिक-चरितों का अभाव है । पर महाराजा बदनसिंह, विजयसिंह, शिवराम भट्ट आदि १९वीं शताब्दी के भक्तों का वर्णन भी है। ग्रन्थ खण्डित है। ग्रन्थ की शैली भक्तमाल के समान प्रौढ न होते हुये भी उत्तम बतलाई गई है। (१२) जानकीप्रसाद की उर्दू टीका-पं० उदयशंकरजी शास्त्री की सूचनानुसार नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ से यह छप चुकी है। (१३) छप्पयों पर फारसी टीका-पं० उदयशंकरजी शास्त्री के कथनानुसार मन्नूलाल पुस्तकालय, गया में इसकी हस्तलिखित प्रति है। (१४) संस्कृत भक्तमाला-श्री चंद्रदत्त ने नाभादांस की भक्तमाल (एवं टीका) के आधार से संस्कृत-पद्य-बद्ध इस ग्रन्थ को बहुत विस्तार से लिखा है। इसके तीन खण्ड-विष्णु, शिव और शक्ति में से केवल विष्णु खण्ड ही ६,७०० श्लोक परिमित वेंकटेश्वर प्रेस से छपा हुपा हमारे संग्रह में है। श्री बाल गणक कृत और जयपुर नरेश की प्रेरणा से रचित दो अन्य संस्कृत भक्तमाल का उल्लेख वृन्दावन से प्रकाशित भक्तमाल के पृष्ठ ६५७ में है ।। (१५) भक्ति-रसायनी व्याख्या-श्री रामकृष्णदेव गर्ग को यह आधुनिक व्याख्या वृन्दावन से सन् १९६० में प्रकाशित हुई है। इसमें भक्तमाल व प्रियादास की टीका भी दी गई है। करीब १००० पृष्ठ का यह ग्रन्थ भी विशेष महत्त्व का है। इसके प्रारम्भ में श्री उदयशंकर शास्त्री ने प्रियादास के बाद उनके पौत्र वैष्णवदास रचित 'भक्ति-उर्वशो' टोका का उल्लेख करते हुये वैष्णवदासजी को मथुरा में किसी सरकारी पद पर होना बतलाया है। तीसरी टीका संवत् १८६८ में रोहतक के निवासी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ञ ] भक्तमाल लाला गुमानीराम ने की है। 'वात्तिक-प्रकाश' नामक टीका अयोध्या के महात्मा रसरंगमणि ने बनाई, जो रामोपासक सन्तों में प्रसिद्ध हुई। श्री मार्तण्ड बुबा ने सं० १९३३ में मराठी भाषा में छन्दोबद्ध टीका की, लिखा है। वृन्दावन से प्रकाशित श्री भक्तमाल के पृष्ठ ६५५ में लिखा है-"मार्तण्ड बुअा कृत 'भक्त-प्रेमामृत' नामक मराठी टीका, जो सं० १९३८ में पूर्ण हुई, सं० १९८४ में चित्रशाला छापाखाना में मुद्रित हुई है। मराठी में महीपति कृत 'भक्त-लीलामृत', महीपति बुआ कृत 'भक्ति-विजय' नामक ग्रन्थ भी उल्लेखनीय हैं। इनमें से 'भक्ति-विजय' में नाभाजी की भक्तमाल को भाषा ग्वालियेरी बतलाई है। 'हिन्दी को मराठी सन्तों को देन' शोध-प्रबन्ध में 'भक्ति-विजय' १७ वीं शताब्दी में रचित बतलाने से यह उल्लेख महत्त्वपूर्ण है। (१६) बंगला भक्तमाल-लालदास या कृष्णदास बाबाजी रचित । 'हिन्दी और बंगाली वैष्णव कवि' नामक शोध-प्रबन्ध में रत्नकुमारी ने इसका विवरण देते हुये लिखा है-"बंगला के दो कवियों ने भक्तमाल का अनुकरण किया। ये दोनों हो १६ वीं शती के परवर्ती कवि हैं। एक तो लालदास या कृष्णदास बाबाजी रचित ग्रन्थ है, जिसका नाम भी श्री भक्तमाला ही है। इसमें मूल हिन्दी छप्पय देकर फिर उसका बंगला में भाष्य सा किया गया है। उन सम्पूर्ण भक्तों की नामावली तो 'बंगला भक्तमाल' में नहीं है, जो 'हिन्दी भक्तमाल' में है। थोड़े से मुख्य हिन्दी भाषा-भाषी वैष्णव-भक्तों का परिचय है। दूसरी रचना जगन्नाथदास कृत भक्तचरितामृत है। यह भी भक्तमाल का अवलम्बन लेकर रची गई है। ___ लालदास बाबा की उक्त भक्तमाल अविनाशचन्द्र मुखोपाध्याय सम्पादित पूर्णचन्द्र शील, कलकत्ता द्वारा बंगाब्द १३५० साल में प्रकाशित हो चुकी है। (१७) गुरुमुखी भक्तमाल-कीतिसिंह रचित इस ग्रन्थ का उल्लेख वृन्दावन से प्रकाशित भक्तमाल के पृष्ठ ६५६ में किया गया है। (१८) अरिल-भक्तमाल-१४२ अरिल छन्दों में रचित इस भक्तमाल को प्रति गोस्वामी गोवर्द्धनलाल, राधारमण का मंदिर त्रिमुहानी, मिर्जापुर में है। + दुर्गादास लाहिड़ी सम्पादित कलकत्ते से (प्रथम संस्करण बंगाब्द १३१२), द्वितीय संस्करण १३२० में प्रकाशित हुमा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका [ ट व्रजजीवनदास की (मांझा ) भक्तमाल ( इश्कमाला) के साथ ही इसका उल्लेख उक्त श्री भक्तमाल ग्रन्थ के पृष्ठ ६५८ में एवं खोज रिपोर्ट में छपा है | (१९) भक्तमाला - रामरसिकावली - श्री रघुराजसिंह रचित यह महत्त्वपूर्ण और बड़ा ग्रन्थ लक्ष्मी वैंकटेश्वर प्रेस से सं० १९७१ में छपा था । इसकी पृष्ठ संख्या उत्तर चरित्र के साथ ६८६ है । (२०) भक्तमाल के अनुकरण में संवत् १८०७ में हँसवा (फतेहपुर) के चन्ददास ने भक्तविहार नामक ग्रन्थ की रचना की । इस तरह की और भी अनेक रचनायें हैं । जिनमें दुःखहरण की भक्तमाल का उल्लेख 'उत्तर भारत की सन्त परम्परा' और मांझा भक्तमाल का उल्लेख 'खोज विवरण' में पाया जाता है । (२१) उत्तरार्द्ध भक्तमाल -- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने इसकी रचना की है । 'कल्याण' के भक्त चरितांक के प्रारम्भ में नाभादास की भक्तमाल के बाद इसे भी दे दिया गया है । गोस्वामी राधाचरण तथा गोपालराय कवि वृन्दावन वाले ने एक भक्तमाल बनाई है । उपरोक्त तीनों रचनायें २० वीं शताब्दी की हैं । इससे स्पष्ट है कि नाभादास की भक्तमाला का अनुकरण आज तक होता रहा है। गुजरात, पंजाब, महाराष्ट्र, बंगाल, आदि प्रदेशों में भी भक्तमाल का बड़ा प्रचार रहा है। अब विभिन्न सम्प्रदायों की भक्तमालों का संक्षित विवरण दिया जा रहा है । दादूपंथी सम्प्रदाय १. जग्गाजी रचित भक्तमाल दादू शिष्य जग्गाजी रचित भक्तमाल, जिसमें केवल भक्तों की नामावली दी है, ६ε चौपाई छन्दों में है । उसकी प्रतिलिपि स्वामी मंगलदासजी ने अपने हाथ से करके मुझे भेजी है । उसमें पुराने भक्तों की नामावली ३२ पद्यों में देने के बाद दादूजी के शिष्य आदि संतों के नाम साढ़े पैंसठ पद्यों तक में ठूंस-ठूंस के भर दिये हैं । यह भक्तमाल प्रस्तुत ग्रन्थ के परिशिष्ट नं० २ में दे दी गई हैं । २. चैनजी की भक्तमाल १ पद्यों की इस भक्तमाल की प्रतिलिपि भी स्वामी मंगलदासजी ने स्वयं करके भेजी है । इसमें भी संतों एवं भक्तों की नामावली ही दी है। अंतिम भक्तमाल के मूल पद्यों और नये तथ्यों के सम्बन्ध में मेरा एक लेख "सप्त सिन्धु" में शीघ्र ही प्रकाशित होगा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठ] भक्तमाल उपसंहार का पद्य प्राप्त प्रतिलिपि में नहीं है । यह भक्तमाल भी प्रस्तुत ग्रन्थ के परिशिष्ट नं० ३ में दे दी गई है । ३. राघवदास की भक्तमाल प्रस्तुत दादूपंथी कवियों में राघवदास ने ही सब से बड़ी और महत्त्वपूर्ण भक्तमाल बनाई । नाभादास की भक्तमाल के बाद यही सर्वाधिक उल्लेखनीय रचना है । सं० १७१७ में इसकी रचना हुई है । अब से ४८ वर्ष पूर्व इस रचना का परिचय श्री चन्द्रिकाप्रसाद त्रिपाठी ने सरस्वती पत्रिका के अक्टूबर सन् १९१६ के अंक में प्रकाशित 'दादूपंथी सम्प्रदाय का हिन्दी साहित्य' नामक लेख में दिया था । उनका दिया हुआ विवररण इस प्रकार है "स्वामी दादूदयाल के सम्प्रदाय में एक सन्त राघवदासजी हो गये हैं । उन्होंने भक्तमाल नाम का एक ग्रन्थ रचा है । उसमें शिवजी, अजामिल, हनुमान्, विभीषण आदि से लेकर जितने भक्त हुए हैं, सब का वृतान्त पद्य में दिया है । इस ग्रन्थ में १७५ भक्तों के चरित्र हैं और निम्नलिखित चार सम्प्रदाय और द्वादश पंथ शामिल हैं - - ( १ ) स्वतन्त्र भक्त ३१ । (२) चार सम्प्रदायी भक्त - (क) रामानुज सम्प्रदाय के १० भक्त । (ख) विष्णुस्वामी सम्प्रदाय के ६ भक्त । ( ग ) मध्वाचार्य सम्प्रदाय के १५ भक्त । (घ) निम्बादित्य सम्प्रदाय के ६ भक्त । (३) द्वादस पंथी -- ( क ) षट्दर्शन, सन्यासी, योगी, जङ्गम, जैन, बौद्ध, अन्यान्य । (ख) समुदायी भक्त ४० । (ग) चतुःपन्थी गुरु नानक साहब पन्थ, कबीर साहब के पन्थ के दादूदयाल के पंथ के, निरञ्जन के पंथ के । (घ) माधौकारणी । (ड़) चारण । इस ब्योरे से विदित हो जावेगा कि भारतवर्ष की सम्पूर्ण सम्प्रदायों से दादूपन्थियों का मेल है । " ४. चाररण ब्रह्मदासजी की भक्तमाल राजस्थानी भाषा में रचित ६ भक्तमालों का समूह राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से प्रकाशित हो चुका है । ब्रह्मदासजी दादूपंथी साधु थे, उनका समय सं० १८१६ के लगभग का है। Jain Educationa International t लघु भक्तमाल के नाम से इसकी १ हस्तलिखित प्रति उदयपुर सरस्वती भण्डार में है, उससे मिलान करने पर कुछ नये पद्म मिलने की सम्भावना है। For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका रामस्नेही सम्प्रदाय (१) रामदासजी रचित भक्तमाल १७६ पद्यों की है। जिनमें से १२४ चौपाइयों में अनेक संत एवं भक्तों के नाम दिये गये हैं । यह रचना 'श्री रामस्नेही धर्मप्रकाश' नामक ग्रंथ में सन् १९३१ में प्रकाशित हुई थी । पुनः " श्री रामदासजी की वाणी" में भी प्रकाशित हो चुकी है । अब २. रामदासजी के शिष्य दयालदासजी ने एक विस्तृत भक्तमाल सं० १८६१ में बनाई है जिसमें सभी प्रचलित पंथों के महात्मानों का निरूपण किया गया है। इस ग्रन्थ का आवश्यक विवरण मैंने अपने अन्य लेख में दिया है । [ ड ३. रामस्नेही सम्प्रदाय की रैण शाखा (दरियावजी की) के सुखशारणजी भक्तमाल की रचना सं० १६०० में की, जिसका परिमाण १७३५ श्लोकों का है । यह अभी-अभी स्वामी युक्तिरामजी, जोधपुर से प्रकाशित 'श्री सन्तवाणी' ग्रन्थ के पृष्ठ १३९ से ३०६ में प्रकाशित हो चुकी है। निरञ्जनी सम्प्रदाय महात्मा प्यारेरामजी ने सं० १८८३ में भक्तमाल की रचना की । इसका विवरण देते हुए स्वामी मंगलदासजी ने अपनी सम्पादित "श्री महाराज हरिदासजी की वाणी" में लिखा है - कि "इस भक्तमाल की रचना मोरिड़ में हुई । प्यारेरामजो अपने गुरु की प्राज्ञा से इसकी रचना की । अवतारों का निरूपण करने के बाद खेमजी, चत्रदासजी, पोकरदासजो, दयालदासजी, सेवादासजी, अमरपुरुषजी व दर्शनदासजी तक का निरूपण किया है । पश्चात अन्य भक्तों का विवेचन किया है । २०४ मनहर कवित्त इस भक्तमाल के हैं, अन्त में ४ दोहे हैं ।" इसकी प्रतिलिपि हमारे संग्रह में भी है | राधावल्लभ सम्प्रदाय (१) गोस्वामी हितहरिवंश के शिष्य ध्रुवदासजी ने "भक्तनामावलि" नामक ग्रंथ की रचना की; जिसमें १२३ व्यक्तियों की नामावली दी हुई है । मूल ग्रंथ ११४ पद्यों का है । इसे श्री राधाकृष्णदास ने बहुत अच्छे रूप में टिप्पणी सहित सम्पादित करके सन् १६२८ में प्रकाशित किया, जो नागरी प्रचारिणी सभा, काशी से अब भी प्राप्त है । ध्रुवदासजी की अनेक रचनाओं में से " सभा - मंडली” में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल 8 ] १६८१ 'वृन्दावनशत' में १६८६ और 'रहसिमंजरी' में १६९८ रचना काल दिया है। इससे उक्त "भक्त-नामावलि" को रचना नाभादास की भक्तमाल के थोड़े वर्षों के बाद ही हुई प्रतीत होती है। (२) रसिक अनन्यमाल-भगवत मुदित रचित इस ग्रंथ का प्रकाशन वृन्दावन से हो चुका है। इसका सम्पादन श्री ललताप्रसाद पुरोहित ने किया है। इसमें ३४ व्यक्तियों की परिचयी पाई जाती है। इसका रचना काल सं० १७०६ से १७२० के मध्य का बतलाया गया है। - इसकी पूर्ति रूप में उत्तमदासजी ने अनन्य-माल की रचना की । वल्लभसम्प्रदाय की ८४, २५२ वैष्णवन की वार्ता भी इसी तरह की गद्य रचनाएँ हैं। गौड़ीय-सम्प्रदाय देवकीनन्दन कृत वैष्णव-वन्दना-वैष्णव-वंदना में अनेक वैष्णवभक्तों की वंदना की गई है। इन व्यक्तिों की जीवनो पर तो विशेष प्रकाश इस रचना से नहीं पड़ता, नाम बहुत से मिल जाते हैं। यही इसका ऐतिहासिक मूल्य है। यह रचना अत्यन्त लोकप्रिय है। ___ माधवदास कृत वैष्णव-वंदना-इस रचना का प्रचार उस वैष्णव-वंदना की अपेक्षा, जो देवकीनन्दन की रचना है, कम है। बंगीय साहित्य-परिषद् ने शिवचन्द शील द्वारा सम्पादित इस रचना को १३१७ बंगाब्द (१९१० ई०) में प्रकाशित किया है। इसमें श्री चैतन्य, नित्यानंद, अद्वैत, हरिदास, श्रीनिवास, रामचन्द्र कविराज, मुरारिगुप्त, वासुदेव इत्यादि का उल्लेख है। रामोपासक-सम्प्रदाय रसिकप्रकाश-भक्तमाल-इसकी रचना छपरा निवासी शंकरदास के पुत्र एवं अयोध्या के श्री रामचरणजी के शिष्य जीवाराम (जुगलप्रिया) ने संवत् १८६६ में की। इसमें रामोपासक रसिक-भक्तों का इतिवृत्त संग्रह किया गया है। उनके शिष्य जानकीरसिकशरणजी ने सं० १९१९ में रसिक-प्रबोधिनी नामक टीका लिखी। २३५ छप्पय और ५ दोहों के मूल ग्रन्थ पर ६१६ कवित्तों में यह टोका पूर्ण हुई है। उक्त रसिक-प्रकाश भक्तमाल, लक्ष्मण किला अयोध्या से प्रकाशित हो चुकी है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका हितहरिवंश-सम्प्रदाय श्री उदयशंकर शास्त्री ने श्री कृष्ण पुस्तकालय विहारीजी के मन्दिर के पास, वृन्दावन से प्रकाशित “केलिमाल" नामक ग्रन्थ की सूचना दी है, जो हितहरिवंश सम्प्रदाय के भक्तों के सम्बन्ध में है तथा आगरा से प्रकाशित (भारतीय-साहित्य वर्ष ७ अंक १ में) भक्त-सुमरणी-प्रकाश, महषि शिवव्रतलाल रचित सन्तमाल, ( संत नामक पत्रिका के ३ जिल्दों में प्रकाशित ) और खांडेराव रचित भक्त-विरुदावली ( खंडित रूप में हिन्दी विद्यापीठ आगरा के संग्रह में ) प्रादि रचनाओं की जानकारी भी दी है, पर ये ग्रन्थ मेरे अवलोकन में नहीं आये। जैन-धर्म में भक्तमाल जैसी रचनाओं की परम्परा जैन-धर्म म सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र को मोक्ष का मार्ग बतलाया है। सम्यक् दर्शन को सर्वाधिक महत्त्व देने पर भी सम्यक् चारित्र अर्थात् प्राचार को हो प्रधानता दी गई दिखाई देती है। अतः सम्यक् चारित्र की आराधना करने वाले तीर्थंकरों व मुनियों के प्रति विशेष आदर व्यक्त किया गया है। उनके नामस्मरण, गुण-स्तुति और दैत्य-निरूपण सम्बन्धी जैन-साहित्य बहुत विशाल है। नाभादास की भक्तमाल की तरह तीर्थंकरों व मुनियों के नाम स्मरणपूर्वक उनको वन्दना करने वाली रचनायें 'साधु-वन्दना' के नाम से प्राप्त होती हैं। १६ वीं शताब्दी से लेकर २० वीं शताब्दी तक साधु-वन्दना या मुनि-नाममाला जैसी रचनाओं की परम्परा बराबर चली आ रही है। १६ वीं शताब्दी के कवि विनयसमुद्र और पार्श्वचन्द्र की साधु-वन्दना प्राप्त है। १७ वीं शताब्दी के प्रारम्भ के कवि ब्रह्म, विजयदेवसूरि, पुण्यसागर, कुंवरजी, नयविजय, केशवजी, श्रोदेव, समयसुन्दर आदि कवियों की साधु-वन्दना नामक रचनायें प्राप्त हैं। इनमें से समयसुन्दर की रचना सबसे बड़ी है। ५६१ पद्यों को इस साधु-वन्दना को रचना सं० १६९७ अहमदाबाद में हुई है। १८ वीं शताब्दी के कवि यशोविजय और देवचन्द्र तथा १६ वीं शताब्दी के कवि जयमल रचित साधु-वन्दना छप चुकी हैं। माला या मालिका संज्ञक रचनाओं में खरतर-गच्छीय कवि चारित्रसिंह रचित मुनिमालिका स० १६३६ की रचना है, जो हमारे प्रकाशित 'अभय-रत्नसार' में छप चुकी है। २० वीं शताब्दी के मुनि ज्ञानसुन्दर रचित मुनि-नाममाला भो प्रकाशित हो चुकी है, उसमें करीब ७५० मुनियों के नाम हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल इस प्रकार हम देखते हैं कि सन्त एवं भक्तजनों के नामों के संग्रह रूप या उनके चरित को संक्षिप्त या विस्तार से प्रकट करने वाली रचनाओं की परम्परा बहुत लम्बी है। जैन, जैनेतर सभी धर्म-सम्प्रदायों में ऐसी रचनायें बनाई गई हैं। उनमें से बहुत-सी रचनाओं का तो अच्छा प्रचार रहा है। छोटी-छोटी रचनाओं को तो लोग नित्य-पाठ के रूप में पढ़ते रहते हैं। महान् पुरुषों के जीवन से प्रेरणा मिलती रहती है। अतः ऐसी रचनाओं का विशेष महत्त्व है। प्रस्तुत राघवदास की भक्तमाल भी इसी परम्परा की एक विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण रचना है। उसी के सम्पादन प्रसंग से ऐसी ही अन्य रचनाओं की परम्परा की कुछ जानकारो यहाँ विशेष प्रयत्नपूर्वक देदी गई है। ___ अब प्रस्तुत संस्करण में प्रकाशित "भक्तमाल" के रचयिता राघवदास व उनकी रचनाओं का स्वामी मंगलदासजी से प्राप्त विवरण दिया जा रहा है। राघोदासजी दादूजी महाराज के प्रमुख बावन शिष्यों में बड़े सुन्दरदासजी व प्रह्लाददासजी का समुचित निरूपण है; जैसा कि भक्तमाल टीकाकार चत्रदासजो ने व स्वयं राघोदासजी ने ५२ शिष्यों के निरूपण प्रसंग में "सुन्दर प्रह्लाददास घाटडे सु छींड मधि" (दे०पृ० २७०) ऐसा उल्लेख किया है । किन्तु जहाँ दादूपम्थ का विवरण है, वहाँ प्रह्लाददासजी का विवरण पोता-शिष्यों में है । स्वयं प्रह्लाददासजी ने अपनी वाणी की रचना में सुन्दरदासजो महाराज को गुरु माना है । इस विवरण से (१) दादूजी, (२) सुन्दरदासजी (बड़े), (३) प्रह्लाददासजी, . (४) हरीदासजो (हापौजो), (५) राघोदासजी-यह क्रम है। राघोदासजी का जन्म सत्रहवीं सदी के उत्तरार्द्ध का होना चाहिये। वे सत्रहवीं सदी के अन्तिम चरण में हरीदासजी के शिष्य हुये हैं। उनकी रचना का काल अट्ठारहवीं सदी है। राघोदासजी ने दादूजी की परम्परा में शिष्यों तथा पोता-शिष्यों का भक्तमाल में वर्णन किया है। इससे सिद्ध होता है कि उनके जीवन-काल में जो प्रशिष्य मौजूद थे, उन्हीं तक का निरूपण भक्तमाल में आया है । . वे किस सम्वत में किस स्थान में उत्पन्न हये? यह ज्ञात नहीं होता। प्रह्लाददासजी महाराज घाटडेव में विराजते थे, वहीं उनको चरणपादुका व छत्री आज भी मौजूद है। यह स्थान पहिले अलवर स्टेट में था, अब वह शायद अलवर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका जिले में सम्मिलित हो। राजगढ़ से रहले तथा रहले से घाटडे जाया जाता है। अब भी घाटडे में प्रह्लाददासजी महाराज की परम्परा का मान्य स्थान है, जिस परम्परा में इस समय महन्त पाशारामजी विद्यमान हैं। प्रह्लाददासजी के कई शिष्य हुये थे, उन्हीं में प्रमुख थे हरिदासजी महाराज। इन्हीं के अनेकों शिष्यों में अन्यतम शिष्य राघोदासजी हुये हैं। ये पीपावंशी चांगल गोत में उत्पन्न हुये थे। इनके पिता का नाम हरिराज तथा माता का नाम रतनाई था। शायद इनकी बहन का नाम केसीबाई था। इन्हीं को प्रेरणा से इन्होंने शिकार तथा मद्य-मांस का परित्याग किया था, जैसा कि इनने स्वयं उल्लेख किया है :-- नमो तात हरिराज नमो रतनाई माई। जीव वध मद मांस छुडायो केसीबाई । सत संगति गति ग्यांन ध्यान धुनि धर्म बतायो। हरीदास परमहंस परष पूरो गुरु पायो । राघो रज मो पायक रामरत उमग्यो हियो। दादूजी के पंथ को तव ही तनक वर्णन कियो ॥३५॥ चौपाई पीपावंशी चांगल गोत। हरि हिरदै कोनो उद्योत ॥ भक्तिमाल कृत कलिमल हरणी। प्रादि अन्त मध्य अनुक्रम वरणी॥ साध संगति सति स्वर्ग निसेरणी। जन राघव प्रगतिन गति देरणी॥ उक्त संदर्भ से उपरोक्त विवरण की पुष्टि होती है। राघोदासजी घाटडे से फिर "उदई" ग्राम चले गये थे। वहीं उनका समाधि-स्थान है। राघोदास जी के पश्चात् उनकी परम्परा में महात्मा कुखदासजी सिद्ध पुरुष हुये। करोली नरेश उनमें अत्यन्त श्रद्धा रखते थे। करोली में महाराज कुञ्जदासजी का स्थान आज भी 'कुञ्ज' के नाम से प्रसिद्ध है। कुञ्जदासजी के पश्चात् राघोदासजी की परम्परा का स्थान करोली में ही आ गया। 'उदई' की जमीन आदि सब अब इसो स्थान के अधीन है। वर्तमान में, राघोदासजी की परम्परा का यही स्थान है। महाराज करोली ने एक ग्राम भी कुंजदासजी महाराज को समर्पित किया था, जो राजस्थान के एकीकरण होने से पहिले तक 'कुंज' के महन्तजी के अधिकार में था। महाराज राघोदासजी अच्छे सुशिक्षित व कवि-गुणों से विभूषित थे-यह उनकी रचना से स्पष्ट है। उन्होंने महाराज प्रह्लाददासजी की प्रेरणा से प्रेरित हो "भक्तमाल" की रचना को थी, जैसा कि टीकाकार चत्रदासजी व्यक्त करते हैं: Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल मनहर अग्र गुरु नाभाजू कं प्राज्ञा दिन्ही कृपा करि, प्रथम ही साषी छपै कोन्ही भक्तमाल है। तैसे ध्र प्रहलादजु विचार कही राघो जु सौं, करौ सन्त-प्रावली सु वात यो रसाल है। लई मान करी जान घरे पान भक्त सब, निर्गुण सगुण षट-दरशन विशाल है। साषी छप्पै मनहर इन्दव अरेल चौपे, निसानी सवईया छंद जान यों हंसाल है ॥ राघोदासजी ने भक्तमाल की समाप्ति पर कालज्ञापक दोहा भी लिखा है - दोहा सम्वत् सत्रहै सै सत्रहोतरा, शुक्ल पक्ष शनिवार । तिथि तृतिया अषाढ़ की, राघो कियो उचार ॥ सत्रह से सत्रोहतरे से १७७७ तो स्पष्ट प्रतीत होता है। पुरोहित हरिनारायणजी ने 'सुन्दर ग्रन्थावली' की भूमिका में सत्रह सो सत्रोहतरे को १७७० माना है। मेरी समझ से १७१७ ही अधिक उपयुक्त है, क्योंकि भक्तमाल में प्रशिष्यों तक का हो उल्लेख है। १७७० सम्वत् यदि भक्तमाल की रचना का हो, तो तब तक तो प्रशिष्यों के भी प्रशिष्य हो गये थे। भक्तमाल का रचनाकाल अट्ठारहवीं सदी का प्रथम चरण ही संगतिपरक है। राघोदासजी ने भक्तमाल से भिन्न वारणी तथा लघु ग्रन्थों की भी रचना की है। उनकी वाणी में साषी, अरिल तथा पद भाग हैं। पद अंगों में १६३७ साषियें हैं। अरिल के १७ अंग हैं, तीन सौ सत्तर अरिल हैं। राग २६ में १७६ पद हैं। लघु ग्रन्थावली में, १ हरिश्चन्द्र सत, २ ध्रुव चरित्र, ३. गुरु-शिष्य सम्वाद, ४ गुरुदत्त रामरज, ५ पन्द्रहा तिथि विचार, ६ सप्तवार, ७ भक्ति जोग, ८ चिन्तामरिण ज्ञान निषेध है। १३ अंग कवित्तों के हैं, जिनमें करीब सवा-सौ कवित्त हैं। भक्तमाल से भिन्न रचनात्रों के कुछ उद्धरण नीचे दिये जाते हैं, जिनसे राघोदासजी के रचनाकार के रूप का और भी विशद परिचय प्राप्त होगा: वारणी अंग साषी भाग साध महिमा अंग गगन गिरासी विमल चित, अजर जरावरण हार। जन राघो वे सन्त जन, छन्द मुक्ति संसार ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका पारस रूपी पादुका, चम्बक रूपी बैन। राघो सुनि मृतक जिये, भागे मिथ्या दैन ॥५॥ मृतक लौचे (?) मुनि भज, देव करें पाराध । जन राघो जगपति खुसी, भक्ति उजागर साध ॥६॥ __ अंग विरक्तताई जे जन प्रासाजित भये, ता जन को जग दास । राघो जे आसा सुरत्त, ते करहिं जगत को पास ॥६॥ आसा तृष्णा जिन तजी, जे त्रिभुवन पुजि पीर । राघो शोभित अति खरे, हरि सुमरण कंठ होर ॥८॥ इन्द्रीजीत विज्ञान में, हृदं रह्यो हरि पूरि।। जन राघो रुचि राम सौं, माया निकट न दूरि ॥१२॥ शब्द को अंग वह पुदगल वह प्रांगण मन, वह नख नासा नैन । हाथ पांव पलटे नहीं, राघो पलट वैन ॥३॥ शब्दै हुँ निपजे साध, शब्द सु सेवग सोझिहिं । राघौ शब्द सु वस्तु, शब्द सु साहिब रीझिहिं ॥१०॥ राघो बोलत परखिये, बोल मनुष को मोल। . इक मुख तें मोती झडहिं, इक मुख सेती टोल ॥१७॥ उपदेश को अंग धर्म बडो धर ऊपर, जे करि जारणे कोइ। राघो जग में जस रहै, हरि दर कष्ट न होई ॥ ३॥ .प्रासा भंग प्रतीत को, गृह प्राये जे होइ । राघो सुकृत ले गये, अकृत जाइ समोह ॥१५॥ सत सुकृत दोऊ बडे, सत ते बडो न कोई। राघो सत तप रूप है, सत तें सब कुछ होइ ॥१८॥ भौ जल सिन्धु अगाध है, बूडत प्रदत प्रकाज । राघौ धन धर्मात्मा, बान्धी धर्म को पाज ॥२०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल न ] राघोदासजी को वाणी कलजुगो को अंग अरिल कलजुग कठिन कठोर न कसके पाप सौं। सुत शैतान्यां कर अवश मां बाप सौं॥ चेला गुरु सु गुप्त दुरावै दाम रे। परि हाँ ! राघौ छोडी रीति मिलें क्यों राम रे ॥ १॥ कलि अपने बल जीति राज अपनो थप्यो। तिन सौं वैर प्रसिद्ध राम जिन जिन जप्यौ ॥ हरिजन हरि की ओट सबल के पास रे। परि हाँ ! राघो कलि के रोर न पावै पास रे ॥ ४॥ कलि केवल हरि नाम रटत रोजी मिले। विघ्न दोष दुख द्रुमति होत विग्रह टलै ॥ और जुगनि मधि जोग जाप जप तप सरे। परि हाँ ! राघो कलि मधि राम जपत नर निसतरै ॥ ६॥ पाखंड प्रपंच झूठ कपट कलि मैं घनो। प्रदेख्यो अहंकार वहौत कहां लग गिनौं । परनिन्दा परद्रोह छिद्र पर नित तक। परि हाँ ! राघो राम विसारि अधम प्रानहि वकै ॥१०॥ चितावणी को अंग कोडीधज वाजार वैठते वांरिणयें। दुनियादार सराफ जगत मैं जॉरिणये ॥ होरा मोती लाल महर थेली भरी। परि हाँ ! राघो नाँव काम काल वरियां तुरो ॥ ३॥ कर कछु नेको नीति बदी बेराह तजि । परवरदिगार खुदाइ प्रेम परिपूर भजि ॥ करि लै खूवी खैर दुनी है पेखना । परि हाँ! राघौ दोजख भिश्त यहाँ ही देखना ॥१२॥ राम विना सब धन्ध अन्ध कछु चेत रे। तन मन धन सर्वस्व अर्प हरि हेत रे॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका प्रांन धर्म दिन चारि इरंड को मौरनो। परि हाँ ! राघो किती बुनियाद वांन को दौरनो ॥१९॥ यह चहल पहल दिन चारि दुनी की चिलक है। कनक कामनी रूप काम की किलक है। जन राघो रुचि राग कुरंग उर सर सह्यो। परि हाँ ! एसै जग को अग्नि अज्ञानी नर दह्यौ ॥२६॥ न्यायमार्गी अङ्ग हिन्दू के हद वेद रहै मर्याद मैं। खंड न खोटो खाय वस्त नहिं वाद मैं ॥ तज प्रसार गहि सार राम रस पीजिये। परि हाँ ! राघो जुक्ति विचारि जोग जिग कीजिये ॥४॥ मुसलमान मुस्ताक सरै के हक चले। हाथ न छुवै हराम रहै उजले पले ॥ हक हलाल टुक खुर्दनी जिकर फिकर विसियार । परि हाँ ! राघो खडा रहीम दर बन्दा है हुशियार ॥५॥ ज्ञान उपदेश को अङ्ग जैसी संगति कर तिसे फल प्राखिर पावै । कहत सयाने साध साषि पुनि प्रागम गावै ॥ मारण पडही मति जगत मैं जाग भागि जिन व्है सतौ। परि हाँ ! राघो रही रुचि राम सूं रैण दिवस धरि द्रढ़ मतौ ॥५॥ ग्यानी गुण की रास निर्गुण सौं व्है रहे । गहै शील सन्तोष. काम क्रोधहि दहे ॥ खिझे न रोझे चाह चित्र को पेखरणौ । परि हाँ ! राघो हर्ष न शोक तमासौ देखरणौ ॥११॥ धर्म कसौटी को अङ्ग पलक खूब दिन दोइ सुनो सब लोइ रे। तन धन अपना नांहि विछोहा होइ रे ॥ सत करि सुणवे जोग यहै इतिहास रे। परि हाँ ! राघो वित उनमान वांटियो गास रे ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ] भक्तमाल नर संसार श्रगम तन पाइ उपाइ तजि भूतागति भर्म धर्म कछु सुजस रहै श्रादर धरणौ । परि हाँ ! राघौ कर निहाल इष्ट भज श्रापणौ ॥५॥ विमुख जान जिन देहु प्रतिथि गृह वार थे। टूक गास घटि खाउ स्वकीय प्रहार थे ॥ सत मैं सुं सत वांटि सत्य हरि राखि है । राघो साषि है ॥१२॥ परि हाँ ! जन धर्मराइ धर्म की Jain Educationa International यहै गुरु बूझिये | कीजिये ॥ पद - राग - रामगिरी त्राहि त्राहि त्राहि नाथ हाथ गहो दास कौ । भीर परं धीर धरो टेहूं विरद तास कौ ॥ टेक ॥ काम क्रोध लोभ मोह गर्जत बजाये लौह, भूलि गयो ग्यांन ध्यान मारे डर तास कौ ॥१॥ त्रिगुण त्रिदोष भर्म प्रेरिकै करावे कर्म, काल यौं राघौ यौं पुकारे राम याही डर प्राठों नाम, पसारे गाल करनहार नाश कौ ॥२॥ पार सो न मारे हों तो पारचौ तेरे गास कौ ॥३॥ राम - टोडी सकल शिरोमणि नांव जरी । यो धसि लावं त्यौ सुख पावें, घट ही मांहे रहत परी ॥टेक॥ ज्यां सेती मृतक मुख बोल, श्रमृत भाखत चिन्त रहे नहिं कबहूँ, श्रातम पांचो तत्त तीनों सुरण तांतू, महौकम गांठ होत वस्त साचि धरी ॥ खोले सोई सपूत शिरोमणि, पावत बैठि इकान्त प्रारण जध राखे, निस दिन राघौ कहै लहै सोई गुरगमि, सुक्षम सुलभ खरी ॥३॥ राग - श्रासावरी हरि परदेश हूँ काहे देऊँ पाती, कोई न मिले एसा सजन संगाती ॥टेक॥ हा ! हा ! करि करि हौं हरि हारी, कोई न कहै मोहे वात तुम्हारी ॥१॥ श्रारति श्रजक बहुत उर मेरे, श्रहोनिस निस चात्रक ज्यूं टेरे ॥२॥ For Personal and Private Use Only गुणां भरी ॥ हरी ॥१॥ परी ॥ परी ॥२॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका [ व मो उर करंक काठ ज्यू वीझ, का जाणों हरि का विधि रीझै ॥३॥ जन राघो विरहनी विललावे, थाको रसना रांम कब आवै ॥४॥ राग-नट नारायण अब तौ भाई बनी जिय मेरे ! चित चकचाल काल के डर सें, कर्म दसौं दिस फेरै ॥टेक॥ त्रिगुरणधार पार परमेश्वर, चौथे गुण थें नेरे ॥ दीनानाथ हाथ दै अबक, करुणा करि करि टेरै ॥१॥ भयो भैकंप स जौनी सुनि के, दइया न्याव नवरै ॥ दाँवरणगीर दर्द नहिं समझे, लगे ही रहतु है कैरे ॥२॥ परिहरि पाप परमारथ कर लै, जो कछु हाथि है तेरे ॥ विन जगदीश जक्त मधि जोख्यौ, जैहै जम के डेरे ॥३॥ तीनों लोक सकल जल थल मधि, बंधे जीव मैं मेरे ॥ राघोदास राम अघमोचन, रट ज्यौं तोहि निवैरे ॥४॥ राग-सारंग ऐसो राम गरीबनिवाज है ! . भक्त वत्सल सरणाई समरथ, सारण जन के काज है ॥टेक॥ प्रादि अन्त मधि अखंड अहोनिशि, अनन्त लोक जा कौ राज है। सुर नर असुर नाग पशु पंछी, देत सबनि जल नाज है ॥१॥ रिधि सिधि भक्ति मुक्ति को दाता, पूर्णब्रह्म जहाज है। निर्बल को बल निर्धन को धन, वहत विरद की लाज है ॥२॥ कर्ता पुरुष अनातम प्रातम, सन्तन मध्य समाज है। राघौ तन मन करि नौछावर, मिलन महातम प्राज है ॥३॥ राग मलार मौज महाप्रभु तेरी हो ! खानांजाद इन्द्र से अधिपति, अष्ट सिधि नव निधि चेरी हो ॥टेक॥ तीन लोक ब्रह्मांड पचीसौं, एक शब्द सर्व साजे। सुर नर नाग पुरुष मुनिपतनि, रचि रचि रूप निवाजे ॥१॥ सूरति अनन्त सुभाव सुरति प्रति, शब्द भेद बहु वाणी।। मूर्ख चतुर निर्धन धनवन्त किये, करता पुरुष विनारणी ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल चतुरासि लषि सिरजि चराचर, रिजक सबनि को मेल । व्यापक ब्रह्म सकल जल थल मधि, जीव सीव संग खेले ॥३॥ विधि शंकर सनकादिक नारद, भक्त पारषद संगी। त्रिगुण रहित त्रयकाल कला प्रति, तारणतिरण त्रिभंगी ॥४॥ चार वेद चहुँ जुग जस गावत, पावत पार न कोई। राघौदास सुमरि निसवासर, यौं विन मुक्ति न होई ॥५॥ राग-मारु वचन वसे हिरदै गुरु के। परा परी वायक उन्नायक, कहे हुते धुर के ॥टेक॥ षदल चतुर अष्ट दश द्वादश, षोडस उभै मुहर के। ग्यांन ध्यान उनमान प्रापरणे, हरि हरि कहत निधरकै ॥१॥ अमृत भई अचानक अन्तर, अघ मेटे उर के। सोई प्रब साषि राषि मन माही, दास भये वा घर के ॥२॥ राम रमापति सुमर रैण दिन, भ्रम भंजन भव तर के। राघौ हाथ गहे उन हित करि, भाग उदै भये नर के ॥३॥ राग-सोरठि हरि अब अवधि पूगी प्राव ! काम निकल नहीं तुम विन, राखि बूडत नाव ॥टेक॥ महा विपति विदेश सांई, रहत चिन्ता ताव रे। मो अनाथ प्रतीतनी पर, करो राम पसाव ॥१॥ तरस मेटौ प्राइ मेटौ, विरहनी ऋतु दाव। पोव पावन जीव कीजे, परौं तेरे पाव ॥२॥ पपीहरा ज्यों प्रारण टेरे, अखंड एक लाव । दास राघौ कर विनती, सुनि विश्व भर राव ॥३॥ मनहर हरीश्चन्द्र सत विश्वामित्र चले जब हरिश्चन्द्र वेचन को, आजक अयोध्यापुरी नावं द्रष्टि देखनौ । राह मघि राहो कीन्हीं काल व्है कसौटी दई, अमित अगाध दुख नावै लिखि लेखनौ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भूमिका वर कियो विश्वामित्र विष्णुजी की प्राज्ञा पाय, त्राहि त्राहि त्राहि नाथ तीनों लोक पेखनो। राघौ कहै राम काम एसी विधि कीजिये तु, कासी के नखासै विक विप्र विण धेकनो ॥३०॥ राजा मोल लीयो काल दमन ही नामा डौम, कहर कसौटी नाम लेत लाज मरिये। जाचक के द्वार जल भरवायो हरिचन्द, धरम-धुरीण वैसे पालोकन करिये ॥ छितभुज छेत्रन को राख्यो रखवारो वनि, माया मौरण माथे धरि सन्ध्या प्रात भरिये। सेर चून पावे समसान भूमि भोजन व्है, राघौ अबगति गति सेति ऐसे डरिये ॥३५॥ तक्षक भये हैं ततकाल विश्वामित्र मुनि, राघौ चढि रूख रोहितास वन डस्यो है। जाकै जी मैं कसर कटाक्ष नांही कामना की, ___ को जाने कर्तार गति काहे को धो कस्यौ है । बालक विलाप कर तो वा त्रयलोक नाथ, धर्म की जहाज बूडी ऐसौ ज्ञानी ग्रस्यो है। बोल्यौ रोहितास जिन रोवो मुनि मेरी सोंह, पाहणे सों देख पेख काको घर वस्यो है ॥४३॥ कंचन किरच सुमेरु को, सापर सरवा नोर ॥ सूरज वाती ससि दसी, कल्पवृक्ष चव चीर ॥ इकलव गिरा गणेश को, वागी र वारतीक ॥ पित्रण कुं जल अंजियां, देवन फूल पतीक ॥ यों रघवाने रंचक कथ्यो, गुण हरिचंद हेट अनेक ॥ सब कवि पंडित सुरता सुघर, सुन कोजो छमा छनेक ॥६४॥ ध्रुव चरित्र इन्दव ध्रुव की जननी ध्रुव को समझावत रोवे कहा रटि राम धरणी कों। केतौक राज कहा नृप प्रासन का पर तूं कर मेलब नीकों ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल यह साल मिट ततकाल करौ तप मृतक व्है सुत धाम धनी कौ । राघो कहे कुल की ममता तजि ग्यांन के खडग सूं मार मनी कौ ॥६॥ मनहर लग गयो राम रंग रघवा रिजक मधि, कंवर कलेश तजि ग्यांनी गच्दछ्यो वन कों। मंत्रिन सुनायो जाय नृपति सौं ततक्षरण, ध्र व वन चल्यौ कहा हुकम है हम कों ॥ राजा पूछी रांरगी उन वात जानी हँसी खेल, - दो दो सेर अन्न दे संतोषो वाके मन कों। एतै पर धूनें कही द्वार ही पें दून भई, धन धन धन जगदीश दियो जन को ॥११॥ इन्दव धूने को नृप सौं कर छाडिये मैं मरिहौं अपघात को प्रायो। सेरह नाज में फेर करी तुम देन लगे अब राज सवायो । ता वेर क्यौं न विचार कियो तुम गोद में से गदका दे उठायो। राघौ गच्छयौ ध्र व राम के काम को प्राप रह्यौ रुप बाप झुठायो ॥१७॥ लियो पथ पंचमास फल मूल पानी पौन, छठ मास संयम संतोष मन मारयौ है । जप नेम प्राणायाम प्रासन आहार द्रढ़, प्रत्याहार धारणा समाधि ध्यान धारचौ हैं । माया छलवे को छलबल बहौतेरे किये, पच रही रेंग-दिन रोमहू न टारचौ है। राघौ तब भेटे राम मन वच कर्म करि, धू को दीजै राज अाज वा वे यौं विचारचौ है ॥२३॥ रामजी नै राज दियो रामजी बनायो साज, धन तप धू को आज भवन पधारे हैं। अष्ट सिद्धि नव निधि प्राय जुरी सारी विधि, समर्थ धरणी – एक सेर-सों वधारे है ॥ गरीबनिबाज नैं गरीब जान दाद दई, राम रथ बैठ हलके सें भये भारे हैं। मनहर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- भूमिका तात मात भ्रात कुल कुटुम्ब छतीसौं पौन, राघौं गनि धून सब ही के काज सारे हैं ॥३॥ ग्रन्थ करुणा-वीनतो इन्दर ब्रह्मा शिव शेष गणेश नमो सनकादिक नारद पाय परौं। प्रणाम कहौं परमेश्वर सौं जिन छाडहू नाथ अनाथ डरौं । हरि मैं गुलमा सुनि हौं वलमां तुम को दे पोठ यों गात गरौं । कार पुकार लगौं अब के जन राघौ कहै शरण उवरौं ॥१॥ हा.! हा! धनी दुख देत गनी तुम ही तुम एक अधार हो मेरे। जानत हो परवेदन की परमेश्वरजी प्रभु न्याव है तेरे ॥ जोर करे जिन को समझावहु साहबजी चढ़ि सांक के केर। राघौ अनाथ अतीत की हे हरि भीर परे भगवन्त निवेरै ॥४॥ कौन उपाय करौं हरिजी वरजी न रहें मनसा विगरानी। भ्रमित अभक्ष प्रहार अहोनिशि नीच क्रिया करि पीवत पारणी ॥ धर्म के पंथ में पांव धरे नहिं पाप की गैल फिर फहराणी। राघौ कहे विपरीत विकारणि चाल कुचाल मिथ्या मुख वाणी ॥१४॥ मनहर बन्दगी तुम्हारी बीच अन्तर करत , नीच, जानत हो जानराय कहूं कहा टेरि के। मोह करै द्रोह गति काम को कटाक्ष प्रति, क्रोध वडो जोध जुग लोभ मारै हेरि के ॥ मैं तो रावरो गुलाम वीनती सुनो हो राम, पारत है मेरी मांम दशो-दिशि घेर के। रघवा दुरयौ है भाजि शरण तुम्हारे राजि, दोनबन्धु दीन जान राखल्यौ निवेरि के ॥१८॥ इन्दव भीर परे भगवन्त भलो विधि देहु यहै तुम को न विसार। जाव शरीर सवै धन सर्वस जो जिये थें जगदीश न टार॥ खार अनी वहनी विषहू विष पत्र म परे कहूँ धर्म न हारे। रघवा सिदकै कियो साहबजी वरिया शत सहस्रा प्रारण तुम्हारे ॥२१॥ मनहर कामरी के भौरे हाथ मेल्यौ दीनानाथ जी मैं, मैं ते माया मोह द्रोह रीघ घट घेरो है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल पूजन ही प्रावत हू अब पछतावत हूँ, ___ मै तो मानी हार हरि मारग मै पैरो है ॥ भगतवछल भगवन्त नहिं लेहु अन्त, ऊवरौं न और ठौर एक बल तेरौ है। रघवा विचारो रंक मन में प्रत्यन्त शंक, राम भरि लेहु अंक काल प्रायो नेरौ है ॥३६॥ ग्रन्थ चितावणी इन्दव समये सुमरयो नहिं राम धणी सु घणी जम की तन त्रास सहेगो। पाठ र वीस में शोश ज्यूं सूम को दै दशहू दिशि प्राग दहैगो । जोजन द्वादश घाट घरै को सौ ता मधि मूरख मूरि मरेंगी। राघौ कहै निगुरेनि गुसांइ को प्रावत ही जम कंठ गहैगो॥१॥ मैं मन देख्यो महा निरपत्रप एक रती हू त्रिया नहिं ताकै । प्रेत ज्यों प्रारण को नाच नचावत कामना सूं कबहू नहिं थाकै ॥ इन्द्रिन द्वार अनीति कर अति पापि परनारि परद्रव्य को ताक । राघो कहै अपस्वारथ सौं रुचि प्रीति नहीं परमारथ नाके ॥७॥ ___ कवित्त अङ्ग संगति को मनहर दास की पूरण पास संगति कर निवास, पाप ताप होत नाश गहै गुणसार जी। पाय है परम सुख राम नाम जाकै मुख, वीसरै न एक चुख प्राणन आधार जी॥ सोई जन जाकै तन नांव सौ रहै लगन, घर वन राखे मन सोई स्वामी कार जी। राघो गुरु-मंत्र प्रति राखे रैण-दिन रति, सुमरि सुमरि सिध साध भये पार जी ॥३॥ गुरुसिख सम्वाद ग्रन्थ -शिष्य वचन चौपई नमो नमो मम गुरु सत स्वामी । देव निरंजन अन्तर्यामी । प्रानन्दरूप महा सुखसागर । सदा मगन हिरदै हरि नागर ॥१॥ तुम भजनीक परम ततवेत्ता । स्वामी कहि समझावो एता॥ वर्तमान प्रति विकट गुसांई । कैसे करि रहिये या माई ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोहा दोहा भूमिका गुरु-वचन धर्म विना धरती सकुचानी । धर्म बिना घट वर से पांरणी ॥ धर्म विना कलि मैं घन थोरा । राजा लोभी दुष्ट डंडोरा ॥२१॥ परजा चोर चुगल विसतारी । साचे हू को मुशकिल भारी ॥ मंत्री दृष्ट करावरण मूढ़ा | परजा के ल्यं दोऊ कूढ़ा ॥२२॥ काचे जती कलेश न त्यागे । करें मोह माया सूं लागे ॥ कलि में कल सौं वरतत रहिये । सनै सनै सत-संगति गहिये ॥२४॥ साकत को न पान न लीजं । हत्याकार ठे पाँव न दीजै ॥ नुगरा नर को अन्न रु पांरगी । लियाँ होय क्षय बुधि श्ररु वांगी अब कछु बात कल मैं नोकी । सो तूं सुन सिख जीवन जीकी ॥ नाँव लेत नरक न जाई। और जुगन सूं या अधिकाई ॥२७॥ एसो नाँव कलू में राख्यौ । शुक मुनि परिक्षत सौं यूं भाख्यौ ॥ जिहिं वन सिंह सहज मैं गाजै । जंबुक सुनत जीव ले भाजै ॥ ३० ॥ [ व राघौ प्राघो सुख सरचौ सुन सतगुरु के वैन ॥ हृदै कमल मधि करिणका, तहां हेरि हरि सैन ॥ ३२ ॥ ग्रन्थ- उत्पत्ति-स्थिति चिंतामणि - दोहा चौपाई में - समाप्ति स्थल श्रीहरि श्रीगुरु सों कही, सो श्री गुरु कहि मुझ । रघवा रंचक गम भई, श्रीगुरु पै ब्रह्मा व्यास वशिष्ठ दिग, वालमीक ब्रह्मसुता शंभुसुवन, गुरणग गवरि रवि रविसुत को मान गुण, उपगारी शिव पायो गुरु ॥ ३६४ ॥ शुक सूत । को पूत ॥ ३६५॥ शेष । इन मिलि मोहे श्राज्ञा दई, रटि राघव राम नरेश ॥ ३६६ ॥ कहि उत्पति स्थिति कथा, जन राघौ के हिरदै वसै, याहि वांचि सीखे सुने, राघौ यौं रामहि रटं, धरै निरन्तर afa कोविद पंडित मिसर, सुनि जनि डाटहु मोहि । सकल बतायो भेव । श्री हरीदास गुरण ते उपजे मम वांरणी बालक वचन, जनि कोई मानो द्रोहि ॥ ३६६॥ ॥ इति ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only गुरुदेव ॥ ३६७॥ ज्ञान । ध्यान ॥ ३६८ ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल राघवदास को भक्तमाल यद्यपि नाभादास की भक्तमाल के अनुकरण में ही राघवदास ने अपनी भक्तमाल बनाई, पर, एक तो यह उससे काफ़ी बड़ी है और दूसरा इसमें ऐसे अनेक सन्त एवं भक्तजनों का उल्लेख है, जिनका नाभादास की भक्तमाल में उल्लेख नहीं है। कवि राघवदास दादूपन्थी सम्प्रदाय के थे, इसलिए उक्त सम्प्रदाय के सन्तजनों का विवरण तो इसमें विशेष रूप से दिया ही गया है और इसमें मुसलमान, चारण आदि ऐसे अनेक भक्तों का विवरण भी है, जिनके सम्बन्ध में और किसी भक्तमालकार ने कुछ भी नहीं लिखा है। इसलिये इस भक्तमाल की अपनी विशेषता है और यह ग्रन्थ बहुत ही महत्वपूर्ण है। __डॉ. मोतीलाल मेनारिया ने अपने 'राजस्थान का पिंगल-साहित्य' नामक शोध-प्रबन्ध में इस ग्रन्थ का महत्व बतलाते हुये लिखा है कि "यह ग्रन्थ नाभादास की भक्तमाल की शैली पर लिखा गया है, पर उसकी अपेक्षा इसका दृष्टिकोण कुछ अधिक व्यापक और उदार है। नाभादास ने अपने भक्तमाल में केवल वैष्णव भक्तों को स्थान दिया है। परन्तु, इन्होंने दादूपन्थो सन्तों के अतिरिक्त रामानुज, विष्णुस्वामो, कबीर, नानक अादि अन्य मतावलम्बियों का भी विवरण दिया है और यह इसकी एक प्रधान विशेषता है। यह ग्रन्थ बहुत प्रौढ और उपयोगी रचना है।" वृन्दावन से प्रकाशित श्री भक्तमाल ग्रन्थ के पृष्ठ ६५८ में लिखा है कि इस भक्तमाल में चतुस्सम्प्रदायी वैष्णव भक्तों के साथ सन्यासी, जोगी, जैनी, बौद्ध, यवन, फकीर, नानकपन्थी, कबोर, दादू, निरंजनी आदि सम्प्रदायों के भक्तों का भो उल्लेख है। स्वामी मंगलदासजी ने राघवदास की भक्तमाल की विशेषता के सम्बन्ध में लिखा है कि "इसमें सगुण भक्तों के वर्णन के साथ-साथ निर्गण भक्तों का भी निरूपण किया गया है।" उक्त ग्रन्थ में इसका रचनाकाल सम्वत् १७७७ बतलाया गया है, पर वास्तव में "सत्रोतरा" शब्द से १७ की संख्या लेना ही अधिक राघवदास व उनकी रचनाएँ राघवदासजो का विशेष परिचय प्रयत्न करने पर भी प्राप्त नहीं हो सका। इस ग्रन्थ की प्रशस्ति के अनुसार वे दादूजी के शिष्य बड़े सुन्दरदासजी, उनके शिष्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका प्रहलाददासजी के शिष्य हरिदासजी के शिष्य थे। राघवदास की रचनाओं में उनकी वाणी, १, (अंग १७), साखी भाग, २, (सा० १६३७), अरिल ३७०, ३, (पद १७६ राग २६), ४, लघु ग्रन्थ २० (छन्द ५०४)५, ग्रन्थ उत्पत्ति, स्थिति, चितावरणी, ज्ञान, निषेध, (छन्द संख्या ४००-७२) की सूचना स्वामी मंगलदासजी ने दी है। भक्तमाल काफी प्रसिद्ध ग्रन्थ है ही। करौली में उनकी परम्परा का स्थान है। ____मंगलाचरण के ७ वें पद्य में राघवदासजी का भी वर्णन है। प्रस्तुत ग्रन्थ के पृष्ठ २४० में राघवदास के गुरु, बाबा गुरु, काका गुरु, गुरु भ्राता आदि का विवरण भी उन्होंने दिया है। उन पंक्तियों की ओर पाठकों का ध्यान प्राकर्षित किया जाता है। टीकाकार चतुरदास प्रस्तुत भक्तमाल के टीकाकार चतुरदास हैं। संवत् १८५७ के भादवा वदि १४ मंगलवार को उन्होंने यह टीका बनाई। प्रशस्ति में उन्होंने नारायणदास की भक्तमाल को देखकर राघवदास ने भक्तमाल बनाई और प्रियादास की टीका को देखकर चतुरदास ने इन्दव छन्द में इस टीका की रचना की, लिखा है। अपनी परम्परा बतलाते हुये वे अपने को संतोषदास के शिष्य बतलाते हैं। प्रारम्भ में भी दादू के बाद सुन्दर, नारायणदास, रामदास, दयाराम, सुखराम और संतोष नामोल्लेख किया है। चतुरदासजी की अन्य किसी रचना की जानकारी नहीं मिली। स्वामी मंगलदासजी ने दादूद्वारा, रामगढ़ के महन्त शिवानन्दजी से विशेष जानकारी प्राप्त करने के लिये लिखा था, उन्हें पत्र भी दिया गया और 'वरदा" के सम्पादक श्री मनोहर शर्मा को भी चतुरदासजी सम्बन्धी विशेष जानकारी उनसे प्राप्त कर भेजने के लिये लिखा गया, पर सफलता नहीं मिली। इस तरह यथा-साध्य लम्बे समय तक प्रयत्न करने पर भी जो सामग्री प्राप्त नहीं हो सकी, उसके लिये विवशता है। खोज चालू है, अतः फिर कभी प्रास होगी, तो उसे लेख द्वारा प्रकाशित की जायगी। चतुरदासजी की टोका में मूल ग्रन्थ की अपेक्षा विशेष और नई जानकारी भी है, इसलिये इस टीका की महत्ता स्वयं सिद्ध है। ग्रन्थ के अन्त में मूल भक्तमाल और टीका में आये हुये नामों की सूची देने । का विचार था, जिससे इस ग्रन्थ में कितने सन्त एवं भक्तजनों का उल्लेख हुआ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल है, उसकी जानकारी मिल जाती। पर उन नामों की अधिकांश सूचना आगे विस्तृत अनुक्रमणिका में दे ही दी गई है, इसलिये अन्त में नामानुक्रमणिका देने की उतनी आवश्यकता नहीं रह गई। चतुरदास ने मंगलाचरण में राघवदासजी का वर्णन करते हुवे ठीक हो लिखा है कि इसमें सन्तों का यथार्थ स्वरूप बहुत थोड़े में कह दिया गया है : सन्त सरूप जथारथ गाइउ, कीन्ह कवित्त मनू यह हीरा । साध अपार कहे गुण ग्रन्थन, थोरहु अांकन में सुख सोरा। सन्त सभा सुनि है मन लाइ र, हंस पिवे पय छाडि र नोरा । राघवदास रसाल विसाल सु, सन्त सबे चलि पावत के रा॥ प्रस्तुत ग्रन्थ का सम्पादन और प्राप्त हस्तलिखित प्रतियाँ करीब १५-२० वर्ष पहले की बात है, मेरे विद्वान् मित्र श्री नरोत्तमदासजी स्वामी के पास स्वामी मगलदासजी के यहाँ से लाई हुई राघवदास के भक्तमाल को टोका सहित प्रेस कापी मुझे देखने को मिली। मुझे वह ग्रन्थ बहत ही उपयोगी और महत्त्व का लगा इसलिये उसकी प्रतिलिपि मैंने उसी समय करवा ली। तदनन्तर स्वामी मंगलदासजी को प्रेरणा दी कि वे इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ को शीघ्र ही प्रकाश में लावें। पर उन्होंने कहा कि इसके प्रकाशन का प्रयत्न किया गया, पर अभी तक कहीं से कोई भी व्यवस्था नहीं हो पाई। इसके कुछ समय बाद मुनि जिनविजयजी से मैंने इस ग्रन्थ के प्रकाशन की चर्चा की और उन्होंने राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान की ग्रन्थमाला द्वारा इसे प्रकाशित करना स्वीकार कर लिया। मैंने उन्हें अपनी करवाई हुई प्रतिलिपि को भेज दिया और प्रेस की व्यवस्था भी कर दी गई। फर्मा कम्पोज भो हो गया, इसी बीच मुनिजो ने पुरोहित हरिनारायणजी के संग्रह में इसकी दो महत्वपूर्ण हस्तलिखित प्रतियाँ देखी, तो उनका आदेश हुआ कि उन प्रतियों के आधार से पाठ-भेद सहित उसका पुनः सम्पादन किया जाय, क्योंकि स्वामी मंगलदासजो वाली प्रेस-कॉपी में हस्तलिखित प्रतियों में प्राप्त पाठ से कुछ भिन्नता थी। प्राचीनतम प्रति __ मुनिजी के आदेशानुसार गोपालनारायणजी बहुरा द्वारा पुरोहित हरिनारायणजी के संग्रह की उपरोक्त दोनों प्रतियों को प्राप्त करके उनमें से जो प्रति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है भूमिका सबसे प्राचीन थी, उसकी नकल करवा ली गई। यह प्रति चतुरदासजी को टीका की रचना (संवत् १८५७) के केवल ३।। बरस बाद की ही (संवत् १८६१ के वैशाख वदि ३ डीडवाणा में) लिखी हुई है। चतुरदासजी के शिष्य नन्दरामजी के शिष्य गोकलदास की लिखी हुई होने से . इस प्रति का विशेष महत्व है। अतः इसका पाठमूल में रखकर (२) संवत् १८६७ की लिखो हुई दूसरी (B) प्रति से पाठ भेद देने का विचार किया गया, पर मिलान करने पर वह प्रति भी संवत् १८६१ वाली प्रति की नकल-सी मालूम हुई, अतः कोई खास पाठभेद प्राप्त नहीं हो सका। इन दोनों प्रतियों की लेखन-प्रशस्ति इस ग्रन्थ के पृष्ठ २४८ में छपी हुई है। (३) इसी बीच बीकानेर राज्य के एक प्राचीन नगर रिणी (तारानगर) मेरा जाना हुआ, तो वहाँ के तेरहपंथी सभा के ग्रन्थालय में कुछ हस्तलिखित प्रतियाँ यों ही पड़ी हुई थीं, उनको मैं सभा के संचालकों से नोट करके ले आया। उसमें प्रस्तुत भक्तमाल की एक प्रति संवत् १८८६ की लिखी हुई प्राप्त हुई। इस (C) प्रति से मिलान करके जो पाठ-भेद प्राप्त हुये, उन्हें टिप्पणी में दे दिया गया है। ६० पत्रों की इस प्रति की लेखन-प्रशस्ति भी प्रस्तुत संस्करण के पृष्ठ २४८ की टिप्पणी में दे दी गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन में प्रधानतया इन तीनों प्रतियों का ही उपयोग किया गया है। मूल पाठ संवत् १८६१ की प्रति का प्रायः ज्यों का त्यों छापा गया है। (४) प्रस्तुत ग्रन्थ छप जाने के बाद स्वामी मंगलदासजी की प्रेसकॉपी से भी मिलान करना जरूरी समझा, अतः उनके वहाँ से उक्त प्रेसकॉपी फिर से मंगवाई गई । मिलान करने पर विदित हुआ कि उसमें काफी पद्य अधिक हैं। अतः जहाँ-जहाँ जो पद्य अधिक हैं, उन्हें नकल करवाके परिशिष्ट में दे दिया गया है। (५) जोधपुर जाने पर श्री गोपालनारायणजी बहुरा से विदित हुआ कि राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान में इसकी एक प्रति और खरीदी गई है, तो उसे मंगवाकर देख लिया गया। पहले की तीनों प्रतियों में ग्रन्थ की श्लोक संख्या ४१०१ लिखी हुई थी, इस प्रति में वह संख्या ४५०० तक लिखी हुई है अर्थात् यह प्रति भी परिवद्धित संस्करण की ही है। ६२ पत्रों की यह प्रति सं० १६०० की लिखी हुई है। (६) ६ठी प्रति भारतीय विद्या मंदिर शोध संस्थान, बीकानेर में देखने को मिली। यह प्रति पूर्व प्राप्त तीन प्रतियों जैसी ही है। पर हाँसिये में अनेक जगह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल क्ष ] टिप्पण लिखे हुये हैं और अन्त में टीकाकार की प्रशस्ति के पद्य इसमें नहीं लिखे गये हैं। कुल पद्यों की संख्या ११८५ दी हुई है। लिखने का समय दिया नहीं गया है, पर १६वीं शताब्दी की है। पद्यों की कमी-बेशी व संख्या में गड़बड़ी स्वामी मगलदासजी वाली प्रेस-कापी में पद्यों की संख्या १२८६ दी गई है। इससे मालूम होता है कि करीब १०० पद्य पीछे से बढ़ाये गये हैं। इन पद्यों को स्वामी राघवदासजी या टीकाकार ने बढ़ाया है या और किसी ने-यह अभी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। पर यह निश्चित है कि संवत् १८६१ और संवत् १९०० के बीच में यह परिवर्द्धन हुआ है। प्रस्तुत ग्रन्थ के पृष्ठ २४८ में तीन प्रतियों की लेखन-प्रशस्ति में ग्रन्थ की श्लोक संख्या यद्यपि ४१०१ समान रूप से लिखी हुई है पर प्रति नं० १-२ से प्रति नं० तीन में दी हुई छन्दों की संख्या भिन्न प्रकार की है। चतुरदास की टीका के इन्दव छन्दों की पद्य संख्या तो तीनों प्रतियों में ६२१ दी हुई है, पर राघवदास के मूल पद्यों की संख्या में अन्तर है और लेखन-प्रशस्ति में छन्दों के नाम के साथ जो संख्या अलग-अलग दी हुई है, वह कुल पद्यों की संख्या से मेल नहीं खाती। जैसेA और B प्रति : छप्पय ३२८, मनहर १५२, हंसाल ४, साखी ३८, चौपाई २, इन्दव ७५। C प्रति : दोहा १, छप्पय ३३३, मनहर १४१, हंसाल ४, साखी ३८, चौपाई २, इन्दव ७५ । अर्थात् C प्रति में छन्दों की संख्या में ५ छप्पय और ११ मनहर छन्दों की संख्या ३ बतलाई गई है, पर कुल पद्यों की संख्या ११८५ बतलाई है, जो A और B में १२०४ बतलाई गई है। अर्थात् १६ पद्यों की संख्या में कमी बतलाने पर भी वास्तव में अलग-अलग छन्दों के संख्या-विवरण में छप्पय ५ और मनहर ११ कुल १६ ही कम होते हैं। आश्चर्य की बात है कि अलग-अलग छन्दों की संख्या का मिलान कुल छन्दों की संख्या से भी ठीक नहीं बैठता। जैसे प्रति नम्बर A और B में कुल पद्यों की संख्या १२०४. बतलाई है, उसमें से टीका के ६२१ पद्यों के बाद देने पर मूल ग्रन्थ के पद्यों की संख्या ५८३ रह जाती है। पर छन्दों के विवरण के अनुसार वह संख्या ६०६ बैठती है। अर्थात् २६ पद्यों का फर्क पड़ जाता है। इसी तरह प्रति नम्बर C में कुल पद्यों की संख्या ११८५ दी गई है, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका [ त्र उसमें ६२१ टीका की पद्य संख्या बाद देने पर मूल के ५६४ पद्य रहते हैं, जबकि अलग-अलग छन्दों को संख्या लिखी गई है। उनको मिलाने से ५६४ की संख्या बैठती है, अर्थात् ३० पद्यों का फर्क रह जाता है। प्रतिलिपि करने वालों ने, पता नहीं, ऐसी गड़बड़ी क्यों कर दी है। अभी तक राघवदास के भक्तमाल के केवल मूलपाठ की एक भी प्रति प्राप्त नहीं हुई और न टीकाकार चतुरदास के समय के पहले की लिखी हुई प्रति ही मिल सकी, इसलिए यह निर्णय करना कठिन है कि राघवदास ने मूल में कितने पद्य बनाये थे और उसमें कब कितने 'द्य बढ़ाये गये ? प्रस्तुत संस्करण में मूल और टीकाकार के पद्यों की जो संख्या छपी है, उसमें भी कुछ गड़बड़ी रह गई है। क्योंकि जिन प्रतियों की नकल की गई थी, उन्हों में पद्यों की संख्या देने में गड़बड़ कर दी गई है। प्रति नम्बर A और B के अनुसार मूल पद्य संख्या ५५५ और टीका के पद्यों की संख्या ६३६ छपी है । प्रति में मूल पद्यों को संख्या ५४४ दी हुई है और टोका के पद्यों की संख्या ६४१ । यह दोनों संख्यायें मिलाकर लेखन-प्रशस्ति में दो हुई कुल पद्यों की संख्या में भी अन्तर रह जाता है। केवल C प्रति को ही लें, तो ५४४ और ६४१ दोनों को मिलाकर ११८५ की संख्या तो ठीक बैठ जाती है, पर इसी प्रति को प्रशस्ति में मूल पद्यों की संख्या ५५३ और टीका के पद्यों की संख्या ६२१ लिखी है, उससे मिलान नहीं बैठता। मालूम होता है कि टीका को पद्य संख्या तोनों प्रतियों में ६२१ बतलाने पर भी उससे अधिक है, क्योंकि A और B प्रति में पद्य संख्या ६३६ और C प्रति में ६४१ दी हुई है। अतः मूल की तरह टीका में भी कुछ पद्य पोछे से बढ़ाये गये हैं, यह तो निश्चित-सा है। परिवद्धित संस्करण में तो काफी पद्य बढ़े हैं । उपरोक्त प्रतियों के अतिरिक्त दो अन्य प्रतियों को जानकारी भी मुझे है, पर उनको मैं प्राप्त नहीं कर सका। उनमें से एक प्रति का विवरण ना० प्र० सभा के सन् १९३८ से ४० तक के १७ वें त्रैवार्षिक विवरण के पृष्ठ ३०२ में छपा है। उस प्रति को पत्र संख्या १३६ और ग्रन्थ परिमाण ६५१६ श्लोकों का बतलाया गया है, जो ऊपर दी गई प्रतियों के परिमाण से करीब डेढ़ा बढ़ जाता है। इसकी भी लेखन-प्रशस्ति में गड़बड़ है, उसमें श्लोक संख्या ५००० की बतलाई है। छन्द संख्या भी बढ़ गई है। यथा . छप्पय ३५३, मनहर १८७, हंसाल ४, साखी ८५, चौपाई २, इन्दव १००२ (?) और टीका की इन्दव और मनहर छन्दों की संख्या ६६६ लिखी है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल ज्ञ ] यह प्रति सं० १९३३ में साध भगतराम ने रोझड़ी गांव में साध मोजीराम के लिये लिखी है। अभी यह प्रति भरतपुर राज्य के श्री कामवन के श्री गोकुल चन्द्रमा मंदिर के पुस्तकालय में गो० देवकीनन्दन प्राचार्य के पास है। विवरण संशोधन - __ खोज विवरण में टीका का रचना काल सं० १८१८ लिख दिया गया है, पता नहीं, इसका आधार क्या है । नीचे जो टीका के रचनाकाल संबंधी पद्य उद्धत हैं, उससे तो १८५७ ही सिद्ध होता है। दूसरी महत्वपूर्ण गलती राघवदास का गोत्र 'चांडाल' लिख देना है। वास्तव में 'चांगल' शब्द को 'चांडाल' पढ़ लिया मया है, और इसी से इतनी शोचनीय मलती हो गई है, उद्धत पाठ भी अशुद्ध और त्रुटित है। प्रति वृहद् संस्करण की है हो । सम्भव है, परिवर्तित संस्करण के जो पद्य मैंने परिशिष्ट में दिये हैं, उनमें आगे चलकर फिर परिवर्द्धन हुआ होगा। ___'राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान' से प्रकाशित 'विद्याभूषण-ग्रन्थ-संग्रहसूची' के पृष्ठ ६० में प्रति नं० ११६ संवत् १९८३ की गोपीचन्द शर्मा लिखित है । इसकी पृष्ठ संख्या २०४ बतलाई गई है, बीच के ४ पृष्ठ नहीं हैं। वास्तव में, यह किसी हस्तलिखित प्रति की आधुनिक प्रतिलिपि ही है। सम्भव है, नम्बर A और B की ही यह नकल पुरोहित हरिनारायणजी ने करवाई हो। खोज करने पर और भी कुछ प्रतियाँ मिल सकती हैं। आभार-प्रदर्शन सर्वप्रथम मैं स्वामी मंगलदासजी का विशेष आभार मानता हूँ, जिनको प्रेरणा से ही इस ग्रन्थ के सम्पादन का काम मैंने हाथ में लिया और समय-समय पर विविध प्रकार की सूचनायें व सहायता भी वे देते रहे। तत्पश्चात् मुनि जिनविजयजी का मैं आभारी हूँ, जिन्होंने इस ग्रन्थ के प्रकाशन की स्वीकृति दी और पुरोहितजी के संग्रह की प्रतियाँ भिजवाईं। __ ग्रन्थ की प्रेस-कॉपी तैयार हो जाने पर मेरे सामने यह दुविधा उपस्थित हुई कि हस्तलिखित प्रतियों में मूल और टीका के पद्यों का सर्वत्र स्पष्टीकरण नहीं था, अतः इनकी छंटाई कैसे की जाय ? संयोग से प्रो० सुरजनदासजी स्वामी बीकानेर डूंगर कॉलेज में प्राध्यापक के रूप में पधार गये। उनको मैंने प्रेस कॉपी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अ भूमिका में मूल और टीका के पद्यों को अलग से चिह्नित कर देने का कहा और आपने उसे अपना ही काम समझ कर कर दिया--इसके लिये मैं आपका आभारी हूँ। - ग्रन्थ का मुद्रण जोधपुर में हो रहा था, वहाँ से प्रूफ बीकानेर आने-जाने में अधिक विलम्ब होता, इसलिये प्रूफ संशोधन का कार्य मैंने महोपाध्याय मुनि विनयसागरजी को सौंपा और उन्होंने बड़ी आत्मीयता के साथ सारे ग्रन्थ का प्रूफ संशोधन कर दिया। उनका और मेरा वर्षों से धर्म-स्नेह का संबंध रहा है, फिर भी उनका आभार प्रकट करना मेरा कर्तव्य है। प्रूफ संशोधन में उन्हें श्री गोपालनारायणजी बहुरा का मार्ग-प्रदर्शन भी मिलता रहा है। ग्रन्थ छप जाने के बाद इसकी अनुक्रमणिका बनाना प्रारंभ किया, तो एक और दिक्कत सामने आई कि ग्रन्थ में यद्यपि बहुत-सी जगह तो पद्यों के प्रारम्भ में भक्तों के नाम दिये हुये हैं, पर ऐसे भी बहुत से पद्य हैं, जिनमें शीर्षक का अभाव है। इसलिये उन पद्यों को पढ़ कर शीर्षक लगाते हुये विस्तृत अनुक्रमणिका बना देने का काम सिंहस्थल के रामस्नेही सम्प्रदाय के महन्त स्वामी भगवत्दासजी महाराज को दिया गया और उन्होंने बड़े परिश्रम से मेरी सूचनानुसार दो बार जाँच कर के अनुक्रमणिका तैयार कर दी, जिसे विद्वद्वर नरोत्तमदासजी स्वामी ने भी देख लेने की कृपा की है। इस सहयोग के लिये मैं महन्तजी व स्वामोजी का आभारी हूँ। श्री गोपालनारायणजी बहुरा ने भक्तमाल की जो प्रति बाद में राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान में खरीदी गई, उसकी सूचना दी और प्रति को बीकानेर के शाखा कार्यालय में भिजवा दी तथा प्रूफ संशोधन में भी सहायता को, इसलिये उनका भी आभार मानना मैं अपना कर्त्तव्य मानता हूँ। __ मेरी इच्छा थी कि ग्रन्थ में जिन जिन भक्तों एवं सन्तों का उल्लेख है, उनके सम्बन्ध में अन्य सामग्री के आधार से विशेष प्रकाश डाला जाय, पर यह कार्य बहुत समय एवं श्रम-सापेक्ष है। और चूंकि मूल ग्रन्थ गत वर्ष हो छप चुका था, इसलिये अधिक रोके रखना उचित नहीं समझा गया। सम्बन्धित सामग्री को जुटाने में भी कई महीने लगे। फिर भी पूरी सामग्री नहीं मिल सकी। अत: अपनी उस इच्छा का संवरण करना पड़ा। पाठकों को यह जानकारी दे देना उचित समझता हूँ कि प्रस्तुत ग्रन्थ को हिन्दी विवेचन या अनुवाद के साथ प्रकाशित करने का प्रयत्न श्री सुखदयालजी एडवोकेट कर रहे हैं। उन्होंने उसके कुछ पृष्ठों की प्रेस-कॉपी स्वामी मंगलदासजी को भेजी थी और मैंने उसे स्वामीजी के पास देखी थी। पता नहीं, वे उस कार्य को पूर्ण कर पाये या नहीं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ ] भक्तमाल मेरी यह भी इच्छा थी कि जिस प्रकार नाभादास को भक्तमाल का व्याख्यान करने वाले कई भक्तमाली सन्त हैं, इसी तरह राघवदास की इस भक्तमाल के व्याख्याता सन्त भी हों, तो उनके पास से इस ग्रन्थ में वरिणत भक्तों की विशेष जानकारी प्राप्त की जाय। स्वामी मंगलदासजो को पूछने पर उन्होंने यह सचना दी कि "राघवदासजी की भक्तमाल के जानकार दादूपन्थी सम्प्रदाय में २-३ हैं, उनमें तपस्वी भूरारामजी प्रमुख हैं। भक्तमाल पर महात्मा रामदासजी दुवल धनिये ने अपने शिष्य बुधाराम को भक्तमाल की कथाओं का विवरण लिखा दिया था, वह शायद उसी के पास वाराणसी में है।" पर मैं इन दोनों सन्तों से लाभ नहीं उठा पाया। अतः जैसा भी बन पड़ा है, इस ग्रन्थ को पाठकों के हाथों में उपस्थित करते हुये सन्तोष मान रहा है। -अगरचन्द नाहटा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका मूल पद्यांक १-१६ १-१५ १६ टोकाकर्ता का मंगलाचरण टीका स्वरूप वर्णन भक्ति स्वरूप वर्णन भक्ति पंचरस वर्णन सत्संग प्रभाव राघवदासजी का वर्णन श्री भक्तमाल स्वरूप वर्णन मूल मंगलाचरण मूल मंगलाचरण चौबीस अवतार वर्णन नाम-कच्छप, मत्स्य, वराह, नरसिंह, वामन, रामचन्द्र, परशुराम, कृष्ण, व्यास, कल्कि, बुद्ध, मन्वन्तर, पृथु, हरि, हंस, हयग्रीव, यज्ञ, ऋषभदेव, धन्वन्तरि, ध्रुववरदेव, दत्तात्रेय, कपिल, सनकादि, नरनारायण । चौबीस अवतारों की टीका अवतारों के पद चिह्न पव चिह्न नाम-ध्वजा, शंख, षट्कोण, जामुन, चक्र, कमल, जव, वज्र, अम्बर, अंकुश, गोपद, धनुष, सर्प, सुधाघट, स्वस्ति, मीन, बिन्दु, त्रिकोण, अर्धचन्द्र, प्रष्टकोण,अध्वरेख, पुरुष। अवतारों के पद चिह्न की टीका तीन युगों के भक्तों का वर्णन लक्ष्मी, कपिल, ब्रह्मा, शेष, शिव, भीष्म, प्रह्लाद, सनकादि, व्यास, जनक, नारद, अजामेल १०-१६ १७-२१६-१० १८ १७-२१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1२ 1 भक्तमाल टीका पृष्ठ पद्यांक ११-१२. ... १२ १२-१३. २२-२४ २५-२६ १३ १३-१४ १४ पुनः अवतार वर्णन नारदजी का प्रभाव स्वयंभुमनु का वर्णन सनकादिक का वर्णन कपिल का वर्णन व्यासजी का वर्णन भीष्म का वर्णन धर्मराज का वर्णन चित्रगुप्त का वर्णन लक्ष्मी का वर्णन शिवजू की टाका अजामेल की टीका सोलह फारषद वर्णन नन्द, सुनन्द, सुप्रभ, बल, कुमुद. कुमदाइक, चण्ड, प्रचंड, जय, विजय, विष्वक्सेन, शील, सुशील, भद्र, सुभद्र सोलह पारषदों की समुदायी टीका विष्णु-वल्लभों के नाम वर्णन लक्ष्मी, गरुड, सुनन्द, सोलह पारषद, सुग्रीव, हनुमान, जामवन्त, विभीषण, स्योरी (शबरी) जटायु, सुदामा, विदुर, अक्रूर, ध्रुव, अम्बरीष, उद्धव, चित्रकेतु, चन्द्रहासक, माह, गजेन्द्र, द्रौपदी, मंत्रेय हनुमानजू की टीका विभीषणजू की टीका सबरीजू की टीका जटायुजू की टीका दुरवासा कष्ट वर्णन अम्बरीषजी की टीका २८ २६-३१ ३२-३८ ३९-४० १४-१५ १५ १५-१६ १६ १६-१७ ४१-५२ १७-१८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुक्रमणिका ध्रुवजी का वर्णन सुदामाजी का वर्णन सुदामाजी की टीका विदुरजी की टीका चन्द्रहास की टीका समुदायी टीका कुन्ती की टीका द्रौपदी की टीका ऋषभदेव के पुत्रों का वर्णन राजरषि नाम वर्णन ' उत्तानपाद, प्रियव्रत, अंग, मुचकुंद, प्रचेता, जोगेश्वर नव, जनक, पृथु, परीक्षित, शौनकादि, हरिजस्व, हरिविश्व, रघु, सुधन्वा, भागीरथ, हरिचंद, सगर, सत्यव्रत, सुमनु, प्राचीनबह, इक्ष्वाकु, रुकमांगद, कुरु, गाधि, भरत, सुरथ, सुमति ( बलि पनि), रिभु, ऐल, शतधन्वा, वैवस्वत, नहुष, उत्तंग, जडु, नजाति, सरभंग, दिलीप, अम्बरीष, मोरधुज, सिबि पांडव, ध्रुव, चन्द्रहास, रन्तिदेव, मानधाता, संजय, समीक, निमि, भरद्वाज, वाल्मीक, चित्रकेत, दक्ष, अमूर्त, रय, गय, भूरिसे ( भूरि ), देवल । पतिव्रता स्त्रिय [ ३ ] श्रादिशक्ति, लक्ष्मी, पार्वती, सावित्री, शतरूपा देवदूति श्राकृति, प्रसूति, सुनीति, सुमित्रा, प्रल्या, कौशल्या, तारा, चूडाला, सीता, कुन्ति, जयंती (ऋषभदेव की पत्नि), वृन्दा, सत्यभामा, द्रौपदी, श्रदिनि, जसोदा, देवकी, मंदोदरि, त्रिजटा, मंदालसा, सची, अनसूया, अंजनि । of नाभादास कृत भक्तमाल में मूल पद्म संख्या ७-८ देखें । Jain Educationa International मूल प० ३२ ३३-३४ ३५ ३६-३७ ३८ For Personal and Private Use Only टीका प० ५३ _५४-५५ ५६-६६ ६७-६८ ६८ ६६-७० पृष्ठ १६ १६ १६-२० २०-२१ २१-२२ २२ २२ २२ २२-२३ २३ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल मूल प. टीका १० पृष्ठ ३४ २३ ४० ४१-४४ ४५-४६ ४७ २४-२५ नव नाथ नाम वर्णन प्रादिनाथ, उदयनाथ, उमापति (स्वयंमू), संत (सत्यनाथ), संतोषनाथ' (विष्णुजी), जगनाथ, (गणपति), प्रचंमनाथ, मच्छंद्रनाथ, गोरखनाथ। प्रियव्रत की कथा जड़ भरथ की कथा जनकजी की कथा ब्रह्मरिषि नाम वर्णन भृगु, मरीच, वशिष्ठ, पुलस्त, पुलह, कतु, अंगिरा, अगस्त, चिमन, सौनक, प्रख्यासी हजार ऋषि, गौतम, गर्ग, सौभरि, रिचिक, समीक, याज्ञवल्क, जमदग्नि, जावालि, पर्वत, पराशुर, विश्वामित्र, मांडीक, मांडव्य, कण्व, वामदेव, सुकदेव, व्यास, दुरवासा, प्रत्रि अस्ति, देवल। धर्मपाल रक्षपालादि का वर्णन धर्मपाल, रक्षपाल, दिग्पाल, सूर (सूर्य) सापुरष (किन्नर), कवि, सती, धाता, इन्द्र, जल, भूमि, जननी, शक्ति, भक्ति, भगत, भगवान, जती, जोगेश्वर नव (कवि, हरि, करभाजन, अन्तरीक्ष, चमस, प्रबुध, प्रावि)ता, पिप्पल, ब्रुमिल)। समस्त देव वर्णन वरुण, कुबेर, धर्मराय, मन्वन्तर, चित्रगुप्त, गरणेश, सरस्वती, सक्षरिषि, अनंतरिषि, समन ज्ञानी, साठ हजार वाल्यखिल्य, माठ वसु, नवखंडों के राजा, विप्र, वेद, गंगा, गाय । इन्द्र का महत्व वर्णन कुबेर का महत्व वर्णन वरुण महत्व वर्णन ४८ २६ द Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका [ ५ ] मूल प. टीका प० ५२ ५४ ५५ ५६ ५७ ० ६२-६३ ६४ सूर्य का महत्व वर्णन चन्द्र महिमा वर्णन सरस्वती वर्णन गणेश महत्व वर्णन षट् जती नाम वर्णन षट्जती नाम-लक्ष्मण, हनुमान, गरुड़, कार्तिकेय सुकदेव, गोरख । गरुड़ का महत्व कत्र स्याम (कार्तिकेय) महत्व सुकदेवजी का वर्णन लक्ष्मण प्रभाव वर्णन हनुमानजी का महत्व गोरखनाथजी की कथा भरत महिमा वर्णन असुर भक्तों की कथाएँ; नामावली बारणासुर, प्रहलाद, बलि, मयासुर, त्वष्टा, विभीषण, मन्दोदरि, त्रिजटा। गजेन्द्र की कथा भजनबल वर्णन गणिका की कथा सत्संग प्रभाव व उसके अनुयायी सत्संग भक्तों के नाम-उद्धव, विदुर, अक्रूर मैत्रेय, गंधारी, धृतराष्ट्र, संजय, रंतिदेव, बहुलास, सुदामा, सूतजी, प्रख्यासी हजार ऋषि, चटडा बारह क्रोड़, प्रहलाद । सर्वस्व दान करने वाली भक्तमति महिलायें शिबि, सुदरशन, हरिचंद, स्यालमद्र, बलि, रंतिदेव, करण, मोहमरद, मोरध्वज, परवत, कुंडल, भूत, वेश्या, व्याष, कबूतर, कपिला, जलतटांग, वैश्य तुलाधार, साह की लड़की, भोज, विक्रमाजीत, वीरबल। ८७ ६८ ६६. ७०-७१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहमद की कथा मोर की टीका अलरक की कथा नर-नारी भक्तों की नामावली प्रियव्रत, जोगेश्वर, पृथु, श्रुतदेव, श्रंग, परचेता, मुचकुंद, सूत, सौनक, परीक्षित, देवहूति, प्रकृति, प्रसूति, मंदालसा, सुनीति, जसोदा, व्रजवधू । श्रुतिदेव की टीका सतरूपा, सत्यव्रतादि भक्तों की नामावली सत्यव्रत, सगर, मिथिलेस, भरथ, हरिचंद, रघुगरण, प्राचीनबह, इष्वाक, भागीरथ, सिबि, सुदरसन, बालमीक, दधीच, वींझावली, सुरथ, सुधन्वा, रुक्मांगद, रिभु, ऐल, प्रभूरति, वैवस्वमनु, शिखर, ताम्रध्वज, मोरघु, रक । वालमीक की टीका araमीक दूजा का वर्णन करन की गाथा वावली की टीका [ ६ ] हरिचन्द की टीका नव जोगेश्वरी की कथा व नाम पंच पांडवों की कथा नचिकेताओं की कथा षट् चक्रवर्ति वर्णन वेणि, शिबि, धुंधमार, मानधाता, अजय पाल, पुरुरवा । षोडश चक्रवर्ति भक्त काकभुसुंडी, मारकंडेय, बुगदालिम, लोमश, खट्वांग, दिलीप, अजयपाल, रिषभदेव, शेष, शिव । Jain Educationa International मूल प० ७३-७८ ७६ ८० ८१ ८२ ८३-८६ ८७ ८८-८६ ६०-६७ ६८ εε १०० १०१ १०२ For Personal and Private Use Only टीका प० ७१ ७२ भक्तमाल पृष्ठ ३१-३२ ३३ ३३ ३३ ३३ ३४ ३४ ३४-३५ ३५ ३६ ३६-३८ ३८ ३६ ३६ ३६ ३६ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका [ ७ ] ७३ ३६ ४० मूल ५० टीका ५० पृष्ठ ___७३ ३६ ७४-७६ ४० ७७-८१ ४०-४१ ८२ ४०-४१ ८३ ४०-४१ १०३ __४१ ८४-८५ est ८६ समुदायी टोका सिबि, सुधन्वा, दधीची, सुदर्शन । रुक्मांगद की टीका मोरधुज की टीका अलरक की टीका रंतदेव की टीका नवधा भक्ति के भक्तों के नाम परिक्षित (श्रवण), सुकदेव (कीर्तन), लक्ष्मी (चरणसेवा), प्रहलाद (स्मरस), प्रक्रूर (वंदन), हनुमान (दासातन), अर्जुन (सखा), पृथु (अर्चन), बलि (प्रात्मनिवेदन) गोहभीलां को राजा की टीका प्रहलाद की कथा प्रहलाद की टीका अक्रू रजी को टीका प्रीक्षत की टीका सुखदेव जी की टीका नवग्रहों के नाम व भक्ति वर्णन बृहस्पति, बुध, सनि, सोम, रवि, सुकर, मंगल, राहु, केतु। अठाईस नक्षत्रों का वर्णन अश्वनी, भरणी, कृतिका, रोहणी, मृगसिरा. प्रादा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, जेष्ठा, अतिमित्रा, मूल, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, श्रवण, धनिष्ठा, सतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद, रेवती। पक्षी भक्तों के नाम वर्णन गरुड़ (विष्णु), अरुण (सूर्य), हंस, सारस, ८७ మనమున ననన ८८. ८ 88 १०० १०१ यहाँ ६ मनहर छंदों का टिप्पणी में फरक है अन्यथा १०४ होते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल प० टोका १० पृष्ठ १०२ १०३ १०४ हुमायु, चकोर-शुक, मोर, कोकिल, चातक, काक-भुसुंडि, गीध। पशु भक्तों के नाम वर्णन कामधेनु, नन्दनी, कपिला, सुरह, एरावत, नदीश्वर, सिंह, मृग, उच्चश्रवा । अठारह पुराणों के नाम विष्णु पु०, भागवत पु०, मत्स्य पु०, वाराह पु०, फूरम पु०, वामन पु०, शिवपुराण, स्कंद पु०, लिंग पु०, पदम पु०, भविष्य पु०, ब्रह्मवैवर्त पु०, ब्रह्मपु०, नारद पु०, अग्नि पु०, गरुड पु०, मार्कण्डेय पु०, ब्रह्माण्ड पु० । अठारह स्मृतियों के नाम वैष्णव, मनु, पात्रेय, याम्य, हारीत, पांगिरस, याज्ञवल्क्य, शनैश्चर, सांवर्तक, कात्यायन, गौतमी, वशिष्ठ, दाक्ष्य, शांखल्य, प्रातातप, बार्हस्पति, पाराशर, ऋतु । राम सचिवों के नाम सुमंत्र, जयन्त, विजय, राष्टरवर्धन, सुराष्टर, प्रसोक (प्रकोप), धर्मपाल। यूथपालों के नाम सुग्रीव, वालि, अंगद, हनुमान, उलका, वधिमुख, द्विविद, जामवन्त, सुषेण, मयंद, नल, नील, कुमुद, दरीमुख, गंधमादन, गवाक्ष, पनस, शरमजी। अष्ट नागकुल नाम वर्णन इलापत्र, सेष, शंकु, पदम (महा), वासुकी, अंशुकमल, तक्षक, कर्कोटक। नव नंद नाम वर्णन सुनंद, अभिनंव, उपनंद, धरानंद, ध्रुवनंद, धर्मानंद, कर्मानंद, नन्द, वल्लभ । व्रज के नर-नारी भक्त वर्णन नंद, जसोदा, धरानंद, भ्रूवानंद, कीरतिदा, १०६ १०७ १०८ १०६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका मूल प० टीका प० पृष्ठ ११० १११ मधु, मंगल, राधिका, श्रीदामा, भोज, सुबल, अर्जुन, सुबाहु, ग्वालवृन्द । व्रज वनधाम वर्णन चन्द्रहास, मधुवर्त, रक्तक, पत्रक, मधुकंठ, सुविशाल, रसाल, सुपत्रि, प्रेमकंद, रसदान, शारदा, बकुल, पयद, मकरंद, कुशलकर । सप्त द्वीप, सप्त समुद्र वर्णन सस द्वीप-जम्बू, पलक्ष, शालमलि, कुश, क्रोध, शाक, पुहुकर। सप्त समुद्र-खार समुद्र, इभ, मधु, घृत, दुग्ध, दधि, सुधा। नव खंडों के अधिपति नाम नवखंड-इलावृत, भद्राश्व, हरिबर्ष, किंमपुरुष, भरत खंड, केतुमाल, हिरण्यखंड, रमणक, कुरु। अधिपति-सेस, हयग्रीव, नृसिंह, रामचंद्र, नारायन, लक्ष्मी, मत्स्य, कछप, वराह । सेवग-शिव, भद्रश्रव, प्रहलाद, हनुमत, नारद, कामदेव, मनु, प्ररयमा, भूमि । वेतद्वीप वर्णन स्वेतद्वीप टीका कलियुग के भक्तों का वर्णन चार सम्प्रदाय बिगत वर्णन मध्वाचार्य (श्री ब्रह्मसम्प्रदाय), विष्णु स्वामि (शिव सम्प्रदाय), रामानुज (श्री सम्प्रदाय), निम्बादित (श्री सनकादि सम्प्रदाय)। रामानुज सम्प्रदाय वर्णन विष्वक्सेन, सठकोप, बोपदेव, मंगलमुनि, श्रीनाथ, पुंडरीकाक्ष, राम मिष, पराकुश, जामुन मुनि । रामानुज की टीका रामानुज गुरुभाई वर्णन रामानुज नाम-श्रुतिषामा, श्रुतिदेव, ११३ ६०-६२ ४७-४८ ११४-११५ ११६-११७ ६३-६५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतिप्रज्ञा, श्रुति उदधि, दिनाज, श्रपराजित, पुष्कर, ऋषभ, वामन । लालाचार्य का वर्णन लालाचार्य की टीका सुरसुरी (पद्माचार्य) वर्णन रामानुज के पट्टधर वर्णन देवाचार्य, हरियानंद, राघवानंद, रामानंद | रामानंद के १२ शिष्य वर्णन अनंतानंद, कबीर, सुखानंद, सुरसुरानंद, रैदास, धना, सेन, पदमावति, पीपा, नरहरिदास, भावानंद, सुरसुरी । रामानंदजी की कथा अनन्तानंद की कथा कबीरजी की कथा कबीरजी की टीका कबीरजी की टीका रैदासजी की कथा रैदासजी की टीका पीपाजी की कथा पीपाजी की टीका धन्नाजी को वर्णन धन्नाजी को टीका सैनी को वर्णन सैनजी की टीका सुखानंद की कथा भावानंद की कथा [ १० ] बुरसुरानंद की कथा नरहरियानंद की कथा सुरसुरी की कथा पदमावती की कथा Jain Educationa International मूल प० ११६ ६६-१०० १२० १०१-१०२ १२१ १२२ १२३ १२४ १२५-१२६ १०३-११२ १२७-१३० ११३-११५ १३१-१३२ १३३-१३६ १३७-१३८ १३६-१४० टीका प० १४१ १४२ १४३-१४४ १४५ १४६ १४७ For Personal and Private Use Only ११६-१२४ १२५-१६३ १६४-१६६ १६७-१६८ भक्तमाल पृष्ठ ४६ ५० ५०-५१ ५१ ५१ ५१ ५२ ५२ ५३ ૪ ५५ ५६-५७ ५७-५८ ५८-६३ ६४ ६४ ६४-६५ ६५ ६५ ६५ ६६ ६६ ६६ ६७ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका [ ११ ] मूल ५० टीका प० १४८ १४६ १७०-१७१ १५०-१५३ १७२-१७३ १५४ १५५-१५६ अनन्तानंद के शिष्य कर्मचद, जोगानंद, पयहारी, स्योरी रामदास, अल्ह, श्रीरंग, गयेस। अल्हजी की कथा अल्हजो की टीका श्रीरंगजी की कथा पयहारी कृष्णदास पयहारी कृष्णदास की टीका पयहारी के शिष्य वर्णन अन, कोल्ह, चरण, नरायण, पदमनाम, केवल, गोपाल, सूरज, पुरुषा, पृथु, तिपुर, टोला, हेम, कल्याण, देवा, गंगा, समगंगा, विष्णदास, चांदन, सवीरा, कान्हा, रंगा। कोल्हकरण जी की कथा कोल्हकरणजी की टोका अग्रदासजी का वर्णन कोल्हकरण के शिष्य दमोदरदास, चतुरदास, लाखा, छीतर, देवकरन, देवासु, खेम, राइमल । अग्रदास के शिष्य नाभा, जगी, प्राग, विनोदि, पूरण, वनवारी, भगवान, दिवाकर, नरसिंह, खेम, किसोर, ऊधो, जगन्नाथ । नाभाजी का वर्णन दिवाकर का वर्णन प्रियागदासजी का वर्णन द्वारकादास का वर्णन पूरण वैराठी का वर्णन लक्ष्मन भट्ट का वर्णन खेम गसाईं का वर्णन तुलसीदास का वर्णन १७४-१७५ १७६ १५७ १६० १६१-१६३ gg १६५ १६६-१६७ १६८ १६६ १७०-१७१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसीदास की टीका मानदास का वर्णन वनवारीदास का वर्णन ham को वर्णन केवल कूब की टीका खोजीजी का वर्णन खोजीजी की टीका हराम का वर्णन हरिदास वावनों का वर्णन रघुनाथ का वर्णन पद्मनाभ का वर्णन पद्मनाभ की टीका जीवा तत्वा को वर्णन जोवा तत्वा की टीका कमालजी का वर्णन नन्ददासजी का वर्णन गुरुभक्त शिष्य वर्णन गुरुभक्त शिष्य टीका बीठलदास का वर्णन जगन्नाथजी की गाथा कल्यानजी का वर्णन टीला लाहा का वर्णन पारसजी का वर्णन पृथराज का वर्णन राज की टीका सकरन का वर्णन आसकरन की टीका भगवानदास का वर्णन Jain Educationa International [ १२ ] मूल प० १७२ १७३ १७४-१७५ १७६-१७७ १७८ १७६ १५० १८१ १८२ १८३ १८४ १८५ १८६ १८७ ८८ १८६ १६० १६१ टीका प० १३७-१८७ १६२ For Personal and Private Use Only १६३-१६४ १८८-१६६ १६७-१६८ १६६ २००-२०२ २०३ २०४-२०८ २०६-२११ भक्तमाल पृष्ठ ७४-७५ ७६ ७६ ७६ ७७-७८ ७८ ७८ ७६ ७६ ७६ ७६ το ८० ८० ८१ ८१ ८१ ८१ ८२ ८२ ८२ ८२ ८३ ८३-८४ his is his f ८४ ८४ ८४ ८५ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका [ १३ ] पृष्ठ भूल प. टीका प० १६५ १९६ १६७ ८५ १९८ ८६-८७ २ ८७-८६ नापाजी कालूजी विष्णुस्वामी संप्रदाय वर्णन ज्ञानदेव का वर्णन नामदेव, हरदास, जयदेव, तिलोचन, नाराइरणदास। ज्ञानदेव को टीका नामदेव की कथा नामदेव को टीका जयदेव का वर्णन जयदेव को टीका तिलोचन की कथा लाहोरी नारायणदास वल्लभ गुसाईं को वर्णन वल्लभ गुसाईं की टोका विट्ठलनाथ का वर्णन विट्ठलनाथ की टीका विट्ठलनाथ के पुत्रों का वर्णन गिरधर, गोकलनाथ। गिरधरनाथजी का वर्णन गोकलनाथजी का वर्णन गोकलनाथजी की टीका कृष्णदासजी का वर्णन कृष्णदासजी की टीका हरिदास रसिक वर्णन मीरांबाई का वर्णन मीरांबाई की टीका २१२-२१३ १९६-२०१ २१४-२३१ २०२-२०३ २३२-२५१ २०४ २५२-२५८ २०५-२०६ २०७ २५६-२६१ ६३-६४ ६४ २०८ ६५ २६२-२६५ S २०६ ६ २११ ६७ १७ २६२-२६४१ २१२ २६५-२६८ २१३ २६६ २१४-२१५ २७०-२७६ ९८ वास्तव में २६६-२६७ हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४ ] भक्तमाल १०७ ३१६ मूल प० टीका २० पृष्ठ नरसी जी को वर्णन २१६-२१७ १०१ नरसी जी की टीका २८०-३०६ १०१-१०५ मध्वाचार्य सम्प्रदाय २१७-२१८ मध्वाचार्य, महन्त नित्यानंद, कृष्णचंतन्य, रूप, सनातन, जीव-गोसाईं। नित्यानन्द कृष्णचैतन्य का वर्णन २१६ नित्यानन्द कृष्णचैतन्य की टोका ३०७-३१० १०६ रूप-सनातन को वर्णन २२० रूप-सनातन की टीका ३११-३१७ १०८ जीव गोसाईं को वर्णन २२१ १०८ जीव गोसाईं की टीका १०८ श्रीनाथ भट्ट का वर्णन २२२ १०८ नारायण भट्ट का वर्णन २२३-२२४ १०६ नारायण भट्ट की टीका १०६ कमलाकर भट्ट का वर्णन २२५ १०६ भक्त जक्त का वर्णन २२६ ११० माधोदासजी का वर्णन २२७-२२६ ११० माधोदासजी की टीका ३२०-३३२ १११-११२ रघुनाथ गुसाईं का वर्णन २२८ ११२ रघुनाथ गुसाईं की टीका ३३३-३३४ ११२ वृध गंगलभ्रात का वर्णन ११३ गदाधर का वर्णन ११३ गदाधर की टीका ३३५-३४२ ११३-११४ मधुर उपासक भक्त २३१ गोपाल भट्ट, भूभृति, जगन्नाथ, विठल, रिषिकेश, भगवान, महामुनि, मधु, श्रीरंग, घमंडी, जुगलकिशोर, जीव, भूगरम, कृष्णदास, दो पण्डित । गोपाल भट्ट की टीका ३४३ ११५ अली भगवान की टोका २२६ २३० ११४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका [ १५ ] मूल ५० टीका प० पृष्ठ ३४५ ११५ ३४६ ११५ ३४७ ११५ ३४६ २३२ विट्ठल विपुल की टोका लोकनाथ गुसाईं की टीका गुसाईं मधु को टोका कृष्णदास ब्रह्मचारी को टीका कृष्णदास पंडित की टीका भूगर्भ गुसाईं की टीका मुरारीदास का वर्णन मुरारीदास की टीका जनगोपालजी का वर्णन कृष्णदासजी का वर्णन संतदासजी का वर्णन संतदासजी की टीका मदनमोहनसूर का वर्णन मदनमोहनसूर की टीका तिलोचनादि १६ भक्तों का वर्णन तिलोचन, हरिनाम, धीर, अधार, शोभा, सीवा, सधना, असाधर, डुंगर, काशीश्वर, नीरद्यो, राज, पदारथ, उदां, सोभू, पदम, कृष्ण, विमलानन्द, रामदास । सधना की टीका कासीश्वर अवधूत की टीका भागवत धर्मनिष्ठ सन्यासी वर्णन दामोदरतीर्थ, चितसुखानंद, नृसिंहारण्य, माधवानंद, मधुसूदन, जगदानन्द प्रबोधानंद । प्रबोधानंद की टीका विष्णुपुरीजी का वर्णन विष्णुपुरीजी की टीका रामभक्त बालकृष्णादि का वर्णन बालकृष्ण, जडभरथ, गोविन्द । श्री प्रतापरुद्र गजपतिजू की टीका ३४८ ११६ ३४८ ११६ ११६ ११६ ३५०-३५६ ११६-११८ २३३ २३४ ११८ २३५ ११८ ___३६० ११६ २३६-३७ ११६ ३६१-३६५ ११६-१२० २३८ १२० ११८ ६६-३६६ ३७० ३७१ १२२ ३७२ १२२ १२२ ३७३ १२३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] भक्तमाल पृष्ठ मूल ५० टीका प० २४२-४३ १२३ ३७४ १२३-१२४ २४४ १२४ १२४ १२६ १२६ निम्बार्क सम्प्रदाय वर्णन नारायण से नीबादित तक परम्परा के नाम निम्बार्क सम्प्रदाय की टीका निम्बार्क के गद्दीस्थ प्राचार्य वर्णन भूरीभट्ट, माधोभट्ट, श्याम, राम, गोपाल, बलिभद्र। कैसो भट्ट का वर्णन कैसो भट्ट की टीका श्रीभट्ट का वर्णन हरि व्यासजी का वर्णन हरि व्यासजी की टीका परसरामजी का वर्णन परसरामजी की टीका सोभूरामजी की गाथा चतुरा नागाजी का वर्णन चतुरा नागाजी की टीका माधोदास संतदासजी का वर्णन प्रात्माराम कानडदास हरिवंशजी का वर्णन हरिवंशजी की टीका व्यास गुसाईं का वर्णन व्यास गुसाईं को टीका गदाधर का वर्णन मदाधर की टीका चत्रभुज का वर्णन चत्रभुज को टीका केशवदास का वर्णन परमानंद का वर्णन सूरदासजी का वर्णन २४५ १२४ ३७५-३७६ २४६ १२५ २४७ १२५ ३८०-३८१ २४०-२४६ ३८२ २५० १२७ २५१-५२ १२७ ३८३-३८५ १२१-१२८ २५२ १२८ २५३-२५४ १२८ २५५ १२८ ३८६-३८८ १२६ २५६-२५७ १३० ३८६-३६४ १३० २५८ १३१ ३९५-३९८ २५६ १३२ ३६९-४०२ १३२ २६० १३२ २६१-२६२ १३३ २६३-२६४ १३३ १३१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका [ १७ ] पृष्ठ मूल ५० टोका प० २६५ ४०३-४१३ १३४ १३४ १३५ २६६ २६७ २६८-२६६ १३६ १३६ ४१४-४१६ २७० १३७ ४१७ १३७ १३७ २७१ २७२ १३८ २७३ १३८ विल्वमंगल सूरदास का वर्णन विल्वमंगल सूरदास की टीका षड्दर्शन भक्त वर्णन सन्यासी दर्शन भक्त नामावली दत्तात्रय वर्णन शंकरस्वामी वर्णन शंकरस्वामी की टीका श्रीधरस्वामी वर्णन श्रीधर स्वामी की टीका सिरोमणि सन्यासी नाम भक्तिपक्ष संन्यासी नाम माधो, मधुसूदन, प्रबोधानंद, रामभद्र, जगदानंद, श्रीधर, बिष्णुपुरी। अन्य भक्त संन्यासी नाम नृसिंह भारती, मुकुंद भारती, सुमेर गिरि, प्रेमानंद गिरि, रामाश्रम, जगजोति वन । जोगीदर्शन (नाथ) अष्टसिद्ध नवनाथ वर्णन प्रादिनाथ, मछिद्रनाथ, गोरख, चर्पट, धर्मनाथ, बुद्धिनाथ, सिद्धजी, कंथड़, विंदनाथ । चौरंग, जलंध्री, सतीकणेरी, मडंग, मडकीपाव, धुंधलीमल, घोडाचोली, बालगुदाई, चूरणकर, नेतीनाथादि २४ नाम । मछिन्द्रनाथ वर्णन जलंध्रीनाथ वर्णन गोरखनाथ वर्णन चौरंगीनाथ वर्णन धुंधलीमल वर्णन भरथरी वर्णन गोपीचन्द वर्णन २७४ १३८ २७५-२७६ १३८-१३६ १३६ १३९ २७७ २७८ २७९-२८० २८१ २८२ २८३-२८४ २८५-२८६ १३६-१४० १४० १४० १४१ १४१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ १४२ २६० १४२ [ १८ ] मक्तमाल मूल प. टीका प. चर्पटनाथजी २८७ . १४१ पृथीनाथजी वर्णन २८८ १४१ बोध (बौद्ध) दर्शन १४१-१४२ भृगुमरिच्यादि वर्णन १४२ जंगमदर्शन (४) २८६ जैनदर्शन (५) (परिशिष्ट पद्यांक ७४४ से ७४५) १४२ यवनदर्शन (६) (परिशिष्ट पद्यांक ७४६ से ७५५) १४२ (समुदाई वर्णन, फरीदजी का वर्णन, सुलताना १४२ का वर्णन, हसम साह, मन्सूर, वाजिद ख्वाज, सेऊसमन पुत्र, काजी महमद, समुदाई वर्णन) समुदाई वर्णन १४२ भक्तदास भूप कुलशेखर नाम टीका । ४१८-४१६ लीला अनुकरण तथा रनवंतबाई टीका ४२० १४३ समुदाई भक्त वर्णन (सिलपिले, कर्मा, श्रीधर) २६१ पुरुषोत्तम पुरवासी राजा को टीका ४२१-४२३ करमाबाई को टीका ४२४.४२५ १४४ सिलपिल्ले की भक्त दो बहिनें ४२६-४३७ सुतविषदातृ उभैबाई ४३८-४३६ १४५ वल्लभबाई का वर्णन १४६ समुदाई गाथा वर्णन २६२ १४६ मामा भानजे की टीका ४४०-४४३ १४७ हंस प्रसंग की कथा ४४४. .४६ १४८ सदावति स्यार सेठ को टीका ४४७-४५१ तीन भक्तों का वर्णन २६३ १४६ भुवनसिंह चौहान का वर्णन २६४ १४६ भुवनसिंह चौहान की टीका ४५२-४५४ १५० देबा पंडा को टीका ४५५.४५७ कमधज की टीका १५० + यह छंद पहि ने पद्यांक ४७ पृष्ठ २५ पर मा चुका है १४४ १४४ १४८ १५. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ १५४ १५४ अनुक्रमणिका [ १६ ] मूल ५० टीका प० पृष्ठ जैमलजी की टीका ४५६-४६० ग्वाल भक्त की टीका ४६१ श्रीधर अवस्था का वर्णन ४६२ १५१ त्रय भक्त समुदाई वर्णन २६४ निह कंचन की टीका ४६३-४६५ १५२ साखी गोपाल की टीका ४६६-४६६ १५२ रामदासजी की टीका ४७०-४७३ १५३ हरिदासजी का वर्णन २६५ १५३ जसू स्वामी की टीका ४७४-४७५ नंददास वैष्णु की टोका ४७६ १५४ वारमुखी वर्णन वारमुखी की टीका ४७७-४७६ १५४ विप्र हरिभक्त का वर्णन एवं टीका २६७ ४८०-४८१ १५५ भक्त भूप का वर्णन भक्त भूप की टोका अंतरनेष्टी नृप को कथा २६३ १५६ अंतरनेष्टी नृप की टोका ४८३-४८६ माथुर विट्ठलदास का वर्णन ३०० १५७ माथुर विट्ठलदास की टीका ४६०-४६१ १५७-१५८ हरिरामदास का वर्णन १५८ हरिरामदास की टीका ४९२ १५८ चोर वंकचूल वर्णन (परिशिष्ट में) २६० जसु कुठारा का वर्णन (परिशिष्ट में) २६०-२६१ समुदाई भक्त वर्णन ३०२ १५८ श्री राकापति वांकाजी का मूल ३०३-३०४ १५६ श्री राकापति वांकाजी की टोका ४६३-४६५ १५६ द्योंगू भक्त का वर्णन ३०५ १६० सोझा सोझी का वर्णन ३०६-३०७ कोताना का वर्णन २६८ ४८२ १५६ १६० ३०८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुदाई भक्त वर्णन लड्डू भक्त की टीका संत भक्त की टीका तिलोक सुनार की टीका समुदाई भक्त वर्णन श्री गोविन्द स्वामीजी की टीका रामभद्रादि समुदाई वर्णन श्री गुंजामाली की टीका सीताभाली की समुदाई वर्णन गणेश रानी की टीका मयानंदजी की समुदाई वर्णन वाहन की टीका नियाराम आदि का समुदाई वर्णन रामदासजी का वर्णन गुपाल भक्त की टीका चतुरभुज का वर्णन चतुरभुज की टीका [२०] गरीबदास आदि का समुदाई वर्णन लाखा भक्त का वर्णन लाखा भक्त की टीका दिवदासजी का वर्णन माधो प्रेमी का वर्णन माधो प्रेमी की टीका अंगद भक्त का वर्णन अंगद भक्त की टीका जैमल की टीका मधुकर साह की टीका राजकुलभक्त का समुदाई वर्णन सूरजमल, रामचंद, जैमल, अभैराम, कान्हा । Jain Educationa International मूल प० ३०६ ३१०-३१२ ३१३ ३१४ ३१६ (परिशिष्ट में पद्मांक ८८२) ३१५ ३१७ ३१८-३१६ ३२० ३२१ ३२२ ३३३ ३३४ For Personal and Private Use Only टीका प० ४६६ ४६७ ४६८-५०० ५०१-५०५ ५०-५०७ ५०८-५०६ ५१० ५११-५१२ ५१३-५१६ ५२० ५२१-५२८ ५२६-५३४ ५३५-५३६ ५३७ भक्तमाल पृष्ठ १६० १६१ १६१ १६१ १६१-१६२ १६२ १६३ १६३ १६४ १६४ १६४ १६४ १६५ १६५ १६५ १६५ १६६ १६६ १६७ १६७ १६८ १६८ १६८- १६६ १६६ १७० १७० १७१ १७१ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ १७४ अनुक्रमणिका [ २१ ] मूल ५० टीका प० पृष्ठ खेमाल की कथा ३३५ १७१ रामरनि की कथा ३३५ १७२ रामरैनि की टीका ५३८ १७२ रामवाम की कथा राजाबाई की टीका ५३६ १७२ किशोरदास का वर्णन १७२ किशोरदास की टीका ५४०-५४१ १७३ खेमाल (हरिदास) का वर्णन १७३ नीमा खेतसी , ३३८ कात्यायनीबाई , १७३ मुरारीदासजी , ३४० १७४ मुरारीदासजी की टीका ५४२-५४६ इति समुदाई भक्त वर्णन। चतुरपंथ विगत वर्णन ३४१-३४२ १७५ नानक, कबीर, दादू, जगत, (हरि. . निरंजनी)। सम्प्रदाय की पद्धति वर्णन चतुर्मत के प्राचार्य एवं नानक दादू का महत्त्व वर्णन ३४४ नानकजी का मत वर्णन ३४५-३४६ १७६ लक्ष्मीचंद श्रीचंदजी का समुदाई वर्णन १७६ नानक की परंपरा का वर्णन ३४८ १७६ कबीर साहब पंथ वर्णन ३४६-३५२ १७७ कबीर शिष्य नामावली का वर्णन ३५३ १७८ कमाली का वर्णन ३५४ १७८ ज्ञानीजी का वर्णन ३५५ १७८ धर्मदासजी का वर्णन ३५६-३५८ १७१ श्री दादूदयालजी का पंथ वर्णन ३५६-३६० श्री दादूदयालजी को टीका ५४७-५५७ १८०-१८३ १७५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल पृष्ठ १८३ १६३ १६३ [ २२ ] मूल प० टीका १० श्री दादू के शिष्यों का वर्णन ३६१-३६२ गरीबदास, मसकीन, दवाई, (दो) सुन्दरदास, रज्जब, दयालदास, (चार) मोहन । गरीबदासजी का वर्णन ३६३-३७० १८३-१८५ सुन्दरदासजी (बड़ा) का वर्णन ३७१-३७७ १८६-१८७ रज्जबजी का वर्णन ३७८-३८७ १८७-१८६ मोहनदास मेवाड़ा का वर्णन ३८८-३९० १८६ जगजीवनदास का वर्णन ३६१-३६३ १६० बाबा बनवारीदासजी का वर्णन ३६४-३६६ १६१ चतुरभुजजी का वर्णन ३६७-४०० १९२-१६३ प्रागदास विहाणी का वर्णन ४०१-४०२ जयमलजी (दोनों) का समुदाई वर्णन ४०३ चौहान जैमलजी का वर्णन ४०४-४०५ १६४ कछवा जैमलजी का वर्णन ४०६-४०८ १६४-१६५ जनगोपालजी का वर्णन ४०६-४११ १६५-१६६ वखनाजी का वर्णन ४१२-४१४ जग्गाजी का वर्णन ४१५-४१६ १९७ जगन्नाथजी का वर्णन ४१७-४१८ १६७ सुन्दरदासजी बूसर का वर्णन ४१६-४२७ १९८-२०० सुन्दरदासजी बूसर की टीका ५४८-५५१ २००-२०१ वाजिन्द जी का वर्णन ४२८ दादूजी के सेवकों का वर्णन (परिशिष्ट पद्यांक १०६४) बाइयों का वर्णन ( , , १०६५) दादूजी के शिष्यों के भजन स्थानों का वर्णन (परिशिष्ट में १०६८-से ११०३) निरंजनी पंथ वर्णन निरंजन पंथ नामावली ४२६ ४३० २०२ जगन्नाथजी लपट्या की टीका ५५२ अानन्ददासजी का वर्णन ४३१-४३२ २०३ श्यामदासजी का वर्णन २०१ २०२ २०३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २०३ ४३७ ४४२ अनुक्रमणिका [ २३ ] मूल प. टीका प० कान्हड़दासजी का वर्णन ४३४ पूरणदासजी का मूल ४३५ २०३ हरिदासजी का वर्णन ४३६ २०४ तुलसीदासजी का वर्णन २०४ मोहनदासजी का वर्णन ४३८ २०५ रामदासजी ध्यानदासजी का वर्णन ४३६ २०५ खेमदासजी का वर्णन २०५ नाथ जू का वर्णन २०५ जगजीवनजी का वर्णन २०५ सोभावती का वर्णन ४४३ २०६ निरंजन पंथ के महन्तों के स्थान २०६ चतुर्थ पंथ भक्त वर्मन समान । पुनः समुदाई भक्त वर्णन माधो कांणी का वर्णन ४४५ २०६ (परिशिष्ट में पद्यांक ११२४) ततवेताजी का वर्णन २०६ दामोदरदास का वर्णन ४४७ २०७ जगन्नाथजी का वर्णन ४४८ २०७ मलूकदासजी का वर्णन २०७ मानदास आदि का समुदाई वर्णन २०७ चारण हरिभक्तों का समुदाई वर्णन ४५१ २०८ करमानंद की टीका २०८ कौल्ह अल्लूजी की टीका ५५४-५५८ २०८ नारायणदासजी की टीका २०६ पृथ्वीराज का वर्णन ४५२ २०६ पृथ्वीराज की टीका ५६०-५६२ २०६ द्वारिकापति का वर्णन ४५३ द्वारिकापति की टोका रतनावती का वर्णन ४५४ २१० रतनावती की टीका . ५६४-५८० २११-२१३ ४४६ ४५० २१० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरादासजी का वर्णन मथुरादासजी को टीका नारायणदासजी का वर्णन नारायणदासजी की टीका छीतस्यांम का समुदाई वर्णन रामरेन आदि का समुदाई वर्णन विदुर वैष्णव की टीका परमानन्द श्रादि के नाम, स्थान वर्णन कान्हदास का वर्णन भगवानदासजी का वर्णन भगवानदासजी की टीका जसवंत का वर्णन महाजन और हरिदास का वर्णन महाजन और हरिदास की टीका विष्णुदासजी गोपालदासजी का वर्णन विष्णुदासजी गोपालदासजी की टीका करमेती बाई का वर्णन करमेती बाई की टोका खडगसेन का वर्णन खडगसेन को टीका गंग ग्वाल का वर्णन गंग ग्वाल की टीका लालदास का वर्णन माधो ग्वाल का वर्णन प्रेमनिधि का वर्णन प्रेमनिधि की टीका समुदाई वर्णन भट्ट आदि के नाम स्थान का वर्णन बाई भक्तों के नाम वर्णन [ २४ ] Jain Educationa International मूल प० ४५५ ४५५ ४५६ ४५७ ४५८ ४५६ ४६० ४६१ ४६२ ४६३ ४६४ ४६५ ४६६ ४६७ ४६८ ४६६ ४७० ४७१ ४७२ For Personal and Private Use Only टीका प० ५८१-५८२ ५८३-५८४ ५८५ ५८६-५८७ ५८८-५८६ ५६०-५६३ ५६४-६०१ ६०२ ६०३ ६०४-६०६ भक्तमाल पृष्ठ २१३ २१३ २१४ २१४ २१४ २१४ २१५ २१५ २१५ २१५ २१६ २१६ २१६ २१६ २१७ २१७ २१८ २१८ २१६ २१६ २२० २२० २२० २२० २२१ २२१ २२२ २२२ २२२ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका [ २५ ] पृष्ठ मूल ५० टीका १० ४७३ ४७४ २२२ २२२ ६१० ६१० २२३ २२३ ४७५ २२३ ४७६ २२३ २२४ ४७७ ४७८ २२४ ६११-६१७ २२४-२२५ ४७९ २२५ ६१८ २२६ ४८० २२६ ६१६-६२० २२६ ४८१ २२६ कान्हड़दास का वर्णन केवलरामजी का वर्णन केवलरामजी की टीका हरिवंशजी का वर्णन कल्याणजी का वर्णन श्रीरंग आदि का समुदाई वर्णन राजा हरिदासजी का वर्णन राजा हरिदासजी की टीका कृष्णदासजी का वर्णन कृष्णदासजी की टीका नारांइनदासजी का वर्णन नारांइनदासजी की टीका भगवानदासजी का वर्णन भगवानदासजी की टोका नारांइनदास का वर्णन जगतसिंह (मघवानंद) का वर्णन जगतसिंह (मघवानंद) की टीका दीपकंवरी की टीका गिरधर ग्वाल का वर्णन गिरधर ग्वाल की टीका गोपालबाई का वर्णन रामदासजी का वर्णन रामदासजी को टीका रामरायजी का वर्णन भगवन्तजी का वर्णन भगवन्तजो की टीका मृगबाला आदि का समुदाई वर्णन बलजी का वर्णन रामनाम जप की महिमा के उदाहरण ४८२ २२७ ४८३ २२७ २२७ २२७ ४८४ २२८ ४८५ २२८ ४८६ २२८ ६२५-६२६ २२६ ४८७ २२६ २२९ ६२७-६३० ४८६ २३० (परिशिष्ट में पद्याक १२४९) ४६०-४६१ ४८८ २२६ २३० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल २३१ ४६७ २३३ [ २६ ] मूल ५० टीका १० पृष्ठ खरहंत का वर्णन (परिशिष्ट पद्यांक १२५१-२) लालमती की कथा ४६२ कृष्ण पंडित का वर्णन ४६३ २३१ उत्तर के द्वादस भक्तों का वर्णन ४६४ २३१ राघवानन्द का समुदाई वर्णन ४६५ २३२ विश्वासी भक्तों के नाम ४६६ २३२ अखै भक्त की कथा २३२ परमानन्द साह का वर्णन ४६८ २३२ बलिदाऊ की कथा ४६६ २३३ कान्हाजी का वर्णन ५०० २३३ दादूजी पौत्र-शिष्य-नामावली ५०१ फकीरदासजी का वर्णन (मसकीनदास के शिष्य) ५०२ २३३ केवलदास (गरीबदास के शिष्य) ५०३-५०४ २३४ रज्जबजी के शिष्य ५०५ गोबिन्ददास, खेमदास, हरिदास, छीतर, जगन, दामोदर, केसो, कल्याण, (दो) बनवारी । खेमदास (रज्जब शिष्य) ५०६ २३५ प्रहलाददास वर्णन ५०७-५०८ २३५ चैन चतुर का वर्णन ५०६-५१० २३५ नारायनदास का वर्णन ५११ चतुरदास का वर्णन (मोहनदास के) मोहनदास के शिष्य गोविन्दनिवास, हरिप्रताप, तुलसीदास दामोदरदास का वर्णन (जगजीवन के शिष्य) ५१४ नारायनदास का वर्णन (घडसी के शिष्य) ५१५ २३७ गोविन्ददासजी का वर्णन ५१६ २३७ परमानन्द का वर्णन (बनवारीदास के शिष्य) ५१७-५१८ २३८ विहाणी प्रागदास शिष्य वर्णन ५१६ २३८ बलराम का वर्णन ५२० २३८ २३४ २३६ २३६ २३६ २३७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२१ २३८ ५२३ ५२४ ५२६ २४० २४० अनुक्रमणिका [ २७ ] मूल प० टीका १० वेणीदास का वर्णन (माखू के शिष्य) बूसर सुन्दरदास के शिष्य ५२२ २३६ दयालदास, श्यामदास, दामोदरदास, निरमल, निराइनदास । नारांइनदास (सुन्दर के शिष्य) २३६ बालकराम २३६ चतुरदास, भीखदास ५२५ २४० दासजी नाती नृसिंहदास अमर ५२७ हरिदासजी ५२८ २४० (हापोजी, प्रहलादजी के शिष्य राघोदास के गुरु) २४० प्रहलादजो के शिष्यों का वर्णन २४० (राघोदास के बाबा व काका गुरु) हापाजी के शिष्य ५३०-५३१ २४१ (राघोजी के गुरु भ्राताओं का वर्णन) भक्तवत्सल को उदाहरण ५३२-५३८ २४१-२४३ (भगवान को भक्तवत्सलता भक्तों पर) उपसंहार ५३६-५५५ २४३-२४६ टीका का उपसंहार ६३१-६३६ २४६-२४८ प्रति लेखन पुष्टिकरण २४८ परिशिष्ट नं० १ (परिवद्धित संस्करण का अतिरिक्त पाठ) २४६-२७४ परिशिष्ट नं० २ (दादूपन्थी सम्प्रदाय की प्राचीन व संक्षिप्त भक्तमाल) २७५-२७९ ___ दादूजी शिष्य जगाजी रचित, पद्य ६६ परिशिष्ट नं. ३ (चैनजी रचित भक्तमाल; पद्य ६१) २८०-२८६ ५२९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदासजी द्वारा ग्रन्थ-समर्पण मगन महोदधि है भरचौ, जन पूजत डरपै । वह गंभीर गहरौ भरयौ, यह तुछ जल अरपै । रती यक किरची कंचन की, ले मेरहि परसै । देखत निजर न ठाहरै, कंचनमय दरसै। जैसे सुरतर कौं धजा, रचि पचि प्ररपै नैंक नर। त्यूं रघवा इत पूजिक है, उत हरिजन त्रिय-ताप-हर ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल चतुरदास कृत टीका सहित . टीका-कर्ता को मंगलाचरण साख (दोहा) गुर गनेस जन सारदा, हरि कवि सबहिन पूजि । भक्तमाल टीका करू', मेटहु दिल की दूजि ॥ इदव पैल निरंजन देव प्रणांमहि, दूसर दादुदयाल मनांऊं। छद सुन्दर कौं सिर ऊपरि धारि रु, नेह निरांइणदास लगांऊं। रांम दया करिहैं सुख संपति, मैं सु संतोष जु सिष्य कहांऊं । राघवदास दयागुर प्राइस, इंदव छंद सटीक बनाऊं ॥१ टीका : सरूप-वर्णन कावि बनावत आनंददाइक, जो सुनिहैं सु खुसी मन माहीं। माधुरता अति अक्षर जोड़न, आइ सुनै सु घने हरखांहीं । जोड़ सराहत जे अपने कवि, ताहि सबै कहि सो कछू नांहों। ह उर भाव र ग्यांन भगत्तन, राघव मो तन टीक करांहीं ।।२ भक्ति-सरूप वर्णन भावत भगति तियां श्रब संतनि, तास सरूप सुनौं नर लोई। नांव सुनीर नवन्य नहावन, वेस विवेक बन्यौ बप वोई । भूषन भाव चुरा चित चेतन, सौंध संतोष सु अंग समोई। अंजन आनंद पांन सचौपन, सेज सदा सतसंगति सोई ॥३ भक्ति पंच रस-वर्णन पांच भगत्य कहे रस संतन, सो बिसतार भलीं बिधि गाये। १बाछलि २दास्य ३सखापन ४सांत रु और सिंगार सरूप दिखाये। टिप्पण' को उर स्वाद लहौ जब, बैठि बिचार करौ मन भाये । रोम उठे न बहै द्रिग ते जल, अँसिनु प्रेम समुद्र बुड़ाये ॥४ १. करौं। २. अपनी। ३. सो। ४. प्रानन्दयान। ५. टप्पण । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ] राघवदास कृत भक्तमाल फूल भये रस पंचम रगन, थाकद्रे १ यह दाम बनाई। राघव मालनि लै करि सांम्हनि, सुन्दर देखि हरि मन भाई। डारि लई गरि प्रीति घणी करि, काढ़त नांहि न' अन सुहाई। भार भयो बहु भक्तन की छबि, जानत हैं इन पांइन आई॥५ सतसंग-प्रभाव पौधि भगत्य बिधंन सबाकर, भोत बिचार सु बारि लगाई । साध समागिम पाइ वहै जल, प्रौढ भयौ अति डार वधाई। थांवल संत रिदौ बिसतीरन, जीव जिये दुख ताप नसाई। छेरनि को डर जाहि हुतौ बहु, ज्यौरि बढ्यौ मतगेंद झुलाई ॥६ राघवदासजी को वर्णन संत सरूप जथारथ गाइउ, कीन्ह कवित्त मनूं यह हीरा। साध अपार कहे गुन ग्रंथन, थोरहु प्रांकन में सुख सीरा। संत सभा सुनिहै मन लाइ र, हंस पिवै पय छाडि र नीरा। राघवदास रसाल बिसाल सु, संत सबै चलि आवत कीरा ॥७ श्री भक्तमाल-सरूप-वर्णन दीरघदास पढे निसवासुर, पाप हरै जग जाप करावै। जानि हरी सनमान करै जन, प्रीत धरै जग रीति मिटावै। कौंन अराधि सके उन भक्तन, ठीक न ठाक मनों भय आवै। माल गरै तिलकादिक भाल सु, माल भगत्त बिना रुलि जावै ।।८ संत हरी गुर सौं जन सौं मुख, टेक गही वह भक्त सही है। रूप भगत्य सुनौं चित लाइ र, नांव लये द्रिग धार बही है। भक्तन प्रीति बिचार तवै हरि, झूठि उठांवन कृष्ण कही है। लै गुर की गुरताइ दिखावत, श्री पयहारि निहारि मही है ॥६ १. थाकन्दे गूथा। २. ताहि न । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित _____ मूल : मंगलाचरण-वर्णन दोहा छंद नमो परम गुर सुद्ध कर, तिमर अग्यांन मिटाइ। आदि अजन्मां पुरुष कौं, किंहि विधि नर दरसाइ ॥१ नरपद सुरपद इंद्रपद, पुनि हि मोक्षपद मूर। सदगुर सो द्रिब द्रिष्टि द्यौ, अन्तर भास नूर ॥२ (अब) कहत परमगुरु प्रष्ण' हदयौ परमधन दाखि । भक्त भक्ति भगवंत गुर, राघव अ उर राखि ॥३ प्रथम प्रणम्य गुर-पादुका, सब संतन सिर नाइ।। इष्ट अटल परमातमां, परमेसुर कृत गाइ ॥४ बिष्णु बिरंचि सिव सेस जपि, जती सती सिद्धिसैरण। बागी गणपति कविन कौं, चवें चतुर विग-बैंग ॥५ अब अरज भक्त भगवंत सौं, गरज करौ गम होइ। हरि गुर हरि के आदि भृति, जन राघव सुमरे सोंइ ॥६ व्यापिक ब्रह्मण्ड पच्चीस मधि, सुरग मृति पाताल । भक्तन हित प्रभु प्रगट ह, राघव राम दयाल ॥७ सत त्रेता द्वापर कलू, ये अनादि जुग च्यारि । राघव जे रत राम सू, संत महंत उर धारि ॥८ भक्त भक्ति भगवंत गुर, अ मम मस्तक मौर। राघव इनसौं बिमुख ह, तिनकू कतहु न ठौर ॥ भक्त भक्ति भगवंत गुर, ये उर मधि उपवासि । राघव रीझ रामजी, जांहि बिघन-क्रम नासि ॥१० भक्त बड़े भगवंत सम, हरि हरिजन नहीं भेद ।। अरस परस जन जगत गुर, राघव बरणत बेद ॥११ हरि गुर प्राज्ञा पाइक, उद्यम कीनों ऐह । जन राघौ रामहि रुच, संतन को जस प्रेह ॥१२ भक्तमाल भगवंत कौं, प्यारी लगे प्रतक्ष । राघव सो रटि राति दिन, गुरन बताई लक्ष ॥१३ १. प्रसन्न। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ] राघवदास कृत भक्तमाल समद समाइ न पेट में, को सिर धरै सुमेर । असो बकता कौन है, अनुक्रम बररण लेर ॥१४ गुर दादू गुर परमगुर, सिष पोता परजंत । प्रागै पीछे बरनते, मति कोई दूषौ संत ॥१५ हूं कछू समझत हूं नहीं, महल मिसली की बात ।। जगतपिता सम जपत हूँ, हरि हरिजन गुरु तात ॥१६ छपै छंद गुर उर मधि उपगार करत, कछू तथा न राषी। श्रब'लक्षन श्रब कृपा सकल, भिन भिन करि भाषी। रती एक रज (मो) प्रापि, काच तै कंचन कीनौं। . जत सत ज्ञान बिबेक, धर्म धीरज दत दीन्हौं । श्री गुर धुर तारण-तिरण, हरण बिघन त्रिय ताप सुव । (अब) राघव के रक्षपाल तुम, बिकट बेर मधि बाप जुव ॥१ नीसाणी दिनकर को जो दीवो, जिती ले जोति दिखावै । सिसि कौं सीरक सींक भरे, सनमुख सिर नावै । बाणी गणपति कौं ज, गुणी ह' अक्षर चढावै । भजन भक्ति जग जोग कृत सिव सेस मनावै । श्रोत्र · बृति सनकादिक, मुनि नारद ज्यूं गावै । राघव. रीति बड़ेन की, का पै बनि प्रावै ॥२ मगन महोदधि है भर्यो, जन पूजत डरपै। वह गंभीर गहरौ भर्यो, यह तुछ जल अरपै । रती यक किरची कंचन की, ले मेरहि परसै। देखत निजर न ठाहरै, कंचनमय दरसै। जैसे सुरतर कौं धजा, रचि पचि प्ररप नैक नर । त्यं रघवा इत पूजिक है, उत हरिजन त्रिय ताप हर ॥३ गुर गौबिद प्रणांम करि, तबहि गम तौकौं होइ है। च्यार्यों जुग के संत, मगन माला' ज्यौं पोइ है । नग रूपी निज संत, पोइ प्रगट करि बांरणी । गगन मगन गलतांन, हेरि हिरदा मधि प्रांणी । १. श्रब। २. कृया। ३. द्वे । ४. वहै। ५. माया । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टोका सहित मंगल रूपी मांड महि, हरि हरिजन तारन तिरन। भृत्य करत विरदावली, जन राघव भरिण भव दुख हरन ॥४ नमो नमो कवि ईस, भये जेते सत त्रेता । द्वापर कलिजुग आदि, तिरन तारन ततबेता। नमो सुति समृति, नमो सास्त्र पुरांनन । नमो सकल बकताब, नमो जे सुनत सुकांनन । मैं गम बिन ग्रंथ प्रारंभियो, कविजन करिहैं हासि। अब सिलहारे कौं को गिन, जन राघव ताकै' रासि ॥५ ॐ चतुर निगम षट सास्त्रह,गीता अरु बिसिष्ट बोधय । बालमीक कृत व्यास कृत, जपें जो करहि निरोधय । प्रथम प्रादि नवनाथ, भरणहु चतुरासी सिधय । सहस अठ्यासी रिष, सुमरि पुनरपि कवि बिधिय । सिध साधिक सुरनर असुर, श्रब मुनि सकल महंत । अब श्रब अरज अवधारिज्यौ, जन राघवदास कहंत ॥६ मनहर छंद अंगीकार प्राप अविनासी जाकौं करत है, . सोई अति जान परवीन परसिधि है। सोई अति चेतन चतुर चहुं चक मधि, बांरणों को बिनापी बिस्तार जैसै दधि है। जोई अति कोमल कुलोन है कृतज्ञ बिज्ञ, रिद्धि सिद्धि भगति मुगती जाकै मध्य है। राघौ कहै रामजी के भाव सौं भगत भरिण, बात तेरी जैहै बरणी बांरणी तेरी बृधि है ॥७ मया दया करिहैं देवादिदेव दीनबंधु, तब कछु हहै बुधि बांणी की बिमलता। जैसी शसि कातिग में श्रवता अमि असंखि, निखरि के होत नीकी नीर की नृमलता। रजनी को तिमर तनक मधि दूरि होत, दोसै बित बस्त भाव दीपक ह जलता। १. जिनकै । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल राघौ कहै जाकी बरणी सुरिण गुरिण होत सुधि, नीति के बिचारे बिन धर्म नांहीं पलता ॥८ कंडलीया छंद मया दया करि मांन दे, अंत्रजांमी पाप । सोई कबि कोबिद सिर, जपं अजपाजाप । जपे अजपाजाप, पाप-त्रिय-ताप न व्याप । प्रासा जीत प्रतीत, भजन सूं कबहुं न धापें । त्रिपति ज्ञान विज्ञान सूं, श्रव नख-सख धुनि होई। जन राघौ रटि सोई राम जन, यों भक्तमाल उर पोई ॥९ प्रब राघव नमो निरंजन, मेटहु अंग अंधेर कौं। नमो विष्णु-विधि सिवहि, सेस सनकादिक नारद । नमो पारषद भक्त, नमो गणपति गुरण शारद । स्वांभू मनु कासिव, दक्ष दधीचहि बन्दन । क्रदम अथरवा धर्म, करन सो क्रम निकंदन । नमो सुराधिपति सूर ससि, नमो सुबरण कुबेर कौं। अब राघव नमो निरंजन, मेटहु अंग अंधेर कौं ॥१० मनहर छंद नमो नमो नमो निराकार करतार जपि, विष्णु विरंचि सिव सेस सीस नाई हूँ। द्वादस भक्त नमो दस षट पारषद, नमो नव नाथ जु चौरासी सिध गाइ हूँ। देव सर्व रिष सर्व निरखी नक्षत्र श्रब, जती षट सती सप्त बीस हूँ मनाई हूँ। तत्व कॅन वीस त्रयलोक मध्य जे प्रसिधि, रघवा रटत प्रतक्ष कब पाई हूँ ॥११ नमो बिस्वभरन बिसंभर बिधाता दाता, विष्णु जु बैकुण्ठनाथ मेरौ बल तेरौ है। लक्ष्मी चरणसेव बाहण गरुड़देव, प्रायुध चकर कर तीनों लोक डेरौ है। द्वादस भक्त संग दस षट पारषद, भगतबछल बृद भीर परे नेरौ है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित छपे छंद राघौ कहै सबद सपरस रूप गंध, दूरि कीजे दीनबंधु ये तौ दोष मेरौ है ॥१२ नमो बिधि बिधि प्रकार के रचनहार, प्रादि ततवेता तुम तात त्रिहूँ लोक के । जप गुर तप गुर जोग जज्ञ व्रत गुर, आगम निगम पति जांरग सब थोक के । नर पुजि सुर पुजि नागहूँ श्रसुर पुजि, परम पवित्र परिहारि सर्व सोक के । ऊपजे कवल मधि नाभि करतार की सूं, राघो कहै मांनियो महोला मम थोक के ॥१३ अरक प्रहार सिणगार भसमी को भर, सो हर निडर निसंक भोला चकवै । पूरक पवन प्रारण वायु को निरोध करें, जपति प्रजपा हरि रहे थिर थक्कुवै । गौरी श्ररधंग संग कीयो है अनंग भंग, Jain Educationa International कालहू सूं जीत्यो जंग पूरा जोगी पक्कवै । राघौ कहे जगै न' जगतपति सेती ध्यान, afsi aडोल प्रति लागी पूरी जक्कवै ॥१४ प्रादि अनभूत तू श्रलेख हैं श्रद्वीत गुन, नमो निराकार करतार भने सेस है । हारे न हजार मुख रांम कहै राति दिन, धारें धर सीस जगदीशजी के पेस है । दुगरण हजार हरि नांव निति नवतम, रटत अखंड व्रत भगत नरेस है । राघो कहै फनिपति सौ अन्य न प्रति, केवल भजन बिन प्रांनन प्रवेश है ॥१५ चतुरबीस अवतार जो जन राघो के उर बसौ ॥० कछ मछ बाराह, नमो नरस्यंघ बांवन बलि । रघुवर फरसाधरन, सुजस पिवत्र कृष्ण कलि । १. छूट नहीं । २. पित्र । For Personal and Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ ] राघवदास कृत भक्तमाल व्यास कलंकी बुद्ध मनुंतर, पृथु हरि हंसा। हयग्रीव जज्ञ रिषभ धनुन्तर, ध्रव बरदंसा। दत्त कपिल सनकादि मुनि, नर नारांइन सुमरि सो। चतुरबीस अवतार जो, जन राघो के उर बसौ ॥१६ टीका इंदव कूरम ह गिर मन्दर धारि, मथ्यौ सब देव दयन्त समुद्रा। छंद मीन भये सतिबर्त सु अंजलि, लै परलै दिषराइहु क्षुद्रा । सूकर काढ़ि मही जल मांहि रु, मारि हिनाक्षस थापि र दुद्रा। सिंघ सरूप प्रलाद उधारन, द्वैत हिरणांकुस फारन उद्रा ॥१० बावन रूप छले बलिराजन, इन्द्रहि राज दियो इकतारा । मात पिता दुखदाइक जो, प्रसरांम खित्री न रख्यौ जग सारा । रांम भये दसरत्थ तण वर, रांवन कुंभकरन बिडारा। कृष्ण जरासुव कंस हने मुरि, साल्वहि मारि भगत्त उधारा ॥११ बुद्ध छुड़ाइ जज्ञादिक जीवन, जैन दया ध्रम कौं बिसतारा। रूप कलंकि जबै धरिहैं हरि, भूप करें अपराध अपारा। ब्यास पुरांनन वेद सुधारन भारत प्रादि बिदांत उचारा । दोहि धरा श्रब बांटि दई रिधि, गांव पुरादिक प्रिथु सुधारा ॥१२ ग्राह गह्यौ गज कू जल भींतरि, राम कह्यौ हरि बेग उधारयौ। हंस सरूप धरयौ अज कारनि, प्रष्ण करी सुत हेत बिचारयौ । रूप मनुतर धारि चवदह, इंद्र सुरेसहु कारिज सारयो । जज्ञ भये मनु राखन मंजुल, आदि र अंति जगें बिस्तारयौ ॥१३ ब्रह्महि ज्ञान दिखाइ सवै जग, देव रिषम्भ सरीर जरायो। बेद हरे मधुकैटक दानव, सों हयग्रीव हन्यौ श्रुति ल्यायो। बालक आरन भक्ति करी अति, ५ बर दे हरि राज करायो। रोग र भोग भरयौ दुख सूं जग, होइ धनुतर बैद स आयो ।।१४ आतमग्यांन उदित्त कियो जिन, सो बद्रिनाथ या खंडर के स्वामी। ज्ञान कयौ गुर को जदुराजहि, आनंद में दत अंतरजांमी। १. काटि। २. या पाखंड । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [s मात मुक्कति करी उपदेसि र सांखि सुनाइ कपिल्ल सो नांमी । च्यारि सरूप धरे सनकादिक, ऐक दिसा इकही लछि प्रांमी ॥१५ जो अवतार सबै सुखदाइक, जीव उधारन कौं क्रम कीला । तास सरूप लगै मन आपन, जासहि पाइ परं मति ढीला | ध्यान करे सब प्रापति है निति, रंकन ज्यौं वित ल्यांवन हीला । च्यारि रु बीस करौ बकसीस, सुदेवन ईस कही यह लीला || १६ मूल- छपै अवतारन के अंघ्रि द्वै, इते चहन नित प्रति बसै ॥ टे० ध्वजा संख षटकरण, जंबु फल चक्र पदम जव । सुबासव । करणा । बज्र अम्बर अंकुश, घेन पद धनुष सुधा कुम्भ सुस्त्यक, मंछ बिंदु तय अरधचन्द्र अठ-कौंरण, पुरष उरध-रेखा होगां । राघव साध सधारणा, चरनन मैं प्रतिसं लसै । अवतारन के अंघ्रि द्वं, इते' चिहंनि निति प्रति बसै ॥१७ टीका इंदव साध सहाइन कारन पाइन, रांम चित्र सदाहि छद मंन मतंग स हाथि न प्रावत, अंकुस यौं उर ध्यान बसाये । कराये । सीत सतावत है जड़ता नर, अम्बर ध्यान धरे मिटि नाये । फोरन पाप पहारन बज्रहि, भक्ति समुद्र कवल्ल बुडाये ॥ १८ जौ जग मैं जन देत बहौ गुन, जो चित सौं निति प्रीति लगावै । होत सभीत कुचाल कलू करि, ध्यांन धुजा निरभै पद पावै । गो-पद भव-सागर नागर, नैंन लगे हरि त्रास मिटावै । माइक जाल कुचाल अकालन, संख सहाइ करै मन लावै ॥ १६ कांम निसाचर मारन चक्रहि, स्वस्त्यिक मंगलचार निमत्ता । च्यारि फलें करि है निति प्रापति, जंबु फलैं धरि है सुभ चित्ता । कुम्भ सुधा हरिभक्ति भरचौ रस, पांन करें पुट नैननिनित्ता । भक्ति बढ़ांवन ताप घटांवन, चन्द्र धरचौ अछ जांनि सुबित्ता ॥ २० १. हवं । २. निमित्ता । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] राघवदास कृत भक्तमाल सांप बि बपु मांहि रहे बसि, साध डसै न उपाइ करे हैं। अष्टउ कौंरण त्रिकौंग्ण पुनै षट, जीव जिवावन जंत्र खरे हैं। मीन रु बिन्दु बसीक्रन यौ पद, रांम धरे जन प्रांन हरे हैं। सागर पार उतारन कौं जन, ऊरध-रेख सु-सेत धरे हैं ॥२१ इन्द्र-धनुष धरयौ पद मैं हरि, रांवन आदिक मांन निवारयौ। मांनुष रूप बसेष सुनौ पद, सुन्दर स्यांम जु हेत बिचारचौ । जो मन शुद्ध करै सुभ क्रमन, या जन ज्यौं रखि हौं सु उचारयौ। जो बुधिवंत सदा सुख सम्पति, मैं गुन गाइ यहै पन पारचौ ॥२२ मूल-छप कवला कपिल बिरंच, सेस सिव श्रब सुखकारी। भरिण भीषम प्रहलाद, सुमरि सनकादिक च्यारी। व्यास जनक नारद मुनी, धरम परम निरने कीयो। अजामेल कौं मारतें, जमदूतन कौं दंड दीयो। द्वादश भक्तन की कथा, श्री सुकमुनि प्रीक्षत सूं कही। जन राघो सुनि रुचि बढी, नृप की बुधि निश्चल भई ॥१८ मनहर मीन बरा कमठ नस्यंघ बलि बांवन जू, छल करि प्राय देवकाज कौं सवारे हैं। रांम रघुबीर कृष्ण बुध कलंकी धीर व्यास, पृथु हरि हंस खीर नीर निखारे हैं। मनुत्र जग्य रिषभ धनत्र हयग्रीव, बद्रीपति दत्त जद गुर-ज्ञांनते उवारे हैं। ध्रुव बरदान सनकादि: कपिल ज्ञान, ___ जन राघो भगवान भक्त काज रखवारे हैं ॥१६ केते नर नारद नैं नांव सूं नमल कीये, दक्ष-सुत लीन भये बीन सुर सुनि के। नरपति उलटि पलटि देखौ नारि भयो, __तहां रिष आप भयो भूरि भागि' उनि के। असुर की नारि सुर साहि वंदि छुड़ाइ, तहां प्रहलादजी प्रगट भये मुनि के। १. भांगि। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ चतुरदास कृत टीका सहित राघौ धनि धू से देखो अटल प्रकास तपे, नारद निराट नग नांव देत चुनि के ॥२० आदि अंति मध्य बड़े द्वाद भक्त रत तहां, सत्य स्वांभू-मनु अखंड अजपा जपे। जाके सुत उभये उद्यौत ससि सूर समि, नाती धूव अटल प्रकास अजहूँ तपै । दिव्य तन, दिव्य मन, दिव्य दृष्टि, दिव्य पन, अन्य भगत भ[ग]वंतजी ही कौं थपे । राघो पायो अजर अमर पद छाड़ी हद, अरस परस अबिनासी संग सो दिपै ॥२१ सनका संनदन सनातन संत कुमार, करत तुम्हार त्रियलोक मधि ज्ञान कौं। बालक विराजमान सोभै सनकादिक असे, प्रात मुख सेस कथा सुनत नित्यांन कौं। मन बच क्रम मधि बासुर बसेख करि, धारत बिचार सार स्यंभूजी के ध्यान कौं। राघो सुनि साझ काल विष्णुजी के बैन बाल, रहै छक छहूं रुति श्रुति बृति पान कौं ॥२२ नमो रिष कदम देहूति जननी • ढोक, तारिक तृलोक जिन जायो है कपिल मुनि । काम जि क्रोध जित लोभ जि मोह जित, तपोधन जोग बित माता उपदेसी उनि । सील कौ कलपवृक्ष हरत विष की तप, . - ब्रह्म को मूरति आप अंतरि अखंड धुनि । राघो उनमत प्रमंतत मिलिः येक भये, तावत उत्म कृत कीन्हे यौं मुनिंद्र पुनि ॥२३ भगतन हित भागवत बित कृत कीन्हौं, व्यासजी बसेख खीर नीर निरवारघौ है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] राघवदास कृत भक्तमाल ब्यास प्रति सुक मुनि प्रादि अंति पढि गुनी, प्रथम सुनाइ नृप प्रीक्षत उधारयौ है। सूत कौं सकंद बार दयो बर ताही बार, श्रोता सौनकादि सो सदैव पन पारयौ है। राघो कहै सार है संघार करै पापन को, प्रापन कौं उत्यम सुने तैं फल च्यारयौं' है ॥२४ गगन मगन महा गंगेव गंगासौं भयो, देखि सुत सांतन प्रवीन परवारचौ है। धींवर की कन्या मांगि जिणत प्रणायो जिन, प्रथम प्रमार्थी पिता के काज प्रायौ है । व्याह तज्यौ, बल तज्यौ, राज तज्यौ, रोस तज्यौ, धनि धनि जननी गंगेव जिनि जायौ है। राघो कहै सील कौ सुमेर है गंगेव गुर, ___ काछ-बाछ नि:कलंक मोक्ष पद पायौ है ॥२५ धनि धरमराइ कह्यौ प्राय मत मूरख सौं, मारेंगें कपूत मम दूत संधि तोरिके। मन बच क्रम कछु धर्म करि धीरज सूं, राम राम राम गुन गाइ सुति डोरिकै । काम क्रोध लोभ मोह मारिकै निसंक होह, साहिब सौं सांनकूल राखि चित चौरिक। राघो कहै रवि-सुत मेटियो कर्म-जुत, रांमजी मिलावो वरदाता बंदि छोरिकै ॥२६ तनके दिवान तिहूं लोक के वाकानवीस, चित्ररगुपतर नमो कागदी करतार के। बीनती करत हूं बिलग जिनि मानौ मेरौ, छेक यो अध्रमक्रम प्रांक अहंकार के। लिखियो अरज असतूति प्रति बार बार, बाइक बनाई कहौ प्रभुजी सूं प्यार के। १. उचारचों हैं। २. मोरि के। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १३ राघो कहै अंतिकाल कीजियो मदति हाल, बांचियो अंकूर अति उत्म लिलार के ॥२७ नमो लक्ष लक्षमी फ्लोटे प्रभुजी के पग, राति दिन येक टग भक्तन की प्रादि है। रहै डर सहत कहत नमो नमो देव, अलख अमेव तब देत ताकौं दादि है। जत बिन; सत बिन, दया बिन, दत्त बिन, जीवन जनम जगदीस बिन बादि है। राघो कहै रामजी के निकटि रहत निति, आदि माया ऊँकार सहज समाधि है ॥२८ सिव जू को टोका इंदव द्वादस भक्त कथा सु पुरांनन, है सुखदैन बिबिद्धिन गायें । छद संकर बात घने नहि जांनत, सो सुनि के उर भाव समाये । सीत बियोगि फिर बन राम, सती सिव कौं इम बैंन सुनायें। ईसुर येह करौं इन पारिख, पालत अंग वसेहि बनाये ।।२२ सीय सरूप बना इन फेरउ, राम निहारि नहीं मनि आई। आइ कही सिव सूं जिम की तिम, अांच लगी खिजिकैं समझाई। रूप धरयौ मम स्वामिन को सठि, त्याग करयौ तन सोच न माई। भाव भरे सिव ग्रंथ धरे जन, बात सु प्यारनि रीझि क गाई ॥२३ जात चले मग देखि उभै धर, सीस नवावत भक्ति पियारी। पूछत गोरि प्रनाम कियो किस, दीसत कोउ न येह उचारी। बीति हजार गये ब्रखहु दस, भक्त भयो इक होत तयारी' । भाव भयौ परभाव सुन्यौ जन, पारबती लगि यो रग भारी ।।२४ अजामेल को टीका मात पिता सुत नाम धरयौं, अजामेल स साच भयो तजि नारी। पांन करै मद दूरि भई सुधि, गारि दयो तन वाहि निहारी। हासिन मैं पठये जन दुष्टन, आइ रहे सुभ पौरि सवारी। संत रिझाइ लये करि सेवन, नांम नरांइन बालक पारी ॥२५ १. बयारी= रखि पण मैं मंढी मैं अस्त्री राखी। पीछे ब्राह्मण भयो। वन मैं गयो। फूला मैं वेस्यां मेली। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १8 ] राघवदास कृत भक्तमाल आइ गयो जब काल महाबल, मोह जंजाल परयौ जम आये। नाम नरांइन पुत्र लयो उरि, प्रारतिवत स बैंन सुनाये। देव सुन्यौ सुर दौरि परे, जमदूतन • हरि धर्म बताये। हारि गये तब ताड़ि दये, भ्रम नैं भट आपन हूं समझाये ॥२६ मूल-छपै राघो रांम मिलांवहि, अंतिकालि परमारथी ॥ नन्द सुनन्द सुप्रबल बल, कुमुद कुमुदाइक भारी। चंड प्रचंड जै बिज, बिराज भलैं सु द्वारी। बिष्वकसेन सुसेन, सील सुसील सुनीता। भद्र सुभद्र गुणज्ञ, गाइये प्रम' पुनीता। येते षोडस पारषद, भक्त भजन के सारथी। राघव रांम मिलांवही, अंतकालि परमारथी ॥२६ टीका इंदव सोरह पारषदै मुखि जांनहु, सेवक भाव सु ये रिधि जोरी। छन्द श्रीपति कू करि है निति प्रीनन, ध्यान धरै जन पारत कोरी। श्राप दिवाइ बनाइ कही हरि, प्राइस पान अमी जिम घोरी। दोष सुभाव गह्यौ उर अन्तर, ति भली सुधरी बुध बोरी ।।२७ मूल-छपै बिष्णु बल्लभ की चरण रज, निस दिन प्रारथना करूं ॥ लक्ष्मी बिहंग सुनन्द, प्रादि षोडष रुचि हरि पग। सुग्रीव हनुमान जांबवत, बिभीषन स्यौरी खग। सुदामा बिद्र पाकर, ध्रव अंबरीष सु ऊधौ। चित्रकेत चंद्रहास ग्रह, गज कीयो सूधौ। द्रुपद-सुता कौं खार वै, राघव सब को उर धरू। बिष्णु बल्लभ की चरण रज, निस दिन प्रारथनां करू ॥३० टोका-हनुमान जू को इंदव सागर सार उधार किये नग, माल बिभीषन भेट करी है। छंद सो वह ले करि ईस निसाचर, आइ सियाबर पाइ४ धरी है। १. प्रेम। २. पालत। ३. अक र । ४. प्राग । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १५ चाहि सभा मनि देखि हर्ने गरि, डारि दई चित चौंकि परी है। रांम बिना मनि फोरि दिखावत, काटि तुचा यह नाम हरी है ॥२८ बिभीषन जू को टोका इंदव भक्ति बिभीषन कौंन कहै जन, जाइ कहीस सुनौं चित लाई । चालत झ्याझि अटक्कि परी, बिचि मानुष येक दयोल बहाई । जाइ लग्यौ तटि राक्षस गोदन, ले करि दौरि गये जित राई। देखि र कूदि परयौ सु ठरचौ जल, आजहिं रांम मिले मनु भाई ॥२६ ता छिन रीझि दई बहु दैतन, आसन मैं पधराइ निहारै। आनन अंबुज चाहि प्रफुल्लत, आप खड़ी' कर दंड सहारै। होत प्रसन्न न मांहि डरै अति, धाम रहौ मम राइ उचारै। पार करौ सुख सार यही बड़, दे रतनांदिक सिंध उतारै ।।३० नाम लिख्यौ सिर रांम सिरोमनि, पार करै सति-भाव उचारै। ठौर वही नर रूप भयो फिर, झ्याज हु आइ गई सु किनारै। जानि लयो वह पूछत है सब, बात कही यन लेहु बिचारै। कूदि परयौ जल देखि कुबुद्धिन, जाइ चल्यौ हरि नाम उधारै ॥३१ __ सवरो जू की टोका आरनि मैं सवरी भजि है हरि, संतन सेव करयौ निति चावै । जांनि तिया तन न किया कुल, या हित नै किन हूं न लखावै। रैंनि रहै तुछ माग वुहारत, आश्रम मैं लकरी धरि जावै। गोपि रहै रिष जांनत नांहि न, प्रात उठे सब आश्चर्ज पावै ॥३२ मातंग ईंधन बोझ निहारत, चोर यहां जन कौंन सु प्रायो। चोरत है निति दीसत नांहि न, येक दिनां पकरौ मन भायौ। चौकस रैनि करी सब सिष्षन, आवत ही पकरी सिर नायौ । देखत ही द्रिग नीर चल्यौ रिष, बैंनन सू कछू जात कहायो ॥३३ नैन मिले न गिनै तन छोत न, सोच न सोत परी न निकारै। भक्ति प्रभाव भलै रिष जांनत, कोटिक ब्राह्मन या परिवारै। राखि लई रिष आश्रम मैं उन, क्रोध भरे सब पांति निवारै। आवत रांम करौ तुम द्रसन-मै प्रलोकउ जात सवारै ॥३४ १. पड़ो। २. उवार। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल दीरघ सोग बियोग भयौ गुर, राम मिलाप सरीरहि राखै । घाट बुहारत न्हांवन को निति', बेर लगी रिष आवत पाखै । लागि गयौ तन क्रौध करयौ बहु, न्हांन गयो सिवरी पग नाखै। रक्त भयो जल मांहि लट लट, नौतम सोच भयौ सब भाखै ॥३५ ल्यावत बेर वसेर लगी हरि, चाखि धरै फल रांमहि मीठे। मारग नैन बिछाइ रहै रघुराई चले कब आइसि ईठे। देखत भाग घणे दिन वीतत, दूरि गये दुख आवत दीठे। नूंन सरीरहि जांनि छिपि किहि, बूझत प्रापन स्यौंरि कईं ठे॥३६ बूझत बूझत आइ रहे जित, राम सनेह भरे तित स्यौंरी । आश्रम मैं तब जांनि लये हरि, अंग नवावत लावत त्यौरी। आप उठाइ मिले भरि अंकन, नैन ढरै जल प्रेम पग्यौ री। बेरन खाइ सराहत भोजन, और कहूं न सवादि लग्यौ री ॥३७ सोच करै रिष आश्रम मैं सब, नीर बिगार सह्यौ नहि जावै। आवत राम सुने बन मारग, जाइ बसै उन भेद सुनावै । आज बिराज रहे सिवरी-गृह, मांन मरयौ सुनिकै दुख पावें। जांइ परे पग तोइ करौ सुछ, पाव गहौ भिलनी सुध भावें ॥३८ जटायु को टोका रांवन सीतहि जात हरें खग, राज सुन्यौ सुर दौरत आयौ। राड़ि करी तन वारि हरी परी, प्रांन रखें प्रभु देखन भायो । आइ र गोद लयो द्रिग नीरन, सींचत बात कही रजरायो। मांन करयौ दसरत्थ समां जल-दांन दयो पुनि धाम पठायो ॥२६ और को गोद धरै अखियां जु भरै, हरि छांह करें मुख धोइ निहारें। पूंछत पक्ष न लक्ष न हैं छत, वा इक चुंगल चौंच सुधारें। मोचत प्रांसुन सोचत रांम, सह्यौ दुख मो-हित गीध बिचारें। आपन हाथन श्रीरघुनाथ, जटायु की धूरि जटांन सु झारें ॥४० राघो जू को असे जगदीस जन कारनैं जरायो मुनि, मनहर ईश्रज बढायौ उनि प्राय अंबरीष को। १. निसि। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १७ कोप्यौ मुनि काल-रूप बरत न छाडै भूप, कष्ट सहयौ तन निज धारचौ ध्रम ईष को । जन परि कोपत[भु] जुलाह ल चिराक्यौ चक्र, प्रांनि के परयौ है बक्र ागि उद भीष को। राघो दुरबासा दुख पायो प्रति क्रोध करि, फेरचो तिहूं लोक हरि मांन मारयौ तीष कौ ॥३६ टीका इंदव कौंन करै अमरीष बरोबरि, भक्त इसौ उर और न आसा। छद संतन पैं कछू सीख सुनी नहि, बैंचि चलात जटा दुरबासा। काल-सरूप उपाइ लई, पठई जन पैं वह धीर हुलासा। चक्र रिषाइ र राख करि रिष, भीर परी डरिकै अब न्हासा ॥४१ जावत लोकन लोकन मैं मम, जारत चक्र सहाइ करौ जू । संकर वै अज इंद्र कहै यम, बांनि बुरी उर बेद धरौ जू । जाइ परयौ परमेसुर पाई, कहै अकुलाइ सु ताप हरौ जू । भक्त अधीन मनूं गुन तीनन, भक्त-बछल्ल बिड़द्द खरौ जू ॥४२ संतन को अपराध करौ तुम, जात सहयौ किम भौ अति प्यारे। बांम धनादिक त्याग करै सुत, मोहि भजै दिन राति बिचारे । साच कहौं उन साधु बिनां रिष, औरन सौं दुख जाइ न टारे। बेगहि जा अमरीष कनै मम, भक्त दयाल करै जु सुखारे ॥४३ होइ निरास चल्यो नृप पास, उदास भयौ पग जाइ गहे हैं। भूप लजात करै सनमांनहु, चक्र' दिसा ढरि बैंन कहे हैं। भक्त न चाहत और पदारथ, ब्राह्मन राखहुं कष्ट सहे हैं। ब्याकुल देखि सहाइक संतन, आइ गई मनि तेज रहे हैं ॥४४ भूप-सुता अमरीष सुने जन, चाव भयो उनहीं बर कीजै । मात पिता न कही दिल लासिक, पत्ति कीयो उर को लिखी दीजै । कागद ब्राह्मन दै पढ्यो कर, लैं नृप बांचिति याहि न धीजै । जाइ कहै उन जोइ घनी वत, बोल सुहाईन भक्ति भनीजै ॥४५ १. चत्र । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल भूप-सुताहि कहै दुज नाटत, पौंन समांन गयो अर प्रायो। फेरि पठावत जांनत पैलहि, भक्त बड़ी बिषिया न लुभायो। जाइ कहौ मन भक्ति रिझावत, मांनि लयो पति और न भायो। मोहि न अादरि है मन बाचक, प्रांन तजौं कहि के समझायो ॥४६ ब्राह्मन जाइ कहो सुनि ब्याकुल, खग्ग दयो नृप फेर फिरावो। ब्याहु भयो न उछाह समावत, देखि छिबी अमरीक सुभावो। नौतम मंदिर जाइ उतारहु, चाहि जिको वह हीन वड़ावो। पूरब भक्ति हुती हमरं तुछ, या करि भाव बध्यौ र मिलावौ ॥४७ सेस निसापति मंदिर मैं लुकि, मांजत पातर देंत वुहारी। लेपन धोवन दीपक जोवन, प्रेम सनेह लग्यौ अति भारी। भूपति देखि निमेख न लागत, कौंन चुरावत सेव हमारी। तीन दिनां मधि जांनि कही उन, जो मनि मूरति ल्यौ सिर धारी ॥४८ मांनि लई मनु मंत्र दयो यह, भोर भये सिर सेवन ल्याई। बस्तर औ पहराइ अभूषन, देखि रहै द्रिग चीर बहाई। राग र भोग करै अतिभांवन, भक्ति बधी पुर मैं सब छाई । भूपति कांनि परी चलि आवत, देखन कौं बुधि हूं अकुलाई ॥४६ पाव धरै हरवै हरवं कब, देखत मैं उन भाग भरी कौं। चालि गये अलि ठीक नहीं कछु, गाइ रही द्विग लाइ झरी कौं। बीन बजावत लाल रिझावत, त्यू अति-भावत धन्य घरी कौं। दूरी रह्यौ नहिं जात गयो ढिग, देखि उठी गुर-राज हरी कौं ॥५० बीन बजाइ र गाइ वही बिधि, कान परै सुनि हूँ मन राजी। भीजि रही सु कही नहि आवत, चित्त चुभ्यौ मधुरै सुर बाजी। फेरि अलापि र तान उचारत, ध्यान मई मति लै हरि साजी। भूपति प्रेम मगन्न रह्यौ निसि, भौर भई सब और कहाजी ॥५१ बात सुनी तिय और न ब्याकुल, कौन समां उन भूपति मोह्यो। आपन हूं निति सेव करैं पति, मत्ति हरै बिरथा तन खोयो। भूप सुनी मन मांहि खुसी अति, चौंप लगी पुर धामनि जोयो। चाव बढ़े दिन-ही-दिन नौतम, भाव तिया गुन यौं सुख होयो ।।५२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धतुरदास कृत टीका सहित [ १९ ध्र वजी का मूल धू व की जननी धुव सूंज कहै, सुत रांम बिनां नर-नारि न वोपैं। रोज तजौ हरि नाम भजौ, खल की बृति त्यागि कहा अब को। धुव के मन में बन की उपनी अब, ज्ञांनी सोई जो अज्ञान को लोपे । राघो मिले रिष नारद से गुर, बोल बढ्यो हरि प्रांगे तोपै ॥३२ सुदामाजी का मूल मनहर पतनी प्रमोधत है पति कौं बिपति मधि, कंत जिन लेहु अन्त कह्यौ मेरौ कीजिये । आपां हैं नृबल निरधार निरधन प्रति, __झौंपरा पैं नाहीं फूसभ मनमै भीजिये। कहत सुदांमां सुनि बावरी उघारै अंग, मो 4 कछू नाही भेट कैसैंक मिलीजये। राघो रौरि चावल कवल-नैन काजै कन, लूघरे की बांधी गांठि जाहु दिज दीजिये ॥३३ चले हैं सुदामा दिज द्रुबल दुवारिका कौं, जाके छुये बर कोऊ खात नै खलक मैं । प्रागै भेटे कृष्णजी कृपाल करुणा-निधान, ___ लेक भरि मूठी आप पारोगे हलक मैं । सदन सुदामां के जु अष्ट-सिधि नव-निधि, इंद्र हु कुबेर सम कीयो है पलक मैं । राघो गयो उलटिउ सास लेत बारू-बार, . देखि दुख भूलो मरिण-माया की झलक मैं ॥३४ सुदामाजी की टोका इंदव आपन धांम कनंक-मई लखि, मांनत कृष्ण पुरी चलि आई। छंद नीकरि लैंन गईं तिरिया तिहि, मांहि चलौ तब मित्र बनाई। ध्यांन वहै हरि माधुरता तन, दे हरखै नव प्रीत बधाई। चाह नहीं उर भोगन की वहै, चाल चलै तन कौं निरबाई ॥५३ बिदुरजो को टीका न्हावत अंग पखारि बिदुर्तिय, कृष्ण जु आइर बोल सुनायो। प्रेम भयो मद पीवत लाज न, दौरि वही बिधि द्वार चितायो । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल नांखि दयो पट पीत लयो करि, प्राइ गयी सुधि बेस बनायो । बैठि खंवावत केरन छीलक, आइ खिज्यौ पति यौं दुख पायो ।।५४ आप लग्यौ फलसार खवावन, चैन भयौ तिय कौं समझाई। कृष्ण कहै यह स्वाद लगै मम, प्रेम मिल्यौ वह हौं सरसाई । नारि कही जरि जाहु यहैं कर, छचौंत खवाइ महा पछिताई। हेत बखांनि करयौ उन दंपति, जांनत सो हरि भक्ति कराई ॥५५ चंदरहास को टोका भूपति कै सुत चंदरहास जु, खोसि लियो पुर औरस ल्याई । धृष्टि वुधी घरि आप रहै सुत, बालन मैं निति केलि कराई। बिप्रन को सम दाइ भयौ जित, जाइ कुमारन धूम मचाई। बोलि उठे दिज ह कवर बर, बालन यौं सुनि लाज न माई ॥५६ सोच परचौ अति येह बिचारत, होइ इसौ पति मोर सुता कौ। प्रांन बिनां करिये उर मैं यह, नीच वुलाइ लये सउ ताको। आरनि चालि गये छबि देखि र, जो निजरौ हम सोचिहु ताकौ । मारत हैं अब कौंन सहाइक, बाहन मैं कर नैंन जु ताकौ ॥५७ मांनि लई यक गोल कपोलन, काटिरु' सेव करी अति नीकी। होइ गयो हरि रूप ततत्पर, जोरि लये कर वाहि कही की। आइ दया मुर्छाइ परे धर, भक्ति भई क्रम दाट न पीकी । काटि लई छटई अगुरी उन, जाइ दई दुखदाइक जी की ॥५८ देस रहै लघु भूप सबै सुख, पुत्र बिनां दुख पावत भारी। आरनि आइर देखत बालक, छांह करै खग सी रखवारी । दौरि उठाइ लयो सु गयो पुर, मांनत मोद घरणी श्रियवारी। होत घणे दिन जांनि लयो मन, राज दयो इन भक्ति पियारी ॥५६ देसपती कछू भूप न पावत, फौज दई र दिवांन पठायो। आंनि मिल्यौ वह जांनि लयो उन, मारन कौं इक फम उपायो। कागद हाथि दयो सुत दीजिये, बात करौ वह मोहि खनायो। पासि गयो पुर बाग बिराज र, सेव करी फिर सैन करायो ॥६० १. काठि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टोका सहित [ २१ साथि सहेलिन आवत बागहि, होइ जुदी छबि देखित भी । कागद पाघ लयो कि बांचत, देन लिख्यौ विष तातहि खीजी । नाम हुतौ बिषया द्विग काजल, लै बिषया करि कैं रस-भीजी । आनि मिली फिर आलिन मैं मद, लालन ध्यांन गई गृह धीजी ॥ ६१ चंदरहास गयो पठ्यो जित, देखि मदन गलै स लगायो । कागद हाथि दयो उन बांचत, बिप्र वुलाइ र ब्याह करायो । रीति करी नृप जीति लिये धन देत गयो निठि चाव न मायो । बन जाऊं । पाऊं । इपिता सुनि मीच भई किन, बींदहि देखि घणों दुख पायो || ६२ बैठि इकांत कही सुत बात, करी प्रति भ्रांत सु पत्र दिखायौ । बांचत पहि कौं धिरकारत, रांड सुता परि मारन भायौ । नीं बुलाइ कही मढ़ जा करि, प्रावत ता नर मारि सुहायौ । चंदरहास करौ तुम पूजन, है कुल-मात सदा चलि आयौ ॥ ६३ पूजन जात कहै नृप पुत्रन, मैं उन राजहि दे ल्याव बुलाइ मदन भलौ दिन, जाइ महूरति फेरि न बेगि गयो चलि जाइ लयौ मग, देत पठाइ म सेव करांऊं । पैठत बद्ध करयौ इन भूपति, राज दयो अब मैं न रहाऊं ॥ ६४ इ कहीस मदन मुवो मढ़, कांपि उठ्यौ र झरी द्रिग लागी । देखि परचौ सिर पाथर फोरत, मृतु भई समझयौ न प्रभागी । चंदरहास चले मढ़ पासहु, मातहि श्रंग चढ़ावत रागी । मात है तव मैं अरि मारत, ह्र सरजीव उठे बड़ भागी ॥ ६५ राज करे इम भक्त किये सब, पासि रहै तिन क्यूं र बखांनौं । नांम उचारत धांमन धांमन, कांम न और सू सेव न मांनौं । मोहन लोभ न कांम न क्रोध न है मद नांहि न नैंन नसांनौं । आदिर अंति कथा उर भावत, प्रात प्रढ़ फल जै मन जांनौं ॥६६ १ समुदाई टीका नांम कुखार अपत्ति सुमैत्रिय, राघवदास बखांन करयी है । कृष्ण कही मम भक्त बिदूर जु, दे उपदेसहि भाव भरचौ है । प्रेम-धुजा चित्रकेत पुरांनन, दूसर देह पलट्टि बरचौ है । ध्रु करूर बड़े पृय उधव, पत्रन पत्रन नांम धरयो है ॥ ६७ १. पढे = पुत्री | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल २२ ] कंतो को टोका प्रीति न देखत हूं पिरथा बिन, भूत र देव बिपत्ति न मागे । चाहत है मुख लाल हि देखन, होहु दयाल कि द्यौ बन बागै। ब्याकुल देखि भरी प्रभु प्रांखिन, फेरि लये धन प्रांन सु जागै । अंतर ध्यान भये सुनि कानन, ता छिन ही मछ ज्यूं तन त्याग ॥६८ द्रोपति की टीका द्रोपति बात कहै दख कौंनस, बँचत अंबर ढेर' भयो है। द्वारिक बासि कह्यौ सु हुतौ ढिग, स्वैपुर जाइ र आइ रह्यौ है। श्राप दिवांवन भेजि द्रु बासहि, जात युधिष्टर सीस नयौ है। धोइ चरी तिय आइ कही नृप, सोच भयो कत कृष्ण गयो है ।।६६ भाव वती सुनि बाकि भयो मन, कृष्ण पधारि करयौं मन कामं । भूख लगी कछू देहु कहै हरि, सोच हिये अन है नहि धांम। पूरण ह जग मांहि रह्यौ पगि, नांहि छिपाइ कहै इम स्यांम। साकहिं पात लयौ जल सूं सब, धापि तिलोक दुर्बासहु नांमं ।।७० मूल छप्पै नांरांइन तैं बिद्धि भयौ, बिध तें स्वांभू-मनु । स्वांभू-मन के प्रेय बरत, तास कै अगनीधर गन । अगनीधर के नाभि, जि. रिझयौ करतारा । तास पछोपै प्रगट, रिषभदेव सु अवतारा। रिषभदेव के सत सुवन, जन राघो दीरघ भरत पखि। दसक्षत भुज भये नव जोगेसुर, अवर इक्यासी राज-रिष ॥३५ तन मन धन अपि हरि मिले, जन राघो येते राज-रिष। उतांनपात पृयबरत, अंग मुचकंद प्रचेता। जोगेसुर मिथलेस पृथु, प्रक्षित उधरेता। हरिजस्वा हरि-बिस्व रघु, गुरण जनक सुधन्वा । भागीरथ हरिचंद सगर, सति बरत सुमन्वा । प्राचीन ब्रही इष्वाक रघु, रुकमांगद कुरगाधि सुचि । भरथ सुरथ सुमती रिभु, अल अमूरति रैग रुचि ॥३६ १. टेर। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित मनहर छंद १. दल । सतधन्वा बबस्व नघुष, उतंग भूरद जदु जजाति सरभांग पूर, दीयो जोबन गै दिलीप अंबरीष मोर-धुज सिवर पंड चंद्रहास श्ररुरंत, मानधाता चकवै संज समीक निम भारद्वाज, बालमीक चित्रकेत दक्ष । भुव । तन मन धन श्रपि हरि मिले, जन राधो येते राज- रिष ॥३७ श्रादि सक्ति ॐ नमो नमो, लक्ष उमां ब्रह्मांणी । रांगी । नमो तिपुर कन्यां सु, नमो पतिबरता सति रूपा देहूति, सुनीति कौसल्या तारा चूड़ाला, कहिये सुमित्रा Jain Educationa International बल । बल' । धुव । अहल्या । पहल्या | सीतां कुंतां जयंती बूंदा, सत्यभांमां द्रोपती । प्रदति जसौधा देवकी, श्रब धर्म सरिवोपती । मंदवरि त्रिजट मंदालसा, सची अनसुया अंजनीं । जन राघो रांमहि मिली, पतिबरता पतिरंजनीं ॥ ३८ ॐ कारे आदिनाथ उदैनथ उत्पति, ॐमांपति सिंभू सत्य तन मन जित है । संतनांथ बिरंचि संतोषनांथ बिष्णजी, जगनाथ गणपति गिरा को दाता नित है । अचल अचंभनाथ मगन छिंद्रनाथ, गोरख अनंत-ज्ञांन मूरति सु बित है । राघो रक्षपाल नऊ नाथ रटि राति दिन, जिनको अजीत अबिनासी मधि चित है ॥ ३६ प्रेयब्रत प्रगट पसारौ तज्यौ प्रथम ही, बृकत बैरागी भयो मोक्ष पद कारणै । arat बिधि बिबिधि सुनायौ मत-मातंग ज्यूं, लेहु सुत राज परकाज तोहि सार । मन बिन जीते न मिटत्त मनसा के भोग, है प्र रोग सोई क्यूं न अब टार । For Personal and Private Use Only [ २३ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] १. पुष्ठ Jain Educationa International येकादस अर्बद कीयो है राति दिन राज, राम न बिसारचौ छिन राघो ताकौवारणं ॥४० नमो भर्थ चक्रबृती जिन कीये नवखंड, प्रष्ट खंड भ्रातन के ऐक खंड श्राप कौ । सोऊ पुनि पुत्रन कौं दे गयो नरेस देस, गलका कै तटि जाइ कीन्हौं ब्रत बाप कौ । निमत क्रम पाइ मंजन करत मुनि, मृगी ग्रभ टारचौ डरि स्यंघ की प्रताप कौ । राघो कहै जदपि जंजाल तजि लीन्हौं जोग, राघवदास कृत भक्तमाल मृग छूनां छूवत ही भंग भयो जाप कौ ॥४१ गौंडवारण देस तहां देबिका दिपत ऐक, छठे मास मांगे बलि मारणस के सीस की । रिषसुते खेतखलै खिज भुज ताके चर, पकरि ले श्राये उन पेसि कोयो ईस की । कराई युष्ट', भूप रीझ्यौ देखि रूप तुष्ट श्रष्टमी कौं श्रर्षे मुनि जालपा नै रीस की । राघो देवि देखि रिष नृपति कौ कीनौं नास, से मुनि मारौं तहू चोरि जगदीस की ॥४२ देबी देखि साहिस स हंस बेर की स्तुति, तुम्ह रिष इहां इन मूरखन श्राने हौ । तुम्ह भर्थ चक्रबरती हुते चहूं चक मधि, पुनि मृगराज भये तहां हम जाने हो । अब दिज देह पाइ जड़-भर्थं जोगेसुर, जीवन मुक्ति मुनि मोक्ष पद माने हौ । राधौ रिष ऐक रस मात भई ताकै बसि, धनि रिष तेरौ मौंन रिके न रिसाने हौ ॥४३ मृग मधि श्रुति रही मृग गयो मृगन मैं, मृग मृग करत ही मृति भई मुनि की । २. मोरौं । For Personal and Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ २५ तातें मुनि मृगी-पेट प्राइ के जनम लीयो, दस ब्रष मृग रह्यौ माहै बृति धुनि की। तीसरै जनम निज नेष्टीक बिप्र भयो, देह ते निसंक नहीं संक पाप पुनि की। राघो रघु नृपति सूं बोले मुनि मौनि तजि, जान्यौं जड़ भर्थ अर्थ मोक्ष भई उनि की ॥४४ जनकजी को टोका : [मूल] मनहर करम-हरण कबि बरतमान भूत भव्य, छद आये नव जोगेसुर जीवन जनक के। नाहरी के दूध सम नृवृती धरम धार, छोज न लगार राखि पातर कनक के। राज तजि, मोहं तजि,सुद्ध होह हरि नामं भजि, कंचन छुयें लोह पारस तनक के। राघो रह्यौ थकित थिराऊ धुनि ध्यान लगि, कीट गही मीट मारयौ भुंगी की भुंनक के ॥४५ माया माधि मुकति बहतरि जनक भये, चित्र के से दीप रहे धारचौ धर्म समता। सुख-दुख रहत गहत सतसंग सार, तजे हैं बिकार न काहू सूं मोह ममता। असे नग जनम जतन सेती जीति गयो, बंदगी मैं बिघन न पारी कहौं कमता। श्रवन मनन मन बच क्रम धर्म करि, राघो असे राज में रिझायौ राम रमता ॥४६ भृगु मरीच बासिष्ट, पुलस्त पुलह क्रतु अंगिरा। अगस्त चिवन सौंनक, सहंस अठ्यासी सगरा। गौतम प्रग सौभरी रिचिक-सृगी समिक गुर। बुगदालिम जमदगनि, जवलि परबत पारासुर । बिस्वामित्र माडीफ कन्व, बामदेव सुख ब्यास पखि । दरबासा अत्रे अस्ति. देवल राघो ब्रह्मरिष ॥४७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] मनहर छद श्रात्म उपगारी । भक्ति भक्त भगवंत जै । रावो धरमपाल रक्षपाल, नमो द्रिगपाल नमो सूर सापुरस, नमो कबि चतुर नमो सती सरबज्ञ, नमो धाता नमो इंद्रजल भोमि, नमो नमो जनत जननी सक्ति, नमो जती जोगे सुरां, दासन- दास है ॥४८ नमो सुबरण कुबेर, नमो धर्मराइ मन्वंतर । चित्रगुप्त गणपति, नमो बागी महामंतर | नमो सप्तरिष अनंत रिष, नमो त्रिभवन तत-बेता । बालखल्य रिष प्रष्ट, वसु नृप नवखंड जेता । बित्र बेद गंगा गऊ, सुमरि सकल सुक्रत सिलो। राघो जीवन-मुक्ति मत, सब दरसन सू मिलि चलौ ॥४६ नमो इंद्र नरचंद सकल सुरपति सत्य जल, करि सींचौ थल बिपति निवारणा । जीव की जीवनि चतुरासी लक्ष लगी तोहि, पीव पीव टेरै जीव लेत निति वाररणां । सची के नाइक मैंना उरबसी रंभा के कंत, Jain Educationa International राघवदास कृत भक्तमात बखांणों । सुजांणौं । धर्म-धारी । लीजियें न अंत नव-खंड निस तारणां । राघो गज रापति कामधेन कलपबृक्ष, प्रष्ट-सिधि नव-निधि रहै जाऊँ द्वाररणां ॥५० नमो दिव्य देवता कुबेर कुलि श्राज्ञाकारी, अब गति नांथ अबिनासी कौ भंडारी है । मायाधारी मूरति अनंत कोटि रबि छबि, साहिब की साहिबी सकति प्रति धारी है । रिधि सिधि अरब खरब जग जानें श्रव, For Personal and Private Use Only हरि जी हजुरि राखि सौंपी ताहि सारी है । राघो येती सहित रहत रत रांम जी सौं, धनि सो धनादि नृप सोभै प्रति भारी है ॥५१ नमो बररण देवता बनाइ कहूं कहां लग, तेरे पग पूजत पताल नाग नागरणी । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ २७ नवस निवासी नदी तेरी जीभ जग मध्य, सप्त साइर उर गावै बाग बागणी। तेरौ बल ब्रह्मण्ड पचीस लग पूरै जल, अकल अजोत प्रलै काल पौढ़ौ है धरणी । काली गहली बीनती कछूक बनि पाई मो पैं, - राघो कही सुलप तुम्हारी सोभा है घणी ॥५२ कसिब सुवन तेरे ऊगत' ये तो प्रताप, रजनी के पाप गुर जाप सुनि सटके। जल सुचि दांन असनांन षट-क्रम धर्म, खोलत कपाट भांरण भूप श्रब घटके । मुदित सकल बन गऊ उठि लगी तिन, रांम जन रांम काम पाठ पूजा अटके । भगति करत भगवंतजी की भासकर, राघो रटि सुमरिये भाव ये सुभटके ॥५३ बड़ी कला करतार, कीयो ससि सू श्रब थोकं । रजनी मंडन रतन, सुधा सरवैत२ श्रब लोकं । सीतल मिष्ट मयंक, चराचर मैं संचार है। रस गोरस अन सकल, चंद सरजीवत करि है। राघो रुचि रांम हि रट, ससि ब्रह्मण्ड-प्यंड मधि मुदित । पूरणवासी प्रष्ण अति, बित घटियां बाको उदित ॥५४ अपरस उतम उतंग जाकै सोभै प्रति, छंद बृचि की सुताबखारणों बागी ब्रह्मचारणी। सरस्वती सरल जु सलाघा कीये प्रष्ण ह, ___ जब ही पाराध कोऊ ह है काज कारणी। कोमल कुमारजा है न्यारी निकलंक कन्या, अतुल सकति सु सुफल तत-धारणी। राघो कहै रुति सूं रहैत तन तेजपुंज, प्रसन-बदन हरि हित पैज पारणी ॥५५ छप मनहर १. ऊगन येता। २. सुधा सरवत । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] राघवदास कृत भक्तमाल प्रथम प्रादेस है गनेस गवरी के सुत, जाचे जाहि बंदीजन विद्या को निधान है। चतुर निगम नव द्वादस पुरांन पढ़े, जांने दस च्यारि छह जेतौ गुनगांन है। लक्षन बतीस जगदीस के सहस्र-नांम, पाठ करै आठौं जाम ईश्रज प्रासांन है। राघो कहै बीनऊं बिनाइक बिद्या के गुर, मांनं नर-नारि-सुर जानन को जान है ॥५६ लक्ष लक्षमनां कुमार, राम के कामहि लाइक । हेटि हेटि हनुमंत, प्रणम्य रघुपति के पाइक । गरुड़ प्रतुल-बल बरणि, बिष्ण बिधनां को बाहन । कत्र स्यांम सिव सुवन, मदन-जित मन अवगाहन । व्यास पुत्र सुखदेव जपि, गोरख ज्ञान गिरापती। राति दिवस रत रांम सौं, राघो येते षट जती ॥५७ मनहर गरुड़ गोपालजी को प्राग्याकारी आठौं जांम, सारे हैं अनंत काम असौ स्वामी कारजी। पल मैं सकल ब्रह्मण्ड खंड प्रावै फिरि, बैठत बैकुंठ-नाथ चलत अपारजी। तीन्यू गुन जीति गही नीति जु नृति पद, छाड़े विष भोग रोग साध्यौ जोग सारजी। खगपति अति भजनीक है. रहत दृढ़, राघो कहै राति दिन रटत रंकारजी ॥५८ इंदव जाजली मांन महास्यंभू को सुत, देखौ मतो कत्र स्यांम जती को। छंद नारी जिती जननी करि देखत, रूप सबै प्यंड पारबती को। सील गह्यौ मनसा मन जीति के, भोग न भावत जोग है नोकौ । राघो लगी धुनि ध्यान टरै नहीं, जाप जपै हरि प्रांनपति कौ ॥५६ कसि देख्यौ महा कस क्यों न कहूं, सुख के मुख नैंकन भेद दुनी को। श्रुग की पतिनी सजि के उतनी, चलि पाई जहां बन-बास मुनी को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टोका सहित [ २९ कोये लावन-रूप रिझावन कौं, सुख के मुख बाइक है जननी कौं। आगि कौं लागि कहा करै मांछर, राघौ कहै सत सूर अनी कौ ॥६० मनहर द्वादस अबद राख्यौ सबद पिता कौ पण, लखि सम लक्षमन दास रामचन्द्र कौ। फल जेते फूल पात राखे है हजूरि तात, आप न भक्षरण कीन्हौं पाप सेती अंद्र को। रांवन पलटि भेख सीया हरि लै गयौ, सु बिपुन मैं निपुन निवारयौ दुख-बंध को। राघौ कहै पदम अठार कपि रहे जपि, तहां लक्षमन सिर छेदयौ दसकंध कौ ॥६१ इंदव राम के काम सरे सब हो, जब ही हनुमंत लोयो हसि बीरो। छद लंक प्रजारि सीया को संदेस, ले प्राइ दई रघुनाथ हि धोरौ। रांम चढ़े जिहि जाम हनूं संगि, जाइ परे दल सागर तीरौ। राघौ कहै जंग जोति रमापति, लंक विभीषण कौं दई थीरौ ॥६२ हा हा हनूं कीयो काम घनौं, रजनी बिचि सैल समूह ले प्रायो। मग दैत कीये छल छंद जिते, सुत ते सब जीति के प्रातुर धायो। मुरछे लक्ष बोर से धीर धरा धनि, सेवग प्रात ही भ्रात जिवायो। राघो कहै रघुनाथ के साथ, सदा हनुमंत कीयो मन भायो ॥६३ इंद ज्यौं जिद की जीवनि गोरख, ग्यांन घटा बरख्यौं घट धारी। नृप निन्यारणवै कोड़ि कोये सिध, प्रातम और अनंतन तारी। बिचरै तिहूं लोक नहीं कहूं रोक हो, माया कहा बपुरी पचिहारी। स्वाद न सप्रस यौँ रह्यौ अप्रस, राघो कहै मनसा मनजारी ॥६४ मनहर चले हैं अजोध्या छाडि रामजी पिता के काज, भरथ न कीन्हों राज राखी सिर पावरी । धृग यह राज तज्यौ नाज रघुनाथ काज, काहे कौं विछोहे भ्रात मात मेरी बावरी । आसन अवनि खनि नोवै सैन कीनौं जिन, रोवत बिवोग मनि रहै तन तावरी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] राघवदास कृत भक्तमाल छपै राघो कहै भरत अरथ गृह भूलि गयौ, मेरो कछू नांही बस रजा राम-रावरी ॥६५ राघो रिझ ये रामजी, भलौ गरौं मत मुक्ति कौ ॥ बाणासुर प्रहलाद कहूं, बलि मय पुनि त्वाष्टर। असुर भाव कौं त्यागि, भज्यो सों निस-दिन नरहर । रांम उपासिक तीन, और रांवरण सम ईहै। लंका लेके राम, बिभीषन कौं जु दई है। कीयो मंदौवरी त्रियजटी, मांन महात्म भक्ति को। राघो रिझ ये राम जी, भलो गह्यो मत मुक्ति कौ ॥६६ प्रथग विमल जल स्यंघ, पावक हं टिके न धरणी। तब संगी तजि गये सकल, सुत सबही धरणी। बरष सहंस युध कीयो, लीयो तब खैचि माहि जल । गज कायर ह्र रह्यो, गयौ मन को सब छल बल । बल बीत्यौ डूबण लग्यौ, जोति लीयौ जब निपट अरि । राघो रटत रंकार के, ततक्षन बिमुचायो सु हरि ॥६७ अरिल दया धर्म चित राखि, संत कौं पोषिये । दुरबल दुखी अनाथ, तास कौं तोषिये । करि लीजै इहि बेर, भजन भगवंत कौं। पीछे कछु न होइ, बुरौ दिन अंत कौ। जा दिन देह बल घटै, भजन बल राखि है। जन राघो गज गोध, अजामिल साखि है ॥६८ गनिका गहबर पाप कोये, अबिहत प्रति औंड़े । पर-पुरषन सूं भोग, रिझाये पापी भौंड़े । हाड़ चांम पर अंत, मुत्र भिष्टा जिन मांही। गीड रीट रत मास, बदन तैं लाल चुचांहीं। अंत-काल सुकृत हृदय, रटि राम सनातन मैं भई । राघो प्रगट प्रलोक कौं, चढ़ि बिमान गनिका गई ॥६६ उधो बिद्र अवर भये, मोक्षारथ मैत्रे । गंधारी धृतराष्टर, सजे सारथि हो। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चनुरदास कृत टीका सहित [ ३१ सु रतिदेव बहुलास, पास मन को सब पूरी। मित्र सुदामां जानि कीयौ, सब ही दुख दूरी। सोक समद तें काढ़ि के, कीये महाजन मुक्ति रे। राघो सूके काठ सब, होत अबै सतसंग हरे ॥७० नमो सूत बक्तास नमो, रिष सहंस अठ्यासी । सुरणी भागौत पुराण भक्ति, उर मांहि उपासी। चटिड़ा द्वादस कोड़ि, राम सुमर्त कुलि उधरे। जन प्रहलाद प्रसाद, पाय संगति सौं सुधरे। साध सती अरु सूरिवां, हीरा खड़ गरू बाज । राघो अंस दधीच कौ, कीयो तिहूं-पुर राज ॥७१ जन राघो राम अरीझ है, परि रीझत है सर्बस दीयें ॥ उछ बृति जु सिवर सुदरसन, हरिचंद सत गहि । स्यार सेठ बलत्री' ईषण, जित रंतदेव लहि । करन बल्य मोहमरद, मोरध्वज सेद बेद बन । परबत कुंडल धृत बार, मुखी च्यारि मुक्ति भन। ब्याधि कपोत कपोती कपिला,जल-तटांग उपगार जल। तुलाधार इक सुता साह की, भोज बिक्रमांजीत बीरबल। ये बड़ सती सताई सौं, जपि उधरे उत्म कृत कीये । जन राघो रांम अरीझ है, परि रीझत है सर्बस दोये ॥७२ मोहमरद को टोका [मूल] अरिल रिष नारद बैकुंठ, गये हरि पास है। छपै प्रष्न करी नहीं मोह, इसौ कोइ दास है। __ मोहमरद भरिण भूप, रूप रांगी सिरै। ताके सुत को घरणि, बरणि बकता तिरै। नारद सौं निरवेद, बिष्णजी विधि कही। राघो भेद न भ्रांति, भगत भगवंत सही ॥७३ इंदव ध्यान घरचौ जन को जगदीसु र, ताही समैं रिष नारद प्रायो। छद तारि छुटी तबहि लगे बूझन, काहि भजौ हरि को मन भायौ। १. बलह। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल ३२ ] नाथ कही जन हाथी बिकानौं, सो मोहमरद बसेष सुनायो। राघो कोयो रिष नारद नै छल, स्यंघ पैं साध को पुत्र मरायौ ॥७४ हंसाल नृप-कुमार मार दरबार नारद गये, दास राघो कही सोग-बांणी । रावलड़ा भवन सूं गवन करि छोकरी, कलस ले कूवा कू चली पारणी। देखि रिष दौरि करि जोरि पाइन परी, रिष तहां कुवर की मृति ठांरगी। देव-दासी कहै कौंन काको सगो, नापिका नांव संजोग जाणीं ॥७५ चले रिष अगम नौं प्रांरिण रांणी मिली, पुत्र के मृत की कही गाथा। प्रहं जानौं नहीं कहां सुत अवतरयौ, __ कहां अब देह तजि गयो नाथा । कौंन की बसत कहौ सोग काकौं करूं, लेख की वात प्रलेख हाथा। दास राघो कही स्वांन दिज की कथा, रहे रिष ठगे से धूंरिण माथा ॥७६ नृप के कुंवर की नारि नारद मिली, कही रिष अजि पति मूवो तेरौ। कुलबधू कही करतार की बसत है, कौंन की नारि पति कौंन केरौ । अब सलता प्रसंग द्वार द्वै मिलि चले, दई गति बीछुरे कहा बस मेरौ । दास राघौ कहै देवजी लेहु कछू, प्रदुखी दुखत है प्राण तेरौ ॥७७ इंदव रिष नारद प्राप कही नृप सौं, सुत तेरौ सिकार मैं स्यंघ नै मारयौ। छद भूप कही भगवंत रजा रिण, सनबंधी प्रांरणी बस्यौं र सिधारचौ। देव सुनौं दृष्टांत कहौं सुत, बैसि कुंभार हीयो धुनि हारयो । राघो कहै इतनी सुनि के रिष, आयो प्रकास कुटंब सूं तारयौ ॥७८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ ३३ मोरधुज की टोका [मूल] मनहर मोरधुज तामरधुज हंसधुज सिखरधुज, नीलधुज ध्रमधुज' रतिधुज गनि है। ताकी रांगों मगन मंदालसा मुकति भई, वैसे सुत च्यारि कोई जननी न जनि है। हरिचंद सत त्रियलोक मैं सराहियत, संग रुहितास मदनावती जु नि है। सिवर कपोत बलि' रंतदेव उछ२ बृति, राघो जाके भूरि भाग जोयां' जस भनि है ॥७६ छपै इम मन बच क्रम रत राम सौं, जन राघौ कथत कबीस ॥टे० दीरघ सुध सुबाहु गरक, प्रासन जित गादी । जाकै सत्रु न कोई, सत्र मरदन सतवादी। अति बिगि बिमन बिक्रांत, जुगति जोगी उर्धरेता। अलरक अग है अजीत, सूर सर्बज्ञ ततबेता। मात सुमगन मंदालसा, तात है तत्वनवीस । इम मन बच क्रम रत रांम सूं, जन राघो कथत कबीस ॥८० हरि हृदै जिनकै रहै, तिन पद पराग चाहूं सदा ॥टे० प्रेय-बत जोगेसुर पृथु, श्रुतिदेव अंग पुनि । परचेता मुचकंद सूत, सौनक प्रीक्षत सुनि । ४सत्यरूपा ५त्रियसुता, मंदालस ध्रव की माता। जगपतनी बृज-बधू, कृष्ण बसि कीये बिख्याता। नरनारी हरि भक्त जो, मैं नहीं बिसरत कदा । हरि हृदै जिनकै रहै, तिन पद पराग चाहूं सदा ॥८१ टोका इदव जा जन की पद रेंन अभूषन, अंग करौं हरि हैं उर जाकै । छद स्वाद निपुन्न महाकबि आदि, कहै श्रुति देव बड़ी धर्म ताकै। संत लये घरि जात भये हरि, फेरत चादरि प्रेम सुवाकै । साधन कौं परनाम न आदर, आप कही हम सूं बड़ पाकै ॥७१ १. कपोत छलि। २. उच्छा । ३. जाया। ४. देवहु । ५. त्रय। ६. प्राकूती। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] राघवदास कृत भक्तमाल मूल छपै चरन-कवल मकरंद कौं, जनमांतर मांगत रहौं ॥टे. सति-बरत सगर मिथलेस, भरथ हरिचंद रघुगरण । प्राचीन ब्रही इष्वाक भगीरथ, सिवर सुदरसरण। बालमीक दधीच बींझावलि, सुरथ सुधन्वा । रुकमांगद रिभु अल, अमूरति बैबस-मन्वा । सिषर ताम्रधुज मोरधुज, अलरक की महिमा कहौं । चरन-कवल मकरंद कौं, जनमांतर जाचत रहूं ॥८२ टीका इंदव धार न देह नहीं अपसोचहु, साधन की पद रेन सुहावै। छद सत्यव्रतादि कथा जग जानत, द्वै बलमीक कथा मन भावै । भीलन साथि भये रिष भीलहि, राम-चरित्र अडब्ब बनावै। गावत ताहि सबै सुर नागर, कान सुनेंत हियो भरि आवै ॥७२ दूजा बालमीक की टोका [मूल] मनहर पांडुन की भक्ति जिहाज रूप कीनी जग, बिप्रन द्वादस कोड़ि ज्यों'ये निति नेम सौं। कनक के थार रु कटोरो झारी कनक की, भोजन छपन-भोग बीस दीन्हौं हेम सौं। . राजा करै टहल-महल बर बाई बोर२, बड़े बड़े ब्रह्मरिष वेद पढे प्रेम सौं। राघो कहै जन बिन ज्यां ये जज्ञ पूरौ नाहि, साध बिन कैसै संख बाजे सुख-क्षेम सौं ॥८३ हंसाल पंड-सुत पंच कर जोड़ि कही कृष्ण सूं, देव संदेह मम करौ दूरौ। बिप्र दस कोड़ि रिष-राइ राजा घणां, जीमियां तऊ जज्ञ रह्यौ ऊरौ। जब कृष्ण कृपाल ह कही जिम की तिम, भक्त भगवंत बिन ह न पूरौ । १. ज्यांये। २. चोर छड़े वोर । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित मनहर छद राम भजनीक राघो कहै बालमीक जीमतां Jain Educationa International सुपचतन, बहि गये हैं सकल बल डारि कुल राज तेज, स्वामीजी पधारौ मम काज श्राजि जांनि कैं । हंस ज्यूं हस्त बिग बस्त रूपी प्रायो द्वारि, भोजन - छपन भरि थार धरौ प्रांति के । श्रब अंन तीवन र घृत दधि दूध भात, अपि अबिनासीजी कौं ऐक कीये सांनि के । राघो कहै रांम धनि राखत है जन पन, पांचौं ग्रास पंच बेर बाज्यौ संख तांनि ॥८५ भूधर कहैत तोहि भांजि डारौ भाठिन सौं, जन के जीमत कन बाज्यौ क्यूं न पातकी । देवजी दयाल ह्व जे मेरौ कछू नांहीं दोष, द्रौपदी कूं श्राईभिन श्रंति देखि जातिकी । बाजतौ प्रसंखि बेर भाव मैं परचौ है फेर, १. छजहि सूरौ । 3 तूरौ ॥८४ नारि न निहारि देख्यौ साध सील सातकी । राघो कहै संख नैं सुधारि कही साहिब सूं, मोकौंकित ठौर है जु आज्ञा मेौं तातकी ॥ ८६ करन को टोका [ मूल ] बासुर की आदि भयें रजनी कौ अंत जब, पढ़त जाचिग श्रब पहर करन कौ । सवा भार कंचन क्रिया सूं देतौ निति प्रति, जासूं होत प्रतिपाल दुबल बिप्रन कौ । अरजन को रथ प्रवटायो जिन हूठ पेंड, जामैं बंठे कृष्ण देव नाइक नरन कौ । राघो कहै रवि-सुत दाग्यौ हरि हाथन पैं, साधिगौ श्रबस दे के मांमलौ मरन कौ ॥८७ For Personal and Private Use Only [ ३५ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] बलि बोझांवली की टीका [ मूल ] इंदव भाग बड़े बलि के ग्रहै बांवन, श्रावत ही कोयौ सबद उचारा । छंद राज गऊ धन धांम कन्यां असु देव करौ इनकौं अंगीकारा । मनहर छद राघवदास कृत भक्तमाल भाव सौं भूमि दे पैंड प्रठिक, तामधि ह्व बिश्राम हमारा । राघो त्रिलोक त्रिपैंड कीये जिन, आप श्रमांप बढ्यौ करतारा ॥८८ Part राजा बलि कसि इंद्र सौ कीन्ही बिहसि, रामजी कहत हसि अर्ध-पेंड श्राप दे । बोले बलि बावली धनि प्रभु कीन्ही भली, मन की पजोई रली लीजै पैंड माप दे । जै जै जगदीस कीन्हों प्रापनों बतायौ चीन्हौ, मेरौ निज रूप भूप रहगो श्राप दे । बलि के दरबार प्रतिहार प्रभू प्रांननांथ, राघो जोरे हाथ यौं जग्यासी ठाढौ जाप दे ॥८ Jain Educationa International हरिचंद को टीका [ मूल | लोकपाल सारे कुलि देवता तेतीस कोड़ि ठाढ़े कर जोरि हाॅ कें कही करतार सूं । हरिचंद कौ देखि सत हलचल हमारी मत, कीजीये इलाज प्रभु श्राज याही बार सूं । तब हरि कृपा करी सर्ब की दिलासा धरी, नारद बुलाइ लीये बूझे है बिचार सूं । राघो कही रांमजी नैं रिष पिषि पृथी परि, हरिचंद सौ बिस्वामित्र अहंकार सूं ॥० राघो रिष दीयो रोइ मोहि तौ कठिन दोइ, यत तुम साहिब उत हूं दास रावरौ । तब बोलं बिष्णजी बिसाल नैन नाराइन, रिष मेरौ कीयो देखि हूं तो नहीं बावरौ । भगतबछल मेरौ बिड़द गावै साध बेद, संत मोहि प्यारे से मात पिता डावरौ । For Personal and Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७ चतुरदास कृत टीका सहित राघो कहि राम हरिचंद नहीं हार धर्म, भेड़न को मैं न मानै स्यंघ को ज्यूं छावरौ ॥१t टीका [मूल] मनहर चाले वेग रिष बिस्वामित्र बैठे वन प्राइ, छंद सूर भयो सूर-देव बाग खोदि डारयौ है। माली जाइ कही हरिचंद चढ़ि पायौ तब, सूर भग्यौ गेल लग्यौ कहै अब मारयौ है । दीखबे सौं रह्यौ रिष देखि बैठि गयो सीस, नाइ करि कह्यौ मम चलौ यौँ उचारचौ है । संकलप लेहु सर्व राज हम देहु तीन, लाख फिरि येहु दये सत नहीं हारयौ है ॥६२ खोसि लीयो घोरा पाप नृप कौं पयादौ कीयौ, कांटा धूप लगै लोग सुनि और ल्याइये। सर्ब ही हमारे ये तो ल्यावो तीन लाख हारो, भूप रुहितास रांनी कासीपुरी पाइये। सीस घास लीयें ठाढ़े बेस्यां कही नारि देहु, नकटी बखानी कीस नांक काटि जाइये। अगनि सुश्रमां रिष रांनी रुहितास लीये, दीये ड्योढ़ लाख होयौ फटे बिछुराइये ॥६३ मांगत रुपईया डेढ़ लाख रिष राजा पासि, बचन कौं तजौ प्रजों नहीं बेगि दीजिये। अब देऊ झफड़ा सु डौम आयो ताही छिन, म्रहट सभारौ हां जू तौ तौ गिनि लीजिये । रांनी रुहितास करै अगनि सुश्रमां सेव, - ईंधन वुहारी लेय जल ल्याइ भीजिये। सुत ल्याव फल-फूल पूजन करन रिष, येक दिनां चढ्यो द्रुम अह काटि खीजिये ॥६४ वालां कही माता सू सरप डस्यौ रुहितास, रोवत गई है संग सुत जहां परयौ है। टिप्पणी : सम्वत् १८८६ को प्रति में इसके बाद के ६ मनहर छंद नहीं हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल देखि छाती फटी ले उठाइ पाई मरहट, लकरी बरै' न मेह बखै नहीं जरयौ है । ●वां लखि प्रायो हरिचंद मांगै भूमि-भाड़ो, दयो फारि चीर प्राधौ तब लैक टरचौ है। गंगा मैं बहाइ आइ पाश्रम मैं रात ढिग, चील हार ल्याइ रांनी गरै मांझ घरचौ है ॥६५ कासी के राजा-चर देख्यौ हार गर-मांझ, ___ मार धर बार-बार ल्याये भूप पास ही। जावो मरहट कही काटौ सिर सट फेरि, चल नहीं बट झट-पट करौ नास ही। सुनौं इक गाथ असि देहु टैल वाकै हाथ, छेर्दै मम माथ दई नाथ लेर बास ही। बिरम्हा बिसन सिव गौ कर मांगि बर, उर नहीं चाहि कलि करो मति त्रास ही ॥९६ देवतांन कीयो छल सूर भयो देव भल, मैं हूं बिस्वामित्र रिष बैठो बन मांहि जो। . अगनि सुश्रमां अज झपड़ा सो जमराज, सक्ति भई बेस्यां पुनि कट्यौ नांक ताहि जो। सुरपति श्रप जानौं चील हूं रंभा कौं मानौं, ___ कासी-नृप देव बानौं सर्व ही को प्राहि जो। गंगा जू उलटी बहि रुहितास प्रायो सही, ___राज दयो महीराजा रांनी मुक्ति जाहि जो ॥६७ जै जयंती-सुत जगतगुर, राघो दंडवत निति नमो ॥टे० कबि हरि हरि-रत अंतरीक्ष, नहीं प्रभु सूं अंतर । चमस प्रवुध परबीरण, करहि धुनि ध्यान निरंतर । कर भांजन पिपलाइन, द्रुमल रहै राति दिवस रत । आब्रिहोत्र प्रखंड नृषि, नवन कोइक मत । नव जोगेसुर नांव भरिण, मिटै सरम संकट समो। जै जयंती-सुत जगतगुर, राघो दंडवत निति नमो ॥६८ १बर। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ ३९ नमो पंड-सुत पंच, नमो परचंड पर-काजी। अति क्षत्री अति साध, कृष्ण जिन सूं प्रति राजी। नमो जुधिष्टर भूप रूप, धर्म सति के नाती। नमो भीवभड़ पवन-सुत, पाप कर्मन की काती। नमो धनंजय धनुष धर, सत्रुन सर सज्या-धरण। नमो नकुल सहदेव कौं, जन राघों रोगन हरण ME रिष नारद नै निरभै कीये, प्राचीन बृह के पुत्र दस ॥टे० कुवरन कौं कैलास, बताई निश्चल ठौरा। महादेव मन जीत रहै, संग सीतल-गौरां । बक्ता मगन महेस राज-रिष सनमुख श्रोता। भक्ति-ग्यांन अतिहास, सार तत निरन होता। यौं चकेता प्रसिधि भये, जन राघो पीवत राम-रस । रिष नारद नै निरभै कीये, प्राचीन बृहै के पुत्र दस ॥१०० अहष्ट-चक्र इनके चले, रटि राघो षट चक्कवै ॥टे० प्रथम बेणि धर्म जेठा, दुतीय बलिवंत' बलि बहरी। धुंध मारबि सियार, जास रजधांनी गहरी। मांनधाता प्रति बढयौं, प्रसिधि महा भयो पूरवा। अजैपाल अब तप, धारि उर भलैं गुरदवार । उदै अस्त लौं राज घरि, करते न्याव हरि हक्कवै । अदृष्ट-चक्र इनके चले, रटि राघो षट चक्कवै ॥१०१ इंदव काक-भुसंड र मारकंडे मुनि, जागिबलक कृपा क्रम जीते। छौंद सेस संभु वुगदालिम लोमच, ध्यान समाधिहि मैं जुग बीते। खडांग दिलीप प्रजौं अजपाल, रिषभदेव अरिहंत उदोते। राघो कहै चकवै षट ये दस, रांम परांगमुख ते गये रीते ॥१०२ समुदाई टीका इंद्र अगन्नि गये सत देखन, स्यौर दयो तन काटि र मासं । सुर्थ सुधन्वा सुदोष कियो दिज, संख लिखत्त भयो बपु नासं। १ छलिवंत। २ गुरदेवा। ३ षोडस। ४ हस ध्रु पुत्र । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] भागवतं प्रकासं । देह' दधीच दई सुरपत्ति है, भर्त सु बिप्र सुदर्सन है इतहासहि, देत तिया जन और न दासं ॥ ७३ रुक्मांगद की टोका सुरग्गहि भागी । बाग पहौपन छाइ रह्यौ सुभ, देवतिया वह लैनहि प्रांहीं । बैंगन कंटक पाव लग्यौ इक, बैठि रही सुनि कैं नृप जांहीं । बात कहौ श्रुरगलोक पठाइत, ग्यारसि वास दयें सुख पांहीं । ग्राम न जानत होत कहा व्रत, काल्हि रही इकठी कबि नांही ॥७४ डौंड फिरें इक लौंड़ निक्क हु, मारि हुतो अन खाइ न जागी । भूपति कै ढिग ल्याइ दयो ब्रत बैठि बिमान देखि प्रभाव हि भूप बिचारत, या दिन अंन यौं नर-नारि करै व्रत जाबक, जाइ पुरी सुरगापुर लागी ।। ७५ ग्यारस को व्रत सत्य करयौं नृप, बात सुनौं इक तास सुता की । लेन पिता पुर आइ सुयंबर मांगत न खुध्या प्रति पाकी । देत नहीं हरि बासु र जांनत, आजि मरै गति भल यांकी । प्रांत तजे उन बेगि मिले प्रभु, भाषि कही पन रीति तिया की ॥७६ भखै स प्रभागी । राघवदास कृत भक्तमाल मधु की टीका रोग भयो ग्रभ अर्जन कै प्रति कृष्ण जु जांनि दयो रस भारी । है मम भक्त सु तोहि दिखावत, बालक बृद्ध भये ब्रह्मचारी | जाइ पहौंचत मोरधुजं गृह, बेगि कहौ नृप बात हमारी । जाइ कही अब सेव करू हरि, बैठ हुयौं सुनि आागि प्रजारी ॥७७ ऊठ चले रिस खाइ गहे पद, जाइ कही नृप दौरत आये । आप दया करि चाहि फलावत, आणि भलौ दिन ये फल पाये । मोहि कहो स करौं प्रवही वह, बैंन रसाल पिऊं द्रिग धाये । रोस गयो सुनि मोद भयो उर, पारिख लैन सु बैन सुनाये ॥ ७८ देन सुने म करौ जु करयौ हम, जो तुम भावत सो मम भाई | स्यंघ मिल्यौ इन बालक खावत, मोहि भखौ कहियौ सुखदाई | क्यूं करि छोड़उ भूपति को तन, आध मिलै मम बात जनाई । बोलि उठितिय मैं अरधंगनि, पुत्र कहै मम द्यौं सुधि श्राई ॥७६ १ सेह । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ ४१ बात सुनौं नृप गात तिया सुत, चीरहि भोरहि नांहि न भाखे । सीस करीत धरयौ सु चिरयौ मुख, नीर ढरयौ द्रिग भीर न चाखै । छोड़ि चले गहि पाव कहै इम, रोवत है बिन कांमहि नांखै । नैन लये भरि रूप धरयौ हरि. दूरि करयौ दुख है अभिलाखै ॥८० धौंस कहा अति मोहि रिझाइहु, रीझि दिये बिन मोउ रसालं । लेहु चह्यौ बर साटि न चूकत, सूकत है मुख देखि बिहाल । भूप कहै तुम दीन-दयाल, करै कछू नून लखौ सु बिसालं । देहु यहै बर मांगि सिताब, करौ मति पारिष यौं कलिकालं ॥८१ अलरक की टोका मैं अलरक्क सु बात बखानत, ग्यांन दयें नहि जाइ बिर्ष है। जन्महि आइ मंदालस के तन, सो ग्रभ वासहि नांहि पिषै है। पीव कहे लघु छोड़ि गई बन काढ़ि' लयो नृप त्रास दिले है। छाप उपाडि र बांचि सिलोकन, दौरि गयो दत देव नखै है ।।८२ रंतदेव की टोका देवसु रंतकुले दुसर्कतहु, बृत्य अकासहि धारि लई है। खात नहीं बिन दीन अभ्यागत, वास करै यह बात नई है। अठचालिस द्यौस मिली रिधि, ब्राह्मन शुद्र सुपाक दई है। रांम बिचारी चहूं जनमैं हरि, देन लगे दुख देहु कही है ॥८३ [मल] छपै जन राघो निज नवधा भक्ति, करत मिट जामण मरण ॥टे० श्रवरण परीक्षत तरचौ सबद-धुनि सुख मुनि गावै । चरण पलौट लक्ष प्रादि, अब गतिहि रिझावै । सिंगः सर्वात्मनां त्याज्यो, यदि त्यक्त न शक्यते । स एव सत्सुं कर्तव्यः, संतः संसारभैषजं ॥१ कामः सर्वात्मना हेयो, यदि हातुं ना शक्यते । स कर्तव्यो मुमुक्षाय, सैव तस्याभिभैषजं ॥२ सकूली मीता माग कन्या । १. काटि। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] राघवदास कृत भक्तमाल भजन सुदिढ़ प्रहलाद, सु पलक' सुत बंदनकारी। दासातन हनुमंत, सखा पारथ पण धारी। पृथु अर्चा बलिप्पंड ब्रह्मांड, श्रबस दे गयौ हरिचरण । जन राघो निज नवधा भक्ति, करत मिट जामरण मरण ॥१०३ - गोह भीलों को राजा सिंगबेर२ (पुर) को टीका गोह किरातन को पति रामहि, प्राइ मिल्यौ बनबास सुन्यौ है । राज करौ यह मौ सुख द्यौ प्रभु, साज तज्यौ पितु बैन सुन्यौ है। दीरघ दुख्ख बिछोह बहै हग, लोहु चल्यौ फिर सीस धुन्यौ है। आंख न खोलत राम बिनां मुख, और न देखत प्रेम पुन्यौ है ।।८४ संबत चौदह बीति गये हरि, प्राय कहै चर रामहि देखौ । मांनत नांहि न रांम कहां अब, नाथ मिले कहि मोहि परेखौ। अंग पिछांनि लये पहिचांनि, जिये मनु जांनि नहीं सुख लेखौ । प्रीति क रीति कही नहिं जात, हिये अकुलात सु प्रेम बसेषौ ॥८५ प्रहलादजी को मूल मनहर धनि प्रहलाद कीन्हौं बाद बिधनां के काज, छंद जाहु तन प्राज मैं न छाडूं टेक राम की। अगनि तपायौ तन जिय मांहीं एक पन, हरि बिन जाहु जरि देही कौंन काम की। देख्यौ कसि जल-थल ऊबरचौ भजन बल, रटत अखंड सरनाई सत्य स्यांम की। असुर का कसर नृस्यंघ को सरूप धरयौ, राघो कहै जीत्यौ जन बांह बर यांम की ॥९८ [टोका] इंदव संकर आदि डरे न इसी रिसि, पासि न जावत श्री हु डरी है। छंद भेज दयो प्रहलाद प्रभु ढिग, जाइ पगौं परनाम करी है। १ अकूर । २. भिंगबेरपु । यहां संख्या में ६ का फरक पड़ने का कारण अन्य प्रति में ६२ से ६७ तक के मनहर छंदों का न होना है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ ४३ गोद उठाइ दयो सिर मैं कर, देखि दया उर येह धरी है। दूरि करौ दुख या जग को सब, मौ अब द्यौ तव माय' बुरी है ।।८६ अक्र रजो को टोका अक्रर चले मथुरा पुर ते, दिग नीर बहै हरि कौं कब देखौं । सौंण मनावत देखन भावत, लोटत है लखि चिन्ह बसेखौं । बंदन भक्ति प्रबीन महा सुख, देव कही यह जीवन भेखौं । राम रु कृष्ण मिले सु फले मन, स्वारथ लाख जनंमहि लेखौं ॥८७ प्रोक्षत को टोका प्रीक्षत पीवत श्रुति कथामृत, बाढत है निति कोटि पियासा । जोगिन कै उर ध्यान न पावत, सो हरि देखि मया ग्रभवासा। भूप कहै सुखदेव सुनौं यह, चित्त कथा नहीं तक्षक त्रासा। पारिष ल्यौ मम बुद्धि रही पगि, जाहु जबै थमि होत उदासा ॥८८ सुकदेवजी को टोका होत जनम चले भजि आरन, ब्यास पिता हि सभाष न दीयौ । कान परे सुस-लोक दसंमहि, बुद्धि हरी सुनि भागुत लीयौ । जोगुन रूप करम्म करे हरि, भूप सभा कहिने भय हीयौ। बूझत संत उन्हें करि उत्तर, वांचित है सु जबै झर कीयौ ।।८६ छप मूल हरि बिमुखन दंड देत है, जन राघो पाइक राम के ॥ नमो नव-गृह देव, आदि अनुचर हरिजी के। पौड़त प्राज्ञा पाई, रांम अनुन तें नीके। नमो बृहस्पति बुद्ध, नमो सनि सोम सहाइक । नमो भासकर सुकर, नमो मंगल बरदाइक । नमो राह धड़-केत, सिर प्राज्ञाकारी स्यांम के। हरि बिमुखन दंड देत है, जन राघो पाइक राम के ॥ १ माया। २. उत्तरा। ३. पाई। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] राघवदास कृत भक्तमाल भगवत प्राज्ञा मैं रहै, ये नक्षत्र अष्टाबीस ॥ अस्वनी, भरनी, कृतका, रोहणी, मृगसर, आद्रा। पुनरबसु, अरु पुक्ष, असलेखा, मघा, सु सादा। पुरबा-उतरा-फालगुनी, पुनि, हस्त, सु चित्रा। स्वात, बिसावा, अनुराधा, जेष्टा अतिमित्रा। मूल, पूरबाषाड र उतराषाड, अभींच हद । श्रवन, धनिष्टा, सतबिषा, पूरबा-भाद्रपद । उतरा-भाद्रपद, रेवती, सर्व राघो सुमरै ईस । भगवत प्राज्ञा मैं हैं, ये नक्षत्र अष्टाबीस ॥१०० जन राघो रचनां राम की, ते ते प्रणउं पंक्ष गुर ॥टे० गरुड़ासरण गोविंद, अरक के अरग'-सारथी। हंस दसा' सारस, हेत हमाइ प्रारथी। चाहरण उत्म चकोर, सूवा संगि हरि हरि करि है। मोर कंठ-कोकिला, पीव पीव चात्रिक ठरि है। काक-भुसंड रटि गीध, निधि जलतटांग उपगार उर। जन राघव रचनां राम को, ये ते प्ररणऊं पंक्ष गुर ॥१०१ राम कृपा राघो कहै, इतने पसुपती ग्रवा ॥टे० कांमदुघा नंदनी, कामनां पूरण करि हैं। कपिला बड़ी कृपाल, सुरह लांगुल सिर ढरि है। औरापति गज इन्द्र, नंदीसुर सिव को बाहन । गौरी-बाहन स्यंघ, राम बिमुखन डरपावन । मृग चंद बाहन भलौ, आदित के उत्तीश्रवा । रांम कृपा राघौ कहैं, इतने पसुपती वा ॥१०२ ये अष्टादस पुरांरण, जे जगत मांहि तारण तिरण ॥टे० बिष्ण, भागवत, मीन, बराह, कूरम, बांवन धर। सिव, सकंद, लिंग, पदम, भवक्ष, बैबरत कथाबर । ब्रह्म, नारदी, अगनि, गरुड़, मारकंड, ब्रह्म डा। धरम थापि अधरम मारि, करि है सतखंडा। १.अरुण । २. दरसा। ३. सरह । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित मन बच क्रम राघो कहै, प्रेम सहित सुरिण है करण । तिररण ॥१०३ नसे प्रज्ञांन ॥टे० ये श्रष्टादस पुरांण, जे जगत मांहि तारण ये श्रष्टादस समृति भली, तिन सुनत बैष्णवी, मनुस्मृतिः, श्रात्री, जांमी, आग्री, जागिबलकि सांनी, श्री नांमी, कात्याइन, गौतमी, बसिष्टी, दाखी, श्रासतापि, सुरगुरी, परासुर, कृत मुनि प्रासा पासि उदारमति, हरत परत साधन ये श्रष्टादस समृति भली, तिन सुनत नसै श्रज्ञांन ॥ १०४ रांम सचिव नांम ही लीये, अनन्य भक्ति कौं पाई है |टे० सुमंत पुनि जैयंत सृष्ट, बिजई र सुचिर मति । राष्ट्ररबरधन चतुर, सुराष्ट्रर मैं बुधि प्रति गति । बहुफल । सधनांन' । सोकबरज सुख-क्षेम, सदा रुघुपति मन भाइक । परम धरम- पालक, प्रजा कौं सर्ब सुखदाइक 1 राघो से प्रसन कर, सेवति मन बच काइ है । राम सचिव नांम हि लीये, अनन्य भक्ति कौं पाई है ॥१०५ पद्म अठारह जूथपाल, तिनके सुमरूं नांम ॥ सुग्रीव, बालि, अंगद, केसरी बच्छ हनुमानां । उलका, दधिमुख, दुब्यंद, बहुत पौरष जंबुबांनां । सुभट सुषेण, मयंद, नील, नल, कुंमद, दरीमुख गंधमादन, गवाक्ष, परणस, सरभांग व हरिरुख । भीर परें भाजै नहीं, रुघनन्दन कै १. सध्यांन । हारतिकः । सांमृतक । सांखिल । कांम | नांम ॥ १०६ पद्म तिनके अठारह जूथपाल, सुमरूं * नाग प्रष्ट - कुल सुचित हूँ, राति दिवस हरि को भजे ॥ इलापत्र, मुखसहंस, अनंतकीरति निति गावै । संकु, पद्म, बासुकी, हृदै मै ताली लावै । स्वाभर । वैजम । Jain Educationa International [ ४५ For Personal and Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] राघवदास कृत भक्तमाल असु कमल हरि अजित, कदे प्राइस न निवारै। तक्षक, करकोटक, सीस परि सेवा धारै। जन राघो रत रांम सौं, मन की प्रासा सब तर्जें। नाग अष्टकुल सुचित्र ह्व, राति-दिवस हरि कौं भजे ॥१०७ परजन्नि बृद्ध बृज गोप के, नव पुत्र नंद कौं प्रादि दे॥ सुठि सुनंद, अभिनन्द, पुनै उपनंद सु चातुर। धरानन्द, ध्र वनंद, धरम सत-गुन के पातुर । धर्मा, कर्मानंद, करम काटन अभिनंदन । गो-बछन के बृन्द, गोपिका हरि रंग-रंगन । कुल-मध्य कृष्ण जू अवतरे, राघव नमत सुरादि दे। परजनि बृद्ध बृज गोप के, नव पुत्र नंद कौं प्रादि दे ॥१०८ बृज के नर-नारी भक्त, लघु दोरघ सब जांचि हूं ॥ नंद, जसोदा, कृष्ण, धरा, धूनंद, कोरति दा। मधु-मंगल, बृक्षभान-कुंवरि सहचरि बिहरत दा। श्रीदांमां पुनि भोज, सुबल, अरजुन, सुबाहु गन । ग्वाल-बृद बहुतांनि, स्यांम कौं संग रमांवना । राघो मन बच काय करि, घोष निवासनि राचि हूं। बृज के नर-नारी भगत, लघु दीरघ सब जाचि हूं ॥१०६ बन-धाम संगि श्री कृष्ण के, अनुग सुचित रहबो करै ॥टे० चंद्रहास, मधुबरत रु, रक्तक, पत्रक जेते । मधुकंठो, सुबिसाल, रसाल, सुपत्री तेते। प्रेमकंद, संदांनि, सारदा, बकुल कुसलकर । पयद सुद्ध मकरंद, प्रीति सूं सेवत गिरधर । राघो समयो देखि करि, चतुर इच्छत आगै धरै । बन-धांम संग श्री कृष्ण के, अनुग सुचित रहबो करै ॥११० सपत-दीप सातूं समुद्र, भक्त तिते सिर-मौर ॥टे० जंबू खार-समंद पलक्ष, चहूं फेर ईष रस । सालमिली सर मधु, सुनौं कुस घृत देव बस । राषा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४७ चतुरदास कृत टीका सहित क्रौंच पासि सर दुग्ध, साक दधि को नमलसर । पहुकर सागर सुधा, पार सोहै कंचन-धर। परबत लोका-लोक मैं, बिटवोक चहुवोर । सपत-दीप सातूं समुद्र, भक्त तिते सिर-मौर ॥१११ जंबुदीप नवखंड के, सेवक सेब्यन कू भजू ॥टे० बीच इलाबत राज, सेस सिव अनुग सु जांनय । भद्रा हयग्रीव भद्रश्रव, हरिबर नृस्यंघ प्रहलादय । किं पुरसुरांम हनुमंत, भरथ नारांइन नारद । केतमाल श्री काम रभिक, मछ मनुहु बिसारद । हिरन्यषंड कच्छ अरजु मां, कुरु बराह पृथी सजू। जंबुदीप नवखंड के, सेवक सेबिन कौं भजूं ॥११२ राघो ततक्षरण तीहि सभा, हरि फेरयो नारद गुनी ॥ राति-दिवस उनमन रहै, हरि ही कू देखे । टगा-टगी धुनि ध्यांन, पलक नहीं लगै निमेखै । जिनकी उलटी चाल, काल-जित कूरम अंगी। भर्म कर्म सूं रहत सदा, अबगति के संगी। स्वेतदीप मधि सत-पुरष, सदा नृबर्त निश्चल मुनी। राघो ततक्षरण तीहिं सभा, हरि फेरचौ नारद गुनी ॥११३ टोका इंदव रूप उपासिक स्वेतहि बासिक, नारद देखन कौं चलि आये। छद नैन निहारत मो मति पागत, सैंन करी हरि जाह फिराये। कुंठ गये दुख पाइ कही हरि, साथ लये फिरिक वतलाये । ताल पिख्यौ खग ध्यान रह्यौ लगि, बूझत है रिष राम जनाये ॥६० संबत्सहस बदीत भये उर, भाव फल्यौ न नहीं जल पीवै। स्वाद लगै वह खावत पीवत, नांव बिनां पल येक न जीवें। पाइ दयो जल नांखि दयो उन, फेरि करयौ उसही भरि लीवै। देखि खुले चक्षुदे परदक्षण, भाव भयो खग सेव सु कोवै ॥६१ दीप चलौ अब भाव भलौ उन, जाइ रु देखत वै प्रभु गावै। आवत हौ जन आरति है गइ, प्रांन तजे रु तिया फिर आवै। १. स्वेतह। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल ४८ ] वाहि कह्यौ समयौ न परी धर, स्वास गये चलियो मन भावे । यौं सुत प्रादिक आइ परे सब, देखि सचौपन फेरि जिवावै ।।६२ च्यारि सप्रदा बिगति बरनन : मूल छपै ये च्यारि महंत चकवै रचे, जन राघो सब कौं प्रेह ॥टे० मध्वाचारय मूल, कलपतर कला-बिथारी। . बिष्णुस्वामी बिस्व-पोष, अमृतरस सर यो भारी। रांमांनुज निह काम, राम पद पारस परसे। नीबादित निधि नृषि, चतुर चितामणि दरसे । बिधि बिधि सुत सिव सक्ति सौं, भक्ति उद्यापी येह । यह च्यारि महंत चकवै रचे, जन राघो सब कौं प्रेह ॥११४ राघो रटि गुण होत गमि, भक्ति काज भूपरि भली ॥टे० इन सिव बिरंचि लक्षमी सनकादिक, येते सब के परम गुर। अब इनके सिष सो भक्ती पुंज भरिण,कलिमल काटण धर्मधुर । महादेव को बिष्णु-स्वामि-मत,पुनि बिरंचि को मध्वाचारिय । नीबादित के सनकादिक मत, रांमांनुज के रमाजु पारिज । पति प्रणाली प्रणम्य इम, सुध संप्रदा यौं चली। राघो रटि गुरण होत गमि, भक्ति काज भू-परि भली ॥११५ अथ रामानुज संप्रदा बरनन महाबिष्णु तै बिष्णु, विष्णु के लक्ष अरधंगी। चरण पलोटे नित्ति, सदा सर्वदा रहै संगी। ता सिष बिष्वकसेन, सपुन भव' भक्ति चलाई। सठकोप पुनि वोपदेव, हरि सूं ल्यौ लाई। मंगलमुनि श्रीनाथ सुठ, पुंडरीकाक्ष धर्म की धुजा। रांम-मिश्र अरु परांकुस, जामुन-मुनि रांमांनुजा ॥११६ इम रमा पति परताप, रहरिण रामानुज पाई। रांम-रीति परतीति, सबनि कौं नीति दिठाई। उपजे सिष सिरदार, बहतरि भये उजागर । ज्ञान-गिर के पुंज, सील सुमर्ण के सागर । १. भुव। २. विश्र। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ ४९ रांमांनुज निज तत' कथ्यौ, नृगुरण त्रिवृति निरबांन पद । जन राघो रत राम तूं, ज्यौं दत संगति मुक्ति जद ॥११७ टोका मत- रांम अनुज्जु सु है लखमन्नहि, तास सरूप यहै उर आई। गयंद मंत्र दयो गुर अंतर राखन, जाप करें हरि दीन्ह दिखाई। छद प्राइ दया सबही प्रभु पावहि, गोपुर पैं चढ़ि टेरि सुनाई। जागि परे तिन सीखि लयो वह, भैतरि मुक्ति भये सिधि पाई ॥६३ जात भये जगनाथहि देखन, जांन असोच पुजारि उठाये । साथि हजारन लै सिष सेवत, पूजन विजन भाव दिखाये । श्री जगनाथ कहै वह भावत, प्रीति खुसी सब और बहाये । बात न मानत वसहि ठांनत, पागम और निगम सुनाये ।।६४ जब्बर संतहि जोर न चालत, सौक कही फिर खेल पिखायौ। बाहन सूं कहि जाइ धरौ इन, ले सब कौं धरि द्राविड़ आयौ। आंखि खुली जब देसहि देखत, गोपि मतौ प्रभु कौ किन पायौ । पूजन वैहि करै अजहूं निति, रीझत भावहि और न भायो ।।६५ संत च्यारि दिगपाल, चहुं भोमि भक्ति चांपें भलें ॥ श्रुति-धांमां श्रुति-वेद, पराजित पहुकर जांनूं । श्रुति-प्रज्ञा श्रुति-उदधि, ऋषभ गज बावन मानूं । रांमांनुज गुर-भ्रात, प्रगट अानंद के दाता । सनकादिक सम ज्ञान, संक्र संघिता सु राता। वुधि उदार इंद्रा पधित, सत्रु चलायें ना चले। संत च्यारि दिगपाल चहुं, भोमि भक्ति चांपें भले ॥११८ रामानुज जा-मात को, बात सुनत हरि भक्ति ह ॥टे० संत रूप सब कोइ, चल्यौ परिणी मैं प्रावै। दग्ध कोयौ ज्यूं भ्रात, कुटंब दल देइ बुलावै । भू-सुर करी गलांनि, सुरग सुर लीये बुलाई। देखे जीमत सबनि, जात नहीं दिई दिखाई। १. नितन । २. मूजन । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] राघवदास कृत भक्तमाल ___ लालाचार्य लक्ष मगन, राघो जाने पंथ हूँ। रामानुज जा-मात की, वात सुनत हरि भक्ति ह ॥११६ टोका मत रांम अनुज्जह धीपति की सव, बात सुनौ जब बधव मांन । गयंद चौगुन प्रीति करी कुल बंधव, रीति बनैं न नहीं घटि जान। छद साध सरूप बह्यौ सब प्रावत, ल्याइ घरां सु वनाइ बिमांन । लै तटि जात बजावत गावत, दागत रोवत यौ सुख मानें । ६६ न्यौतत बिप्र महोच्छव मैं, उनमांनि लियौ फिरि आवत नाहीं। है इक ठौर कहै सब कोहु त, बोलि उठे सब ह्यौ सव आंहीं। जीमत ना हम जाति न जांनत, मत्त भलौं घरि अांनि रु दांहीं । पंचन की सुनि बातहि सोचत, पूछन कौं गुर 4 चलि जांहीं ॥९७ रांम अनुज्जहि ढोक दई मम, बिप्र न जीमत बात जनाई। आप कही परभाव न जानत, जानत है सुर पावत आई। देखत ही सुर प्राइ गये ढिग, पंचन कौं भुज च्यारि दिखाई । जीमन द्यौ इन स्वास न काढहु, हासि करा जब ये फिरि जाई ।।६८ देवन देखि प्रणांम करी परि, आज दया करि मो बड़ कीन्हौं । भोजन. पाइ गये नभ मारग, बिप्रन मैं किनहूं नहि चीन्हौं । पाइ प्रसाद सराहत है सुर, साधुन को पर भावहि भीन्हौं । जात भयो अभिमांन गये घरि, लाज न ये किणका चुनि' लीन्हौं ॥६६ पाइ परै बिनतीहु करै मन, दीन धरै हम चूक हि छांडौ। संत कहै तुमरौ उपगार, उधार भयो मम बाद न मांडौ । भक्ति धरौ उर दास करौ हम, है चित मैं मति हांसि न भांडौ। दे उपदेस किये सब को सिष, गाड़ि दई ममता खिण खांडौ ॥१०० मूल] छगै जन राघो राखे रामजी, जन के पग जल ते अधर ॥टेक इक श्रीसंप्रदा महंत, सिषन सुरसुरी दिढाई। इकही कहिये कांत, पाव जिन बोरे जाई। पृथी प्रकर्मा देहुं, आप यहु प्रारंभ कीन्हौं । षट-ब्रष लौं अटि खोजि, आय उन दर्सन दोन्हौं । १. चुगि। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टाका सहित [ ५१ सिष पट तारचौ सुर धुनो, गुर मंजन करत टेरचौ मधर । जन राघो राखे रांमजी, जन के पग जल तें अधर ॥१२० टोका इंदव संत रहैं बहु देव धुनि तटि, है गुर-भक्त जुदौ न छंद जात गुरु परदक्षण देवन, मो मति छाड़हु गंग कूप करे सब न्हांवन धोवन, गंग गुरू मनि ध्यान करा । दे परदक्षण ग्रात भये जन, पाइ सबै दुख साध सुनावै ॥ १०१ जांनि चले सिष लै करि गंगहि, धारहि पैठि अंगोछ मंगायौ । सोच करे नहि पाव धरे जब, गंगहि बोलि उपाइ बतायौ । अंबुज पनि पाव धरे, अधरे चलि जाइ त पकरायौ । भीर हुती तटि बाहरि श्रावत, पाइ परे सबही गुन गायौ ॥ १०२ छपै घनाक्षरी छद [ मूल] बड़ौ । पढ़ौ ॥१२१ इम रांमांनुज के पाटि, पटंतर देवाचारिय | देवाचारिय के दियौ, हंस हरियानंद आरिय । हरियानंद करि हेत, राघवानंद निवाजे । ताकै रामानंद महंत, महिपुर मैं बाजे | अब राघौ रामानंद के है, अनंतानंद सिष येकादस सिष और है, श्रादिपधित अनुक्रम इम रांमांनंद प्रताप तैं, इतनें दिग अनंतानंद, कबीर, सुखानंद, सुख सुमरि सुरसुरानंद, राम, रैदास न धना, सेन, पद्मावति, पीपा पुनि नरहरदासा । भावानंद, सुरसुरी, कोयौ हरि घर मैं बासां । परमार्थ कौं अवतरे, राघो मिलि रांम रहंत । इस रामानंद प्रताप तैं, इतने दिग द्वादस महंत ॥१२२ द्वादस महंत ॥० मैं भूलै । भूलें । Jain Educationa International रहावे । वतावै । रामानंद रांम कांम सावधान श्राठौ जांम, कायागढ़ करि तमाम जोत्यो मन घेरि कै । जाति-पांति ऊंच-नीच मेटिकै अकाल- मीच, सार बस्त सार गहि लीन्हौं हंरि हेरि कैं । For Personal and Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] राघवदास कृत भक्तमाल ऊपजे सपूत सिष द्वादस दुनी मैं दीप, चंदन सू चंदन कपूर जैसे केरि के। राघो कहै पंथ पाज थापिकै भगत राज, पूरौ गुर पूरी साज सिर तपै सुमेर के ॥१२३ स्वामी रामानंदजी के आनंद के कंद सिष, तहां दस दीरघ अनंतानंद पाट की। मन बच क्रम धर्म धारचौ सेवा जाप' पन, काम क्रोध जीत्यौ मन नमल निराट को। बड़ेन को रीति अति प्रीति परमेसुर सूं, गुरु ज्यौं पहूंच्यौ धुर ज्ञांनी वाही घाट को। राघो कहै राति दिन राम न बिसारयौ छिन, तारिक त्रिलोक-मधि बरण बिराट कौ ॥१२४ छ कबीरजी कौ मूल अथाह थाह पांऊं नहीं, क्यौं जस कहूं कबीर कौ॥ श्रीरामांनंद को सिष, जाति जग कहै जुलाहौ। कासी करि बिसरांम, लीयो हरि भक्ति सु लाहौ। हिंदू तुरक प्रमोधि, कीये अज्ञांनी ते ज्ञांनीं। सवद रमैंणी साखि, सत्य सगलां करि मानी। प्रमानंद प्रभु कारनै, सुख सब तज्यो सरीर को। अथाह थाह पांऊं नहीं, क्यों जस कहूं कबीर कौ ॥१२५ भरम करम तजि प्रसे गुर रामानंद, उपज्यौ आनंद क्रम जग्यौ यौं कबीर कौं। काम क्रोध लोभ मोह मारिके बजायो लोह, सूर-वीर समर्थ भरोसौ तेग तीर कौ। साखी सवदी ग्रंथ रमैंगी पद प्रगट है, सोहै सर्बही कंठि हार जैसे हीर कौ। राघो कहै राम जपि जगत उधारयो जिन, माया-मधि मोक्ष भयो मोतो जैसे नीर कौ ॥१२६ मनहर १. पूजा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ ५३ टोका इंदव मांनि अकासहि बोल भये सिष, जाइ परे मग न्हांवन जावै । छंद लागत ठौकर रांम कह्यौ सिर, हाथ धरयौ इतनौं यह चावै। भक्ति करै गुर-भाव धरै जन, पूछत है उन नावं बतावै। स्वामि सुनि' तब बेगि बुलावत, सिष्ष करयौ कब भांति बतावै ॥१०३ पाव लग्यौ जब राम कह्यौ तुम, मंत्र वही तिस बेदहि गावै । खोलि मिले पट मांनि सचौ मत, भक्ति करौ तत यौं समझावै । जाइ वुनै दुवटी हि भजै हरि, येक करै घर काम चलावै। बेचत आइ मगी अध फारत, धौं सब ही सबलै मन भावै ॥१०४ मात तिया सुत भूख मरै घरि, आप लुके कहूं धांम न धांन । सोच परयौ प्रभु भक्ति करै जन, खांड गहूं घृत बाल-दि आने । तीनि दिनां जब बीति गये उन, केसव नांखि दई घर जाने । मात कहै पकरै दरबारहि, लेत नहीं सुत येक न मां ॥१०५ च्यारि गये जन ढूंढि र ल्यावत, आइ सुनी हरि जांनत पीरा। बैठि बिचारत आप बिसंभर, न्यौंति जिमावत संतन भीरा। छोड़ि दयौ बुनबौ प्रभु गावत, बिप्रन क्रोध करयौ तजि धीरा। पाइ बिभो निति सुद्र जिमावत, जांनत मैं हम कौंन कबीरा ॥१०६ जात रहौ कित जांउ कहौ किम, राम भजौं अब बाट न मारी। मांन करयौ उन मोड़न कौ, अपमान करचौ हम देत जिवारो। जात बजार लगै अब हाथि र, हो तुम मांहि उपाधि निवारी। ल्याइ हरी रिधि दै सब बिप्रन, होत खुसी जन कीरति कारी ॥१०७ रूप करयौ हरि बांह्मन को तुम, जाहु कबीरहि बांटत भाई । भूख मरै मति ढ़ील करै जिन, जात घरां सिर देत अढाई । धांम गये जब देखि खुसी मन, नौतम खेल दिखावत राई। लै गनिका सब देखत कीड़त, भीर मिटांवन हासि कराई ॥१०८ साध दुखी लखि साख तहां सत, फेरि बिबेक करचौ कछु औरै । जात सभा नृप मांन करयौ न, तब इक ख्याल करै जल ढौरै। पूछत भूपति कारन कौंनस, पंड जरयौं जगनांथहि ठौर। भूपति मानस भेजि दयौ उन, आइ कही सब सांचहि चौरै ॥१०६ १. मुनि। २. कच्छ । ३. पंडा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] राघवदास कृत भक्तमाल भूप कहै त्रिय सौं हुइ साचहि, सोच भयो उर पाव गहीजै । चालि परे सिर घास भरौटहि, डारि कुल्हारी गरै दोउ धीजै । लाजहि डारिब जारहि मारग, कीन्ह बुरी हम यौं बपु छीजै। देखि कबीर गये चलि नीरहि, बोझ उतारि कहा इम कीजै ॥११० ब्राह्मन देखि प्रताप उठे जरि, स्याह सिकंदर आइ किनारै। मात कबीरहि साथि लई सब, गांव दुखावत जाइ पुकारे। बेग बुलावत कौंन कबीर सं, द्यौं लटकाइस खूट हमारे। ल्याइ खड़ा करि बात कहै सब, स्याह सलाम करौ हरि प्यारे ॥१११ सांकल बांधि रु गंग बहावत, देखि खड़े कहि चेटक पावै । लाकड़ मेल्हि रु आगि लगावत, दीपत देह सु हेम लजावै । भूमि दये खनि नांहि रहे छिन, ऊपरि आइ र गोबिंद गावें। चालत नांहिं उपाइ रहे थकि, हैं उर मांहिं अ ग्यांन न आवै ।।११२ मूल दास कबीर सधीर धर्म के, मांनी सुमेर सहस्रक रोपे। हींदू तुरक संन्यासी रु ब्राह्मण, स्याह सिकंदर आदि दे कोपे। झुकायो गयंद मयंद महाबलि, स्यंघ सरूप सभा बिचि चोपे। राघो कला प्रबला बढ़ी बेहद, पैज रही हद के दंद लोपे ॥१२७ टोका] देखि डरचौ पतिस्याह प्रतापहि, प्राइ रह्यौ पगि लोग न ये हैं। राखि हमैं हरि तै मति मारिहि, ल्यौ धन गांवहि मान भये हैं। भावत रांम न और, काम, रहैं हम आम न दाम लये हैं। धांम पधारत फौज फते करि, संत मिले ससनेह छये हैं ॥११३ हारि बुलाइ र ब्राह्मन च्यारहि, मुंड मुंडाइ र साध बनाये। गांवहि नांवहि बूझि महंत न, नाम कबीर सु लेर बुलाये। संतन पावत आप लुके कित, रांम उतारि चहू दिसि पाये। रूप कबीर बनाइ बहुतक, आप गये मिलि माध रिझाये ॥११४ बेस बनाइ बधू सुर आवत, देखि अडिग्ग चली नहीं लागी। विष्णु पधारि दयो जन मांनहि, मांगि सबै कुछ धौं बड़ भागी। १. बोपे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ ५५ फेरि कह्यौ मम धाम चलौ अब, जौर भजौत रहौ बुधि पागी।। फूल मंगाइ मगैहर सोइ र, भक्ति दिपा इम ले बपु सागी ॥११५ . मूल दास कबी र की तेग तिहूं पुरु, है धुर धाक पुकारत माया। काम र क्रोध से जोध जुगति सूं, मारि मरद नै गरद्द मिलाया। रामहि राम रटयौ न घटयौ पन, त्यागि तिरग्गुरण नृगुरण गाया। ज्ञान-गदा श्रबदा उर आयुध, राघो कहै भुव भार मिटाया ॥१२८ दास कबीर धर्म की सीर, तिहूं पुर पीर गंभीर गंभीरौ । जरणां जल रूप अनूप धरणी, सु बरणी कलि क्रांति ज्यूं हेम मैं होते। बिधनां बिधि सूं रधि दै रिभयौ, दिज कौं सब दोवटी दै पर पोरौ । राघो कह सब लोक के धोक देहि,सौ तप्यौ कलि-कालि कबीरौ ॥१२६ घनाक्षरी अजर जराइ के बजाइ कै बिग्यान तेग, कलि मैं कबीर असे धीर भये धर्म के। मारयौ मन-मदन सो सदन सरीर सुख, काटे माया मोह फंध बंधन भरम के। निडर निसंक राव रंक सम तुल्य जाकै, सुभ न असुभ मांनै भै न काल क्रम के। जोति लीयौ जनम जिहांन मैं न छाड़ि देह, राघो कहै रांम मिलि कीन्हें काम मर्म के ॥१३० छपी रैदास नृमल बारणी करी, संसै ग्रंथ बिदार नैं ॥ प्रागम निगम सुंग, सबद सब मिलत उचारन । 4 पांगी भिन्नता, संत हंसा साधारण । गुर-गोबिद परसाद, मुकति याही पुजांहीं। ब्राह्मन क्षत्री चकित, काटि उप नयन बतांही। अष्ट मदादिक त्यागि, या चरन रेंन सिर धार नै। रैदास नृमल बांणी करी, संसै ग्रंथ विदार नैं ॥१३१ ३. दीरौ। २. लोके धोक देहि। ३. पुराण । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल टीका इंदव रामहि नंद सुसिष्ष भलौइ क, ब्रह्म सु चारिहु चूनहि ल्याव । छद बैस्य कहै इक चूंन हमारहु, ल्यौ तुम बीस-कबार' सुनावै। मेह भयो तब बापहि ल्यावत, भोग धरयौ हरि ध्यान न आवै । रे किम ल्यावत बूझि मगावत, ढेढ बिसाहत श्राप चलावै ॥११६ नींच भयो सिसु खीर न पीवत, या दिसु पूरब बात रहाई । अंबर बैन सुन्यौं रमनंदहि, दंड भयो मनि यौं चलि जाई। देखत पाइ परे पित-मातहि, सीस धरचौ कर पाप नसाई । बोबन पीवत यौं पन जीवत, ईसुर जांनत फेरि भुलाई ।।११७ साधहि सेव लगे रयदास जु, मात-पिता स जुदा करि दीया। संपति ठांव दिया न हुता बहु, याहु तिया पति नांव न लीया। जूतिन गांठि निबाह करै तन, और उपांनत संतन कीया। सालगरांमहि छांनि छवावत, आप सवा हरि बांटहि धीया ॥११८ पावत कष्ट गर्ने न भज हरि, संत सरूप धरे प्रभु आये। भोजन पान कराइ रिझावत, लेहू करौं सुख पारस ल्याये । पाथरढी मन सुं नहि काम, भजै इक राम बहौ समझाये। हेम दिखाइ दयो घसि रांपि न, हाथि दयो धरि छांनि पिखाये ॥११६ मास तियौं दस बीति गये हरि, पूछत है जन पारस रीतं । ल्यौ वहि ठौर समोड़ र चौरस, द्यौ किहि और स पावत भोतं । लै फिर जात सुनौं नव बात, महौरहु पांच दई निति धीतं । पूजन हुं करते भय मानत, राति कही प्रभु राखत जीतं ॥१२० प्राय समांनि चरणावत मंदिर, साधन राखि भली बिधि चीन्हीं। तांनि बितानह ठौरन ठौरन, भाव भगति कोरति कीन्ही। राग र भोग करै बिधि बिद्धिन, ब्राह्मन बैर धरै बुधि दीन्हीं। आप सिखावत बिप्रन कौं हरि, नीच तिया महलाइत भीन्हीं ।।१२१ प्रेम सहेत करै निति पूजन, यौं रयदास छिप्यौहि लड़ावै। तौहु सिलावत भूपति कौं दिज, होइ सभा मुखि गारि सुनावै । दाम बुलाइ कहै नृप जोर न, न्याव करै हरि गैल छुड़ावै । राखि सिंघासन दोउन के बिचि, तेउ बड़े जिन पै प्रभु प्रावै ॥१२२ १. कबीर। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ ५७ मूल दास रैदास की पैज रही निबही, सर्व लोक सिरै मधि कासी। विप्रन बाद कियो यह जांनिक, सूद्र क्यूँ सालिगराम उपासी । टेक यहै बटवा बिचि राखहु, जाहिक प्रीति है ताहिक प्रासी । राघो कहै गये दास रयदास पैं', प्रोति खुसी हरि जाति न जासी ॥१३२ टोका गढ़ चितोर हि भूप तिया सिषि, आइ हुई उस नाम मुझाली । साथि कई द्विज देखि उठे दझि, भूपति मैं स सभा मिलि चाली। भांति उहीं धरि है बिचि ठाकुर, पाठ करै द्विज है सब खाली। गावत है पद हौ अघ-मोचन, अाइ लगे उर प्रीति सु पाली ॥१२३ देसि गई फिरि कागज भेजत, प्राइ दया करि पावन कीजै । आप चितौर गये धन वारत, ब्राह्मन पावत पांहूं जिमीजै । जीमन कौंज लगे जबहि दिज, दोइन मैं रयदास लखीजै। आम्हनि सांम्हनि पेषि भये सिष, काटि र कंध जनेउ दिखीजै ॥१२४ पीपाजी को मूल [पीप सिंघ प्रमोधियो, जगत बात बिख्यात है।] देबी द्वादस बरष, सेय करि मांगत मुक्ति । सक्ति साच कहि दई, लाइ मन करि हरि-भक्ति । श्रीरामांनंद गुर धारि, करयौ अति भजन अनूपं । परचा पद परसिधि, धरे उर संत सरूपं । परस पछौ4 सरस पुनि, जन राघो प्राक्षात है। पीपै स्यंघ प्रमोधियो, जगत बात बिख्यात है ॥१३३ इंदव देवी दयाल भई दत देन कौं, मांगि जितो मन भावत पीपा। छंद जन के मुख तें यह जाब भयो, मोहि मोक्ष करौ जननी सत दीपा । दोन भई दुरगा मुख भाखत, मोक्ष र मोहि नहीं छल छोपा। राघो कहै गछि ज्ञान के मारग, राम भजौ रामानंद समीपा ॥१३४ दक्षिन देस नरेस वडै कुल, राम के काम कौं रावत पीपा। रज को रज मां प्रगट्यौ अज मां, अजबंस की छाप को अंस उदीपा। कांम कलेस प्रवेस न पाखंड, सीतार है दिन राति समीपा । राघो कहै भजनीक भलौ भड़, नांव की तेग सूं नौखंड जीपा ॥१३५ १. के। २. सुझाली। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल टोका मत- भूप गयो गढ़ गाग्रुन कौ, पुनि सेवत देबिहि रग लग्यौ है। गयंद चक्र हुतौ पुर संत पंधारत, चूंन दयो हरि भोग पग्यौ है। सैन करयौ रजनी सुपनै महि, भूप पछारत रोइ भग्यौ है। आपन कौं न सुहात फिरयौ मन, देबि परी पगि भाग जग्यौ है ॥१२५ जांनत है सब स्यांन भई नृप, जात बनारसि स्वामिहि पासा। जांन लग्यौ सुगुरू ढिग अंदर, द्वार सु रक्षक बर्जत तासा । जाइ कही प्रभू भूपति प्रावत, मा इक काम न आप उदासा । बेग लुटावत कूप परौ अब, जात परन्नहि देत हुलासा ॥१२६ दास करयौ कर सीस धरचौ उर, नांव भरचौ कहि जाहु उहांहीं । साधनि सेवत दे धन धांमहि, कीरति आइ कहै हम प्रांहीं। आइस पाइस प्रावत स्वै पुर, वैहि करी जन प्रीति करांहीं। कागद भेजत बोल करौ सति, चालिस संत सुसंगि चलांहीं ॥१२७ साथि कबीर रदास हि यादिक, सैर कनै सुखपालहि ल्यायौ। लागि पगां सब कौं परनांमहि, मांहि पधारत माल लुटायौ। सेव करि निति मेव मिठाइन', राग करे गुण जीभ न मायो। देखि भगति मगंन भये सब, बैठि रहौ कहि साथिहि ध्यायो ॥१२८ साथि चली त्रिय द्वादस बर्जत, मानत नांहि घरणी डर पावै। फारत कंबल ज्यौ२ गलि मेखलि, भूषन दूरि करौं मन भावै। आम्हन साम्हन देखत भांमनि, रोय चली इक सीत रहावै । नांखिहु याहि तब बहु डारत, नागि भई गुर कंठि लगावै ॥१२६ मनहर छंद मूल असौ सूर-बीर न सरीर संक मान नैक, पीपौजी प्रचंड नवखंड मध्य गाइये। सीताजी सदन तजि मदन को मारयौ मान, . नगन है नांची त्रिहूं लोक मैं सराहिये। छाडि दीन्हां भोग भछि स्वामी संगि चली गछि, ___ कामरी कमरि सिर मांगी भिक्षा पाइये। १. निठाइन। २. ल्यो। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ ५९ रघवा रतीक प्रसि पीपोजी पारस अंग, उधरे हैं ताकै संगि अनंत बताइये ॥१३६ टीका इंदव आप दया करि द्यौ अब काहुक, मैं न रखौं इन साच कही है। छंद सौंह कढावत साथि लई जब, चालत ही दिज पात मही है। और लयौ उन ज्याइ पठावत, चालि सबै हरि धाम लही है। कोउ दिनां रहि मांगत आइस, सागर डांकि परे सु गही है ।।१३० लैन पठाइ दये हरि स्वै जन, देखि पुरी फिरि कृष्ण मिले हैं । कंचन म्हैलन म्हैलन क्रीड़त, सात दिनां सुख पाइ भले हैं। देव कहै जइये अब बाहरि, मांन तनै हरि रूप झिले हैं। डूबि रह्यौ जन व अपकीरति, ब्याकुल हद डर मांनि चले हैं ॥१३१ साथि भये नवडावन कौं हरि, प्रेम बधे जन बाहरि आये। लेत पिछांनि सबै इक आचर्य, अंबर भीजत देह सुकाये । छाप दई जग पातग काटहु, ऊठि चलौ कहि सीत जनाये। मारग चालत तुर्क मिल्यौ इक, खोसि लई तिय रांम छुड़ाये ।।१३२ जाहु अबौं घर नारिहि कौं डर, रांम न जानहु यौं उठि बोली। पारख लेत सुहै हरि हेत, सुनी निहचै तब अतर खोलो। मारग दूसर जात मिल्यौ हरि, दे उपदेस मिटावत रौली। सेष सज्या हरि देखि धनेर हि, बांस हरे करि चींधड़ छौली ।।१३३ भक्तन देखि कहै तिरिया, पति नै घर मैं कछू प्रीति कराई। बेस उतारि रु बेचि लयो अन, पाक करौ तिय देत छिपाई । भोग लगाइ रु जीमन बैठत, ल्यौ तुम दंपति पीछे रहाई। जो तुम पावत तौ हम पावत, सीत गई वत नग्गन सु पाई ।।१३४ बेस कहां तुम यौहि रहै हम, संतन सेव करै इम बाई । प्रावत साध अनंद अगाधहि, देह रहौ किम बात न भाई। फारि दियो पट बांधि कह्यौ कटि, हाथह बँचत बाहरि पाई। भक्त यहै हम भक्त कहावत, होइ इनौं पहि स्वामि सुनाई ।।१३५ बारमुखी बरिण ल्याइ धरै धन, चालि गई जित नाजहि ढ़ेरी। प्रावत लोग नखै द्रिग रोग रु, चाहत भोग कटाक्षहि फेरि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल को तु बता इम पातरि आहि, यहै भरवा सुनते परि बेरी। रोक रु नाज दयो सब साज', सु चींधड़ देतहि जात निबेरी ॥१३६ ढोडहि आवत भूखन धावत, दांमहि पावत जाव नहांनै । भूमि गड्यौ चरवा लखि म्हौरन राति कही त्रिय बात सु वान । चोर सुनी धन पासि गये, खनि देखि भुजंग हतै उन प्रांन । डारि दई गनि के सु लई सत-सात र बीस तुला पच गानें ॥१३७ आवत द्वारि जिमावत है जिनि, साधन दे दल बेगि खवायौ। तीन दिनां महि सर्व लुटावत, सूरज भूप तबै सुनि धायौ। दर्सन देखि भयौ अति पर्सन, देहु दक्षा हम सौ हम भायौ । जो मन पावत सोउ करौ अब, ल्याइ धरौ सब रांणिन ल्यायौ ॥१३८ पारख ले करि नांव दये फिर, नारि दई परदा मत कीजै । माल दयो कुछ राखत संत न, मांन नहीं नृप राम भजिजै । भ्रात बरे सुनि सूरज के, परताप बड़ौ जन जाइ न खीजे। बैल बिसाह न नाइक आवत, हासि करी जनकै बहु लीजे ॥१३६ नाइक जाइ धरे रुपया तुम, धौष यला सब गांव रहावै। छोड़ि गयौ लखि साध बुलावत, जोमत प्रावत ल्यौ मन भाव । भक्तन देखत भक्ति भई उर, अंबर ल्याइ रु पाप उढ़ावै । बाज चढ़े सर न्हांन बड़े छड़ि, बांधि लयौ रपि चालत पावै ॥१४० आप गयो घरि साध पधारत, नाज नहीं कहुँ जा(इ) करि ल्याऊं। बसि बिषी त्रिय देखि लुभावत, ल्यौ सबही तुम रैंनि रहांऊं। जीमत प्राइ गये बिधि बूझत, बात कही सति मैं निसि जांऊं। अंग बनाइ चली बरषै घन, कंध चढाइ लई पहुचांऊं ॥१४१ ऊपरि भेजि दई तरि बैठत, सूकि पगां जननी किम आई। कंध चढाइ रु ल्यावत स्वामिन, है सु कहां तरि लागत पाई। काम करौ न डरौ मन मैं तुम, दे कर माल स मोलि लिवाई। बोल न आवत नीर बहै द्रिग, जांनि भयो सुध भक्ति दिढ़ाई ॥१४२ बात गई यह भूपति मैं द्विज, है यकठे बिप्रीति कहाई। प्रीति घटी नृप की बुधि नून स, जानत नैं यह भक्ति बधाई। १. साच । २. दया। ३. गये। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित ज्ञांनहि देवन स्वामि चले किन, जाइ कही अब सेव कराई। जीन करावत मोचिन के घरि, आइ परयौ पगि यौं सुनताई ॥१४३ बांझ तिया इक रूपवती गृह, मांगत स्वामि न ल्यौं मन नांहीं । ल्यांन चल्यौ गुर स्यंघ बन्यौ लखि, होत खड़ी डर दोइ पखांहीं । स्यंघ मिट्यौ पुनि बाल भयो तिय, देखि प्रभावहि सीस नवांहीं। आप खिजे वह भाव कहां, तव दास करौ अब ठेठ निबांहीं ।।१४४ दे उपदेस कियो सुध भूपति, नेम लयो फिरि धांम गयो है। नाम भगत्त तिया निसि मांगत, लेहु कही भजि है न पयौ है। लार भगी दिन होत चली नहि, धांमन धांमन देखि नयो है । मात चलौ तव धांम धरौं फिरि, काम मिट्यौ गुर-भाव भयो है ॥१४५ च्यारि बिषी नर स्वांग लयो धरि, मांगत सीतहि बेगिहि लीजे । अंग बनाइ रही घरि येकल, आवत, प्राकुल जाहु रमीजे । जातहि स्यंधनि खावन आवत, खात नहीं प्रभु भेष धरीजे। रोस करै तुम भाव निहारहु, मांनिहु ये सिष राम भनीजे ॥१४६ संतन कौं दल लेरु पुवावत, गूजरि मांगत तेर दुगांनीं। आवत भेटहि आजि सबै तव, पीपहि साच स बात बखांनी। माल चढ़ावत आइ महाजन, है सत च्यारि हुवो प्रवांनी। देत न लेत दयो समझाइ, बुलाइ मिलाइ जिमाइ सिहांनी ॥१४७ ब्राह्मन के घर चक्र भवांनिहि, पीपहि न्यौतत संत सुजांनी । रांमहि भोग लगाइ र पावत, ल्याव सबै बिधि थोर स ांनी। भोग लगी रिधि ईस्वर कै सब, भूख मरौ द्विज रोस भवांनीं। वै किन मारत जोर न चालत, छोड़ि दई हरि भक्ति करांनी ॥१४८ तेलनि रूपवती इक देखि र, स्वामि कहै करि रांम उचारा। जाइ धणी मरि रांम कहै जरि, बोलत क्यून भगत्त बिचारा। तौ जबही करि जात धणी मरि, होत सती तब रांम संभारा। स्वामि कहै अबलै निस-बासुर, तौ रजिवावत ल्यौं रजि वारा ॥१४६ भूपति भैसि दई बन मैं चरि, नापहि आइ रहै घर मांहीं । दोहिं बिलोइ र साधन पावत, छाछि रहै फिरि राब रधांहीं। चोरि लई उन जान दई फिरि, पाड़ि न ल्यौ वह सोचि रहांहीं। हो तुम कौन स पीप कहै मुहि, देत भये अर पाइ परांहीं ।।१५० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] राघवदास कृत भक्तमाल गांव गये जित भेट भई बहु, म्हौर दई भरि गोहन गाडी। चौरन खोसि लये स चले जब, दौरि कही तुम म्हौर न छाडी। पाइन ये पहुचाइ दये फिर, सिष्य भये दय भैसि रु पाडी। ल्यात घरां जन सीत खिजै उन, आवत है सब संतन पाड़ी ॥१५१ पांचहि गांवन तें दल आवत, मांनि लये जन जाइ रिझाये । गांवहु ते सिष दोइक डेरनि, देखि लगी पगि आनन्द पाये । आप तज्यौ तंन जारि दये उन, होइ उदास चली हरि ध्याये । दूसर गांव मिलेस तज्यौ तन, पांच जगां जरते दिखराये ॥१५२ वैबपुरी चलि टोडहु आवत, देखि सियाबर नैन सिराये। बात सुनौं बनियां रिधि लेवत, सात सतौ रुपयाह बताये। कागद हाथि दयो अरु खीजत, लोग बंचावत अांक नसायें। सोच भयो बनियां मुख सूकत, आवत भेट दये सु लिखाये ॥१५३ स्वामि कहै सिय त्यागि करौ गृह, ठीक यहै मन मैं सु करीजै । कै नृबिति जहां तह बैठि रु, मांग भिक्षा हरि ध्यान धरीजै। छोड़ि चले घर संपति ही बहु, तीन दिना मह लूटि परीजै। जाइ रहे इक ऊजड़ गांवही, आइ सन्यास जमाति भरीजै ॥१५४ ब्राह्मन येक हत्या डर पावत, स्वांमिन सूं सब बात कही है। गंगहि न्हाइ र पाक जिमावत, ब्राह्मन तौ मम लेत नहीं हैं । सामगरी इत ल्याव जिमावहि, दूरि करें तव पाप सही है। बिप्र र साध सन्यास खुवावत, पांति भई फिरिजैस लही है ॥१५५ सूरज कौं अवसेर भई नर, भेजि बुलावत स्वामि पधारे। भेट करी बहु संपति आदिक, आप महौछव गांव सिधारे। पीछहि साथ सिया ढिग आवत, देहु हमैं धन धीह वधारे। दे दइ संपति थी घर मैं सब, होत खुसी मनि भौतल धारे ॥१५६ कागद आवत श्री रंग को ढिग, जात भये दिवसा जन द्वारा। बैठि लख्यो मन ध्यान करै हरि, भावहि रूप चढ़ावत हारा। कांन रह्यौ चित प्रांन बह्यौ तब, पीप कह्यौ मन ल्याव सिंगारा। पूजन छाडि सिताबहि प्रावत, पूछत को तुम नाम उचारा ॥१५७ १. रया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ ६३ नांव बतावत ज्ञान सुनावत, श्रीरंग बोलत बाग चलीजे। जात भये जन बाजन ले करि, जाइर ल्यावत संत पतीजे । राखि घरां सब बात बखांनत, स्वामि कही चलि ताल रहीजे । लेतां करि उन आतक डेरनि, रूपवती लखि सिष्ष करीजे ॥१५८ भाव भरयौ उर नांव धरचौ उभ, तीरथ जा करि टोडहि आई। पांचक डारहु बांसन ल्यावत, द्यौर छरी नटि हासि कराई। बोझ खरा जल पीव न जातस, हाथ अठार बधे रहराई । ब्राह्मन पंथ पुकार रह्यौ तब, पूछत स्वामिन क्या दुख भाई ॥१५६ धीह कवारि नहीं घर में धन, आप कहै चलि तोहि दिवांऊं। भद्र कराइर भेष बनावत, बोलिय ना नृप पासि पुजाऊं। ले करि जात भये जन म्हैलन, पूजि इन्है सुनि भेद बताऊं। ये हमरे गुर के सम जानहु, भेट करी बहु चालि नड़ाऊं ॥१६० रैनि उछोहुत द्वारवती महि, लागि चिराक बितांन बरै है। भूपति पासि हुते जन देखि र, लेत बुझाइ सु हाथ मरै है। मांनत नांहि कहै सब लोगन, स्वांमिन देखि अचंभ करै है। मांनस भेजि र ठीक मंगावत, प्राइ कही सति पाइ परै है॥१६१ ब्राह्मन आइ कही यक स्वामिन, अंन उपावन वैल दिवैये । तेलक छोकर-पांवन ल्यावत, बैल दयो द्विज जाइ उपैये । बालक रोवत धांम गयो पित, सूरजसेनहि जाइ कहैये । भूप पठावत जाहु उनौं पहि, आइ पर्यो पगि है घरि जैये ।।१६२ काल परयौ सत पन्द्रह बीसक, द्वन्द मच्यौ मरि है सब लोई। स्वामिन कैसु दया मन मैं अति, देत सदा ब्रत आवत कोई। पात भयो धन भूमि गड्यौ बह, देत लुटाइ न राखत सोई। कांन सुने जितने परचे कहि, पीपहि के गुन पार न होई ॥१६३ धनांजो को मूल छपै [संतन के मुख नांखि के, धने खेत गोहूं लुणे॥] बीज बांहणे लग्यौ, साध भूखे चलि आये। मगन भयो मनमाहि, सबै गोहूं बरताये। रासरक। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छंद ६४ ] राघवदास कृत भक्तमाल मात पिता से डरत, रिकत ऊमरा कढाये। भक्त भाव सौं भजे, और तै बधे सवाये । राघो अति अचिरज भयो, बिन बाहें निपजे सुरणे। संतन के मुखि बाहि के, धनै खेत गोहूं लुणे ॥१३७ मनहर गाड़ी भरचौ बीज बीचि संतन कौं बांटि दयौ, अस रद्यौ ध्यान तिहं लोक धनां जाट कौ। पारौसी के खेत को करार कीन्हौं हारिन तूं, हाथ मारि लयो जन कौल कीयो काट को। गेहूं लगे ठौर' कछू वोरन कौं नांहीं और, ऊमरा कठाये डर मान्यौ राज हाट को। राघो कहै खेत हरि हेत अति नीपज्यौ जु, दिन दिन बढ़त प्रवाह पुनि ठाठ कौ ॥१३८ [टोका] मत- खेत कथा कहि दी सब राघव, फेरि सुनौं इक पैल भई है। गयंद बैसनु ब्राह्मन सेव करी घरि, देखि ठरयौ मन मांगि लई है। छंद गोल असंम उठाइ दयो वह, लेत भयो अति बुद्धि दई है। भोग लगावत आड करावत, गास न खावत चित नई है ॥१६४ पाइ परै विनतीह करै तजि, भूख मरै अड़ि के जु पुवायो। रोटि न ल्यावत नित्य जिमावत, जोरहि२ पावत यौं मन लायो। कोउ खुवावत वाहि रिझावत, गाइ चरावत यौं प्रभु भायो। आइ फिरौं द्विज देखत नैं कछु, बात कही सब रांम दिखायो ॥१६५ गाइ चरावत देखि खुसी द्विज, भाव भयो जल नैन ढरै हैं। धांम सिधारि सु राम रिझावत, आय हुवा जिम रीति करै है। रीझि कही हरि जाहु धनां गुर, रामहि नंद करौ सु सिरै है। जाइ भये सिष कंठ लगावत, काम करै घरि ध्यान धरै है ॥१६६ सैनजो को मूल छप [जगत मांहि यह प्रगट है, सैन सरम राखी हरी ॥टे०] सुरिण घरि आये संत, भक्त इक बड़ौ हजामी। टहल करी मन लाइ, जांनि के अंतर-जांमी । १. गौर। २. डोरहि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित मुक्ति लीये रछौंड़ी काच, मरदन कीयो तेल, राइ बहौं सेंन देखि नृप सिष भयो, आज जगत मांहि यह प्रकट है, सेन सर्म इंदव एक समैं जन सैन के संत, पधारे हु ते उन प्रीति लगाई । मंजन बेर भई नृप टेरत, श्रापन श्राइ भये तहां नाई । सैन सुन्यौ सम्जो' जब बीतिगौ, राजा के रामजी दाबिगौ पाई । राघो कहै अपने जन की, महिमां हरि श्रापन प्राप बधाई ॥१४० छंद छपै १. समवो । भूप पैं प्रभु भये टोका सेन भगत्त सु बांधू रहै गढ, नांपिक जाति रु संतन सेवै । नेमहि साधि चल्यौ नृप न्हांवन, प्रावन साध फिरयौ मन देवै । सेव करें जन नांहि डरै हरि, भूप नहावत पाइन भेवै । मैंन चल्यो फिरि जाइ मिल्यौ नृप, जांनि अचंभ कहा यह टेवे ।। १६७ भूप कही फिर क्यूं करि श्रावन, ढील भई घरि संत पधारे। मैं अब प्रावत भूप लग्यौ पगि, आप कृपा मम रांम सिधारे । सिष्ष भयो उर भाव लयो अर, प्रेम छ्यो सब पित्र उधारे । रीति वह अजहूं सुत नांतिन, और कुटंब करयौ निरधारे ॥। १६८ Jain Educationa International [ ६५ मूल गाये । पाये । चोखो । यम रसन' राम रस पीवतें, सही सुखानंद निसतरचौ ॥ गौड़ी राग गंभीर, हेत सूं हरि जस गगन मगन गलतांन, तृषि नृभं पद निज तन निगम रसाल, चाखि रस चित दे चौथौ फर फारीक, गहत कछू रहत न धोखो । जन राघो तर तृभवन- धरणी, सर्ब-घट - ब्यापक बिसतरचौ । यम रसन रांम रस पीवतैं, सही सुखानंद निसतरचौ ॥१४१ यौं रांमांनंद प्रताप तैं, जन राघो भेटे रांम कौं ॥ बड़ौ बित ब्रिद भक्ति-कंद भावानंद पायौ । यौं प्रखंड निज जाप, अहौं - निसि हरि हरि गायौ । २. रसिक । ३. तत । पधारे । सुखारे । मेरी करी । राखी हरी ॥ १३६ For Personal and Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] राघवदास कृत भक्तमाल त्रिबिधि ताप तन दूरि, जीव जे आये चरणां । तारिक मंत्र सुनाइ, मिटायो जामरण-मरणां । सुख पायो संसौ मिट्यौ, पूजि परम गुर-धांम कौं। यौं रामानंद प्रताप तै, जन राघो भेटे राम कौं ॥१४२ सुर सुरानंद साचै मतै, महा-प्रसाद सब मांनियौं ॥टे० चले जात मघ मध्य, जीमिये बरा बाकछल । पीछे पाये सिषन, देखि स्वामी को सुभ चल । वासू प्रापन कह्यौ, बवन करि नांखि प्रभागे। ___ उन फिरी कीयो ढेर, जिसे खाये थे प्रागे। सुपति सुरसुरी ऊगले, पुसप पतासे जांनियौं। सुर सुरानंद साचै मतै, महा-प्रसाद करि मांनियौं ॥१४३ इंदव साचै मतै सुर सुरानंद नांव ले, काहूं सौं मांन गुमान न जाकै । छद दोजगी दुष्ट दुसोल इसे परि, क्षोभ भरे जिव छिद्र न ताक। वै निरदोष निरपक्ष निरमल, ताहू सौं खेचर खेचरी हाकै । राघो कहै भर भीर परें, प्रगटे परमेसुर बोचि सभा के ॥१४४ छपै यौं निधून नर-हरियानंद को, वा माता सू महिमां भई ॥ लगी झरन की झोंक नंद के नहीं बरीतौ। हुतौ द्रुगा को द्वार सहर मैं सदन बदीतौ। राघों रूतौ महंत मात की छाति उपारी। तब कीयो भवांनी कौल भक्त ग्रह लकरी डारी। इक पारौसी हरि बिमुख सत के भोरै बूडौ। कूटे जाइ कपाट जाल पाप करयौ जूड़ौ । आप बदलै की बेठ गहि, निति साकत के सिरि दई । यौं निधून नरहरियानंद की, वा माता सूं महिमां भई ॥१४५ यौं नारि सुर-सुरानंद की, प्रभु राखी प्रहलाद ज्यू ॥टे० ध्यान करत धर्महीन, असुर जब भये सकांमी। स्यंघ रूप कौं धारि, उद्यत भये अंतरजांमी । धरि धरि पटके दुष्ट, नष्ट दांतन उर फारे। कछू जीवत गये भाजि, महापापी संघारे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित मनहर छंद छपे [ ६७ राघो संम्रथ रांम धनि, भक्त-बद्दल ब्रिद कहत यूं । यौं नोरि सुरसुरानंद की, प्रभु राखी प्रहलाद ज्यूं ॥ १४६ यह हित रजखांनि मिली श्रांति हित जांनि करि, १. मेहा । स्वामी रामानंद गुर सिष पदमावती । मन को उतारचौ मांन उरमी उद्यम प्रांत, बिसरे न रांम रांम रहै गुन गावती | गुर कौ सबद उर धम कौ बसायो पुर ज्ञान-ध्यांन सील सत और वृति जावती । ral कहि कासी मधि हाथी जीयो हाथ देत, प्रसिधि प्रवीन भई प्रापौ न जनावती ॥ १४७ जन राघो रटि रांमहि मिले, ये दाता श्रानंदकंद के ॥० कर्मचंद क्रमगलित जोग जोगानंद पायो । पैहांरी पर सिधि समभि सारी हरि गायो । मगन मनोर्थ ग्रह भयो श्रीरंग रांम रत । कोयो गयेस प्रवेस मेह' मन दीयौ परमेतत । के । अनंतानंद येते झाठौं अटल सिष, स्वांमी जन राघो रामहि मिले, ये दाता श्रानंदकंद के ॥१४८ aft ra गति श्रचिरज भयो, यौं अंब नवायो ग्रह कौं ॥ उपबन उत्तम सुथांन, फूल फल ता मधि भारी । तहां महंत भयो मगन, समझि सेवा बिसतारी । भवतबिता के भाइ, श्रसुर श्रज गैवी श्राये । उन लीन्ही छांह छुड़ाई, संत मुनि मारि उठाये । तब राघो रामहि रिषि भई, वे सठ समझाये कल्ह कौं । aft ra गति श्रचिरज कीयो, यौं श्रंब नवायो अल्ह कौं ॥१४६ टीका मत जाइ चले इक बाग निहारत, अल्ह भई मन पूजन कीजे । गयंद अब रह्यौ पचि मालिहि जाचत, लेहु कही अब डार नईंजे । जाइ कही नृप सौंज हुई जिम, प्रीति भई सुनि पाव गहीजे । आइ परयौ पनि ग्राजि भलौ दिन, सीस दयो कर रांम भजीजे ॥१६६ २. कियौ । ३. तमस्थांन । ४. तब । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] राघवदास कृत भक्तमाल श्री रंगजो की टीका श्रीरंग नाम सरावग जांम, हुतौ दिवसा तिन बात बखांनौं। चाकर हौ जम-धांम गयो उत', दूत भयो इन आइ लखांनौं। नाइक ने लय जात स देखहु, सींग बड़यो पसु मारि दिखांनौं । रांम भनें बिन है जग यौं गति, भक्त भयौ सिर अनंत रखांनौं ॥१७० पुत्र दिखावत भूत सरूपहि, सूकत जात सु बूझिक सूतौ । मारन ध्यावत रैनि उठे जन, माक्ष करौ मम भौत बिगूतौ । होत सुनार तिया पर सूरत, भूत हुवो तव पाव पहुंतौ। रांमहि नाम सुनाइ करचौ सुध, आप कही फिरि होइ न भूतौ ॥१७१ पैहारोजी कौ मूल छपै निरबेद दिपायौ कृष्णदास, अनत जिके पीयौ दुगध ॥टे० बड़े तेज के पुंज, राम बल काम संघारे । चरणांबुज प्रात-पत्र, राव राजा सिरि धारे। जाकौं दक्षा दई, तास तलि कर नहीं कीयो। सरणें पायो कोइ, ताहि नभै पद दीयो। बंस दाहिमैं रवि प्रगट, साध खुलै मुदि है मुगध । निरबेद दिपायौ कृष्णदास, अनत जिकै पीयौ दुगध ॥१५० कृष्णदास कलि-कालि मैं, दधीच ज्यूं दूज करी ॥ स्यंघ सरिण यौं जांनि, काटि तन मांस खुवायौ। भई पहुँन गति भली, जगत जस भयो सवायो। महा अपर बैराग, बांम कंचन तें न्यारे । हरि अंघ्री सुठ गंध, लेत अह-निस मतवारे । गाला-रिष प्राश्रम बिदत, रीति सनातन उर धरी। कृष्णदास कलि-काल मैं, दधीच ज्यू दुजें करी ॥१५१ इंदव ज्ञान अनंत दयो अनतानंद, यौं प्रगट्यौ कृष्णदास पहारी। छंद जोग उपास्यौ जुगति सं तेजसी, अंतरवृति अक्यंचनधारी। जाकै धरयो कर सीस कृपा करि, तास की भेट भीटी न निहारी। राघो बड़ी रहरणी मिल्यौ राम कौं, मोक्ष की पंथ निकाय के भारी ॥१५२ १. उन। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [६९ काटि सरीर दयो भक्ष स्यंघ कौं, पैज रही कृरणदासं की भारी। प्यंड ब्रह्मण्ड स्थावर जंगम है, श्रब मैं बिस्व रूप बिहारो। संतन को श्रबस्स दयो जिन, ज्यौं तन सौंपत नाह कौं नारी। राघो रह्यौ गलतै गलतांन ह्व, राम अखंड रट्यौ इक तारी ॥१५३ टीका जा सिर हाथ दयो न लयो कछु, राज दयो उन भूप कलू कौ । डूंगर ब्यौर मिले सुत मातहि, दे हरि पूजन संत सलू को। थार जले बिपरी सु लई सुत, भोग बिना दुख पात हलू कौ। मारन कौं तरवारि लई जन, वोट लई धन देत मलू कौ ॥१७२ भूपति पुत्र भगत भयो भल, संत सलाधि नहीं जन असौ। साध तिया ग्रभ दे जुग पातलि, बालक है गुर आप कहै सौ। भेष धरयां इक जूतन बेचत, भूप कहा कर जोरि हरै सौ । त्याग करौ जग होइ बुरौ धन, देर रिझावत पाइ परौ सौ ॥१७३ मूल पैहारी गुर धारि उर, सिष इते भये पार सब ॥ अग्न कोल्ह अरु चरण, नराइण पुदमनाभ बर। केवल पुनि गोपाल, सूरज पुरषा पृथु तिपुर । टीला हेम कल्यारण, देवा गंगा सम गंगा। बिष्णदास चांदन, सबीरां कान्हा पुनि रंगा। जन राघो भगवंत भजि, सिर से डारयौ भार अब । पैहारी गुर धारि उर, सिष इते भये पार सब ॥१५४ स्वइंछा भीषम गबन, त्यू कोल्ह करण त्याग्यौ सरीर ॥टे० राति दिवस हरि भज, पलक नहीं अंतर पारे । जेते प्रांरणी भूत, नाइ सिर पाप निवारै। नाग. इसे त्रिय बार, जहर नहीं चढ्यौ लगारा। सांखि जोग मजबूत, चले व दसवै द्वारा। राघो बल परब्रह्म कै, सुत सुमेर दे सरस धीर । स्वइंछा भीषम गबन, त्यू कोल्ह करण त्याग्यौ सरीर ॥१५५ ईदव कोल्ह करण सरण संम्ररथ के, यौं परमेसुर पैज सुधारी। छंद काम न क्रोध न मोह न मंछर, नृमल ह निज प्रात्म तारी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] राघवदास कृत भक्तमाल नांव नृदोष उचार कीयो असे, दोष मिटे दस देह के भारी। राघो कहै परचौ भयो प्रतक्ष, गूदरी नैक टरं नहीं टारी ॥१५६ टोका छपै देव सुमेर हुते गुजरातहि, बैठि बिमान सु धांमहि चल्ले । कील्ह रु मान हुते मथुरा महि, देखि अकास उठे कहि भल्ले । भूप कहै अजु काहि सुनावत, मेर' पिता हरि माहि सु मिल्ले । मांनि अचंभ पठावत मांनस, आइ कही सति पावहि झिल्ले ॥ ७४ यौं हरि प्रीति लई मृति जीति, सनातन रीति सु पूजन कीजै । फूलन हार पिटारि मझार, डसे जन२ ब्यार स फेर कठीजै। तीनहि बेर डसाइ घिरे जन, झेर चढ्यौ नहीं राम भजीजै। संत सभा महि बैठि मिले प्रभु, जोग कला ब्रह्म-रंध्र भनीजै ॥९७५ मूल अग्रदास प्रागर भयो, हरि सुमरन पन प्रेम कौ ॥टे. बहुत बाग तूं प्रीति रीति, हरि की जिन जारणीं। . नींदै गौंदै आप, आप परवाहै पारणो। जो उपजै फल फूल, सोई प्रभुजी कौं अरपै। साध-लक्षण सा-पुरष, भगत भगवत सूं डरपै । राति दिवस राघो कहै, उदस करत निति नेम को। अग्रदास आगर भयौ, हरि सुमरन पन प्रेम कौ ॥१५७ टोका इंदव भूपति मांन दरस्सण आवत, बाग छयोद रहै सु सिपाही। छंद पात बुहारि गये जन डारन, भीरहि देखि र बैसि रहाही। नाभहि अाइ प्रनाम करी, जल नैन भरे परवाह बहाही। देखि रह्यौ नृप हारि गयौ ढिग, खीजत चाकर आप कहाही ॥१७६ मुल छपै मन बच क्रम धर्म धारि उर, जन राघो उधरे राम कहि ॥ दिप्यौ दमोदरदास, तिलक गुर को लौ पार्छ। चतुरदास भगवान, रूप मत गह्यौ सु पार्छ । १. मोर । २. जल। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [७१ लाखा छीतर देवकरन, देवासु सुघड़ प्रति । खेम राइमल गौड़, करी ग्रह भगति-भाव मति । अदभुत राइमल नीपजे, गुर कोल्ह करन कौं सरण गहि । मन बच क्रम धर्म धारि उर, जन राघो उधरे राम कहि ॥१५८ जन के कारिज करत है, अनबंछित हरि प्राइ॥ ये नाभा जगी प्राग, बिनोदि पूरण पूरे। बनवारी भगवान, दिवाकर नाहि न दूरे। नृस्यंध खेम किसोर, लघु ऊधौ जगनाथहि । ये तेरह सिष अग्र के, सीझे मुनि गुर के साथहि । जन राघो रुचि प्रीति पन, जे मन सधत सुभाइ । जन के कारिज करत है, अनबंछित हरि प्राइ ॥१५६ नाभाजी को मूल मनहर नाभ नभ सेती कीन्हौं खीर-नीर भिन भिन, छंद ग्रंथन को सार सरबंगी हरि गायौ है। भक्ति भगत भगवंत गुर धारि उर, बिच र बखांरिण सर्वही कौं सिर नायौ है। सत-जुग त्रेता पर द्वापर कलू के भक्त, . नांव क्रितमाला कोनी नीको भेद पायौ है। राघो गुर अगर कू अपि गिरा गंगजल, पुरे पतिब्रत बलरांम यौं रिझायौ है ॥१६० छपै अंधेर अज्ञता नासन, उदित दिवाकर दूसरौ ॥ परमोधे भूराज, नहीं को प्राज्ञा मोट। पक-पादप की न्याइ, संत पोषन ले भेटे । श्रब मैं छाया कृपा, गिरा भोला यौं बोले । सुमरै रघुपति निति, साध के अंघ्री खोले । कसिप करमचंद सुत, सुहृद बरखे ऊसर सूसरौ। अंधेर अग्यता नासने, उदित दिवाकर दूसरौ ॥१६१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] राघवदास कृत क्त माल परखत साध सरांवहीं, मनौं दिवाकर यह दुती ॥ उत्म भजन प्रकासि किरिरिण, करणी करि पोखे। सीयाबर गुण नाम गाइ, प्रांन न संतोषे। जनक-सुता प्राधार अंघ्रि ग्रहि, यहधन धरियो। गुर नरहर की कृपा, पुत्र नांतीयौ करियो। रघुनाथ इष्ट निहत्चल सदा, प्रांन बात को ना हुती। परखत साध सरांवहीं, मनौं दिवाकर यह दुति ॥१६२ इंदव पर की प्रभुता कर आप अमानक, असो भयौ दिव्य देव दिवाकर। छंद संत सुभाव श्रबंगी सिरोमनि, मां मिली दुरि दूध मैं साकर । जीवत मुक्ति दिपै दसहूं दिसि, ज्यूं नव-खंड उद्योत प्रभाकर । राघो कहै परमारथ सू रुचि, स्वारथ के सिर दै गयो टाकर ॥१६३ छपै श्री सौरंभ स्वामि प्रसाद सौं, पण ब्रत रह्यौ प्रियाग कौ ॥ मन बच क्रम भगवंत, उभै अंघ्री उर भायें । लीला मैं निर-जांन, भाव तन दोइ दिखाये। संतन सरस सनेह, मांनि दोऊ दल लीया। अंकू बलौ दे प्राडि, महोछा पूरण कीया। वोली' धुजां चढावहीं, क्यारे कलस भाग को। श्रीसौरंभ गुर प्रसाद ते, पण ब्रत रह्यौ प्रियाग कौ ॥१६४ हठ-जोग जमादिक साधिके, द्वारिकादास हरि सौं मिल्यौ ॥टे० कूकस की नदिका, नीर मैं लगी समाधी । प्रभु पद सुं रति अचल, येक प्रात्म प्राराधी । बांम जांम घर बित बंध, कुल जगत निरासा। काम क्रोध मद मोह, करम की काटी पासा। गुर कोल्ह करण प्रसाद तैं, भक्ति सक्ति भ्रम कौं गित्यौ । हठ-जोग जमादिक साधिके, द्वारिकादास हरि सू मिल्यौ ॥१६५ परम धरम धन धारि उर, पूरण बैराठी प्रसन ॥ ऊगरणौ प्राथूरण, सैल बिचि नदी बहांनी । जम-नेमा प्राणायांमसन, जहां साधे ध्यांनी। १ वाली। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ ७३ सीह बघेरा गरिजि रहे, मन संक्या नहीं। बाइ तलै संचरै, तास कौं ऊंचे लांहीं। पद साखी उजल करे, राम नाम उचरयौ रसन । परम धरम धन धारि उर, पूरण बैराठी प्रसन ॥१६६ पूरण पूरा ज्ञान सूं, बैराठी गुर-गम लयौ ॥टे० अष्टांग-जोग अभ्यास, गुफा कंदर के बासी। कनक कामनी रहत सदा, हरि नाम उपासी। बाचा छले मलेछ, कपट करि ब्याह करायो। त्यागी तिरिया रहत नहीं, तन कलंक लगायो। अनल पंख के पुत्र ज्यूं, उलटि अपूठौ बन गयो। पूरण पूरा ज्ञान सौं, बैराठी गुर-गम लयो ॥१६७ सिंध-सुता संप्रदाइ मैं, लक्षमन भट भारी भगत ॥ धर्म सनातन धारि, भक्ति करि जग मैं जान्यौं। संतन सेती हेत, नेम प्रेमां मन मांन्यौं । जथा-लाभ संतुष्ट, सुह्निद परमारथ कीन्हौं। उत्म इष्ट थापि, साध मारग कहि दोन्हौं । सारा-सार बिचार उर, सदा कथन श्रीभागवत । सिंधु-सुता संप्रदाइ मैं, लक्षमन भट भारी भगत ॥१६८ खेम गुसांई राम पन, राम रासि गुर सीस धरि ॥टे० रामचंद्र को अनुग, जगत मैं नाहीं छांनै । उर मैं और न ध्यान, येक सीयारांमहि जांचें । कारमुक बांमैं हाथि, दाहिनै साईक राजै। यह प्रीय लागै रूप, दरस ते सर्ब दुख भाजै । हनुमंत समां सो साहिसी, गद गद बांरणी प्रेम करि । खेम गुसांईं राम पन, रांम रासि गुर सीस धरि ॥१६६ तुलसी राम उपास की, रामचरित बरनन करचौ ॥टे० बालमोक कीयो सहंस, कृत श्रीफल सम जांनौं । भाषा दाष समान, पात परिश्रम मति मांनौं । नर नारी सुख भयो, प्रेम तूं गावै निस दिन । पातक सब कटि जात, सुनत निर्मल तन मन जन । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७8 ] राघवदास कृत भक्तमाल भक्त जक्त निसतार नैं, नाम रूप बोहिथ धरयौ। तुलछी राम उपास की, राम चरित बरनन करयौ ॥१७० मनहर कासी मधि कामजित तपोधन जोग बित, अति उग्न तेज तप भयो तुलछीदास को। मगन महंत गति बांगों को बिचित्र प्रति, राम राम रौम सत्य ब्रत सासौ-सास कौ ॥ जत सत सावधान अमृत कथा को पान, हरि की कृपा सू वै हजूरी भयो पास को। राघो कहै राम काम अरप्यौ तन मन' धांम, गह्यौ मत अन येक अटल अकास कौ ॥१७१ टीका : तुलसीदासजो की प्रीति तियाहि गई उठि बूझिन, दौरि गयेस गई वहि ठौरा । लाज मरी कहि रीस भरी अब, राम भजौनि तिमा सच चौरा। ग्यांन भयो सुनि सोचि विचारत, जात बनारसि धांमहु छोरा । रांम भजै हरि पूजन धारत, मारत है मन है यह चोरा ॥१७७ बाहरि जात रहै कछु नीरहि, भूत पिवै हनुमान बताये। आवत मंदिर राम चरित्र, सुनै उठि जातस पैल पिछाये। जात लखे चलि प्रारनि हू लगि, पाइ परे दुरि दूरि सुनाये । जांन न देंत करौ किरपा अब, जांनत कैसक भूत बताये ।।१७८ लेहु कछू बर रांम मिलावहु, कामतनाथ मिलै प्रभु प्यारे। कौल करयौ नवमी सुदि चैत्रह, प्रीति लगी वह द्यौस निहारे । आवत वा दिन राम लखम्मन, बाज चढ़े पट रंग हरयारे । आइ कही हनुमंत लखे प्रभु, मैं न पिछांनत फेरि दिखारे ॥१७९ ब्राह्मन येक हत्या करि पावत, राम कहै कछु देहु हत्यारे । नांम सुन्यौ घर मांहि बुलावत, भोजन दे सुछ नाम तुम्हारे । बिप्र जुरे सब जाइ कहै इस, पाप गये किम जीमत लारें। बांचत हौ तुम बेद पुरांनन, साच न आवत ग्रन्थ पुकारें ॥१८० १. धन । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७५ चतुरदास कृत टीका सहित बांचत पुस्तक नाम हरै अघ, सत्य सबै परमांन कहीजे । है परतीति कहो तुम ही जिम, खाइ नदी सुर पांतिहि लीजे । भोजन ले करि मंदिर आवत, भक्त कहै यह न्याव करीजे। जांनत हो तुम नाम प्रतापहि, पाइ लयो जय सब्द भनीजे ॥१८१ रैनि निसाचर चोर न पावत, स्यांम सरूप खड़े सर लीया। आत तबै तब सांधि डरावत, प्रात ल- हरि ांन न दीया । बूझत संतहि स्यांम सिपाहिन, बोलत नांहि न नैंन भरीया। राय लुटावत यौं न सुहावत, चोर भये सिष राम भजीया ॥१८२ मृत्यु भयो द्विज नारि सती हुत, जोरि करौ दुय सीस नवायो । रांम सुहागनि बैंन कह्यौ पति, मौति भई उठि है हरि भायो। स्यांम भजौ सबही कुल सौं कहि, मांनि लई उन बेगि जिवायौ । भक्त भये सब साखत ता तजि, लेसर रहै मन लोक न पायौ ।।१८३ लैन खनाइ दये पतिस्या भृति, ज्याइ दयौ दिज यौं कहि सूबा। चाहत देखन ल्याव (त) भली बिधि, जात बिनैं करि यौं पग धूबा। भूप मिले चलि ऊपरि लेवत. दे बहुमांन कहै तुम खूबा । द्यौ अजमत्ति सुनी अति गत्तिहि, रांम करै हमसौं नहि हूबा ।।१८४ रांम करै सु दिखाइ हमै अब, रोकि दये हनुमान हि ध्याये । बेगिहि बांदर म्हैल चढे बहु, फारत अंबर देह लुचाये । ढाहत है गढ़ नांखि तलै लढ़, दांतन तें बढ़ भूप डराये । प्रांखि हुई यह कौंन दई सु, पुकारि कही अब राखि हराये ॥१८५ पाइ परयौ हम जीव उबारहु, देखि अजम्मति लाज नयौ है । सांत करे सब भूपहि भाखत, मां न रहौ गढ़ रांम भयौ है। त्याग दयो सुनि और करावत, हाजर है नहीं फेरि पयौ है। जाइ बनारस आइ बृदाबन, नाभहि सूंज कबित्त लयो है ॥१८६ कांम गुपाल जु को कर दर्सन, राम सरूपहि सीस नवांऊं। धारि लये कर साइक धन्नुक, देखि छबी कहियौं गुन गांऊं। कोउ सुनांवत कृष्ण सुयं हरि, रांम कला कहि मैं न भुंलांऊं। जांनत हौ दसरत्थ लला अब, ईसुर आप कहे मन लांऊ ।।१८७ १. भलीया। २. लैस । ३. कयौँ। ४. अजन्मति । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल ७६ ] मूल छपै गुझि लीला रघुबीर की, बिदत करी है मांनदास ॥टे. सिंगार बीर करणांदि, नृमल रस कृत मधि प्रांने । जनक-सुता बर सुजस, अहोनिसि रहि रंग साने। परमारथ पर्बोन, काव्य अक्षर धर मानतं । चरणांबुज चित ध्यान, येक की संपति मानत । रांमचरित हनुमत कृत, रहिसि उक्ति धरि करि हुलास । गुझि लीला रघुबीर की, बिदत करी है मांनदास ॥१७२ रांम रंगीलो भक्ति निधि, बनवारी बपु प्रेम कौ ॥टे० नौख चौख अति निपुन, बात कबिता मैं चातुर । खीर नीर बिवरन हंस, संतन सम पातुर। सब जीवन सुह्रिद, सनातन धर्म संतोषी। सुभ' लक्षन गुनवांन, भजत भयौ जीवन मोखी। पातक नासत दरस तें, जु तौ करत निति नेम को। राम रंगीलो भक्ति निधि, बनवारी बघु प्रेम कौ ॥१७३ मुरधर मांहैं झीथड़े, केवल कूबै हरि भजे ॥ करता कीयौ कुलाल, भजन कौं भक्त उपावै । जो नर मिलि है प्राइ, ताहि जन सेव दिढ़ावै । तन मन धन सरबंस, येक प्रभु संतन दीजै। मनख जनम यह लाभ, और कछुवै नहीं कीजे । मन वच क्रम राघो कहै, भरम करम प्रारंभ तजे। मुरुधर मांहैं झीथड़े, केवल कूबै हरि भजे ॥१७४ केवल कूबा को टीका : मत- संतन के चरणांमत सीत कौं२, लैनि बह्यौ कलि मैं ब्रत कूबा। गयंद (भक्ष) भोजन दै सनमान घरणी गुरण, ग्राही महाबुधि उत्म खूबा । पूरण-ग्यांन दयौ निज नृम्मल, पछिम देस भगत्ति को सूबा । राघो कहै पण प्रीति ह्रिदै हरि, धर्म को टेक टरयौ नहीं धूबा ॥१७५ १. सुभग। २. लौं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित . [ ७७ टीका केवल नामहि संतन सेवत, बंस उधार करयौ जग जानें। साध पधारत हेत करयौ बहु, नाज नहीं घर मैं कछू पाने । लैन उधारि गये जन बैसिहि, कूप खुदाइ तलै मन माने । कोल करयौ अब तो लि सिताब ही, रोल चढ़ावत यौं घर यांनै ।।१८८ खोदत कूपहि रांम कहै मुख, काम भयो मनि वौ सुख पायो । धूरि परी धसि मांहि गये दबि, दूरि करै थल होइ सवायो। होत उदास घरांवह आवत, नांव सुनी धुनि मास बितायो । कूप गये फिरि होत सुनें रव, काढ़न लागत धीर कहायो ।।१८६ रेत निकारिक जाइ लये पग, देखि सबै अति अचरज' प्रायौ। ब्यौर लख्यौ जल कुम्भ पिख्यौ तन, कूब नख्यौ हरि कौं इम भायौ । ध्यावत धाम कहै धनि राम, पुंमां नर बांम भलै जस गायौ । आइ जुरचौ बहु लोग उमंगिर, भाव भयौ उर माल चढ़ायौ ॥१६० मूरति ल्या करि संत पधारत, केवल कै वह रैनि रहे हैं। देखि सरूप भई मन मैं यह, नांहि चलै सु अचल्ल भये हैं। जोर करै मन मांहि डरै जन, हारि चले जब दाम दये हैं। जानि गये उर अंतर की हरि, नांव सुजांनहि राइ कहे हैं ॥१९१ द्वारवती चलि छाप धर भुज, जान न दे प्रभु धांम फिराये। संतन की निति टैल करौ, उर भाव धरौ करिहूं तब भाये। धांमहि संखरु चक्र गदांबुज, चिन्ह भये भुज देखि रिझाये। सागर गोमति संग रह्यौ सुनि, मालहि मेल्हिर दोइ मिलाये ॥१९२ सिष्य प्रसिष्य हुये तिनसू कहि, संतन सेव करौ चितलाई । साध पधारत पाक करै तिय, आपन भ्रातहि खीर कराई। केवल देखिर बुद्धि उपावत, दो घरि दे करि कूप चलाई। सोचत जावत संत बुलावत, खीर परूसि-र बेगि जिमाई ॥१९३ नीर सिताबहि ल्याइ निहारित, देखि उठी जरि भ्रातहु देखै । केवल काढ़ि दई यह साखत, और करयौ भरता दुख पेखै । काल परयौ स पलै नहि टाबर, जाइ रहौं कहु यौं करि लेखै । साथि लिये भरतारहि बालक, केवल द्वारि परी सब सेखै ॥१९४ १. पाश्चर्ज, प्राचर्ज। २. ल्याबत। ३. जौनि। ४. देखे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७5 ] राघवदास कृत भक्तमाल भोजन- बी परकार करावत, संत समू चलि श्रावत द्वारें । बैन सुने तिय मांहि बिनै दुख, होइ दयालहि राखत बारें । मोर धरणी लखि तोर धणी पिषि, कष्ट परै जब कौंन निवारें । लेपन भारन टैल करौ रहि, अंन मिलै द्रिग चालत धारें ।। १६५ बाल' कटाइर सीख दई तब, जात भई पछितात घणी है | पैल समै फिरि पीछे न प्रावत, रीति भली सतसंग तरणी है । सिष करै जन सेव दिढावत, रांम मिलै इम बात भरणी है । मोलि लयौ कवि भाख छपा महि, रीति दिखाइ दई सु बरगी है ॥ १६६ छ ै खोजोजो को मूल भाव भगति हित प्रेम सूं, खोजी खोजे रांम कौं ॥ करांहीं । काम क्रोध अरु लोभ, मोह की काटी मुरधर देस निवास, पालड़ी गांव समद्रिष्टी सुहृद, साध की सेव श्रगुणी नृगुरणी भक्त, कहूं सूं अंतर नांहीं । अनहद बाजा बाजिया, राघो पावत धांम कौं । भाव भगति हित प्रेम करि, खोजी खोजे रांम कौं ॥१७६ इंदव ज्यौं पित मात के गोहन बालक, रांम समीप यौं खेलत खोजी । छद जे प्रभु के परण धारि बिचारीक, ताहि कहौब दुखावत कोजी । जिनके हिरदै हरि नांम नृमल्ल, जाहि फुरै दसहूं दिसि रोजी । राम सूं रत तजै प्रहित्तहि, राघो कहै सतवादी इसौजी ॥१७७ टीका चातुरदास गुरू-जन खोजहि, मृत्यु समैं उन घंट बंधानीं । राम मिलें हम बाजत है यह, चालत बाजिन चित बढांनीं । अंत समैं न हुते फिरि आवत, सोइ वहां मति अंब रहांनी । ले करि चीरत सूक्षम जीवस, तांतर भयो जब घंट बजांनीं ॥१६७ जोगि भले सिष यौं सब मांनत, है गुर संग्रथ नूंन लखाई । चंचल है मन पौन समागन; रीति लखौ उन ह्वै सरसाई । १. काल । Jain Educationa International २. सांत । ३. मौंन समागत । पासं । प्रकासं । For Personal and Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७९ चतुरदास कृत टीका सहित लीन भये परमेसुर पैलहि, देखि पक्यौ फुल' बुद्धि चलाई। प्रीति फली जन राम लई मनि, बात रही दुरमत्ति बिलाई ॥१६८ मूल छपै अल्हरांम रावल दया, राघो कलिजुग जीतियो॥ मोह क्रोध मद काम, लोभ नीरौ नहिं प्रायो। संग्रह जो कछु कीयो, सोई साधन बरतायो । आठ मास जल लेत, सूर चौनासै बरसै । सिष सेवग मरजाद, चनावत गुर नहीं परसै । गुर धरमसोल सत पुनि टहल, करत काल इम बीतियो । अल्हगंम रावल दया, राघो कलिजुग जीतियो ॥१७८ हरिदास बांवनौ भगति करि, बांवन सम ऊंचौ बढ्यौ । संतन सूं निरदोष रह्यो, सुपर्ने अर, जागत । स्यांम स्वांग सूं प्रीति रीति, यम गुर जिम पागत । भवन मधि निरबेद, जनक ज्यूं लिपता नाही। चरन-कवल भगवान, बास ले मनमत मांहीं । कुल जोगानन्द परगट्ट कर, रैनि दिवस रांमहि रत्यौ। हरिदास बांवनौं भक्ति करि, बांवन सम ऊंचौ बढयौ ॥१७१ जन राघो रघुनाथ की, भ्रथ सिर धारी पावरी। दक्षन दरावड़ देस, तहां के भक्त बखांनौं । नरनारी गुरमुखी, जथामति जो हू जानौं। सतवादी प्रम-हंस, पुनह श्रीसंत सरूपं । दास-दास री नमो नमो, ब्रह्मचर रथ भूपं । आदि भक्ति अनुक्रम धरम, करहि बेद बिधि द्रावड़ी। जन राघो रघुनाथ की (ज्यं), भ्रथ सिर धारी पावड़ी ॥१८० कबीर कृपा कौं धारि उर, पदमनाभ परचै भयौ ॥ रांम मंत्र निज मंत्र, जाप हिरदै मैं राख्यौ । जप तप तीरथ नाम, नांव बिन और न भाख्यौ । १. फल। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल 50 ] चात्रिग को सौ टेर, कहि गदगद है वाणी। रांम मंत्र निज जाप, देइ उधरै बहु प्रांरणी। जन राघो अनभै उमंगि जल, पाप पीयौ औरन पयौ। कबीर कृग कौं धारि उर, पदमनाभ प्रचै भयौ ॥१८१ टोका इंदव साह बनारसि कोढ हुतो उन, लट्ट परीतन बूड़न चाल्यौ। छंद आवत हेस पदम्महि बूझत, बात कही कस खोलि न हाल्यौ । रांम कहावत तीन बिरयां जन, कोढ़ गयो गुरदेवह काल्यौ । नांव प्रभावन जानत नैं कहु, लैस करै सुध जो श्रुति घाल्यौ ॥१६६ - मूल छपै जीवा तत्वा२ दक्षण दिसि, प्रगट उधारक बंस के ॥ भक्ति अमृत की नदी, दुहता की दिढ़ पाला। जोर बड़न की रीति, प्रीति सोही वहि चाला। सूरज बंस सुभाव, बहुत गुण धर्म-सील सत । भले सूर दातार, दया परबीन परम मत । राघो जन अंबुज खुले, रवि ससि जोजा अंस के। जीव तत्वा दक्षरण दिसि, प्रगट उधारक बंस के ॥१८२ टीका भ्रात उभै द्विज जीवहि ततहि, सेवत संतन सिष्य भये हैं । रोपत सूठ हरचौ यह होइस, साधन तोइ सु नांखि नये हैं। आइ कबीर दिखाइ हरयौ तर, नेम हुवो सिधि पाव लये हैं। नाम दयो तिनि५ काम बनै कठि, आइ कहो हम वोलि गये हैं ॥२०० है इकठे द्विज बात गई निज, दूरि करे सु सुता नहि लेवै। येक बनारस जात कबीर हि, बात कही सब धीरज देवै। आप उभै सनबंध करौं न, डरौ चित मैं समझौ यह भेवै । आइ करी वहि ज्ञाति डरी उर, नून धरी कहि यौं पग सेवै ॥२०१ यौंहि करै हम अांन न भावत, लेत तिणां मुख टेक तजीजे । फेरि बनारस जा करि बूझत, ब्याह करौ सिरदंड धरीजे। १. हाल्यो। २. तत्व । ३. तत्वहि। ४. ढूंठ, बूंठ । ५. निठि। ६. धारज । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टोका सहित [८१ भक्ति करौ जन भाव धरौ तब, देत तुमैं सुनि लेत करीजे । साखत भक्त भयेरु सराहत, पंच कहै तुम्हरे पन रीझे ॥२०२ मूल करणी जित कबीर-सुत, अदभुत कला कमाल की ॥ प्रगट पिता संमाज रहे, कछु इक दिन द्वार। सतवादी सत-सूर, भजन सौ कबहूं न हारे। सुक सनकादिक जेम, नेम सूं निरगुण गायौ। मन बच क्रम भयो मगन, भेव कांहू नहीं पायौ। जन राघो बलि (बलि') रहरिण की, पहुंचे राल न कालकी। करणी जित कबीर-सुत, अदभुत कला कमाल की ॥१८३ श्रीनंद-कुवर सन नंददास, हित चित बांध्यौ भाइकै ॥टे० समैं समैं के सबद, कहे रस ग्रंथ बनाये । उक्ति चोज प्रसताव, भजन हरि गांन रिझाये। महिमांसर परजंत, रामपुर नग्र बिराजे । संत चरन रज इष्ट, सुकल सरबोपरि राजे। भ्राता राघो चंद्रहास है, सो सब गुण लाइक। श्रीनंद-कंवर सन नंददास, हित चित बांच्यौ भाइक ॥१८४ अति प्रतीति उर बचन की, गुर गदित सिष सति मांनियो । सीष पाइकै चल्यौ, कहूं कारिज के ताई। मेरे मन की बात, कहूगो सीघ्र आई। रांमसरनि भये स्वामि, दगध करने लै जांहीं । मनि गुर-गिर बिसवास, फेरि लीये अस तल मांहीं। बिभू बरसहि यह कही हरि-जन गुर इक जांनियो । अति प्रतीति उर बचन की, गुर गदित सिष सति मांनियौ ॥१८५ टोका इंदव है गुर भक्तस नून गिनें जन, पूजि मनैं गुर क्यूं समझावै । छद कै न करै परि नांहि कहै निति, रामति चालत बेगि बुलावै । टि गयौ तन बारन देतन, ल्यावत फेरिस बात जनावै । भाव लखै सति यौं जिय बोलत, सेव करो जन वर्ष दिखावै ॥२०३ १ छलि। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ] छपै मूल चढाई । बीठलदास हरि भक्ति करि, जुगल पांनि मोदक चढ़े ॥टे० सदा प्रेम परण रहत, संत रज सीस तरकि तज्यौ संसार, येक हरि भक्ति संप्रदाइ सिंध जादि पत, दीपक ज्यौं जन परषत सतकार, करें रैदासी जांनौं । लोक उभे हरि गुर दये, सबद साखि निसि दिन रढ़े । बीठलदास प्रभु भजन करि, जुगल पांनि मोदक चढ़े ॥१८६ परसोतम गुर की कृपा, जगंनाथ जग जस क ॥ ० प्रेम भक्ति कौ पुंज, सिंधु जा पधित संभारी । श्रीरामांनुज पन प्रीति, रीति उर अंतर-धारी । संसकार सतकार, सनातन धरम समद - मादि मुनि बृत्ति पारासुर कुलको थयां, रामदास घरि तन धौ । परसोतम गुर की कृपा, जगंनाथ जग जस क ॥१८७ दातार भलप्पन उर भलौ, सौ भक्त कल्यांन है ॥ सुहावै । बिसद हरि के जन भावे । लीलाचल पति भृति, चतुर हरि कौ चित चाह्यौ । उत्म भक्त पिछांनि, मांनि अपनौ निरबाह्यौ । देह त्यागती बेरि, हेत सीता-बर कीन्हों । बांम जांम घर बित्त, काढ़ि मन रांमहि दीन्हों । बिद्युत प्रभा परकास सम, धर्थौ स्यांम धन ध्यान है । दातार भलप्पन उर भलौ, सौ भक्त कल्यांन है ॥१८८ ये भरथ- खंड मधि भूप, द्वै टोला लाहा भक्ति के ॥टे० अंगज परमांनंद, परम भजनीक उजागर । जोगीदास रु खेम, दिपत दसधा के आगर । ध्यानदास के सोज, गही गुर धरम की टेका। हरीदास हरि भक्ति करी, प्रति मरम की येका । जन राघो रटि रांमजी, काटे बंधन सक्ति के | ये भरथ-खंड मघि भूप द्वै, टोला लाहा भक्ति के ॥ १८६ १. सिंधु Jain Educationa International राघवदास कृत भक्तमाल For Personal and Private Use Only दिढ़ाई । मांनौं । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छद चतुरदास कृत टीका सहित [ ३ मनहर परस कू पारस मिले हैं गुर पीपा प्राइ, आपसौ कीयो बनाइ बारंबार कसिके। खोयौ है कन्यां को कोढ़' धोवती दई वोट, सकति की सेवा मेटी ताकै गृह बसिके। खाती को खलास करि रीझे हैं परसपरि, माथै हाथ धरचौ स्वामी हेत सेती हसिक। राघो कहै प्रास२ प्रसिधि भये तीनूं लोक, ___ संतन की सेवा कीन्ही पूठी हरि असिकै ॥१६० छपै कूरम-कुलि दुती बलि बिक्रम यम, निबह्यो पन पृथीराज कौ ॥ दया द्वारिकानाथ, करै तौ दरसन जाजे । परे कुदरती चक्र, आइ अांबेर निवाजे'। घरि-घर नीबा ईस, आप राजा रुति गांमी। सुत उपजे षट3 दोइ, भये नौ-खंड मधि नामी । हुवो हरि भगतन को भगत, जन रावो बड़ कुल काज को। कूरम-कुल दुती बलि बिक्रम यम, निबह्यौ पन पृथीराज कौ ॥१९१ टोका इंदव संग चल्यौ गुर कै पृथिराजन, प्रोति घणी रनछोड़हि पांऊं । छंद बात सुनी स दिवांन गयो निसि, भक्ति हुई गुर संतन गांऊं। लेहु बिचारि करौ तव भावस, संगि न लेवत बात दुरांऊ । प्रात भये नृप आवत चाहत, आप कही रहिये सुख पांऊं ।।२०४ गोमति न्हाइर लेवत छापहि, देखत हौं रणछोड़ पुरी कौं। तीनह बात इहांहि लहौ तुम, सोच करौ मति देखि हरी कौं। मांनि लई पहुचांवन जावत, आई घरां नृप जांनि खरी कौं। दोइ गये दिन सौवत हौ निसि, आइ कही उठि लेह करी कौं ॥२०५ बोलि गुरू जिम आप कहै प्रभु, प्राइ गयो उठि सीस नवायो । गोमति मांहि सनांन करौ कहि, न्हाइ लयो सुनि पाप न पायो । छाप भई भुज संख चक्रादिक, ढील लगी त्रिय प्राइ चितायौ। सेस रह्यौ जल सुद्ध करौ तन, रांम धरौ उर भूप सुनायौ ॥२०६ १ पक हेढ़। २. पारस, परस। ३. घट । ४. लहैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] राघवदास कृत भक्तमाल प्रात भयो सब लोग सूनी चलि, आवत देषन भीर भई है। साध महंत भले पुनि आवत, छाप सरीरहि देखि लई है। भेट धरै बहुमांन करै नृप, लाज मरै सुनि बात नई है। देवल श्रीनरस्यंघ बनावत, होत खड़े जत साखि दई है ॥२०७ नैन बिनां द्विज द्वार परयौ सिव, चाहत है द्रिग मास बंदीते । नाथ कहै यह फेर न होवत, जात नहीं मन मांहि प्रतीते। ले पृथिराज अगोछ छुवावहु, प्रांनि कहीं दिज सौं भय भीते । नौत्म लाइ दयौ तन के छुय, आंखि खुली द्विज ह्ये चित चीते ॥२०८ मूल छपे आसकरन के पास यहु, मन मै मोहनलाल हरि ॥ भीव पिता गुर कोल्ह, भक्त भगवत सम देखै । जो कछू घर मधि माल, जितौ साधन के लेखे । जज्ञ महोछव रास, दास हरिजी के पूजे । भरम करम कुल रीति, प्रांन धर्म छाड़े दूजे । राघो राम रच्यौ भलौ, कूरम-कुल पृथीराज घरि । प्रासकरन के पास यह, मन मै मोहनलाल. हरि ॥१९२ टोका इंदव कोट नरव्वर को बड़-भूपति, मोहनलालहि सेव करै हौ। छंद मंदरि मैं रहि पैर सवा इक, चौकस जान न पात नरै हो। काम भयौ नृप बेगि वुलावत, लोग कहै नहि कान धरै हौ। फौज चढ़ी पतिस्या चलि आवत, जाइ कही तउ नांहि डरै हौ ।।२०६ फेरि पठावत रारि सुनावत, चित्त न आवत साहि गयो है। चित भई प्रतिहार कही इक, आप पधारहु जात भयो है। पूजन है परनाम करै नृप, ढील लगी पग खंग दयो है। ऐडि बढ़ी मुखिसी न कढ़ी निति, नेम सध्यौ तब द्वार लयो है ॥२१० नांखि दई चिग देखत पीछहि, साहि सलाम करी बहु रीझे। साच सनेह लख्यौ फिर बूझत, भाव कह्यौ सुनिकै नृप भीजे । भक्त तज्यौ तन भूप भयौ दुख, आप सुनी प्रभु भोग न कीजे । सेव करै द्विज गांव दये तिन, लाड़ करौ उसके प्रभु धीजे ॥२११ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित छपे छपै छंद काछ बाच निकलंक है, संतन कौं सर्बस दीयो, जन मूल खेवा । येवा । संतन को सरबस दीयो, जन राघो हरि की प्रीति कौं । कुर सारत करतार सूं, भक्ति जिहाज के राम कांम सरखरू, पोता पृथीराज के भगवानदास भगवंत भज्यो, करि भक्ति छाप छहूं दरसन बिषै भयो बैरागी रूपं । महा-निपुन धर्म-नोति कौं । राघो हरि की प्रीति कौं ॥ १६३ श्रनूपं । इंदव भजनीक भलौ सत सूर सदा, हरदास की तेग महा श्रति सारी । चंद भोग की भावनां नारि के ऊपनी, बालक ऐक द्वं तौ भलौ भारी । जेहरि लै जल के मिसि नीसरी, बांधि के पाव कूवा मैं उसारी । राघो कहै बढी मांनि महंत की, चित्र के दीप ज्यौं सो जिहि टारी ॥१६४ मालि करी बनमालि की बंदगी, भक्ति की वाड़ी निपा गयो नापो । ध्यान को धोरो कियो उर अंतर, पांरंगी पताल सूं काढ्यौ श्रमापो । यौं निज नीर परेरचौ निरंजन, रांम रट्यौ रसना निहपायो । राघो रसाल बिसाल बयारौ लै, यौं हरि कौं मिल्यौ मेटिक आपो ॥१६५ काच तर कुलि कंचन देखहु, कोर तें हीर भयौ कलि कालू । ऊसर सूसर भूमि ह्वै ज्यूं, उपजे श्रन-ईष गोधूम ज्यूं सुद्धक श्रंग कोयो गुर, दूर करे 1 अनंत उन्हाल | कुल - क्रम के सालू । राघो कहै गुण गोबिंद के पढ़, तैं कहु जीभ लगी नहीं तालू ॥१६६ इति श्री रामानुज संप्रद्रा १. पड़ी । Jain Educationa International श्रथ विष्णु स्वामि संप्रदा लिखतं क्यूं करि बरनौं श्रादि घर, खबर न येकौ अंक की ॥ विष्णु स्वामि स्यंभू मतौं, मनौं बच क्रम करि धारयौ । भाव भगति भगवंत भज, जसै जग मधि बिसतारचौ । पैड़ी' बंध प्रवाह घरगो, घट सौं घट सीके | खुली सुकतिर की पौरि, जास गुर गोबिंद री । [ ८५ २. मुकति । For Personal and Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल रघवार वान पहूंचिही, किती अकलि मुझि रंक की। क्यूं करि बरनौं आदि घर, खबरि न येकौ अंक की ॥१९७ ग्यांनदेव गंभीर चित, बिष्णु-स्वामि की संप्रदा ॥ नांमदेव नव-खंड, नांव नौबति बजाई। हरदासहु जै देव, भक्ति की रीति बढाई। तिलोचन करि प्रीति, पाप केसौ बसि कोन्हौं । मिश्र नरांइनदास, छाप लाहौरी चीन्हौं । याही मै बलभ भये, हिरदै मैं भगवत सदा। ग्यांनदेव गंभीर चित, विष्णु-स्वामि की संप्रदा ॥१९८ ___टोका इंदव ग्यांनहि देव सु संकर पद्धिति, चित्त गंभीर हु बात सुनीजे । छद त्याग पिता घर धारि सन्यासहि, झूठ कही पृय नांहि न लीजे । आत तिया सुनि पाछहि दौरत, लाप रहै मुख आगर कीजे । ल्यात भई घरि जाति रिसावत, पांति निवारत कोऊ न छीजे ॥२१२ तीन हये सुत दीरध ग्यांनहि, देव भजै हरि प्रीति लगाई। कोऊ पढ़ावत नांहि सु बेदन, बिप्र करे इकठे किम भाई । ब्राह्मन कौं अधिकार कहे श्रुति, भैंसन कौं पढ़ तेहु सुनायी। भक्तिहि सक्ति निहारी सबै द्विज, पाव लये अरु देत बड़ाई ॥२१३ नांमदेवजी को मूल नांमदेव बचन प्रभु सति करे, ज्यूं नरस्यंघ प्रहलाद के ॥टे० प्रतिमां कर पै पाइ, बछ अरु गऊ जिवाई। महल पातिस्या जरे, सेज जलपैं मंगवाई। देवल फेरचौ द्वार, सभा के सबही सुकचे । अतुल रह्यौ रंकार, दरिब बहु बहुड़े बुगचे। राघो छोनि छई इसी, पार नहीं प्रहलाद के। नामदेव बचन प्रभु सति करे, ज्यूं नरहरि प्रहलाद के ॥१६६ इंदव असौ नर नामदेव नाम को पुंज, सदा रसना रुचि रामजी गायौ । छंद असौ गुनी भयो दीन दुनी बिचि, प्रीति प्रचै प्रतिमा पै पिवायौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित पैज रही पतिस्याह द्रबार मैं, गाइ जिवाइ के बच्छ मिलायौ। राघो कहै परचौ परचे पर, देहुरौ फेरि दुनी दिखरायौ ॥२०० नांमदेव नाम नृदोष रटै रुचि, पाप भजै कुचि देह तें दूरी। उर थें अपराध उठाइ धरे दस, रांम भये बस पात ज्यूं पूरी। जाप जपै निह' पाप नृम्मल, भीर परै गहि साच सबूरी। राघो कहै जल मैं थल मैं, स चराचर मैं हरि देखे हजूरी ॥२०१ टीका बांमसदेव भगत्त बड़ो हरि, तास सुता पति-हीन भई है। संबत बारह मांहि भई तब, तातहि ठाकुर सेव दई है। तोर मनोरथ सिद्धि करै प्रभु, प्रीति लगाइ रहो तम ईहै। सेव करी अति बेगि भये खुसि, भोग चहै अपनाई लई है ।।२१४ भ्यौ गरभादिक बात करै सव, साखत लौगन के चित भाई। कांनि परी यह बांमसु देवहि, ठीक करी हरि की किरपाई। बाल भयो तब नामस देवहि, राइ हुतौ सब देत बधाई। होत बड़ो हरि सौं हित लागत, रीति जगत्तहु नांहि सुहाई ॥२१५ खेलत है निति पूजन ज्यू करि, घंट बजाइर भोग लगावै। ध्यांन धरै परनाम करै जब, संझ परै तब सैंन करावै । नांम कहै निति बामहि देवस, पूजन देहु भले मन भावे । गांवहि जावत आत दिनां त्रिय, दूध पिवाइन पीय सुहावै ॥२१६ है बिरियां कब आवत है दिन, बारहिबार कहै नहि आई। बार हुई तब दूध चढ़ावत, सेर उभै अवटात कडाई । प्रीति लगी अवसेर घणी उर, कंठ घुटै द्रिग नीर बहाई। ढील लगी बहु मात खिजे अब, बेर करै जिन लै करि जाई ॥२१७ ले तबला हरि पासि चल्यौ मधि, दूध निवात सुगंध मिलाई। है चित चाव डरै अगि ता करि, दास करै मम है सुखदाई। मंद हसै अतिकांत लसै उर, भाव बसै सिसु बुद्धि लगाई। पावन२ मैं मन आड़ करै जन, देखि परयौ कहि पीहरि राई ॥२१८ १. तिह। २. पांचन। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] राघवदास कृत भक्तमाल बीति गये दिन दोइ न पीवत, सोइ रह्यौ निसि नींद न आवै । प्रात भयौ अवटाइ लयौ फिरि, जा अरप्यौ अब पी मम भावै । जोड़ि कहौं कर जो नहि पीवत, खंजर खाइ मरौं गरि लावै । हाथ गह्यौं लखि पीवत हौं सब, पीवत देखि सु आप खुसावै ॥२१९ अाइर पूछत बालक सुं हित, दूधहि बात कहौ कहि नानां । औलु करी तव दोइ दिनां नहि, पीवत खंजर लै गर-ठांनां। पीत भयो तब खोसि लयो कछ, होत खुसी सुनि साखि भरांना। जाइ धरयौ पय पीवत नांहि न, लेत छुरी जब पीवत मांनां ॥२२० भूप तुरक्क कहै बसि साहिब, द्यौ अजमत्तिक मोहि मिलावौ। है अजमत्ति भरै दिन क्यौं हम, साधन कौं रिझर्दै उर भावौ । वा परभाव वुलाइ यहां लग, गाइ जिवाइ घरां तुम जावौ । रांमहि ध्याइर गाइ जिवावत, देखि परयौ पग गांव रखावौ ॥२२१ नाम करौ हम हं सुख पावत, चाहि नहीं किम सेज दई है। सोस धरी जब लोग दये करि, नांहि करी जल मांहि बई है। आइ कही पतिस्याह बुलावत, आवत मांगि करात नई है। काढ़ि दिखावत उतम उतम, लेहु पिछांनि सु आंखि भई है ॥२२२ पाइ परयौ फिरि राख हरी पहि, नांम कहै मति संत दुखावै । मांनि लई फिरि नांहि बुलावत, गावत रांमहि देव लजावै । बाहरि भीर निहारि उपांनत, बांधि लई कटि जा पद गावै। देखि लई किनि चोट दई उन, देत धका चित मैं नहि आवै ।।२२३ ऊठि गये पिछ-वार लयो पद, झांझ बजावत रांम रिझावै । चोट दिवावत मोहि सुहावत, ठौरहु भावत नित्ति रहावै। आप सुनी हरि है करुनांमय, देवल होइ दयाल फिरावै । मंदिर मांहि हुते सु जिते नर, आब गई जन पाइ परावै ॥२२४ लाइ लगी घर मांहि जरयौ सब, जो अवसेष रह्यौ वह नाख्यौ। नाम कहै यह ल्यौ सगरौ तव, आप हसे हरि मो लखि राख्यौ । है तुमरौ घर अांनक हाजर, छान छवाय खुसी प्रभु भाख्यौ। पूछत हैं नर छाइ दई किन, देहु छवाई स देवन दाख्यौ ।।२२५ १. रपायौ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ ८९ दे तन प्रांन धनादिक पावत, प्रांनहु बात न चाहत भाई। साह तुला तुलि बांटत है धन, लै स' गये सब नाम न जाई । लेन खिनावत फेरि दये जुग, तीसर के चलि साथि भनाई । लीजिये हाथि कछू हमरौ भल, चाहि नहीं द्विज देहु लुटाई ॥२२६ साह करै हठ ले तुलसी-दल, रामहि नाम लिख्यौ अध दीजे । हासि करौ मति ल्यौ हमरी गति, तोलि बरोबरि तौ किम लीजे । कांटहि मेल्हि चढावत कंचन, होइ बरोबरि नाहिस खीजे । बौत चढे इक ताक धरयो धन, जातिहु पां तहु कौं न नईजे ॥२२७ चित भई सबही नर नागर, नाम कहै इक और करीजे । तीरथ न्हांन ब्रतादिक दांन, किया सब ांन सु मांहि धरीजे । हारि रहे सु पला नहि ऊठत, साह कहै इतनू इ लईजे। लेरि कर किम नांहि भयो सम, नाम यहै अधिकार सुनीजे ॥२२८ रूप धरयौ हरि ब्राह्मन कौ, अति-दूबल सो पर्चा व्रत देखै । ग्यारस के दिन जाचत अंनहि, अाज न द्यौं परभाति बसेखै । बाद करै दहु सोर भयौ बहु, नांम बचन्न कहेस अलेखै । अस्त भयो दिन प्रांन तजे द्विज, नाम-प्रभाव स ग्यारिस पेखै ॥२२६ लाकड़ ल्याइ चिताहि बनावत, गोद लयो द्विज साथि जरौंगो। रांम हसे तव पारिष लेत सु, छोड़ि करै मति नांहि करौंगो। भक्तन प्यास लगी जल ल्यावत, भूत बध्यौ अति मैं न डरौंगौ। लै पद गावत झींझ बजावत, रूप करयौ हरि यौहीं तिरौंगौ ॥२३० जात चले मग खंभ खरौ इक, पूछत मारग बोलत नाहीं । गात भये पद ताल बजावत, काढ़ि हरी कर बोलि बतांहीं । संकट बैल जुप्यौ स गयौ मरि, रोइक नामक पाइ परांहीं। लै कर झींझ बजावत गावत, बैल उठ्यौ जुपि के घरि जांहीं ॥२३१ जैदेवजी को बरनन-मूल छपै यम जैदेव सम कलि मैं न कबि, दुज-कुल-दिनकर श्रौतरचौ ॥ श्रवन गीत गोबिद, अष्ट-पद दई असतोतर । हरि अक्षर दीये बनाइ, प्राइ प्रगटेस प्रांगवर । १. लैसु। २. ई। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० ] राघवदास कृत भक्तमाल तांन ताल तुक छंद, राग छतीस गाई धुर । प्रवर बिबिधि रागरणी, तीन ग्रांमहु सपत सुर। जन राघो तगि त्रियलोक महि, गिरा ज्ञान पूरण भरचौ। यम जैदेव सम कलि मैं न कबि, दुजकुल दिनकर अवतरचौ ॥२०२ इंदव ये जैदेव से कलि मैं भगता कविता, कबि कीरति ब्रह्मी' के अंसी। छंद छाप परी द्विज के कुल की निज, तासं कहावत जैदेव बंसी। __अष्टपदी असतूती सतोत्र, गाये पढ़े हरि हेत हुलंसी। राघो कहै मृत सौं पदमावति, फेरि श्रजीव करी हरि हंसी ॥२०३ [टोका] इदव किंदुबिलै सु भये जयदेव, धरचौ सिणगार सुका बिन मांहीं। ___ नौतम रूंख रहै दिन ही दिन, है गुदरोस कमंडल प्रांहीं। बिप्र-सुता जगनाथ चढांवन, जात भयो जयदेव बतांहीं। जात जहां कबिराज बिराजत, लेहु सुता यह बिप्र कहांहीं ॥२३२ देखि बिचार जहां अधिकार, बिभौ विसतार तहां इह दीजै। श्रीजगनाथ कि प्राइस राखहु, टारहु नांहि न दूषन भीजै। ठाकुर कै तिय लाख फबै हमकौं, नहि सोहत येकहि खीजै। जाहु वहां फिरि बात कहौ तुम, नांव तिया वह रूंख न धीजै ।।२३३ बिप्र कहै अब बैठि रहौ इत, प्राइस मेट सकौं नहि बाई। ऊठि चल्यौ समझाइ रहे जन, सोच परयौ समझौ मन भाई। बालहि कौं द्विज बात कहै कछु, तूहु बिचारि कहूं उठि जाई। हाथहि जोरि कहै अलि जोर न, यौ तन तौ तजि हौ मनि आई ।।२३४ होत भई तिय जोर करयौ हरि, छांनिहि बांधिर छाइ करांवें। छाइ भई तब पूजन राखत, नौतम उत्तम ग्रंथ बनावें । गीत-गुबिंद उदित्त भयो सिर, मंडन मांन प्रसंग सुनांवें। ऐह पदा मुख नै निसरचौ अति, सोच परयौ हरि प्राइ लिखावै ।।२३५ पंडित भूप पुरी पुरसोतम, गीत-गुबिंद वही सु बनायो। बिप्र सभा करि वाहि दिखावत, च्यारि दिसा पठवो सु सुनायो। ब्राह्मन देखि हसे लखि नौतम, उतर देत न चित्त भ्रमायो। दोउ धरी जगनांथहि पांइन, नांखि नई वह कंठि लगायो ॥२३६ १. ब्रह्म । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ ९१ भूप उदास भयो अति सोचित, जात भयो सर बूड़ि मरौंगो। मो अपमान करचौ सुधरचौ वह, बात छिपै कत नांहिं टरौंगो। आप कहै हरि बूड़ि मरै मति, ग्रंथन और सु ताप हौंगो। द्वादस सर्ग सलोकहि द्वादस, मांहि धरां बिख्यात करौंगो ॥२३७ बैंगन के बन-मालिन गावत, पंचम सर्ग कथा बनमाली। लार फिरै जगनांथ झगो तन, चूंमत लागत प्रेम सु झाली । दौर फटें लखि बूझत है नृप, सेवक देखि बजावत ताली। श्री जगनाथ कहै सर्ग पंचम, चालि गयो बन गावत अाली ॥२३८ भूप कहाइ दयो सगरै यह, गीत-गुबिंद भली धर गावो। बांचत गावत है मधुरै सुर, प्राइ सुनै हरि है बहु चावो । येक मुगल्ल सुनी यह ठांनत, वाज चढ्यौ पढ़ि है प्रभु भावो । गीत-गुबींद हि गावत है सुर, स्यांम धरयौ पद आप सुहावो ॥२३६ काबि कथा बरनीस सुनी जिम, और सुनौं अधिकाइ महा है। म्हौर कनै मग मांहि मिले ठग, जात कहां तुम जात जहां है। जांनि गये पकराइ दई सब, चाहत लैं हम बात कहा है। दुष्ट कहै चतुराइ करी इन, ग्रांमहि मैं पकराइ लहां है ॥२४० मारि नखो इक यौं उठि बोलत, दूसर कै जिनि मारहु भाई। लेहि पिछांनि कहूं त करें किम, काटि करौ पग' झेरन खाई। भूपति अाइ गयो उन देखत, झेर उजासर मोद लखाई। काढ़ि लये तब पूछत कारन, भक्त कहै हरि यौंह कराई ॥२४१ संत भले बड़ भाग मिले मम, सेव करौं निति यौं सुख लीजै। लै सुखपाल बढ़ाइ चले पुर, भूप कहै कछु प्राइस कीजै । संतन सेव करौ नित मेवन, आवत जो जन आदर दीजै । स्वांग बनाइ र अावत बैठग, आप कहै बड़ भक्त लहीजै ॥२४२ भूप बुलाइ कहै तुम भागहि, आत बड़े जन सेव करीजै। मंदरि मै पधराइ रिझावत, होत सुभोग डरै बप छीजै। आइस मांगत है दिन ही दिन, आप कहै इनकौं द्रिब दीजै । माल दयो बहु लार करे भृत, द्यौ पहुचाय सु-बैन भनीजै ।।२४३ १. फेर। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ 1 राघवदास कृत भक्तमाल बूझत चाकर नांहि समा तव, काहु कि नांहि भई यम सेवा। स्वामिन के तुम ही लगते कछु, साच कहैं हम जानत भेवा। चाकर थे इकठे नृप के, बिगरी इन सू हम मारन देवा । जीवत राखहु काटि करौ पगु, वा गुन कौं अबहू भरि लेवा ।।२४४ भूमि फटीस समाइ गये ठग, देखि भगे चलि स्वामिप आये । बात सुनी तब कांपि उठ्यौ तन, हाथ र पाव मले निकसाये। होइ अचंभ कहे नृप पैं भृत्य, स्वामिन पासि गयौ सुख पाये। सीस धरयौ पग बूझत अांनि र, बात कहौ सत मो मन भाये ।।२८५ टेक गही नृप सत्य कही जन, जांनि अमोलिक धारि लई है। अौगुन कौं गुन मानत जो जन, सो सबही बिधि जीति भई है। संत सुभाव तजै न सहै दुख, छोड़त नीच न नीच मई है। नांव लख्यौ जयदेव किंदूबल, नाथ रहो इत भक्त छई है ।।२४६ जा करि ल्यात भयौ पदमावति, स्वांमि मिलावत आवत रांनीं। भ्रात मुवो तिय होत सती किन, अंग कटे इक डांकि परांनीं। भूप तिया अचरिज्ज करै यह, नांहि करै फिरि वा समझांनीं। या परकार कि प्रीति न मानत, देह तजै पति प्रांन तजांनी ।।२४७ आप इसी इक भूपति सू कहि, स्वामि छिपावहु प्रोतिहि देखौं । नींच बिचारत अंतर पारत, मांनि तिया हठ यौं अबरेखौं । स्वामि मिले हरि प्राइ कही इक, सोच करे सति मैं नहि लेखों। क पदमावति क्यू तुम रोवत, वै सुख सू अपने मन पेखौं ॥२४८ बात बनी न तिया सरमावत, बीति गये दिन फेरि करी है। जांनि गई पदमावति पारिष, लेत कही सुनिक-ज मरी है। स्वेत हुवो मुख भूपति देखत, आगि जरौं अर यह पकरी है। ठीक भई तब स्वामि पधारत, देखि मुई कहि इच्छ हरी है ।।२४६ भूप कहै जरिहौं अनि बातन, ज्ञान सबै मम छार मिलायो। स्वामि कहै बहु मानत नांहि न, अष्ट-पदी सुर देव पुज्यायो । भूप बहौ२ सरमावत चावत, घात करौं कछु भाव न आयो । आप करयौ सनमान पधारत, किंदुबिलै परचा हु सुनायौ ॥२५० १. राखत । २. छहौं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ ९३ गंग अठारह कोस सथांनत, न्हांवन जात सदा मन भाई। प्रौढ़ भये तउ नेम न छाड़त, पेम लख्यौ निसि भाबत लाई। खेद करौ मति मानत नांहि न, आइ रहौं इतके सलखाई। अंबुज फूलत मोहि निहारिहु, भांति भई वह जांनि सु ाई ॥२५१ तिलोचनजो को मूल इंदव संत इसो' सद-रूप ह साहिब, आप तिलोचन तूं गुदराई। छंद मैं हू अनाथ रहूं बृति काहूं के, जो कोइ प्रीति निबाहै रे भाई। दास तिलोचन ले ग्रह पाये हैं, रामकी पै तब रोटी कराई। राघो कहै जन के हित को अन, सुद्ध मैं रामोटी सोलक पाई ॥२०४ टीका नाम तिलोचन दोइ ससी रिव, नाम बखांन करयौ जग माहीं। नाम कथा बर पीछ कही हम, दूसर की सुनियौ चित लांहीं। बंस महाजन के प्रगटे जन, पूजत है तिय गोढ़िकर न रहांहीं। चाकर नांहि न संत लखै मन, सेव करै उर मैं हरखांहीं ।।२५२ रूप धरचौ भृति को हरि आपन, जीरन कंबल टूटी पन्हैया। बाहरि आय र बूझत है जन, मात पिता नहि गांव जन्नैया । तात न मात न भ्रात न गाव न, चाकर रौं-ज सुभाव मिल्लया । बात अमिल्ल सुनाइ कहौ सब, खांउ घणौं अन नारि रसैया ॥२५३ च्यारि बरन्नहु रैसि सबै कर, लार न चाहत एक करांऊ । संतन सेवत बीति गये तन, नौतम नांहि न बरष बताऊं। नांम हमार सु अंतरजांमे हि, दास तुम्हार-स तोहि धपांऊं। पांहनि कंबलि नौतम देवत, आप नुहावत मैल छुटाऊं ॥२५४ दास कहै तिय दासि रहौ इन, है न उदास-स पासि रहावै । जोम सु थाहि जिमाइ निसंकहि, जीवत है स मिले हरि गावै। संतहि आवत त्यांह रिझावत, दावत पावस वाहि लड़ावै । मास बदीत भये सुं तियोदस, ऊठ गये कछु बात कहावै ॥२५५ जात भईस परोसनि के तिय, बूझत गात मलीनस क्यूं है। हंसि कहै इक चाकर राखत, धापत नांहि डरूं सुनि यौं है। १. असो। २. गोटि। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ ] राघवदास कृत भक्तमाल नहि कहौ किनि राखि मनो-मन, कांन परे उठि जावत त्यूं है । जांनि गये रम जात भये दुख, पात नये बिन पेसिं-सु ज्यूं है ।। २५६ नीर अनादिक त्याग दये दिन, तीन भये फिरि पाइ न बैसौ । भाग बिनां तिय क्यूं र कही बिय, संतन सेव न हौ भृत्य कैसौ । अंबर बोलि कहै हरि मैं हुत, भूख मरौ मत मांनि प्रदेसौ । प्रेम तुम्हार करौ बसि है मम, सेव करूं फिरि मैं घरि बैस ॥ २५७ चौक पर सुनि भक्ति करी किम, आप हरी पहि सेव कराई । भक्त कहै मम संत बड़े बड़, भक्ति करी नहि लोक दिखाई । आप दयाल निहाल करै जन, रंच करै तिन भौत मनाई । धम बिराजत मैं नहि जांनत, आइ मिलै अब पाइ पराई ॥ २५८ छपै मूल भाव सहित भागवत कौं, निरांनदास नीकेँ कह्यौ ॥ नवल्या - कुल परसिधि, मिश्र संज्ञा सत्य पाई । सुति सुमृति प्रतिहास, ग्रंथ श्रागम बिधि गाई । बक्ता नारद व्यास, बृहसपति सुक सनकादिक । इन सम है सरबज्ञ, सोत ज्यूं चलै गंगादिक । संत समागम होत निति, प्रेम-पुंज राघो लह्यौ । भाव सहित भागवत कौं, निरांनदास नींकें कौ ॥२०५ बिष्णु-स्वामि पुर सारि मधि, लाहौरी लाहौ लीयौ ॥ नांम निरायनदास, मिश्र मिश्रत धम भाख्यौ । भक्ति भेद भागवत, सार सुख मुनि ज्यौं चाख्यौ । ब्यास- बचन बिसतार, कही गद-गद हृ बांणों । साध संगति गुर-धर्म, अनंत प्रमोघे प्रांणों । जन राघो नाथ कृपा भई, खीर-नीर निरनैं कीयौ । बिष्णु-स्वामि पुर सार मधि, लाहौरी लाहौ लीयौ ॥२०६ परण परतंग्या कौं भले, जन राघो पुरवै रांम रिधि ॥ बलभ गुसांई हरिबल्लभ, ताहि हरि गोकल प्राप्यो । सदा नाथ रछपाल, श्राप श्रपरगौ करि थाप्यो । ता सुत बिठलेसुर भली, बिधि भक्ति जु साही । श्ररणौ मत मजबूत, थप्यौ हरि पैज निबाही । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ ९५ तास पछौपै सुत सरस, गिरधर गोकलनाय निधि । पण प्रांतज्ञा कौं भले, जन राघो पुरवै रान रिधि ॥२०७ बल्लभाचारय को बरनन : टोका इंदव मूरति-पूजन भाव घनूं उर, यौं मन मैं सब ही जन दीजे । छंद वैहि करी हरि धांमन धांमन, सेवत है सुख प्रांखिन लीजे। है सुघुराइ अवद्धि महा निति, राग रु भोग बहौ बिधि कीजे। नांव सुबल्लभ रीति सबै प्रभु, गोकल गांव-स देख तरीजे ।।२५६ देखन गोकल संतहि आवत, होत मुदित्त-स रीति हि न्यारी। रूंख सु खेजर रूप भुलावत, देखि दरस्स भयो सुख भारी । आइ निहारत पूजन नांहि न, फेरि गयो कहि जाहु तयारी। देखि घणे वत झूलत ठाकर, जाइ कही तव लेहु सभारी ॥२६० खि हुई फिरि तौ नहि भूलत, देहु दिखाई अब मम रूपं । आप कहै अबकै फिरि देखहु, हेत लगाइ सुजांनि अनूपं । जातहि पावत कंठ लगावत, नैन भरावत पाइ सरूपं । राति रह्यौ स भजै र ज-जै हरि, होत प्रकास दया अनुरूपं ॥२६१ मल छपै श्रीबल्लभ सुत बिठलेस ने, लाल लड़ाये नंद ज्यूं ॥ परचा मैं निपुन, राग अर भोग बिबिध कर। गहरणां बसतर सेज, रचत रचनां रचसुंदर । बृजपति उहै गोकलज, धांम सोहै दीछत को। घोष चंद तहां बिदत, भिभो वासव ईछत को। राघो भक्ति परताप तें, दीपत राका चंद ज्यूं। श्रीबल्लभ-सुत बिठलेस नैं, लाल लडाये नंद ज्यूं ॥२०८ टोका इंदव कायथ हौ तिपुरा हरि भक्त सु, सीत समैं दगली पहुंचावै । छंद मोल घणौं पट लेवत हौं अट, नांथ चढ़ावत यौं मन भावे । आइ गयो सम यौ नृप लूटत, खांवन धांम सु अंन न पावै । सीतहु आवत दैन उभावत, द्वाति हुती इक बेचन जावै ॥२६२ एक रुपैया मिल्यौ पट ल्यावत, रंग सुरंग धरयौ घर माहीं। हेत घणौं द्रिग धार बहै जल, देहि घणौं प्रभु और मंगाहीं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ] राघवदास कृत भक्तमाल आइ 'मल्यौ हरिदास सुभावहि, देत भयौ मन मैं सरमांहीं। दासन के यह काज न पाबत, मोर गुसांई बिनै करवांहीं ॥२६३ जाइ दयो धरि राखत है पट, नाथ सनेह सबेगि बुलाये। सीत लगै हम बेग निवारहु, भौत उढ़ावत कंप उठाये। फेरि कही तब आगिहु बारत, जात नहीं सुनिकै सरमाये । दास बुलाइ जड़ावलि पूछत, देत बताइ सवै न बताये ।।२६४ नांहि सुनी तिपुरा कहि दारिद', मोटहु थांन बिछाइ सु राख्यौ । बेग मंगावत ब्यौंत सिवावत, ठढि नसावत बीठल भाख्यौ। धारि लयो तन सुक्ख भयो मन, ठंढि गई प्रभु आप न दाख्यौ। हेत दिखावत भक्त हु भावत, प्रेम-रसाइन को रस चाख्यौ ॥२६५ मूल छप श्रीवल्लभ-सुत बिठलेस के, सपत-पुत्र हरि भक्ति पर ॥ गिरधर, गोकलनाथ, प्रेमसर सूभर भरिया। गोबिंद पुनि जसबीर, पीब गोवरधन धरिया। बालकृष्ण, रुघनाथ, माथ श्रीनाथ उपासी। श्री कृष्ण पगे घनस्यांम, रनि-दिन करत खवासी। ये गादीपति राघो कहै, जग मैं माने नारि-नर । श्रीबल्लभ-सुत बिठलेस के, सपत-पुत्र हरि-भक्ति-पर ॥२०६ सोभित बल्लभ-बंस मैं, गिरधर श्री विठलेस-सुव ॥टे० च्यारि पदारथ भक्ति, देत उत्म अनपाइन । सास्त्र बेद पुरांन, ग्यांन सब ग्रंथ परांइन । सेवा पूजा निपुन, नंद-नंदन मन मोहै। नृषत परम पबित्त, अमी बरषत संग सोहै। राघव सरल सुभाव अति, दूजो कोई नांहि भुव । सोभित बल्लभ बंस मैं, गिरधर श्री विठलेस-सुव ॥२१० श्री गोकलनाथ अनाथ पै, दया करत अति गुन गंभीर ॥ क्रोध रहत मति धीर, मनों रतनांकर नाई। सुजस सकल संसार, प्रबत-पति सम गरवाई। १. वारिद। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित दव छंद भजन प्रबल जल बिठल' - नाथ को जाकी बेला । प्रभु प्रसाद तन तेज, चरन चरचित नृप चेला | श्री बल्लभ - कुल मैं प्रेम-पुंज, नृबिलीक सो खंभीर । श्रीगोकलनाथ नाथ पै, दया करत श्रति गुन- गंभीर ॥२११ टीका प्रांनि कही इक मोहि करौ सिष, भेट चढावन लाख न ल्यायो । कौ तब त इसौ कहु, जाहि बिनां तन जाइ छुटायो । बोल मनांहि कहूं हित, मैं न करों सिष और सुनायो । प्रेम कथा इत और न दूसर, बेंन प्रचार सुन्यौ दुख पायो || २६२ भंगिह कांन्ह भजै भगवान, नहीं उर प्रांत-स लालहि भावै । रैंनि सुनहि नाथ कही यह भीति हुई मम नांहि सुहावै । गोकल - नाथहि जाइ कहौ तुम्ह, बागन वोट दवाइ नखावै । प्रात भयो उरि सोच नयो किम, जाइ गयो सुनि मोहि मरावै ॥ २६३ बीत गये दिन तीन कहै निति, मोर कहा बस जाइ कहैगौ । द्वारहि पाहि जाइ चितावत, रोस करचौ सुनि पास जाइ कही किन बेग बुलावत बात कहौ यह डौल कंठ लगावत जाति बहावत, येक कह्यौ हरि को सु रहैगो ।। २६४ लहैगो । ढहैगो । मूल छ कृष्णदास पैं करि कृपा, गिरधरन सीर दियो नांम मैं || श्री बल्लभ गुर पाइ, भयो हरि गुरण कौ श्राले । नौख चोज मधि काबि, नाथ सेवा निति पालै । सेवत बांरणीं सुजन, ज्ञांन गोपाल भाल भर । सर्बस बृज मैं गनत, अवर नांहीं जांनत बर । प्रभुदास बरज तेरौ रहै, मन सो स्यामां स्यांम मैं । यम कृष्णदास पै करि कृपा, गिरधरन सीर दियो नाम मैं ॥२१२ टीका इंदवदास जु कृष्ण करचौ रसरास सु, प्रेम धरयौं उह नाथ बरयौ है । छंद होत बजार जलेबि दिली, अरपी प्रभु आपहि भोज करचौ है । १. बिललनाथ । २. लेला । Jain Educationa International [ ९७ ३. करचौ । For Personal and Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ ] राघवदास कृत भक्तमाल नांचनि को अति राग सुन्यौ यह, नाथ सुनै सुर चित्त धरयौ है। रीझि गये उन पासि बुलावत, साथि चलावत लाज तरयौ है ।।२६५ मंजन अंजन कौं करवाइ, सुबास लगाइ र देवल ल्याये । देखि हुई मत लेत भई गति, लाल कहै लखि मोहि सुहाये । नाचत गावत भाव दिखावत, नाथ रिझावत नैन लगाये। होत भई तदकार तज्यौ तन, आप मिलाइ लई सु रिझाये ।।२६६ सूरहु सागर प्राइ कहै पद, गाइ इसे सम' छाइ न आवै। सातक पाठक गाइ सुनावत, सूर हसे परभात बतावै । चिंत भई हरि जांनि लई पद, बेस बनाइ र सेज रखावै । फेरि सुनावत लै सुख पावत, पच्छि बतावत सो सब गावे ॥२६७ पाव चिग्यौ तब कूप परे तन, छूटि गयौ जब नौतम पायौ । दास दुखी सुनि नाथ लखी मनि, आपटि ग्वाल सरूप दिखायौ। जात भये गिर-गोवर पासिक, बल्लभ कौं परनाम कहायौ । म्हौर बतावत खोदत पावत, संक नसावत यौं प्रभु पायौ ॥२६८ मूल हरदास रसिक असो भयो, पास धीर कीयो उदित ॥ कुंज-बिहारी भजत, नाम मिश्रत पृय लागे। निरखत रंग बिहार, बात सुख सौं अनुरागे। ग्रंधब ज्यूं करि गांन, जुगल सरदार रिभावै। नबेदन भरपाइ मोर मंछा कपि ज्यावै । भूप खरे रहे बारनै, करि दरसन होवै मुदित । हरदास रसिक असौ भयो, पास धीर कीयो उदित ॥२१३ टीका इंदव है हरदासहि छाप रसिक्क, सहौ रस ढेर२ हरी बुधि लाई । छंद अत्तर ल्याइ दयो कि निचौड़न, नांखि पुलांनि गयो उर आई। देखि उदासहि लाल दिखावत, खोलि दये पट गंध लुभाई। नीर न खावत पारस की, पथरा कहि के जब सिष्ष कराई ॥२६९ १. मम। २. टेर। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ ९९ मोरां बाई का बरनन : [मूल] छथै लोक बेद कुल जगत सुख, मुचि मीरां श्री हरि भजे ॥ गोपिन को सी प्रोति, रीति कलि-कालि दिखाई। रसिकराइ जस गाइ, निडर रही संत समाई। रांनै रोस उपाइ, जहर को प्यालो दीन्हौं । रोम खुस्यौ नहीं येक, मांनि चरनांमृत लीन्हौं । नौबति भक्ति घुराई के, पति सो गिरधर ही सजे । लोक बेद कुल जगत सुख, मुचि मीरां श्री हरि भजे ॥२१४ मनहर रामजी को भक्ति न भावं काहू दुष्टन कौं, मीरां भई बैष्णु जहैर दीन्हौं जांनि कैं। रांनौं कहै मार लाज, मारि डारौ याहि पाज, आप करै कीरतन संत बैठे प्रांनि के। प्रेम मधि पीयो बिस पद गाये अह निस, भै न व्याप्यौ नैंक हूं न लीन्हौं दुख मांनि के। राधो कहै रांनौं मुखि बैरी श्रब राजलोक, मीरां बाई मगन, भरोसे चक्रपांनि के ॥२१५ छंद टीका इंदव मात पिता जनमी पुर मेड़त, प्रीति लगी हरि पीहर मांही। छंद रांनहि जाइ सगाइ करावत, ब्याहन आवत भावत नाही। फेर फिरावत वा न सुहावत, यौं मन मैं पति साथि न जांहीं। देन लगे पित मात अभूषन, नैन भरे जल, मोहि न चांहीं ॥२७० द्यौ गिरवारिहि लाल निहारन, बेस अभूषन बेग उठावौ। मात पिता-स सुता अति है पृय, रोय दये प्रभु लेहु लड़ावौ। पाइ महासुख देखत है मुख, डोलहि मैं बयठाइ चलावौ। धांमहि पौंचत मात पुजावत, सास करावत गंठि-जुरावौ ॥२७१ मात पुजाइ लई सुत पैं पुनि, पूजि बहू अब सास कही है। सीस नवै मम श्री गिरधारिहि, आन न मानत नाथ वही है। होत सुहागरिण याहिक पूजन, टेकत जौ सिर नाइ मही है। येक नवै हरि और न नावत, मांनत क्यू नहि बुद्धि बही है ॥२७२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] राघवदास कृत भक्तमाल तजीजे । मनीजे । करीजे ||२७४ भारी । होइ उदास भरै उर सास, गई पति पास बहु नहिं आछी । मान त अब फेरि गिनें कब, केति कहौ फिरि प्रात न पाछी । रोस करचौ नृप ठौर जुदी दइ, रीभि लई वह नांच न काछी । नृत्य करै उर लाल करें', सत-संग बरै सब है जन साछो || २७३ नणंद कहै सुनि भाभिहि, साधन संग निवारि भजीजे । लाजत है नृप तात बड़ौ कुल, लाजत द्वै पख बेगि संत हमारहि जीवन प्रांन-स, तारन द्वौ कुल सत्य जाइ कही तब भैर पठावत, लै चरनांमृत पांन सीस नवाइ र पीत भई बिष, संतन छोड़न है दुख भूप कहै भृति चौकस राखहु प्राइ कनै जन बोलत मारी । स्यांमहि सौं बतलात सुनी तब, जाइ कही अब हैस तयारी | सो सुनिकें तरवारि लई कर, दौरि गयो पट खोलि निहारी ।। २७५ बोलत हौंस गयो कत मांनस, देहु लखाइ न मारत तोही । येह खरे कछू नांहि डरे चित, लेत हरे किन बाहत मोही । भूप लजाइ रह्यौ जड़ होर र ऊठि गयो तजि के उर छोही । देखि प्रताप न मानत प्राप, रहै उर ताप करें हरि वोही ॥ २७६ संतन भेष करयौ बिषई नर, आइ कही मम संग करीजे । लाल दई यह आइस जावहु, मांनि लई अब भोजन लीजे । सेज बिछावत साध सभा विचि, टेरि लियौ तब कारिज कीजे । देखित ही मुख सेत भयो पगि, जाइ न यौ अब सिष्ट मनीजे ||२७७ भूप कब्बर रूप सुन्यौ प्रति, तांनहि-सेन लिये चलि आयौ । देखि कुस्याल भयो छबि लालहि ऐक सबद्द बनाइ सुनायौ । जा बृज जीउ मिली पनहौ तिय, देखत नैं मुख ताहि छुड़ायौ । कुंजन कुंज निहारि बिहारिहि प्राइस देस बनें बन गायौ ॥ २७८ भूपति बुद्धि असुद्ध लखी अति द्वारवती बसि लाल लड़ाये । पेठि जलंधर होत भयौ नृप, जांनि महादुख बिप्र खिनाये । लै करि बहु मोहि जिबाबहु, बेगि गये समचार सुनाये । हो (त) न बिदा चलि ठाकुर पैं मुख, मांहि लई तुछ चीर रहाये ||२७६ १. धरं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १०१ नरसीजी को बरनन : [मूल] छौं गुर्जर घर नरसी प्रगट, नागर-कुल पावन करयौ। सबै सुमारत मनिख, बिष्णु की भक्ति न मांन । उर्धपुंडर गलि माल, देखि ता बहुत हसांनें। आप भयो हरिभक्त, देस को दोष निवारयो । तन मन धन करि प्रेम, भक्त भगवत पर वारयौ। हुंडी सकरी सांवरै, बेटी-कै माहिरौ भरयौ। गुर्जर धर नरसी प्रगट, नागर-कुल पावन करयौ ॥२१६ मनहर _मन बच क्रम करि नरसी सुम्रत हरि, माहै पूजी प्राननाथ हरिजी नौं नांव रै। जन के बचन जगदीस बांचे बारंबार, जात्रिन कौं दीन्हे दाम 'हूंडी' लैकै सांवरे । नृप नै कोयौ अठाव जन के न आई बाव, . प्राप्यो हरि हार ततकार बलि जांव रै। राघो कहै रामजी दयाल नरसी सौं निति, पूत्री नै माहिरै करतार बूठौ ठांव रे ॥२१७ छद टोका इंदव मात पिता मरि जात जुनांगढ़, आप र भ्रात तियास रहे हैं। छंद खेलत आइ कही जल पावहु, भाभि जरी कुट बैंन कहे हैं। ल्याइ कुमाइ कहावत है जल, पी भरिकै स जबाब लहे हैं। ऊठि गये यह त्याग करौं तन, जाइ सिवालय चिन्ह गहे हैं ॥२८० सात भये दिन जात न बाहर, द्वार गहै तुछ सो सुधि लेवै। भूख र प्यास तजी र भजे सिव, रूप धरयौ जन दर्सन देवै । भांगि कहै कछू मांगि न जानत, जो तुम कौं पृय द्यौ मम तेवै। सोच परयौ यह आइ अरयौ तिय, कैत डरयौ निति मोहित सेवै ॥२८१ मैं-ज दयौ बिरकासुर कों बर, होत भयौ डर या परवारे । पालक है जग बालक नै यह, धौंस कहाइ न रांम पियारे। द्यौं र नहीं मम बँन नसावत, आप बहू बपु नारि न धारे। आत भये बृज रास दिखावत, भौत तिया मधि कांन्ह निहारे ॥२८२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] राघवदास कृत भक्तमाल रास करै मनि हीर जरै नग, लाल धरै नृति गांन र तालं । रूप प्रकास मयंक उजासज, जीव हुलास लई गति लालं । कंठ ढरै अगुरी सु पुरै, मधुरे सु सुरै सुनिक रति पालं। ढोल बजै मृदंग सज, मुहचंग र जै दरियावजु हालं ॥२८३ हाथि चिराक दई गति देखत, कांन्ह लई लखि येह नई है । संकर-सैचरि जानत है हरि, मंद हसे द्रिग सैन दई है। टारन चाहत स्यौ नहि भावत, आइ कही ढिग मांनि लई है। जाई भजौ घरि टेरत प्रावत, देस गये जन ध्यानमई है ॥२८४ धांम जुदौ करि बिप्र-कन्यां बरि, दोइ सुता इक पुत्र भयौ है। साध पधारत लै धन वारत, ये पन पारत स्यांम नयो है। ब्राह्मन बंस भये सब कंसन, जांनत अंस सदोष लयो है। ये हरि लीन रहै जल मीन, महा परिवीन न पार दयौ है ॥२८५ संत पधारत तीरथ या पुर, पूछत है स हुंडी लिखि देव । बिप्र कहै इक सा नरसी बड़, जाइ धरौ रुपया पग लेवै । बारहि बार कहौ-र रहौ गिरि, पात पर्छ उनकी यहे टेवै । धांम बतावत ये चलि जावत, वेहि करी उठि अंक भरे वै ॥२८६ सात सतै रुपया गन देवत, लागत है पग बेगि लिखीजें। जांन लये बहकाइ दये इन, हूंडि लिखी यह सांवल दीजै। जात भये जान द्वारवती फिरि, पूछत चौटन पा तन खीजै । हेरत हारि रहे मरि भूखन, प्यास लगी जल बाहरि पीजै ।।२८७ सांवल साह बने हरि अावत, ल्यौ रुपया वह कागल ल्यावो। हे रत हारत भूख मरे कहि, मैं सुनि दौरत लाज मरावो। बास इकंत लखै हरि संत, लिखौं अब कागद दद्यौ उन जावो । है रुपया बह फेरि लिखौ ग्रह, जाइ दयो उरका सिर नावो ॥२८८ ऊठि मिले इन सांवल देखत, वैहु छके सतसंग यसौ है। व रुपया सब साध खुवावत, काम भये सिधि राम वसौ है। ठूछक को समयो-स सुता घरि, सास दुखावत भाव नसौहैं। बाप लिखावत मोहिं जरावत, द्यौ कछू पाइ र तौहु र सौहै ।।२८९ भल पुरातन आप पुरातन, बैल पुरातन जोइ र ल्याये। भेटन कौ पुतरी हु गई सुनि, नाहि कछू ढिग क्यु तुम आये। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १०३ सोच करै मति सास कहै, यह कागद मैं लिखि दे मन भाये। . जाइ कही समझाइ रिसावत, स्वैपुर के सब लोग लिखाये ।।२९० कागद ल्यावत फेर पठावत, चूकत नै दुय पाथर' मांडे । ठौर बतावत जाइ रहावत, छांनि छौंद रहै घर खांडे । नीरहि न्हांन अठाइ खिनावत, मेह भयो ठिरिये जल भांडे । साल सवारि करयौ परदा कर, झींझ२ बजी बहु अंबर छांडे ॥२६१ दे पहरांवनि गांव समूहहि, कंचन रूपक पाथर आये। येक रही उन भूलि लिखी नहि, भौत लिवै जित भूलहु जाये। जाइ सुता बिनवै पित दै इन, देत उन हरि पं मंगवाये । मात नहीं तन मांहि सुता लखि, तातहि ख्याल सबै बिसराये ॥२६२ दोइ सुता इक धांम न ब्याहत, येक सुता तजि के पति आई। गांइन दोइ फिरै पुर गावत, पावत नांहि कछू दुख पाई। कोइ बतावत आइ र गावत, आप कहावत राम सहाई। जो हरि चावहु बाल मुंडावह, लाल लड़ावहु यौं मनि भाई ॥२६३ दोउ सुता मिलि गाइन हू जुग, नाचत है चहु भाव दिखावै । मामहि सालग भूप दिवांनहि, बात निषिद्धहि आप लखावे । पंडित दीरघ और जुरे सब, भांड करे इनको समझाव । भूप बुलावत भृत्य पठावत, आइ कही दरबार बुलावे ।।२६४ जावत हैं नृप पासि रहो, चहु साथि चले हम हू न डर हैं। लार भई गति लेत नई रस, भीजि गई वह नृत्य करै हैं। वैसहि प्रावत पंच छिपावत, तौउ कहै तिय क्यू र धरै हैं। भक्ति न जांनत बेद बखांनत, नारि कहो सुकदेव बरे हैं ॥२६५ येक कही द्विज भात भरचौ हद, ठांव दये अगनंत सुता के। भूप लगे पग भक्ति करो जगि, कुंजर लागत नांहि कुता के। और सुनौ इक ठाकुर देवल, गावत राग किदारउ ताके। माल हुती हरि के गलि मैं उर, प्राइ गई नरसी महता कै ॥२६६ ब्राह्मन जाइ सिलावत भूपहि, हार पुयौ कच तागस टूट्यौ । मात कहै सुत कान धरौ मति, राज स बॉनि बुरी चलि छूट्यौ । १. माथर। २. झींक । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] राघवदास कृत भक्तमाल देवल जाइ रु पाट मंगावत, बाटि गुह्यौ गलि नावत घूट्यौ । गाइ दिखावहु ख्याल हमैं अब, गावत राग दुती नहि खूट्यौ ।।२९७ देखि खुसी खल देत उराहन, नौख नई हरि कौं बहु भाखें । आखिर' ग्वाल गही उरमाल, सुहावत लाल कहौ किन लाखें । रांम भले सु लख्यौ क्रम पावत, कौन मिटावत है अभिलाखें। जाइ कहा मम तोहि कहै धिक, जाहु यहै तन भक्ति न नांखें ॥२६८ साह रहै जुग नारि बिवाहत, भक्त इकै हरदेव दिखावो । आप कही सति जांनि गये प्रभु, ल्यौ रुपया वह राग दिवावो । देखि निहाल भई प्रभु को मुख, जाइ जगो रुपया गिनवावो । दांम लिये र दयो वह कागद, भोजन देत भई प्रभु पावो ॥२९६ साहक राग धरयौ गहनै, नरसी करि रूप सजाइ छुड़ायौ । गोदहि नांखि दयौ वह कागद, आइ हरी जन हार गहायौ । सब्द हुवो जयकार सभा मधि, भूप परयौ पगि भाव सवायौ । दुष्ट गये मुरझाइ नये नहि, राम दया बिन पंथ न पायौ ॥३०० ब्राह्मन हेरत डोल भलौ बर, पायौ नहिं नरसीह बतायौ। बूझत आई सु पुत्र दिखावत, देत तिलक्कहि देखि लुभायौ। नांहि बरोवरि हौ सब सौं बर, बेगि गयो द्विज नांव जनायो । सीस धुनै सुनि ता लकुटा भनि, बोरि सुता फिर जाहु कहायौ ॥३०१ ढारहु काटि अगूठहि कौं, जब जाइ कहूं कर कौं कमलायौ। भाग सुता लखि बैठि रहे. कहि ब्याहन आवत दें बहरायौ। देत लगंन सु ब्राह्मन भेजत, जाई दयौ कर लैर डरायौ । ताल बजावत च्यारि रहे दिन, सोच नहीं मन सावल आयौ ॥३०२ है पकवान बजैहु निसांन, सुनै नहि कांन-स उच्छव भारी। मांडत है मुख कृष्ण बधू रुख, चौढ़ि तुरी निसि गात सु नारी। है जिवनार अपार भये नर, मोट न बांधत बिप्र बिचारी। हाथिन घोरन ऊंटन हूं रथ, वैस किसोर जनै तपधारी ।।३०३ कृष्ण कहै नरसी चलिये तुम, आवत हूं नभ मारग मांनौं । आपहि जानहु मैं उर प्रांनहु, है सुख फैटहि ताल रखांनौं। १. गिर। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १०५ लेइ उठाइस बोझ सबै, हरि जाइ रहे समधी पुर जांनौं । भेजत है नर आइ र देखत, फौज किसी यम पूछि बखांनौं ॥३०४ येह जनैत मनौं नरसी जन-जन रसी नरसी इन ध्यावै । आंनि कहु' यह बुद्धि गई वह, साच कहैं हमहीं डहकावै। ये तहि आत सगाइ करो द्विज, मात नहिं तनि बात सुनावै । तो धन सौ इक फूस सरै नहि, देखहु ता लकुटा परभावै ॥३०५ देखन कौं चलि जात बरातहि, मान मरयौ द्विज सूं कहि राखौ । पाइ परै किरपा करि है जब, जाइ परे हम चूकहि नांखौ । भक्ति मिले उठि कृष्ण मिलावत, सौंपि सुता इन बीनति भाखौ । भेजि दई लखमी उतहू हरि, आत भये परणाइ र पाखौ ॥३०६ इति श्री विष्णुस्वामि संप्रदा छपै अथ माध्वाचारिज संप्रदा : [मूल] रघवा प्रणवत रांमजी, मम दोषो नहीं दीयते ॥टे० आदि बृक्ष बिधि नमो, निगम नृमल रस छाते। मध्वाचारय मधुर पीवत, अमृत रस माते । तास पथित भू प्रगट, संत अरु महंत निसतरे। हरि पूजे हरि भज, तिनहि संग बहुत निसतरे। मैं बपुरौ बरनौं कहा, जारणी जाइ न जीय ते। रघवा प्रणवत रांमजी, मम दोषो नही दीयते ॥२१७ ये पांच महंत परसिध भये, ज्ञांनी गौड़ बंगाल मधि ॥ नित्यानंद श्रीकृष्ण-चैतन्य, भजि लाहो लीयो। रूप सनातन राम रटत, उमग्यौ प्रति हीयौ । जीउ-गुसांई खीर-नीर, निति निरनौं कोयौ। जै जै जै त्रिलोक ध्यान, ध्रुव ज्यूं नहीं बीयौ। राघो रीति बड़ेन की, सब जाने बोले न बधिः। ये पांच महंत परसिध भये, ज्ञांनी गौड़ बंगाल मधि ॥२१८ १. कहि यह। २. भक्त। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] उभै भ्रात कलिजुग प्रगट, भक्ति सथापन कारने ॥० नित्यानंद बलिभद्र, कृष्ण चैतन्य १. जग । कृष्णघन । सेवत । कोयो दूरि अधर्म, धरम बर थप्यौ भजन-पन | प्रेम रसांइन मत बड़े, जन श्रंध्री जो नर लेवे नांव, ताहि उत्म गति पूरब गौड़ बंगाल के, तारे जन उभै भ्रात कलिजुग प्रगट, भक्ति स्थापन कारनें ॥२१६ राघवदास कृत भक्तमाल नित्यानन्द महाप्रभु को टोका मत्त- आप सदा मदमत्त रहे. बलिदेव चहै पुनि प्रेम मताई । गयंद वै निति आनन्द रूप धरचौ प्रभु, आइ भरी तऊ है चित चाई । छंद भार भयौ न सभार सरीर हु, पारख तौं महि राखि धराई | कैत हु तें सुनि कान धरे जन, होइ गई मतवारि सभाई || ३०७ श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु को टीका गोपिन की रति देखि थके हरि, या तन मैं गौर तनी सब और रही बनि, रंग खुल्यौ कृष्ण सरीरहि लालप श्रावत, जांनत हूं पुत्र यसोमति होत सची सुत, गौर भये गन मांझ नचाई || ३०८ प्रेम हुवै कब हेम डरौ तन, अंग खुलें कबहूं बधि जावे । और नई अस वा पिचकारनि, लाल प्रियाजु ग भाव समावै । ईस्वरता परमांन करौ, जगनाथ हु छेतर देखन आवै । च्यारि भुजा षट बाहु दिखावत, बात अनूपम ग्रंथहु गावै ॥ ३०६ चैतनि स्यांम सु नांम भयौ जुग', ख्यात महंत जु देह धरी है । गौंड जितौ नर भक्ति न जांनत, प्रेम समुद्र बुड़ाय हरी है । संत सिरोमनि होत भये सब, तारन को जग बात खरी है । कोड़ि अजामिल वारत दुष्टन, भक्ति मगन करे भुभरी है ॥ ३१० टि. रोहणी कुंड । Jain Educationa International देवत । श्रौतार नें । For Personal and Private Use Only क्यम प्रत ललाई । बन अंग न माई | फिरि यौं मनि आई । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित छपै मूल श्री रूप सनातन तज्ञ दुहु, बिषै स्वाद कीयो बवन ॥ सूबौ होई । जोई । श्राये 1 पूरब गौड़ बंगाल, तहां कौ बिभौ भूप परमांन, खजांनां प्रसु गज मिथा सब सुख मांनि, चालि बृन्दाबन प्रापति मैं संतोष कुंज, करवां मन संत तोष राघो रिदै, भक्ति करो श्रीरूप सनातन तज्ञ दुहु, बिषै स्वाद कीयो बवन ॥ २२० टोका भाये । राधा-रवन । पांच तुकां निरबेद निरूपण, जांनि करयो मन मांहि डरे हैं । येक रही तुक मांझ निरंतर, लाख कबित्त प्ररत्थ धरे हैं । स्यांम प्रिया रस बात कही बड़, जीव सु नाथ छपैहि करे हैं । है अनुराग कहा बरनूं गति, जास दया करि प्रेम भरे हैं ।। ३११ भू बृज की बन की बड़िता जन, जांनत नांहि न देत दिखाई | रीति उपासन की सुपुरांनहु, के अनुसार सिंगार लखाई । इस पाइ सु स्यांम प्रभू करि, आइ लगे सु गुपेस्वर भाई । ग्रंथ करे तिनकी इक बात, सुनै पुलकै अखियां भर लाई ।। ३१२ रूप रहै नद- गांव सनातन, प्रांतहु खीर सु भोग लगांवै । आत प्रिया सुखदाइक बालक, रूप लियें सब सौंज धरावे । पाइस पावत नैंन घुलावत, पूछि जितावत सो पछितांवें । फेरि करौ जिन बात धरौं मन, चाल चलौ निज प्रांखि भरांवें ॥३१३ रूप गुनगुन गांन सुनें, अकुलांन तिते उन मूरछ आई । आप बड़े धरि धीर रहे न, सरीर सुधी इम बात दिखाई | श्री ऋणपूर गुसांई गये ढिग, स्वास लग्यौ तन के सुधि पाई । आगि हुये छिलका हुय जात, सप्रेम नयो यह कौंन सगाई || ३१४ गोबिंदचंद जु आइ निसा, सुपनें महि भेद सबैहि जनायो । मैं जु रहौं खिरका बिचि गोइक', सांझ र भोरहु दूध सिचायो । १. गारक । शिव कृष्ण चंतन को । Jain Educationa International १०७ For Personal and Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल १०८ ] रूप अप प्रगट्ट करयौ छबि, को बरण थकि जात लखायौ । सागर गागर मांहि न मावत, नागर कौं भजि पार न आयौ ।।३१५ पांवन. पैज रहैत सनातन, तीन दिनां पय ल्यात पियारौ। सांवर रूप किसोर रहौं कत, भ्रातहु च्यारि पिताहि बिचारौ। ग्रांमहि बूझत पातक हूं नहि, देखि चहूं दिसि नैन भरारौ। आइ मिले अबकै कबहूं फिरि, जान न द्यौ सिर लाल पगारौ ॥३१६ सांपनि रूप सिखा द्रिग देखि र, जांनि सनातन काबि बिचारौ । झूलत फूलत है द्रुम डारनि, सो सर तीर हलांन निहारौ। आइ र भ्रातक दे परदक्षण, आप डरै सिर लै पग धारौ । भ्रात उभै सु अपार चिरित्रनि, पेखि जगे जग बात उचारौ ॥३१७ छपै श्रीजीव गुसांई अध्व बड़, श्री रूप सनातन भजन जल ॥टे० प्रेम पालि परपक्क, प्रांन बिधि फूट नांहीं। जुगल-रूप सूं प्रीति, बसत बृन्दाबन मांहीं। प्रखंड अक्षर मन लग्यौ, कलम पुस्तक कर राजै । सास्त्र बेद पुरांन सार, उर मधो बिराजै । राघो रसिक उपासना, संसा काटन अति सबल । श्रीजीव गुसांई अध्व बड़, श्री रूप सनातन भजन जल ॥२२१ टोका ग्रंथ रचे बहु गृथनि छेदक, प्रात जितौ धन लै जल डारै। सेव करें जन पात्र न दीसत, मैं जु करो कटु कोप उचारै। गौरव संत बढ़ाई सिखावत, बोलत 'मिष्ट निसा-दिन सारै। कौंन करै निरबेद निरूपण, भक्ति चरित्र करे सु अपार ॥३१८ छपे गोबिद इष्ट सिर भक्त भूप, मधुर बचन श्रीनाथ भट ॥टे० श्रुति संमृत सास्त्र पुरांण, भारथ ही खोले । श्रब ग्रंथन को सार, आप पारा ज्यू जोले । १. लखायो। २. काछि। ३. जज्ञ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित पूरब जा जिम कहचौ, श्रादि श्री रूप सनातन । नारांहून भट जीव, हीव धारचौ सोही पन । गोपाल' प्रपत्ति कुल नाग के दास भाव प्रेमां प्रघट । गोबिंद इष्ट सिर भक्त भूप, मधुर बचन श्रीनाथ भट ॥२२२ 1 बल्लभ लगें ॥टे० रस श्री नारांइन भट प्रभु, बृज बल्लभ नांचन गांवन सरस, रास मंडल ललितादिकन बिहार, देखि दंपति मन महिमां बहु बृज भई, देस उधारक जीय उच्छव प्रचुर प्रमारण, चाहि इक है प्रिया पीय की । हरखें । की । जगै । बल्लभ लगे ॥२२३ राघव संत समाज मैं, प्रेम मगन निस दिन श्री नारांइरण भट प्रभु, बृज बल्लभ भट्ट नरांइन बृज धरा, गुह्य धांम प्रगट करे ॥ इष्ट येक श्रीकृष्ण और उर मैं नहीं श्रावत । भजन मृत को श्रबध, संत जन सरस लड़ावत | स्वामि बिलास हुलास, प्रांत सूं रहत रसज्ञ- जन । पक्ष सु मारत बोध, तांन कौं करें निखंडन । तहं तहं प्रभु लोला करो, जो जो तोरथ उर धरे । भट्ट नरांइन बृज धरा, गुह्य धांम प्रगट करे ॥ २२४ टीका इंदव भट्ट नरांइन ब्रजु परांइन, ग्रांमहु प्रात करे व्रत ध्यावै । छंद आप कहै इत है प्रमुकौ प्रभु, कुंड र धांम प्रतक्ष दिखावै । जागिहि जागि बिलास बतावत, जीत भये रिस की सुख पावै । बेगि चल्यो मथुरात कहैं जन, गांव उचे त्रिय सोत लखावै ॥ ३१६ छपे १. गोयल । Jain Educationa International मूल मध्वाचारिज मधुपुरी, दुती कवलाकर भट भयौ ॥ प्रति पंडित परबीन, भागवत पैंतालीस हजार हृदै, दिज कंठ बसेख | दीपक देखे | बरखें । For Personal and Private Use Only [ १०९ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] राघवदास कृत भक्तमाल अंतर गति को प्रीति, प्रभुजी प्रगट पिछानी । दोऊ भुजन कै चक्र, बात सर्ब ही जग जांनी। राघो अति रुचि स्यांम सूं, भक्त भावनां सूं नयौ। मध्वाचारिज मधुपुरी, दुती कवलाकर भट भयौ ॥२२५ सपतदीप नवखंड मैं, भक्त जक्त की नांव ॥ मथुरा सदन सुथांन, पुरी पूरण श्रुति गावै। सुकृत बिनां सथांन बस, कोई मुक्ति न पावें । संत सुकिरती बररिण, काल-क्रम जिन तै डरपै । तन मन धन सरबंस, साध साहिब कौं अरपै । राघौ रटवै रामजी, जहां जहां धारै पाव । सपतदीप नवखंड मैं, भक्त जक्त की नांव ॥२२६ ब्यास द्विती माधौ प्रगट, सर्व को भलो बिचारियौ ॥टे० श्रुति समृति पौरांण, अगम भारथ मथि लीयो। ग्रंथ सबै पुनि देखि, प्ररथ रस भाषा कीयो। गाई लीला जैति, कृतम जै जै उचरयौ। श्रवनां सुनि करि कंठ, जीव जग निरभै बिचरयौ। निरबेद अवधि सिर जगनाथ, रस करुणा उर धारियौ। ब्यास द्विती माधौ प्रगट, सर्व को भलो बिचारियौ ॥२२७ इंदव सारह मैं ततसार सिरोतर, लीन्हौं महा मथि माधौ गुसांई। छंद लीला र जैति जपै दुख दूरि है, काज सरै महामंत्र की नाई। भैरव भूत पिरेतर पाखंड, व्याधि टरै बपु नै सब बाईं। राघो कहै निति नेम निरंतर, असे मिले दुरि सेवग सांई ॥२२८१ टीका माधवदास तिया तन त्यागत, यौं दिज जांनि मिथ्या बिवहारा। पुत्र बड़ी हुइ जाइ तजौ गृह, और भई दिखई करतारा। १ छाई। प्रिति लेखक ने इसे टीकाकार का पद्य मानकर ३२० की संख्या देदी है, पर 'राघों' की छाप होने से मूल ग्रन्थकार का ही है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १११ छाडि दयौ गृह पालत है वह, मांनत हूं कर तास गवारा।। आइ परे जगनाथ पुरी तटि, धीरज भूखन प्यास बिचारा ॥३२१ तीन दिनांस भये न नही खुत, लीन रहै हरि सोच परयौ है। सैन सु भोग पठात भये, कवलाकर हाथ क थार धरयौ है। बैठि कूटी मधि पीठ दई मग, दांमनि सी दमकी न फिरयौ है। देखि प्रसाद बड़े मन मोदत, मांनत भाग सुपात्र परयौ है ॥३२२ खोलि किवार निहारत थारन, सोच परयौ उत ढूंढत पायौ। बांधि र बेत दई सु लई प्रभु, जांनत पीठि चिहन दिखायौ । आप कही हम देत लयौ इन, पाव गहे अपराध खिमायो। बात बिख्यात नमावत कीरति, साध लजावत सील बतायौ ॥३२३ रूप निहारत सुद्धि बिसारत, मंदिर मैं रह जात न जांन । सीत लग्यौ जन कांपि उठे हरि, देसि कला तउ हैं दुख भांन। बेग लगे तटि सिंध गये चलि, चाहत नीर तबै प्रभु ांन । जांनि लये हरि दूरि करौ दुख, ईस्वरता तुम खोवत क्यान ॥३२४ नाथ कही सब काम करौं तव, देत मिटाइ बिथा यह भारी। भोग रहें तन फेरि धरौ नहि, मेटत हूं प्रभुता हम हारी। बात वहै सति गांस सुनौं इक, साधन कू न हस सु बिचारी। देखत ही दुख दूरि गयौ सब, नौतम भक्ति कथा बिसतारी ॥३२५ कीरति देखि अभंगहि मांगत, खोजि तिया रु चलावत पोता। देण लयौ गुण सो कर धोवत', बाति बनाइ करी दिव जोता।। मंदिर मांहि उजास भयो, तम नास गयौ उर देखत नौता। साध दयाल निहाल करै, दुख देत उनै सुख सेवत होता ॥३२६ पंडित जीतत आत भयो वत, बात करौ हम सौं नहीं हारी। हारि लिखि पुनि बांचि बनारस, माधव जीतत खुवार जमारौ । आय कही फिरि माधव सौं अब, हारि गधै चढ़ितौ पतियारौ। बांधि उपानत कानन हूं, जगनांथह राय खराहि चढारौ ॥३२७ गावत है बृज की रचनां, गिर नील सवै चलि नैंन निहारें। चालि परे इक गांव तिया जन, ल्यावत भोजन चाव पियारें। १. धावत । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ । राघवदास कृत भक्तमाल बैठि प्रसाद करें सु भरै द्रिग, है किम बात कही जु उचारे । सांवर बाल भुराइ चलावत, मात न जीवत देह बिसारै ॥३२८ गांव चले अनि भक्त महाजन, ही मनमैं बिनतीहु करी है। जात भये घर वौ जु गयौ, अनि भाव भरी तिय पाइ परी है। म्हंत रहै इक बूझत आसन, नाटि गयौ मन मांहि डरी है। ल्यौ परसाद सु दूधहि पीवत, माधव नांव सु आस भरी है ॥३२६ आप गये तब आत महाजन नाम सुन्यौ पुनि म्हंत भगत्ता। जाइ परे पगि आप मिले झिलि, हौ धनि दंपति धाम सपत्ता। म्हंत कहै अपराध करचौ हम, सेव करौ हरि संत महत्ता। पात मिलाप बनें सुधरौ मन, जात बृदाबन है प्रभु सत्ता ॥३३० देखि बृदाबन मोद भयो मन, जात बिहारी चनां कु छपाये। ल्यौं परसाद कही प्रतिहार, गये जमना तटि भोग लगाये। भोजन कौं अरपात भये जन, पाप नहीं हरि वै हि बताये। बूझत आप जनाइ दयो फिरि, ल्याइ कह्यौ रस हास गहाये ॥३३१ देखन कौं बृज जात भये दुरि, खेम भखै निसि कृम दिखाये। जैत गये सुनिबे हरियानह, गोबर पाथि निलागिर धाये। आइ घरां सुत मात मिले, मग मैं सुपनां कहि बैसि मिलाये। या बिधि भांति अनेक चरित्रहु, कान परे हम गाइ सुनाये ॥३३२ मल रघुनाथ गुसांई की रहणि, श्रीजगनाथ के मनि बसी ॥ स्यंघ पौरि सत सूर, रहै गरुड़ासन ठाढ़ौ । प्रति धीरज प्रति ध्यान, प्राहि अति पण को गाढ़ौ । सीत समैं सकलात, जगतपति प्रांनि उढ़ाई । श्रब कू अचिरज भयौ, महंत की मांनि बढ़ाई। ज्यूं जननी सुत सुचि कर, जन राघौ रीति करी इसी। रघुनाथ गुसांई की रहरिण, श्रीजगनाथ के मनि बसी ॥२२८ टीका संपति सूं घर पागि रह्यौ उन, त्यागि निलाचल बास करयौ है। बाप पठावत है धनकू, नहि लेत महाप्रभु पास परयौ है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ ११३ मंदिर द्वार सुरूप निहारत, सीत लगें सिकलात डरयौ है। सोचहु रीति प्रमांन उहै जिम, माधवदास उधार धरयौ है ।।३३३ चैतनिकृष्ण सु आइस पाइ र, आइ बृदाबन कुंड बसे हैं। रूप चहंनि कहै न सके तन, भाव सरूप करयौ जु लसे हैं। चांबर दूध खवाय मनौमय, नारि लये रस बैद हसे हैं। संतन की महिमां न सकौं कहि, देहु वहै गति भक्त रसे हैं ॥३३४ मूल छौ . बृधमांन गंग लंगहर जन, राघो नारद ज्यूं नचे ॥ पीवत रस भागवत भक्ति, भू परि बिसतारी। परमारथ के पुंज, उभै भ्राता ब्रह्मचारी। संतन सं लैंलीन, दीन देखें कछू दीजै । राम राम रामेति, राति दिन सुमरन कीजै। भट भीखम सुत सांतकी, भक्ति काज भू पर रचे । , बृद्धमान गंग लंगहर, जन राघो नारद ज्यूं नचे ॥२२६ , मिश्र गदाधर ग्यांन पक्ष, जिन भ्रम बिध्वंसे भीव ज्यूं ॥ बसत बृदाबन बास, भजत हरि सुख को पाले। कर हंस ज्यूं अंस, खीर नीरहि निरवाले। पीवत रस भागौत अनि न निज धरम दिढ़ायौ। प्रान धर्म सब त्यागि, गर्भ' गहि अधर उड़ायौ। राघो धरनि धमाल की, घरचौ निगम मत नीव ज्यूं। मिश्र गदाधर ग्यांन पक्ष, जिन भ्रम बिध्वंसे भीव ज्यूं ॥२३० टीका इंदव स्याम रंगी रंग जीव सुन्यौं पद, साध उभै लिखि पत्र पठायौ । - रैणि बिनां चढियो रंग क्यौं करि, प्रेम-मढ्यो उरका उत आयो। कूप तहां पुर के ढिग बैठक, पूछत हे उन नांव बतायो । कौंन जगां बसिहौ जु बृदाबन, धांम सुन्यौं मुरछा गिर पायौ ॥३३५ कोउ कह्यौ भट येह गदाधर, बेगि उठे पतियांहि जिवाये । हाथि दयौ उरका सिर लावत, बांचि र चालि बूंदाबन पाये। जीउ मिले द्रिग तें जल ढारत, बेह गई सुधिवै फिर गाये । ग्रंथ पढ़े सब स्यांम कबादिब२, प्रेम उमंग न अंग सु छाये ॥३३६ छद १. भरम। २. कथाविव । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] राघवदास कृत भक्तमाल... नांव कल्यांन हुती रजपून सू, आत कथा सुनिबे मन लाग्यो। गांव नजीकहि धौरहरा उन, भोग तजे तिय कौं दुख पाग्यौ। सील लिवाय दयौ भट मो पति, ख्वार करौं इन कामहि जाग्यौ । मांगत ही जुवती ग्रभवंतहु, बीस दये रुपये कहि राग्यौ ॥३३७ भट्ट गदाधर की हु कथा कहि, है तुमरी किरपा सुधि लीजै । लोभ करयो मन भंग गई वत, यौंहि कही मम काज करीजै। आप कहै तव ध्यान करौं निति, दोष नहीं हम मांगत दीजै । श्रोतन के दुख होत भयो सुनि, झूठ कही इन मार नखीजै ॥३३८ । भूमि फठ बरि जांहि कहै सिष, नीर बहै द्रिग बुद्धि गई है। वल्लभदास प्रकास भयौ दुख, राम सुनी स बुलाइ लई है। साच कहौ तन अांच करें बहु, मार डरी सब कैत भई है। . मारन कौं जु कल्यांन गयौ तिय, भट्ट कही मम सीख दई है ॥३३६ देस महंत कथा महि आवत, पासि पठात' सबै जन भीजै। आंसु न प्रांवहि सोच मुचे जल, लावत लाल मिरच्चि ह खोजै। साध लखे भटजूहि जनावत, ऊठि गये सब ले मिलि रीझे। चाहि इसी उर होइ जबै मम, रोइ भरें द्रिग प्रेम सु धीजे ॥३४० चोर धस्यौ घर संपति बांधत, जोर कर नहीं ऊठत भारी। अाइ उठाई दई सु लई लखि, नाम सुन्यौ हम भूलि बिचारी। लै धन जाहु उजास करै रवि, आत गुनी दस तेरि जिवारी। सीस उतारि बिचार करौ यह, कैत भयौ सिष बात निवारी ॥३४१ सेव करै प्रभु की निज हाथनि, भक्ति प्रतीति पुरांनहु गाई। देत हुते चवका सिख ले धन, आवत ही भृति सैन जनाई। हाथ पखारि बिराजहु आसन, चाव उही खिजिकै समझाई। हेत हरो परि पास तजी जग, प्रेम गये पग रीति दिखाई ॥३४२ मूल श्री वृन्दावन को मधुर रस, इन सबहिन मिलि चाखियो। १भट गोपाल २भूभृति, प्रभु मैं सरबस देखें। थानेसुरो ३जगनाथ, बिपुल ४बीठल रस रेख। १. बठात । २. डुबं। ३. मिच्चि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुरदास कृत टीका सहित रिषीकेस ६भगवान, ७महामुनि मधु श्रीरंगा । १०घमंडी १९ जुगलकिसोर, १२जीव १३ भूगरभ उतंगा । १४ कृष्णदास १५ पंडित उभे, हरि-सेवा व्रत राखियो । श्री बृन्दाबन को मधुर रस, इन सबहिन मिलि चाखियौ ॥२३१ गोपाल भट की टीका भट्ट गुपाल बसें उर लाल, लसें प्रिय पीव बिख्यात सरूपा । भोग धरै अर राग करें, अनुराग पगे जग बात अनूपा । स्वाद लयौ बन माधुरता जिन, सीत चख्यौ सु भये रस रूपा । गुन त्यागत जीवन के गुन, लेत भले जन मैं बड़ भूपा || ३४३ अली भगवान की टोका रामहि पूजि अली भगवांन, वृंदावन आइ र और रास बिलास निहारि बिहारिहि प्यास बढ़ी रसरासि चाहि सु रास बिहारीहि पूजन, बात सुनी गुर रीति गई है । यात भये बन जाइ परे पग, ईस तुमैं सिर कैसु दई है || ३४४ बीठल बिपुल को टीका बीठलदास बरे हरिदास जु, दाह उठी गुर के स बिवोगा । रास समाज बिराज बड़े जन, बोलि लये सुनि आवत जोगा । देखि बिहार जुगल्लकिसोरहु, गांन र तांन सुने मन सोगा । जाइ मिले उस भाव धरयौ तन, और गये सब देखत लोगा || ३४५ [ ११५ भई है । नई है । लोकनाथ गुसांई को टोका कृष्ण जु चैतनिकेभृति उत्तम, लोकहु नाथ सबै सुखदाई | कृष्ण प्रिया सु बिहार रहे मन, ज्यं जल मीन निसा दिन जाई । भागवत रस गांन सु प्रांन हि, गावत है तिन सूं मितराई | माग चलै पगि लागि रसिक्कनि, नेह सु रीति दया तजि ताई || ३४६. १. उन । मधु श्री मधु आइ बृदाबन में इन, नैननि सौं कब देखहु रूपं । हेरत हे बन कुंज लता दुम, भूख न प्यास गिरणें नहि धूपं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ] राघवदास कृत भक्तमाल काटत ही जमुना स किरारनि, बंसिबडं तटि देखि अनपं । दौरि लगे पगि र' आप भये जड़, है अजहूं गोपिनाथ सरूपं ॥३४७ कृष्णदास ब्रह्मचारी की टीका मोहन काम सरूप सनातन, सीस धरे भल पूजन कीजै । कृष्ण सुदास मनुं ब्रह्मचारिहु, भट्ट नरांइन सिष्ष जु भीजै । चारु सिगार करैहु निहारत, चेत गहि नहि यों मन दीजै। राग रु भोग बखांन करूं किम, है अजहूं उन देखि र जीजै ॥३४८ कृष्णदास पंडित को टीका गोविंद देव सरूप सिरोमनि, पंडित कृष्ण सुदास प्रमांनौ । सेवन सूं अनुराग सु अंगनि, पागि रही मति है मन जानौं । प्रीत करै हरि भक्तन सौं बहु, दे परसाद सुपद्धित मांनौं । रीति सुते प्रतीति बिनी तिहु, चाल चले वहि और न आनौं ॥३४८ ___ भूप्रभ गुसांई को टोका भूप्रभ जू बसिक रु बृदाबन, कुंजन को सुख गोबिंद लोयो। है बिरकतहि रूप सुमाधुर, स्वाद लयो मिलि भक्तन जीयो। मानसि भोग लगाइ निहारत, तवै हि जुगल सरूप सु पीयो। बुद्धि समांन बखांन करयौ बहु, रंग भरयौ रस जांनि र कीयौ ॥३४९ मूल राघो रिसिक मुरारि धनि, प्रति प्रमोध पूरब कोयौ ॥ राजा खल खंडेत दक्षत, करि करम छुड़ाया। भाव भगति पन थप्यो, भरम गहि अधर उड़ाया। तन मन धन सर्बस, अरपि साधन कौं दीजै। मनिख जनम फल येह, देह धरि लाहा लीजे। करहि कोरतन रैनि दिन, प्रेम प्रोति उमगै होयौ । राघो रसिक मुरारि पनि, अति प्रमोघ पूरब कीयौ ॥२३२ टीका इंदव 'संतन सेव बिचारि करै विधि, पार न पावत कौंन मुरारी। छंद साधन के चरणांमृत के घरि, माट भरे रहि पूजन धारी। १. गरि। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ ११७ आवत दास तिनै सुख दे अति, जीभ कहै न सके सुबिचारी। उत्सव यौं गुर को सु करै दिन, मानि र द्वादस राखत ज्यारी ॥३५० साधन कौ चरणांमृत ल्यावहु, भावहि जानन दास पठायो । प्रांनि कह्यौ सब सन्तन खोरन, पांन करयौ वह स्वाद न आयो। भक्ता सभा सबही न चखावत, जांनत नैकि न छोड़ि सु प्रायो। बूझि कह्यौ तन कोढ रह्यौ फिर, ल्याय दयौ पिय के सुख पायौ ॥३५१ राजसभा सु बिराज कहै जन, वैह बिवेक कहै न प्रभाऊ। भोजन साध करै इकठे बहु, दूर' रसीट हु द्यौ नहीं भाऊ। पातरि डारि दई ब गुसांई, पगारि दई सुनि देखत दाऊ। सीतल यौ नहि देत भये मुख, दूरि करयौ भृति सेवन चाऊ ॥३५२ बाग समाज चले जन देखनहू, का दुरावत सोच परयौ है । साधन मान चहै तन घुमर, बैठि कहो कित ल्याव धरयौ है। जाइ सुनावत दास तमाखहु, पासि किनै सुनि प्रांनि करयौ है। झूठहि बैंचि र साच दिखावत, पाइ लये मन दोष हरयौ है ॥३५३ संतन सेवन गांव दयो किन, भूपति दुष्ट उतारि लयौ है। स्यांमहि नंद बिचारि करयौ जब, दास मुरारिहि पत्र दयौ है। जा बिधि होइ सु ता विधि आवहु, आवत बेगिम चैन लयौ है । प्रिष्टि करी परनाम निबेदन, भोजन मैं चलि प्रेम भयौ है ।।३५४ आइस सौ अचवन्न लयौ उन, दुष्टन मैं मुखि तापहि आये। माग मिले सचिवै सिष बोलत, प्रात पधारहु नीच बताये । कांम करै हम सौ समझावत, आत नहीं मन नेह डराये । चिंत करौ जिन धीर धरौ उर, भूप कही दिन तोन लगाये ॥३५५ आत भये गुर ल्याव कह्यौ बर, देत करामति येह सुनाई। जाहु अभू उन मांनष देखहि, जोर चले गज धूम मचाई। भाजिक हार गये नहि देखत, बोलि कही सु गिरा सुध भाई । कृष्ण हि कृष्ण कहौ तभ छाड़ हु, पेम सन्यौं सुनि देह नवाई ॥३५६ नीर बहै द्रिग होत न धीरज, आप दया करि भक्ति हु दीन्ही। दास गुपाल गरे धरि माल, सुनाव : नांव सु यौं बुधि कीन्ही । १. दूसर सोटउ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ,.१९८] राघवदास कृत भक्तमाल भूप लख्यौ परभाव परयौ पग, दुष्टपणौ तजि यौं मति भीनीं। नौतम गांव दयौ उन केतक, भाग फल्यौ मम आजहि चीन्ही ॥३५७ भक्त भयौ गज संतन सेवत, देखि प्रनाम करें जननी के। ल्यावत गौनि उठाइ र बार न, नाइक जाइ पुकारत पोकै। आवत उच्छत्र सीतहि पांवन, आप दुयें कहि निंद कही के। छोड़ि दई गति भक्तन सू मति, संग समूह रहै सुख जीके ॥३५८ संग रहै जन पांच सतंछय, जाइ जहां नर ल्यावत सीधा। बात भई दसहूं दिसि कौं यह, सूरज चाहि न पावत गीधा। संत गयौ इक प्रांनि दयौ गहि, नीर न पीवत सीतहि बीधा। बीति गये दिन तीन र च्यारिहु, गंग गये तन त्यागन कीधा ॥३५६ छपै जकरी जन गोपाल को, जगत मांहि पर्वत भई ॥ नरहड़ सहर न्यावजि' देस, वागड़ बर कीयौं । नवधा भक्ति बखांनि, येक दासत्व बर्त लीयो। बक्ता बड़ भागौत, साध परखत मैं सोहै। छेदक संसय गृन्थि, भक्ति बल सब कौं मोहै। संत दया उर निति चहै, भावत स्यांमां स्यांम ई। जकरी जन गोपाल की, जगत मांहि परबर्त भई ॥२३३ कृष्णदास की चरचरी२, सकल जगत मैं बिसतरी॥ चालक कीयौ चरित, कोप वासव को नीकौ । पंचाध्याई पाठ प्रगट, प्यारौ प्रिया पीकौ । केलि रुकमनी कृष्ण, कहो भोजन सघराई । परबतधरकी छाप, काबि मैं जहां तहां लाई। जाडौ संग्या पाइ के, जग की सब जड़ता हरी। कृष्णदास की चरचरी, सकल जगत मैं बिसतरी ॥२३४ संतदास को सेव हरि, प्राइ निवाई पाइ है॥ बिमलानंद प्रबोध, बंस उपज्यौ धर्म सीवां । प्रभु जन जांनि समान, दोइ बल गाये ग्रीवां । १. निवाज । २. टी. राग। ३. सुघुराई। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ ११९ सूर सट्टसि कहि, काव्य मरम कोऊ नहीं पायौ। रहसि भक्ति गुन रूप, जनन कर्मादिक भायौ। छपन भोग पद राग तें, पृथु नांई दुलराई है। संत दास को सेव हरि, आइ निवाई पाई है ॥२३५ टीका इंदव बास निवाइ सु गांव हरो मन, भोग छतीस प्रकार लगाये । छंद प्रीति सची जग मांहि दिखावत, सेव भलैं जगनाथजु पाये । - भूपहि रैंनि कह्यौ जन नाम स, संतहि के घर जैवत भाये। भक्ति अधीन प्रबोन महाजन, लाल रंगील जहां तहां गाये ॥३६० मूल छपै सूर मदनमोहन की, नाम शृंखला अति मिली ॥ स्यांमां स्याम उपास, गोपि रस ही को रसिया। राग रंग गुन टेर हुतौ, अगिलौ बृज बसिया। बरन्यौं मुक्षि सिंगार, सबद मैं अठ रस नांहीं। मुखि निकसत ही चल्यौ, गयौ द्वारावती मांहीं। जुमला अर्जुन द्रुमन ज्यूं, अजसुत की प्राग्या पिली। सूर मदनमोहन की, नाम शृखला प्रति मिली ॥२३६ मूल . मनहर __ मदनमोहन सूरदास पासि राख्यौ हरि प्राप, थाप्यौ नाम धरि ताको जस गाइये। जैसे मिसरी मैं बस बिकत महंगे मोल, रांम होत रांम बोले जो मैं भेद पाइये ॥ जैसे कृत कागद मैं उतम इलोक होत, - ताहि सुनि देखि सनमुख सिर नाइये। राघो कहै राज मधि राम जस गायौ नीकै, धनि करतार कबि छाप न छिपाइये ॥२३७ टोका नाम सु सूर खुले दिग कंजहु, रंग झिले पिय जीय ज्यवाये । मांमिल आप संडील लख्यौ, गुर बीस गुने दमरा पुरि लाये। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] राघवदास कृत भक्तमाल खांहि पुवा सु मदन-गुपाल जु, प्रेम पग्यौ छकरा पहुचाये। रैनि पहुंचत स्यांम कही अब, भोग करौ उठिके फिरि पाये ॥३६१ लै पद गावत भक्ति दिखावत, संतन की पनही रखवारौ। सीख लयौ किनि पारख चाहत, खोलि गयो दर राखि संभारौ। बैठि रह्यौ जब हाथि उठावत, आस भई सिधि मैं हु बिचारौ। मांहि गुसाईं बुलात न जावत, सेवन सौंपि गये जन सारौ ॥३६२ संपति संतन कौं सुखुवाय र, नांहि डरे जु निसंक रहे हैं। लैन खजानहि प्रात भगे निसि, पाथर घालि सिंदूख गये हैं। मेल्हि रुका धन साध गटक्कहु, यौं सटके हम आप कहे हैं। भूपति खौलि सिदूषहि देखत, कागद बांचि खुसी स भये हैं ॥३६३ लैन पठायहु मोहि रिझायहु भक्त लिख्यौ बन में तन डारयौ। टोडर फेरि कही धन खोवत, बांधि र त्यावहु मूढ़ हकारयौ। ल्यांत हजूर कही नृप दूरिहि, सौंपत दुष्टन कष्ट न धारयौ । साखि लिखी अकबर पिकी भल, जाहु वही धन तो परि वारयौ ॥३६४ साखि इक तम अंधियारी करै, सुन्नि दई पुनि ताहि । दश तम तें रक्षा करौ, दिनमनि अकबर साहि ? प्राइ बृदाबन माधुर मैं मन, सब्द कह्यौ सुनि सो रस रासै । जा दिन तें उचरयौ मुख तें सत जोजन जात बढ़ी जग प्यासै । सो र दिजै द्विज म्हैल चहै लहु, चैल' पहैल जुगल्ल प्रकासै। मोहन जू सिर इष्ट महा प्रभु, आश्चर्य नांहि दया अनयासै ।।३६५ छपै मूल संसार सलित निसतारने, नवका ये जन जानियौं । तिलोचन रहरिनाम, इधीर ४ाधारूं ५सोझा। ६सीवां ७सधनां आसाधर, डूंगर गुण गोझा । १०कासीस्वर अवधूत, ११नीरद्यौ १२राज १३पदारथ । १४ऊदा १५सोभू १६पदम, १७कृष्ण किंकर परिथ । १. कैल। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तुरदास कृत टीका सहित [ १२१ १८बिमलानंद राघौ कहै, १९रामदास परमानियो। संसार सलित निसतारने, नवका ये जन जानियौं ॥२३८ ___ सधनांजो की टीका इंदव है सधनां सु कसाई बनी अति, हेम कसोटी भली कस प्राई । छंद जीव हत न करै कुलचारहि, बेचत मांस हरी मति लाई। सालिगरांम न जांनत तोलत, संत भरै दिग सेन कराई। राति कही धरि आव वही' मम, गांन सुनौं उर रीझ्य सचाई ॥३६६ प्राइ दये अपराध करचौ हम, सेव करी हरि कौं नहीं भाई । रीझि रहे तुमपं सु करौ मन, नैंन भरे सुनि सुद्धि गमाई। धारि लये उर छोड़ि दयौ सब, श्री जगनाथ चलें उपजाई। संग चल्यौ इक संग भये जन, देखि सुगात स दूरि रहाई ॥३६७ मांगन गांव गये सु तिया इक, रूपहि देखि र रीझि परी है। राखि लये परसाद करांवन, सोइ रहे निस प्राइ खरी है। संग करौ गर काटि न होवत, कंठ कट्यौ पति तौ न डरी है। पागि कही अब काम नहीं मम, रोइ उठी इन नारि हरी है ॥३६८ आंमिल बूझत याहि हत्यौ हम, सोच परयौ कर काटिहि डारयो। हाथ कटें उठि पंथ चले हरि, पूरब पाप लख्यौ उर धारयौ। श्री जगनाथ पठी सुखपालहि, लै सधनांन चढौ सु बिचारयौ। नीठि चढ़े प्रभु पासि गये, सुपनां सम त्रास मिटी पन पारयौ ॥३६६ कासोस्वर अवधूत की टोका कासिस्वरै अवधूत बरै करि, प्रीति निलाचल मांहि बसे हैं। कृष्ण जु चैतनि प्रायस पाय र, आय बृदावन देखि लसे हैं। सेव लही प्रभु गोविंद देवहि, चाहत है मुख जीव नसे हैं। नित्य लड़ावत प्रेम बुड़ावत, पारहि पावत कौंन असे हैं ॥३७० मूल छपै भक्त भागवत धर्मरत, इते सन्यासी सर्ब सिरै ॥ १रांमचन्द्र कासुष्ट, दमोदर तीरथ गाई। रचितसुख टीकाकरी, भक्ति प्रधान बताई। १. उही। २. ग्यांन । ३. रोझि। ४. चढं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] राघवदास कृत भत्तमाल ३नरसिंघ पारन चन्द्रोदय, हरिभक्ति बखांनी। ४माधौ ५मदसूदन-सरस्वती गीता गांनी। ६जगदानन्द प्रबोधानन्द, रामभद्र भव-जल तिरै । भगत भागवत धर्मरत, इते सन्यासी सर्व सिरै ॥२३६ प्रबोधानन्दजो को टोका इंदव श्री परबोध अनन्द बड़े जन, चैतनिजू अति होत पियारे । छंद कृष्ण प्रिया निज केलि सु कंजन, कैत भये र करे द्रिग तारे। बास बृदावन ले परकासत, दे सुख भर्म र कर्म निवारे। ताहि सुने सुनि कोटि हजारन, रंग छयो बन 4' तन वारे ॥३७१ छौँ । भागवत अध्बके रतन, जे बिष्णुपुरी संग्रह कीया । भक्ति धर्म कहि मुखि, प्रान धर्म गवन बताया। , कहां पीतर कहां हेम, निषक परिकस जब प्राया। सुमन प्रेम फल संग, बेलि हरि कृपा दिखाई। सकल ग्रंथ करि मथन, रतनावली बनाई। राघो तेरह बिचन मैं, द्वादस स्कंद दिखावीया। भागवत अध्बके रतन, जे विष्णुपुरो संग्रह कीया ॥२४० बिष्णपुरोजो की टोका इंदव होत निलाचल मांहि महाप्रभु, चौं दिसि भक्तन भीर छई है। छंद बिष्णपुरी कहि बास बनारस, हो न मुकत्तिहु चाहि भई है। पत्र लिख्यौ प्रभु माल अमोलिक, दे पठवौ मम प्रीति नई है। भागवतं मथि काढ रतन्नहि, दांम दई पठि मुक्ति दई है ॥३७२ मूल छपै . ये मुक्ति भये माठा-पती, जन राघो जपि रामजी ॥ श्वालकृष्ण २बड़भरथ, गोविन्दो ४सोठी केसौ। ५मुकन्द खेम प्रहरिनाथ भीम, हरि घरि परवेसौ। हागदास १०गजपत्य ११देवाजू १२गोपीनाथहि । १३गजगोपाल जंजाल तज्यौ, १४ खेता हरि साथहि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १२३ श्रीजगन्नाथ रणछर रट, नर-नारांइरण घांमजी। ये मुक्ति भये माठा-पती, जन राघो जपि रामजी ॥२४१ श्री प्रतापरुद्र गजपति जु को टीका इदव रुद्रप्रताप कह्यौ गजपत्तिहि, भक्ति लई प्रभु तौहु न देखे । छंद कोटि उपाइ करे लस न्यासहु, हौ अकुलात किहूं मम पेखै । नृत्य करै जगनाथ रथै मुख, पाय परयौ नृप भाग बसेखे । लाय लयौ उर प्रेम बुड़े सर, भाव भयौ दुख देत निमेखै ॥३७३ ॥ इति श्री मध्वाचार्य संप्रदा ॥ मूल छपै श्री श्नाराइण ते २हंस, तिनं ३सनकादिक बोधे । उनकै ४नारद-रिषी, निवासाचार्य सोधे । ६विष्णाचार्य परसोतमां, बिलास संरूपा। १०माधव के ११बलिभद्र, १२कदमां १३स्यांम अनूपा। पुनि १४गोपाल १५कृपाचार्य, १६देवाचारिय भन । १७सुन्दरभट के १८वांवनभट, जिनके १९ब्रह्मभट गन । २०पद्माकर जग पद्मवत, २१श्रवनभट को जग श्रवस । २२नीबादित प्रादित समां, राघो ये द्वादस दस ॥२४२ जन राघो रत रांम सूं, यौँ हरिजन दीनदयाल है। यम १सनक २सनंदन सुमरि, ३सनातन ४सनतकुमारा। नींबादित बड़ महंत, सु तो उनका मत धारा। सुरति बिरति हरि भज्यों, करी नीको बिधि सेवा । इष्ट येक गोपाल, बड़ौ देवन को देवा। संप्रदाइ विधि सुतन की, सत' महंत दिगपाल है। जन राघो रत राम सूं, यों हरिजन दीनदयाल है ॥२४३ टीका इंदव नाम निबारक ख्यात भयौ यम, ग्राम जती यकता दल दीयो। छंद भोजन बेर लगी निसि आवत, जीमत ने पद बेद सु लीयो। १. संत। २. लली। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] राघवदास कृत भक्तमाल प्रांगन नीव दिखावत सूरज, पाय चुके निस ग्रवन कीयौ । देखि प्रभाव भयौ जग भावहु, नांव परयौ सुनिकें जन जीयो || ३७४ छपै मूल १ भूरीभट २माधौभट नोबादित के पाटि महंत, भूरीभट घट परसि, कला ३स्यांम ४राम ५गोपाल, बहुरि ६बलिभद्र गोपीनाथ ८कैसौ जु, तास के हगंगल १० कसमीरी केसव जासकै, ११ श्रीभट श्रीभट कै १२ हरिव्यास, देबी को मन हरि लईयौ । १३ गुपाल १४ सोभू १५परसरांम, जन बोहिथ रिषीकेस । राघो दीरघ सिष इते, श्रर सेवग सर्ब देस ॥२४४ कसमोरी करता कीयौ, श्री केसौभट सोभा सरस ॥ मनुखां मांही मुख्य ताप, त्रिय पाप नसावन । कर परसी हरि भक्ति, बिमुख मारग द्रुमटा वन । परचो प्रचुर दिखाय', तुरक मधुपुरी हराये । काजी दीये कढ़ाई, मारि जमनां डरवाये । यह कथा सगला ? जग मैं प्रगट, ह्वं पुनीत वाकं दरस । कसमीरी करता कोयौ, श्री केसौभट सोभा सरस ॥२४५ १. विखास । २. सकल । के सौभटजी की टोका सुखदाई | जग कीरति छाई ।। ३७५ इंदव पंडित जीति करोस बिजै दिग, हारि गये सब भीत छंद है सुखपाल चडै न बाजहु, प्रत भये नदियां पुर ब्राह्मन संक महाप्रभु लेखत, जावत देव धुनी ब्राजि गये ढिग है नृमता मुखि, नैक सुनें बालन मांहि पढौ र गढ़ौ बड़, पूछि कहूंस सुभावहि री | गंग सरूप कहीं जु लहौ द्रिग, सौक शलोक करे सुनि भीजे । कंठि करचौ इक पाठ सुनावत, देहु लगाइ दया अब कीजे । मांनि अचंभ कही किम सीखिहु, आप मयात यह सुन लीजे ॥ ३७६ Jain Educationa International ३. पूछि कहूं से । भारी । धारी ॥ For Personal and Private Use Only भद्रकर । भटबर । भययौ । उपाई । भाई । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १२५ खोलि कहो इस दूषन भूषन, मांनि कही दुख दोष कहां हैं । का प्रबन्ध रहै कित लेसहु, प्रायस द्यौसु दिखाइ जहां हैं । भाखि बतावत औगुन सौगुन, धांम गये कहि प्रात पहां हैं । सारद ध्यान करयौ तब प्रावत, जोति करी जग बाल बहां हैं ॥ ३७७ सारद बोलि कही वह ईसुर, मांन कितौ उन सूं बतरांऊं । ईस मिले तब होत सुखी सुनि, आत महाप्रभु कै चलि पांऊं । आपस मैं रिदास करी जुग, भक्ति करौ अब नांहि हरांऊं । धारि लई उर भीरहु छाड़त होत नई इक ह्वां फिर जांऊ ||३७८ भट्ट सुनी विसरां तजि ' वनहि, द्वार परे इक जंत्र धरयो हैं । तास तर निकसै नर भूलि र, जाइ गहै खतना हु कंरयौ है । साथि स हंस लये सिष प्रावत, तुर्कन को पट जोर हरचौ है । मिल सौं कहि सोनति नांहिं न देखि दये जल क्रोध भरौ है ||३७ छपै १. तहि । मूल 3 श्रीभट सुभट ॥ २४६ प्रगट्यौ परमात्म परस हरि, भक्ति करन श्रीभट सुभट ॥ संतन कौं सुख-करन, हरन संदेह मधुर सुर । सुन्दर भाव सुसील देखि परसन्न प्रेम उर । संथ कबि उदार हेत, निति भजन करावत । उदै भयौ ससि सुजस, तास तम ताप नसावत । सिर राखे राधारवन, दूरि कीये दुबध्या कपट । प्रगट्यौ परमात्म परसि हरि, भक्ति करन श्रीभट गुर परसाद तें, दुरगा धर चर की सिख भई, खेचरी कथा सकल विख्यात, साध सर्ब संतन के समूह, सदा ही साथि ज्यौं जोगेसुर बीचि, जनक सोभा प्रति हरि ब्यास तेजस्वि जानि के, परिजा सर्व पांवन परी । श्रीभट गुर परसाद तें, दुरगा कौ दक्षत Jain Educationa International २. नसि । ३. समि । कूं दक्षत करी ॥ प्रदभूत मांनें । महिमा जांनें । रहावे । पावै । For Personal and Private Use Only करी ॥२४७ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] राघवदास कृत भक्तमाल हरि ब्यासजी की टीका इंदव हो चटं थावल गांव उपेंबन, राग भयौ इत पाक बनांवें । छंद मंढ द्रुगाव कराकिनि मारिहु, देखि गलांनि भई नहि पावै । भूख सही निसि मात हुई बसि, देह धरी नइ आइ लखांवें। भोग करौ हरि कौंन करै परि, माफ करौ कर सीस धरावें ॥३८० सिष करी र बरी नगरी झट, जाप करयौ सिरदार बड़े हैं। बैठि कही उर दास भई हरि, ब्यास परौ पग मारि गड़े हैं । भृत्य भये सब पाय नये तन, पाप गये भव पार कढे हैं । द्यौस रहे बहु आइ सु पञ्चहि, है सरधा हरि भक्ति बढे हैं ॥३८१ छपे अजमेरा के प्रादी, श्री परसरांम पावन कीया ॥ २५ । मलियाढिग बहु वृक्ष, बात तूं चंदन कोनां । है हरि नांव मसाल, अंधेरा अघ हरि लीन्हां। भक्ति नारदी भजन, कथा सुनतें मन राजो। श्रीभट पुनि हरिब्यास, कृपा संत संगति साजी। भगवंत नाम औषदि पिवाय, रोग दोष गत करि दीया। अजमेरा के प्रादिनी, श्री परसरांम पावन कीया ॥२४८ मल इंदव करुणां जरणां सत सील दया, प्रसरांम यौं राम रजा' मैं रह्यो। बंद कहणी रहणी सरसौ परसौं, निश्चै दिन-राति यौं राम कह्यौ। ममता तजि के समता संग लै, भ्रम छाडि सबै दृढ़ ग्यांन गह्यो। लीन्हौ महा मथि नांव नृम्मल, राघो तज्यौ कृत काज मह्यौ ॥२४६ टीका इंदव राज महंत गयौ इक देखन, वोलि कह्यौ यह साखि बिचारौ। छंद ऊठि चले नग जात पबै जुग', बैठि गुफा हरि नांव उचारौ । नाइक प्राइ चढ़ावत संपति, और दई सुखपाल निहारौ। आइ परचौ पगि भाव न जांनत, भाव भयौ इन कौनहि सारौ ॥३८८ १. रजो। २. जुम। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छंद चतुरदास कृत टीका सहित ।। १२० सोभूरांमजो कौ-मूल मनहर मिलत कमाल प्रतिपाल भये पायो भेद, पल में सकल सांसौ मेट्यौ सोभूरांम को। रोम रोम लागी धुनि यौं भयौ थकित मुनि, ऐसौ प्यालौ दयौ उन ऐन प्रांठौं जाम को। गगन मगन चित पायो हैं बिग्यांन बित, ऐसै भयौ निपट करतार जी के काम को। राघो कहै ऐसे रंग लागि गयौ जाकै अंग, है गयौ पटल दूरि चक्षन सू चांम को ॥२५० चतरौ नागौ निस दिवस, भक्ति करत पन पेम सौं॥ मथुरा मंडल अटन, भक्त धांमन के दरसन । दे तन धन घर बांम, कोये गुरदेवहि परसन । मिष्ट-वचन सुठ सील, संत महंतन कौं सेवत । उत्म धर्म आराध, जुक्ति करि हरि गुन लेवत । महिमां साध सबै कर, मगन भयो निति नेम सौं। चतुरौ नागौ निसि दिवस, भक्ति करत पन प्रेम सौं ॥२५१ इंदव बृजभूमि सूं नेह रमै निहचे, चतरौ नग रूप अनूप है नागौ। . छंद सनकादिक भाव चुकै नहि दाव भक्ति की नांव रहै चढ़ियौं सुख स्यंध समागो। हरि सार अपार जप रसनां दिन-राति प्रखंड रहै लिव लागौ । राघो कहै घर प्रादि गह्यौ जिनि, छाड्यो नहीं प्रति ही बड़भागौ ॥२५२ टोका इंदव ग्रेह पधार रहें गुरदेवहि, सेव करै अति साच दिखावै । छंद रूपवती तिय टैल लगावत, स्वांमि कहै स करौ हु सिखावै । देखि सनेह र भोग लख्यौ निति, देत बधू घर संपति भावै। धांम चढाय प्रणाम करी सुख, पाय चले बृजकू उर चावै ॥३८३ गोबिंदचंद प्रभात नवै पुनि, केसव भोग समै नंद ग्रांमैं । गोवरधन्न प्रियादह है करि, आत बृदावन चातुर जांमैं । पांवन कुण्ड रहे दिन तीन स, भूख सही पय ल्यावत स्यांमैं । मांगत है जल पात नहि पल, राति कही यह मैं करि कांमै २८४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ राघवदास कृत भक्तमाल काम नहीं जल दूध पिवौ भल, ल्यौ बृज मैं प्रभु प्राइस दीनी। ये बृज के जन लेव न देत न, तौ बरजै नहि यौं सुनि लीन्ही। ल्यावत धांमन धांमन सौं फिरि, स्यांम कही परितीतहु चोन्हीं। जाइ छिपावत हेरहि ल्यावत, बात सबै जन की रसभीनीं ॥३८५ मूल छपे सोभा सोभूरांम का, भ्रातां को सुनि यौँ सबै ॥ माधौदास महंत, भक्ति जग सक्ति दिखाई। प्राइस सूं संबादि, अग्नि पैं चदरि मगाई। संतदास सुठ सील, साच सुमरण को सागर । साध सेव करि निपुन, कर्म भ्रम छेके कागर । भगवत भजन बधांवन, प्रालस नांहि कीयौ कब । सोभा सोभूरांम का, भ्रातां की सुनियौं सबै ॥२५२ प्रात्मारांम कन्ह र दयाल, बूड़े बिपुल बिराजही ॥ रहत सहनता गहर, मिहर गुन सुभ के प्रागर । अडिग जन गोपाल, धारि दुजकुल मै नागर । संत भू में सकल मांनि, उर प्रीति हुलास । ' बसतर भोजन पान, मान दे सब प्रास्वास। सिष सुठ सोभूरांम का', पाप बन्या पुनि पाजही। । आत्माराम कन्ह र दयाल, बूड़े बिपुल बिराजहीं ॥२५३ वृंदावन बसि बसि कीयौ जिन, जिन जन मन प्रापरणौँ ॥ सोई सर्ब संत बखांरिण, प्रांणि अंतरगत मन कौं। सम दम सोधि सरीर, गिरा पूछहु गुरजन कौं। प्राचारिज मुनि मिश्र, भटहु हरिबंस व्यास भरिए । गंगल गदाधर चत्रभुज, अवर संतन सर्बस गिरिण । राघो रटि बिरकत गृही, उर हरि भक्ति उद्यापरणौ। बृदाबन बसि बसि कीयो जिन, जिन जन मन आपणौ ॥२५४ यौं भक्ति सीर सकृत कौउ, जांनत हित-हरिबंस की ॥ राखत चरण प्रधान, आप श्रीराधाजी के । स्यांमा स्यांम व्यहार, कुंज मध साधे नीके । १. को। २. सोधे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १२९ सेवत महाप्रसाद, सदा ब्रत तप नहीं माने। बिधि निषेध भ्रम सकल, छाडि उत्म धर्म ठाने। .. राघो व्यास बिचित्र सुत करनो पालत हंस की। भक्ति सीर सकृत कोउ, जांनत हितहरिबंस की ॥२५५ टोका हरिबंसजो की इंदव आत भये तजि धाम भजे जुग, विप्र भलै हरि प्राइस दीनी। छंद तेरि सुता जुग दै हरिबंसहि, नाम कहौ मम बंस ब्रधीनी। संतन सेव बनै इनकै घर, दुष्ट न ह गति यौं सुनि लीनो । मांनि गह्यौ ग्रह आप लह्यौ सुख, जाइ कही किम सो रस भीनीं ॥३८६ लाल कही मम पूजन धारहु, कुंज बिलास कहौं रस नीको । सो बिसतारत नैन लख्यौ सुख, बाम लयौ पक्षि जीवनि जी को। गांन' करै रसपांन बरै उर, ध्यान धरै सु सदा प्रिया पी को। है गुन बौत सरूप कहै किम, मोद लहै मन और नहीं कौ ॥३८७ रीति लहै हितजू कि बड़ी पट, कृष्ण पछैरू कहै मुखि राधा। भाव विकट सुभाव न होवत, आप दया करि देत अराधा । दूरि करे बिधि और निषेधहि, दंपति है उर के उह साधा। दैन सबै सुख दास चरित्रहु, जानत है उनकै नहि बाधा ॥३८८ मूल छपै यौं नांव न बिसरै नैंक हूं, हरिबंस गुसांई हरि ह्रिदै ॥ ता सुत ब्यास बिचित्र, बड़ौ परमारथ कोन्हौ । भरम करम सूं रहत, भक्ति को स्वारथ लीन्हौं। पद गावत पापी हसे, करमिष्टी छिरके कांन । नाम कबीर रैदास कौं, ब्यास दीयौ तहां मांन । जन राघो कारनि रांम के, जन पन तजै न अपनी श्रिदै । यौं नांव न बिसरै नैक हूं, हरिबंस गुसांईं हरि ह्रिदै ॥२५६ ब्यास गुसांई विमल चित, बांनां सूं अतिस बिनै ॥ चौबीसौं अवतार, अधिक करि साध बिसेखे। सपतदीप मधि संत, तिते सर्व गुर करि लेखे । १. ग्यांनी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] राघवदास कृत भक्तमाल तोरचौ । बन्यौं महत समाज, तहां नृषि नौ गुन नंपर गुह्यौ निसंक, कांन्ह के चरन चहौरयौ । इम राघो रीति बड़ेन की, पन के तांई दें श्रि । ब्यास गुसांईं बिमलचित, बांनां सूं प्रतिसै बिनें ॥ २५७ टीका ब्यास जू गुसांईं को इदव प्रत भये ग्रह छाड़ि बृन्दाबन, हेत इसौ रन त्यागत खीजै । छंद भूप चलावत आप न भावत, सेव किसोरहु मैं मन भीजै । पाग जरीन रहै सिर चीकन, बांधन द्यौ नाहि आप बधो । कुंज गये उठि प्रत भई सुधि मंजु रह्यौ बंधि क्यूं मम री ॥ ३८६ साधन साथि प्रसाद करें जन, घालत है सुतिया परबीनी । पै बताइ थरें निज डारत, कोप करयौ पति पोषत चीनी । दूरि करी तब रोइ मरी दिन, तीनहु भूख सही तन खीनी । कँत सबै भरि दंड अब सब, भूख न देरि करी जुरे अधीनी ॥ ३६० ब्याह सुताहि उछाह करयौ, पकवांन सबै बर आप कराये । संतन यादि करे मति लावत, भाव सहेतहु भोग लगाये | यात भये जन बेगि बुलावत मोटन बांधि र कुंज पठाये। बस दई द्विज भक्ति करौ चिरि, यां धरि संपट साध बसाये || ३६१ रास रच्यो सर पिय प्यारि ये, रंग बढ्यौ किम जात सुनायो । प्यारि लई गति दांमनि-सी दुति, ह्वे चकचौधिरु मंडल छायो । नूपर टूटि गिरयौ मन सोचत, तोरि जनेऊ करौ उहि भायौ । कैत सबै यह कांम सुप्रावत, बोझ सह्यौ निति सो फल पायौ ॥ ३६२ भक्तन इष्ट सुन्यौं इक म्हंतहु, आवत पारख कौं जन भीरा । भूख जनावत ब्यास सुनावत, आप सुनी झट ल्यावत मांनत नांहि धरी मन संकहु, पात उठे मनु होवत पीरा । पातरि लेवत सीत दयौ मम, और भजो पग ले द्रिग नीरा ॥३६३ तीन भये सुत बांटित है बित. पूजन येकन धन्न धरौ है । छाप रुस्यांम धरी बिंदनी इक, रीति निहारि र सौच परयौ है । येक किसोर लये इक नै बसु, दास किसोर तिलक करयौ है । छाप दई हरिदास सु रास करयौ है, ललितादिक चित्त हरयौ है || ३६४ धीरा । १. गुह । २. सु । ३. गिह्यौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १३१ मूल छौ दास गदाधर गिरधरन, गाये ग्यांनी बिसद गिर । लाल बिहारी स्यांम, सुमरि निसबासुर राजी। पूजा प्रेम पियास, भक्ति सुख सागर सांजी। संतन सेती हेत, देत तन मन धन सरबस । उर अंतर अति गूझ, बदन बरनत निरमल जस। इकतार ऐक हरि-भक्ति को, और नवावत नांहि सिर । दास गदाधर गिरधरन, गाये ग्यांनी बिसद गिर ॥२५८ गदाधरदासजी की टोका इंदव वाग बुरहानपुरै ढिग बैठिक, त्यागि घरै हरि सूं अनुरागे । छंद जात नहीं पुर लोग निहौरत, मांनि लयौ सुख और न पागे। मेह भयौ तन भीजि गये कफ, स्यांम कहैन स आय न लागे। साहि कही प्रभु ल्याव उन्है इत, मन्दिर दे करवाय सभागे ॥३९५ ल्यावत नीठि कही हरि प्राइस, मन्दिर ऊँच कराय उदारै । लाल बिहारिहु स्यांम सथापन, रूप मनौहर आप निहारै। संतन सेवत प्रीति लगाय र, अंन न राखत पांन सवारै। सामगरी कुछि राखि रसोयहु, आत भये जन ज्यांय पियारै ॥३९६ दास कहै प्रभु लोग' रख्यौ कछु, काढ़ करौ परभातिहि आवै । संत जिमाइ दये करि भोजन, पाय सुखी सब वै जस गावै। भूख लगी हरि जांम गई मुरि, कोप करै हम गैल छुटावै । प्राय धरे सत दो रुपया किन, लै सिरि मारि कही गुर तावै ॥३९७ साह डरयो मति मो परि कोपत, भक्त खुसी करि बात जनाई। होइ मगन्न जितौ ग्रन लागत, देत भयौ जन प्रीति बधाई। जात भये मथुरा दिन रै करि, पीत रसै बृज माधुरताई। लाल लंडावत साध रिझावत, गाय कहे गुन बुधि लगाई ॥३९८ छपै यौं वो हरिबंस प्रताप तै, चहु दिसि परगट चतुरभुज ॥ भिन भिन भक्ति प्रताप, भक्तबछल जस गायौ।. १. भोग। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ] राघवदास कृत भक्तमाल खीर नीर निखारि, सुगम करि श्रब कौं पायौ । अनन्य धर्म के कबित, अन अमृत के प्याले। . मुरलीधर की छाप, छिप नहीं श्रबत चाले। जन राघव बल भजन के, गौंड देस कियौ धर्म-धुज । यौं हूवो हरिबंस प्रताप तें, चहुं दिसि परगट चतुरभुज ॥२५६ टीका इंदत्र गौंडहु देस भगत्ति नहीं अणु, माणस मारि र मात चढावै । छंद जाइ जहां' उन मंत्र सुनावत, दे सुपनौं सब गांव जगावै । धाय करौ तुम चतुरभुजें गुर, नां करिहौ मरिहौ पुर आवें। सिष्ष किये धरि स्वांग जिये उन, पाव लिये बहुत सुख पावै ॥३६६ भोग लगावत साध लड़ावत, भागवतं कहि भक्ति बधावै। लै धन चोर चल्यौ उन संगहि, प्रात धनी जन मैं छिपि जावै। दक्षत दूसर जोनि भई सुनि, स्वांमिन 4 डरि कान फूकावै । प्रांनि गह्यौ कहि मैं न लयौ अब, हाथि दई दिबि नांहीं जरावै ॥४०० भूपति झूठ लखी कहि मारहु, संतन आय कलंक दयौ है। मारन जात भये न सके सहि, नीर बहै द्रिग कैत लयौ है। भूप कहै तुम साच तजौ जिन२, स्वामिन को परताप भयौ है । राज सुनी महिमां सु हुवो सिष, पेम-सन्यौ उर भीजि गयौ है ॥४०१ खेत पक्यौ लखि साध सु तोरत, सूकि मुखै रखवार पुकारे। नांव कह्यौ सुनियो सु हमारहि, आप सुनी जब होत सुखारे। लै परसाद गये जन सांम्हन, मो अपनाइ र आज उधारे। धांम सु भोजन भांतिन भांतिन, ज्यांत भये चरचा सु उचारे ॥४०२ लग्यौ3 लटेरा लटिकि के, केसौ केवल राम सौं ॥ कबित सवैईया गीत, भाखि भगवंत रिझायौ। सुरसुरानन्द परताप, पाप हरि हिरदै पायौ । जथा-जोगि जस गाय, लोक परलोक सुधारयौ । परसरांम-सुत सरस, सकल घट ब्रह्म बिचारचौ। १. तहां। २. जन। ३. लगौं, लयो। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित मनहर छंद छपै १. क गाये । राति दिवस राघौ कहै, धरम न चूकौ लग्यौ लटेरा लटिकि कैं, केसौ केवल गोपी कलि मनु श्रवतरी, प्रमानंद भयौ प्रेम बाल श्रवसथा तीन, गोपि गुण परगट नहीं श्रचम्भा कोइ, श्रादि को सखा राति दिवस सब रोम उठे, जल बहै द्विगन तें । कृष्ण सोभितन गलित गिरा, गद-गद सुमगन तैं । संग्या सारंगी कहौ', सुनत कांन श्रवे सकर । गोपि कलि मनु अवतरी, प्रमांनंद भयो प्रेम पर ॥ २६१ सुहाये । इंद सागर सूर भई सलिता बुधि, बोध छंद प्रेम कौ प्रेम बढ्यौ उर श्रन्तर, यौं धांम सूं । रांम Jain Educationa International [ १३३ For Personal and Private Use Only सूं ॥ २६० पर ॥ प्रेम कौ प्रवाह सुरण सागर गिरा कौ पुंज, चोज कौं चतुर प्रमांनंद प्रबीन है । गावत गुनांनबाद गोबिंद गोपाल हरि, राम नांम हिरदै घरि भयौ लिवलीन है । बीनती बिकट नट नृति करें राति-दिन, नाचत निराट दीनांनाथ श्रागें दीन है । राघौ कहै बिरहै मिलाप सूं मिलाप कीन्हौं, बिधनां सूं बेध्यौ प्रांत जैसे जल मींन है ॥२६२ सुरात सूर की काबि कबि, सिर धुने र धनि धनि करें ॥ रांमांइण भागवत, भक्ति दसधा सुरिण सारी । परसताव को पुंज, चोज चुरिण काढ़ी न्यारी । सकल पराकृत संसकृत, सिंध सम मथ्यौ सवायौ । करूणां प्रेम ब्रिवोग, श्रादि अनुक्रम सौं गायौ । बालमीक-कृत ब्यास-कृत, जन राघो पद पटतर धरं । सुनत सूर की काबि कबि, सिर धुने र धनि धनि करें ॥ २६३ निरोध लोयो जिन पांणी । उभली मुख ह्वे प्रति बारणी । जैसे सुण्य समयौ तहां तैसौई, सोई निबाह कीयौ जहां जांरगी । राघो कहै सुरसति बर बारि ज्यूं, यौं सर्ब चोज सबद मैं प्रांरगी ॥ २६४ २. गुरण । ३. खौं । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] राघवदास कृत भक्तमाल छपै. बिलमंगल राघो कहै, स्यांम कृपा को परबिदत ॥ उक्ति जुक्ति पुनि चोज, कबित कोये करूणांमृत । संत जनन प्राधार उर, जहां रावल सुभ कृत। प्रभु कर स्वैकर देई, छाय धरि के छुटवाये । सबल गिरणौंगौं तब, जब हिरदा ते जाये। चितामनि उपदेस करि, गुर सोमगिरी धारे सदित । बिलमंगल राघो कहै, स्याम कृपा को परबिदत ॥२६५ टीका इंदव ब्राह्मन बुद्ध रहै कृसनां-तटि, पाइ चिंतामनि बुद्धि बही है। छद लाज तजी हिय राज भयौ उस, रैनि दिनै उत जात सही है। तात कनागत साधि रह्यौ चित, सेस रहैं दिन चालत ही है । नीर चड्यौ सलिता निसि नाव न, हेत घणौ दुःख पाइ कही है ।।४०३ तार परा नहि देह रहै परि, मित्र मिलै यह बात भली है। जकि परयौ कछू नांहि डर्यो मन, बाहि कर्यो कित पात' चली है। पार न पावत डूबत जावत, प्रातमड़ा चढि नांवड़ली है। जाइ लग्यौ तटि पाय चल्यौ झटि, पाट जड़े लखि आँखि खुली है ॥४०४ सांप लटक्कि रह्यौ लखि लाव तूं, मूंठिनि सू छति जाइ चढ्यौ जू । ऊपर के २ पट लागि रहे फिरि, कूदि परयौ ग्रत मांहि गड्यौ जू । जागि उठी करि दीपक देखत, है बिलमंगल नांहि पड्यौ जू । नीर नहावत चीर उठावत, हा किम आवत तोइ बढ्यौ जू ।।४०५ नाव पठावत लाव भुलावत, सो मन मैं हम जांनि लई है। चालि दिखाइ भई कछु स्वांनिहि, देखि भवंगम पाहि दई है। ज्यूं मन मांस र चांम लग्यौ मम, यौँ हरि लाइ सयांनपई है। प्रात भयें हम तौ भजि हैं प्रभु, तो मन की अब तू जनई है ।।४०६ नैन खुले हरि रूपहि चाहत, रंग उमंग सु अंग न मावै । बीन बजावत स्यांम रिझावत, कोटि बिर्ष सुख चित्त न आवै। बीति गई निसि प्रोउ भये रसि, मारग आपन आपन जावै। सोमगिरी अभिरांम करे गुर, कौंन कहै उपमां उर भावै ॥ ४०७ १. मोन। २. को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १३५ येक बरस्स रहे रस-सागर, लीन भये सु सिलोक पढे हैं। ... जात बृदाबन देखन कू मन, मारग मैं इक ठौर रढे हैं। सोर सुन्यौ बड़ आप गये सर, न्हात तिया लखि नैन गड़े हैं। ऊठि चली वह लार लगे यह, खैर धसी घर द्वार खड़े है ।।४०८ आत भयो पति देखि बड़े जन, क्यूर खड़े तिरिया सु जनाई। आप कही घर पांवन कीजिय, लै चरणांमृत यौं मन आई। . मांहि गये मन प्रारति मेटन, गांवन रीति जु देत चिताई। अंग बनाइ कही तिय सुं पति, संत रिझाइ हरी सुखदाई ॥४०॥ अंग बनाइ चली कर थारहु, ऊँच अटा जित है अनुरागी। झंझन जाइ खरी कर जोरि रु, देखत ही मति नून दु भागी। . सूइ मंगावत वै फिरि ल्यावत, फेरि' दई अखियां यह लागी। आंनि कही पति सं सब बातन, जाइ परयौ पगि सो बड़भागी ॥४१० पाप करयौ हम संत दुखावत, हो तुम संत हमैं अपराधी। ब्याज रहौ हम सेव करें तुम, सेव करी सबही बिधि साधी । ऊठि चले द्विग भूत छुड़ाइ र, खेम भयौ उर प्रांखि न लाधी। जाइ बसे बनि भूख लगी पनि, आप जिमावत जांनि अराधी ॥४११ हाथ गहाइ चले तर के तरि, जोर छुड़ात न छोड़त नीकौ । जोर करै नहि वोउ हरै कर, लेत छुड़ाइ न छूटत ही को। यौं करि आइ लयौ सु बृदाबन, पीतर सौं जग लागत फीको । लाल बिहारिहु आइ मिले, मुरलो बजई यह भावत जी कौ ॥४११ नैन खुले रवि ऊगत अंबुज, देखि सरूपहि चाहि भई है। बंसि सुनि रस मिष्ट सुरै मद, कान भरचौ मुख भास लई है। जांनि प्रताप चितामनि को मन, जैति चिंतामनि आदि दई है। गृथ करची करुणांमृत पंथज, जुगल्ल कयौ रसरासि-मई है ॥४१२ लाल मिले बन मांहि सुनी चलि, पात चिंतामनि हेत जनायो। मांन दयो उठि दूध रु भातहि, देत भयो हरि ताहि पठायौ। लेत नहीं तुम कौं पठयौ प्रभु, नांथ हमैं कर दे तब भायौ । पात नहीं जुग देखत कौतुग, स्यांम जब इक और खिनायौ ॥४१३ . ___ इति नीबादति संप्रदा संपूरण १. फोरि। २. जोति। ३. सिनायो। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६] राघवदास कृत भक्तमाल व अथ षट-दरसन बरनन प्रथम सन्यासी बरनन छपै यम दत्तात्रे मत धारि उर, संक्राचार्य प्रति दिये ॥ तिनकै सिष भये चतुर, सरूपा पद्माचारय । निरा टोटका सुमरि, गाइ पुनि' उदरा पारय । इनते है दस नाम, तीरथ प्राश्रम बन पारन । सागर परबत गिरी, सरस्वती भारथ कारन । पुरी जती पर जोति गणि, जन राघव कतहु न छिपे । दत्तात्रे मत धारि उर, संक्राचार्य प्रति दिये ॥२६६ मोह न द्रोह मम्मत न माया रम्मत सुभाया, __जु असे भये दत्त-देव दिगंबर। प्रजोनी प्रसंग नहीं तन भंगन, प्रांन तरंग जु सोभत है तप तेज कौ संवर। लीयो तत छांरिग महाजन जांरिण, धाये परवांरिण जुधारे पचीस गुरू धर अंबर । राघो कहै जद प्राइ मिले जदि, यौं बदि छाड़ि है ग्यांन कयंबर ॥२६७ उत्म धर्म सथापन, संक्राचारय परगटे ॥ पाखंडी अनीसुरी, अरू जैन कुतरकी। वोधमती उद-सृखली, बिमुखी नर नरकी। अमरादिक सर्व जीति के, सति-मारग लाये । ईस्वर को प्रोतार जांनि हरि जन हरखाये। राघो भक्ति उदै किरणि, अग्यांनी तम भ्रम घटे । उत्म धरम सथापन, संक्राचारय परगटे ॥२६८ इंदव रुद्र को रूप अनूप महा जनम्यौं, गुजरात मैं संकराचारिय। वंद दत्त सूमिल्लि के मत्त ले इत्त नौं, नप प्रमोधि कीये कुलि पारय । :जैन सौं जीते हैं बैन बिज भइ, राम भगत्ति थपी बिसतारय । राघो कहै तत तारिग मंत्र सू, दूरि कीयो सब को भ्रम भारय ॥२६९ १. युति उदरी। २. जातिके। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १३० टीका संकराचार्य जू की रांम समुख्य किये विमुखी नर, लै जग में प्रभुता बिसतारी। जैन-जती सब फैलि रहे जग, हाथि न आवत वात बिचारी। देह तजी नृप के तन पैसत, ग्रंथ दयौ करि मोह निवारी। सिष्यन सू कही देह अवेसहि, देखि सुनावह आत तयारी ॥४१४ जांनि अवेसहि सिख्य गये महि, मोहमुदग्गर ग्रंथ उचारयो। कान परयौ तन त्यागि बरे निज, दास नये अपनौ पन पारयो। जीति जती नृप पैं चढ़ि जावत, बैठि कनै च जमायक डारयौ। नीर चढ्यौ वहु नाव दिखावत, बेगि चढ़ौ नहीं बूड़त धारयौ ॥४१५ संकर कैत चढाइ जती इन, भूप चढ़ात गिरे स मरे हैं। पाइ परयौ नृप होत खुसी मन, जौउ कहे ध्रम सोउ धरे हैं। भक्ति सथापि र ज्ञान प्रकासत, तदै निरबेद हि भाव भरे हैं। रीति भली करि साध लही उर, हेत हरी गुन रूप करे हैं ।।४१६ मूल उतकष्ट-धर्म भागवत मैं, श्रीधर नै बरनन करयौ ॥ प्रज्ञांनी तृय कांड मिले, सब कोई भाखे । ज्ञांनी पर करमिष्ट, अरथ को अनरथ दाखै । राखी भक्ति प्रधान, करी टीका बिसतीरन । अगम निगम अबिरूद्ध, बहुरि भारत की सीरन । किरपा परमानंद की, माधोजी ऊपरि धरयो। उतकष्ट-धरम भागवत मै, श्रीधर नै वरनन करयौ ॥२७० श्रीधरजू की टोका इंदव पंडित ब्याज रहे सु बड़े बड़, भागवतं करि टिप्पण रीजै। छंद होत बिचार पुरी हु बनारस, जो सबके मन भाइ लिखीजै। तो परमांन करै बिंद्र माधव, बात भली धरि मंदिर दीजे। जाइ धरे हरि हाथन सू करि, दै सरबोपर चालत धीजे ॥४१७ मल छपै ये भक्त भागवत धरम रत, इते सन्यासी सर्व सिर । रामचंद्रिका सुष्ट, १दमोदर तीरथ गाई । २चितसुख टीका करी, भक्ति प्रधान दिखाई। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ ] राघवदास कृत भक्तमाल : ३नरस्यंघ पारन चंद्रोदय, हरि भक्ति वखांनी । । ४माधव ५मदसूदन-सरस्वती गीता गांनी। जगदानंद प्रबोधानंद, दरांमभद्र भवजल तिर। ये भक्त भागवत धरम रत, इते. सन्यासी सब सिरै ॥२७१ ये सरल सिरोमनि सुधर्मी, इते सन्यासी भक्ति पखि ॥ । माधौ मोह बबेक कीयो, भिन भिन करि न्यारी। : मधुसूदनसरस्वती, मांनं मद तज्यौ पसारौ। ... प्रबोधानन्द रत ब्रह्म, रामभद्र राम रच्यो है। । जगदानंद जगदीस भजि, जे जनम मरणादि बच्यौ है । श्रीधर बिष्णपुरी बिचित्र, जन राघौ अन तजि दुगध भखि । से सरल सिरोमनि सुधरमी, इते सन्यासी भगति पखि ॥२७२ इन मन वच क्रम राघौ कहै, परगट परमातम भजे ॥ श्नृस्यंघभारती ग्यांन, ध्यान धुंनि भलो विचारी। २मुकंदभारथी भक्ति करी, बड़ परचाधारी। है ३सुमेरगिर साच, सील मैं वाहरवांनी'। ४प्रमानंद गिर गिरा, सपूर्ण पूरौ ग्यांनी। ५रामाश्रम जग-जोति ६बन, मन जीयो माया लजे। इन मन बच क्रम राघौ कहै, परगट परमातम भजे ॥२७३ ॥ इति सन्यासी दरसन । मनहर चंद अथ जोगो दरसन ॐकारे आदिनाथ उदैनाथ उतपति, ऊमांपति स्यंभू सति तन मन जित है। संतनाथ बिरंचि संतोषनाथ बिष्णुजी, जगनाथ गणपति गिरा को दाता नित है। अचल अचंभेनाथ मगन मछिद्रनाथ, गोरख अनंत ग्यांन मूरति सु बित है। राघो रक्षपाल नऊ नाथ रटि राति दिन, जिनको अजीत अबिनासी मधि चित है ॥२७४ १. बारहवांनी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १३९ छपै छंद अब आदिनाथ २माछिद्र (नाथ),गोरख ४चरपढ़'नाथय । ५धर्मनाथ बुद्धिनाथ, ७सिद्धजी कंथड़ ८साथय । हबिदनाथ श्चौरंग, जलंध्री सतीकरणेरी। ४भडंग ५मीडकोपाव, धुंधलीमल धर फेरी। ७घोड़ाचोली बालगुदाई, सबकौं नाऊं माथ । पहल कबित सिध अष्ट है, प्रथम जांनि नव नाथ ॥२७५ १चूणकर २नेतीनाथ, ३बिप्र ४हाली ५हरताली। ६बालनाथ औघड़, माई हनरवै कौं न्हाली। १०सुरतिनाथ ११भरथरी,१२गोपीचंद १३अाजू १४बाजू । १५कान्हिपाव १६अजैपाल, कियो सब काजू। . १७सिधगरीब १८देवलबैराग, १९चत्रनाथ २०प्रथीनाथ अब। २१सुकलहंस २२रावल २३पगल, राघव के सिरताज सब ॥२७६ महादेव मन जीत ते, नाथ मछिदर अवतरे ॥ अष्टांग जोग अधपत्ति, प्रथम जम-नियमन साधे । आसन प्रारणांयांम प्रत्याहार, धारणा ध्यान समाधि । षष्टचक्र वेधिया, अष्ट कुंभक सौ कीया। मुद्रा दसम लगाइ, बंध त्रिय ता मधि दीया। भक्ति सहित हठजोग करि, जन राघौ यौँ निसतरे। महादेव मन जीत ते, नाथ मछिदर अवतरे ॥२७७ यम जोग जलंध्री को सिरै, गुफा कूप करि मानियो । दक्षा लेणै काज, मात गोपीचंद मेज्यौ । गुर कही बिप्र जै साखि, समझि बिन कूपहि ठेल्यो । उहां ही लगी समाधि, अलख अभियंतर ध्यायो। सपत धात फूतला भसम करि बाहरे प्रायौ। जन राघौ गोपीचन्द कौं, अमर कीयो सिख रानियो । यम जोग जलध्री को सिरै, गुफा कूप करि मानियौं ॥२७८ संसार अध्व निसतारने, करनधार गोरख-जती ॥ भूप भरथरी आदि, कोडि तेती तीउ धारा । सबद श्रवण जा धरयौ, प्रजा का अंत न पारा। १.बरपट। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 980 ] राघवदास कृत भक्तमाल परमारथ के काज, आप ग्यारह बर बीका। सिध कीये पाषांरण, तीर गोदार नदी का। नाद बजाये बिद्रपुर, परचा दीया बरकती। ससार अबध निसतारनै, करनधार गोरख-जती ॥२.६ ईदव इंद ज्यूजिद की जीवनि गोरख ग्यांन-घटा वरख्यौ घट धारी। छंद नृप निन्यारणवै कोड़ि कीये सिध, प्रातम' और अनंतन तारी । बिचरं तिहुंलोक नहीं कहूं रोक हो, माया कहा बपुरी पचिहारी। स्वादन सप्रस यौं रह्यो अपरस, राघो कहै मनसा मन जारी ॥२८० छपे छंद धर्म सील सत राख तें, चौरंगी कारिज सरे ॥ अदभुत रूप निहारि, दौर कर मांई पकरयौ। दांवरण लीयो फारि, जोरि करि बाहरि निकरयौ। रांणी करी पुकार, पुत्र अच्छया ही जाया । राजा मन पछिताइ, हाथ पग दूरि कराया। राघो प्रगटे परमगुर, कर पद ज्यू के त्यू करे । धर्म सील सत राख तें, चौरंगी कारिज सरे ॥२८१ धुनि ध्यान सहित मल धूंधली, पुर पटरण परबत रहे ॥ पाप पासि इक सिष, सु तौ अति प्राग्याकारी। भिक्षा मांगन काज, फिरत सो नगरी सारो। करै मसकरी लोग, खेचरी भीख न पावै । माथै लकरी ढोइ, बेचि रोटी करि ल्यावै। राघो चांदी बूझि सिर, पट्टण सव दट्टरण कहे। धुनि ध्यान सहित मल धुंधली, पुर पट्टण प्रबत रहे ॥२८२ भोगराज भ्रम जांनिकै, भक्ति करि है भरथरी ॥ तर तीबर-बैराग, त्रिलोकी विणकर लेखो। गरक भजन के मांहि, ग्यान सम प्रात्म देखी। कंचन प्राधारित तिजारै रहि करि कीया। सूली देणै लग्यां, हरया अंकूर सु लीया । गुर गोरख किरपा करी, अमर जहाँ लौ धरत री। भोगराज भ्रम जांनि के, भक्ति करी है भरथरी ॥२८३ १. प्रातमा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १४१ इंदव भर भार तज्यौ भ्रथरी सगरौ, अगरौ पिछरौ बनहीं कछु सांसौ। छंद गह्यौ अनुराग दुती न सभाग जु, क्षीन सरीर स लोही न मासौ। . ___मनसामनजीति करी हरि प्रीति,बैराग को रीति सुमांगि भिक्षा करही कोयौ कांसौ राघो कहै गुर गोरख सु मिलि, यौं कीयों माया मोह को नासौ ॥२८४ लौ गोपीचंद मा ग्यान सं, त्यागौ देस बंगाल ॥ रांणी सोला-सत्त, बहुरि बारा-सै कन्या। हय गय नर कुल बंध, जात कापै सो गंन्या । होरा कंचन लाल, जड़ित मांणिक अर मोती। सिंघासहनं हादि दिपत, बोलत धुनि सोती। पाव जलंध्री परस . ते, राघो जांनि जंजाल । गोपीचंद मा ग्यांन तूं, त्यागौ देस बंगाल ॥२८५ मनहर मात देखि गात अश्रुगात उर फाटि रोइ, सूरति सहारी न परत गोपीचंद को। प्राकृत करत जल बूंद परी पीठ परि, माताई रोवती निजरि वा नरद' की। हाइ हाइ करत हजूरि गयौ हाथ जोरि, कौन चूक मात मेरी बात कही ज्यद की। बात यह तात तेरौ गात असौ हौ तौ सुनि, राघो कहै राम बिन देही भई गद्द की ॥२८६ . चरपट के चरचा रहै, येक निरंजन नाथ को ॥ अलख आदि अनादि भजत, सौ सुख के पाले। काम क्रोध पर लोभ, मोह दुबध्या निरवाले । जत सत ग्यांन बबेक, जोग समाधि परांइन । कुंभक अष्ट ही साधि, भिदिया षट-चकरांइन । गुर गोरख सिर धारिक, सभा सुधारी साध की। चरपट के चरचा रहै, येक निरंजन नाथ की ॥२८७ इंदव ग्यांन को पुंज मिल्यौ गुर गोरख, यौ प्रिथीनाथ त्रिलोकी तिरे हैं। छंद अँड अकब्बर सूं भइ आगर, दे अजमत्ति यौँ साहि डरे हैं। १. निरंद की। २. को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] राघवदास कृत भक्तमाल सोत सिरै भभक्यौ ब्रह्म-वारणी कौ, ग्रंथ सिधांत अनेक करे हैं। राघौ कहै रत राति द्यौ राम सौं, संगति और घणे उधरे हैं ॥२८८ इति जोगी दरसरण छपै अथ जंगम दरसन यम जंगम दरसन गोपगुर, तिन संग्या वरनन करूं ॥ सदानंद खुस्याल, लिंग सिधपाल देवरूं । जल का तूंबा दूध कीया, यह जांनि भेवरू । सील मूल गंग लिंग, सील के भये कन्ह रे। मूलहु के देवरू लिंगावति लिंग चिन्ह रे। गंगह के भाठी, स नखा नारी मठ बांध्यौ । ___गोदावरि बद्रिका, बोखी जोसी पाराध्यौ। लिगेसुर कामे पुरा, राघो सबकू उर धरूं । यम जंग। दरसन गोपिगुर, तिन संग्या बरनन करूं ॥२८९ इति जंगम दरसन अथ समदाई बरनन छपै प्रेम मुक्ष कलिजुग बिर्ष, संत सकल यह जान है । ब्यास ज्यानकी-हरन, नृपति के श्रवन सुनायो । चढ्यो बीजल' खड़ग, उदधि के माहि चलायौ । लीला' मनहर होइ, हिरनाकुस काट्यौ । दूजे दसरथ भयो रांम, चलते उर फाट्यौ । बाम स्यांम सुनिमें बंधेता, छिन दीये प्रांन है। प्रेम मुक्ष कलिजुग बिषे, साध सकल यह जान है ॥२९० टोका भक्तदास भूप नाम कुल सेष को इंदव प्रेम बड़ी कलि साखि कहै जन, वैह असाध सु भक्ति न भाव। बंद ब्राह्मनो के दुख पुत्र पठायत, कैसु दयो बिन जांनि घुमावै ॥४१८ १. बाज ले। २. लीला में नरहरि। ३. सेखर । भूप हुतौ इक राम ततप्पर, राम सुनै गुन है उर भाव । व्यास वडो दै ताहर नौ नृप, नाहिं कहै उन जाणि मु मावै ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १४३... काढि लयो खग मारन ऊठत, सागर बाज दयो सुअ वेसा। रावन मारि बिहाल करौं खल, सीत ही ल्याइ धरौ हग पेंसा। रांम र ज्यांनकि आय मिले काह, नीचहि मारि पठ्यौ दिबि देसा। सोच गयो सुनि खेम भयो मनि, रूप निहारन फेरि निवेसा' ॥४१६ लोला अनुकरन तथा रनवंतबाई की टीका इंदव नीलचलं सु भयो अनुकरन हु, है नरस्यंघ हिनांकुस मारयौ। छंद दोष कहै जन कैत अवेसहि, सौ दसरत्य करयौ पन पारयो। बांम हुँती इक स्यांम लगी मति, पाप सुन्यौ न कह्यौ सुत धारयौ। दांम जसोमति वांधि दये सुनि, प्रांन तज्यौ मनु ऊपरि वारयौ ॥४२० छौ । प्रसाद अवगि इक भूप नैं, सू हस्त काटि पठयो चरन ॥टे० छंद टेर सुनी सिलपिले, प्रीति लगी प्रभूजी प्रायो। संत रखे दिन च्यारि, मात सुत कू बिष पायो। क मा केरौ खीच लयौ, हरि प्राइ सवारे । साह श्रीधर बचे, धनुष धर दै रखबारे। रघवा जै जै जगत गुर, भक्तबछल असरन-सरनं । प्रसाद अवगि इक भूपन, सू हस्त काटि पठयो चरन ॥२६१ पुरषोतमपुरबासी राजा को टीका इंदव जाजिरे अवज्ञ सु भूप प्रसाद हि, हाथ कटावत यौं जू भई है। छंद चौपरि खेलत हौ हरि भुक्तहु३, दै जन लै कर बांम छई है। जात रिसाइ र लै परसादहि, भूप गयो गृह देखि नई है। पात नहीं अन काटि डरौ इन, पंडित बोलि र बूझि लई है ॥४२१ हाथ सु काटत कौंन अब मम, पूछत है सचिवै दुख को जू । भूत डरावत मोहि झरोखन, दै कर सौर करै निसि सो जू।। मैं ढिग सोवत आपन गौवत, पांनिहि दूरि करौ न डरो जू । भूप कहै भल चौकस राखत, ऊंघ तज' नृप काढ़ि करो जू ॥४२२ काटि डरयो कर सो पछितावत, भूप कही वृत यौंह बिगारी। भेज दये जगनाथ पुजारिन, हाथहि ल्याइ बुवो गुलक्यारी । १. जिवेसा। २. जानि। ३. भक्तिहु । ४. हुई है। ५. विजा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] राघवदास कृत भक्तमाल दौरि गये नृप सांम्हन आवत, पांनि भयौ फिरि भौ सुख भारी। दोन प्रसाद भयौ कर को चढि, है निति राम सुगंध पियारी ॥४२३ श्री करमाबाई को टीका ही करमां इक बांम भली, खिचरी बिन रीतिहि भोग लगावै । भौजन श्री जगनाथ करै निति, भोग जिते तिन मैं वह भाव । संत गयौ इक सोच करै लखि, स्वास भरै र अचार सिखावै । साधत बेर लगी पट खोलत, खोच ग्यौ' मुख हाथ दिखावै ।।४२४ साच कहौ प्रभु यौं कत पावत, चित्त भमैं हम देखि नई है । है करमां मम खीच जिमावत, हर निति जावत प्रीति लई है। साध गयौ सु अचार सिखायहु, मो मत और न जांनि भई है। नाथ कहै जन सूं वहि साधहु, जाइ कही फिरि मांनि गई है ।।४२५ सिलपिल्ले प्रभु को भक्त उभैबाई-तिनको टीका सिल्लपिले जुग बांम भगत्ति सु, भूप सुता इक है जमिदार। सेव करै गुर बै ढिग बैठत, पूजन द्यौ हम कौं३ सुकुमारै। . टूक दये सिल नांव कह्यौ वह, हेत लगात करै भव पारै। सेव करै अनुराग बढ्यो अति, रीति भली यह जग सारै ।।४२६ पूरब बात कही मिलवां जुग, रीति अबै सुनि लेहु जुदी है। भ्रात उभै जमिदार सुता उन, बैर लुट्यौ पुर प्राइ मुदी है। पूजन जात भयो दुख पावत, खात नहीं कुछ जाई गुदी है।। से समझावत वाहि न भावत, जा करि ल्यावहु प्रात सुदी है ।।४२७ गांव गई वह भ्रात बड़ौ जित, हौत सभा मधि बात जनाई। लै अपने इक ठौर बिराजत, बोलि सु आवत प्रीति बसाई । लाल भये दग फाटत है उर, पीर पुकार कही तन जाई। अाइ लगे उर दूरि गयो दुख, लै घर आवत अंग न माई ॥४२८ बात सुनौं नृप भक्ति सुता अब, नांहि बिर्ष रति पूजन लागी। .., साखत कै घर ब्याहि दई उह, लेनहि प्रावत या प्रभु रागी। संगि दई करि रंगि छई हरि, नांहि सखि ढिग पै लहु त्यागी। प्रात कनैं पति चाहत है रति, बोलि कही जु बिथा मम पागी ॥४२६ १. लग्यो। २. हां। ३. कं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १४५ दें हम कौं कहि कौन बिथा उहि, बेगि इलाज करै सुख कीजै । चाहत हौ सुख भक्ति करो मुख, भक्ति बिनां मम देह न छीजै। क्रोध भयो मन मांहि बिचारि, पिटारिहु मैं कछ दूरि करीजै । वैह करी मुसि नोर धरी तन, आगि बरी मन मैं बहु खोजै ॥४३० त्यागो दयौ जल अंनु खुसी हुन, चाहत खुसी नहि है सब लीयो। आइ लयो पुर बात कही धुर, क्षीन लख्यौ तन क्यूं हठ कीयौ । सास कहैं सब नांहि चहैं अब, बात सुहात न कंपत हीयौ। कैस करै तब पाइ परै कहि, ल्याइ धरै बह तब जोयौ ।।४३१ आत भये उहि ठौर परी लखि, नीर बहै द्रग ऊंच पुकारी। स्यांम सुन्यौ सुर भक्तन के बसि, अाइ लगै उर सैत पिटारी। सास धरणी जन देखि भये खुसि, वादि गए दिन आपन धारी। भक्त करे सब सेवत संतन, भाग बड़े घर मैं अस नारी ॥४३२ भक्तन हित सुत विष दीयौ, येहु उमे बाई संतन के हित और दयो सुत, बांम उभै यह बात जितावै। भक्त भलौ नृप प्रान घणे जन, आइ रहे इक म्हंत सुभावें। ऊठत है निति जान न दे नृप, बीति गयो वष भोर खिनांवे । टूटत आस लख्यौ तन छूटत, बूझत है तिय बात जनांवें ॥४३३ भूप न जीवहि और दयो सुत, साध सुं तंतर क्यूं करि राखें । भौर भयें विन रोई उठी तिय, रावल के जन संतन भाखें । खौलि दयी कटि मांहि गये झटि, बाल पिख्यौ बप नीलक दाखें । बूझत भूपति या कहि साचहि, चालत हे हमरै अभिलाखै ॥४३४ रोइ उठे सुनि महंत न बोलत, भक्तिहु की कछु रीति नियारी। जाति न पाति बिचार कहा रस, सागर लीन भये सुखकारी। गाय हरी गुन साखि कही जन, बाल जिवाई र ठौर सुधारी। सीख दई सब साधन कौं र, हियें वह सो जन प्रीति पियारी ॥४३५ दूसर बात सुनौं मन लाइ र, जीवत लौं सतसंग करीजै । भूप सुता हरि-भक्त' दई घर, साख तक जन नांव न लीजै । सीत पल्यौं तन रूपहि ले द्रग, जीभ चर्णामृत स्वादहि भीजै। सौ अकुलाइ रह्यौ नहि जाइ, वसाइ नहीं सुत कौं विष दीजै ॥४३६ : १. भक्ति । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] राघवदास कृत भक्तमाल साध पधार रहे पुर मैं तब, चेरि कही सुत कौं विष दीयो । छूटि गयो तन रोइ उठी पन, आइ परे सब फाटत हीयौ । जीबन को सु उपाइ कहै तिय, जोबन' प्रात पिता मम कीयो । सोकरि हैं घर संतन ल्यावहु, संत किसे सखि नांम सु लीयौ ॥४३७ संगि लये सब कैन सिखांबत, देखि परौ घर पाव गहीजै । रीत करी वह नीर बहै द्रग, धांग पधारि रु पावन कीजै । साध चले चलि चेरि जनावत, पौरि रही दुरि देखि र री बात कही हरवै मम पित्रउ, जांनत हो वह रीति सधीजै ॥ ४३८ साध मगन्न भये पन देखि र, होत उही नृप तैं जु कही है । जांनि लयो सिसु देत भई बिसु, ज्याय दयौ सुख भौत लही है । साखत पाय परे सबही लखि, सिष्य करे पर सेब कही है । भूपतिया पति राखि दई जुग, साखि सबै जन मांनि मही है ॥४३९ । छपे छंद मूल बलभबाई हरि सरणि, देखो ज्यन्य कैसी करी ॥ नृपत्य दीनी प्राड़, साध कोइ रहण न पावै । लुकि दुरि पूजै कोई, तास के हाथ कटावै । देऊ न ग्रसें काढ़ि बित वाको स्व लीजै । दुरे दसों दसि भक्त, कहो अब कैसे कीजै । जन राघो वाई तबै तन मन की संका धरी । बलभबाई हरि सरणि, देखो जन कैसी करी ॥१ साध न नावे नगर में, तब बाई अन-जल तज्या ॥ दिन भयेउ भैरु च्यारि, तबै सुसरं सुधि पाई । कही बहु प्रन खाई, पुनि तीरथ करि जाई । मृत लौ सीत, प्रकंमा देखाऊं । तबही रि कयौं बिचार, बिड़द मेरा जन राघो हरि संत है, बलभ के मो साध न श्रावै नग्र मै, तब बाई श्रन-जल लजवाऊं । जन १. जोबनि । यहाँ से लेकर मूल छप नं० २९२ के बीच के इतने पद्य नं० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only भज्या । तज्या ॥२ और '२' प्रति में नहीं हैं। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित दूहा छपै कर कटे अरु धन लुट्यो, छटे सहरु को बास । बलभबाई यौं कहै, राम तुम्हासी आस ॥१ कर काटत सारे भये, जगन राघो श्रचिरज कथा ॥ सुत मांग्यौ जब नीर, तबै सरवर दिस्य धाई । कर मुँहेड़ा दिसि कीयो, हाथ ज्यूं के त्यूं भाई । पड्यौ नग्र मैं सोर, बृतांत नृपतही राजा नागे पाई, दोरि चरनौं सि[र]नायो । महमां भगत भगवंत की, नर-नारी नांवें माथा । कर काटत सारे भये, जन राधौ अचरज कथा ॥३ सुनायो । जांनि है ॥टे० उपावं । प्रभु प्रष्ण भक्त मन, गोपि मतौ को श्रीरंगनाथ को धांम बनें सौ करें भयो सेव राजा इंद, रबि हित सिर कटवावं । बधिक भेष धरि चले, हंस या बिधि करि श्राव । पति बांनों की रखौ, समभि दोऊ पुत्र हत्यो जन जांनिकेँ, पुत्री दे बहु प्रभु प्रष्ण भक्त मन, गोपि मतौ कौ बंधवावै । [ १४७ Jain Educationa International मांमां भानेज की टीका गोपित प्रतिमांम भानेजहु, तोष दयौ हरि कौं चित धारौ । दौउ चले घर तैं बन मैं इक, मूरति देवल रैत निहारे । रंग सुनाथ बिराजत दक्षन, धांम बनांवहि कांम निवारी | वैधन को फिरि हैं नहि पावत, हेरि थके सुनि यो सुबिचारी ॥ ४४० देवल जैन सु मूरति पारस, प्रारस नें श्रुति नून बतायौ । होइ सुखी हरि तौ त्रकतें किम, नांहि डरें इक कांन फुकायौ । सेव करी मन लाइ हरी मति, जैन समाज सबैहि रिझायौ । सौंप दो सब अब क्यूं करि, भेद सिलावट पे भल पायौ ॥ ४४१ भीतर मांम भनेजस ऊपरि, भौंर कली कल साह फिरायौ । मूरति बांधत खैचि लई उन, दूसर बेर उहू चढ़ि आयो । For Personal and Private Use Only मांनि है । जांनि है ॥२६२ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] राघवदास कृत भक्तमाल फूलि गयो तन छेद रह्यौ फसि, होइ खुसी प्रति बैन सुनायो । सिर काटजु स्वांगन निंदत, कांम भयौ सिधि यौं समझायो ||४४२ कालियो सिर ज्यौं प्रभु भावत, जीवत नैं परिचाहि पगी है । देह तजौं मम आस न पूजत, जात उहां हरि नीव लगी है । सोच भयौ लखि और बनावत देखि लयो वह चित भगी है । दोउ मिले हरि धाम करावत, हौत सुखी भल बुधि जगी है ||४४३ हंस प्रसंग की टोका कोट भयो नृप के नहि जावत, काहु कह्यौ तुम हंस मंगावौ । afr बुलाइ बधिक्कन सूं कहि, होइ जहां फिरि ढूंढ र ल्यावौ । ल्यां हि क्यूं करि मान-सरोवर, छूटहूगे जब च्यारि खिनावौ । जाति पिछांनत देखि उड़े उह, साधन धीजत भेष बनावो || ४४४ स्वांग बनाइ गये जित हंसहि देखि बंधे नृप पासिह आये । सार लख्यौ मत बैद भये हरि, पूछन रे नृप के ढिग ल्याये । पंखिन कूं पकड़ाइ लये हम, दूरि करें दुख छोड़ि मंगाये । वोषदि पीसि लगाइ दई तन, कौढ़ गुमाय र हंस छुडाये ||४४५ लौ तुम भूमि र गांव दयाल जु, भाग बड़े उनके घर प्रवौ । पाइ लयो सब संतन सेवहु दे [ह]धरी नर रांम रिभावौ । मांनि लई पुर देस भगत्ति सु. लै बिसतारत हंस प्रभावौं । भेष भलो प्रभु पंखिहु मांनत, नांहि उतारत नाच नचावौ ||४४६ इंदव छंद माहाजन सदाव्रती स्यार" सेठ की टीका सेठ सदाव्रति भक्तन कौ पन, सेव करौं मन लाइ बिचारी । संत अनंत पधारत हैं जिम, ग्राइ पर तिम लेत सुधारी । साध रह्यौ घरि मांनि घरगौं सुख, पुत्र सनेह सु संगि खिलारी । ईस इच्छा मुखि लालच गौंनहु, मारि घरघौ धरनी पछितारी ॥४४७ मात निहारत पुत्र कहां मम, बीति गयो दिन भौंन न आयौ । डौंडि दिवावत दंपति संत रु, ढेरि कहैं सुत को बिरमायौ । देइ बताइ उनै सब भ्रन, साध बध्यौ सु सन्यासि जनायो । देह दिखावत वाप करावत, पुत्र हत्यौ हम रोई न पायौ ॥४४८ १ क्यों । २. इंडि । ३. ल्यौ । Jain Educationa International ४. नीच । ५. सार । For Personal and Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १४९ मैं स बताइ दयो न बिगारत', मोहि छुड़ावहु झूठ न भाख्यौ। नांव न लै जन जौ सुख चाहत, जा अनतें भल छोड़ न दाख्यौ। संत उदास बिचारत दंपति, दै पुतरी जन कौं घरि राख्यौ। पाइ परयौ तिय के पति बोलत, है पन मैं सुत को दुख नाख्यौ ॥४४६ साध बुलाइ कही तुम ल्यौ बरि, मोर सुता नहि साखत ब्याहै। मैं हतियौ सुत रोइ कही जन, नांव न ल्यौ मम जीवन क्या है। साध पनौं सुनि यौं धरि है सिर, नांहि रती मल मेर कह्यौ२ है। ब्याहि दई पुतरी उर दाहन, जीवत लौं घर मांहि रह्यौ है ॥४५० आत भये गुर है प्रचै सिध, संतन सेवइ नाहि बताई। पुत्र कहां तव पाय गयौ सब, भांति किसी जग मींच लगाई। पारस लै हरि मोहि कही खुलि', ले चलिये जित देह जराई। ठौर गये उहि ध्यान करयौं हरि, जीत भयो जग कीरति गाई ॥४५१ छपै मनहर सर्ब जुग माहीं रांमजी, संत-बचन साचौ कर ॥ भवन काठ तरवारि, सारकी काढ़ि दिखाई। बाल स्वेत हरि करे, दास देवो सरनाई। काष्ट कंमधुज काज, च्यारि कपि चिता संवारी। . जैमल ह जुध कोयौ, भक्त की बिपति निवारी। भैसि चतुरगुन घृत लीये, संगि श्रीधर धनुधरै। सर्ब जुग मांहीं रांमजो, संत-बचन साचौ करे ॥२९४ रानां जू के कान लागि काहू ने कही पुकारि, भवन की कमरि देख्यौ खांडौ बांध्यौ कांठ को। श्रब के बहानै सिरि मांगि लयो हाथि करि, . पलटि है गयो सार रुपैया सै पाठ को। भवनन' पवन बंचि अंतर पाराध कीनौं, राम राम राम धुनि पार नहीं पाठ को। राघौ कहै रांग दौरि पाव गहे हाथ जोरि, साचौ खांडौं तेरौ भवन पौरि झूठ-माठ कौ ॥२९५ छंद १. बिगारस। २. कह्या। ३. रहा। ४. पुलि। ५. मन । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० राघवदास कृत भक्तमाल भवन चौहान की टोका इंदव बात सुनूं कलि के जन की, चहवाण भवन सु रांनहि को है। छंद लाख उभै सु पटा रुजगारहु, संतन सेत सिकार चढौ है । लार लगे मिरगी हुत ग्याभनि, टूक' करे सु उदास वडो है। - भक्त कहै मम काम करौं यह, दारहु कौ करवात खंगौ है ॥४५२ भ्रात लख्यौ खग काठहि कौ चुगली, नृप पै करतौ न सकाई । भूप न मानत सौंह करै वहु, जानत भक्तन बात चलाई । बीति गयो ब्रख लागत नै कछु, मारि नख्यौ मम झूठ लखाई। गोठि करी सरजाइ भलैं नृप, ले अपनी तरवार दिखाई ॥४५३ देखत देखत ल्याव भवन्न जु, दार कहै मुख सार कही है। काढि दई बिजुरी सिखिई मनु, मारि नखौ इन झूठ नहीं है। भक्त बचावत साच कयौ यह, दारहु की हरि पक्ष लही है। दूंरण पटा मुजरौ मति आवहु, मैं तन पावत मानि सही है ॥४५४ ___ रूप-चत्र भुजजू कौ देवा पंडा को टीका इंदव रूप चतुर्भुज रांनहं आवत, पौटि रहे प्रभु माल सु सीसा। छंद काढ़ि दयौ नृप केस लख्यौ सित, प्राय गये कहि आवत ईसा। झूठ कही डरप्यौ नृप मारहि, ध्यात भयौ पद सौ जगदीसा। केस करौ सित हौ प्रभुजी मम, कानि भक्त नहीं परिभेसा ॥४४५ भूपति त्रास समुद्र बुड्यौ जन, बैंन मिठास सुनें फिरि जीयौ। बार पिषे सित मांनि दया अति, नैंन भरे नहि साधन कीयौ। भक्तन की प्रतिपाल करै निति, मैं स अभक्त सु कच्चत हीयो। आप बिचारत नाम लजै मम, हैं हमरौ पुनि यो सुख दीयौ ॥४४५ भूपति भोर निहारित है कच, सेत कही डरि पंडहि लाये। खैचि लयौ इक बारहु जाइ र, धार चली रत भूप भिजाये। भूप पर्यो मुरछा तंन सुद्धि न, ऊठत भौ अपराध सुनाये । बैठत राज इहां नहि प्रावहुं, दंड यहै अजहूं नहि आये ॥४५७ . कमधज की टीका भ्रात सु च्यारि उदैपुर चाकर, है इक भक्त बसै बन मांही। आइ प्रसाद करै उठि जावत, नैंक चलौ खरची तव आंहीं। १. टेक। २. गही। ३. बतावत। ४. भूमि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ ११ चाकर हैं जिनके उन सेवत, जारत कौंन ब वौह जरांही। देह छुटी हनु राम पठावत, दाहत धूम सु भूत तिरांही ।।४५८ जमलजी को टोका जैमल मेरत पैल हतौ नृप, पूजन सू हित और न भावै। है घटिका दस को वृत बोलन, आइ कहै कछु ठौर मरावै। भ्रात मंडोवर के यह भेद, लयौ चढ़ि आवत मात सुनावै । स्यांम करै भल बाज चढ़े हरि, मारि दयौ दल से सुख पावै ॥४५६ हाफि रहयौ हय प्राय र देखत, वाहरि देखहि भ्रात पर्यो है। कौ तुम्हरै इक स्यांम सिरोमनि, मारि दयौ दल चित हरयौ है। तौहि मिले हमतौ अति तरसत, जांनि लयो प्रभु आप ढर्यो है। बूझि खिनांवत वै पन धारत, कष्ट दयौ कहि सोच कर्यो है ॥४६० ग्वाल-भक्त की टीका ग्वाल भयौ इक संतन सेवत, हाथि चढे सब साधन देव। प्राय गयौ पकवान धयो बन, ढील लगी इक भैसि न लेवै। जांनि लइ घरि मात कही फिरि, है घृत लै करि ब्राह्मन सेवै। धौं स दिवारिहु हांस धरे गरि, जाम लये घर आतह सेवै ॥४६१ श्रीधर-स्वामी की टीका. अवसथा बरनन टिप्पण भागवतं करि है वह, जांनिहुं श्रीधर हे बिवहारी। जात चले मग चौर लगे कहि, कौंन सहाइक, औधिबिहारी। कोइ नहीं बन मारि डरौ इन, है कर आयुध पात खरारो। प्राय कही घर स्यांम स को हुत, हे प्रभू त्यागि दई बिधि सारी ॥४६२ मूल भगवंत भक्त पोखें फिर, ज्यौं बच्छा संग गाइ है ॥ दरबि रहत इक भक्त, तास के संत पधारे । प्रभु बटाऊ होइ, खुसे हरिजन 4 हारे। भरन साखि गोपाल, साथि खुरदहा सिधाये। रामदास के धांम, द्वारिकानाथ लुभाये। छेक सेल को अनुगतन, बलि बंधन बपु खाइ है। भगवंत भक्त पीछे फिर, ज्यूं बच्छा संगि गाइ है ॥२९४ । छंद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] राघवदास कृत भक्तमाल निहकंचन की टीका इंदव भक्तन लार' फिरै भगवंतहि, ज्यौं बछ संगि फिरै निति गाई। छंद है हरिपाल सु ब्राह्मन नांमहि, संतन हेत सिरीस लगाई। ... . : कैइ हजार बजार खुवावत, नांहि मिले जब चोर न जाई। साखत ल्यात न दास दुखावत, प्रावत साध तिया बतलाई ॥४६३ कृष्ण रुक्मनि मंदिर हे जुग, सोच परयौ हरि साह वने हैं। आप चले कित भक्त समो जित, मैं हूं चलूं कहि प्राव ठने हैं। पूछत माग चलै उतपातहि, लै रुपया पहुचाय सने हैं। साध जिमावहु संगि चल्यौ बन, देखि लये रुपया स घने हैं ॥४६४ स्वांग नहीं सदचार न देखत, है धनबौ इतनौं इत ल्यायो । द्यौ रुपया गहनौ नहीं मारत, देत सबै छगुनी छल छायो। काढि लयो छगुनि सु मरोरि र, दुष्ट बड़ौ जन जीमत पायौ । रूप दिखावत जो अपनौं हुत, भक्त सराहि र कंठि लगायो ॥४६५ साखोगोपाल जू की टीका गौंडहु के दिज दोइ सुनौं गति, जाति बड़ौ बयहू इक छोटो। धाम फिरे सब आये रहे बन, जैमति आवत जानहु मोटो। सेव करी लबु [घु] रीझि कही बृध, दीन्ह सुता तव लेवत प्रोटो। साखिगुपाल करै प्रतिपालहि, गाँव गये तिय पूछत टोटो ।।४६६ बिप्र कही लघु द्यौं तुम्ह दीन्ही सु, पुत्र तिया पुतरी नहि देवै ! वृध कहै अब नांहि करौं किम, ही जु बिथा नहीं जानत भेवै । होत पंचाइत साखि भरावहु, साखिगुपाल भरै बन जेवे । ल्यौ लिखावइ जु साखि भरावहि, दै परनाई सुता मुख लेवै ॥४६७ प्रावन मैं सु' गुपाल जनांवत, साखि भरौ चलि के जु लिखाई। बीति गयो दिनि बोल कही हरि, मूरति चालत क्यूं स कहाई। संगि चलै उठि भोग मंगावत, पाठ२ चलें छिम छिम्म कराई। कांन सूनै छिम पोछ न देवह, देखत हो रहि हूँ उन ठाई ॥४६८ गांव निजोक रह्यौ फिरि देखत, होत खरै वहि ठौर हसे हैं। ल्याव इहां कहि आत चलौ हरि, गाँव चल्यौ सुनि देखि लसे हैं। १. संगि। २. पात। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १५३ पूछत साखि भरी सुख पावत, व्याहि दई उन गाँव बसे हैं। मूरत राखि लई नृप आत न, है अजहूं उत प्रीति फसे हैं ।।४६६ रामदासजी को टोका गांव डकोर बस दुज' भक्त सु, राम सु दास भगत्ति पियारी। ग्यारसि जाग्रन कै रणछोड़हि, जाइ सदा वृध देह निहारी। आप कही इत प्राव मतै घरि, चालि रहों रथ ल्यावउ चारी। आनि धरौ खिरको पिछवारहि, बाथ धरौ भरि हांकि सवारी ॥४७० जाग्रन आत भयौ चढिकै रथ, जांनि सबै गति पाव थकी है। बारसि रैनि अरद्ध चल्यो धरि, भूषन ले तन प्रीति पकी है। मंदिर खोलिरू देखत नां प्रभु, गैल लगे चढि जाइ हकी है। बाइ धरौ मम बेगि टरौं तुम, पौंचि र मारत चौंट जकी है ॥४७१ ढूंढ लयो रथ पाइ नहीं हरि, सोच करयौ जन भूमि लगाई। येक कही इन वोर पयोहंत, बाइ निहारत हैं रकताई। सेल दयो जन धारि लयो हम, नांहि चलौं बिज रूप बताई। मो सम कंचन ल्यौ धरि तोलहु, नांह मरै तिय कान जिताई ॥४७२ तोलत बारिहु डारि पछै हरि, नांहि उठे पलरौ जित बारी। हौइ उदास चले घर कौं सुख, होत किमे मन नांहि मुरारी। धाम बिराजत है दिज के प्रभु, भक्ति करै सुख दैन तयारी। बांधि लयों बलि यौं बलि बंधन, आयुध को छित चोट बिचारी ॥४७३ मूल श्रबं राजा परिजा थकित है, हरि-जस सुनि हरिदास कौं ॥ जसू-स्वामि को जस बढयो, बृषभ हरि प्राप बनाये । ता पीछे चलि चोर, ले गये सो पुनि ल्याये । नंददास निज धेन, जिवाई नांमा पीछ । श्रीरंगनाथजी सीस, नयो वेस्यां के इछ। यम प्रासाजित प्रासू सुवन, जन राघो रटि गुन जास को। श्रब राजा परिजा थकित है, हरि-जस सुनि हरिदास कौ ॥२६५ १. हरि। २. भूलि। ३. गयो। ४. मनेजि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] राघवदास कृत भक्तमाल जसू-स्वामी की टोका इंदव अंतरबेद रहै जसु स्वामिन, संतन सेवन खेत बुहावै। छंद बैल हरे इन कौं कछु ठीक न, स्यांम वसे हलकै जुतवावै । पात भये बृज के नर पैठहि, देखि गयो' घरि जाइ र पावै । बार फिरे छय ठीक भई उन, पूछि र आनि दये नहि पावै ।।४७६ देखि प्रतापहि भाव भयौ उरि, बैल दये हरि पाय परे हैं। दीन कहै मुख प्राय लही रुख, दीनदयालहि दास करे हैं। छाडि दयो हर नो सुध होतस, संतन सेवन माग परे हैं। धान खिनांवहि दूध दही पुनि, आवहि साध लड़ात खरे हैं ॥४७५ नंददासजी वैष्णु को टोका गांव बरेलि नजीक हवेलिहु, नंद सुदास दिजै जन सेवै । दोष करै दिज लै बछिया सव, खेतहि डारत गारि न देवै । साधन सू लरि है स हत्यारहि, आवत हौ नहि जानत भेवै । जाइ जिवाई दई जन खेतहि, साखत भक्त भये पग लेवै ।।४७६ छंद मूल मनहर राघो रँगनाथजी को सीस आयौ सनमुख, बारमुखी बारंबार लेत अति वारणां। मैं हूँ महा मधिम अछोप मन बच क्रम, तुम प्रभू प्राणनाथ पतित उधारणां। मुकट चढ़ावत मगन भई मातंग ज्यूं, .. जै जै कार पुर महि गृह-गृह वारणां । गनिका मुक्ति भई भई च्यायूं जुग मधि, च्यायूं जीति गई जन्म नांहीं जौग धारणा ॥२९६ बारमुखो की टीका इंदव बारमुखी अतिहास सुनौं घर, माल भरचौ नहिं प्रावत कांमैं । छंद संत बरे पुर धाम लख्यौ सुछ, खोलि दई कटि चाहि न दामैं। __ वाहरि आइ निहारत हंसनि, भाग जगे नहि जानत नांमैं । थार भरयौ महुरै धरि मुंतन, पाक करौ अरु भूषन स्यांमैं ।।४७७ १. गये। २. मुक्त। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १५५ पूछत को तुम जाति बतावहु, मौंन करी सुनि चित्त धरी है। साच कहौ मन संक धरौ मति, बारमुखी कहि पाय परी है। कौस भरयौ धन ल्यौ किरपा करि नांहि करै तब तौ संमरी है। रंग सु नाथ मुवट्ट घराइ, इसौ लखि कै सुख पाई हरी है ।।४७८ वित्र न छूवत ले किंम संग', जु दै हम बांह रहै इत कीजै । द्रिव्य लगाइ सबै करवावत, लै कर चालत थाल धरीजै । मंदर मांहि गई जन प्राइस, ससंकि फिरीस तिया ध्रम भीजै । अापु बुलात हमैं पहरायहु, सं.स नयौं पहराय र रीजै ॥४७६ मुल यम भक्ति पैज कलिकाल मैं, तिहुं जुग सूं राखी अधिक ॥ ठग ठाकुर दै बीचि, भक्त सूं सौगंध कोन्ही । बहुरि हत्यौ बन मांहि, लूटि गहि नारी लीन्ही । घरनी करी पुकार, त्राहि बाबा बिसटारी । चोर न कीन्हौं जौर, रामजी रजा तुम्हारी। राघौ राम रतीक मधि, भृति जिवाइ मारे बधिक । यम भक्ति पैज कलिकाल मैं, तिहुँ जुग सूं राखी अधिक ॥२९७ बिप्र हरि भक्त को टोका इंदव ब्राह्मन लै मुकलाव: चल्यौ तिय, है भगती जुग वात जनावै । छंद मारग मैं ठग भेटत पूछहि, जात कहां ज्यतही तुम जांवें। वाग छुडावत लै बन जावत, है अति सूधि हु चित्त न आवै। रांम दये बिचि तौहु डरै मन, भांम कहै हरि नाम सुनावै ॥४८० संग चले मन भीत करौ अव, भक्ति सची पतनी मम जांनो। जां बन मैं दिज क्षिप्रहि मारत, भाग चले सुं बधू बिलखांनी। पीछह देख तबै समुंवौ चलि, देखत ह बिचि सो वह प्रांनी। आइ र राम सबै ठग मारत, ज्याय लयो जन रीति बखांनी ।।४८१ मूल छपै गाथ सुनत नृप भक्त की, हरिजी सूं हित होइ है ॥ छंद स्वांग संत को धरै, तास जानें गोबिंद गुर। १. रंग। २. बिसठारी। ३ मुकलाइ। ४. भात । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] राघवदास कृत भक्तमाल दरसन षट को भाव, कदै नांहीं प्रावै उर। साध रूप धरि भांड, राव पैं पाव दुहावै । भूप भेट करि कही, भेष पलट्यां दुख पावै। भक्त भांड साचौ भयो, जगत जाति नहीं जोइ है। गाथ सुनत नृप भक्त की, हरिजी सौं हित होइ है ॥२६८ भक्त भूप की टीका इंदव भूप भगत्त स भांड न पावत, है प्रभु कौं धन प्रांन न दीजै । छंद स्वांग धर्यो जन को सु पुजावत, नाचत भूप कहै इम कीजै । भौजन कौं करवाई धर्यो बसु, जोरि कहै कर यौं सब लीजै । भक्ति भई दिढ़वास न भावत, हाथ गहै कछु ल्यौ नहि छीजै ॥४८२ छपै निष्टां अंतर भूप के, उतकष्ट-धर्म धुजता नहीं ॥ स्यांम ध्यान हरि भजन, और कौं नांहि लखावै। निसि दिन असे रहै, अर्धगो' भेद न आवै । सुपन मांहि नहीं सुद्धि, नाम अांनन तें निकस्यौ। वाम नाम सुनि प्रष्ण, दरबि बहु पति परि बकस्यौ । कजी भई मो भक्ति मैं, सुनि रानी बातें महीं। निष्टा अंतर भूप के, उतकष्ट-धर्म धुजता नहीं ॥२९६ __अंतरनेष्टो नृप की टोका इंदव भक्त तिया कहि भक्त नहीं पति, यौं मुरझाइ र सोचत भारी। छंद भेद न जांनत रैनि पिछानत, नाम रट्यौ मुखतै सु बिहारी। नांम सुन्यौं पतनी सुख पावत, भोर भयो पति पैं धन वारी। पूछत है नृप देखि उत्साहहि, नांव कह्यौ जिव जात बिचारी ॥४८३ भूप तज्यौ तन सोच तिया मन, प्रीति इसी उर भेद न पायो। दीरघ सोक भयो सुधि नांहि न, नैंक लखीं न इसौ हित छायौ । प्रेम अतित भयो तिय कै तन, देह तजी इन ही यह भायो। है जिनकै यह सो लहिहैं वह, दूरि करै सब साच दिखायो ॥४८४ १. अधंगी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित छपै छंद मूल मांन देत परमांन नें ॥ साधु को गुरणही लेवे । धांम तन मन धन देवें । माथुर बिठुलदास बर स्वांग संत सूं प्यार, उत्यम मानें भक्त, संतोषी सुध हृदै, बहुत दुसह करम को करें, पुत्र जै जै गोव्यंद हरि नांम, परण माथुर Jain Educationa International [ १५७ परमारथ कीन्हौं । उत्सव में दीन्हों । राघो बांरणी श्रानने । बिठलदास वर मान देत परमान नैं ॥३०० टीका इंदव माथुर भ्रात उभै गुर रांनहि, प्राप मुये लरि त्यां इक छंद जात वीठलदास बड़ौ जन, वै लघु सेवन स्यांम सु भूप कही दिज कौ सुत प्रात न, ल्यांन गये कहि चाह न फेरि बुलात करौ इत जाग्रन, नाचत प्रेम सुकै इक संग गये जन रंग रचे हरि, प्रदर दै उठि तीन खणां परि नृत्य करावत, प्रेम छके गिरिये स्वेत भयो नृप दुष्टन खीजत, बाथ भरें जन ता घरि ल्याये । सु बठाये । तरि आये । भेट करी बहु देह परी सब, सुद्धि भई दिन तीसर गाये ||४८६ मात जनांबत बात सबै निसि, कौनि कसे तजिये सुबिचारी । प्रात छटी कर मैं गरुड़ेस्वर, सेवत है प्रतिमां प्रति प्यारी । भूपति के चर हेरि थके, तिरिया अरु मातहु आइ पुकारी । चाल कही बहु मानत नांहि न, बैठि रही उतही कहि हारी ||४८७ कष्ट तब राति कही हरि, जा मथुरा बर तीनक भाख्यौ । जाति र पांति मिले पुर श्रावत, साध लख्यौ बढही अभिलाख्यो । गर्भवती जुवती धर खोदत, मूरति वोधन पावत दाख्यो । बौलिक बढीस न लै तब, वै सु कही तव रूपहि राख्यौ ॥ ४८८ सेवत है हरि भक्ति गई भरि, सिष्य भये बहु है उर भावें । होत समाज बड़े प्रति श्रावत, राग बिबद्धि गुनी जन गावें । प्रात नटी गुन रूप जटी इक, गात इसी उर बांन लगावै । देत भये पट भूखन भूखहु दीखत / औौरन पुत्र गहावै ॥ ४८६ 1 For Personal and Private Use Only जीयो । लीयो । बीयौ । दीयौ ॥४८५ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] छ छंद छपै छंद राय रंगि सिष भूप सुता दुख, देखि भयो जलहूं नहीं वाहिक धन चाहि सु लै तव, दे हमरौ प्रभु तो तब द्रव्य न चाहत रीभि चहैं तन दें धन फेरि समाज गुनीजन कौंधन दे बहु, प्राप कर्यो' नृति देत न लीजै ॥ ४६० डोलहि मैं फिरि ल्याइ रंगी जन, कैत भई बरियां तव आई | नृत्य कर्यो अति बोधन वारत, अंक भरे फिरि दै हुलसाई । मोहि दयो हरि की नवछावरि ले मति नै सिष लेत रमाइ । त्यागि दयो तन पात कहाँ वह, यौं बरनी जन को रसिकाई || ४६१ मूल हरिराम हठोलै भजन से ज२, रांनां कौउ समझाइयौं ॥ बड़े चतुर दातार, भक्ति प्रेमां जिन जांनीं । रस- सागर गुन गंज, कंठ मैं गदगद बांनीं । संतन कूं दुख देत तास को यह फल भाख्यौ । हरिनकस्यप हति नखन, दास प्रहलादहि स्फुटवक्ता सभा बिचि, काहू सौं न हराइयो । हरिराम हठीले भजन से ज, रांनां कौ समभाइयो ॥ ३०१ राख्यौ । टोका इंदव रानहि हेत खिलावत च्यौपरि, न्यासि इसौ जन भूमि छिनाई । छंद साथ ४ पुकारत भारि दयो उन है बिमुखी बसि साच भुठाई । सौ हरिरामहि वात जनावत, चालि गैं हम आाबत भाई | पैल गयौ हरिराम पधारत, भारत भूपहि भूमि दिवाई ||४६२ राघवदास कृत भक्तमाल पीजै । जीजै । करीजै । १. कौ । मूल मैं, भक्ति सुमन निरबेद फल ॥ स्यांम, दल्हा पुनि गरू, पादप येह जन जगत सीहा खोजी संत जती रांम रावल, मनोरथ द्यौगू जीहा चाचा सवाई जाडा कीता नापा लोकनाथ, सब मेट्या धीधांगश्रम राघो निपुनि, मति सुंदर पीय रांम जल । पादप यह जन जगत मैं, भक्ति सु मन निरबेद फल ॥ ३०२ Jain Educationa International २. तेज । ३. नें । ४. साध । For Personal and Private Use Only रांका । वांका । चांदा | दांदा । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १५९ श्री राकापति बांका जू को टीका रांकपति पतनी पुनि बांकाहि, रैपुर पंडर रीति सु न्यारी। ल्या लकरी गुदरांन करै उर, नांव धरै वह जांनि जिवारी । नाम कहै प्रभुसौं इन द्यौ कछु, लेत नहीं कहि आप मुरारी। चालि दिखांवहु तौ तव भांवहु, मारग मैं सलका हिम डारी ।।४६३ प्रागय है पति पीछय कौं तिय, आवत सो सलका सु निहारी। जांनि तिया मन मांहि भयो भ्रम, धूरि पगां करि ता परि डारी। बूझत भूमि निहारि कह्यौ' किम, कैत भये अजहूं लछिधारी । रांक कहै मम बाका भई तुब, आप कही हरि साच हमारी ॥४६४ इंदव एक समै रजनी जन जागत, चोरन आइ चहूँ दिस ढूंढा। . छंद माया नहीं सल री तप रेख, लगा रिदै बारह नीकसै मूढा । प्रागै परयौ मुख ज्यूं भरचौ भंजन, खोलि र देखे तो नाग फफूढ़ा। राघौ कहै खिज राँका के डारत, सरप थै गयौ सोनि को कूढा । लागे मतौ करने कहा कीजिये, धीजिये नैंक न माया बुरी है। रांका कहै काहू रंकहि दीजिये, ताही के काज कौं प्राय जुरी है। बांका कहै बवरे भये हो, देहुगे किसकौं विष काल छुरी है। राघों कहै तुछ जांनि गये तजि, राकै रु बांका यौ टेक परी है ॥३०३१ टीका नांमहि सौं हरिदैव कहै उर, तौ चलिये लकरीहु सकेरौ । प्रात भये जुग बीनन कौं जन, है इकठी कर सूं नहि छेरै । हौइ चतुर्भुज ल्यात भये घरि, रे मुडफोर प्रभु बन फेरै। दौउ कहै कर जोरि धरौं पट, भार पर्यो इक चोरहि हेरै ।। ४६५ मल इंदव धुनि ध्यान र प्रांन भये परच, निहचै निराकार के सेवग रांका। छंद कली-काल मैं चालह माइ ज्यूं, छाइ महाबितपन्न सबै बिधि बाका। १. करयो। "यह इंदव छंद प्रति नं. १ और २ में नहीं है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] राघवदास कृत भक्तमाल अन के कन बीन प्रहार कियौ जिन, पायौ है भेद भक्ति को नांका। राघौ कहै गलतांन गरीबी सूं, यौं मिले जोति मैं जोति जहां का ॥३०४ इंदव अँसौ लग्यौ रंग रांम मन बीसरै, भूलि गयो दुख देह को द्योग। छंद संतन के दल द्वार सदा रहै, भाव सूं भोजन देत अन्यौगू। टेक यह उर जो ब कही गुर, लेनि बह्यौ निति घरम की तेगू। राघो कहै धनि धीरज सं पर, परचौ प्रचंड मिले हरि बेगू ॥३०५ मूल छप्पै यम हठ करि हरिजी क मिले, सोझा सोझी सदन तजि ॥ बालक उभै उजाडि, समझि करि सूते छाड़े। इनकौं करता राम, दीये परमेसुर आड़े। महा मोह बसि कोयौ, लोभ को लसकर मार्यो । क्रोध बोध करि हयो, रांम भजि काम संघार्यो। राघो इक टग राति दिन, भै मेट्यौ भगवंत भजि । यम हठ करि हरिजी कौं मिले, सोझा सोझी सदन तजि ॥३०६ इंदव चढ़ि खेत खड्यो न पड़यौ पछवो पग,यौं जग जीति गयौ जन सोझौं । छंद कलप्यौ झलप्यौ नकल्यौ कलि मैं, मन मूठि भली द्रिढ ज्ञान को गोझौ । मनसा मनि घेरि चढ़ाये सुमेरिह, कामदुधा करणी करि दोझौ । राघो सुबास छिप नहीं साध को, चंदन के बन बोचि ज्यूं बोझौ ॥३०७ अंसी लगी टग नैंक टरै नहीं, रांम की कीरति गावत कीता। प्रातम येक मुरै न दक्षा देहु, खाट तलें ब्रष द्वादस बीता। रांमजी प्राइ कही समझाइ करो, सिष याहि ज्यूं होइ पुनीता। राघौ कहै उपदेस दियो पंच, तत को सत ले प्रादि अद्वीता ॥३० मूल कांमधेनु कलिकाल मैं, येते जन परमारथी । सूरज लक्षमन लडू, बिमानी खेम उदासी। भावन कुंभनदास, संत लफरा गुन-रासी। हरीदास हरि केस, लुटेरा भरतरु बिरही। नफर प्रजोध्या चक्रपांनि, जाइ सरजू तटि परही। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [१६१ तिलोक त्यागी जोधपुर, उधव बिज्वली प्रारथी। ___ कामधेनु कलिकाल मैं, येते जन परमारथी ॥३०६ श्री लडू भक्त को टोका इंदव साखत देस भगत्त लडू हुत, लेस भगत्ति न पापहि पागे। छंद तोषत है दुरगा नर मारि रु, ले सु गये इन मारन लागे। मूरति नै निकसी धरि रूपहि, काटत हैं सबके सिर भागे । नाचि रही जन के मुख आगर, राखि लये हरि यौं अनुरागे ॥४६६ श्री संत भक्त की टीका संतन सेव लग्यौ मन संतहि, ल्यावत भीखहु गावन गावै । साधु पधारि घरां तिय पूछत, संत कहां खिजि चूल्हहि अावें । साध चले उठि माग मिले जन, हे जु कहां बह बात सुनावै । साचि कही तिय पांच वही हिय, ल्याइ घरां उन खूब जिमावै ॥४९७ . तिलोक सुनार को टोका पूरब माहि सुनार तिलोक सु, संतन सेवन की उर धारी। व्याहत है पुतरी नृप तेहरि, दी घरि बे करि ल्याव सुहारी। साध पधारत है बहु सेवत, धौंस रहे जुग भूप चितारी। बेगि बुलावत ताहि डरावत, ल्यावति हूं कलि नाहि उजारी ।।४६८ आप' गयो दिन नांहि घरी जन, भै उपज्यौ बन जाइ छिप्यौ है। च्यारि रु पांचस आत भये चर, स्याम लयौ घरि भक्ति लिप्यौ है । जाइ दई नृप देखि भयो चुप. धापत नैनन खूब दिप्यौ है। मौज दई अति चूक तजी पति, राय लह्यौ हरि धांम थप्यौ है ।। ४६६ प्रीत महोच्छव ठांनि जिमावत, संतन कं वहु भांति मिठाई । साध सरूप धरयौ सिरनी करि, जाइ कही सु तिलौकहि पाई। कौंन तिलोक नहीं हुत दूसर, होइ सुखी निसि कू घर जाई । देखि भरयौ घर है धन भोजन, जांनि लई हरि होत सहाई ॥५०० छपै छंद चितामनि सम दास ये, मन-बंछा-पूरन करन ॥ पुष्कर दी सोमनाथ, भीम बोको बी साखा । १. प्राइ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल १६२ ] सोम मुकंद गनेस, महदा रघु झाझू लाखा। लक्षमन छीतर बालमीक, त्रिबिक्रम लाला। बृद्ध ब्यास करपूर, बह बल हरिभूभाला। वीठल राघो हरीदास, धूरी घाटम उधव जगन । चितामनि सम दास ये, मन-बंछा-पूरन करन ॥३१० ये सूर धीर थाणांपती, भक्ति करत दिग्गज भगत ॥टे० छीतम देवानंद, द्वारिकादास महीपति । माधव हरीयानंद, खेम बीदा बाजू सुत । बिष्णनंद श्रीरंग, मुकंद माडन भल नरहर । दामोदर भगवान, बालरूपा केसो अरु कान्हर । संतरांम तंबोरी प्रागदास गुपाल, लुहंग नागू सुगत । ये सूर धीर थारणांपती, भक्ति करत दिग्गज भगत ॥३११ प्रचुर सुजस जगदीस को, करन भक्त संसार ये ॥ प्रिय दयाल गोबिंद, विद्यापति बहुरन प्यारे । चतुरबिहारी ब्रह्मदास, लाल बरसांना-वारे । पूरन गंगा राम नृपति, भीषम भगवत रत। प्रासकरन परसरांम, भगत भाई खाटी बत । जनदयाल केसौ कबित, बृजराज-कुवर की छाप दे। प्रचुर सुजस जगदीस कौ, करन भक्त संसार ये ॥३१२ श्रीगोविंदस्वामो को टोका इंदव गोवरधन्न सुनाथ सखावत', खेलत संग सु गौबिंद नाम। छंद स्वामि बिख्यात सुनों उन बात, उनै मन रीति भली अति रांमै । खेमत हे गिहि लाल गये भगि, दाव हुतौ सु गिली दइ स्यामै । संत लखी सुध का धरि काढ़त, जानत नैमत है यह बामैं ।।५०१ कुंड रहे लगि आवहिगो बन, लाइ दये फल सौ भुगतावें। सोच परयौ प्रभू जाइ अरयौ वह, भोग धरयौ सु परयौ नहि पावै । मोहि न भावत कैत गुसाईन, चाहि खुवांवनं वाहि मनांवें । मो परि दाव हुतौ जन को उन, प्राइ दई नहि जांनत भावें ॥५०२ १. सखाहुत । २. नन । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १६३ मों बन मैं बिन खेल बनै नहिं, काढ़त गारिन चोट हु दैगौ। चित भई मम ढूंढि र ल्यावहु, आत कनै तब चैन पगैगो। भोजन भात न ताहि बिना कछु, वा रिस जातहि भोग फबैगो। बेगि गये उन नीठि मनावत, ज्याइ कही अब कंठ लगैगो ॥५०३ बाहरि भूमि गयो हरि प्रावत, प्राकन डोडन मार मचाई। देख उठे इनहूं वहि मारत, भाव सखा सुख सार कहाई। बेर लगी बहु मातहु प्रावत, चालि घरां तजि ये अटपाई। सौच करयौ सदचार धरयौ मन, प्रेम मढ्यौ सुबिचारि कराई ॥५०४ भोग लगांवन मंदिर ल्यावत, मांगत है पहिलै मम दीजै । थारहि डारत जाइ पुकारत, कोप करयौ यह सेवन लीजै । आइ कही जन कौंन बिचारत, खोलि सुनांवत कान धरीजै । जोम रु पैलहि जावत है बन, मोहि न पावत यौं सुनि भीजै ॥५०५ छपे छंद मूल मधुपुरी देस जे जन भये, मम कृपा कटाक्ष ही राखियो । रामभद्र रघुनाध मरहट, बीठल पुनि बेरणी। दासू स्वामी चित उत्म, के सौं दंडोतां देगी। गुंजामाली जदुनंद, रामानंद मुरली। गोविंद गोपीनाथ मुकंद, भगवांना सु धुरली। हरिदास मिश्र चत्रभुज चरित्र, रघुनाथ विष्ण-रस चाखियो। मधुपुरी देस जे जन भये, मम कृपा कटाक्ष ही राखियो ॥३१३ श्री गुंजामाली को टोका इंदव संतन कौ परताप बडौ ब्रज, मैं बसि है उन सौभ अपारा। छंद गुंजनमाल धरी जिम नाम सु, बास करयौ सु लहौर मझारा । पुत्रबधु बिधवाहि सुनावत, लै धन ग्रेकि गुपाल भ्रतारा। धौ हरि सेवन मांगत है तिय, यां परि वारतहूं जगसारा ॥५०६ पूजन वाहि दयौ धन ग्रे तिय, बास करयौ व्रज रीति सुनीज। ठाकुर पैं सुत औरन के भरि, डारत खोरहि सौ अति खोज। तारि दयो वह भोग न पावत, क्यूस सिमावहि तौ कछु जीजै । कोपि कही भरि है तब प्रातहि, हा अब खावहु ल्यावत लीजै ॥५०७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] राघवदास कृत भक्तमाल मूल छपै ये त्रिया कठिन कलिकाल महि, भक्ति करी जग जांनि है ॥ सीता झाली कलाकृत, गढां सोभा लाखां । प्रभुतां मानमती सुमति, गोरां गंगा ये दाखां । ऊमां उबिठा सतभामां, कुवरी गोपाली। रामां जमनां देवको, मृगां मग चाली। कमलां होरा हरिचेरी, कोली कीकी जुग जेवांगनेसदे रानि है। ये त्रिया कठिन कलि काल महि, भक्ति करी जग जांनि है ॥३१४ गनेसदे रांनो को टीका इंदव भूप मधुक्करसाह सुौड़छ, नारि गनेसदे खुब करी है। छंद साध पधारिहि सेवहिबो विधि, संत रह्यौ सुख देत खरी है। देखि इकंत कही धन है कित, होइ बतावह प्रांनि परी' है। जांघ छुरी पहराय गयो भगि, सोचत है नृप जांनि बुरी है ॥५०८ बांधि रु सोइ रही न कही किन, आवत भूप कही तन मैंलौ। तीन गये दिन राय लखी अनि, खोलि कहौ मम नां दुख दैलौ। पूछत है नृप बोलि कही तिय, संभ्रम छाड़हु है कछु सैलौ। दे परिदक्षरण भूमि परयौ नृप, भक्ति करी तजि दंपति गैलौ ।।५०६ प्रभु के संमत संत जे, तिनके मैं सेवक रहूं॥ ____ मयांनंद गोव्यंद, जयंत गंभीरे प्ररजन । जापू नरबाहन गदा, ईस्वर सो गरजन । अनभई धारा रूप, जनार्दन बरीस जीता। जैमल वीदावत ऊदा, रावत सु बिनीता। हेम दमोदर सांपले, गुढलै तुलसी को कहूं। प्रभु के संमत संत जे, तिनकै मैं सेवक रहूं ॥३१५ नरबाहनजू की टोका। इंदव गांव रहै भय है नरबाहन, नाव लई लूटि रोकि स दीयो। छंद भोजन देवन प्रावत दासिहु, आइ दया सु उपायु जु कीयौ । १. परी है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १६५ जै हरिबंसहि राधिहु बल्लभ, नांव कहौ सिष पूछत लीयौ। देत भये सब बात कहौ मति, जाइ हुवो सिष छाड़त बीयो ।।५१० मूल छपै साधन की सेवा सरस, श्रीमुख प्रापन सौं कहै ॥ बूंदी बनियां राम, गांव रीदास विराजै । भाऊ जटियां नै, मंडौते मेह' न छाजै। मांडोठी जगदीस, दास पुनि दाऊ बारी। लक्षमन चढि थाबलि, गोपाल सलखांन उधारी। सुनि पति मैं भगवानदास, जोबनेरि गोपाल रहे। साधन की सेवा सरस, श्रीमुख प्रापन सौं कहै ॥३१६ गुपालभक्त की टीका इंदव जोबहिनेरि गुपाल रहैं जन, संतन इष्ट निबाह करयौ है। छंद बृक्कत होइ गयो कुल मैं, परक्षा करनें घर-द्वारि परयौ है। आइ कही जन मांहि पधारहु, सुंदरि देखु न नेम धरयौ है। दूरि करौं तिय जाइ छिपावत, नैंन लखी मुख कौं स जरयौ है ।।५११ येक दई इक मानत है रिस, देहु कपोलहि दूसर प्यारी । नैन झरे सुनि जाइ लये पग, भक्तन की कछु रीति नियारी। संतन इष्ट सुन्यौ चलि आवत, पारिख लेत भई सिष भारी । आप कही जन भाव कहां हुत, संत सराहत सो मम ज्यारी ।।५१२ छपै मूल जन राघौ रामहि मिले, येते बिग भये बांदरा ॥ इम गरीबदास गुर गोबिंद गायो, दीन भयो नहीं और सूं। मानदास जोरयो मन-बच-क्रम, हित चित जुगलकिसोर सूं। स्यांमदास के हरिनारांइण, स्यांमदीन सर्बगि भयो। खेम रिसकजन हरिया हरि भजि, सर्व संतन को मत लयौ। तजि बृखलीपति कुल करतव्यता, कोयौ भगवत घरि सांदरा । जन राघौ रामहि मिले, येते बिग भये बांदरा ॥३१६ १. मोह। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] भगतन की पंकति बिषै, लाखे भाग बंटाइयौं ॥ मारू कौ बसिया | संत-श्रंध्री-रज- रसिया । अधिक बनाई । बंस बानरै भयौ, देस नरपति प्राग्यां मांहि, राम नांम सूं मगन, सुमरनी नीलाचल जगनाथ, दंडौता राघौ प्रभु प्रष्ण भये, हूंडी पंकत बिषै, लाखे करतौ जाई । भक्तन को इंदव बांनर बंस कौ जन' छंद संतन सेव करै बिधि देरु भाग लाखा-भक्त को टोका लाखहि, डौंम भयौ सबकै सिर मौरा । भोजन, पावत है सुख सांझ र भौरा । काल परचौ धरि स्वांग न ग्रावत, होइ निबाह न ताकत औौरा । १. अब । राघवदास कृत भक्तमाल राति कही हरि गौहर भैसिहु, ल्यावत हैं करिये जन गौरा ।। ५१३ कोठि धरौ अन खूटत नाहि न काढि पिसाइ र रोट बनावौ । दूध जमाइ वीलोइरि चौपर, छाछि करौ फिरि यौ र जिमावौ । नैंन गये खुलि सो तिय भाखत, आइ स देत भये प्रभु गावौ । प्रातहि श्रावत गाडि र भैंसिहुं, रीति करी वह सन्त न भावी ॥ ५१४ क्यूं करि आवत गेहुर भैंसिहि, प्रीति कहौं ऊनकी नर धारै । गांव हुतौ ढिग होत सभा उत, टूटि गये भइया सु बिचार | भक्त कही इक दंड चुक्यौ ग्रह, त्यौ खबरें जन लाखहि तारें । गेहु पचास दये मन भैसिहु संग चले सबही सिरदारे ।।५१५ मुरधर तैं चलियो सुं दंडौतन, श्रीजगनाथ इसे पन जावें । वारि दयो तन हेत घनौं मन, देह धरें अनि तौ मुरभावे । Jain Educationa International चलाइयौ । बटाइयौ ॥ ३१८ जाइ नर्जक लगे सुखपालहि, भेजि दई हरि लाखहि नांवे । देत बताइ गह्यौ कर जाइ, चलौ प्रभु पाइ सु बेग बुलावै ॥५१६ नांहि चढौं सुखपाल लयो पन, यौं करिये इन भांति निहारीं । स्यांम कही पहराइ सुमनहि, ल्यात बनाइ गरे महि धारौं । बैठि चले सुखपाल लखी मन, ग्राप बढावत है जन तारौं । जाइ निहारत श्रीजगनाथहि, जांनत सो द्रिग तें नहि टारों ॥५१७ For Personal and Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १६७ व्याहत नांहि सुता सु कुवारिहु, है हरि सन्तन को धन भाई। श्रीजगनाथ कही परनाइहु, मैं बसुदेवत नाम न आई। होत बिदा नहि अात भरे दिग, भूप भगत लये अटकाई। सुप्न दयो प्रभु नांहि करौ हठ, हूंडि लिखाइ दई सुखदाई ।।५१८ हुंडि हजार लिखे घर ल्यावत, सो क ल गाय र नाइ दई है। साध बुलाइ खुवाइ दये सब, नेम सध्यौ सुख रासि भई है। वाहि निमंत लई लक्षमी बहु, भक्तन कौं भुगतात नई है। कीरति संत अपार अनंतहि, मैं बुधि मांहि बिचारि लई है ॥५१६. मूल मनहर छाड़ि के निषध कुल नृगुण उपास्यौ नांव, साधन की संगति भये है बिग बांदरौ । त्याग के जगत पास जाच्यौ है जगतपति, __ सांई समर्थ घरि जाइ कीन्हौं सांदरौ। प्रानन के नाथ प्राग हाथ जोरि गाये गुन, __ भक्ति भंडार उन दयो मंडि मांदरौ। राघौ कहै नीच भये ऊंच रटि राम नाम, वैसे भये मोक्ष तौ काहै कौं कोई कांदरौ ॥३१६ मूल दिवदास दान दयो बंस कौ, हरि सूं हठ करि भक्ति कौ ॥ सुत उपज्यौ सिरदार, जसौधरि हरि उर गरजै। पाटि बैठि पद कोये, धरयो रांमांइण नरजै । ता सुत निज नंददास, निगमचारी कवि हारी। टकसाली पद प्रिय सकल गावै नरनारी। तीन साखि त्रियलोक मधि, जन राघौ मघ गयौ मुक्ति कौ । दिवदास दांत दयो बंस को, हरि सूं हठ करि भक्ति कौ ॥३२० माधो प्रेमी भूमि परि, लोटत नोक प्रेम करि ॥ जांनत सब को पाहि, परचौ ऊंचे तें हरिजन । गांवगढ़ागड़ प्रचुर कीयो, साहिब साचौ पन । १. भयो। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] राघवदास कृत भक्तमाल वहि भक्ति की रीति, पुत्र पोतां चलि पाई। ___ संतन सूं अत प्रीति, नीति कबहू नं घटाई। सुधि सरीरहू ना रहै, नृति-करत है ध्यान धरि । माधौ प्रेमी भूमि परि, लौटत नोक प्रेम करि ॥३२१ __माधौ प्रेमी की टीका इंदव माधव है पुर नाम गढ़ा गढ़, नृत्य करै बढ़ि प्रेम गिरे है। छंद साखत भूपति पारिख लैनहि, तीसर छाति नचात फिरै है। घूघर साजि दिखावत साचहि, पायक राह बिचैस परै है। त्रास भयौ नृपदास बढ्यौ हित, प्रीति लखी हद भाव धरै है ॥५२० इच्छा अंगद भक्त की, श्रीजगन्नाथ पूरी करी॥ छंद होरा प्रायौ हाथि, ताहि राजा मंगवावै । साम दाम दंड भेद कहै, मन मै नहि प्रावै । चल्यौ चढांवन काज, प्रांनि मग मैं सो लीयो । नग नाराइन लेहु, डारि जल मांही दीयो। कोस सात सत प्राइक, राघो धारि लीयौं हरी। इच्छा अंगद भक्त की, श्रीजगन्नाथ पूरी करी ॥३२२ अंगद-भक्त की टोका इंदव भूप सलाहिदि-जू गढराय सु, सेनक कारह अंगद पापी । छंद नारि भगत्त सुं संतन सेवत, आइ कहै गुर गाथ अद्यापी। देखि इकत न मौन रही कहि हे, जुवतो इन क्यौं रति थापी । ऊठि गये गुर नारि तज्यौ अन, अाइ परयौ पग काम कलापी ॥५२१ अनिन नाहि दिखावत है तिय, कौस करौं मुख नैक दिखावौ। मैं जु तज्यो अन क्यूं करि खावहु, जीवन तो कछ जो तुम पावौ । कैत तिया जिन बोलहु मो सन, प्रांन तज्यौ जब क्यू न समावौ। कौसु करौं जब जात रही बुधि, आइ दया कहि जां उन ल्यावौ ।।५२२ बेगि गयो परि के पग ल्यावत, कैत करौ गुर सिष्य भयो है। माल धरी गर सीस तिलक्कहि, सीतल यो उर भाव नयो है। १ माधोदास । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १६९ फौज चढ़ी तब आप चढ्यौ पुर, लूटत हीरन टोप लयौ है। सौ लघु बेचि दये यक राखत, श्रीजगनाथ अरप्पि दयौ है ।।५२३ बात भई पुर भूप लई सुनि, जौ इक दे अनि माफ करे है । प्राइ सबै समझाइ न मानत, जाइ कही उन नां अदरे हैं। अंगद की भगनी नृप कैवत, दे विषि तौ तब पाइ परे हैं। भोजन मै बिष डारि दयो उन, भोग लगाई बुलाइ धरे हैं ॥५२४ ताहि सुता निति संगि जिमावत, वा कित जीमहु ऊठि गई है। खाइ नहीं कछु बौत कही उन, रोइ लगी गरि कैस दई है। रांड जिमाइ दये हरि काढ़त, पात भये जरि वोप नई है। सोक रह्यौ वह काहि सुनांवत, भूप सुनि जिम होत भई है ॥५२५ आप चले जगनाथ चढावन, आई लये नृप फौज चढ़ाई। द्यौ हमकू नग के अब झेलहु, चाकर हैं नृप के न बसाई । नांहि बिगारहु न्हांइ र देबत, डारि दयो जल मांहि दिखाई। ल्यौ प्रभुजी यह है तुम्हरौ नग, भक्त गिरा सुनि धारत आई ॥५२६ ये ग्रह आव तवै जल थाहत, ढूंढ रहे कहु खोज न पायो। भूप गयो सुनि नीर कढावत, पाइ नहीं उर बौ दुख छायो। श्रीजगनाथ कही उन द्यौं सुधि, प्राइ कह्यौ जन देह भूलायो। जाइ लख्यौ हरि कंठ लस्यौ अति, नैंन भयौं सुख जाइ न गायौ ॥५२७ भूप भयो दुख छोड़ि दयो अन, अंगद ल्यावन विप्र पठाये । दे धरनौं नृप वैन कहे सब, आइ दया चलि के पुर आये। सांमुहि प्रांनि परयौ नप पांइन, लाइ लयो उर पेम समाये । भूप दयो सव भक्त करी तब, जीवत लौं हरि के गुन गाये ॥५२८ मूल भूप चत्रभुज भक्ति की, कौ नप करै बरोबरी ॥ सुनें प्रावते संत कौस, चहूं साम्हैं जावत । हरमि प्रांनि सुख देत, प्रभु सम जांनि लड़ावत । धोवत दंपति चरन, वही चरनांमृत लेवत । स्यंघासन पधराइ, नृत्य करि है यौं सेवत । गात रहि करौलीनाथ की, तन माया प्रागै धरी। भूप चत्रभुज भक्ति की, को नृप करै बरोबरी ॥३३३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] राजा चत्रभुज को टीका जोजन चौकिहु, प्रात सुनै जन जाइ र ल्यावै । छंद इंदव सैर चहुं दिसि दास पधारत है जब धांमहि, रीति करै सु छ मधि गावै । भूप सुनी इक बात अनूपम, खोलि खजांन सबैहि रिभावे । पात्र कुपात्र विचार नहीं उर, यों कहि कैं नृप सीस धुनावै ॥ ५२६ भागवती दिज भूप कनें हुत, भक्त कही इम चित्त न धारौं । आसय पाइ सुकौं नय सौं पढि, हैं हिरिदै महि हेत अपारौ । पारष लेवन भाट पठावत, भेष करचौ कहि दास द्रवारौ। भूलि गयो कुल जाइ बखानत, जांनि लये जिन माहि पधारौ ॥ ५३० मासक जात रह्यो चित प्रावत, दास खरौ दरि जाइ सुनावो । जाहु निसंक गयौ नृप प्राक्त, वै घर रीति करी उर भावौ । साध भगति सुलक्षन नांहिन, पारिख लै न पठ्यौ कि नचावौ । कोस दिखाइ दयौ द्रबि निर्तत, कौड़ि जरी लपटाइ चलावौ ।।५३१ इ कही नृप पर्यंत मैं सब, द्रब दिखाइ र वैं हु दिखायौ । खोलि जरी लखि है मधि कौड़िहु, भूप बिचारत नां चित प्रायौ । पंडित भागवती स महापट, रैंनि प्रलोकि र आइ सुनायौ । भेष भगत्ते जरी यह मांनहु, संपट मांहि सरीर लखायौ ।। ५३२ पाव लये नृप आप पधारहु, आसय ल्याय भलें समझावौ । जात भये दिज पाइ परयौ भुज, पेम भयौ प्रति ग्यांन सुनावौ । सीख मर्ग नहि चालन देवत, कोस खुलावत लैत न दावौ । साहु कीर उभै इक द्यौ मम, देत लई दिज कै मन चावौ ।। ५३३ प्रात सभा नृप बात चलै बहु, रांम भूप सु बूझत बात कहौ सुनि, ल्यौ इन पंक्षिन हैं हरि प्यारे । कोटि जिभ्या सु बखान करों तउ, पार न भक्ति पगें सिर धारे । कहै सब ही खग झारे । ल्यौ खग कौं मन स्यांम रह्यौ लगि, रीति भली मिलि ये सु पधारे ।। ५३४ छपै Jain Educationa International राघवदास कृत भक्तमाल मूल संतन कौ सनमान बहु, भूपति कुल मैं इन करचौ ॥ सूरजमल श्ररु रामचंद, टोडे पूजे जन । साधु सेये मेरत, जैमल साचै मन । For Personal and Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित कान्हर जनभक्ता । नीबौ नेमी भैरांम, ईस्वर बोरम करमसी, सुरतांन सुरक्ता । भगवान राइमल अखैराज, मधुकर संतन बसि परयौ । साधन को सनमान बहु, भूपति कुल मैं इन करंचौ ॥३३४ जैमल की टीका इंदव जैमल भूप रहै पुर मेरतै, जांनत भक्ति कथा कहि प्राये । छंद संतन सेव करि प्रति प्रीतिहि, हेत सुनौं हरि फेरि लड़ाये । मंदिर कौं तलि जांनि छतां परि, बंगलहुं चित रांम कराये । सुंदर सेज पिछांवन वोढ़न, पांन जरी परदा लगवाये ।। ५३५ नीसरनी धरि जाइ सुधारत, दूरि करै फिरि चौकस राख । यौं मन धारत स्यांम पधारत, पांन उगारत पौढन जन तनै तिय जाय चढ़ी धरि, सोत किसौर लखे पति दाखे । होत सुखी सुनि वाहि उरावत, भाग बड़े तिय के हम पाखै ।।५३६ भाखे । छपै [ १७१ मधुकर साह को टीका इंदेव साह मधुक्कर नांव करयौ सिधि, स्वांग गहै गुन छाड़ि असारें । छंद भूप भयौ सुख रूप सु प्रौंड़छ, लेत बड़ौ पन नांहि बिसारें । माल धरै उनकें पग पीवत, भ्रातं दुखी खरकै गरि डारै । धोइ पिये पग न्ह्याल करयौ मम, दुष्ट परे पग है द्रिग धारें ।। ५३७ मूल भक्ति उजागर करन कौं, खैमाल रतन राठौर हुव ॥ रांमट राजै । निज दासन कौ दास, सरस सुत सेवा सुमर्न ध्यांन, भक्ति दसधा घरि गाजै । नांती नृमलकिसोर, जेण जस नीकौ गायौ । छाजन भोजन प्ररपि, समभि साधन सिर नायौ । इम करी जैति जैतारण्यां, जन राघो जिम प्रहलाद ध्रुव । जक्त भक्ति बांकीक सीस, दुसह कर्म उर धरयौ, जहर का जांने निराइ, भक्ति महिमां भक्ति उजागर करन कौं, खेमाल रतन राठौर हुव ॥ ३३५ रांमरैंनि रजु करि दई ॥ ज्यूं पर हित संकर । निंदाकर | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] राघवदास कृत भक्तमाल प्रगट गांध्रबी ब्याह सु, ताकौ कीयौ रास मैं। सकुंतला दुसकंत, पुत्र भरतादि जास मैं। प्रांन नृपति सुनि कुमन है, यह काहूपें नां भई। जक्त भक्ति बांकीक सीस, रामरेंनि रजु करि दई ॥३३५ रांमरेंनि को टीका इंदव पूनिव सर्द समाजहि निर्तत, रास-बिलास करयौ अति भारी। छंद भीजि रहे जुग रांम कही तिय, देंहि कहा दिज जो तुम प्यारी। सोधि बिचारत है पुतरी प्रिय, रूपवती अनुरूप निहारी। सोचि परे सब जांइ रु ल्यावत, कान्ह बने उन देत कुमारी ॥५३८ छपे मूल गुर गोबिंद संतांन सूं, राम बाम साच मतै ॥ साधां कह्यौ सु सबद, तांहि प्राचं उर प्रांन्यो । नवमां प्रेमां प्यार, दूसरौं धरम न जान्यौं। यह पको पन पाहि, गोत्र अच्युत प्रिय लागे । खीर-नीर सुबिचार, प्रांन कहूं मनहुं न पागै। भक्त सबै राजां कहैं, राघो नारांइन नौ । गुर गोबिंद संतांन सूं, राम बांम साचै मते ॥३३६ __ राजांबाई की टीका इंदव राजा रु राम मधुब्बन आवत, दाम रखे नहि संत जिमाये। छंद मारग कौं खरची न उदार सु, हाथनि मांहि करा दिठ आये । मोल हुते रुपया सत पांचक, नाभा गये तिन कौं पहराये । बोलि कही पति कौं लखि रीझत, ब्याज लये घरि आइ खिनाये ॥५३६ छपै मूल जुगल बात खेमाल की, ते किसौर प्रादर करी ॥ पगनि घूघरू साजि बाजि, नग धरपैं निरत्यौ । कृष्ण कलस धरि सीस, ल्याय आपन जल बरत्यौ। नमल गिरा उद्यौत, भक्ति की रीति उचारन । सील सुद्ध रस रासि, साध पदरज सिर धारन । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १७३ बय छोटी गुन हैं बड़े, जग में महिमा बिसतरी । जुगल बात खेमाल की, ते किसौर आदर करी ॥ ३३७ किसौर को टोका इंदव छाड़त देह खिमाल भरे द्रिग, पूछत है सुत खोलि कहीजे । छंद देन कहौ जु भरयौ घर संपति, बात रही जुग सो सुनि लीजे । मांनि बड़ाइ समाइ रही वुधि, नांहि बनी मन पैं अब खीजे । सीस धरचौ कलसा जल नावत, नूपर साजि न निर्तत भीजे || ५४० होत सबै चुप कांम सु डीलहि, नाति किसौर को मम दीजे । बात करों जुग जोलग जीवत, ऊठि मिलै निहचं यह कीजे । धां चले सुख पाइ लयो पन, साधत है निति भाव सु भीजे । बै लघु भक्ति बड़ी बिसतारत, साधन सेवत है सब री || ५४१ छ मूल फलत बेलि खेमाल की, मधुर महा श्रति पोंन फल ॥ पग्यौ प्रेम परपक्क, पथक पंक्षी जन पावत । हरीदास हद करी, हंस हरि-भक्त लड़ावत | कायक । पूजन लाइक । हिरदौ कवल । मधुर महा श्रति पोंन फल ॥ ३३७ रांम रोति वह प्रीति, अनन्य मन बाचक हरि प्यारे गुर रांम राघो साध निहारि कैं, फलत बेलि खेमाल की, प्रति उदार कलिकाल मैं, निर्मल नोबा खेतसी ॥ निति कथा निकेत, दरस संतन को पावें । गगन मगन गलतांन, उ भ्राता जस गावै । छाजन भोजन देइ, भक्ति दसधा के श्रागर । रामहि रटि राठौर भये, तिहुं लोक उजागर | जन राघो बढ्यौ अंकूर उर, हाथि चढ़ी निधि हेतसी । प्रति उदार कलिकाल में, निर्मल नीबा खेतसी ॥ ३३८ प्रेम मगन कात्याइनी, देत वारि तन के बसन ॥ गोपिन ज्यौं श्राबेस, हो गदगद सुर जगत प्रजा परपंच, रहत बैरागहु ग्रीवां । सींवां । Jain Educationa International तिनूं कूं प्रफुलत ह्वै For Personal and Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] राघवदास कृत भक्तमाल चली जात मग श्राप, गात ऊंचे सुर भगवत । कीं मजीरा मृदंग, जांनि ये पादप बजवत । राघो द्रुम-दल पात लगी, बोलत सुनि होवे प्रसन । प्रेम मगन कात्यायनी, देत वारि तन के बसन ॥ ३३६ गोपाल बिरहि गोपी जरी, ज्युं मुरारि देही तजी ॥ मरुत देस में गांव, बिलूंदा परगट होई । साध सभा परमारण, अंध्री नूँपर साजि, प्रांन पयांनों कीयो, राधो सी को करें, गोपाल बिरही गोपी जरत, ज्यौं मुरारि देही तजी ॥ ३४० महौछव उत्म सोइ । रिझायौ । दिखायौ । प्रीति मांहि नांहीं कजी । स्यांम- सुंदरहि देसी जगदीस मुरारिदासजी को टीका इंदव दास मुरारि जु भूपति के गुर, न्हाइ र श्रावत कांन परीजे । छंद पूजन येक चमार करै कहि, पात्र चर्चांमृत कौ जन लीजे । जात भये घरि कांपि उठ्यौ वह, दै हमकौं अब पांन करीजे । नींच कहै हम तैं प्रति ऊंचहि जानत ने तव यौं कहि भीजे ॥५४२ नैन बहे जल मो बड़ है दुख, हौ तुम धीर सु मोहि न छाजै । लेत भये हठ सौं जनता पट, जाति न ले हरिभक्तिहि काजै । बात भई सब गांव स निंदत, भूप सुनी यह वान सुहाजै । देखन प्रत भयौ प्रभु जी वह, भाव नहीं लखि यौं उन राजै ॥५४३ पूजन सू प्रति हेत गये तजि, भूप दुखी सुनिकै यह बातें | होत समाज समंत्सर मैं निति, दीखत नांहि लख्यौ उतपात | ल्यांन चले जित दास मुरारिहु, दंडवतं करि है प्रसु पाते । देखत नां मुख फेरि दई पिठि, लोग कहै गुरहू सिष ख्यातै ।। ५४४ जोरि खरौ कर दीन कहै प्रति, दंड करौ सिर यौं मुख भाखी । नां घटती मम आप कही घटि, भांति करी बढती तुछ राखी । होत खुसी सुनि दै दिसटांतहि, लै बलमींक कही बहु साखी । प्रत भये सुनि संत पधारत, होत समाज उसौ सब दाखी ||५४५ भौत गुनी जन नांचत गांवत, साधन के चित स्वांमि न देखें | साजि र, सप्त सुत्रिय ग्रांम बसे । आप उठे पग घुघरू Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १७५ आरन जान समैं रघुनाथहि, गात चले तन जीवन लेखे । होत सबै दुख दास मुरारि न, पासि गये हरि कै अबरेखै ॥५४६ चतुरपंथ बिगति बरनन-मूल वै च्यारि महंत ज्यू चतुर न्यूह, त्युं चतुर महंत नगुनी प्रगट ॥ सगुन रूप गुन नाम, ध्यान उन बिबिधि बतायो। इन इक अगुन अरूप, अकल जग सकल जितायौ । नूर तेज भरपूरि, जोति तहां बुद्धि समाई। निराकार पद अमिल, अमित प्रात्मां लगाई। निरलेप निरंजन भजन कौं, संप्रदाइ थापी सुघट । वै च्यारि महंत ज्यूँ चतुर ब्यू,त्यूचतुर महंत त्रिगुनी प्रगट ॥३४१ नानक कबीर दादू जगन, राघो परमात्म जपे ॥ नानक सूरज रूप, भूप सारै परकासे । मघवा दास कबीर, ऊसर सूसर बरखा-से । दादू चंद सरूप, अमी करि सब कौं पोषे । बरन निरंजनी मनौं, त्रिषा हरि जीव संतोषे । ये च्यारि महंत चहं चक्क मैं, च्यारि पंथ निरगुन थपे । नानक कबीर दादू जगन, राघो परमात्म जपे ॥३४२ इन च्यारि महंत त्रिगुनीन की, पधित सू निरंजन मिली ॥ रांमांनुज की पधित, चली लक्ष्मी तूं आई। बिष्णुस्वांमि की पधित, सु तौ संकर तैं गाई। मध्वाचार्य पधित, ग्यांन ब्रह्मा सुबिचारा। नीबादित की पधित, च्यारि सनकादि कुमारा। च्यारि संप्रदा की पधित, अवतारन सूह चली। इन च्यारि महंत ब्रिगुनीन की, पधित निरंजन सूमिली ॥३४३ जन नानक दादूदयाल, राघो रवि ससि ज्यू दिपै ॥ मध्वाचार्य के मत ब्रह्मा, विष्णस्वांमि के पति उमा। नीबादित के सनकादिक मत, रामांनुज के मत रंमा । कलपबृक्ष पुनि मध्वाचार्य, बिष्णस्वामि पारस तक्ष । नीबादित चितामनि चहंदिस, रामानुज कलिकांमदुघा लक्ष। टिप्पणी-बूंद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल ये च्यारि संप्रदा च्यारि मत, क्षत ऊपरि कतहुं न छिपे । जन नानक दादूदयाल, राघो रवि ससि ज्यू दिपं ॥ ३४४ श्री नानकजी को पंथ बरनन उत्तर दिस उत्म भयो, नृगुन भक्त नानक गुरू ॥ क्षत्रीकुल उतपत्ति, ताहि सबही जग जांनें । मिले श्राइ प्रब्रह्म, चरावत पाडी तांन । कौ पाइ रे दूध, कही ये छोटी पाडी । हरण कौ तौ बैठि दूही तब आई नाडी । सीस हाथ धरि यों कह्यौ, नृगुन भक्ति बिसतार कुरू । उत्तर दिस उत्म भयौ, नगुन भक्त नानक गुरु ॥३४५ इंदव चित की वृत्ति जोति करि हरि प्रीति सु, नांव सूं रत्त भयो सेनानक । रांम भजै रस प्रेम कौ पानक । उत्तर देस मैं ऊपजै मांनक | काल करम्म के दै गयौ चानक ॥ ३४६ ज्ञांन करें मुख प्रांनन उच्चरं, केवल येक श्रद्वीत श्रदम्भत, राघो करारी महाकररणी जित, १७६. ] छपै साहिबजादा । भगवंत हसन बालू प्रिये । श्रीनानक गुरतें ऊपजै, उभै भ्रात हरि भक्त ये ॥ लक्ष्मीदास ग्रह बास तास के श्री वंद कै बैराग, उदासी जा श्रीचंद के चतुर सिष, चहुं दिसा उत्तर पूरब दखिन पछिम, प्रसथांन अलमस्त फूल साहिब भगत, श्रीनानक गुर तैं ऊपजै, उभै भ्रात हरि भक्त श्रीनानक गुर पद्धित चली, ताकौ करौ बखांन जू ॥ निराकार निरलेप निरंजन, नानक मिलिया । उनके अंगद भये, रांम भजि रांमहि रलिया । नंद के पुनि अमरदास, श्रमरापद पायौ । रामदास ता पाटि, रांम के अर्जुन हरि गोबिंद हरिराइ जन, हरि कृष्ण तजी हद प्रांन जू । श्रीनानक गुर पद्धित चलो, ताकौ करौ बखांन जू ॥ ३४८ भायौ । इति नानक पंथ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only परसादा । पुजाये । बनाये । ये ॥३४७ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित छौ अथ श्रीकबीरजी साहिब को पंथ बरनन-मूल पूरब महि प्रगट भये, जन कबीर निरगुन भगत ॥ arat बाहर निकसि, कहूं को जात जुलाहौ । बृक्ष तरें इक बाल परचौ सो बोल-बुलाहौ । ताकौ ले घर गयौ, सौंपि तिरिया कू दोनों । ग्याती सकल बुलाइ, बहुत उद्दब तिन कोन्हौं । बड़े भये रांमहि भजै, काहू सूं नांहीं सकत । पूरब महि प्रगट भये, जन कबीर निरगुन भगत ॥ ३४६ निसंक मन ॥ त्यागियो । जगत भगत घटदरस सूं रहे कबीर परब्रह्म गुर धारि, भरम सब द्वीत पंडो जरत उबारि, राजगृह प्रेम पागियो । बालिध है बर पाइ, भक्त षटदरसन पोषे । ब्राह्मण झूठहि न्यौत्या ये वह महंत संतोषे । स्याह सिकंदर जीतियो, सभा बोचि नरस्यंध बन । जगत भगत षटदरस सू, रहे कबीर अथाह थाह पाऊं नहीं, क्यूं जस कहूं श्री राम निरंजन रूप, जाति जग कहै जुलाहौ । कासी करि बिश्राम, लीयौ हरि भक्ति सु लाहौ । हींदू तुरक प्रमोधि, कोये अग्यांन तं ग्यांनी । सबद रमैंरणी साखि, सत्य सगला करि मांनी ' । १. जांनि । +'स' प्रति का प्रतिरिक्त पद मोटो भगत कबीर, भगत सब मांहे सोरोमन । जामन इमृत भाव, पीय रस भगत करौ मन । इक रांम रांम रस रांम जप मुख इम इमृत रस । भगतिन हित वैराग, कथ नीत हरि जस । कुल नीचौ करणी बडी, कब लग बात बखानिये । भगतन के सिर सेहरो, असे कबीर जानिये ॥ [ १७७ प्रमांनंद प्रभु कारणं, सुख सब तज्यौ सरी (र) कौ । प्रथा थाह पांऊँ नहीं, क्यौं जस कहूं कबीर कौ ॥ ३५१ Jain Educationa International निसंक मन ॥३५० कबोर कौ ॥ For Personal and Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 ] राघवदास कृत भक्तमाल मनहर अजर जराइ के बजाइ के बिग्यांन तेग, कलि मै कबीर असे धीर भये धर्म के। मारचौ मन मदन से सदन सरीर सुख, काटे माया फंदन से बंधन भ्रम के। निडर निसंक राव रंक सम तुल्य जाकै, सुभ न असुभ माने में न काल-कर्म के। जीति लीयो जनम जिहांन मैं न छाड़ी देह, राघो कहै राम मिलि कीन्हे काम मर्म के ॥३५२ मूल ज्यूं नारांइन नव निरमये, त्यूं श्री कबीर कीये सिष नव ॥ प्रथमहि दास कमाल, दुतीय है दास कमाली। पद्मनाभ पुनि त्रितीय, चतुरथय राम कृपाली। पंचम षष्टम नीर खीर, सप्तम सुनि ग्यांनी । अष्टम है ध्रमदास, नवम हरदास प्रमांनी। नवका नव नर तिरन कौं, जन राघो कहयौ पयोध भव । ज्यं नारांइन नव निरमये, त्यं श्री कबीर कीये सिष नव ॥३५३ कबीर कृपा से ऊपजी, भक्ति कमाली प्रेम पर ॥ सदा रही लैलोन, सील की अवधि अपारा। क्षमा दया सतकार, झूठ जान्यौं संसारा । श्री गोरख मन भई, कमाली पारिख लीजै। अलख जगायो प्राइ, हमारौ पत्र भरोजे । राघौ डारयौ येक बर, उमंगि पत्र परियौ सु घर । कबीर कृपा से ऊपजी, भक्ति कमाली प्रेम पर ॥३५४ श्री कबीर साहिब्ब थे, ज्ञांनी पायो ज्ञान कौ ॥ पछिम दिसि उपदेस, कोयौ परमारथ काजै। भक्ति ज्ञान बैराग, सहित श्रबोपर राजै। काम क्रोध मद मोह, लोभ मछर नहीं काई । धर्म सील संतोष, दया दीनता सुहाई । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १७९ राघो रोस रती न उर, दूरि कोयो अभिमान कौं। श्री कबीर साहिब्ब पैं, ज्ञांनी पायरे ज्ञान कौं ॥३५५ श्री. कबीर कृपा करी, धर्मदास परि धर्म की॥ करता सति साहिब्ब, और दूसर नहीं जाने। भक्ति धरी अति गूढ़, देखिकै सब हैराने । चौकौ अरु आरती, पान परवानां दीजै। बंदी छोडिहि संत, सेव मन बच क्रम कीजै । गर्दै मंडल धांम भल, राघो कही सु मरम की। श्री कबीर कृपा करी, धर्मदास परि धर्म को ॥३५६ गुर धर्मदास को धर्म धनि, नीकै धारयौ सिष इन ॥ चूड़ामनि चित चतुर, पुत्र कुलपती बंस के । सर्बगि साहिबदास, मूल दल्हंण अंस के। जाग२ जग सं तरक, भक्ति भगता कौं प्यारी। मुर्ति गुपाल श्रुति सांधि, सकल सत-संगति प्यारी। सिष पांच प्रसिध या कबित मैं, राघो नाती द्वै कहिन । गुर धरमदास को धर्म धनि, नोंके धारचौ सिष इन ॥३५८ इति कबीर साहिब को पंथ __अथ श्री दादूदयालजी कौ पंथ बरनन दादू दीनदयाल के, जन राघो हरि कारिज करे ॥टे. दल भये सांभरि सात, सवनि के भोजन पायौ। प्रकवा सं मिले, तेजमय तखत दिखायौ। काजी को कर गल्यौ, रूई को रासि जराई। चोरी पलटे अंक, समद मैं भयाज तिराई। साहिपुरै साहज मिले, हरि प्रताप हाथी डरे । दादू दीनदयाल के, जन राघो हरि कारिज करे ॥३५६ दादू जन दिनकर दुती, बिमल बृष्टि बांरणी करी ॥ ज्ञान भक्ति बैराग, भाग भल सबद बतायो । __ कोड़ि गूंथ को मंथ, पंथ संखेप लखायौ । १. कू। २. जागू। ३. सुति । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० राघवदास कृत भक्तमाल मनहर बिसुद्ध बुद्ध अबिरुद्ध, सुद्ध सर्बग्य उजागर । प्रमानंद परकास, नास निगड़ांध महाधर । बरन बूंद साखी सलिल, पद सरिता सागर' हरी। दादू जन दिनकर दुती, बिमल बृष्टि बांरणी करी ॥३६० टोका ___ सागर मैं टापू तामैं तीन सिध ध्यान करै, येक कू जु अाग्या भई जीव निसतारिये । नभबांनी भये ऐक सिध सो गुफ्त भये, पीछे दोइ रहे उन प्रभु उर धारिये । धरा गुजरात तहां नदी बही जात येक, ब्राह्मण सु न्हात सौंज पूजा को संवारिये । पुत्र की चाहि अति बैठौ सारवंती जिति, पींजरा आयौ तिरत याकौं तौ संभारिये ॥५४७ देख्यौ खोलि ताहि खेल लरिका सो मांहि उन, लयो गरिबांहि यह प्रभु मोहि दयो है। भई नभबांनी केइ उधरेंगे प्रानी या सौं, सति सुनि जांनी मन अचंभा जु भयो है । लोदीरांम नाम नागर ब्राह्मण जाम, लछि जाकै धाम बहु लैकै घर गयो है। बांटत बधाई पुत्र हौ ज नहीं भाई मेरे, __माया यौं लुटाई धूरि जांनि के रुपैयो है ॥५४८ बड़े भये दाजू बालकनि मांहि खेलै, बृद्ध रूप धारि हरि पीसा प्रांनि माग्यौ है । देखि बिकराल रूप बाल सब भाजि गये, रहे येक दादूजु माथै भाग जाग्यौ है। कहै मैं जुल्यांऊ पीसा ठाढ़े रहौ इहां ईसा, बेगि जाइ देख्यौ खीसा पीसा हाथ लाग्यौ है । दौरि के सताब आयौ प्रभु लेहु पोसा ल्यायौ, कीजिये जु मन भायो मेरौ डर भाग्यौ है ।।५४६ p -DANEEDHAALI १. सागुर। २. संति । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित Jain Educationa International सूधो कर कीयो जब प्रभु जांनि लीयौ तत्र, नग्र मैं तू जाहु अब याके पांन लाइये | सुनित सिताब गये तंबोली तें पांन लये, प्रांनि कैं हजूरि भये हाथ ले चबाइये | रीभि मैं त्रिलोकनाथ सीस पैं जु धरचौ हाथ, ऊमंगि चूनां पान काथ दादू कौं खवाइये | अंतरध्यांन भये हरि दादूजू गये घरि, मन मैं बिचारी फिरि ध्यांन लै धराइये ।। ५५० मिष्टबांनी करी तामैं गायो हरी प्रेम ते जु, प्रगटे सांभरी दादू स्वांग नहीं धरचौ है । दिवाले पद गावै असुरन कूं न भावै, कोउ आइ संता तासूं रोसहु न करचौ है । की दीन्ही थाप मनमैं न ल्यायो श्राप, ताही समैं चढ़ी ताप भुजा दुखि मरचौ है । येक दिनां फिरि गाये पांच सात सुनि आये, पकरि उठाये लै कैं भाखसी मैं जरयौ है ।। ५५१ दिवाले भाक्सी दोऊ जगां बैठे खुसि सब, काजी रहे खसी कछु पार नहीं पायो है | सुनी सिकदार सब दुनो की पुकार प्रति, दादू डारौ मारि हाथी मत्वारो झुकायो है | नीरै हू न जाइ पीछे पीछे धरै पाइ बैठो, संघ गरराइ देखि दूरि तें नसायो है । छत मंडवाई कोऊ दादू के जु जाई देगी, येक सौं रुपैया भाई सौ बांचिकें सुनायो है ।। ५५२ साहूकार पनधारी प्रसन कौं गयो जब, दादू से कह्यौ दंड छीत बांचि दीजिये । पकरि ले जाई अंक छींत पलटाई कोऊ, दादू के न जाई दंड ताकै पासि लीजिये । येक दिनां सात नौंते येकठे ही आये होते, बुलाबे कौं प्राये जेते चालि करि जजिये । [ १८१ For Personal and Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ] राघवदास कृत भक्तमाल प्रभु सात देह धरि सबही के जयें' घरि, हरि येक रूप पीछे हूं रहीजिये ॥५५३ काजी फिरि कही दादू मारौंगो सही अब, रूई घर महीं बहु बिनां आगि बरी है। बैल बिन जारे उन सबही उधारे अजु, पद सुनि धारे उर बासनां सु जरी है । साहिपुरै२ आये तहां रूप द्वै दिखाये हम, भूले फैटा छरी घरि भावनां सु फरी है। खाटू मैं झुकायौ हाथी दादू कै है साथी प्रभु, चरन छवाइ सुंडि सीस परि धरी है ॥५५४ सातसै ही साह तामैं सात कोरि माल भरयौ, गरयौ हैं गरब झ्याज सागर मैं अरी है। अपने जो इष्टदेव सबही संभारे अजु, पचि पचि हारे बहु बूड़े ते जु खरी है। देसहु ढूंढार तहां मांनस्यंघ राज करै, सहर आंवेर जहां गावै दादू हरी है। ऊपर लेखन मैं जु चढ़ि येक साहूकार, दादू दादू कह्यौ टेरि फेरि झ्याज तरी है ॥५५५ सागर के तटि देव नगनिकटि जहां, सातसै ही साह सेठ नंद आदि आये हैं। दादू गुर आये जल बूडत जिवाये बहु, कपरा बटाये अर्ध माल लै खुवाये हैं। नांनां पकवान गिरि मेवा मिष्टांन जामैं, दिज अरु साध षट-दरसन जिमाये हैं। राघो कहै संन्यासी हिंगोल जु कपिल मुनि, प्रांबांवती आइ गुनी बचन सुनाये हैं ॥५५६ अकबर महिमां सुनि दादू जु बुलाइ लये, गये बेगि गैल मांहि ढील नां लगाई है। १. मैंयें। २. साहिबपुर। ३. खाट । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित छपे छ १. जगम । कबर बीरबल बुधि के आगर दोऊ, दादू अभय के घर चरचा चलाई है । गोष्टि समझायौ गैबी तखत दिखायौ ताहि, जाहि तेजवंत देखि करत बड़ाई है । गऊ छुड़वाई कोउ जीव न संताई अरु, सौगन कढाई अजू साहिब दुहाई है ।। ५५७ जुगम' - मूल दादूजी के पंथ प्रथम मैं, ये बावन द्रिग सु महंत ग्रोब मसकीन, बाई द्वै सुन्दरदासा । रज्जब दयालदास, मोहन च्यार जगजीवन जगनाथ, तीन गोपाल गरीबजन दूजन, घड़सी जैमल प्रकाशा | बखांनूं | द्वै जनूं । बनवारि द्वै । सादा तेजानंद, पुनि प्रमांनंद साधूजन हरदासहू, कपिल चतुरभुज पार ह्वै ॥ ३६१ चत्रदास द्वै चरण, प्राग द्वै चैन प्रहलादा । चांदा । संकर । बखनौं जग्गोलाल, माखू टोला श्ररु हिंगोलगिर र हरिस्यंध, निरांइग जसौ भांभू बांभू संतदास, टीकूं स्यांम माधव सुदास नागर निजांम, जन दादूजी के पंथ मैं, ये बांवन द्रिग सु महंत ॥३६२ हि बर । राघो बलि कहंत । Jain Educationa International श्री स्वामी गरीबदासजी कौ बरनन को, दादू दीनदयाल गरीबदास गादी तपे ॥ भजन सील की अवधि, सेस सिंभू सुत जांनूं । बोंन गांन परबीन, दूसरे अज सुत मांनौं । रिवसुत सम दातार, संत पर्षत मिथलेसं ३ । सिंध-सुता कर चढ़ी, सु तौ संची नहीं लेसं । दिल्लीपति इयांगीर दत देत ताहि नाहि न लिपे । दादू दीनदयाल गरीबदास गादी तपे ॥ ३६३ की, २. हिंगोपालगिर । ३. मथलेस । [ १८३ ४. लगी । For Personal and Private Use Only 1 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल १८8 ] मनहर दादूजी के पाटि तप्यौ गाइये गरीबदास, जाकै पासि रिधि सिधि अनबंधी प्रावई। गोबिंद गुनांनबाद प्रादि ऊंकार-नाद, छबिसौं छतीस राग ग्रंधब ज्यूं गावई । नारद ज्यूं बीनकार जग मधि जै-जै-कार, . गुपत गुनचास तान प्रगट बजावई । राघो जारणी राम रीति हरिदै हरिजी सूं प्रीति, ___ भगति को पुंज भगवंत जी कौं भावई ॥३६४ दादूजी सुवन सूरबीर धीर सापुरस, गरीबनिवाज यौं गरीबदास गाइये । जाको जस कहत सुनत सुधि बुधि बढे, .. रिजक फराक होत ग्यांन ध्यान पाइये। हिकमति हुनर हकीम लुकमान के से, अति ज्ञांनी गाजी म्रद नितिही मनाइये । तन मन धन अपि रामजी रिझायो जिन, राघो सोचै राति दिन सो' व क्यूं' रिझाइये ॥३६५ दादूजी के पाटि दीप गाइये गरीबदास, जाकै पासि रिधि सिधि दै-दै-कार देखिये । बक्ता जैसे व्यास मुनि भजन प्रहलाद पुनि, नरन मैं नारद ज्यूं गुनकौं बसेखिये । भक्ति कौ पुंज भगवंत रच्यो भुव परि, रहै तिको सारौ सनकादिक मैं लेखिये। राधो धोरी भ्रम धुज प्रसिधि प्रवीण पुंज', __ गुरकै पछोपै गरवाई प्रति पेखिये ॥३६६ दादूजी के पाट परि गाइये गरीबदास, ___ जाकै पासि दिल्लीपति द्रसन कौं प्रावई । प्रीषम की समैं महा तृषा जु तरल लगी, सब ही को चित भगी घटा बरखावई। १. सोबकू। २. पूज। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १८५ अजमेरि सांभरी सहेत कछु द्रब्य लेहु, ___साहिब के नाइ तुम देहु अर खावई । राघो कहे गैब के तुरंग दिखलाइ दीये, झांगीर पाव लोये ग्रोब मन भावई ॥३६७ स्याह जहांगीर जब चले अजमेर पीर, सुने हैं गरीबदास द्रसंन कौं प्रायो है। कूवा अरु बावरी तलाब सब सूके परे, ग्रीषम की रुति सब कटक तिसायौ है। गायो है मलार मेघ बीनां झुनकार करि, सांवन की घटा जैसैं घन बरखायो है। दोऊ कर जोड़ि लीये सांभरि अजमेरि दीये, स्वामी न कबूल कीये स्याम न भायो है ॥३६८ चेतन चिराक बंदा दादूजी दयाल नंदा, प्रगट प्रचंड देग तेग दोऊ चढतौ। तेजसी त्रिकाल-नंसि' प्रचाधारी गुर प्रसि, नांवको लिहारी भारी राम राम रटतो। सोलहू संतोष ध्यांन ग्यांनवांन भागवान, क्षमा दया ध्रम जान गुरबाणी पढ़तौ । रघवा दैदीपमान ब्रह्म मैं समाइ प्रांन, लोक परलोक जस रह्यौ बोल बढ़तौ ॥३६६ अन्यत मनहर भूपनि मैं महा भूप रूप तौ अनूप जाकौ, चतुरन मै चतुर सुतौ गुनीयन मैं गुनी है। बुधि को बाख्यांन ज्ञान जांनिये बासिष्ट जैसौ, संक्र सौ ध्यान अटल सेस धुंनि सुनी है । झक्ति तो नारदा सी, सारदा सौ शबद जाको, जोग जुगति गोरख सौ मुनियनि मैं मुनी है। गांऊ तो गरीबदास और को न करौं पास, . कहत नरस्यंघ असो दूसरौ न दुनों है ॥३७० १. सि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल १८६ ] सुन्दरदासजो बड़ा कौ बरनन इंदव दादू दयाल की साल सिरोमनि, असे घड़े घटवोपमा लाइक । छंद नारद ज्यौं निश्चै निरभै भये, ग्यांन परापरी बेहद बाइक । भीव ज्यू भ्रम उड़ायौ अकासकौं, असौ बली सिध साध सहाइक। राघो कहै पुनि बृद्धि पछोपा की, येक सूं येक अनूप महाइक ॥३७१ इम राम रजा रजबंसी बड़ौ, सति सुन्दरदासजी पंथ मैं पूरौ। गौपि रह्यौ पसरचौ न पसारे मैं, न्यारे मैं ऊपज्यो ग्यांन अंकूरौ। निरबोध निरोध' कोयौ निश्चै, उतरचौ पट २ मैं पट है गयौ दूरौ। राघो कहै गुर दादू की दौलति, मोखि भयौ करि मंगल तूरौ ॥३७२ उत्तर देस नरेस को बालक, प्राइ मिल्यो पतिसाहि के ताई। पेलि दयो मजबूत मवासै मैं, जात ही रारि परी परयौ घाई। चाकर लोग चम्मकि गये भजि, ठाकुर खेत रह्यो उहि ठाई । राघो कहैं सति सुंदरदासजि के रक्षपाल भये तहां सांई ॥३७३ देस को लोग मिल्यो मथुरा मधि, प्राइ कहे समचार सती के । अब तो गृह जांऊं नहीं बृह उपज्यौ, जाइ परौं काहू पाइ जती के। त्यागे हथ्यार तुरी चढ़िबो सब, प्रायुध छाड़ि दीये गृहसती के। राघो कहै सति सुंदरदासजि, चालि गये गुरज्ञांन पती के ॥३७४ परका ले मिठाई धरी जब आग, सु नागै कही सुनि बात रे भाई। सांभरि मैं प्रगट सुगुरू करि, दादू के पाइ परौ तुम जाई। मांनि प्रतीति चले प्रति प्रातुर, प्रांन की प्रीति मिले सुखदाई। रायो कहै सति सुंदरदासजि, मिले ब्रष द्यौस हि मैं सुधि पाई ॥३७५ भगवौं करि भेष रहे ब्रष येकहू, जैसे रहै मनि-हीन भुजंगा। काह नै प्राइ पढे पद स्वामी के, मांनौ सुमेर त ऊतरी गंगा। ज्वू धर सूं सनकादिक अंबर, असें चले जैसे हंस बिहंगा। राघो कहै सति सुंदरदासजी, दादूदयाल के सोभित संगा ॥३७६ मनहर बीकानेरि राजा लघु भ्राता नाम सुंदर हो, छंद बड़ी सूर बीर महा धर्म तेग सारी है। पातिसाहि फौज दई काबिल की महमि भई, सत्रुन सौं लरे आप घांऊ परे भारी है। १. निजबोध नरोध । २. घट । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १७७ खेत मैं न पाये सोऊ लै गयो उठाइ कोऊ, प्रायौ पुर मथुरा मैं सती सुनी नारो' है। राजा मनि आंनी सब छाड़ी रजधानी कीजे, गुर ब्रह्मग्यांनी मिले दादू मनि-धारी है ॥३७७ छयै मनहर रजबजो कौ बरनन दादू को सिष सावधान, रज्जब अज्जब काम कौ ॥ निराकार निरलेप, निरंजन नगुन भायौ । सबंगी तत कथ्यौ, काबि सब ही को ल्यायौ । साखि सबद अर कबित, बिनां दिष्टांत न कोई। जितने जग प्रसताव, रहे कर जोड़ें दोई। दिन प्रति दूल्है ही रह्यौ, त्यागी सही सु बांम को। दादू को सिष सावधान, रज्जब अज्जब काम कौ ॥३७८ दादूजी के पंथ मैं महंत संत सूरबीर, रजब अजब सोहै उनकै पटतरे। नारद के धू प्रहलाद रामचंद्र के हनवंत, कासिब-सुवन जैसे अरक उगंत रे। गोरख के भर्थरी, रामानंद के कबीर, पीपा के परस भयौ धर्म-धारी संत रे। राघो कहै दत के दिगंबर संकर सिष, जासू भये दस नाम वोपमां अनंत रे ॥३७६ रज्जब अजब राजथान प्रांबानेरि आये, ___ गुर के सबद त्रिया ब्याह संग त्याग्यौ है। पायो नर देह प्रभु सेवा काज साज येह, तांकौं भूलि गयौ सठ बिषै रस लाग्यौ है। मौड़ खोलि डारचौ तन मन धन वारयौ सत, सीलब्रत धारचौ मन मारयौं काम भाग्यौ है । भक्ति मौज दीनी गुर दादू दया कोन्ही उर, लाइ प्रीति लीनी माथै बड़ौ भाग जाग्यौ है ॥३८० १. भारो। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल १८८] स्या भयांगीर प लिखाइ परवांनौं ल्यायो, - कंचन को अंकुस घड़ायो मद पीजिये । हारै कोऊ चरचा मैं पालकी कहार करौं, जीत सु तौ पंडित है ताकौं यह दीजिये। बांवन अक्षर सुर सप्त तीस भाषा, यासू उपरांति कथै कबि सो कहीजिये। रजब सौं प्रष्ण करी है कबि चारण नैं, दुरसा है नांव ताको उत्तर भनीजिये ॥३८१ मुख सूं अक्षर अरु मुख सूं सप्त सुर, मुख सूं छतीस भाषा जग मैं बखांनियें। ब्यापक पूरण उर बचन रहत सोई, सिव पर ब्रह्मा जस लोकन मैं गांनियें। दुरसा को भर्म भाग्यौ कहै मेरौ भाग जाग्यौ, गुर उपदेस यही सिष मोहि जांनिये । पालको प्रांकुस भलै भेट कीये रजबकी, मन बच काय सेवा प्रीति सौंज मानिये ॥३८२ अन्यात दंडक तुरकां सिरताज पतिसाही दिली तणौ, कड़खा हिंदवां सीस सिरताज राणौं । छंद राज सिरताज अधपत्ति जु प्रांबेर रो, यौ पंथ दादू तरणें रजब जाणौं। अष्ट-कुल प्रबतां मेर सबरै' सिरै, नवकुली नाग सिर सेस प्रारणौं । नव लखा तार मैं चंद सबरै सिर, यौं पंथ दादू त गों३ रजब मारणौ ॥[३८३] हीदवां हद भई साखि · गीता कही, तुरक मुसफरां राड़ि मूंकी। अनभै आत्म जिती, भगत भाखा तिती, तठे रजब रा सबद सौं प्रांट चूकी। १. परं। २. नव लख। ३. तणें । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टोका सहित [१९ पाव पतिसाहि रा परसि चाकर थक्यौ, __ अलि थक्यौ परसि परजात' फल चाड़। आन रौ ग्यांन सुनि थिर न प्रात्म भई, यौं रजब री कथा सुनि परी अनि पाड़। भूख भागो जबै भेटि अन तूं भई, प्यास भागी तब नीर पीयौ । रजब री रहम सूं फहम लाधो सबै,। यौं अटल रटि मोह नौंर कजीयौ ॥३८४ साखो रज्जब दोऊ राह बिच, करड़ी तुभझ कारण । मनमथ राख्यौ मुरड़ि के, जुरड़ि न दीधो जाण ॥[३८५] इंदव ज्यूं बसि मंत्रक पावत बीर, जहां जस योग तहां तस मूं। वंद ज्यूं धर्मराजक काज करै सब, दूत अनेक रहै ढिग ढूके । ज्यूं नप के तप तेजत कंपत, पास रहैं नर प्राइ कहूं के। असहि भांति सबै दृसटंत सु, प्राग खड़े रहि रज्जबजू के ॥३८६ संझ समैं जु सबै सु रही धरि, प्रात चली जस बछक रागें । भूपति को भय मांनि दुनी जु, अनीति बिसारी सुनीति सु लागें । मोहन ज्यूं बसि मंत्र क बीर, प्रभाति चटा-चट सार कु जागे । यौंहि कथाक समैं दिसटतस, प्राइ रहै घिरि रज्जब प्रागें ॥३८७ छपै ___ मोहनदास मेवाड़ा को बरनन दादू दीनदयाल के, मोहन मेवाड़ौ भलौ ॥ . कीयौ स्वरोदय ज्ञान, सूर ससि कला बताई। . नाड़ी त्रिय तत पंच, रंग अंगुल मपबाई। रोगी गरभ प्रदेस, जुद्ध पग बार गणाये। लगन काल अकाल, असुभ सुभ काज लखायें। हठ जोग निपुन राघो कहै, समाधिवंत गुण को गलौ। दादू दीनदयाल के, मोहन मेवाड़ौ भलौ ॥३८८ - १. परिजात=कल्पवृक्ष । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल १९० ] मनहर दादूजी के पंथ मैं दलेल जाकै प्रांठौं जांम, चंद अति ही उदार मन मोहन मेवारे कौं। छाजन भोजन' पाणी वाणी प्रवाह जाकै, श्रवकौ संतोष दे जितावै मनहारे कौं। विद्या को वनारस पारस जैसे बेधै प्रान, अति मन ऊजलो उजागर अखारे कौं। राघो कहै जोग की जुगति करि गाये हरि, पलटि सरीर तन रूप भरे बारे कौं ॥३८६ भानगढ़ नगर में ब्राह्मण को बाल इक, मृति पाइ गयो सोग भयो उर भारी ये । मोहन कहत यह हम कौं चढाइ देहु, सर्ब ही कह्यौ जु लेहु अब या जिवारिये। बालक मै स्वास भरि बेगिहि उठाइ लीयो, जोग की जुगति तन नौतम बिचारिये। मात पिता भईया र कुटंब मन और भयो, कहै सब देहु अजु हमहि कु मारिये ॥३६० ___ जगजीवनदासजी कौ बरनन दादू को सिष सरल चित, जगजीवन जन हरि भज्यौ ॥ महा पंडित परबीन, ग्यांन गुन कहत न प्रावै। बांणी बहु बिसतरी, साखि दृष्टांत सुहावै। सबद कबित मैं राम राम, हरि हरि यौं करणां । गुर गोविंद जस गाइ, मिटायौ जामरण मरणां । दिवसा मैं दिल लाइ प्रभु, बरणधिन कुल बल तज्यौ। दादू कौं सिष सरल चित, जगजीवन जन हरि भज्यौ ॥३६१ इंदव दादू के पंथ दिप्यौ दिवसा जग, मैं जगजीवन यौँ हरि गायौं । छद कीयो बुद्धि बिवेक सूं ब्रह्म निरूपन, असे अहोनिसि रांम रिझायौ । प्रेम प्रवाह कथा उर अंमृत, आप पीयो रस औरन पायो। राघो कहै रसनां रणजीति ज्यू, नांव निसांन निसंक बजायौ ॥३९२ १. मोजन । २. कहन । ३. को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १९१ मनहर टहलड़ी सुथांन तहां मानसिंघ नृप प्रायो, थार भरि ल्यायो पाक भोजन जिमाइये। कोऊ भाव धारी ल्यायो रोटी तरकारी वह, लागी अति प्यारी मन भारी सुख पाइये। रजों गुनी दांनौं मन राज सब ठानौं होइ, बुद्धि ही कौ हांनौं ग्यांन ध्यांन जु गमाइये । - नोऊ मूंठी भर रुध्र दुगध की झरी नृप, देखि चुप करी जगजीवन न खाइये ॥३९३ बाबा बनवारी हरदास कौ बरनन बाबौ बनवारी हरदास धनि, जिन गुरद्वारै सर्बस दीयौ ॥ दादू गुर दिगपाल, तेज तिहूं लोक उजागर । सिष चहुँ दिसा चिराक, भजन सुमरन के सागर । तिन मधि बरनौं दोइ, उत्म उतराधा भ्राता। सब दिन पर सब रैनि, रहैं हरि सुमरन माता। राघो बलि बलि रहरिण की, भजि भगवंत लाही लीयो। बाबौ बनवारी हरदास धनि, जिन गुर द्वारै सर्बस दीयौ ॥३६४ मनहर दादूजी के पंथ मैं मगन मन माया जीति, छंद बाबौ बनवारी भारी सर्व ही कौ भावतौ । प्रमोध्यौ उत्तरदेस धर्म कीन्हो परवेस, निरंजन निराकारजी को जस गावतौ । रिधि सिधि लीयें लार भजन रदै देकार, दरसन के कारने गुरू के द्वारै प्रावतौ । राघो बिधि सहित बिसेख पूजि गुर पाट, छाजन भोजन सर्ब संतौं कौं चढावतौ ॥३९५ गुर चेला रांमति कौं निकसे सहस' भाइ, दिन के अस्ति भये निसा सैन कीयो है। निरभै निसंक बनवारी सिष प्रमानंद, प्रांनि के उसीसा रैनि प्रिथी मात दीयौ है। १. सहज। २. प्रस्त। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ राघवदास कृत भक्तमाला छपे मनहर प्रिथी अपतेज बाइ रक्षा करै आग्या पाइ, तन मन धन अपि नांव जिन लीयो है। राघो कहै अवनि प्रष्ण भई संत देखि, मुलकत बदन सु हरखत होयो हैं ॥३६६ चतुरभुजजी को बरनन दादू दीनदयाल को, पूरब परसिधि चतुरभुज ॥ कीयौ राम पुर धाम, भक्ति निरगुन बिसतारी। .. गुरभक्ता हरि भक्त, संत भक्ता उपगारी। तुलसीदास हुलास, तास भुज च्यारि दिखाई। बटक वृक्ष के पात, राम रटनां रटवाई। राघो द्वादस सिष सरस, द्वारै दीसत सोम कुज । दादू दीनदयाल को, पूरब परसिधि चतुर भुज ॥३६७ दादूजी के पंथ मैं बड़ी चिराक चतुरभुज, भगति भजन पन कौ कीयौ प्रकास है। भये हैं चिराक सू चिराक सिख सूरबीर, . सदर्गात कोट भृग सम ताकी त्रास है। प्रचाधारी प्रसिद्धि प्रगट भयो पूरब मै, जीव की जीवनि जगदीस जाके पास है। राघो कहै राम जपि पायो है सुहाग भाग, सोभा तीनै लोक जौ लौ धरनि प्रकास है ॥३९८ पोथी करि ल्याये तुलसीदासजी के प्राये, चत्रभुज कह्यौ भाये ब्रह्म चरचा कराइये। गंगाजी के तीर चलैं चत्रभुज कहीं भलैं, म्यांन गली सोधें वार पार की लैं जाइये । चत्रभुज नाम तुम काहे सू कहाये अजु, . चत्रभुज रूप प्रभु जग मैं कहाइये। . धारा मधि पैठि च्यारि भुजाहु दिखाइ दीन्हीं, असे मन भई तुलसीदास समझाइये ॥३६६ वृक्ष येक बट को लगायौ निज हाथ सौं, मेला के समय पूजा करै संत चाइ कैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १९३ अचिरज की बात सुनी जात बहु संतन पैं, पात पात होत धुनि राम राम बाइ के। सिषहू बसंतदास संतदास रामदास, द्वादस महंत पुनि भये हरि गाइ के। रामपुरा ग्राम जहां साधन को धांम तहां, लहै विश्रांम जन बहु सुखदाइकै ॥४०० प्रागदास बिहांणी कौ बरनन छपै दादू दीनदयाल के, सिष बिहारणी प्राग जन ॥ कुल कलि करयौ बिख्यात, डीडपुर कीयौ उजागर । सिष उपजे सिरदार, सील सुमरण के प्रागर । सांभरि सर जल अधर, चले पद अंबुज नाई। नांव लेण की माल, रही उर देह जराई। परमारथ हित भजन पन, राघव जीते प्रांन मन । दादू दीनदयाल के, सिष बिहारणी प्राग जन ॥४०१ मनहर दादूजी के पंथ मै प्रतीत अरि इंद्रीजित, छंद बीहै न बिहारणी प्रागदास परमारथी। सांगोपांग संत सूरबीर धीर धारे तेग, रांमजी के बैठो रथ ग्यांन जाकै सारथी। काम क्रोध लोभ मोह मारिया बजाइ लोह, __भरम करम जीते भीम जेम भारथी। राघो कहै राम काम सारे जिन पाठौं जांम, भजन की माला रही दगध कीयां रथी ॥४०२ दोऊ जैमलजो कौ बरनन छौ दादू दीनदयाल के, भजन जुगत जैमल जुगल ॥ सूर धीर उदार, सार ग्राहक सतवादी। दिढ़ गुर इष्ट उपास, भक्त हरि के मरजादी। पदसाखी निरबांन, कथे निरगुन सनबंधी। भक्ति ग्यांन बैराग, त्याग संतन श्रुति संधी। रजबंसी राघो उभ, कूरम पुनि चौहाण कुल । दादू दीनदयाल के, भजन जुगत जैमल जुगल ॥४०३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवदास कृत भक्तमाल १९४ 1 मनहर दादूजी के पंथ मैं प्रचंड जती जोगेस्वर, जैमलजु हलाहल भजन पन को भलौ । खालिक सूं खेल्यौ र भरम करम डारे पेलि, च्यारयौं पन राख्यौ है चौहांग ऊजलो पलौ । कहरिण रहरिण धुनि ध्यान ध्रम धारचौ नीके, . भजन भंडारे मैंधि राख्यौ भरि के गलौ। राघो कीन्हीं रासि गुर गोबिंद उपासि करि, बिधि सं निपायौ नीकै रिधि सिधि को खलौं ॥४०४ जैमल चौहारण संत रहै बौंली गांम जहां, बसै भेषधारी इक अगनि चलाई है। भरयौ है अग्यांन मूढ समझे न ग्यांन गूढ, प्रभु भजे ताकै परि मूठ अजमाई है। जैसे प्रहलाद प्राप राखे करतार करी, सासना अपार मारचौ दुष्ट नख ताई है। भये है सहाई गुर मंत्र उचराई राम, रक्षा जु कराई हरि सदा ही सहाई है ॥४०५ दादूजी के पंथ मधि बड़ौ रजबंसी येक, कयौ कछू हावौ जोगी जैमल जुगति सुं। अनभै के प्रागर उजागर गिरा को पुंज, छाजू रुचि भ्रातर विख्यात र भगति सूं। तास के पछोपै सिष पूरण प्रसधि भयो, निश्चै निज नांव लीयौ लीयौ पांचू राखे पति सू। राघो व है राम भरिण सदा रह्यो येक परिण, मन वच क्रम करतार गायौ सत्य सूं ॥४०६ प्रादि कुल कूरम कछयौ है जोगी जुगति सूं, ___ जैमल की माता धनि दाता सुत जायौ है । म्हारि के पहार रहै भारथी मुकंद नान, कीयौ परनाम दक्षा देहु सुत प्रायौ है। सिष नहीं करौं मात प्रगटे सुनांऊं बात, दादूजी दयाल गुर याको यौं बतायौ है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १९५ साढ़ा तीन कोड़ि जीव उधरेंगे ताकै लार, असौ परसंग ताहि बरनि सुनायौ है ॥४०७ अहमदाबाद छाडि पाये जब सांभरि मैं, परचे भये हैं तब माता सुधि पाई है। जैमल को ल्याई गाथा प्रादि सो सुनाई सुत, दिक्षा दिवाई सब संतन कौ' भाई है। सुधि न रहाई प्रेम उमंगि चलाई प्रांखि, नीर भरि आई श्रुति सुख में समाई है। जैमल रमाई जाकी भगति लेकै गाई जैसे, सुनी सो सुनाई सीखै भनें सुखदाई है ॥४०८ जनगोपालजी को बर्नन जनगोपाल दादू तणे, हरि भगतन जस बिसतरयौ । धू पहलाद जड़भरथ, दत्त चौवीसौं गुर को। मोह बबेक दल बरिण, दूरि भ्रम कीयौ उर को। गुर की महिमा करी, जनम गुन परचे गाये। टकसाली पद ग्रंथ, दयाल की छाप सुहाई । प्रेम भगति दुबिध्या रहत, करी बैसि-कुल निसतरयो। जनगोपाल दादू तणे, हरि भक्तन जस बिसतरयौ ॥४०॥ मनहर दादूजी के पंथ मैं चतुर वुधि बातन कौं, जांनिये जनगोपाल सर्बही को भावतो। . नीकों बांणी नृमल मिठास तुक तानन मैं, कांनन मैं होत सुख अर्थ सूं सुनावती। मन बच क्रन हरि हारल को लाकरी ज्यूं, ___ कहनां सहित करुणा-निधांन गावतो। राघो भणि राम नाम प्रादि ऊंकार करि, सोस जगदीसजी कौं बारूंबार नावतो ॥४१० सन्यासी सरूप धारे फिरत जगत मांहि, बिन ग्यांन पायें नहीं उर मैं प्रकास जू। छंद १ कू। २. सुभाये। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६] राघवदास कृत भक्तमाल छपै सीकरी सहर मांहि मिले हैं जनगोपाल, भये किरपाल गुरदेव दादू दास जू । सीस परि हाथ दयौ दया परसाद नयौ, देखि के मुदित भयौ नांव में निवास जू । प्रहलाद चरित्र यथा ध्रुव जड़भर्थ कथा, करुणां सूं गाये हरि भक्तन हुल्हास जू ॥४११ बखनांजी को बरनन दादू दीनदयाल के, है बखनौं बात बड़ ॥ गुर-भक्ता जनदास, सील सुठ सुमरन सारौ। बिरहै लपेटे सबद लगत, तिन करत सुमारौ । हरिरस-मद पीय मत्त, रैनि दिन रहै खुमारी। परचे बांरणी बिसद, सुनत प्रभु बहुत पियारी । माया ममता मांन मद, राघो मन तन मारि छड़ । दादू दीनदयाल के, है बखनौ बानैत बड़ ॥४१२ दादूजी के पंथ मै है बखनौं बरैत कबि, . प्रतिहि चुटावो' ततबेता तुक तान को । जाकी बरल बारणी को बखारण बरिण पावत न, भारथ मैं बल जैसे पारथ के वान को । जाके पद साखी हद बेहद प्रवेस भये, जहां लग पावा गछ होत ससि भान कौं। राघो कहै राति-दिन रामजी रिझायौ जिन, गावत न मांनी हारि गंधर्ब हो गांन को ॥४१३ बखनौं महंत हरि रातो रस मातौ प्रेम, बोलत सुहातौ मन मोहै जाकी बांनी है। गंध्रव ज्यूं गावै टरि नैंन नीर प्रावै प्रभु, प्रीति सूं लड़ावै सर्बही को सुखदांनी है। सुमरन सासो सास येक नांव को अभ्यास, रहै जगसूं उदास असौ गलतांनी है। . मनहर छंद १. चुटाहै। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बतुरदास कृत टीका सहित छ मनहर छंद छपै मनहर छँद दिलीपति प्राये तब काजी समझाये सब, १. मौंच । पंडित नवाये और संसै स्याह भांनी है ॥ ४१४ जग्गाजी कौ बरनन दादू दीनदयाल कै, जगो जोति जगदीस को ॥ भक्ति-भाव परपक्क, साध गुर सेवा बरती । बधायो जानि सु धरती । जु लई परस परक्षा | भक्षा भये रसोई खांन, सोरनी कीन्ही राघो धाये दक्षन दिस, भक्ति बधाई ईस की । दादू दीनदयाल के, जगो जोति जगदीस की ॥४१५ दादूजी के पंथ महि जगा जोति लागि रही, जग सूं उदास जगो कहूं न लुभायो है । परसरांम संप्रदाई खेचरी चलाई बहु, सोरनी जीमाई तऊ खात न घायौ है । कहै मुख सेती सर्ब दूंगी बस्त जेती यह, होइ मन तेती कछु धापौ नहीं प्रायो है । httडोल कौ बधाव गुर-सेवा माहै" चाव भलौ, Jain Educationa International सहर सीकरी श्री र, गये सलेनबाद, राघौ पायौ डाव करतार यूं रभायौ है ॥ ४१६ जगनाथदासजी को बर्नन दादू कौ सिष जगन्नाथ, जुयति जतन जग में रह्यौ ॥ प्रेमां भक्ति बसेख ग्यांन, गुन बुद्धि समभि प्रति । सास्त्रग्य अरु तज्ञ, सील सतवादी मति गति । गुण-गंज नांमौ कीयौ काबिता सर्ब कीता मधि । गीता बसिष्टसार ग्रंथ, बहु प्रवर साध सिधि । चित्रगुपत कुल मैं प्रगट, जो देख्यो सोई कह्यौ । दादू को सिष जगन्नाथ, जुगति जतन जग में रह्यौ ॥४१७ दादूजी को मिले हैं कायस्थ कुल निकसि कैं, जगमग जोति जगनाथ देखी गुर की। [१९७ २. मैं है । For Personal and Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ ] राघवदास कृत भक्तमाल नख सख सकल पिबत्र भयो तन मन, मिटि गई तरंग तलाव की सी उर की। सम दम सुरति सबद स्वासा पांचूं तत, सुध कोन्ही भूमिका सकल प्राण पुर की। राघो यौं रिझायौ राम जासूं सिधि होत काम, प्रारति सौं पीवत पीऊख-धारा धुर की ॥४१८ सुंदरदासजी बूसर को बरनन संक्राचारय दूसरौ, दादू के सुंदर भयौ । द्वीत-भाव करि दूरि, येक अद्वीत ही गायौ। जगत भगत षट-दरस, सबनि के चांरिगक लायौ। अपणो मत मजबूत थप्यो, अरु गुर पक्ष भारी। प्रांन-धर्म करि खंड, प्रजा घट नै निर वारी। भक्ति ग्यान हट सांखि लौं, सर्ब सास्त्र पारहि गयौ। संक्राचारय दूसरौ, दादू के सुंदर भयौ ॥४१६ मनहर छंद दादूजी के पंथ मै सुंदर सुखदाई संत, खोजत न प्रावै अंत ग्यांनी गलतांन है। चतुर निगम षट् षोडस अठार नव, सर्व को बिचार मार धारयौ सुनि कान है। सांखिजोग क्रमजोग भगति भजन पन, प्रख जानै सकल अकलि को निधान है। सी० प्रति का अतिरिक्त छंद है : माधौदास बरनन बाबू को सिष गुन माधौ देव महामुनि, द्विजवंस छाडि कुल संतन में पायो है। प्रवर समै सहर सीकरी मैं प्रायौ है, त्रयोंबाद मुर्ति को छोड़ि दूध-भात कौं पवायो है। साहा अरु नृप देखें और लोक दुनी पेखे, सिंघ के समीप बैठी भेद न जनायो है। तुरसी हे सुसर जाके राघौ ठहै दास ताके, ___ सभा मधि को इन पूरी गुर पायौ है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ १९९ बैसिकुल जनम बिचित्र बिग बारणी जाकी, राघो कहे गृथन के अर्थन को भान है ॥४२० दिवसाहै नन चोखा बूसर है साहूकार, - सुंदर जनम लीयौ ताही घरी प्राइ के। पुत्र को चाहि पति दई है जनाइ तृया, कह्यौ समझाइ स्वामी कहौ सुखदाइ कैं। स्वामी मुख कही सुत जनमैगो सही पै, बैराग लेगो वही घर रहै नहीं माइ कैं। ऐकादस बरष मै त्याग्यौ घर माल सब, बेदांत पुरांन सुने बानरसी जाइ के ॥४२१ प्रायो है नबाब फतेपुर मै लग्यो है पाइ, अजमति देहु तुम गुसंई (यां) रिझायौ है । पलौ जौ दुलीचा को उठाइ करि देख्यौ तब, फतैपुर बसै नीचे प्रगट दिखायौ है। येक नीचे सर येक नीचे लसकर बड़, येक नीचे गैर बन देखि भय प्रायौ है। राघो घोरे रथि' लीये दबते नबाब केर२, ____ सुंदर ग्यांनी को कोई पार नहीं पायो है ॥४२२ अन्यात सतगुर सुंदरदास, जगत मै पर उपगारी। धनि धनि अवतार, धन्नि सब कला तुम्हारी। सदा येक रस रहे, दुख्य द्वंद-र को नांहीं। उत्म गुन सो प्राहि, सकल दीस तन माहीं। सांखिजोग अरु भक्ति, पुनि सबद ब्रह्म संजुक्ति है। कहि बालकरांम बबेक, निधि देखे जीवन मुक्ति है ॥४२३ जल सुत प्रीत्म जांनि, तास सम प्रम प्रकासा । अहि रिप स्वामी मध्य, कीयो जिनि निश्चल बासा । गिरजापति ता तिलक, तास सम सीतल जां । हंस भखन तिस पिता, तेम गंभीर सु मानूं । छपै १. राखि। २. के न। . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ] राघवदास कृत भक्तमाल उदधितनय बाहन सुनौं, तास सम तुल्य बखांनिये । यौं सुंदर सदगुर गुण अकथ, कथत पार नहीं जानिये ॥४२४ बुधि विबेक चातुरी, ग्यांन मुरगमि मरवाई । क्षमा सील सत्य, सुहद संतन सुखदाई। गाहा गोत कबित, छंद पिंगुल प्रवांने। सुंदर सौं सब सुगम, काव्य कोइ कला न छांन । बिद्या सु चतुरदस नाद निधि, भक्तिवंत भगवंत रत । संयम जु समर पुरणगरण अमर, राज-रिद्धि नव-निद्धि यत ॥४२५ देवन मै ज्यु विष्ण, कृष्ण अवतारन कहये। जंग मांहि गंग'-पुत्र, गंग मै तीरथ मै लहिये । रिखन मांहि नारद, जखिन कुमेर भंडारी। __ जती कपी हनुमंत, सती हरिचंद विचारी। नागन मैं श्रीसेसजी, बागन सारद मांनियो । दादूजी के सिषन मै, यौं सुंदर बूसर जांनियौं ॥४२६ तारन मै ज्यूं चंद, इंद देवन मै सोहै । नरन मांहि नरपत्ति, सत्ति हरिचंद स जोहै। भगतन मै ध्र वदास, तास सम और स थोरे । दांनिन मै बलि बरनि, सरनि सम सिवर न औरे । जगत भगत बिक्षात वै, चातुरजन असे कही। सब कबियन सिरताज है, दादू सिष सुंदर मही ॥४२७ टीका स्वामी श्रीसुंदरजी बांणी यह रसाल करी, भगत जगत बांचे सुण सब प्रीति सौं। साखी पर सबद सवइया बांग जोग, ग्यांन को सुमुद्र पंच इंद्रिया उ जीति सौं । सुखहु समाधि स्वप्न बोध बेद को बिचार, उकत अनूप अदभुत ग्रंथ नीति सौं। पंच परभाव मुर संप्रदाइ उतिपति, निसांनी गुरू की महिमां बांक्नी सु रीति सौं ।।५४८८ मनहर छंद १. शिव। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित मनहर छंद १. पठ । Jain Educationa International षटपदो भरम- बिध्वंसन गुरू कृपा स गुर, दया गुर मैमां सतोतर प्रनिये | रामजी नामाष्टक आत्मा अचल भाखा, पंजाबी सतोत्र ब्रह्म पीर श्रीदु जानिये | अष्टक अजब ख्याल ग्यांन भूलना है आठ, सैजानंद-ग्रे बैराग बोध परमानिये । हरि बोल तरक बिबेक चितवनि त्रिय, पम-गम अडिल मडिल सुभ गांनिये ॥ ५४६ बारामासी आयु भेद ग्रात्मां बिचार येही, त्रिविधि अंतःकरण-भेद उर धारिये । बरवै पूरबी भाषा चौबोला गूढ़ा रथ, छौ छंद गरण अरु गन बिचारिये । नव-निधि अष्ट-सिधि सात बारहू के नांम, बारामास हो के बारै राखि सो उचारिये । छत्रबंध कमल मध्यक्षरा कंकरण-बंध, चौकी - बंध जीनपस बंधऊ संभारिये ॥ ५५० चौपड़ बिरक्ष-बंध दोहा आदि अक्षरीस, आदि अंत प्रक्षरी गोमुत्र काज कीये हैं । अंतर- बहरलापिका निमात हार-बंध, जुगल निगड़-बंध नाग-बंध भी ये हैं सिंघा - अवलोकनी स प्रतिलोम अनुलोम, दीरघ अक्षर पंच बिधांनी सुनीये हैं । गजल सलोक और बिबिधि प्रकार भेद, [ २०१ पंडित कबीर सुरनि मांनि सुख लीये हैं ।। ५५१ बाजीदजी क़ौमूल छाड़ि के पठारण कुल रांम नांम कोनौ पाठ', भजन प्रताप सौं बाजीद बाजी जीत्यो है | हिरणी हतत उर डर भयौ भय करि, सील भाव उपज्यौ दुसील भाव बीत्यौ है 1 For Personal and Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ] छपै मनहर छंद छपै तोरे हैं कुबांरग तीर चांगक दीयो सरीर, दादूजी दयाल गुर अंतर उदीत्यों है। राघो रत राति-दिन देह दिल मालिक सूं, अथ निरंजनों पंथ बरनन अब राखहि भाव कबीर कौ, इम येते महंत निरंजनी ॥ लपट्यो जू जगनाथ स्स्यांम ३कान्हड़ ४अनरागी । ध्यानदास रु ६ खेमनाथ, ७जगजीवन त्यागी । चतुरसी पायौं तत, हांन सो भयो उदासा । १०पूरण ११ मोहनदास जांनि १२हरिदास निरासा । राघो संम्रथ रांम भजि, माया अंजन भंजनों । अब राखहि भाव कबीर कौ, इम येते महंत निरंजनी ॥४२६ लपट्यौ जगनाथदास स्यांमदास कान्हड़दास, भयै भजनीक प्रति भिक्षा मांगी पाई हैं । पूरण प्रा. धि भयो हरिदास हरि रत, तुरसीदास पाय तत नीकी बनि आई है । ध्यानदास-नाथ' अरु श्रानंदास रांम कह्यौ, राघवदास कृत भक्तमाल वालिक सूं खेल्यौ जैसे खेल सी त्यो है ॥४२८ नृगुरण निराट बृति राघो मनि भाई है ॥४३० जगनाथजी लपटया की टीका इंदव नेम निरंतर नांव सूनि ग्रह, यौं तरली तन मांझ उठी हैं । छंद भाड़ौ दियौ भक्षि प्रात्म को गछि, पांनी मैं चुन ले घेरचौ मुठी है । स्वाद न साल न दूध न पालन, संजम कूं सिरदार हठीं है । राघो सगाई सिरोमनि ब्रह्म सौर, यीं जग मैं जगनाथ सठी है ।। ५५२ १. ध्यानदास । Jain Educationa International जग सूं उदास हैं के स्वासोश्वास लाई है । जगजीवन खेमदास मोहन हिदे प्रकास, राघो रहरिण सराहिये, सुबित सिरोमनि दिपत वें । आनंदास सत सूर, सदन तजि के हरि परसे । मन बच क्रम भजनीक, दास मोहन सिष सर से । २. सं । For Personal and Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित मनहर चंद मनहर चंद [ २०३ स्वांमदास की मूंठि, मंडी निरगुरण सूं न्यारी । सिष उपजे सिरदार, भक्ति रसि श्राई भारी । ये पचवारै प्रसिधि भये, बड़े महंत दिगपाल द्वै' । राघो रहरिण सराहिये, सुबित सिरोमनि दिपत वै ॥ ४३१ आनंदास अनन्य प्रतीत श्ररि इंद्रीजित, पायौ बित प्रगट प्रकास्यौं हिरदा मैं हरि । पांच तत तीन-गुरण येक रस कीये जिन २, नृगुन उपास्यौ निराकार निहि क्रम करि । निरबृति सूं नेह धरि देह से पारी टेक, बाह्यौ बैराग व्रत जीवत जनम भरि । राघो कहै भयौ बर उर ऊंकार करि, मनहर हरि हरि करत हजुरी भयौ पास कौ ॥ ४३३ कान्हड़दास को मूल इंदव कान्हड़दास कला लीयें प्रतरचौ, पंथ निरंजन के पग धारे । छंद मांग भिक्षा र कयौ भक्ष भोजन से प्रतीत हूँ स्वाद निवारे । मांनि घरणी पै मढी न बधाई जू, जांनि तजे क्रम बंधन सारे । राघो कहै भजि रांम भलो बिधि, संगति के सबही निसतारे ॥ ४३४ त्रिगुणी गयौ है तिरि श्रादि अबिगति घरि ॥ ४३२ स्यांमदास को मूल सूरबीर महाधीर दिपत हिदा मैं हीर, ब्रिकत बंराग मैं सुभाव स्यांमदास कौ । ऊंची दिसा रहरिण कहरिण ऊंची ऊंचौ मन, गह्यौ मत मगन ह्वे अगम प्रकास कौ । रटत रंकार बारंबार रत रोम रोम, धारयौ जगि जोग यौं निरोध सासै-सास कौ । राघो कहै रांम कांम स्यप्यौ तन धन धोम, Jain Educationa International छंद १. है । २. उन । पूरणदासजी को मूल पूरण प्रसिधि भयो पिंड ब्रह्मंड खोजि, कल मैं कबीर धीर धारचौ गुरम सत कौ । For Personal and Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ] राघवदास कृत भक्तमाल गहत अरुढ़ मत प्रात्मा परूढ़ भई, जीती पर कीरति प्रकास भयौ बस्त को। मन तज्यौ गवन पवन अस्थिर भयो, भरम करम भाजे वै के हाथ दस्त को। राघो कहै राम आठौं जांम जपि जीति गयौ, होतो अंस प्रागिलौ दधीच मुनि अस्त कौ ॥४३५ मनहर छंद हरीदास को मूल . जत सत रहिरिण कहिरिण करतूति बड़ौ, हर ज्यूं-क हर हरिदास हरि गायौ है । विकत बैरागी अनरागो लिव लागी रहै,। अरस परस चित चेतन सूं लायौ है। नृमल नृबांणी निराकार को उपासवान नृगुण उपासि के निरंजनी कहायौ है। . राघो कहै राम जपि गगन मगन भयौ, __ मन बच क्रम करतार यौँ रिझायौ है ॥४३६१ तुरसीदासजी को मूल इंदव सीतल नैन चवै बिग बैन, महा मन जीत अतीत करारौ । छंद माया को त्याग नहीं अन राग, भिक्षा भिक्ष भोजन सांझ सवारौ। ब्रह्म जग्यासी अभ्यासी है नांव को, जोग जुगत्ति सबै बुधि सारौ। राघो कहै करणी जित सोभित, देखौ हौ दास तुरसी को अखारौ ॥४३७ fसो' प्रति का अतिरिक्त छप प्रथम पीपली प्रसिद्धि, सिला नागौर बिसेखो । नयो गयद अजमेर फनिंग, टोडे परिण पैखौ। गिर सू गागरि गिरी, नीर राख्यो घट सारौ । देवी को सिष करी, ज्यायो विष बित्र उधारी । सिष प्रचो प्रांबेर, राव राजा सब जाणें । अगंग बिप्र पंथ चल्यो, साह सुत जीयो सिधारण । सिर परि कर प्रियागदास को, गोरखनाथ को मत लयो । बन हरीदास निरंजनी, ठौर और परचो दीयो ।।४२६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित छपै मोहनदास को मूल है हिरदे सुध हेत सबनि सूं मोहनदास महा सुखदाई | जो सुख कासी कबीर कथ्यो मुख, सो अनभै निति नेम सूं गाई । श्रा को श्रादर आप मिले उठि, ह्वै तन सीतल सोभ सवाई | राघो करें हठ चालन दे नहीं, नांम कबीर की देत दुहाई ॥४३८ रामदासजी ध्यांनदासजी को मूल रामदास अरु ध्यान की, म्हारि मध्य महिमां भई ॥ ग्यॉन भक्ति बैराग, त्याग जिन नीकौं कोन्हौं । दोन्हौ । उठाई । सगाई । भिक्षा खाई मांगि, जागि मन ईश्वर बांणी नृगुण कथी, प्रांत को प्रास साखि कबित पद ग्रंथ, मांहि परब्रह्म अंजन छाड़ि निरंजनी, राघो ज्यौ की रामदास प्ररु ध्यान की, म्हारि मध्य खेमदासजी को मूल त्यूं कही । महिमां भई ॥४३६ इंदव खेम खुस्याल भयौ कुल छाड़ि र, येक निरंजन सूं लिव लाई । छंद हीं तुरक्क र ब्राह्मण अंतिज, साखत भक्तिहि नाव रटाई | त्याग समागम संत सु राखत, चाखत प्रेम भगति मिठाई । राघवदास उपासि निरंजन, मांगि भिक्षा निति नेम सूं पाई ॥४४० नाथको मूल नाथ भज्यौ इन नाथ निरंजन, और न दूसर देवहि मान्यौ । यांन र ध्यान भगत्ति अखंडित, मन्न मगन बिरागहि सांन्यौ । मांगि भिक्षा गुजरांन करचौ निति, कांम र क्रोध अहंकृत भान्यौ । राघवदास उदास रहयौ तजि, यौं जग-जाल निराल पिछांन्यौ ॥ ४४१ जगजीवनदासजी को मूल भादव के जगजीवन दास, पंचम बर्न तज्यौ हरि गायौ । सील संतोष सुभाव दया उर, ता हित ईश्वर' के मन भायौ । त्यांग बिराग रु ग्यान भलै मत, तात भयौ गुर तें जु राघव सोलह ग्यांन गुरू करि, सौ भयौ फिर पंथ १. मीश्वर । [२०५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only सवायौ । चलायौ ॥४४२ ( Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] राघवदास कृत भक्तमाल छपै मनहर छंद सौभावतो को मूल मन वच क्रम सोभावती, संतन कौं सर्वस दयौ ॥ गुपत कसोटी करी, कहि न काहू सूं भाखी । हरि जागराइ जगदीस, पैज परमेस्वर राखी। अन-पाणी बखादि, बस्त जो चहै जरेरौ । इक रांणी के घटि प्रगटि, रामजी रिजक परेरचौ । जन राघो रुचि अंतक समैं, जो बांछित ही सो भयो । मन बच क्रम सोभावती, संतन कौं सर्बस दयौ ॥४४३ __ थरोली मैं जगनाथ स्यांमदास दत्त वास, ___ . कान्हड़जु चाटसू मैं नीकै हरि ध्याये हैं। प्रांनदास दास-लिवाली मोहन देवपुर, सेरपुर तुरसीजु बांरणी नीकै ल्याये हैं। पूरण भंभोर रहे खेमदास सिव-हाड़, टोडा मधि' प्रादिनाथजू परम पद पाये हैं। ध्यांनदास म्हारि भये डीडवाणे हरिदास, दास जगजीवन सु भादवै लुभाये हैं ॥४४४ द्वादश निरंजन्यां के नाम गांम गाये हैं। इति निरंजनी पंथ माधौ कांणो को मूल माधौ कांणी मगन है, मन बच क्रम हरि ध्याइयो । पांवन कीयौ टौंक, प्रभु की भक्ति बधाई। प्रासा बंध सु डरत, तहां इक बाई आई। देवा कौं प्रास्वास, हमारौ नांव कहीज्यौ । प्रभ न जाई होइ, भजन मैं गारकर रहीज्यौ। राघो खर चढ़ि पुर गयो, परचौ परगट दिखाइयो। माधौ कारणी मगन द्वै, मन बच क्रम हरि ध्याइयौ ॥४४५ ततबेता तिलोक · को, ततसार संग्रह कीयौ ॥ पंडित प्रम प्रवीण, सुति सुम्रित पौरांनन । भारतादि पुनि और ग्रंथ, सब कथत सु प्रांनन । १. मधिनाथ। २. गरक । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ २०७ कीये कबित षटपदी, बहुत की संख्या ल्याही। प्रिथी कोड़ी पचास, जीव चौरासी गांही। उत्म मध्य कनिष्ट द्रुम, राघो मधुमखि ज्यूं लीयो । ततबेता तिहूंलोक को, ततसार संग्रह कोयौ ॥४४६ ततबेता के सिषन नै, दोऊ देस चिताइयो । रांम दमोदरदास, धांम' थौलाई कीन्हों। प्रांबावति के भूप, तास कौं परचौ दीन्हीं। रांमदास बड़ महंत, जैतारणि मुरधरं मांहीं। ऊदावत सिष करे, दुनी सुभ मारग लांहीं। . राघो भक्ति करी इसी, तातै हरि मन भाइया। ततबेता के सिषन नै, दोऊ देस चिताइया ॥४४७ जगंनाथ जगदीस की, अनन्य भक्ति राखी हिदै ॥टे. निरबेद ग्यांन में निपुन, नांब सर्बोपर जांण्यो। जप तप साधन सकल, भजन बिन तुछ बखांण्यौं। छप कबित सूं हेत, तिना मै संख्या प्रांगी। मनुख देह के स्वास, गणे अक्षर पौरांगी। अवर चीज नौखां घरणी, राघो हरी भाखे त्रिदै । जगनाथ जगदीस की, अनन्य भक्ति राखी ह्रिदै ॥४४८ राघो सिरजनहार सौं, कोयौ मलूक सलूक सति ॥ क्षत्रीकुल उतपत्ति,, बसे मारिणकपुर माहीं। श्रगुनी निरगुनी भक्त, काहू सूं अंतर नांहीं। हींदू तुरक समान, येक ही प्रात्म देखें। तन मन धन सबंस, भक्त भगवत कै लेखे। साहिब सांई राम हरि, नहीं विषमता नाम प्रति । राघो सिरजनहार सूं, कीयौ मलूक सलूक सति ॥४४६ राघव जो रत राम सू, सो मम मस्तक-मंडनं ॥ इम मांनदास मो मगन, कीयौ प्रति कृतनयौ है। जपि नैन्हादास निसि-दिवस, गिरा को पुंज भयौ है। १. संतधाम । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ] 1 राघवदास कृत भक्तमाल चव चतुरदास अहवास-रु मोहन-जू मड़े । ये च्यारचौ चतुर महंत, डांग मधि मुखि बड़े । बरनत हूं जो मैं सुनें, श्रवर करूं नहीं खंडनं । राघव जो रत रांम सूं, सों मम मस्तक मंडनं ॥ ४५० ये चारण घरि घरि काबि, घरणां इतना तौ हरि कबि हूवा ॥ १कर्मानंद रु २ लू ३चौरा, ४चंड ५ईस्वर ६ केसौ । ७दौ जोवद नरो, १० नरांइरण ११मांडरण बिसौ । १२कोल्ह र १३ माधोदास, बहुत जिन बांरगी सोहन । १४अचलदास चौमुख १५चल सीवां हरि १६ मोहन । जन राघो उधारे रांम भरिण, गुर प्रसाद जग सूं जुवा । ये चारण घरि घरि कबि, घरणां इतनां तौ हरि कबि हुवा ॥४५१ करमानंद की टोका इंदव चारन सो करमानंद की गिर, दारन हूं हिरदौ पघलावै । छंद छाड़ि दयो घर पूजन सहित, कंठ रहै छरियां पधरावै । गाड़ दई कित कार राखत, भूलि चले उर ल्यात न पावे । चाहि भई तब श्याम सुनावत, ल्याइ दये जव प्रेम भिजावै ।।५५३ . कोल्ह लूज को टीका भ्रात रहै जुग कौल्ह अल बड़, गाथ सुनौं मद मास नखाई । गावत है प्रभु के गुन रूपहि, भक्ति करें उन बात जनाई । हो लघु दूसर खात सबै कछु, भूप बखांनि कबै हरि गाई । ईस्वर मानत है बड़ भ्रातहि, कै सु करे अपने लघुनाई ॥ ५५४ कौल्ह कही पुर द्वारिक चालहि भोग मिथ्या जग श्राव गमैये । ठीक कही चलिकं पुर जावत, चोजन ये सुनि कांन चितये । कोल्ह सुनावत छंद अनेकन, पीछ लू भरिये सु कचैये । हूं करि के प्रभु हार खिनांवत, लै पहिरावत देहु बडैये ।। ५५५ नांहि दयौ बड़ के प्रपमांनहि, जाइ परयौ दरियाव दुखी है । डूबत भूमि लखी हित चालत, भूलत नांहि प्रात भये जन ल्यावन सांम्हन, जाइ मिले पुनि जीमन बैठत पातरि द्वै जुग, दूसर कौंन स नीति रुखी हूँ । कृष्ण सुखि है । भ्रात मुखी ह्वै ॥ ५५६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ २०९ और भयौं सुनि है परमोधत, भक्त भलौ वह गाथ सुनीजै । है तव भ्रात लघु सुखदाइक, बात कहै तिनकी मन धीजै । भूपति पुत्र हुतौ वह पूरब, छाड़ि दयौ सब मोचित भीजै । आइ परयो बन मैं नृप औरहि, रूप लखे तन दे सुख लीजै ।। ५५७ अंन र नीर तज्यौ तुमरे हित, जीत नहीं सुधि बेगिहि लीजै । देत भये परसाद चल्यो फिरि ग्राइ भलै लघु सूं हित कीजे । संग चल्यो हरि के पुर कौ चलि, लहि प्रांनि मिल्यौ वह दीजे | बात कही सब धाम तज्यौ प्रभु, जाइ बसे बन मैं जुग भीजे ॥ ५५८ नाराइनदासजो की टीका छ बंस अलू महि जांनहु हंसहि, और बड़े सु नरांइन छोटा । न कुमावत येह उड़ावत, भाभि दयौ करि सीतल रोटा । दै करि तातहु रीसि करे वहु येहु हुकार भरावहि मोटा । छोड़ि गयो घर जाइ भज्यौ हरि, भक्ति भये बसि बोलत धोटा ||५५६ मूल यह बड़ी रहरिण राठौड़ की, पृथी परि पृथोराज कबि ॥ टे० surent इष्ट बखifरण, मनो क्रम बचन रिझायौ । बरfरण बेलि बिसतार, गिरा रुचि गोबिंद गायौ । सरस सवइया गीत, कबित छंद गूढ़ा गाहा । बन्यौ रूप सिगार, भक्ति करि लीन्हौं लाहा । जन राघो स्यांम प्रताप तैं, यम श्रागम जांन्यों भूत भबि । इह बड़ी रहरिण राठौर की, पृथी परि पृथीराज कबि ॥४५२ टीका इदव बीकहि नेरि नरेस बड़ौ कबि, पिथियराज सु भक्त भलो है । चंद पूजन सौं हित नांहि बिषै चित, नारि पिछांनन नांहि तलौ है । देख गयो अनि सेत मनौ मय रूप ह्रिदै महि नांहि भलौ है | तीन भये दिन मुंदरि नै हरि, पीछहु देखत चैन रलौ है ।।५६० कागद देस दयो प्रभु देवल, मैं नहि देखत सो दिन तीनां । भेजि दयौ उलटी उर का लिखि, राज लगे हरि बाहरि लीनां । १. मंदरि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ] राघवदास कृत भक्तमाल और सुनौं इक नेम लयौ, मथुरा तन त्याग करूं कहि दीनां। काबिल मौम दई पितस्या' लखि, जोर हरि मृति कै न अधोनां ॥५६१ आयु रही तुछ अाइ लगे दिन, जांम घरी जुग की सम लागे । प्रेरि दयौ कबि दै अध दोहर, साच कर पन यौं बड़ भागे। सांडि चढ़े मथुरापुर अावत, न्हाइ तज्यौ तन हौ अनुरागै। जै-जयकार भयौ दसहं दिसि, फैलि गयौ जस जागहि जागै ॥५६२ छपै द्वारिकापति को मूल दुखदारन द्वारावती. जोइसी 4 कीकी अभै ॥टे० जिवन अजीज अभीज, अनल प्रभु पुर मै वोधी । साद संभलि: रणछोड़, सहाय सांगरण सुव कीधी। धन धरनी गढ़ काज, जुद्ध बीजाहू साजै । झटकै कुरका थयौ, भक्त भगवत रै काजै। कटक बाढ़ कीधी बढ़ेल, चांद नाम चाढयो नभै । दुखदारन द्वारावती, जोइसी व कोवो अभै ॥४५३ टीका हुँदव सांगन को सुत काबन को पति, द्वारिकानाथ कहीं करि रक्षा । छंद स्यांम सदाहि सहाइ करै जन, तू हमरी करिये नृप दक्षा। तुर्क अजीज सु धांम जरावत, बाज न बाग लई सुनि सिक्षा। पापिन मारि दये हरि राखत, चोज नये र नई यह पक्षा ।।५६३ छय माधौस्यंघ कूरम त्रिया, भक्त भली रतनावती ॥ संतन के समूह सहत, बृजनंद रिझावत । भक्ति नारदी कथा, प्रेम उछव करवावत । भगवत पद मन लीन, भक्ति की टेक न छोड़ी। नृप सौं नेह निवारि, बचन सुन ते भई मोड़ी। सुनखा अली अब प्रगट करे, भान गढ़ प्रांबाबती। माधौस्यंघ कूरम त्रिया, भक्त भली रतनावती ॥४५४ १.पतिस्या-पतास्या। २.दीधी। ३ सांभलि। ४.भागवत, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ २११ रतनावतोजु की टीका इंदव मानहु को लवु-भ्रात सु माधव, तास तिया तिन गाथ सुहानी । छंद पासि खवासनि नाम रटै हरि, प्रेम जटै उर अांनत रांनी । नंदकिसोर कबै बृजचंदहि, बोलि उठे द्विग वहि पानी। कांन सुनि तब तौ तिय ब्याकुल, चाहि भई कछु प्रीति पिछांनी ।।५६४ पूछत तू किम कैत गहै चित, नैन झरै तन भूलि रही है। चैन करौ कछु बूभहू नांहि न, गात सहै मम संत कही है। प्रीति लखी अति कैत भई गति, प्रेमनि कीरति कैत सही है। कांम छुड़ाइ बठाइ सिरै उन, मांनि लई गुर पाइ लही है ॥५६५ अ-निसि गाथ सुनै मन देखन, क्यूं करि देखहु नैन भरे हैं। स्यांम दिखाइ उपाइ बताइ सु, जीवन तौ हिय आइ अरे हैं। देखन दूरि मिलै तन धूर स भोग तजै बसि प्रीति करे हैं। सेव करौ उर भाव भरौ, पकवांन रु मेंवन अर्पि खरे हैं ।।५६६ नीलमनी सु सरूप लयो धरि, सेवत भाव सु भाव चली है। राग र भोग बिबिद्धि लड़ावत, बीजत२ जांमहि रंग रली है। भूषन बष्ण अपार बनांवत, स्यांम छिबी अति देखि पली है । जोग र जज्ञ अनेक उपाइन, नांहि लहै यह प्रेम गली है ॥५६७ देखन चाहि उपाइ कहा अब, बात अहौ कहि कौंन सुनें ये। ठौर करावहु म्हैलन कै ढिग, चौकस चौं-दिसि राखि जनै ये । साध पधार हिवै कहि ल्यावहि, राखहु जागहि पाव धुनै ये। भोग छतीस धरौ उन आगय, डारि चिगें द्रिग स्यांम लखै ये ।।५६८ संत पधारत सेव करै बहु, आत भये जिन कौं बृज प्यारी। गात किसोरजुगल्ल बहै दिग, आप अधीर भई सु निहारी। को मम अंग सु रानिय या तन, है परदा सत-संगति टारी। ऊठि चलो कहि हाथ गह्यौ उन, लाज बड़ी यह लेहु बिचारी ।।५६६ येह बिचारि सु स्यांम निहारन, सार हरी कछू लाज न कांनी । ऊठि गई कहि साधन कै ढिग, पाय लगी बिनती करि रांनी । हाथि जिमांवन की मनमैं जन, लाखन भांति कही नहि मांनी। आइ स देहु करौं सुख है यह, प्रीति लखी करि तौ तव जांनी ॥५७० १. कू। २. बीतत। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ 1 राघवदास कृत भक्तमाल कंचन थार चली कर लै करि, प्रेम सु संत परूंसि जिमाये । देखि सनेह सु भीजि गये जन, नैन निमेख लगै न लगाये। पांन चबाइ र चंदन लेपत, स्यांम कथा परसंग चलाये । सैर सुनी सब देखन आवत, पेखि लिख्यौ नृप लोग पठाये ॥५७१ रांनिय लाज तजी परदा घर, आइ र बैठत मोडन माहीं। मांनस कागद भेजि दिवांनहि, भूपति बांचत अागि जरांहीं। आइ गयौ सुत प्रेम सु ताछिन, भाल तिलक सुमाल गरांहों। भूपहि जाइ सलाम करि चलि, मोड़िय के सुनि सोच परांहीं ॥५७२ रोस भरयौ नृप भींतरि जावत, पूछत सो नर बात बखांनी। तौ हम मोडिय मांनि कह्यौ सुख, भाव र भक्ति तबै उर आंनीं। मातहि कागद देत भयौ करि, यो हरि भक्ति तजौ मति मांनी । मोडिय को नृप कैत सभा मधि, है अब मोडिय जौ मुम ठांनी ॥५७३ यौं लिखि भेजत मानस हाथिहि, मातहि जाइ दयो उनि बांच्यौ। रंग चढ्यौँ सुत के परसंगहि, बार मुडाइ र भावहि सांच्यौ। सेवन पाक करें निसि जावत, प्रांनि प्रभूतरि गांव न जाच्यौ । भूपति अन्नि तजे लिखि देवत, स्यांम निपुत्र भई हित राच्यौ ।।५७४ मानस प्राइ दयो उर का सुत, बांचि खुसी हुत देत बधाई। बाज बजाइ बटावत है धन, काहूक जाइ र भूप सुनाई। भूपति पूछत लोग कही सब, मोडिय मात भई सुत भाई। भूप सुनी दुख पाइ चढ्यौ खिजि, बैर भयौ उत होत चढाई ।।५७५ राखि लियो नृप कौं समझाइ र, लोग भलां सुत जाइ लखाई। कैत भयौ तन खोत बिषै लगि, स्यांमहि काम लगै सुखदाई। मांगि लई परि पाई दई तुम. भूप चल्यौ निसि कौं मन आई। पासि गयौ गढ़ आइ मिले नर, बात कही सब चिंत उपाई ।।५७६ म्हैलहि बैठि बुलावत मंत्रिन, नांक कट्यो अब लोहु निवारें। वाहु मरै र कलंक न प्रांवहि, को मतिवंत बिचारि उचारे । पिंजर सीह छुड़ावहु मारहि, दावहि बात नहीं यह सारै। होत खुसी सब छोड़त दौरत, कैत खवासि नृस्यंघ निहारें ॥५७७ सेवत ही प्रभु नैंन लगे छबि, बोल सुन्यौं उत कौं द्रिग ढारे। कठि करयौ सनमान भलै मन, भाग बड़े नृस्यंघ पधारे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [२१३ फूलन माल गरे पहिरावत, देत तिलक लगे अति प्यारे। . धांमहु में निकसे मनु खंचहि', साखत लोगन मारि पछारे ॥५७८ रांनिय की सुधि लेत भयौ नृप, है जु भलै त्रम होइ गयो है। राय करै परनाम परचौ धर, आय दया उन बैंन दयो है। भूप करै परनाम कही प्रभु, देखहु नैक कलाल लयौ है। भूप कही द्रिबिराज तुम्हारहि, लोभ नहीं पति स्यांम धयौ है ॥५७६ मांन र माधव नांव चढ़े नृप, सोच भयो जुग डूबन लागी। भ्रात कहै बड़ कौंन उपाइ स, छोटहु कैत तिया बड़भागी। ध्यान करयौ तब लेत किराडहि, जेठहि देखन चाहि सु लागी। श्राइ करयौ दरसन्न भयौ खुसि, गाथ अनूप हिये मध पागी ॥५८० मूल ____ करत कोरतन मगन मन, मथुरादास न मंगियौ ॥ हिरदै हरि बेसास, सील संतोष सु प्रासै । धर्म सनातन सुह्रिद, ज्ञान रवि करत उजासै। नंदकुवर सौं नेह, कुंभ धरि मस्तक ल्यावै । पर्चर्या नैवेदि, प्राचमन दे जल प्यावै । श्रीबर्द्धमान गुर की दया, रिसकराय रंग रंगियो । करत कीरतन मगन मन, मथुरादास न मंगियौ ॥४५५ टीका इंव बासति जारहि भक्ति करी रसि, वात करी इक तेउ सुनावै । छ। स्वांग धरें चलि आवत सालग-रांम सिघासन मांहि डुलावै । स्वामिन के सिष जाइ र देखत, भाव भयौ कहि है परभावै । आप चलो वह रीति बिलोकहु, के सरबज्ञ चलें दुख पावै ॥५८१ लै करि जात भये परि पाइन, फेरि फिरावत नांहि फिरै है। जांनि लयो इन कौ परतापहि, मारि चलो मन मांहि धरै है । मूठि चलावत भक्ति फिरावत, वाहि जरावत दुष्ट मरे हैं। होइ दबालहि जाइ जिवावत, लै समझावत हाथ धरे हैं ॥५८२ १. खंबहि। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] राघवदास कृत भत्त माल मूल छपै प्रेम बधायौ पुंग सन, नृतक नरायनदास अति ॥ सबद उचारचौ येह, प्रीति कौ नातौ साचौ। गावत पद मैं गरक, मदन मोहन रंग राचौ । नृत्य और ऊ करै, यह गति कोऊ न ल्यावै । देसी त्रिभंग बताइ, लिख्यौ चित्रांम लखावै । प्रगट भई हंडिया-सराइ, राघो मिलिया प्रांनपति । प्रेम बधायौ पुंग सन, नृतक नरांइनदास प्रति ॥४५५ टीका इंदव नृत्य करै हरि के मुख आगय, देसन मै रमि है जन भोरै। छंद जाइ रहे हडियाह सरायहु, नांव सुन्यौ सु मलेछहु मोरै। साध महाजन बोलि पठावत, आत गुनी इन ल्यावहु पीरै। प्राइ वही तुम बेगि बुलावत, सोच भयौ वह नीच अधीरै ।।५८३ नृत्य करौं न बिनां प्रभु नेमहि, सेवन वा ढिग क्यूं बिसतारै । ऊंच सिहासन दाम धरी, तुलसी सन देखि रु गांन उचारै । मीरहु बैठि लखै नहि झांकत, स्यांम लगें द्रिग रूप निहारें। वार न चाहत है कछु औरन, प्रांन चढ़े कर देत न डारै ।।५८४ रुपै लक्षन उज्जल स्याम के, येते जन बहु देत हैं। १छीत स्यांम २गोपाल, ३गदाधर ४नारद ५कन्ह र । ६वछर्पतल ७हरिनाभ, अनंतानंद कुवर बर। १०स्यांमदास११जसवंत,१२कृष्णजीवन१३स्यामबिहारी। १४बोहिथरांम १५दीनदास, मिश्र १६भगवान जनभारी। १७हरिनारांइन गोसू, १८रांमदास १९गोबिंद मांडल हेत है। लक्षन उजल स्यांम के, येते जन बहु देत है ॥४५६ जगमग तूं न्यारे भये, जे जे भजबा जोगि है॥ १रांमरेंन रजैदेव, ३बिदुर ४उधव ५रघुनाथी । ६वांमोदर ७सोढ़ा, ८दयाल गंगा मथुरा थी। कुंडा १०किंकर ११परसरांम, १२परमानंद १३मोहन । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतुरदास कृत टीका सहित [ २१५ राघो १४गोपानंद, १५खेर १६चतुरो नागोहन । १७द्वै-कृष्णदास १८बिश्रांम सुनि, सेससाई आरोगि है। जगनग सं न्यारे भये, जे जे भजिबा जोगि है ॥४५७ बिदुर बैष्णु की टोका . इंदव है बिदुरं जयतारनि गांव स, संतन सेवन मै बुद्धि पागी। छद मेह भयौ नहीं सूकत साखहि, स्यांम कही जन कौं बड़भागी। । __ साख कटाइ गहाइ उड़ाइहु, दोइ हजार मनं अनुरागी। . बात करी वह लोग न मानत, रासि भये हरि सौं लिव लागी ॥५८५ छपै मूल साधन की सेवा कर, मधुकर बृति करि ये भगत ॥ १प्रमानंद मधुपुरी, द्वारिका २गोमां प्रांहीं। सांगावति ३भावांन, दूसरौ काल ४खमांहीं। ५स्यांमसैन के बंस, बीठल टोडे टकटारै । पीपाहड़ चोंधड़, खेम पंडा गोनारै। केवल कूबा झीथड़े, जैताररिण १०गोपाल रत। साधन की सेवा करें, मधुकर बृति करि ये भगत ॥४५८ मथुरा महि उछव कीयौ, कांन्ह र बहुत उदार मन ॥ बर्णाश्रम षट-दरसन, भूप कंगाल जिमाये । संतन कौं सर्बस, देहु असे हुलसाये । चंदन अंबर पांन, कीरतन करतां दीन्हे । ___ गहणे दीये उतारि, प्रभु के यौं रंग भीने । सुत बीठल को सर्ब सिरै, असौ नांहीं प्रांन जन । मथुरा महि उछव कीयौ, कांन्ह र बहुत उदार मन ॥४५६ चीर बध्यौ दुरपद-सुता, त्यूं रिधि तूंवर भगवान की ॥ अद्भुत असौ भयौ, खांड मैदा घृत बढ़िया । हाटोक' रूपा ढेर, देखि परसन मन पढ़िया। जीमन लीला रास, कान की कीरति गाई । संतन को सनमान, बहुत संपति सब पाई। १. सोनो हाटक। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ] राघवदास कृत भक्तमाल भीव-पुत्र महिमा करी, नहीं मथुरा नृप प्रांन की। चीर बध्यो दुरपद-सुता, त्यूं रिधि तूवर भगवान की ॥४६० टीका इंदव आवत है बरसै दिन नेमहि, सो मथु (रा) रो छव हेम लुटावै। छंद साध जिमाइ रु दे पट बौ-बिधि, पूजत पाछहि बिप्र न भाव। छीन भयौ धन होत बिहालहि, साधन आवत नूंन करावै । ब्राह्मन हौ दुख होत सुखी सुनि, ख्वार करौ इन काज कहावै ॥५८६ मांन करयौ सब सौंपि दयो उन, बांधि लयौ बिनती ह सुनावै। साध जिमावहु रास करावहु, के तुम पावहु देस मझावै । रिद्धि भरी घरि रोक गदी तरि, देत बुलाइ दिनांन' घटावै । काढत ताहुत चौगन बाढत, ठौरन ठौरन फेरि पठावै ॥५८७ मूल जयमल केरी भक्ति सर, जसवंत दिढ़ बेला भयौ ॥ संतन सूं सम भाइ, हिदै दुबध्या नहीं कोई। जोर पांनि पयाद, भवन प्राइ-स मै होई। स्यांमां प्रियसूं प्रीति, प्रहों-निसि परसन करई । चांहै कुंज बिहार, चित्त बृदाबन धरई। भजन भवन नव मां प्रमान, राठौर नृपति यह पन लयौ । जैमल केरी भक्ति सर, जसवंत दिढ़ बेला भयौ ॥४६१ हरिजन हित हरीदास नैं, वांमाता असौ जयौ ॥ गुन अनंत बड़गुह्य, सिरोमनि वोही वूझै। तुलाधार सम ग्यांन, येक उर अंतर सूझे। नौबति नेम बजाइ, प्रगट बूंदाबन परस्यौ । स्यांमां प्रिय को नाम, लेत प्रतक्ष फल दरस्यौ । उत्म धर्म बिचारि के, संतन कौं सरबस दयौं । हरिजन हित हरीदास नैं, वा-माता असौ जयौ ॥४६२ टीका इंदव दास हरी बनियां ढिग कासिय, त्याग करूं तनकै ब्रज भू मैं। छंद नारि गई छुटि बैद चले उठि, आप कही सु महा बन ल्य मैं । १. विजां। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ २१७ च्यारि सुता हुत साधन देवत, डोलिय बैठत ध्यानहि झू'मैं । आत सु चेत प्रभू जुग गावत, आश्चर्य मांनि परी पुर धूमैं ॥५८८ मारग मैं तन छूटि गयो पन, साच करयौ हरि प्रत्तखि देख्यौ । इष्ट गुरै परनाम करी चलि, चीरहु घाट सु न्हावत पेख्यौ । साथ हुते सब आइ भरे द्रिग, बेंन कहै वह जा दिन लेख्यौ । भक्ति प्रताप लखौ मति नहि, स्यांम दया यह भाव परेख्यौ ।।५८६ मूल छपै भेल भक्ति प्रभु की जु पे, धोरी उभे बताइ हूं ॥ बिष्णदास दाहिने, गांव कासीर नांव बल । बांवी दिसि गोपाल गुना, रटि ले लक्षन भल । गुर भगवत सम संत, जांनि निति प्रेति सो सुमरै। स्यांम स्वांग वसि रहत, भक्त बल है उर हुमरै। केसव कुलपति ब्रत सदा, राख्यौ तातै गाइ हूं। भैल भक्ति प्रभु की जु पे, धोरी उभै बताइ हूं ॥४६३ टीका इंदव है गुर भ्रात उभै उर संतन, सेवन की नव रीति चलाई। छंद जाहि महौछब जात लियें रिधि, गाडिय साधन देत मिलाई । संतन की घटती नहि भावत, हेत यहै किनहूं न जनाई। सिद्ध बड़े गुर है परसिद्धि, कहै कर जोरि सुनौं सुखदाई ॥५६० है मन माँहि महौछव ठांनहि, आप कही करि बेगि तयारी। न्यौति दये चहु वोरहु के जन, आत उनौ हित जागि सवारी। चौंदिसि ते वह साध पधारत, पाइ परै बिनती स उचारी। पांच दिनां जन ज्यांइ दयौ सुख, और दये पट बौ मनुहारी ॥५६१ भोर कही गुर द्यौ परिकर्महि, पैल सु नामहि देव निहारौ। अंबरसे तरु हेत घणौं जन, जांहि चले सिर पाइन धारी। दैहि बताइ कबीरहु कों वह, बंध चले जुग देंन सवारौ। नांमहि देव मिले पग लागत', छोडिहि नांहि कहैं सु बिचारी ॥५१२ १. लागन। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स राघवदास कृत भक्तमाल पाप बनै जित साधन प्रावत, दै सुख संत तहां सब प्रांव। प्रीति लखी तुमरै हम हैं खुसि, जाहु चले सु कबीरहु पावै। जात मिले जन राज परे पग, देखि हसे मिलि नांव बतावै । हां जु कही तुम पैं किरपा बड़, सेव. प्रताप कहां तुक गांव ।।५६३ छय. करमैर्ती कलिकाल मैं, सील भजन निरवाहियौ ॥ ___ मरन धर्म बर छोड़ि, अमर बर सूरति पाली। लोकलाज कुल कांनि, काटि हार मारग चाली। प्रगट बसी ब्रज जाइ, बदन जन कीरति करई। धनि परसराम पारीक, सुता असी उर धरई। बिर्ष बासनां बवन' कर, बहुरि न तार्को चाहियो । करमैती कलिकाल मैं, सील भजन निरबाहियौ ॥४६४ टीका ईदव भूप खड़े लहि तास पिरोहित, जास सुता करमैति बखांन । छंद स्यांम बस उर काम लजै लख, धांम सु सेव मनोमय ठाने । जांमहं जातन सुद्धि सरीरहि, फूलत अंग छिबी मति सां । गौनहि कौ पति पात पिता तिय, चाव भयौ पट भूषन अांन ।।५६४ सोच भयो सु उपाइ कहा अब, हाड र चांम सरीर न कांमै । छोड़ि चलौं चित ऊठि मिटै दुख, प्यार भलौ जग मै इक स्यांमै । कांनि र लाज नहीं कछु काजहि, चाहत हूं हरिया दिन धांमै । प्रात खिनांवहि यौं मन प्रांवहि, भागि चली प्रभु संग सबाम ॥५६५ रैन अधी निकसी उर लालहु, हेत लग्यौ बपुहू बिसराई। जांनि भई परभाति स दंपति, सोर परयौ सब ढूंढत जाई। दौर गये चहु वोरहि मानस, ऊंट करंकहु मांहि दुराई। भोग विष दुरगंध लगी मन, वै दुरगंध सुगंध सुहाई ॥५९६ तीन दिनां सु करंक रही गति, बंक लई रति जात न गाई । संगहि संगि सु गंग गई चलि, न्हाइ र भूषन दै बन आई। हेरत सो परसापुर आवत, केत पता इक बिप्र बताई। ब्रह्महि कुंड स ऊपरि हौ बट, देखि लई चढ़ि देत दिखाई ॥५६७ १. बचन। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ २१९ 'जाइ परयौ पगि रोइ कही पित, नांक कट्यौ मुख काहि दिखावें। चालि बसो घर हास मिटावहु, सासर जामति सेब करावै । ब्याघ र सिंघ हत्तै बन मै डर, मात मरै तव जाइ जिवावे । साच कही बिन भक्ति इसौं तन, ल्या इतही मिलिकै हरि ग वै ।।५६५ नांक कट्यौ कहि होइ कट किन, भक्ति सु नांक तिहूं पुर गायो। खोत पचास बरस्स बिर्ष लगि, त्यागत नाहि चबेहि चबायो । भोगन मैं नहि सार पदारथ, कोम तजौं भजि स्यांम सुहायौ । अांख खुली तम जात भयों सुनि, देत सरूप सु लै घरि आयौ ।।५६६ धांम बरयौ निसि लाल धरे रसि, राखि भलै चित टैल कराई। जात नहीं कहु नांहि मिलै किन, पूछत भूप कहां दिज भाई। काहु कही घर में प्रभु सेवत, भूप भयो खुसी सुद्धि मंगाई। जाइ कह्यौ नप देत असीसहि, कैतहि भूप चल्यौ घर जाइ ।।६०० प्रीति लखी नृप पूछत कत्त सु. नीर बहै द्रिय स्यांम पगी है। जात भयो नृप ल्याउ इहां उन, पात हमै अति चाहि लगी है। तीर खड़ो जमुना-जल नैननि, राय लखी रति बौ उमगी है। लाख बिसां बरज्यो नृप चा अति, कोन कुटी घरि प्रात जगी है ॥६०१ मूल कृष्ण रूप गुन कथन कू, खरगसेन नृमल गिरा ॥ बड़ी भक्ति तन मध्य, बरनई दान केलिका। तात मात सुत भ्रात, नाम कहि गोपि ग्वालिका । मोहन मित बिहार, रंग रस मैं मन दीन्हौं । चित्रगुपत के बंस, बिदत यह लाहा लीन्हौं । स्मृति गौतमी नि उर, रास मांहि बपु तजि फिरा। कृष्ण रूप गुन कथन कौ, खरगसेन नृमल गिरा ५४६५ टीका इंदव रास करावत ग्वालिर बासहि, पुंनिम सर्द लग्यौ रस भारी। छंद पाप चलाबनि भाव दिखावनि, थेइ करावन जोरि निहारी। भगवान मद्राण ग्वाल गरेप के है है माराजजा ।(?) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ] राघवदास कृत भक्तमाल जाइ मिले बपु छाडि र भावहि, लेत अनंत सुखै तन वारी। साच दिखाइ दई हित रीतिह, प्लेमिन कौं। अति लागत प्यारी ॥६०२ . मूल छप गंग ग्वाल गहरौ अधिक, सखा स्यांम चित भांवतौ ॥ राधेजी की सखी हुती, वह संज्ञा पाई। बृज के गांम रु ग्वाल, गाइ भिन भिन्न सुहाई। स्यांम केलि आनंद, उदिध हिरदा मैं धारी। मगन रहे रस मांहि, झूठ बांरगी न उचारी। चाहत बृज बृजनाथ गुर, संत चरन सिर नांवतौ । गंग ग्वाल गहरौ अधिक, सखा स्यांम चित भांवतौ ॥४६६ टोका इंदव पात भयो पतिस्याह महाबन, सारंग राग सुनौं हठ ल्याये । छद संग सु बल्लभ रंग बन्यौ अति, मात करे जल नैन बहाये । हाथ ह जोरि कहै चलिये' मम, जीवत है बृजभूमि सुनाये। संग लगे हठ जात दिली छुट, वावत तूवर आई समाये ॥६०३ मूल ___ यह लोक प्रलोक सुख, लालदास दोऊ लह्या ॥टे० उर' प्राकर प्रभु सुजस, प्रीति साधन सूं निति प्रति । जगत कुवल सम बस्यौ, लहरि लालच हू निरबृति । प्रीक्षत ज्यं बपु मुच्यौ, बघेरै मांहि बनती। बोंद बन्यौ भजि राम, संत समूह जैनैती। हरख भयो हरखापुरै, गुण गाया त्यूं गुर कया। इहलोक परलोक सुख, लालदास दोऊ लह्या ॥४६७ संतन सेवा कारनै, यहु तन माधव ग्वाल को ॥ अहनिसि करै उपाव, साध जा बिधि ह परसन । स्यांम स्वांग तें हेत, दास को चाहै दरसन । बरत पर उपगार, और प्रासा नहीं मन मै । प्रेमा मगन महंत, गाइ है गुन-गन जन मै। १. कहो चिलये। टि टि. =खान । भगवान् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ २२१ दुखदलन मरदन मदन, नेह नेम हरि लाल कौ। संतन सेवा कारनें, यहु तन माधौ ग्वाल कौ ॥४६८ विदत बहुत लछि प्रेतनिधि, नम दिज तिन संग्या धरी॥ उत्म सहज सुहिद, मिष्ट गिर पानंद दाता। संतन कौं सुखकार, प्रेमां नौमांतर राता। भवन मांहि बैराग, तत्वग्र ही भव न्यारा। नेम सनातन धर्म, भक्त निति लगे पियारा । सहर आगर करि कृपा, कथा पृथी पावन करी। बिदत बहुत लछि प्रेमनिधि, नम दिज तिन संग्या धरी ॥४६६ टोका इंदव प्रेमनिधी बसि है पुर आगर, सेवन कौं तरकै जल ल्यावै । छंद चातुरमास जहं-तहि कर्दम, सोच करें किम अप्रस प्रांवें ! जो चलि हौं तम मै बिगरै सब, तौ हु चले नर छूत न भावै । द्वारहु ते सुकुमार लख्यौ इक, हाथि चिराक इनै लगि जावें ।।६०४ मांनत यू पहुचाइ चल्यौ किन, जो टलि है सुख को उघरी है। आत भयो जमुना लग पात्रज, न्हात भये बुद्धि 4 सु हरी है। कुंभ धरयौ सिर आइ गयौ वह, छोड़ि गयो कौंन करी है। होत भई चित चिंत गयौ बित', मित बिनरं दिग होत झरी है ॥६०५ कैत कथा सु हरै चित भाव, भरै किरणा करि दुष्ट जरै है। जाइ कही पतिस्याह रिसावत, लोग बड़े तिय धांम भरै है। चौपहिदार पठाय बुलावत, तोइ धरौं वह सोर करै है। लेर गयौ नृप बूझत रंगहि, नारि करौ परसंग बुरौ है ॥६०६ गाथ कहौं प्रभु कान्हहि की नर, नारिहु आइ रहै उन प्यारो। ना बरजै न बुलावन जावत, नांहि बिष तिय है महतारी। बात भली तुम तौ कहि दीन सु, तो ढिग के नर कैत नियारी। भूप कही इन राखहु देखहि, रोकि दथे तब तो हरि धारी ॥६०७ पौढत हौ पतिस्याह कही निसि, इष्ट धरयौ वहि को कहि प्यासे । आब पिवौ कित है सु परै ढिह, पांवहि कौंन खिजे पुनि खासे । १. छित। २. किन । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] राघवदास कृत भक्तमाल लात धरी कहि नांहि सुनी हम, आप कहौ वह पांवहि हासे। रोकि दियौ वह कांपि उठ्यौ सुनि, भाव भयौ उर सौ दुख नासे ॥६०८ मानस भेजि बुलावत ताछिन, पावत पाइ लगे नृप भीजे। साहिब कौं तिस जा जल पावहु, नांहि पिवै अनिवै तुम रीझे। ल्यौ दस गांव रहौं तुम पायन, नांहि गहौं द्रिबि राखत छीजे । साथि चिराक दई पहुचावत, नीर पिवावत है प्रभु धीजे ॥६०६ मूल राघो तन करि दूबलौ, भक्ति भाव मोटो महा ॥ परंपरा सिख गरू, छोड़ौँ बिदत बतायो। मांही बारै नृमल, कलू कालौ नहीं लायौ । सुंदर सहज सुसील, गिरा मृखा न सुहाई। साध संग मैं जाइ, कीरतन कथा कराई। कहरणी सं चालै नहीं, जा जन की महिमां कहा। राघो तन करि दूबलौ, भक्ति भाव मोटो महा ॥४७० संतन की सेवा लीयें, जित तित भक्त बिराजहीं॥ पदमबेरछ रहै भट, स्याव देवकल्याणं । हरिनारांइन भूप, चिग बोहिथ बर मांन । गांव सुहैले रामदास, तुलसीजू भेलै । सहर हुसंगाबाद अड़ि, उधव झड़ झेले । प्रमानंद वोली बिचै, ध्वजा धरम की साजहीं। संतन की सेवा लीयें, जित तित भक्त बिराजहीं ॥४७१ कीयो भजन साधन सबल, अबला तन इन बाईइन ॥ १बीरां रहीरांमन्य ३धनां, ४लक्ष दमां प्रगट जग। ५केसी खीचनी रामबाई, लाली चाली मग। नीरां हजमनां रैदासनि, १०गंगा पुनि ११जेवा। संत उपासनि १२गोमती, उभै १३पारबती सेवा । १४बादर १५रांनी कुवरराय, यूं जांनौं १६हरखां जोइसिन । कीयो भजन साधन सबल, अबला तन इन बाईइन ॥४७२ साध दया उर धारि प्रभु, कान्हर-जन लाही लीयौ ॥ लख्यौ भजन मग सत्य, जब गुर सरनै पायौ । साच भूठि पहिचांनि, जगत ध्रम दूरि उड़ायौ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित श्रांई । कीयौ । सब सूं रह्यौ निराल, इंदु द्रुम साखा नांई । भारी गुन-गंभीर, सकल जीवन सम संत' सुजस प्रांनन सदा, अपजस कबहूं नां साध दया उर धारि प्रभु, कांन्हरदास लाहौ पापी कलि के जंत जे, केवलरांम कीये गुर संतन सौं बिमुख, नांव जगदीस न गांवें । बहुत इसे नर-नारी, खेंचि मारग सति लावै । उज्जल प्रीति श्रकांम, कनक श्ररु कांमनि त्यागी । सार- द्रिष्टि अज्ञान नसन, रहति करुणा के भागी । स्यांम स्वांग नवमां भक्ति, देत नांहि बोलै प्रसिद । पापी कलि के जंत जे, केवलरांम कीये बिसद ॥ ४७४ टोका इंदव धांमहि धांम कहै मम देवहु, ल्यौ हरि नांवहि सेव बतावै । छंद स्वांग धरें लखिये न प्रचारहि, पूजन की प्रभु रीति सिखावै । सागर है करुणां न सुने अनि बैलहि चोट दई सु लुटावै । ऊपरिई मगरां बिचि देखत, है सब ये कहि के समझावै ।।६१० छ ै १. सब । २. (नहीं) । मूल हरिबंस संत सेवा करें, द्रिव्य रहत बिस्वास हरि ॥ गांन गाथ सूं हेत, साधन पूजन प्रति खुरपा जाली न्याई, देत सर्बस ले करें नहीं बकबाद, सील सुमरन भजे अखंडत स्यांम, प्रातमि या श्रीरंग सीस गुर धारि कैं, प्रभू मिल्यौ भव सिंध तरि । हरिबंस संत सेवा करें, द्विबि रहत बिस्वास हरि ॥४७५ कल्यांन लयो कन बोन कैं, सुजस सुगन हरि भजन जग ॥ बिधि धारे । उचारे । न रहत पतिव्रत, सीस गोबिंदहि बेंन मिष्ट सुख देन, जगत चित हरन करुरगा के बड़ ढेर, दया उपगार संत चरन रज ध्यान, काय मन बच क्रम येकी । बिबेकी । Jain Educationa International [ २२३ For Personal and Private Use Only लीयौ ॥४७३ बिसद ॥ राजी । बाजी । संतोषी । पोखी । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] राघवदास कृत भत्त.माल पुत्र भलौ धर्मदास कौं, भयौं प्रगट श्रीरंग' लग। कल्यांन लयो कन बीन के, सुजस सुगन हरि भजन जग ॥४७६ साधन के सतकार कौं, हरि जननी के निरमये ॥ श्रीरंग वाहव सुमरि, लगनि २लाखा कै लागी। मारू मुदित ३कल्यांन, ४सदानंद सदा सभागी। ५स्यांमदास लघु ६लंब, भक्त भजिये नृमल मन । ७चेता ग्वाल गुपाल, परस बंसीनारांइन । १. संकर सलाधि! उर प्रसन, करत प्रभु धर्म ये। साधन के सतकार कौं, हरि जननी के निरमये ॥४७७ स्यांम स्वांग पर भाग नै, हरीदास हिरदौ सुहृद ॥ प्रीति परम प्रहलाद, सिव रस म है सरनाई। देह दांन दधीच बाद, पुनि बलि सो राई । सीस दैन जगदेव, भजन पन मै बोकावता। तूंवर-बंस बिगास, साध सेवा निति भावत । पृथापुत्र* पीछे बड़े, अदभुत कहा जस जगत सद। स्यांम स्वांग पर भाग नै, हरीदास ह्रदो सुहद ॥४७८ टोका इंदव श्रीप्रहलाद सु आदि कथा जग, सौगुन हैं हरिदास सरीरै । है जगदेव समां रिझवार सु, तास कथा सुनियो सब धीरै । येक नटी गुन रूप जटी कहि, तांन कटी हस तौं नर भीरै। रीझि रह्यौ नृप देवत सीसहि, राखि अबै हमरौ यह बीरै ॥६११ दाहिन हाथ दयौ तुम कौंनहि, वाड़त भूप सु नीर बुलाई। नांच र गांन करयौ नृप रीझत, ले अब ल्यावहु बाम कराई। कोपि कह्यौ अपमान इसो कर, जीवन तौ जगदेव दिवाई। जासु गुनी दस देत दिखावहु, होत नहीं यह मोहि सुहाई ॥६१२ भौत कही निह मांनत ल्यावहु, जात भई मम चीज सु दीजे। काटि दयौ सिर सक्ति रख्यौ बपु, ढांकि रु प्रांनत नैन लखीजै । छंद ह जा १. श्रीलाल । २. (रथ)। ३. हाथ । सिंतसलाधि। (भजन पन पन यू)। *जुधिष्ठिर। (तत)। हंसता । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ २२५ दूरि करयौ पट देखि गिरयौं नृप, वात नहीं द्रिबि की क्यम कीजे । पांनि दयौ यम मो सिर' देवत, रीझि लई उनकी सुनि जीजे ॥६१३ रीति सुनी जगदेव सुता नृप, कैत पिता। सन मोइ न दीजै । भूप बुलाइ कही समझाइ, सुनौ यह राइ सुता मम लीजै। बार नट्यो सत जाइ हतौ कत, लेर चले मम लै मति छीजै । नैनन देखहु काटि र ल्यावहु, प्रांनि धरयो सिर फेरित रीझै ।।६१४ रीझि कही बिसतार सुनौ अनि, संतन सेव करै हरिदासा ।' साधन सू परदा न हिरदे सुख, भक्त रह्यौ इक पुत्रिय पासा। ग्रीषम की रुति सोत छता जुग, देहहि देह मिली सुधि नासा । प्रात भयें चढियो नृप ऊपरि, चादरि नांखि फिरयौ तरि बासा ।।६१५ दोउ जगे सखि चादरि लाजत, लेत पिछांनि सुता पित जानी। साधन ये द्रिग ऊठि चल्यौ नृप, प्राय परयौ पग बात बखांनीं। होइ सुचेत करौ बिधि संक न, दुष्ट सुनें नृप के कुट बांनी। निंदत है तुम हीय जरै मम, नांहिं डरौं अपनी सुखदांनी ॥६१६ भक्त कलंक लगै इम कैत सु. संतन को घटती नहि भावै । सर्म भई स बि छिटकावत, जीव बिचारि घनौं पछितावै । फेरि करे खुसी राखि लये, हसि, देत बड़ौ सुख स्यांम लड़ावै । भ्रात गुबिंद बजावत बंसिय, भूप कही मनमै नही ल्यावै ॥६१७ कृष्णदास कौं कृष्णजी, स्वैपद तें दये घूघरा ॥ मधुर चाल सुर ताल, गांन धुनि मान तान पुनि । रमत रंग द्रिय भंग, संग सम अंगरास सुनि । धुरपद अरु संगीत, बिरत रतनांकर गावत । स्यांमां स्याम प्रसन्न, रागमाला उर भावत । सुनार जाति खरगू अपति भक्ति भाप गुन सूं भरा। कृष्णदास की कृष्णजी, स्वपद तें दिये घूघरा ॥४७६. १. जोरि दयो सिर । २. प्रथ। (जयचन्द दल पांगलो धारा नगरी को)। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ] राघवदास कृत भक्तमाल टीका इंदव दास किसन्न सुनार जुगल्ल हु, सेव करै नृति गांन उचारे । छंद होइ गयो गलतांन दिनां इक, नूपर टूटि परयौ न संभार । स्यांम लखी गति भंग भई निज, पाय न काढ़ि र लात पगारै। होत भई सुधि नीर चल्यौ द्रिग, कीरति छाइ गई जग सारै ॥६१८ श्रीनाराइनदास बड़, भजन अवधि स्वामी सरस ॥ जोग भक्ति करि अचल, गात अपनै बल राख्यो । प्रानंदघन उर मांहि, स्याम जस अानन भाख्यौ । अस्वर्ज भल चित रहसि, सदा भक्तन सुख दाता। बिदत चैन नर दैन, श्रीनारांइन राता। साध सेव निति प्रति करै, देस उतर गति ता दरस । श्रीनारांइनदास बड़, भजन अवधि स्वामी सरस ॥४८० टीका इंदव बद्रियनाथ जु नै चलि प्रावत, सो मथुरा सु किसोर रहाये। छंद मन्दिर लोग बरै दुःख जू तिन, नैन सरूप लगै चित जाये। आप रक्षा करि है सुख होवत, जांनत नांहि प्रभाव लुभाये। दुष्ट लखे इक पोट धरी सिरि, लेरि चले मग ना दुख पाये ॥६१६ पेखि बड़े नर लेत पिछांनि सु, पाय लग्यौ परनाम करी है। पेखि प्रताप परयौ पग दुष्टहु, कष्ट लह्यौ कहि झूठ मरी है। या करि काज बनै तुमरौ सति, जात नहीं घरि प्रांखि झरी है। संतन सक्ति भयौ उपदेसहु, भक्ति लइ उर बास जरी है ॥६२० लक्षमी भर भगवानदास, सरल चित्त अति सुष्ट जन ॥ भक्ति भावनां भूप, बिनै उत्म लक्षन घन । पीवत रस भागोत, बरनि चोजा जनि गन । बसत मधुपुरी नित्ति, हेत साधन चरनांमृत । हेरत हरि बिश्राम, नाम गुन रूप यहै बिन । सिथिर बुद्धि उर सहनता, निडर महा छाड़े न पन । लखिमी भर भगवानदास, सरल चित्त अति सुष्ट जन ॥४८१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ २२७ टोका इदव जानन कौं पनस्याचित प्रनित, दांम तिलक्कही द्यात' दुहाई। छंद जीवन कौं सब दूरि करै जन, मांनत प्रांनहु मारि डराई । लै भगवान बिसेख करे तन, भक्ति भयौ उर रीति सुहाई। भूपति रीझि दई मथुरा बसि, मंदिर श्रीहरिदेव कराई ॥६२१ गोविंद गलि सोहै सदा, संत रतनमय दाम ॥ सुष्ट सहज घनस्यांम, धांम रतमत उत्म अति । नांनां वत जन प्रीति, रीति यह नीति सुघर-मति । ह्रस पीन सुर सरल बाक, कहि सव मन-भांवन । दिग दूनी बिसवास, साध का परचा गावन । दास नरांइन गोपि जे, कीये प्रगट गुन नाम । गोबिंद गलि सोहै सदा, संत रतनमय दाम ॥४८२ मघवानंदन भक्त नृप, परिजा प्रतिपाल भलें ॥ कमला सहित लड़ात जगत, स्यंघ भजन भाव करि। लक्षमीपति आधीन, कोये उत्म रसि उर धरि । ताकी कीरति करत कठिन, कलिजुग के राजा। बचन न लोपै भृत्य, सूर सांवत सुख साजा। मारतंड भुजदंडा सम, अरि अंधेर दोऊ पुलें। मघवानंदन भक्त नृप, परिजा प्रतिपालैं भलें ॥४८३ टीका इंदव सेवत है लक्षमी सु नरांइन, यौं पन संगहि राखत डोला। छंद जावत है जुध कौं तव आगय, नांतरि पूठि रहै यह तोला। जैसिंघ सो जसवंत सुनी जल, ल्यावत सीस लखै यह छोला। जात दिली सु बजारहि प्रावत, देखि परे पग थे निरमोला ॥६२२ जैसिंघ जूहि कहै मम नेह न, है तुम्हरी भगनी उर जैसौं। दीपकुवारि बड़ी हरि भक्ति सु, क्यूंक भजें हम नांहिं नवैसौ। १. ह्यात । २. मराइ। ३. हुस । टिप्पणी - सूरवीरण। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ] छपै छपै भूप सुनी खुसी होत हुती रिस, गांव दये सु उतारत मै सौ । कागद भेजि दयो बरजौ मति, दीपकुवारि करौ मन सौं ||६२३ राघवदास कृत भक्तमाल १. साधन । मूल तन मन धन श्रपि के नच्यौ ॥ गिरधरंन ग्वाल गोबिंद संगि, सूं घर मधि घरिनि उदार, सदा मन पूरौ समै सदन धन त्यागि, बचन सति पति मात-पिता की रीति, पुनि पुत्र नहीं कतहूं न भक्ति सबीरज मंत्र परं, जन राघो रिभये रामजी, मालपुरें मंगल रच्यौ । गिरधरन ग्वाल गोबिंद संगि, तन मन धन अपि कैं नच्यौ ॥४८४ टोका इंदव संतन सेव करें गिरधरन सु, देखि सुखी हुत है रति साची । छंद त्याग करै बपु खोलि पिवं पग, रीति सबै अनि नाहि न काची । बिप्र कहै सब बात सुहात न, त्याग करौ जन फेरि न राची । होइ प्रभाव जको मति लेवहु, जांनत हूं पर भावन बाची ||६२४ Jain Educationa International राख्यौ । भाख्यौ । पाली । खाली । मूल गोपाली जसमति समां ॥ सेवत । साधू' सेवत सुष्टमति, दसधा रस दिल मांहि, प्रभु पतिव्रत सौं कलि कालिय तैं रहत, संत कौं सर्बस देवत । नृमल गिरा सुसील, सदा मोहन लै पागी । सुभ लक्षन सुभ कला, येक हरिजन रति जागी । अंतकरन बिसद महा भजन रसिक हिरदे जमां । साधू सेवत सुष्टमति, गोपाली जसमति समां ॥४८५ संतन की सेवा समझि, रामदास रतमत करी ॥ सुहिद सांत सम सहजि, गिरा श्रर्जव प्रति श्रांनन । सुरज साधू पेखि, खिलै उर अंबुज मंगलचार उछाह, सहित भगतन कौ पद पखारि प्रनांम, रचत, नांनां बिधि कॉनन । For Personal and Private Use Only • पूजन । बिजन । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ २२९ बसिबो बछ बन प्रेम पन, उभै पदन परि मति खरी । संतन की सेवा समभि, संमदास रतमत करी ॥४८६ टीका इंदव संत सुनी इक भक्तिहि देखन, प्रावत रांम हि दास बतावो । छंद आप उठे पग धोइ लयो जल, श्रावत रांमहि दास रहावौ । भोजन पांन करो उन ल्यावहु, रांम हि दास यहै चलि पावौ । पाय परयौ जन भाव भयौ मन, मात नहीं तन हौं प्रति चावौ ||६२५ ब्याह सुता हि रच्यौ घर मैं वड़, लै पकवान सुसाल धरे हैं । चांक गुली लगाय रहे सुत, खोलि लयो अनि नांहि डरे हैं । साध पधारत पोट पठावत, जाइ जिमावत भाव भरे हैं । पूजत हैं सु बिहारीय लालहि, मो मन संतन भक्ति हरे हैं ।। ६२६ मूल रांमराइ दिज सार सुत, प्रभु प्रीति पनपा रही ॥ भजन जोग निरबेद, बोध दिढ़ हृोदे बिचारे । लोभ क्रोध मद काम, मछर मोहादिक मारे । श्रवन मनन गुनगांन, मुदित सुख सागर न्हावे । साध सूर परकास, हिदौ श्रंबुज बिगसावे । वा पाघ परी पृथ्वी पर दोष पिसरणता धार ही । रामराइ दिज सार सुत, प्रभु प्रीति पनपा रही ॥४८७ भजन भाव दातारपन, यह निबह्यौ भगवंत कौ ॥ स्यांमा-स्यांम बिहार, सार हृदं में दरसे । रसिक राइ जस गाइ, धाइ प्रभु पद सद परसै । प्रांत रहत इक भक्ति, संपरदा मधि निहारी । कर्म सुभासुभ डारि, धारि उर प्रीति बिचारी । सुवन सरस माधौ तरगौं, स्वांग भाइ हरि कंत कौ । दातारपन, यह निबह्यौ भगवंत कौ ॥४८८ टीका इंदव सूरज के भगवंत दिवांन, महा बन - बासिन सेव करी है । छंद साध गुसांई र ब्राह्मन को, ब्रज-बासिन दे धन प्रीति खरी है । भजन भाव + टिप्पणी - जोतष | छपै Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] छपै राघवदास कृत भक्तमाल १ गोबिन्ददेवजु सेव करें गुर है हरिदास चले सुधरी है ।, चावर दूध जच्यौ हरि जावत होत खुसी मति जांन हरी है || ६२७ प्रति सुन गुर मात नहीं तन, कैत तिया सन कौंन करीजै । जोइ कही घर संपति मालहि भेट करो इक बेठ न लीजै । होत खुसी सुनि भक्ति सु तौ तनि, मानत मो मनि पेख ' हि भीजै । कांन परी यह बात फिरे, हरिदास लख्यौ पन प्रावन २ ।। ६२८ होत उत्साह रह्यौ तन दाह सु, प्राय स पाय चले बन आये । मांनि रहे सुख सब्द कहे मुख, जाइ वहां बृज लोग छुड़ाये । चोरियधांम करी न कुभावहि, बुद्धि प्रिया पिय मै द्रिग लाये । है बड़भाग हरी अनुराग, पिता रसिकी जन माधव पाये ।। ६२६ अन्त पिछांनि नहीं सुधि जांनिस, आगर सूं सब ले बन जावै । त भये अधि होइ गई सुधि, कर चले कत जो तुम भावं । फेहु ह्वां नहि लाइक, बारत बास प्रिया प्रिय ग्राव । मो झां मन होइ स जाइ तहां चलि, भावइ सो वह जागि समावै ॥ ६३० मूल बच्यौ सुबरना श्रगनिमुख, यौं रांम जपत ज्वाला टरी ॥ चंद्रहास की बेर न्याव हरिनी कौ विष देते बिषिया दई, बहुरि नृप टोकौ कुंटम सहत इक भूप, भवांनी पूजन भरत चक्रवत देखि, पाय गहि पलौ जन राघो राख्यौ भरथरी, भई सपत सूली हरी । बच्यौ सुबरनां श्रग्निमुख, यौं रांम जपत ज्वाला टरी ॥४८६ सत त्रेता द्वापर जुग्ग सूं, अब कलू कीरतन सार है ॥ गोपी प्यंड प्रजन्न पतिन, परिहार सुनि भागी । सुर नर असुर सु नाग, पुरष पतिनी हरि रागी । धर्म तेज तिपुरा बच्यौ, हरि सुख मृग्यौ काल कौ । बृध्यौ बंस बिरोधतहि, धन परजन धनपाल कौ । १. पेमहि । टिप्पणी- सेत । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only कीन्हौं । दीन्हौं । मारयौ । पसारयौ । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतु दास कृत टीका सहित [ २३१ राघो सुनत तुरंग तन पलट्यौ, तसकर सुन्यौ बिचार है। संत त्रेता द्वापर जुग्ग सूं, कलू कीरतन सार है ॥४६० कउवा तजत किराट कौं, गई अपसरा बरन करें। भक्ति करत इक भूप, सही कसरणी अति भारी। तब भेटे भगवान, प्राइ त्रिभुवन के धारी। नारि पलटि नर भयो, सीत परसादी पाई। भांड भक्त परतक्ष, नृपति पूज्यौ निरताई। कुवर कठारा की कथा, जन राघो कही जग तरन कौं। कव्वा तजत किराट कौं, गई अपसरा बरन कौं ॥४६१ लाहौ मनिखा देह को, लालमती लीयो लाल भजि ॥ प्रिया प्रीय तें प्रेम, प्रेम कालिद्री तट तें। कुंज गली ते प्रेम, प्रेम अति' बंसोबट तैं। जन गोकल ते प्रेम, प्रेम गिर गोवरधन तें। प्रेम मधुपुरी अधिक, प्रेम घन बारे बन हैं। बृदाबन मै जा बसी, सो नगरी घर माल तजि । लाहौ मनिखा देह को, लालमती लीयौ लाल भजि ॥४९२ , दक्षण-देस दूजौ · कृष्ण, पंडित कृष्णोजी सही ॥ जाके पग के मांन, भाव उर वही भावनां। कृष्ण-बसन अरु कृष्ण, जपन पुनि कृष्ण चावनां। कृष्णहि को उपदेस, कृष्ण सब मांहि बतावै । कृष्णहि सूं रतमत, कृष्ण बिन और न गावै । विबेक ग्यांन निरबेद, निज भक्ति बिसतरी वा महो। दक्षन-दिसि दूजो कृष्ण, पंडित कृष्णौजौ सही ॥४६३ उत्तरदिसि उज्जल भक्त, बारह भये बखानिये ॥ श्थंभरण ३द्वंदूरांम ३कलंकी कलंक उड़ायौ। बहुरि ४बलंकीरांम, ५सालू दूध चितायो। ६रांमराइ हरिराय, राम दादू दिल दरसे। हरांम मालू १०राम रंग, पुनह दादू ११प्रभु परसे। १. प्रात। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ] राघवदास कृत भक्तमाल १२रांम सायर रत रांम सू, सुतै सिधि ये जानिये। उत्तरदिस उज्जल भक्त, बारह भये बखांनिये ॥४६४ महंत राघवा अंध भयौ, तिहूं लोक उजागर । पाटि द्वारिकादास, बड़ौ सिष धर्म की प्रागर । अरु टीकू हीरा सु, राम-रस पीय मतिवारा। येकहूं छांनां नाहि, स्वामी लोहा गरवारा। जन तिलोक पूरन बैराठी, कटि हरिया कृष्णदास भनि । राघो राम न बीसरै, जिनि बड़ौ सरन गह्यौ संत धनि ॥४६५ कृष्णा जाडौ संत, लाल गुलांम भनीजै। बाबा लाल सु उतर-खंड मै धांम सुनीजै । लालदास बहु बरणि, गाइ जस जोध प्रमत्ता। सहर प्रागरे माहि, कीयो प्रतिहास सपत्ता। राघो रहरिण सराहिये, कहां लौं बरनौं राम दल । भीर परें भाजै नहीं, यौं भगतन के भगवान' बल ॥४९६ ग्यांनी गदि गलतांन अति, अखौ येक गुजरात मै ॥ सोनीकुल महि जनम, प्रात्मा को अनभी उर। ससा-लिंग मृग-नीर, जगत असौ जान्यौं धुर । जसवंत राजा सुन्यौं, गयो सो आप तास पहि। गोष्टि करी अघाइ, जाइ बनराज प्रासनहि । भक्ति ज्ञान बैराग सम, अद्वीत' दिखायौ बात मै। ग्यांनी गदि गलतांन अति, अखौ येक गुजरात मै ॥४६७ ये पुनि पुनीति प्रमार्थी, सब सदन प्रमानंद साह को । करि उद्यम उदार, उ देही करी उजागर । पूजि भक्त भगवंत, भक्ति को थरप्यौ प्रागर। माहौरा तू रामजी, बालकृष्ण नृस्यंघ निधू । सकल कुटंब धर्मात्मां, लघु दीरघ बेटी बधू । राघो राम निवाजि है, प्रभु करि है तन निरबाह को । ये पुनि पुनीति परमार्थी, सब सदन प्रमाणंद साह कौ ॥४६८ १. भगवंत। २. (हाथ मिटावता जान)। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टोका सहित यौं बलिदाऊ कलि मैं करी, समन ज्यू सापुरस' गति ॥ कुलसं तांतू तोरि, फौरि घर लई जलैबी। संतन को मुख पूजि रह्यौं, अब छैनी है गैबी। सौंज सवाई बढी, रामजी रीति बिचारी। जग्य पुरस जगदीस, प्रगट रस राख्यौ भारो। जन राघो उपजी राति इम, मन बच क्रम कीयो धर्म अति । यौं बलिदाऊ कलि मैं करी, समन ज्यूं सापुरस गति ॥४६६ मनहर मसकति करत मगन मतिवारौ भयौ, बंद नांवकी लगनि कीन्ही कोंन्हां लड़ बावरौ। येक निसा निकटि निसंक रही बाई येक, भोर भये सोर भयौ चोर है तूं राव-रौ । ज्वाब कीन्हौं जुलम जगतपति जाणे भेद, ___ भरि पाये थांन कान्हा पोवं असैं डावरौ। राघो कहै परचौ प्रचंड भयौ जांण्यौं जब, बीनती करत सब गांव' दोष छावरौ ॥५०० छपै दादू दीनदयाल के, येते पोता सिष प्रसिध गनि ॥ प्रथम १फकीर २प्रहलाद, ३खेम छीतर सुबिचारी। ४कल्याण ५केवल ६चैन, ७नरांइन च्यारि सु भारी। प्नृस्यंघ दमोदरदास, १०गोविंद ११बेरपी ब्रह्मबंसी। १२दास बड़ौ १३गोपाल, १४अमर १५बालक हरि अंसी । १६चत्रदास राघो उभ, १७मोहन १८भीख १६गरीब जन । दादू दीनदयाल के, येते पोता सिष प्रसिध गनि ॥५०१ __फकीरदासजो को मूल भनहर दादूजो दयाल कोन्ही दया निज नाती परि, फहम फकीरी कौ फकीरदास पायौ है। प्राये कौं अजब दत रिधि सिधि सील सत, येतौ अंस कृपा मधि अन आप पायौ है। १. पुर संगति । २. जपे। ३. (चोरी परमार्थ)। ४. (उपाय कर गुदरान छ)। ५. (साच)। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ] राघवदास कृत भक्तमाल बाईजी स भाईजी सरस सिर हाथ धरयौ, संत हूं महंतन सबन मन भायौ है। राघो कहै राम धनि पाई बड़ी ठौर वनि, धनी मसकीन' धनि माता जिन जायौ है ॥५०२ स्वामी ग्रोब महंत के, टीके केवलदास बर ॥ प्रेम भक्ति को पुंज, रचे पद साखी नीके। करुणां बिरह बिवोग, सुनत उद्धारक जी के। जो चलि आवै साध, बहुत तिन प्रादर करई। भजन भाव सत सील, देखि सब को मन टरई। राघो महिमां करत कै, सुख पावै नारी रु नर । स्वामी ग्रोब महंत के, टीकै केवलदास बर ॥५०३ मनहर छद सूबौ अजमेरि ताकौ भज्यो ही दिवांन प्रायौ, केवल बिराज बड़ी सररिण निराने हैं। आये असवार तार्को पकरि ले चाले जब, केवल हं पाये डरपांने दुखदांने हैं। जिमी मै गडांऊं थोथे तुकन मराऊ यह, वंद वाजे राखै मेरौ काफरन जाने हैं। दई काढि खंजर की पेट मांझ भृति वाके, परचौ प्रतक्ष भयो जगत बखांने हैं ॥५०४ इम रज्जब अज्जब महंत कै, भले पछोपै साध सब ॥ दीरघ १गोबिंददास, पाटि अब रांमट राज। २खेम सरस सरवाड़ि, तास सिष तहां बिराजै । ३हरीदास ४छीतर ५जगन, ६दामोदर ७कैसौ । पकल्याण दो बनवारि, राम रत-मत गहि केसौ। जन राघो मंगल राति दिन, दीसत दै देकार अब । इम रज्जब अज्जब महंतक, भलै पछोपैं साध सब ॥५०५ १. समकीन। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छंद चतुरदास कृत टीका सहित [२३५ मनहर महंत रजब के अजब सिष खेमदास, जाकै नेम निति प्रति व्रत निराकार को। पंथ मधि प्रसिधि हो देखिये दैदीपमान, बांरणी को बिनाणी' प्रति मांझी न मै मारि को। रांमति मेवाड़ मै वासी मुख सोहै बात, बोलत खरौ सुहात बेता वा बिचार को। राघो सारो रहरणी कहणी सुकृत अति, चैतन चतुरमति भेदी सुख सार कौ ॥५०६ प्रम-पुरष प्रहलाद धनि, देवजोति दिजकुल भयौ ॥ दिपत देह दैदीप, दुती सनकादिक वोपै । दिढ़ द्रिगपाल महंत, परम गुर थप्यो पछोपै । श्रीदादू दादा गुर लगै, सर्बग्य संदरदास गुर । यौं निराकार को नेम व्रत, पहुचायौ परलोक धुर। इम राघो रांम परताप तै, प्रारण मुक्ति परमपद लयौ । प्रम-पुरष प्रहलाद धनि, देवजोति दिजकुल भयौ ॥५०७ दादूजी के पंथ मैं दरद वंद देवजोति, छंद प्रणउं प्रहलादजी प्रहलाद के पटतरै। वह प्रेम वह नेम वह पण प्रीति रीति, वह मन माया जित मगन महंत रे। वह जत वह सत वह रंग राम रत, नृमल नृदोष सुखदाई महासंत रे। राघो कहै मन बच क्रम धर्म धारणां तूं, जीवत मुकति भयो वोपमां अनंतरे ॥५०८ . छपै दादू केरा पंथ मै, चैन चतुर चित चरण हरि ॥ कथा कीरतन प्रीति, हेत सौं हरि जस गाया। साथि र२ रहै समाज, प्रेम परब्रह्म लगाया। गृथ रचे बहु भांति, बिहंगम नामां रूपक । सिधि साधिक गुन कथन, जास थें अधिके ऊपक । १. छिनानी। २. साथरि है। मनहर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ । राघवदास कृत भक्तमाला ग्यांन जोग बैराग मग, बरणे मन बच काय करि । दादू केरा पंथ मै, चैन चतुर चित चरण हरि ॥५०६ इंदव दादूदयाल गोपाल प्रताप लें, चैन के अन यौँ ग्यांन उपन्नौं । छद पाठहु जाम अखंडत येकहि, यौं उर मै गुर जाप जपन्नौ । बीणि लीयो बित ब्रह्म बड़ी निधि, देख्यौ सबै जग झूठ सुपन्नौ । सास सबद सुरत्ति बिचारत, राघो कहै धुनि ध्यान निपन्नौ ॥५१० मनहर दादूजी के पंथ में सराहिबे जुगति जति, छंद नांव को लिहारी भारी निरांनदास मांगल्यौ । सोभित सकल अंग रोम रोम नांव नग्ग, ब्रह्मा विद्या-वीदड़ी पहरि भयौ प्रांगल्यौ। भजन कौ पुंज गलतांन लग्यौ रांम रंग, स्यांम काम सूरबीर मोक्षपद नांगल्यौ । प्राग्याकारी असिल मिसल भजनीकन की, राघो रूड़ी भांति सेति जाइके रांमै रल्यौ ॥५११ मोहन दफतरी के दिपत पछोएँ दीप, __चत्रदास चैतनि परबीन परसिधि है। रमिजी को बासौ जाकी रांमसाला मध्य बृध्य, विद्या उपविद्या ताकै क्रम मधि रिधि' है। सांखिजोग क्रमजोग भजन भगति-जोग, विद्या बेद सास्त्रहि जारणे सारी बिधि है । राघो कहै राति दिन रांम न बिसारचौ छिन, तन मन जित निरपक्ष बड़ी निधि है ॥५१२ दादू गुर दसहूं दिसि, प्रगट धर्म मोरधी मोहनदास ॥ तास पाटि थिर थप्यो धुरंधर, जन गरीब गोविंदनिवास । सास पछोपै श्रबगि सिरोमनि, हरि प्रताप उपज्यौ प्रमहंस । भजि भगवंत भरम कर्म प्रहरि, कीयो उजागर ऊंचो बंस । १. रिध्य । २. विध्य। ३. निध्य। ४. थरप्यो। (धर्म को धोरी)। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेद चतुरदास कृा टीका सहित । ०३७ बड़ो पुरष पुरसा' रचव, या प्रांवानेरी अजब उठाण । जन राघो प्ररणम पछोपै वो, तुलछीदास तपै जिम भारण ॥५१३ अब जगजीवन के पाटि है, दिपत दमोदरदास भरिण ॥ ध्यांनदास धनि पिता, आन तजि हरिगुण गावै । भ्राता कान्हड़दास, सहित हरि भक्ति बढावै । सकल पराकृत संसकृत, कवित छंद गाहा गूढ़ा। खीरनीर निरवारि, करै अरथन का कूढा। यम राम जपत राघौ कहै, सकल कुटंब की गई सु बरिण। अब जगजीवन के पाटि है, दिपत दमोदरदास भणि ॥५१४ मनहर नारांइन दूधाधारी घड़सी गुर पाय भारी, राजा जसवंत असवारी भेजी भाइये। बैलन लीये चुराइ भैल कैसे चलै पाइ, चढ्य करि कह्यौ जु निरंजन चलायये। भैल चली पावै अचिरज सब पावै, राजा सनमुख ध्यायौ हुलसायो मन भाइये। अदभुत कोनौं नृप चीन्हीं द्रिष्टि प्रापनी, सु परचौ प्रतक्ष यह संतन सुनाइये ॥५१५ छौ दादू दीनदयाल के, घड़सी घट हरि भजन कौं ॥ घड़सी के गोविंददास, कुल नामां बंसी। रची डीडपुर साल, भक्ति बल है हरि अंसी। बांणी करी रसाल, ग्यांन बैराग चितावनि। साखि सबद मै राम, नाम गुन और न भावनि । परचा दे परकाज कौं, जांनत तन प्रभु संजन कौं। दादू दीनदयाल के, घड़सी घट हरि भजन कौं ॥५१६ मनहर रतीयाज गांव देस जंगल मै हतौ संत, प्रमानंद रहै दया सोल सत पाले हैं। परयौ है दुकाल देस मटकी भरी ही सात, बाबा अन सौंपि लोग मालवा कौं चाले हैं। १. पुरासार। २. (प्रभाव)। ३. प्रछ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ] राघवदास कृत भक्तमाल छपे प्राये हैं असाढ़ मास बरखा भई है पास, बाहन कौं नाज नास चिता मनि साले हैं। मटकी बताई अन भरी सो दिखाई सव, लीये' पाव बैंचि सव अचिरज न्हांले हैं ॥५१७ नालेरी प्रमान सूके टूकरे भिजोइ राखै, पांनी घोरि पोवै स्वाद षटरस त्यागी है। रिधि सिधि अवै बहु संतन खुवावे, प्रमारथ बतावै अप स्वारथ न मांगी है। आत्म कवल जहां ग्यांन को प्रकास कीयौ, हिरदै कवल तहां ब्रह्म लिव लागी है। प्रमानंद पानंद सु पायौ बनवारी गुर, __ सेवै संत चरण सदा ही बड़भागी है ॥५१८ दादू दीनदयाल के, सिष बिहारणी प्रागदास ॥ ताकै सिष दस भये, दसौं दिसिही कौ गाजै। १रांमदास बड़ सिष, फतेपुर अस्तल राजे । २केसौदास ३निरांनदास, ४बोहिथ ५धर्मदासा। हरीदास ७हरदास, प्रमारणद हटीकू पासा। १०टीको माधौदास कौं, सब दीयौ डोडपुर मांहि तास । दादू दोनदयाल के, सिष बिहांणी प्रागदास ॥५१६ दादूजी के जगनाथ, जाकै है बलरांम निधि ॥ दिपे सहर अांबेरि, राइ महास्यंघ नवाये। भजन तेज प्रताप, प्रगट प्रचे दिखराये । जिते सचिव उमराव, रहै कर जोरें ठाढ़े। करवायौ मध धांम, पूरबिया सेवग गाढ़े। चरण सरण जे पाप रे, तिनके कीये काज सिधि । दादूजी के जगनाथ, जाकै है बलरांम निधि ॥५२० माखू दादू दास को, जाकै बेरपीदास जन ॥ श्रगुन भक्ति की भाव, नांव निति प्रिति मन भायौ। १. मये। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [ २३९ जनम करम गुन रूप, कृष्ण तन दसम बनायौं । पखा-पखी सौं रहत, सहत बैराग बिबेकं। पंथ संप्रदा संत, सबन कुं जानत येकं । चांमलि तीर गंगाइचौ, जन राघो कीयो वास वन। माखू दादू दास को, जाकै बेणीदास जन ॥५२१ बूसर सुंदरदास के, सिष पांच प्रसिधि हैं । टीकै दयालदास, बड़ो पंडत परतापी। काबि कोस ब्याकरण, सास्त्र मै बुद्धि अमापी। स्यांम दमोदरदास, सील सुमरन के साचे। निरमल निराइनदास, प्रेम सौं प्रभु मैं नाचे । राघो-राम सुं राम-रत, थली थावरे निधि हैं। बूसर सुंदरदास के, सिष पांच प्रसिधि हैं ॥५२२ मनहर छपै सुंदर के नरांइनदास काहू के न संग पास, रहत हुलास निति ऊंचे चढि गांवहीं। दिल्ली के बजार मांहि डोले मैं हुरम जांहि, परे कूदि तांहि नीको गोष्टि करावहीं । साथ केनि सोर कीयौ आप उन चेत लीयो, कूदि गये जहां के तहां अचिरज पांवहीं। गगन मगन जन सुख दुख नाहीं मन, गावत सु राम गुन रत रहै नांवहीं ॥५२३ दादू दीनदयाल के, नाती बालकरांम ॥ कर हंस ज्यूं अंस, सार अस्सार निरार। प्रांन देव कौं त्याग, येक परब्रह्म संभार'। कीये कबित षट तुकी, बहुरि मनहर अरु इंदव। कुंडलिया पुनि साखि, भक्ति बिमुखिन कू निदव । राघो गुर पखि मै निपुन, सतगुर सुंदर नाम । दादू दीनदयाल के, नांती बालकरांम ॥५२४ दादू दीनदयाल के, नाती उभै सुभट भये ॥ चतुरदास अति चतुर, करी येकादस भाषा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० राघवदास कृत भक्तमाल पखापखी कौं छाड़ि भज्यौ हरि सास उसासा । भीख बांवनी प्रसिधि, सु तौं सारे जग होई । जा मांहै सब भाव, जाहि भावै सो सोई। संतदास गुर धारि उर, राघो हरि मैं मिलि गये। दादू दीनदयाल के, नाती उभै सुभट भये ॥५२५ दादू दीनदयाल के, नाती दास सर्बज्ञ मनूं ॥ बांरणी बहु बिसतरी, मांहि गुर हरि भक्तन जस । सपतदीप बरणियां, गूथ गुणसागर प्रति रस। पंथपरक्षा आदि ग्रंय, बहु पद अरु साखी। __ महिमां बरणी नांव, भक्ति बिरदावली भाखी। राघो ठाकुर पद परसि, इन पायौ अनुभौ घनं । दादू दीनदयाल के, नाती दास सर्बज्ञ मनूं ॥५२६ दादू दीनदयाल के, नांती दोइ दलेल मति ॥ नृस्यंघ करी निज भक्ति, प्रेम परमेसुर माहीं। छपै सवईया कीये, दोष दस दीये दिखाई। अमरदास के सबद, सूर के पटतर दीजै । बिरह प्रेम संमिलत, चोज अनप्रास सुनीजै । राघो हूं बलि रहरिण की, नोकै सुमरे प्रांनपति । दादू दीनदयाल के, नाती दोइ दलेल मति ॥५२७ इम प्रमपुरष प्रहलाद के, सिष हरीदास सिरोमनि भयो॥ कुछवाही कुल प्रादि, नाम पहली हौ हापौ। पुनह परसि प्रहलाद, तज्यो कुल बल क्रम प्रांपौ। कोमल कुछव कुवार, नहिं चंचलता हासी। सम दम सुमरन करे, मोक्ष-पद जुगति उपासी। यौं हदफ मांरि हरि कौं मिल्यौ, जन राघो रटि अनहद गयौ। परम पुरष प्रहलाद के, सिष हरीदास सिरोमनि भयौ ॥५२८ प्रम-पुरष प्रहलाद के, इतने सिष सर्ब धर्म-धुर ॥ तिन मधि बड़ बांनत, हेत हापौजी होई। दीरघ अवर अनंत, बुरौ जिन मानौं कौई। चरणदास भजनीक, तिलकधारी है केसौ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ चतुरदास कृत टीका सहित [ हरीदास पुनि पाटि, कोयो हरि घर प्रवेसौ। कान्हड़दास कल्याण, पुनहि परमानंद घमडी। रामदास हरदास, भक्ति भगवत की समडी। इम राघौ के रुचि राति दिन, भरणे भक्त भगवंत गुर। इम प्रम-पुरष प्रहलाद के, इतने सिष श्रब धर्म धुर ॥५२६ इम येक टेक हरि नांव की, हापाजी के सिषन के॥ टीके ऊधौदास, धर्म धीरज की प्रागर। रथि राघो के राम, बैठि उन कीयौ उजागर। दीरघ दिनन कल्याण, उदचंद ईस्वर अरजन । प्रानंद लाल दयाल, स्यांम गोबिन्द जस गरजन। तुरसी हैं हरिरांम, पुनह पारबती बाई। टीकू द्वै भगवान, सकल ग्यांनि गुर-भाई ॥५३० कृष्णदास मोहन मगन, अजमेरी ऊधौ रहै। गगन मगन खेलत फिर, जथासक्ति हरि हरि कहै। परमार्थ मै निपुन अति, प्राये कौं जल अंन दे। संतन को उर भाव बहु, सनमुख जाइ र धाम ले। ये करणी कृतब भले, ज्यू राजस बृति रिषन के। येक टेक हरि नांव की, हापाजी के सिषन की ॥५३१ मनहर भक्तवत्सल कौ उदाहरन रामजी की रीती असी प्रीति सुं खुसी है भया, ___ करमां की खीचड़ी आरोगनें को आये हैं। . त्यागे हैं प्रवास दुरजोधन के जांनि बूझि, बिदुर गरीब घरि साक पाक पाये हैं। विप्र सुदामा को दलिद्र दुख दूरि कीयौ, कूरी कन देखे प्रभु हेत सौं चबाई हैं। राघो कहै रामजी दयाल अंसे दीनन सू, .. भीलन के झूठे बेर पाप असे खाये हैं ॥५३२ भक्तबछल भगवंत देखौ संत काज, देह रोद्र हाल फेरचौ नामदे की टेर सू। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ राघवदास कृत भक्तमाल कांसी में कबीर कसि बांधि डारयौ हाथी प्रागै, ___ स्यंध रूप धारि के दहारचौ मुटभेर सौं। भीर मै भगत्त काज बहत बिरद लाज, धूसे कीन्हे अटल बघायौ येक सेर सौं। प्रगटे प्रहलाद काज खंभ सू नृत्यंघ रूप, .. राघो हत्यौ हिरनांकुस हाथ की थपेर सू ॥५३३ गरीबनिवाज सू अवाज कीन्हीं येक बेर, पाये गज काज को छुडायो येक छिन मैं। द्रोपती की राखी पति अंबर बढायौ प्रति, दूसासन दुष्ट खिसांनौं परयौ मन में। कासी मै कबीर काज बालदि मै ल्याये नाज, देखे प्रभु दीनबंधु असे पूरे पन मै। राघो कहै पंडुन सूवोर ज्यू निबाही प्रीति, राखे केऊ बार करतार राति दिन मै ॥५३४ दीनबंधू दीन काज दौरे गज टेर सुनि, प्रांनिक छुड़ायौ उन राख्यौ त्रिय ताप सौं। बोगरयौ बिटप दिज सोऊ गयौ लोक निज, . अजामेल अंतकाल नांव के प्रताप सौं। सूवा कौं पठावते सरीर सुदि भूलि गई, गनिका बिवान चढ़ी गछी हरि जाप सौं। राघो अंबरोस बेर भये हैं दुबासा जेर, कीयौ है अधिक जगदीस जन प्राप सौं ॥५३५ इंदव पंज रही परमेश्वर गावत, दादूदयाल की देखौ रे भाई। काजी नै कौंस दई खिजि के मुखि, स्वामी न दूखे सजा उन पाई। सांभरि सात महौछिन को दल, सातों ही ठौर भये सुखदाई। . राघो रक्षा करी राज सभा मधि, पौरि उभं गज लागौ है पाइ ॥५३६ भारत मै भृति राखि लीये, पंडवां हरि हेत सौं खेत जितायो । जन को रिपु राम हत्यौ, हिरनांकुस प्रांन सौं प्रहलाद लगायौ। टेर सुनी गज को इतनी, अर्ध नांव की लेत ही रामजी प्रायो। राघो कहै द्रोपती भई दीन सु, कीन्हीं कृपा हरि चीर बढायौ ॥५३७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित छ [ २४३ भोग छतीस कीये दुरजोधन, भाव बिनां भुगते न बिधाता । येकक भाव इकोतर से तजे, बिद्र के कौन उतारें है पाता । साग के तहि भाग उदै भयौ, कृष्ण मिले त्रिये - लोक के दाता । कहै हरित के गाहक, प्रीति बिनां कुछ ' नेह न नाता ॥५३८ अरिल छ १. कछ । अधिकार श्रवन सुनि साध कौ, प्रदभुत कोई न मांनियौ ॥ श्रहं भक्त श्राधीन, कह्यौ हरि दुरबासा सौं ।' धू प्रहलाद गयंद, सेस सिवरी सरितासौं । पांडुन के जगि कृरण, अंघ्रि सुचि भूठि बुहारी । चंद्रहास बिष मेटि, राज दे विषया नारी । परचा कलि महि बिदत बहु, श्रासतिक बुधि उर प्रांनियौ । अधिकार श्रवन सुनि साध कौ, प्रदभुत कोई न मांनियौ ॥ ५३६ क्यूं दुरायें कठ गहि ठांवो साल सराफ, दरबि खोटो कौ Jain Educationa International दाई श्रागें पेट, ज्यूं निजरबाज निस्तू, सम कर राग के भाग, यौं साध सबद कौं पेखि के, जन राघो यौं हंस ज्यूं, arat ग्रंथ गमि बिनां, सुनौं कबि चतुर बिनांनी । रप्यौ पांनी । की किर्ची । सरवर कौं सर मांझ, भिरा भरि सोवन भई सुमेर, ताहि कंचन गणपति कौं इक साखि, गिरा दे सरस्वती अरची । सूरजबासी ससि दसी, कलपबृछ कौं धरि धजा । स्थंघ खोज सेवत चढ़ी, जन राघो गज मस्तक श्रजा ॥५४१ अन लह माइ रु हंस, गरुड गोबिंद कौ श्रासन । लघु खग श्रौर अनेक, उड़हि पंखी आकासन । सत जोजन हनवंत, कूदि गयौ सबका गावै । मृग चीता मृगराज छल, और पै फाल न श्रावै । दुरें | करें । खरौ । गुनीजन गरौ । गुनी बहुतर? चाल रहि । खीरनीर निरनौ करहि ॥ ५४० २. बहुत चरचाल रही । ३. सब को । For Personal and Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ 1 राघवदास कृत भक्तमाल टीडा मेडक भाड भृग सरकि, सरनि उन पुनि गह्यौ। त्यूं राघव रचि पचि रसन मम, भोर मिति भृति कृत कह्यौ ॥५४२ रदय नौस निवासिन दीब निरंतर, स्यंध सूं सोत मिलेहि रहैं हैं। छंद जैसव चंद चकोर कमोदनि, अमृत कौ पुट पान गहै हैं। कुंज अकास बचे बिचि बारिक, श्रुत्तिक द्वारि सतोष लहै हैं। राघो कहै गुर की लछि नृमल, निर्पखि रामहि राम कहै हैं ॥५४३ पूरण भाग उदै जब होतह, ताहि दिनां सत-संगति भावै। साध रु बेद को भेद सुने बिन, कोटि करौ हिरदै बुधि नावै । मुंडत केस जनेउ जटा सिर, ज्ञान बिनां बिसरांम न पावै । बैठे ते ब्याधि गछेन कछै' कछु, राघौ कहै मन कौन सूं लावै ॥५४४ पूरण भाग बिनां भृति को कृत, कौंन लहै गज ज्ञान मुदा के । संगति सार बिचार बड़ी निधि, मांट भरे मधि स्वांति सुधा के। हाथि चढ़े धन धांम सु धीरज, बीरज बज्र जमै सुबधा के। राघो कहै जस जोग समागम, संत कौं अानंद रूप उदा के ॥५४५ मनहर बीन कछू जाने नांहि जानत है बीनकार, प्रतक्ष बजावत छतीत राग रागरणी। पांख को परेवा करै बाजीगर बाजी मधि, . जेवरी सूं जुलम दिखावै नाग नागणी । दंपति अनेक दाव करत उगव बहु, - पति जांहि मांनै सोई सदन सुहागरणी । राघो कहै रोसि जिन मानौं कोई कबिजन, - राम रथ बैठे तब देत बाग बागणी ॥५४६ प्रक्षर अरथ तुक जाण व्यास सुक मुनि, ... मैं का जाणौं ग्रंथ करि मूढमति छोहरा। प्रावत है सकुचि बड़ौं सौं बकि दीन्ही धीठ, दुरै न दुकांन कूर कारीगर लोहरा । महुर रुपया नग ख्वार टकसार बिन, । लेत परसाइ ताहि साहूकार सोहरा। १. (जा पन्न हो)। २. (सूरा तन धीर)। ३. (अर्थ)। ४. नम, नरा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित [२१५ राघो कबि कोबिद म्हंत संत स्यंधजल, मेरो उनमांन अंसौ डांग मधि डोहरा ॥५४५ मम गुर माथे परि स्वांनी हरीदासन है, प्रम गुर स्वामी प्रहलाद बड़ी निधि' है। स्वामी प्रहलादजू गुर बड़े सूरबीर, नांम स्वामी सुंदरदास जारण सारी बिधि है । तास गुर दादूजी दयाल दिपियर सम, सो तो त्रियलोक मधि प्रगट प्रसिध्य है। स्वामी दादूजु के गुर ब्रह्म है विचित्र विग, राघो रटि राति दिन नातो प्रनती वृध्य है ॥५४८ साखी दुगध गऊ को लीन है, अस्त मास तजि चाम। ज्यौ मराल मोती चुग, त्याग सीप जल ताम ॥१ जौ अंतिज प्राभूषन सजै, नख-सिख वार हजार।' तऊ हाटक हटवारे गये, मोल न .घटै लगार ॥२ त्यूं प्रसिध्य पंचूं बरण, अन्य न भक्ति उर जास के। तिन चरनन की चरणरज, मनि मस्तक राघोदास के ॥३॥५४६ उर अंतर अनभै नहीं, काबिन पिंगुल-प्रमारण। मैं चरिण बीरण सिलोकीयौ, कबिजन लोज्यौ जाण ॥४ अक्षर जोड़ि जांणों नहीं, गीत कबित: छंद न।। सिसु रोटी टोटी कहै, जननी समझै . सैन ॥५ भूलि चूकि घटि बढ़ि बचन, मो अनजांनत निकसियो। रांम जांरिण राघो कहै, संत महंत सब बकसियौ ॥६॥५५१ छंद प्रबंद अक्षर जुरहि, सुनि सुरता देदादि । उक्ति चोज प्रसताव बिन, बक्ता बकै सु बादि ॥७ बालक बहरौ बावरौ, मूरख बिना बिबेक । बार कुबार भलौ बुरौ, इनके सबही येक ॥८ हूं अजांन यौँ कहत हूं, कबिजन काढ़ौ खोरि । राघव अरजव अरज करै, सबहिन सूं कर जोरि ॥६॥५५१ १. निध्य । २. विध्य । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ । राघवदास कृत भक्तमाल ज्ञांनी गिलौ न उच्चरहि, निंदत नहि मुख मोरि । ततबेता जिनतर कही, निपट तगा ज्यूं तोरि ॥१० महापुरष मदि तक रहि, तब पलटहि चक्षु दोई। प्रात्म अनभव ऊपज, सबद संचौ यौं' होइ ॥११ इह जीव जंबूरा बापरौ, करै कौन सौं टेक । राघो तउ कबि कहेंगे, तेरी कला न माने येक ॥१२॥५५२ माया को मद ऊतर, सुनि साधन की साखि । कथा कीरतन भजन पन, हित सू हिरदै राखि ॥१३ अठसिठ तीरथ कोटि जगि, सहस गऊ दे दांन । इन सबहिन सूं अधिक है, सत-सगति फल मान ॥१४ भगवत गीता भागवत, त्रितय सहसर-नांम । चतुर स्तोतर अवर सब, पंचम पूजा धाम ॥१५॥५५३ गाइत्री गुर-मंत्र लखि, अठसाठ तीरथ न्हाइये । भक्तमाल पोथी पढत, इतनौं तत फल पाइये ॥१६ भक्त बछल कृत भक्त कृत, श्रब कृत श्रब धर्म को गलौ। राघो करि है रामजी, श्रोता वक्ता को भलौ ॥१७ भक्तबहल बृद रावरौ, बदत बेद च्यारूं बरण । जन राघो रटि राति-दिन, भक्तमाल कलिमल-हरण ॥१८॥५५४ संबत सत्रह-सै सत्रौंतरा, सुकल पक्ष सनिबार । तिथि त्रितीया आषाड़ की, राघो कोयौ बिचार ॥१६ चौपाई दीपा बंसी चांगल गोत। हरि हिरदे कीन्हौं उद्योत ॥ भक्तमाल कृत कलिमल-हरणो । प्रादि अंति मधि अनुक्रम बरणीं ॥२० सीखे सुरणे तिर बैतरणी। चौरासी की होइ निसरणी ॥ साध-संगति सति सुरग निसरणी। राघो अगतिन कौं गति करणों ॥२१॥५५५ इति श्री राघोदासजी कृत भक्तमाल संपूर्ण ॥ समाप्त मनहर अग्र गुर नामा जू कौं आज्ञा दीन्हीं कृपा करि, छंद प्रथमहि साखि छपै कीन्ही भक्तमाल है। .. पीछ प्रहलाद जू बिचार कही राघो जू सू, करो संत आवली सु बात यौ रसाल है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरदास कृत टीका सहित | २४७ लई मांनि करी जांनि धरे आंनि भक्त सब, नृगुन सगुन षट-द्रसन बिसाल है। साखि छपै मनहर इंदव अरेल चौपे, निसांनी सवइया छंद जांनियो हंसाल है ।।६३१ प्रथमहि कीन्ही भक्तमाल सु निरांनदास, परचा सरूप संत नाम गांम गाइया। सोई दैखि सुनि राघोदास आप कृत मधि, - मेल्हिया बिबेक करि साधन सुनाइया। नृगुन भगत और प्रांनि यां बसेख यह, उनहूं का नांव गांव गुन समझाइया। प्रियादास टीका कीन्ही मनहर छंद करि, ताहि देखि चत्रदास इंदव बनाइया ॥६३२ स्वामी दादू इष्टदेव जाको सर्ब जानें भेव, सुंदर बूसर सेव जगत विख्यात है। तिनके निरांनदास भजन हुलास प्यास, उनहूं के रामदास पंडित साख्यात है। जिनके जु दयारांम कथा कीरतन नाम, लेत भये सुखरांम और नहीं बात है। त्रिष्णा अरु लोभ त्याग लयौ है सतोष भाग, असे जू संतोष गुर चत्रदास तात है ॥६३३ संप्रदाइ पंथ पाइ षट-द्रष्ण जक्त प्राइ, भजत गोबिंद राइ मन बच काइये। जिन मांहै काढि खोरि निंदत है मुख मोरि, दूषन लगाइ कोरि साचहि झुठाइये। साध कौं असाध करै अनदेखी बात धरै, रांम सून डर लरै जोर ते धिकाइये। यसे कलिजुगी प्रांनी प्राइ कहै कटुबांनी, . पाप की निसांनी प्रभु ताहि न मिलाइये ॥६३४ इंदव बुद्धि नहीं उर नां अनभै धुर, पासि न थे गुर दूषन टारें। छंद प्राइ गई मनि औरन मैं सुनि, संतन कौं भनि होइ उधार। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ राघवदास कृत भक्तमाल जो तुक छंद र अक्षर मातर अर्थ मिले बिन साध सुधारै । चातुरदास करें बिनती नवि, मांनि कबीसुर चूक निवारे ।। ६३५. संबत येक रु आठ लिखे सुभे, पांच र सातहि फेरि मिलावै । भद्र की बदि है तिथि चौदसि, मंगलवार सु बार सुहावे । तां दिन पूरन होतु भयौ यह टिप्पण चातुरदास सुनावै । बांचि बिचारि सुनैरु सुनावत, सो नर-नारि भगतिहि पावे ||६३६ मनहर छंद इति श्री भक्तमाल की टीका संपूरण समापत । सुभमस्तु कल्यांणरस्तु ।। लेखक पाठकयो || छ । ३३८ ॥ मनहर ।।१५२।। हंसाल ||४|| साखी ||३८|| | चौपाई ॥२॥ इंदव ॥७५॥ राघोदासजी कृत संपूर्ण ॥ इंदव छंद ॥ सर्व ६२१ ।। चतुरदासजी कृत टीका छै सर्ब कबित || १२०४ ॥ ग्रंथ संख्या श्लोक ||४१०१ || लिखतं बाबाजी श्री चतुरदासजी तिनका सिष बाबाजी श्री नंदरामजी तिनको सिष गोकलदास बांचे ताक रांम रांम । . Jain Educationa International बर्स दस ग्राठा साठा उपरंत्य येक पुनि, मास बयसाख बदि त्रितिया बखांनियें । कौ मोर गुरंधर बर भक्तमाल बनी, ! याको भनि सुनि प्रांनी नीर द्रिग प्रांनियें | याही तैं बिचारि कैं संभारि सार लीन्हों धारि, लिखि डीsait विधि नीकीं मन मांनियें । मोरा मति भोरी प्रति कीजियों जु बुद्ध सुद्ध, खोट ठोठ लिख्यौ कछू सोऊ अब मांनियें ||१|| : नोट : प्रति नं० 'B' की पुष्पिका इस प्रकार है इति श्री भक्तमाल की टीका सम्पूररण- समाप्त | लेखक पाठकयो ॥ छपं - ३३८ ॥ मनहर- १५२ ॥ चौपई-२ ॥ इंदव ७५ ॥ कृत टीका का छ । सर्व कवित - १२०४ ॥ राम । बांचं पढ़ि तिनकौं सत राम ॥ राम राम ॥ श्री दादू || नोट : नं० 'C' की पुष्पिका इस प्रकार है इति श्री भक्तमाल की टीका समाप्त संपूर्ण । सुभमस्तु ॥ कल्याणमस्तु ॥ लेखकपाठकयो ब्रह्मभवतु । अदि गुर ब्रह्म जानि सति चिदानंद मानि, सोउ अब दादुदास प्रगट्यो सिस्ये । तिन के तो सिषब नवारी हरिदास सिध, छवीलदास ताके सिख प्रमद सू लेषिये । प्रामदास ताके सिष स्वामी ही की ध्यावे दिसि श्रारणदास तिन सिष प्रचे ब्रह्म देखिये । तिन सिष हरिदास, जग में जिहाज रूप, चरणदास ताके सिष, जोगेसुर पेखिये ॥ १॥ दोहा ॥ छपे छन्द ' ३३३ ॥ मनहर १४१ ॥ हंसाल- ४॥ साखी ३८॥ चौपई २॥ इंदव छंद ७५॥ राघौदासजी कृत भक्तमाल सम्पूर्ण ॥ ५५३ इंदव छंद चतुरदास कृत टोका का ॥६२॥ सरवस कवित २१८५॥ ग्रन्थ की श्लोक संख्या ४१०१ ॥ लिखतम् " शुभस्थान • पीतगरे मानीदास उदय लिपि कृते संवत १८८६ मिति बैसाख सुदी १०॥ सुभमस्तु ॥ हंसाल-४ ॥ राघौदासजी कृत संपूर्ण ॥ ॥ इंदव छंद ६२१ ॥ ग्रन्थ संख्या श्लोक-४१०१ ॥ कल्याणरस्तु ॥ साखी - ३८ ॥ चतुरदासजी लिखतं बोलता संवत १८६७ भादवा सुद८ - राम राम For Personal and Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ? ( परिवद्धित संस्करण का अतिरिक्त पाठ ) मूल मंगलाचरण दादू नमो नमो निरजनं, नमस्कार गुरुदेवतः । वन्दनं सर्व साधवाः प्रणाम पारंगत ।। पृष्ठ २ पद्यांक E के बाद - कवित्त ___ नमो नमो गुरुदेव, नमो कर्ता अविनासी। अनन्त कोटि हरिभक्त, नमो दशनाम सन्यासी ।। नमो जैन जोगेश, नमो जंगम सुखराशी। नमो बोध दरवेस, नमो नवनाथ सिद्ध चौरासी। नमो पीर पैगम्बरा, ब्रह्मा विष्णु महेश । धरनि गगन पाणी पवन, चन्द सूर आदेश । नर-नारी सुर नर असुर, नमो चतुर-लष जीवकों। जन राघौ सब को नमो, जे सुमरे नित पीव कू ॥१० पृष्ठ १४ पद्यांक २६ के बादइदव द्विजं एक अजामिल अन्त समै, जमकै जमदूतनि आन गह्यो। छंद भयभीत महा अति आतुर है, सुत हेत नरायन नाम लह्यो। जब सन्तनि आय सहाय करी, गहि बेत सों दूत को देह दह्यो। 'माधौदास' कहै प्रभु पूरण है, हरि के सुमरे अघ नाहिं रह्यो ॥६३ जमदूत भजे जमलोक गये, जमराय सों जाय पुकार करी । जहां अंग के भंग दिखाय दियो, तहां त्रास की पास उतार धरी। करता हम और न जानत हैं, हम पै अब होत न एक घरी। 'माधोदास' कहै अघ मेटत हैं, सोई दीन अधीर न सन्त हरी ॥६४ जमराय कहै जमदूतन सों, तुम बात भलो सुनल्यो अब ही। जहां भगत के भेष की बात सुनो, वह मारग जाहु मतै कब ही। हरि के जन सों कोई कोप करे, हरि देत सजा ताकों जब ही। 'माधोदास' को पास विश्वास यह, हरिराय की टेक सदा निबही ॥६५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल २५० ] जमदूत कहै जमरायन सों, तुम्ह काहे को बीच करावत हांसी ? इततै पठवों उत वे न गिनें, हरिजन बीचहि मारि भगासी। पशु मानुष पंखि की कौन चलै, तहां कीट पतंग सबै जु मैं वासी। 'माधोदास' नरायन नाम प्रताप सों, पाप जरै जैसे फूस की राशी ॥६६ डरै धर्मराय उठे अकुलाय, रहे जु खिसाई इक बात चलाई। नाम उचार भयो तिहिं वार, सहि सिर मारग एक न धाई। सुनहु जमदूत कु जान कुपूत, भई भल सूत बचे हम भाई। जहां काल प्रचण्ड को डण्ड मिट्यो, हमरी तुमरी किन बात चलाई ॥६७ पृष्ठ ३० पद्यांक ६५ के बाद अन्य मत मनहर भयो हूं पिशाच तेरी कूखि अवतार लियो, छंद मेरे जाने निपटि पिशाचनी तूं कैकयी। हंस हति कुमति तें बांधि धरे वायस कों, ____ अमृत लुटाय के जु वेलि विष की बई। कमल से कोमल चरण रघुवीरजी के, कैसे वन जैहैं कुश-कण्टक मही छई। मैं तो मरिजेहूं मोसौं कैसे दुःख सह्यो जात, होणहार हुई और कहा होयगी दई ॥१४८ छप्पय पृष्ठ ८२ पद्यांक १८६ के बाद परसजी का वर्णन : मूल मरुधर कलरू गांव परस जहां प्रभु को प्यारो। सतवादी सूतार कर्म कलिजुग तें न्यारो। ता बदलै तन धारि राम रथ-चक्र सुधारयो। इकलग पूठी एक बिना शल तबै विचारयो। परस गयो जहां भूपति, चित चकृत चरनौं नयो। 'राघौ' समथ्र रामजी, भक्ति करत यों वश भयो ॥४१२ पृष्ठ ८८ पद्यांक २२२ के बाद भूपति मन्दिर लाय लगी, अति लाट जु अम्बर लाय लगी है। नांहि बुझै सु उपाय करे बहु, हाय खुदा किम चूकि परी है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १. [ २५१ बीब रु लौंड पुकारत आतुर आत दया हिय पाहण ही है । राघवदास अनाथ यूं दाक्रत साध दुखावन को फल ली है ॥४४४ पृष्ट ६३, मूल पद्यांक २०४ के बाद दीन द राम रहे जन के गृह. प्रीति तिलोचन की मन भाई। वात अज्ञात लखै मन की, ग्रह को सब काज करै सुखदाई। एक समै कहुं दासिक दूखन, पीस पोवन की मन आई । 'राघौ' कहै निज रूप निरन्तर, द्वै गये सेवक कों समझाई ।।४७७ पृष्ठ १३७, टीका पद्यांक ४१६ के बाद - मनहर शंकर के शिष्य चारि जातें दस-नाम यह, • छन्द स्वरूपाचारज के द्वै तीरथ रु पारनैं । पदमाचारज के जु दोय शिष शूरवीर, आश्रम रु वन नाम ज्ञानी गुन जार नैं । त्रोटकाचारज के सु तीन शिष्य भक्त-ज्ञानी प्रवत सागर गिरी तुरू सेय वार नैं। पृथीधराचारज के राघौ कहै तीन शिष्य, सरस्वती, भारती, पुरी दश-नाम वारनें ।।७१६ पृष्ठ १४०, पद्यांक २८१ के बाद टोका इंदव मांग हुती सुत की नृप व्याहत, रूपवती अति बुद्धि चलाई । छंद खेलत गैंद गई दुरि ता घर, दौरि गयो तिस लेनहि जाई । देखत रूप अनूप महा अति, बांह गही संग मोहि कराई। हाथहि जोरि कहै मुख सूकत, बात अजोगि कहो जिन भाई ।।७३० त्रास दिखावत मारि डरावत, एक न भावत शील गह्यौ है। जोर करयो निकस्यो झट छुटिक, चालत दाव न फारि लडो है। रूसि रही नृप पावत बूझत, कैत भई सुत भोग चह्यो है। क्रोध भयो नृप हो तिय को, जित न्याव न बूझत मूढ बह्यो है ॥७३१ नीच बुलाय लय कर पांव हि, काटि कुवा मंहि डारि सु आए। राम भजे करुणा हि करे, गुरु गोरख पाय रु बोल सुनाए । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल २५२ ] सांच कहों सत नांहिं गयो तुम, पारख ले नहि तार झुलाये। छोंवत तार भये कर पाद हु, शिष्य करयो हरि के गुण गाये ।।७३२ चौपाई तत सं लगे उभै संग रहिये । अन्तर कथा चली सो कहिये ॥ नृपति शालवाहन की नारी। महाकपटनी अति धूतारी ॥१ सुन्दर सुत सोतिकी जायो। रूप देखि तासों मन लायो । अतिहि बन्यू सु अम्बुज-नैना। महासन्त मुख अमृत बैना ।।२ हित करि लीयो निकट बुलाई। मन माही उपजी सो बुराई ।। लज्जा छोडि करो परसंगू। सनमुख है के देखो अंगू ॥३ कियो शृंगार न वरन्यो जाई। मन हु इन्द्रकी रम्भा आई ॥ मृगनयनी सो विगसी बोले। महा अडिग मन कबहूं न डोले ॥४ कर पकरचो सुन विनती मेरी। है हूं सदा तुम्हारी चेरी॥ कह्यो करहि तौ यौं राजू । सरवस दे सारूं सब काजू ।।५ कर मुक्ती कर कह्यो सुनाई। तुम तो लगो धर्म की हमारी माई ॥ ऐसी कथा का लेहु न नाऊं। नहिं तो प्राण त्यागि मर जाहूं ॥६ काको पूत कौन की माई। दुख दे हूं तोहि कही सुनाई। कियो नहिं सु कह्यो हमारो। अब कौन तोहि राखनहारो॥७ कह्यौ शहर सों द्यों नृप घेरी। काढों नगर ढंढोरा फेरी ॥ अब आई है बेर हमारी। . कछु न राखों मानि तुम्हारी ॥ कर सू कर लियो मरोरी। करी कहां है तैं कछु थोरी॥ होहि चोरंग्यो प्रगट ऐंन। दूरि करों भुज देखत नैंन । तजे अभूषन वस्त्र फारी। गई सु पति पै शीश उघारी ।। कह्यौ मात मत आवे नेरो। तो उन छोड्यो मेरो केरो॥१० मेरी पति सों नेक न राखी। देखि शरीर सु प्रगट साखी ॥ अब हूं प्राण त्यागि मर जाऊं। कहा जगत में मुख दिखाऊं ॥११ देखि गात कामिनी को नेन। पश्चाताप उपज्यो मन ऐंन ॥ दहं दांत विच अंगुरी दीन्ही। कैसी पुत्र कमाई कीन्ही ॥१२ तब कीनी मौज संतोषो नारी। दे सिरोपाव भरतार सिंगारी ॥ तुमको दुष्ट बहुत दुख दीयो। पावेगो सो अपनों कीयो ॥१३ पुत्र नहीं पर बैरी मेरो। अब कोई ल्यावे मत नेरो॥ कीज्यो दूर हाथ पग जाई। जो हमको मुख न दिखावै आई ।।१४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ [ २५३ हृदो कियो सुबज्र समानो। उर अन्तर नहिं उपज्यो ज्ञानूं । नीति अनीति कीयो नहिं खेदू । निरण करि बूझ्यो नहिं भेदू ॥१५ काटि चरन करि नाख्यो कूपू। महाप्रवीन सु अजब अनूपू ॥ तहां मछिन्द्र गोरख पाये। दरद देखि अरु अति दुख पाये ॥१६ करुणा करै भये कृपालू । बूझे पीर सु प्रेम दयालू ॥ कौन चूक सासना दीनी। सो तो हम पै जाय न चीन्ही ॥१७ माई दियो मिथ्या दोषू । राजा अति मान्यो मन रोषू ॥ सोति सुत अति भई सु कूरी। किये पिता हाथ पग दूरी ॥१८ बसै सुनि धू गांइ किहि बासू। अपने पिता को नाम प्रकासू ॥ बसै सहीपुर मांडल गाऊं। नृपति शालिवाहन है नाऊं ॥१६ नां हमसों कोई भई बुराई। कर्म-संजोग न मेट्यो जाई । लिख्यो विधाता त्यूही होई। कोटि कियां हूं मिटै न सोई ॥२० अब मोहि राखो निकट हजूरी। चरन-कमल सू करो न दूरी ॥ भाग बड़े थे भेटे प्राई। तुम बिन दुती न और सुहाई ॥२१ भाग बड़े थे पाइये, निरमल साधू सन्त । आनि मिलाप गैव मैं, कृपा करी भगवन्त ॥२२ आये सद्गति करन कों, निन्यानवे कोटि नरेश। भूपन का छन भवन सों, दे दे गुरु उपदेश ॥२३ दोहा चौपाई तब अमृत फल करसों अर्यो। चौरंगी अपनों कर थर्यो ।। दियो मुदित है सिर पर हाथू । होहु सहायक गोरखनाथू ॥२४ गुरू मच्छन्दर सिष चौरंगू। उपजी अनभै भक्ति अभंगू ।। आरती बड़ी सु आत्म मांही। भगवन्त नाम विसारै नांहीं ॥२५ इहां रहो तुम द्वादस वधू । सुमरि सनेही मन करि हर्के ।। रमे मछिन्द्र दे प्रमोधू । गोरख रहे सिखावन बोधू ॥२६ टीका इंदव द्वादश वर्ष हि नेम लियो गुरु, गांव सु पट्टण पाउ' रहाई । छन्द ग्राम गयो सिष भीष न पावत, एक कुम्हारि उपाय बताई। १. पहाड़। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ] भक्तमाल मों सुत साथिहिं इन्धन ल्याकर, पीसन पोवन की मम पाई। आवत शिष्य जु पाव नहीं घर, बूझि गये गुरु भीष न पाई ॥७३४ अथ धुंधलीमल को शब्दी लिख्यते 'प्रायस जी पावो' ॥१॥ बाबा आवत जावत बहुत जग दीठा, कछु न चढ़िया हाथम् । अब का प्रावण सुफल फलिया, पाया निरंजन-नाथम् ।।१ 'प्रायस जी जावो' ॥२॥ बाबा जे जाया ते जाइ रहेगा, तामें कैसा संसा। विछूरत बेला मर। दुहेला, ना जारणों कत हंसा ॥२ 'प्रायस जी बैठो' ॥३॥ बाबा बैठा उठी, ऊठा बैठो, 'बैठि उठि जग दीठा । घर-घर रावल भिक्षा मांग, एक महा अमीरस मोठा ॥३ 'पायस जी ऊभा' ॥४॥ बाबा जे ऊभा ते इक टग ऊभा, शम्भु समाधि लगाई। ऊभा रहा ही कौण फायदा, जे मन भरमैं जग माही ॥४ 'प्रायस जो प्राडा पडो' ॥५॥ बाबा. जे प्राडा ते गहि गुण गाढ़ा, नो दरवाजा ताली। जोग जुगति करि सनमुख लागा, पंच पचीसों बाली ॥५ 'प्रायस जी सोवो' ॥६॥ बाबा जे सूता ते खरा विगूता, जनम गया अरु हारयो । काया हिरणी काल अहेड़ी, हम देखत जग मारयो ॥६ 'प्रायस जी जागो' ॥७॥ बाबा जे जाग्या ते जुग-जुग जाग्या, कह्या सुन्या है कैसा। गगन मण्डल में ताली लागो, जोग पंथ है ऐसा ॥७ 'प्रायस जी, मरो' ॥८॥ बाबा हम भी मरणां तुम भी मरणां, मरणा सब संसारम् । सुर नर गण गन्धर्व भी मरणां, कोई विरला उतरे पारम् ।।८ 'प्रायस जी जीवो' ॥६॥ बाबा जे जीया ते मित ही जीया, मारचा ते सब मूवा। जोग-जुगति करि पवना साध्या, सो अजरामर हुवा ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ . [ २५५ 'प्रायस जो ठगो' ॥१०॥ बाबा जे ठगिया ते तो मन बैठि गया, अरु ठगिया जम कालम् । हम तो जोगी निरन्तर रहिया, तजिया माया-जालम् ॥१० 'प्रायस जी फेरी द्यौ' ॥११॥ बाबा जे फेरे तो मन को फेरे, दस दरवाजा घेरे। अरध उरध बीच ताली लावे, तो अठ-सिद्ध नो-निधि मेरे ॥११ 'प्रायस जी धन्धै लागौ ॥१२॥ बाबा गोरख धन्धे अहनिस इक मनि, जोग जुगति सों जागै। काल व्याल का मैं हम देख्या, नाथ निरंजन लागे ॥१२ 'प्रायस जी देखो' ॥१३॥ बाबा इहां भी दीठा उहां भी दीठा, दीठा सकल संसारम् । उलट पलटि निज तत चीन्हिवा, मन सू करिवा विचारम् ।।१३ जैसा करै सु पावै तैसा, रोष न काई करणां । सिद्ध शब्द को बूझे नांहीं, तो विण ही खूटी मरणां ॥१४ इंदव जाय जहां सब दुष्ट ही देखत, खेचर तें सबदी ह करी है। छंद आय कही सिष सों तब सेवक, होय सु बाहरि जाय धरी है । कोप भये गुरु पत्तर लेकर, पट्टण पट्टण मार करी है। सन्त अनादर को फल देखहु, दण्ड दिये परजा सु डरी है ॥७३५ पृष्ठ १४२ पद्यांक २८८ के बाद( यह पद्य पृष्ठ २५ पद्यांक ४७ में आ गया है ) अथ बोध-दर्शन छप्पय भृगु मरीच वाशिष्ठ पुल्हस्त पुल्ह कृतु अंगिरा। अगस्त चिवन सौनक्क सहंस अग्रासी सगरा। गौतम गृग सौभ्री करिचक सृङ्गी जु समिक गुरु । वुगदालमि जमदग्न जवल पर्वत पारासुर । विश्वामित्र मांडीफ कन्व वामदेव सुक व्यास पखि । दुर्वासा अत्रेय अस्त देवल राघव ऐते ब्रह्म-रिष ॥७४२ छंद इति बोधदर्शन समाप्त। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल २५६ ] पृष्ठ:१४२ पद्यांक २८९ के बाद अथ जैन-दर्शन वर्णन चौवीस तिथंकर बीनहुं जन राघौ मन वच कर्म ॥ ऋषभ अजित अरु पदम चंद्र संभव सुबुद्धि मन । अभिनन्दन निम नेम सुमति शीतल श्रीहांसि गन । वासुपूज्य पारस्स अनन्तजी विमल धर्म धर । संत कुंथ अरिहंत सुमलजी मुनि सुव्रत धर । पारसनाथ मुनिहि प्रसिद्ध, जगवीर वर्धमान सुधर्म धर । चौवीस तिथंकर बीनहुँ, जन राघौ मन वच कर्म ॥७४४ अन्य मत पहुपदन्त प्रभु चन्द चन्द समि सेत विराजै । पारसनाथ सुपार्स हरित पन्नामय छाजै । वासुपुज्ज अरु पदम रक्त माणिक दुति सोहै। मुनिव्रत अरु नेम श्याम, सुरनर मन मोहै। बाका सोलह कंचन वरन, यह व्यवहार शरीर-दुति । निहचै अरूप चेतन विमल, दरश ज्ञान चारित्र जुति ॥७४५ ॥ इति जैन दर्शन समाप्त ॥ अथ जीवन दर्शन वर्णन : छप्पय अनलहक मनसूर राबिया, हेतम शेष फरीद सुलतान । छन्द दास कबीर कमाल कमधुज, देखो साधना सेऊ समन । ए षट् गुण जित गलतान, विज्जुलीखां वाजीन्द बिहावदी कादन। महमूद संत भनि जन जमुला उसमान,अवलिय पीरौं दास गरीब गन । इन पंच पचीसों वश किए, हरि पिण्ड ब्रह्मण्ड विचि उरक की। जन राघौ रामहिं मिले, हद तजि हिन्दू तुरक की ।।७४६ फरोदजो का वर्णन मनहर माई कीन्ही परख ब्रती न हु छतोस वर्ष, पीरका मुरीद कीन्हा फेरि के फरीद को। बारह वरष खाये पात दरखत जानै गात, __ कै.न मानें बात खुदाई खरीद को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ छप्पय छंद [ २५७ काठ की रोटी बनाय पेट सों बांधी चढाय, क्यूं कही बढाय बात पूछिए सरीद कों। राघौ कहै तीसरे तरूर तप तेग भयो, प्राय के खुदाय दयो मौज दे मुरीद को ।।७४६ सुलतानां का वर्णन अजब है मजब गजब सों तरक दई, शाह सुल्तान गलतान गल गूदरी। आसफ अटारे लखि बुलक बुखारै देश, त्यागे हाथी हसम सहस्त्र सोला सुन्दरी। मादर विरादर वलक खेस ख्वाहि खेल, खेलत खालिक दर छडि रहे बूदरी। राघौ कहै कदम करीम के करार दिल, शाहि रू खुदाई मिले माबूद माबूदरी ॥७४८ हेसमशाह वर्णन । दुश्मन करे दरेग, तेग हेतम सों हारयो। इक गजा करत दरवेस, शाह तजि सर्म पुकारयो । दुखतर करौं कबूल, सकल चाकर घर खंगो । दरबड़ चाहु दिवान, जाय हेतम सिर मंगो। जिन्दै किया पयान, खारण कुछ खरच मंगाया। कुछ दिन लागे बीच, नगर हेतम के आया। जन राघौ मिले अवाज करि, देहु सिर नियत खुदाई। मैं आया तकि तोहि, सकस ने शरम गहाई ।।७४६ यों हेतम बूझी माय, फक्कर मेरो शिर मंगै। पिसर नियत खुदाय, देहु दिल करो न तंगे। मादर की दिल खूब रहै, खालिक सों नेरी। रे तुम जाहु फकर के, साथि सुनों सुत वातां मेरी। सुत चले कुनन्द करि, माय पायन गो सिर खुले। तब दुशमन देखि रहफ गये, अवगुन सब भूले। सकल हसम घर राज तन, दुखतर दे पांऊ परयो । जन राघौ हेतमशाह का, यों अलह शीष कायम करयो ।।७५० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २५८ ] भक्तमाल मनसूर का वर्णन मनसूर अलह की बन्दगी, अनल-हक्क कहि यों मिले ॥ अनल-हक्क अनल-हक्क, कहै मनसूर जु प्यारो। काजी मुल्ला सबै कहै, मिलि गरदन मारो। डरपे नहिं हुशियार, आप दिल साहिब भायो। जारि बारि तन भस्म, उदधि के मांहि बहायो । राघौ कंचन ताइकै, हक्क हकी कतियों मिले। मनसूर अलह की बन्दगी, अनल-हक्क कहि यों मिले ।।७५१ ___ वाजोन्द ख्वाज को वर्णन ख्वाज वाजीन्द दरि मजल की, स्वाही राह ठाही करी॥ मृतक बैठो ऊंट, देखि तिहिं अति डर लाग्यो। बिना वन्दगी बाद, स्वाद सब तजि करि भागो। सुन ही वनके मांहि, काटि तिहिं नीर पिलायो। करी वन्दगी सार बेचि नहि, निमिक खिलायो। राघौ खुदी जुलम तजि, साहब मिले तबकरी ॥ ख्वाज वाजोन्द दर मजलकी, ख्वाही राह ठाहो करी ।।७५२ बन्दा शाह खुदायका, बैठा जीतल जीति । माल मुलक राघौ कहै, अरपि अलह को प्रीति ।।१ कुल ही जामां बेच के, ताम बुखोर महकु। राघौ उन मन अरसमें, अवलि मजिल परिपकु ॥२ इक दमरी के साग कों, हजरत कही हुशियार । सवा भए राघौ कहै, बकसि नूह करतार ॥३ मल मालिक त्रियलोक में, शोभित सरवरदीन । राघौ जग जीतै न कों, दृष्टि परत है हीन ॥४ तब पैज बदी पतिशाह ने, जो जंग जीते याहि । शहर सहित राघौ कहै, दुखतर ब्याहूं ताहि ॥५ यों राघौ अायो शेख के, भेष गदाई धारि। बरा खुदाई काम है, तूं मुझ प्रागे हारि ॥६ राघौ सरवरदीन धनि, सुनि कीन्ही इकतार । मैदा मिश्री घी गिरी, ताम बुषोरम यार ॥७ साखी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ [ २५९ यों परमारथ के कारण, जन राघौ हारयो सूर। साहिब सरवरदीन विचि, पड़दा है गये दूर ।।८ एक विपिन द्वै सिद्ध निपुन, साधक करी तरक। अरस-परस शोभा सरस, राघौ दुवै गरकू ।।। मुसलमान मुरतजाअली, करी भली इक रोस । जन राघौ काज रहीम के, पुरई परकी हौंस ॥१० राघौ सन्त जु ऊतरे, सेउसमन घरि आयके ।। पिता पुत्र पुनि मात, आहि अति पण के गाढे । घर में कछु नहिं अन्न, सोच सब दिन मन वाढे। चोरी गए समन, फोरि घर अन पकरायो। वणिक पुत्र सुत गह्यो, काटि मस्तक ले आयौ। धड़ सूली मस्तक फिरयो, परसाद कियो जन भायके । राघौ सन्त जु ऊतरै, सेउसमन घरि प्रायके ॥७५३ काजी महमद वर्णन करुणां विरह विलाप करि, काजी महमद पिव मिले ॥ आठ पहर गलितान, छक्यो रस प्रेम सुं मातो। टोडी अाशा राग, प्रीति सों हरि गुन गातो। पुत्री को सुत मृतक देखि, मन दया जु पाई। सुता कियो मन सोच, मृतक सों लियो जिवाई। राघौ कुल-मरजाद तजि, काम क्रोध सब गुरण गिले। करुणा विरह विलाप करि, काजी महमूद पिव मिले ॥७५४ नमस्कार द्वादश पंथ जोगी नमो, नमो दशनाम दिगम्बर । नमो शेष सोफी जु नमो जैनी सेतम्बर । नमो बोध शिव शक्ति, नमो द्विज निगम उपासी। नमो महन्त विरकत, नमो वैकुण्ठा-वासी। विष्णु वैसनों वेद गुरु, तारक तीनों लोक के। ये षट्-दरशन पुजि खलक में, जन राघो हंता शोक के ॥७५५ इति श्री जीवन दरशन समाप्त ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] भक्तमाल छप्पय ए हद तजि हिन्दू तुरक की, साहिब सों रहे सरख-रू॥ छन्द जांभा जग मघ न्हांन, विष्णु व्यापक जप सीधो। सिद्ध भयो जसनाथ, भेष भगवां धरि लीधो। उद्धवदास उदास स, सति सों राम बतायो। लाल चाल जंजाल तज्यो, पिवहि कों पायो । राघौ रजमों धारि के, नर-नारी सब पर खरू । ए हद तजि हिन्दू तुरक की, साहिब सों रहे सरख-रू ॥७५६ इति षट् दरशन मध्ये भक्त वर्णन समाप्त ॥ पृष्ट १५८ पद्यांक ४६२ के बाद नृप चोर वंकचूल वणन साखी) चारि मास चुपके रहे, नीच नगर मधि सन्त। राघौ यों सिध समझ करि, काल बचायो अन्त ।।१ पुर मधि पूरे सन्त जन, पावस कीयो वदीत । राघौ पुनि ज्ञानी गछे, चित स्वाधीन अतीत ॥२ पुरवासी गोहन लगे, पहुंचावन को पंच। राघौ साधन सुख दियो, उपदेश्यो धम संच ॥३ फहम विना फूल तोरिके, भरि लै आयो गोद । राघौ पुनि प्रगट भय, एक वचन परमोद ॥४ कवर जियो सन्यास-हित, साथ सबद उर धारि । राघो पुनि नगरी रही, वची वहनी अरू नारि ।।५ जसू कुठारा का वर्णन नर-नारी मन जिन जिते, ते नाहिं न माया वसू। राघो त्यागी लष म्होर, लकरी वीन तज्यो जसू ॥६ भूप रूप भगवन्त को, आयो ताके पास । झिलमिलाट करती म्होर, राघो देखी रास ॥७ नीति विचार निपट कर, राघौ नृप ने मूलि। नृप अतीत मै को पड्यो, द्रव्य छुवै नहिं भूलि ॥८ नृप भूषो प्रजा डण्डे, तऊ न या सम भार । राघौ उच्चिष्ट के लिये, वृक-तन है भण्डार ॥ १. सुखरुह। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ [ २६१ जदपि अजाची जाचई, तो शुभ भिक्षा लीन्ह । राघौ अब हित ना गहै, सो अतीत परवीन ॥१० जन राघौ राजा कियो, विन पर इतो विचार । जे कोई दुर्बल मिलै, ताहि करूं उपकार ॥११ मनकों चाणक दे चल्यो, नृप विवेक को पुंज। राघो गुरू ज्ञानी मिले, जहां सघन वन-कुंज ॥१२ देख्यो लकरी वीनतो, दुर्वल उभाने पाव। जन राघौ नृपनें कही, महोर बताऊं प्राव ॥१३ जन राघौ नृपनें कही, मोहर जिसी मल खात। वर्ष बारह देषत भई, कहूं न चलाई बात ।।१४ राघौ नृप विनती करी, स्वामी में शिष तोर।। पूरे गुरु बिन उर-विथा, मिटे न तिमिर अघोर ।।१५ कही जसू तूं द्रव्य सौं, बन्ध्यो द्रव्य वित-पूर । हं कमीण तूं नृपति नर, भिन कर भजि है दूर ॥१६ नृपति कही भाजों नहीं, मैं राखौं गुरु भाव ।। जन राघौ दण्डव्रत कियो, मस्तक धारो पाव ।।१७ राघौ करि है लोक-लज, कही जसू नृप डाटि । हूं निकसोंगो मीड लै, तूं बैठेगो पाटि ।। ८ नृपति कही चूकों नहीं, धर्म खडग की धार ।। राघौ देखि रु दौरि हूं, लेहूं सिर ते भार ||१६ धन्नि सिष्य वह धनि गुरु, निह-स्वारथ निर्दोष। सहर सहित राघौ कहै, भये भजन करि मोष ॥२० पृ० १६५, मूल पद्यांक ३१६ के बाद रामदास वर्णन इंदव आप गऐ बनिजी अनि गांवहि मोट धरें सिर बोझ सु भारी। छंद दास दुखी लखि मोट लई हरि जानि गऐ मन मांहि विचारी । होय कढी फुलका जलता तहु जाय कही घरि मोट उतारी। आय रु देखत सो पछितावत रामहि थे सुनि मूरख नारी ॥८८२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] पृ० १७६, ५० ३४६ के बाद- छप्पय छंद पृष्ठ १७६ प० ३५६ के बाद मजैलि मारफत मोज मरद मक्कै कों प्राया । जिकर करत गय जाम परे टुक पैर हलाये ।. रिवजे मजा वर कैफ कौन यह परया चिकारा । डारो बाहर खेंच अलह दिस पाव पसारा । कही मवक्कल यह देह दिल मालिक अस्यो । खैंचन लागै जबै भई अजमत्ति अरथ को । जन राघौ सुलतान दिस फिरयो दश हूं दिश मकों ॥९४१ Jain Educationa International भक्तमाल दादू दिल दरियाव, हंस हरिजन तहाँ भूलै । गगन मगन गलितान, राम रसनां नहिं भूले । उपजे महन्त मराल, मुक्ति मुक्ताहल भोगी । रहत भजन बलशोल, विष लगि होहिं न रोगी । पृष्ठ १८० प० ३६० के बाद मन माला गुरू तिलक तत, रटरिण राम प्रतिपाल की । जन राघौ छाप छिपे नहीं, दादू दीनदयाल की ||६५४ दादू दीनदयाल सो, धनि जननी एक जन्यो ॥ भक्ति भूमि दे दान, नाम नोवत्ति बजाई । चारी वर्णं कुल धर्म, सबन कों भक्ति दिढ़ाई | हरि बिन प्रान जु धर्म, तास के नाहि उपासी । पूरण ब्रह्म प्रखण्ड, तहाँ की करत खवासी । हद छाड़ि वेहद गयो, जग ताणें नाहिं न तथ्यू । दादू दीनदयाल सोघ, निज जननी एको जन्यो ||६५६ वह चवदह रतन प्रगटे उदधि म, दादू दयाल प्रगट भयो । महा पुत्र की चाह, विप्र ह्वावे जल डाबक- डूबा होय, तिरता आए ता ऋषिरु लिये उठाय, चिन्ह अद्भुत से कर्त्ता पुत्र यह दियो, कहा हमरो कोटानकोटि जीव तिरहिंगे, परा शब्द राघौ कह्यौ । वह चौदह रतन प्रगटे उदधि म, दादू दयाल प्रगट भयो || ६५७ को For Personal and Private Use Only मांही । मांही। दरसे । करते । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ [ २६३ गुजरात घटा उत्पन्नि, न्याती नगर जानी। लोदीराम सु तात, लछि जाके बहुवानी। वर्ष बीते दश एक, आप हरि दर्शन दीन्हों। कर सों कर जब गहयो, लाय अपने अंग लीन्हों। जन राघौ सुर-नर-दुर्लभ, सो प्रसाद मुख सों दियो। जग जहाज परमहंस, एक दादू दयाल प्रगट भयो ।।६५८ पृष्ठ १८३ ५० ५५७ के बाद टोका इंदव सीकरी शाह अकबर ने सुनि दादू अवल्ल फकोर खुदाई । छंद भगवन्त बुलाय लये इक साव तूं ल्याव दरव्वड बेरिन लाई । नृप करी तसल्लीम ततक्षन सूजे को भेज दिया तब भाई। राघौ गयो दिन राति प्रभाति यों दादू दयाल को पान सुनाई ॥९७० दादू दयाल चले सुनि के उनके सतिरामजी एक सहाई । सिष सातक संगि लिये सब ही दिन सात में साध पहुँचे जाई । अवल्लि फजल्लि उभै द्विज देखित खोजत बूझत ले गय पाई। राघौ कहे धनि दादू अकबर साखी कबीर की भाखि सुनाई ।।७१ आदि रु अन्त उत्पत्ति की सब वूझी अकब्बर दादू कों भाई। तुम इलम गैब अतीत मोक्कलि मौल न अर्गति कैस उपाई। दादू कही करतार करीम के एक शबद्द में है सब जाई । राघौ रजा दिल मालिक की भई सोर हकीकति हाल सुनाई ।।९७२ छप्पय इम कही अकब्बर शाह देहु दादू को डेरा। तब विप्र विद्यापति कहि सुनो हजरति मन मेरा । इनको मैं ले जाहुँ करों खिजमति सो इलहरगां । तब शाह खुशी है कहो मजब सुनि हमसों कहना। बहुत खूब हजरात जिवै गुदराऊँगा आनिकै। जन राघौ तब रात दिन अति खोजे इन पानि के ।।९७३ द्विज अपने डेरे जाय जावता कीन्हों भारी । नृप विवेक को पुंज बात अति भली विचारी। सब विधि बहुत विछाहना पादारघ परणाध करि । अचवन को कोरे कलश तुरत मगाये नीर भरि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] भक्तमाल भक्ष भोजन अति भाव सों महल दिखाये निज नये । जन राघौ नृपसों निपट विरक्त वचन स्वामी कहे ॥६७४ बह्मदास ब्रह्म-ज्ञान को भिन्न-भिन्न पूछयो भेद । दादूजी इस देह में कहत है चारों वेद । तब निर्वाण-पद आपणों, स्वामी उचरै बैन । __ जिन सेती द्रव्य-दृष्टि है, सो गुण निरखों नैन। गुरु लक्ष बिन उर वज्र, ब्रह्मा जड़े कपाट । जन राघौ स्वामी कही, विकट ब्रह्म की वाट ।।९७५ इत अनभै को पुञ्ज, प्रतहि कवि चतुर विनाणी। ज्ञान घटा घररांहि, दुहंघां द्वन्द्व बाणी। इत आगम उत निगम, कहां लग वरणों गाथा । तब स्वामी दादू हँसे, बीरबल नायो माथा। चरचा दिन चालीस लों, अष्ट पहर नितप्रति नई। जन राघौ नृप की नसां, मन वच कर्म करि के भई ॥९७६ यों गयो अकब्बर पासि, बीरबल बुद्धि को आगर । हजरति मैं हैरान, साध दादू सुख-सागर । मजब बहुत बसियार, ज्ञानमुक्ति कहत न आवै । तब कही अकब्बर एक वेर मुझि क्यों न मिलावै । दरवड़ जहाँ ले आव, अब तलब बहुत दीदार की। जन राघौ धनि रामजी, यों चोट चुकावै धारको ॥९७७ मनहर छंद नूर हो के तखत रु पाए जाके नूर ही के, नूर ही के दादू दास नूर मन भाव ही। नूर ही के गुनीजन गावत गुणानुवाद, नूर ही को सभा करजोर शीश नावई। धरनी आकाश नाहीं देखे सो अधर माँही, नूर को दिदार कियो पाप-ताप जावही । राघौ कहै ताकी छवि मानो उदय कोटि रवि, तरबत की महिमां कछु कहत न प्राव ही ॥९७८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छप्पय छंद परिशिष्ट १ [ २६५ इम देखि तखत पुनि नूर को, शाह अकब्बर को संसो मिट्यो । खड़ो करत अरदासि पार किनहुँ नहिं पाए। तुम जहाँन के वीचि खुदा के दोस्त पाए। मेरी बगसो चूक, अकबर ऐसे भाखै । हम यह करत अरदास, साहिब तुम सरनै राखे । ऐसे आप काशिया, अफताप तुदै ज्यूं तम तिप्यो। यम देखि तखत पुनि नूर को, शाह अकब्बर को संसो मिटयो ॥९७६ यों स्वामी दादू चलत, बीरबल अति विलखानों। मोहर रुपैया धरै, प्रभुजी एह रषानों । हम यह हाथ छुयें न लेह को चेला-चाँटो। तुम राजा हम अतिथि देहु विप्रन को बाँटो । बहुरि बीरवल ले गयो, अकबर के दरबार । यौं राघौ चलते रस रह्यो, जग माहिं जय जयकार ॥९८० इंदव प्राय रहे दिवसा सरके तट स्वामि कह्यो सहनान करीजै। छंद शिष्य जगो यह कहत भयो प्रभु ताति जिलेबी जिमावन रीज। जानि गये सबके मन की हरि ध्यान करयो सिधि आय खरीजै। राघौ कहै हरि छाव पठावत पात वची जल मांहि करीजै ॥९८१ आत ही आमेर भई एक नाथहु वैन सुबोलि सुनायो । स्वामी करी जरनां मन में सिष टलिहु जोगि अकाश उड़ायो। स्वामी खिजे सिषगा करूणा पद जोगि सिलासुघरा परि प्रायो। दुष्ट पलें तजि प्राय परयो पग राघौ कहै जब शिष्य कहायो ॥९८२ मनहर छद कपट सों तुरक संगोती लायो ढांक करी, जानि गये स्वामी हरि भोग न लगाये हैं। कह्यो परसाद लेहु स्वामी खोलि ऐहै, बूरा भात मेवा गिरी प्रगट दिखाए हैं। रामत करत सुने माधो, काणि टोंक मधि, स्वामी को बुलाए हिये, अति हुलसाए हैं। राघौ कहै गुरु महा छ में सन्तन देखि, रिधि थोरी जानि प्राय स्वामी को सुनाए हैं ॥९८३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मक्तमाल २६६ ] इन्दव स्वामि कह्यो जिन सोच करो हरि ध्यान करो प्रभु पूरण हारे। छन्द सामगरी गंज मांहि मंगाय रु भोग लगा हरि ता महि डारे। रिद्धि अटूट भइ दिन सात लो जस भयो जग बाग अधारे। लोग मिरचि प्रसाद दिये जुग राघौ कहै गुरु बहुरि पधारे ।।९८४ देखि प्रताप जष्यो अति दुष्टहु कपट छिपाय रु स्वामि बुलाऐ। मारन को खरिण गाडिहि ढाँकत जानि गए चित नांहि डुलाए। काढ़ि तलाक चले ततकालहि लोहर खाड़त वेगि बुलाऐ। राधौ कहै खल कूप परे लखि गा करूना पद भौरि चलाऐ ।।६८५ वानि अकाश भई मम रूपहि आय मिलो हरि सैंन करी है । ढूंढि सथान निराने मकान जु राखि मनो मन चिन्त परी है । दास नरान निरानहु को नृप दे सुपनों हरि मत्ति हरी है। दक्षिन तें ततकालहि आय रु राघौ कहै गुरू-प्रीति खरी है ।।६८६ मन्दिर में पधराय रखे गुरु भीर भई तब बाहर आये। कोउ दिना तर पोर रहे पुनि शेष के साथ सु खेजर धाए। आयस तीन हुई हरि की तब तत्व मिलाए रु ब्रह्म समाए । राघौ कही बुद्धि के अनुमान सु दादुदयाल को पार न पाऐ॥९८७ पृ० १८६ पद्यांक ३७३ के बाद - करतार सुनि करुणा जिनकी जन चारि विचारि रु ले घरि पाए। रीति बड़े की बड़े पहिचानत सार करी बहु भाँति जिंवाए। कपड़ा हथियार तुरी खरचि दई यो करिके घरिकों पहुँचाए। राघौ कहै सति सुन्दरदासजी आवत ही मथुरा मधि न्हाए ॥१००० पृ० १८५ मूल पद्यांक ३६६ के बाद सुन्दरदास वर्णन : मूल छप्पय गुरु दादू'बड़ | शिष्य भयो, लघु नृप बीकानेर को। बादशाह करि हुक्म, पठायो काबलि जाई । जुद्ध करि धावां पडयो, समझि किन लियो उठाई। ताजा है राठौड तुरी चढ़ि मथुरा आयो। मिल्यो देश को लोग, सति समचार सुनायो। राघौ मिलि चतुरै कही, मग लै सांभरि सैर को। मुरु दादू बड़ शिष्य भयो, लघु नृप बीकानेर को ।।६६६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ [ २६७ पृ० १६० पद्यांक ३६० के बाद - इन्दव माँहि रहाय रु बार मुंदाय सु प्राण चढाय समाधि लगाई। छन्द मारि विलाय लै माँहि नखाय कही द्विज जाय न होय भलाई। माँहि मुवो सिध होय लिख्यो विधि वासि उठ्यो सुनि राय रिसाई। राय रिसाय दियो वलि वायक हयो सिष आप जु खाज गँवाई ॥१०१७ अरेल श्रीफल चन्दन तूप चिता विधि सों करी । अगनि सु दई लगाय देह अति परजरी। ब्रह्मड फूटि सुशब्द होत रंकार रे। परिहां राघौ खल भये फट राय दृग धार रै ॥१०१८ पृ० १६० पद्यांक ३६१ के बादमनहर काशी को पण्डित महानाम जग-जीवन, सुदिग्गविजै कृत आम्बावती सु पधारे हैं। सुने दादू सन्त बड़ दर्शन को गयो तट, ___ चर्चा को उभावो अति पण्डित जु हारे हैं। प्रश्न कीयो है जाय स्वामी दियो समझाय, रामजी मिले सुकरि बैन उर धारे हैं। . रघवा मिटी है अाँट पोथा द्विज दीन्हाँ बाँटि, मन वच कर्म स्वामी दादूजी तुम्हारे हैं ॥१०२० पृ० १६१ पद्यांक ३६३ के बादअरेल देह त्यागती वेर कही सब साधि कां । धरि प्राज्यो मम देह श्रीगुरु पादुकां । चलो बीच जगत हट्ट पट परे करे। परहां राघौ रथ सुरीति देख चर पग परे ॥१०२३ दोहा जगजीवन धनि राघव, रीत भलि अति कीन । देह कारवज कारण मिले, आप भये ब्रह्मलीन ॥१ पृ० १६३ पद्यांक ४०२ के बाद - चतुरदासजी का वर्णन : मूल छप्पय मरदनियाँ की छाप शीश शिष्य चतुरदास दयाल को॥ ब्राह्मन कुल उत्पत्ति जगत गति निपट निवारी । गगन मगन गलतान भजन रस में मति धारी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९ ] भक्तमाल उर वैराग अपार, सार ग्राही गुण सागर । निहकामी निर्दोष मोष मारग मधि नागर । पाय परमपद विमल, विज्ञ गयो भानि भय काल को। मरदनियाँ की छाप शीष शिष्य चतुरदास दयाल को ॥१०३३ चतुरदास चोकस चतुर, धीर वीर धुव धर्मधर ॥ गुरु सेवा को नेम, प्रेम नित नूतन लायो। भजन ध्यान की खान. ज्ञान उर उडिग्ग सवायो। गुरु दादू प्रताप पाप, दुष यु दोष निवारे। रह्यो न संसो कोय, काज सब सुघर संवारे । पुर संग्रावट वास वसि, मिले ब्रह्म सुख सिन्धुवर । चतुरदास चौकस चतुर, धीर वीर ध्रुव धर्मधर ।।३४ पृ० १६५ पद्यांक ४०८ के बाद साधूजी का वर्णन इन्दव दादूजी दीन दयालु के पंथ में साधुजी साध शिरोमणि सारो। छन्द बड़ो भजनीक भगति को पुंज हो ज्ञानी महा करतूति करारो। गवं नहीं गलतान मतो गहयो धर्म की टेक निवाहनहारो। शीश सर्वस दियो जगदीश हि राघौ रहयो जग सेति नियारों ॥१०४१ मनहर छन्द भगति को पुंज भजनीक बड़ो शूरवीर, प्रासन विभूति साधे साधू साध सारो है। बालापन मांहि जाके विरह अत्यन्त बढि, प्रभु-रुचि प्रीति गढि लग्यो सब खारो है। आवे कोऊ वेदमात बूझै हित धाय धाय, रोग को गमावै मोहि भयो सोच भारो है। काहू शिष्य स्वामोजी को पद गायो सुनि धायो, राघौ गुरू बैद मिले कियो निर्विकारो है ॥१०४२ प्रासन को दिढ कर साल मधि ध्यान धर, विश्वरूप व्यापक में गलत जू भीनो है। काहू नर विना ज्ञान म्है कीकै लगाई चोट, आपने जुलई वोट, उघरी है सोट तन एक ब्रह्म चीनो है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ [ २६९ ताहि समै सेवकहु दर्शन को आयो जित, गुरूजी लगाई कित, स्वामी कही हकीकत शीश चरण दीनो है। राघौ वात छानी नहीं, प्रगट जगत मांही, नासिक कों मंदिवार पच्छिम को कीनो है ।।१०४३ छन्द पृ० २०२ मू० पद्यांक ४५८ के बाद दादूजी के सेवकों का वर्णन छप्पय दादू दीनदयाल के, ए सेवग भूपति भले ॥ अकबर शाह बड़मती, बीरबल बुधि को आगर । खंघार स्यंघ नरायण (भाषर) सिंह, कृष्णसिंह भोज उजागर। ईश्वर कुछवाहोहि, ताहि गुरु दादू भाए। लाडखांन घाटवै दयाल दादू पधराए। पीथो निर्वाण उर आण धरि, पुनि खींची सूरजमले । दादू दीनदयाल के, ए सेवग भूपति भले ॥१०६४ बाईयां को वर्णन दादू दीनदयाल की, संगति ए बाई तिरी ।। नेमा के गुरु नेम, तहां गुरु दादू पूजे । रम्भा जमुना जानि गंगा छोडे भ्रम दूजे । लाडा भागां सन्तोषी, राणी हरिजाणी। रुक्मणि रतनी भलै, गुरू की रीति पिछारणी। जगत जसोधा जस लियो, सीता सान्ति हृदय धरी। दादू दीनदयाल की, संगति ए बाई तिरी ॥१०६५ पृष्ठ २३५, प०५०८ के बाद मीठे मुख बचन र कंचन ज्यू क्रान्तिवन्त, दिपत लिलाट पाट स्वामी प्रहलाद को। हाथ को उदार हरि हेत होते राखे नांहीं, __ सुध बुध महा सन्त जैसे सनकादि को। भगति को पुंज भगवन्त जु रिझायो जिन, भूत भविष्य वर्तमान आज्ञाकारी आदि को। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] मनहर छन्द लोपो नांही रामरेष प्रीति सेतो पूज्यो भेष, इंदव कलिकाल में निहाल भये, प्रहलाद मिले प्रहलाद की नांई । छन्द उदार अपार दया सनमान, इसी विधि सों रिझिए जिन सांई । शील सन्तोष निर्दोष निरम्मल सन्तन सों न दई कहु बांई । राघौ कहै गुरू के गुरु. सों, मिलियों मुजरो कियो राम के तांई ॥१०७३ पृष्ठ २४१, ५० ५३१ के बाद Jain Educationa International भक्तमाल राघौ कहै रामजी निवाहेंगे व्रत साध को ॥ १०७२ ईड दादूदयालजी के शिष्यों के भजन स्थानों का निरूपण उदाहरण दादूजी दयाल पाट गरीब मसकीन ठाठ, जुगलबाई निराट निरा विराज हो । वखनों संकर पाक जसो चांदो प्राग टाक, ast उ गोपाल ताक गुरूद्वारे राज ही । सांगानेर रज्जब जु, देवल दयालदास, घड़सी कडेलवंशी धरम की पाज ही । दूजरणदास तेजानन्द जोधपुर, मोहन सु भजनीक आसोप निवाज हो ॥१०६८ गूलर में माधोदास विद्याद में हरिसिंह, चत्रदास संग्रावटि कियो तन काज ही । विहारणी प्रयागदास, डीडवार है प्रसिद्ध, सुन्दरदास वूसर सु फतेपुर गाजही । बनवारी हरदास, रतिये जंगल मधि, नित छाजही । साधुराम मांडोठी में, नौके सुन्दर प्रल्हाददास, घाटडै सु छोंड मधि, पूरब चतुरभुज, रामपुर वाराजही ॥ १०६६ नराणदास मांगल्यो सु, डांग मांही इकलोद, ररणत-भंवरगढ़, चरणदास जानिए । हाडोती गंगायचा में, माखूजी मगन भये, जगोजी भडोंच मधि, प्रचाधारी मानिये | लालदास नायक सु पीरान पटरणदास, फोफले मेवाड़ मांही दीलोजो प्रमानिए । For Personal and Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ [ २७१ सादा पर्मानन्द ईदोर वली में रहे जपि, जैमल चौहान भले बोलि हरि गानिये ॥११०० जमल जोगी कछाहा वनमाली चोकन्यौ सु, सांभर भजन करि यों वितान तान तानियों। मोहन दफ्तरी सु मारोठ चिताई भलैं, रघुनाथ मेड़ते सु, भाव करि प्रानियों। कालेडेहरे चत्रदास, टीकमदास नांगले में, झोटवा. झांझू वांझू, लघु गोपाल धानियों। आम्बावति जमनाथ, राहौरी जनगोपाल, : बारै हजारी संतदास चाँवण्डे लुभानियों ॥११०१ आंधी में गरीरबदास, भानुगढ़ माधव के, ___ मोहन मेवाड़ा जोग, साधन सों रहे हैं। टेटड़े में नागर-निजाम हू भजन कियो, दास जगजीवन सुदयो, साहरि लहे हैं। मोह दरियाई सु, समिंधी मधि नागर-चाल, बोकड़ास संत जु, हिंगोल गिरि भए हैं। चैनराम काणोंता में, गुंदेर कपिल मुनि, __ श्यामदास झालाणा में, चोड़के में ठये हैं ।।११०२ सौंक्या लाखा नरहर, अलूदै भजन कर, __ म्हाजन खण्डेलवाल, दादू गुरू गहे हैं। पूरणदास ताराचन्द, म्हाजन मेहरवाल, प्रांधी में भगति करि, काम क्रोध दहे हैं। रामदास राणी बाई, झांजल्यां प्रगट भये, म्हाजन डिंगायच सु, जाति बोल सहे हैं। बावनहि थांभा अरु, बावन महन्त ग्राम, दादूपन्थी चतरदास, सुनी जैसें कहे हैं ।।११०३ इति दादू सम्प्रदाय मध्ये भक्तवर्णन समास ॥ पृ० २०६५० ४४४ के बाद अथ पुनि समुदाय-भक्त वर्णन अरेल यम हरि सों रत हरिदास, पठाण भाण भयो भक्ति को। धनि माधो मुगल महन्त, गह्यो मत मुक्ति को। . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल २७२ ] अन्तज कुल अवतार कहर पखि परहरयो। भक्तवछल रछिपाल काल झम थरहरयो। जन राघौ षट-ऋतु, ख्याल अजपा जापसों। निशि दिन गोष्टी ज्ञान आपनों आपसों ।।११२२ पृ० २०६ प० ४४५ के बाद निपटजी का वर्णन निपट कपट सब छाडि कर, एक अखण्डित उर धरे ॥ उत्तम कविसो ऐन, काव्य सब के मन भावै । मनहर इन्दव छप्प, झूलणां खूब सुनावै । ज्ञानी अति गलितान, ब्रह्म अद्वैतहि गार सांची दे चाणक, भरम गहि अधर उडायो। छाप निरंजन की तहां, जिते कवित राघौ करे। निपट कपट सब छाडि, करि एक निरंजन उर धरे ॥११२४ पृ० २१८ प० ४६४ के बाद करमैंती कर्म न लग्यो साहा पैली शीश दह । गृह से निकसि भागि करक को मन्दिर कीन्हो । तीन रैन तहाँ बसी बहुरि मारग पग दीन्हो । ब्रज भूमि में जाय महा ऊँचे स्वर रोयै । लोक कुटुम्ब सब त्याग पंथ हरिजी को जोवै । जन राघौ हरिजी मिले सुख प्रगट्यो दुख गयो वह । करमैती कर्म न लग्यो साहा पैली शीश दह ॥११८६ पृ० २३० मू० प० ४८६ के बाद बलोजी का वर्णन हुकुम हसम घर माल तजि वलिराम उर सुध कियो । लगी नाम सों प्रीति रीति औरे सब छाडी। पियो ब्रह्म-रस नीर आन धर्म छाडि र नाडी। गयो पाताशा पासि ज्ञान वैराग दिपाए । दोऊ करले कांख पांव दोऊ मुकलाए । राघौ भक्ति करी इसी श्रवण सुनत उमग्यो हियो। हुकुम हसम घर माल तजि वलिराम उर सुध कियो ॥१२४६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ० २३१, ५० ४६१ के बाद कडवा तजत किराट कों, गई अप्सरा वरनकूं ॥ भक्ति करत इक भूप, सही कसरणी प्रति भारी । तब भेटे भगवान, आप त्रिभुवन-धारी । नारी पलटि नर भयो, सीत परसादी पाई । पूज्यो निरताई । कही जग - तिरन कों । साखी छप्पय छंद दोहा परिशिष्ट १ Jain Educationa International भांड भगत प्रतिछ नृपत, कंवर कठारा की कथा, जन राघौ कडवा तजट किराट कों, गई खरहंत को वर्णन सत-संगति परताप तें, निकसि गयो सब खोट । धुनही तोरी धान कै, ग्रायो हरि की वोट || पृ० २३३, ५० ४६८ के बाद अप्सरा वरनकूं ।। १२५१ अंत्यज एक अन्तर मही, धुनि धुनिही हिरदै धरी ॥ पठाई | दुनी देख बेहाल, काल को बहुत पसारो । लुक्यो धाम के मांहि, मूंदि परण घर को द्वारो । ग्राम्बानेरी विप्र, तास ने मोठ दईरामजी सैन, भक्त मेरो वह राघौ धनि धनि रामजी, खरहन्त की रक्षा अंत्यज एक अन्तर मही. धुनि धुनिही हिरदै भाई । साहिब के घर वस्तु बहू, खरहन्त अपना खोठ । गेहूं चावल घी घरणा, लिख्या भाग में मोठ || [ २७३ For Personal and Private Use Only करो । धरी ।। १२५२ घिनाणी । टूटे व्रत आकाश, कौन करता विन जौरे । परमेश्वर पति राखि, होह परजा के वोरे । बुडत बाजी राखि, विधाता चित्र चौरासी लक्ष जोनि, पूरि सब को ग्रन पारणी । रघवो प्रणवत रामजी, दृष्टि न कीज्यो कहर की । जती सती को पण रहे, करि वर्षा एक पहर की ।। १२६० Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तमाल २७४ ] पृ० २४६, प० ५५५ के बाद अनन्यशरणता मनहर . दादू को सेवक हं दादूजी सहाय मेरे, छन्द . दादूजी को ध्यान धरू दादू मेरे धन्न हैं । दादूजी रिझाऊं नित नाम लेऊ दादूजी को, दादू-गुन गाऊं वडो दादूजी सों पन्न हैं। दादूजी सों नातो रसमातो रहूं दादूजी सों, दादूजी अधार मेरे दादू तन मन्न हैं । कहै दादूदास मोहि भरोसो एक दादूजी को, दादूजी सों काम दादू अघ के हरन हैं ।।१२८० इति राघौदासजी कृत मूल भक्तमाल सम्पूर्ण ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ दादूशिष्य जग्गाजी रचित भक्तमाल (दादूपन्थी सम्प्रदाय की प्राचीन व संक्षिप्त भक्तमाल) चौपाई ढाढियो हरि सन्तन केरो। निसदिन जस करौ में चेरौ॥ प्रथमे गुरु दादू मैं जाच्या। दिया राम धन दुख सब वांच्या ॥१ चन्द सूर धरती असमाना। इनहू कह्यौ रामको ग्याना ॥ एक पवन अरु दूजा पानी। तेज तत्त कह्यौ राम वखानी ॥२ ब्रह्मा विष्णु महेश हनुवंत भाई। इनहू हरि की सन्धि वताई ॥ गोरष भरतरी गोपीचन्द । इनहू कह्यौ भजी गोविन्द ॥३ सन्त कणेरी चरपट हाली । प्रिथीनाथ कह्यौ हरि मार्ग चाली॥ अजैपाल नेमीनाथ जलध्री कन्हीपाव । इनहू कह्यौ भज समरथ-राव ॥४ धुंधलीमल कंथड भडंगी विप्रानाथ। इनहू कह्यौ हरि देवे हाथ ॥ नागार्जुन बालनाथ चौरंगी मींडकीपाव। इनहू कह्यौ भज समरथ-राव ॥५ सिद्ध गरीबदेव लहर ताली। चुणकर कह्यौ लाय उनमनी ताली॥ गणेश जडभरथ शंकर सिद्ध घोडाचोली। इनहू कह्यौ राम लै रोली॥६ अाजू-बाजू सुकल हँस ताविया भाई। इनहू कयौ गोविन्द गुण गाई। वगदाल मलोमाच सिंगी रिष अगस्त। इनहू कयौ राम भज वस्त ॥७ रिषिदेव कदरज हस्तामल व्यास। इनहू कहयौ भज सासैं-सास ॥ ऋषि वशिष्ट जमदग्नि पारासर मुचकंदा। इनहू कह्यौ भज हरिचंदा॥ गर्ग उत्तानपाद वामदेव विश्वमात्र भाई। इनहू कयो साची राम सगाई ॥ भृगी अंगिरा कपिल दुरालभा। इनहू कहयौ हरि भज सुलभा । दुरवासा मार्कंडेय मत्तन नासाग्रह। इनहू कह्यौ हरि भज प्रेह ॥ अष्टावक्र पुलिस्त पुलह गंगेव। इनहू कयौ करो हरि-सेव ॥१० सुभर च्यवन कुंभज गजानंद। इनहू कहयौ हरि भज प्रानंद ॥ पहुपाल्या म्रदै कुंभ भुजजा भगनौ। इनहू कयौ राम भज घनो ॥११ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ] भक्तमाल; परिशिष्ट २ शांडिल्य कुरतजा जाज्ञवालिक्य श्रया। इनहू कयौ राम भज नया॥ शतजोति दशजोति सहस्रजोति गालवरिषि । इनहू कहयौ राम-रस चषि ।।१२ मांडव्य पिपलाद उद्दालक नासकेत। इनहू कयौ करि हरि सों हेत ॥ कर भजन नारद अर्जुन सरस्वती। इनहू कयौ राम भज जती ॥१३ सनक सनंदन सनतकुमार। इनह कह्यौ भज राम संवार ।। कायाहरि अंतरिष प्रबुद्धा। इनहू कह्यौ भज समरथ शुद्धा ॥१४ पहपाल्या मर्द दमला चमासे। इनहू कह्यौ राम हरि रमासे ।। जवाइल रसूल वलेल वहावदी मुल्ला। इनहू कही अल्ला की गल्लां ॥१५ फरीद हाफिज ईसा मूसा। इनहू कह्यौ अला तोहि तूसा ॥ थाज वाजिद ढिलन समन सहवाज । इनहू कह्यौ अल्ला की आवाज ॥१६ वलख का बादशाह शेख बूढा मनसूर । इनहू कह्यौ रख अला हजूर । अलहदाद अनलहक जांन। इनहू दिया नाम निसान ॥१७ काजी महमूद रूहा पठानां। इनहू दिया नांव निज जांना ॥ कायाध्री संजावती सविया मन्दालसाह । इनहू कह्यौ भज समरथ साह ॥१८ एता सिद्ध ऋषीसुर तुरकी संत जगियो गावै। और भगतनि पै माँगै पावै ।। धू प्रहलाद शेष सुखदेवा। सत्यराम की कहि मोहि सेवा ॥१६ नामदेव तिलोचन कबीर घूरी स्वामी। इनह कह्यौ भज अन्तरयामी ।। रामानन्द सुखा श्रीरंगा। नानक कह्यौ रहहु हरि-संगा ।।२० पीपा सोंझा धना रैदासा। राम राम की वधाई आसा ॥ सुकाल सेठ जनक रांका वांका। इनहू दिया हरिनाम का नाका ॥२१ पदमनाभ आधारू नरसी। सो म कह्यौ तोकौं हरि दरसी ।। उनपति सुनपति हंस परमहंस। इनहू कह्यौ राम भज अंस ।।२२ वीसल वेणी नापा हरिदास। इनहू कह्यौ हरि तेरे पास ॥ अंगद भुवन परस अरुसेन। ए भी उठ्या रामधन देन ॥२३ सूर परमानन्द माधौ जगनाथी। इनहू कही मोहि राम की थाति ॥ छीतर वहवल सीहा भाई। इनहू मोकौ इहै दिढाई ॥२४ कोता सन्ता चत्रभुज कान्हां। प्रगट राम कह्यौ नहिं छाना ॥ दत्त दिगम्बर औघड़ नरसिंह भारती । इनहू वात कही इक छूती ॥२५ ग्यांन तिलोक मति सुन्दर भींव। मुकुंद कह्यौ रहु हरि की सींव ।। विजिया वेलिया हालण अरु हाथो। इनहू कह्यौ राम है साथी ॥२६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जग्गाजी कृत भक्तमाल [ २७७ दीप कील्ह अरु वेलियानन्द । भर्ती कह्यौ भजि राम गोविन्द ॥ घाटम द्यौगू सूरिया प्रासानन्दा। इनहू कह्यौ राम भजि गंदा ॥२७ सधना सांवल मुवा पर गालिम । इनहू कह्यौ राम भजि खालिम ॥ तापिया लोदिया सायर अरु नीर। इनहू कह्यौ करि हरि सू सोर ॥२८ वोहिथ पैवंत हरिचन्द ऋषीकेश। इनहू दियो राम उपदेश ।। डूंगर विसालष परमानन्द वीठल। इनहू कह्यौ राम भज मीठल ॥२६ कान्हैयो नाइक वैकुण्ठ-वन। सारी कह्यौ हो हरि को जन ॥ लाडण वालमीक भैरूं कमाल। इनहू कह्यौ हरि मारग हाल ॥३० हातम छीहल पदम धुंधली। इनहू कह्यौ भज राम भली ।। जैदेव कृष्ण राम लिछमण भाई। इनहू हरि-मारग दियो वताई ॥३१ सीता माता मैंणावती बाई। पारवती अरु धू की माई ।। सरिया कुंभारी अनुसूया अंजनो जांणी। इनहू कहो राम की वाणी ॥३२ इतना सन्त पुरातन जगियो हिरदै राखै । गुरु दादू का सेवग भावै ।। गुरु दादूका सेवग वखांण। गरीबदास मसकीना जांग ॥३३ नानी माता दोन्ह्यु बाई। इनहू कह्यौ राम भज भाई ।। वावो लोदी माता वसी। हवा साधु कह्यौ हरि-मारग धसी ॥३४ संतदास माधो मांगौ रामदास। इनहू कह्यौ हरि तेरे पास ।। चान्दा टीला दामोदरदास। इनहू कह्यौ रहु हरि के वास ।।३५ दयालदास वडो गोपाल संतदास। इनहू कयौ वन हरि के दास ॥ जगजीवन जगदीश स्यांम पहलादू। इनहू कह्यो भजो हरि साधू ॥३६ वखनो जैमल जनगोपाल चतुर्भुज वरणजारो। इनहू कह्यौ भजौ साहब सारो।। नारायण प्रागदास भगवान मारु सन्तदास । इनहू कहयौ करो हरि के वास ॥३७ मोहन दफतरी मोहन मेवाडो केशा राघो। इनहू कह्यौ भजौ हरि अाघो।। रज्जव दूजरण घडसी ठाकुर। इनहू कह्यौ होहु राम को चाकर ॥३८ सादो परमानंद रीकू लालदास नाइक। इनहू कह्यौ भजो हरि लाइक ।। जैमल पूरण गरीब साधु साध। इनहू कह्यौ भजि हरि-अगाध ॥३६ चतरो भगवान हरिसिंह भवना। इनहू कह्यौ होहु हरि-जना ।। दयाल माधो जोगी खाटरयो चत्रददास । इनहू कह्यौ भज हरि प्रवास ।।४० प्रागदास धीरो जगनाथ चतरो मर्दनो वीरौ । इनहू कह्यौ भजो हरि हीरो ।। लघु गोपाल रामदास मोहन नरसिंह लावालौ । इनहू कह्यौ भजि राम राले पालौ।।४१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ ] भक्तमाल; परिशिष्ट २ तेजानन्द हरिदास कृष्ण गोविन्द झावरि वालौ। इनह कह्यौ जगा राम संभालो । डूंगो भगवान माधौ सन्तदास। इनहू कह्यौ करो हरि की प्रास ॥४२ वनमाली देवेन्द्र ब्रह्मा अरु मोनी। इनहू कह्यौ भजो हरि क्यों नी ? गंगदास चरणदास साधू अर मोहन । इनहू कह्यौ राम भजि सोहन ॥४३ हरिदास कपिल नारायण टीकू माली । इनहू कह्यौ जगाराम संभाली । वधू चेतन नरहरि माधो कारणी। इनहू कह्यौ भजो एक विनाणी ॥४४ वाजिन्द परमानन्द निजाम नागर । इनहू कह्यौ भजो हरि उजागर ।। परसरांम चतरो गोविन्द जंगी। इनहू कहयौ राम है संगी॥४५ गजनीसा सांवल महमूद वोहिथ। इनहू कह्यौ राम रमि सोहिथ ।। पूरण चतरो लालदास नागौ। केवल केसो झांझ हरि मांगौ ॥४६ वीठल जसो अरु जगनाथ। इनहू कह्यौ रहु हरि के साथ ॥ केसो चतरो निरंजनी सन्तो तोलो सरवंगी। इनहू कयौ राम रंग रंगी ।।४७ ऊधो रामदास चूहड़ वनमाली। इनहू कहयौ जगा राम संभाली ॥ चैन नारायण ठाकुर पांचो। इनहू कहयौ भज साहब सांचौ ॥४८ नारायण दांतरिगयो जगनाथ गोपाल ऊधो । इनहू कहयौ राम भजि सूधो।। गरीबजन रामदास शारंगदास। इनहू कयौ हरि हिरदै वास ॥४६ नारायण गोविन्द दिढ दास मुरारी। इनहू कयौ हरि भगति सारो ॥ दखणो मोहन उतराधा हरिदास टीको पाल्हा। इनहू कहयौ राम भजि वाल्हा ।।५० ईसर केशो साहूकार वैरागी श्यामा जगा। इनह कहयौ राम है सगा। श्यामदास पूरवियो सांगा गांगा। इनहू कयौ लै राम मैं प्रांगा ॥५१ :: सांगो पहराज स्यांमदास कलौ। इनहू कह्यो राम भज भलो ॥ सुन्दरदास गोपाल भगवान देवो गुजराती साध । इनहु कह्यौ भज हरि अगाध ॥५२ चरणदास माधो पंचायण पूरा। इनहू कह्यौ राम भज सूरा ॥ रामदास दामोदर नारायण नरसिंह षेमदास । इनहू कह्यौ होहु हरि के वास ॥५३ ध्यानदास बालो लालो हरिदास जंत्री। इनहू कह्यौ राम भज मंत्री ।। जगदीश सन्तदास माधो बोहिथ माली। इनहू कह्यौ राम करे रखवाली ॥५४ चरणदास हेमो शंकरदयाल वन। इनहू कह्यौ होहु हरि को जन ।। माखू माधो केसोलाल। इनहू कह्यौ भज हरि हर हाल ।।५५ चरणदास गुजराती वीरम केसो हापा । इनहू कह्यौ राम भज वापा ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जग्गाजी कृत भक्तमाल [ २७९ उतराधा सन्त वखाणों दयालदास दामोदर माधो। इनह कह्यौ सोध हरि लाधौ ॥५६ परमानन्द भगवान मनोहर जीता। इनहू कह्यौ राम भज रहो न रीता ।। गोपाल मनोहर वनमाली मीठा। इनहू कह्यौ राम तोहे दीठा ।।५७ हरिदास दमोदर परमानन्द दूदा। इनहू कयौ राम भज सूदा ।। हरिदास कलाल दयालदास कारणोतेवालौ। इनहू कह्यौ राम भज रलि पालो ।।५८ संतोषो राघो कान्हड़ हरिदासा। इनहू कह्यौ राम भजि खासा ॥ राघो भगवान गोरा तो मोहन धनावंसी। इनहू कह्यौ हरि के दर वसी ।।५६ जन जलाल खेमदास राघो माली। इनहू कह्यौ राम करै रखवालो। ऊधोदास जोधा संतोषदास पिनारो। हरीदास मूंडती-वालो ॥६० विरही राघो राम लखी नारो। इनहू कह्यौ गहि राम को डालो॥ तुलसी गोविंद दामोदर ईसर। इनहू कयौ राम जनि वीसर ।।६१ पूरण ईसर गोपाल रैदास वंशी। इनहू कह्यौ हरि के दर वसी ।। लाखो नरहरि कल्याण केसो। इनहू दियो राम उपदेशो ॥६२ टोडर खेमदास माधो नेमां। इनहू कह्यौ रहु हरि की सीमां ॥ राणी रमा जमना अरु गंगा। इनहू कह्यौ राम भज चंगा ॥६३ लाडां भागां संतोषां रांणी। इनहू कयौ भज एक विनांणी ।। रुकमणी रतनी सीता जसोदा। इनहू कयौ करि राम का सौदा ॥६४ स्वामी दादू के कीरतनिया वखांणों स्वामी दादू का कीरतनिया वखांणो । रामदास हरीदास धर्मदास बावो बूढौ वानों ॥ रामदास नाथो राघो खेम गोपाल । इनहू कयौ हरि वडे दयाल ।।६५ हरिदास लखमी विसनदास कल्याण । तुलछा नेता स्याम सुजाण ।। हुये होहिंगे अब ही साधां। तिनको खोजय हु मारग लाधा ॥६६ अगणित साध अगोचर वाणी। कृपा करौ मोहिं अपणो जांणी। गुरु प्रसादे या बुधि पाई। सकल साध मेरे वाप र माई ॥६७ गुरु गुरु-भाई सब में वूझ्या। तिनके ग्यांन परम-पद सूझ्या ।। जगि ये साध सिध सुण्यां ते जाच्या। दियो रामधन दुख सव वाच्या ॥६८ जनम-जनम का टोटा भाग्या। अखै भडार विलसने लाग्या । भक्तिमाल सुनै अरु गावे। योनि-संकट बहुरि न आवै ॥६६ ॥ इति जग्गाजी की भक्तिमाल सम्पूर्ण ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोहा Jain Educationa International परिशिष्ट ३ चैनजी रचित भक्तमाल सीस नाय वन्दन करूं, गुरु गोविन्द उर प्रानि । सकल संत को जोर कर, कहुं सु नवां बखानि ॥१ प्रसिद्ध भये जेते जपूं, छिपे सु रहे अनन्त । अनसुनियां सौ हेत अति, गुप्त कहया सोई सन्त ॥ २ ब्रह्मा विष्णु महेश शेष सनकादिक मारकंडे वगदालक मयूरवी गर्ग भजनानंद विकेसनि प्रवलंवारण नंद सुनंद प्रवीन क देख चंड प्रचंड पुनीत सुतौ प्रति निरमल शील सुशील सु सैन, भर्ज हरि लागौ रंगू ॥५ भद्र सुभद्र हरै पर पीरु, कमध कमदाक्षि अधारू । नारद । सुशारद ||३ अधारु । दीदारु ॥४ अंगू । सही सरवै सुख सूं सीरु ॥६ प्रीति, ग्रभिप्रन्तर परकासू । वासू ॥७ ' सगर भगर सत्यव्रत सिवरी सुमति धना, धरम में कीया रवि अध्यारक ऐलि, वलि सु अरपियो रुकमांगद हरिचन्द, ब्रत्त मांही मति ग्रहन्त निज शेष, भक्ति भागीरथ वालमीक मिथलेश, भरत कै राम गंधीर गज गनपणं, सुपारथ वोढा नील दधीचि, स्मृति भगौत तामरध्वज परचीन्ह, परीक्षत पाई व्ररणमृत प्रियव्रत भजै, स्वयंभू मनु ग्राह पृथु भीषम मनु भूप, सुग्रीव सुदामा विप्र अनूप । अगस्त पुलस्त्य कमला ध्यांन, मन्दालसा प्रचेता जांन ॥१२ हरखू ॥ ११ For Personal and Private Use Only सरीरु । धीरु ॥८ पाई । सहाई ॥ पहचाणी | वखांणी ॥१० परखू । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैनजी कृत भक्तमाल [ २८१ विरहु वालमीक स सुमरै एक। चन्द्रहास चित्रकेतु अनेक । सरभऋषि कर्दम भृगु अंगिराई। लउचम अत्रि करहे ल्यौ लाई ॥१३ विश्वामित्र माधवाचार्य ध्यावै। पदमनाभ परमातम गावै । पुलह च्यवन जस कहै वखानी। लीन भये गौतम से ग्यानी ॥१४ सनक सनंदन सन्त कंवारू। सनातन पावै नहिं पारू। कवि हरि अन्तरिक्ष हरि गावै। प्रबुद्ध पुहपला पार न पावै ॥१५ अविर होत दुर्मिल हरिदासू । चम स रहै क्रमांजन पासू। सनकादिक नारद भये पारू । नौ जोगेश्वर सुमिरे सारू ।।१६ कदरज हस्तामल निज संतू। अष्टावक्र भज भगवन्तु । जै विजै मांडवी भृगु अंगराई। अजामेल गणिका गति पाई ॥१७ अनुसूया अंजनी सु धावै। सहस अठ्यासी मुनि हरि गावै। कोटि तेतीसू कहे सु देऊ। इन्द्रदेवनि दुर्वासा सेऊ ॥१८ गवरीं श्याम कार्तिक गनेसू। लियो कपिल कर निज उपदेसू। धू सुनीति लिछमन सुख दैऊ। सन्त शौनिक गुरु गंगेऊ ॥१६ गण गन्धर्प देहुति सुमाई। जप निज नाम सु शुन्य समाई। धर्मराय जयदेव वखांणी। जनक भये निज सन्त विनारणी ॥२० ऊधो अक्रूर प्रहलाद हणवंतु। विल्वमंगल वशिष्ट जपै अनन्तु । अलखनाथ पराशर दिलीप अम्बरीष। समकि सींगी गुरु की सीख ॥२१ जड-भरथ रघु गुणदत्त गुंसाई। मछिदर गोरख लगै सु नाई। बालनाथ औघड़ सावरानन्दू। कणेरी चौरंगी जपै गोविन्दू ॥२२ सुध-बुध भीन र भैरूँ रु जोगी। काकभंडी कोरट अमृत भोगी। टिटणी कपाली खंड नाम सारू। वीरू पाख वेलिया भई करारू ॥२३ नित्यनाथ निरंजन विदु सु नाथू। सिद्धपाद सदानंद कियो मन हाथू। भूली गौड़ भालुकी तारे। निनांणवै कोड नृप पार उतारे ॥२४ सतीनाथ भर्थरी करै अनंदा। श्री मछिंदर चर्पट वन्दा। सिध गरीबा वालगु नाई। देवल सुरति निरन्तर लाई ॥२५ नागार्जुन अरु घोड़ाचोली। अजपाल अन्तर हरि बोलो। चुरणकर गोपीचन्द मैंणवती माता। जलन्द्रीपाव धुंधली जपै हो विमाता ॥२६ पूजपाद अरु हालीपाऊ। कान्हीपाव सिधां सौ भाऊ। नागदेव जोगी जप जप जागै। मांडकी पाव सु भये सभागे ॥२७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ] भक्तमाल; परिशिष्ट ३ कंथडीपाव चिणगी स्याल सेटू । अलसनाथ जोगी पहुँचे थेटू । अंगद सोम वालमीक पासा। मोरधज वीजल करहों विलासा ॥२८ कहै हरकेस अनाहद वांगी। ऋषोकेस दईदास वखांणी। विसनदास तिलोचन नामा गाई। रांका वांका वेण सुणांई ।।२६ रामानंद कबीर अरपियो परसू। गलगला सुरसुरा पावै दरसू।। मतिसुन्दर रैदास पद्मावती सेवा। वेलि सूरिया भजै हरि देवा ॥३० अनंतानन्द अन्तर हरि गाई। सुरसुरानन्द सुरसुरि रहे ल्यौ लाई। रूप सनातन भावानन्दू। रामदास हिरदै गोविन्दू ॥३१ सोझा सांवलिया स्योश्रम भाणू। सधना धना भये प्रति जागू।। सीहा सोभू जन भगवानू । विशनपुरी भीव परवानूं ॥३२ रतन पारखू अरु केतगा मीरां। अनलहक उतरे भी तीरा। सुकलहँस पाई निज पर)। प्राजूज वाजूज हरिभज हरसू ॥६३ जन तिलोक महादेवा कुरु । लघु परमानन्द संत अध धू। तापिया लोदिया सदगति सरगू। नासकेत उदालक हांडी भरगू ॥३४ नानक नरसी परमानन्द सूरं। मुकन्दसेन वहवल पूरं। । सुखानन्द अरु माधो गुसांई। कीता नापा सुमरै सांई ॥३५ कृष्णानन्द श्रीरंग अधारू। विद्यादास वीसौ हुसियारू ।। ध्वाज वाजिद विराहम सिकंदर मनसूरं । फरीद हातम के मुख नूरं ॥३६ शेष वहावदी अरु सहवाजू। वाहिद भीकरण सारे काजू। बाबा बूढौ विजली खानूं। परम जोति में प्राण समानू ॥३७ काजी महमूद कादन जीवनि जीको। सारी छीतम गोविन्द भांणू। गालिब वीठल लघ निसाणू ॥३८ रहुवा चइया कान्हा अवू । सन्तदास घाटम नृसिंह सवू । कर्मानंद त्रिलोक प्रथीनाथ टोली। चंदनाथ व्यासर मारणक कोली ॥३६ चत्रनाथ चतुर्भुज हरि की आसा। द्यौगू किसनदास कील्हू हरदासा। जोगानंद विमलानंद मुनी मन हाथू । नरसो वांदरौ घूडी सव साथू ॥४० स्वामी दादू संत सुतौ कलि मांहि कबीरू । जेते परसे प्राइ सुखी सो सदा सरीरू। ज्यौं पारस के संग लोह सू कंचन होई । भये सुनिरमल अंग कुल सु कारण नहिं कोई।।४१ कियो सकल माया को त्याग। गृह मांही लीयो वैराग। भज अहोनिस प्राण अधारू । सकल संग लै उतरे पारू ॥४२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चनजी कृत भक्तमाल [२६३ गरीबदास कुलदीप । दुती शशि करै विगासू । भाव भगति वेसास। सुतौ उर भयो परकासू ॥४३ अति चेतन सरवंगी। भज हरि हिरदै सारू । कैंधो ध्रुव मति धीर। धर्म माही इकतारू ॥४४ जनगोपाल रु जमनाबाई। गुरु दादू की कीरति गाई। ध्रुव प्रहलाद भरथरी लीला। 'मोहविवेक' ग्यांन मन मीला ॥४५ नारायण चैन रु ठाकुरदासू। सूर हरी खेमदास उदासू । चैनदास तिनके गुण गावै । और सबन के नाम सुनावै ॥४६ वहन हवा अरु दोन्यू बाई। टीलो चांदो हरि ल्यौ लाई। हरिदास द्वारिका सन्तदासू। चेतन वधू चरण के पासू ॥४७ वीठल केसो भगति प्रकासू। बडौ गोपाल हरि मांहि निवासू । रामदास ताकै सिख सन्तू । महा कठिन निज गुरु का मन्तू ।।४८ दूदै खवास दया दिल धारी। मिलै सन्त जन पर उपगारी। गरीबदास सौ सनमुख भालू । भजै अहोनिस दीनदयालू ॥४६ गुरु आज्ञा मैं गोविन्ददासू । राघो ईसर चरणों पासू । केवल चोखी करै कमाई। चांटी दे गोपाल सवाई ॥५० वीरमदास रहै दरवारू। करै अहोनिस पर उपगारू । गुरु गोविन्द सौं अतिस हेतू । सनमुख सेवां करै सचेतू ॥५१ सन्तदास दूदो दरवारी। वखनै को अभै विसतारी। पूरणदास र जैमल जोंगी। गरीबदास अमृतरस भोगी ॥५२ रहै सु देवगिरि असथानू । तहाँ धरै जगजीवन ध्यानू । सिख दामोदर हरिजन हरिदासू। ध्यानदास धरणी धर पासू ॥५३ रजब अजब अनूपम सारू। गुरु दादू संग भई करारू।। सिख दामोदर गोविन्द खेम। जगा हरी को हरि सू नेम ॥५४ रामदास केसो तेजो सन्तू । द्रिढदास मुरारि गह्यौ निज मंतू । परमानंद पुरौ चतुरो हुसियारू। हीरौ जैराम सेवग निज सारू ॥५५ दूजनदास करी गुरु सेवा। किये प्रशन्न गुरु दादू देवा।। सिख टीकू लाल दयाल कल्याणू। नारायण ठाकुर निर्मल प्राणू ॥५६ सन्तदास लूणो गोपालू । सबसौ सनमुख दीनदयालू । रूपौ रामल केसीबाई। सदगति. भये सन्त सुखदाई ॥५७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ] भक्तमाल; परिशिष्ट ३ मोहनदास भजै हरि प्यारो। सिखन साखा सबसौं न्यारो। रहै आसोप ब्रह्म ल्यो लाई। गुरु दादू की वन्ध्यो सगाई ॥५८ मोहनदास दफतरी सन्तू। सदगति भये सु भज भगवन्तू। चत्रदास सिख भगति प्रकासू। झांझू के सोहे निज दासू ॥५६ देवल दया रही भरपूरी। सन्त विराजै जीवन मूरी। तहाँ सुख को सागर दयालदासू। प्रेम प्रीति पंजर परकासू ॥६० गलित गरीबी वाइक दोन। रहै अहोनिसि हरि सूं लीन। स्वामी दादू को मत मारू। छिन छिन देखै हरि सुख सारू ॥६१ कलो दिसावर सांगौ सन्तू। सिख पहराज सही दिढमन्तू। भागां कर्मा के हरि रंगू। साध संग सू पलट्यौ अंगू ॥६२ पीपा-वंशी सन्त पिरागू। प्रगट भये सु पूरण भागू। हिरदै विराजै दीनदयालू । रहै सोह वाहू गोपालू ॥६३ वन सु दयाल धना को सांगो। हरि सन्तन में लीयो आगो। अहनिसि सुरत निरंतर जोरी। शंकर जसो उनमनी डोरी ।।६४ पंडित कपिल और जगनाथू। निरवह्यौ सील गह्यौ हरि हाथू । सिख सुन्दर गोपाल दयालू । सतगुरु काट सकल झंझालू ।।६५ सुन्दरदास सन्त निज प्रादू। सिख सुधरे पीपा पहलादू । केसौ चतरा के नहिं प्रापौ। पोता सिख हरिदास र हापौ ।।६६ हरीदास हिरदै हरि हीरू। सिख नारायण निर्मल सरीरू । पीपा वंशी पूरण ग्यांन। परम-जोति में धरे सु ध्यान ॥६७ ऊधौ माधौ रामदास हेमू। अर देवल को बालक पेमू।। श्यामदास झालांणौ साधू। करै सु अवगति को प्राराधु ॥६८ प्रागदास विहांणी सन्त सुजाण। दादू किरपा वजे नीसारण। चरणदास सिख वन्यो नारायण। रामदास भगवन्त परायण ॥६९ संतदास परमानंद सुखनिवासू । ब्रह्म निरूपै गोविन्ददासू। गोपाल दामोदर गुरु सिख लीन। केसो मनोहर मधुकर दोन ॥७० मोहन मेवाडो मन थीरू। संगि जगनाथ माधौ मति धीरू । गरीबजन गोविन्द गुरु ग्यांन। हरीदास के हरि को ध्यान ॥७१ निर्मल सन्त निजामर नागर। दोऊँ भये ग्यांन के प्रागर । ऊधो चतुर्भुज अरु माधो कांणी। रइयो कहै राम की वाणी ॥७२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चनजी कृत भक्तमाल [२८५ सन्तदास अरु तेजा नन्दू। चरणदास नित करै अनन्दू । माधौदास रु रुकमाबाई। रूपानन्द के राम सहाई ॥७३ माधौ देव देवो गुजराती। प्रातम रहै परम रंग राती। देवेदर अरु मौनी कालो। श्यामदास मदाऊ वालौ ॥७४ ठाकुर मोहन घडसी सन्तू। पावन भये सु भज भगवन्तु । मगन भयो हरि को रंग राच्यो। स्वामी दादू आगे नाच्यो ।।७५ चतरो थलेचो रांमाबाई। सिख वीठल जीवौ सुखदाई । रैदास-वंशी दयाल सुधारे। नामा-वंसी टीकू सारे ॥७६ माधौ सन्तदास सिख गोपाल। हिरदै विराजै दीनदयाल । पूरणदास सुमति को धीरू। सिख चतरो साहिबखां राघौ हीरू ।। ७७ चत्रो भगवान भज करै विलासू। सुमर वनमाली हरिदासू । साधू कियो शुद्ध शरीरु। सतगुरु कृपा दई हरि धीरु ॥७८ सन्तदास सिख को अति सेवा। किये प्रशन्न परम गुरुदेवा। मोहनदास महा वैरागी। रहैं टहरडै हरि ल्यौ लागी ॥७६ सादो परमानन्द भगवन्त भज जाग्या। माधो खेम सु गुरु की आग्या। हरिसिंह सन्त-शिरोमणि सारु। सिख सपूत मोहन हुशियारु ॥८० धनावंसी चत्रदास सूरौ। हरि मारग में निविह्यो पूरो। जगदीशदास बाबो भगवानू । परम जोति में प्राण समानू ।।८१ देदो रहै घणी सूं दीन। गरीबदास प्रागै लै लीन । जगन्नाथ बाबा जपि जपि जागे। वणिक भगवान ब्रह्म के आगे ॥२ गिरधरलाल गंवार हरि साथू । नापा-वंसी तहाँ जगनाथू । सीधू सन्तदास वारा-हजारी। जैमल माधौ की बलिहारी ॥८३ गोविन्ददास वैद्य मऊ थानू। सिख सपूत माधौ भगवानू । जैदेव-वंशी गोविन्द दन। तिलोचन वंसी सुन्दर लीन ॥८४ सांभर भगवान राघौ जपियो। सैर पर चोखां की साला। तहाँ रहे दादू दीनदयाला ॥८५ जैमल को सिख सारंगदासू। सिख नारायण भक्ति प्रकासू । पोता सिख सो लालपियारो। सनमुख सदा सन्त निज सारौ ॥८६ हरिसू हित लपट्यो जगनाथू। अानदास सिख विचरै साथू । निर्गुण भोजन कियो न स्वादू। हिरदै न आन्यो। वाद-विवादू ॥८७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] भक्तमाल; परिशिष्ट ३ रंगू । माया पंक न लगी लगारू । अन्तरयामी सूं मन लायो ||८८ निराकार को लागो साचो इष्ट सीस पै धारय ॥ ८६ रामदास जंगली कौ हरि सूं ख्याल । निर्मल मूरति देख्यो नैन ॥६० नाथो हरि को मारग हेरे । कुन्ती जसोदा सील समाई ॥६१ ॥ इति चैनजी की भक्तमाल सम्पूर्ण ॥ गह्यौ निरंजन को मत सारू । प्रितिमा विनासी गायो । स्वामदाम के सन्त प्रसंगू । जप निज नाम सु जन्म सुधारयो । सिख ऊधो नवल सूजा अरूलाल । रामदास गोकली कोमल- बैन । माधौ मोहन नारायण नदेरे । पिराग रावत जमनाबाई । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रधान सम्पादक-पद्मश्री मुनि जिनविजय, पुरातत्त्वाचार्य प्रकाशित ग्रन्थ राजस्थानो और हिन्दी १. कान्हडदे प्रबन्ध, महाकवि पद्मनाभ विरचित, सम्पादक-प्रो. के. बी. व्यास, एम०ए०॥ १२.२५ क्यामखो-रासा, कविवर जान रचित सम्पादक-डॉ० दशरथ शर्मा और श्री अगरचन्द नाहटा। ४.७५ लावा-रासा, चारण कविया गोपालदान विरचित सम्पादक-श्री महताबचन्द सारड़ । ३.७५ ४. बांकीदासरी ख्यात, कविराजा बांकीदास रवित सम्पादक-श्री नरोत्तमदास स्वामी, एम०ए०, विद्यामहोदधि । ५. राजस्थानी साहित्य-संग्रह, भाग १ सम्पादक-श्री नरोत्तमदास स्वामी, एम०ए०, विद्यामहोदधि । २.२५ ६. राजस्थानी साहित्य संग्रह, भाग २ सम्पादक-श्री पुरुषोत्तमलाल मेनारिया, एम०ए०, साहित्यरत्न । २.७५ ७. कवीन्द्र-कल्पलता, कवीन्द्राचार्य सरस्वती विरचित सम्पादिका-श्रीमती रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत । २.०० ८. जुगल विलास, महाराज पृथ्वीसिंह कृत, सम्पादक-श्रीमती रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत । १७५ ६. भगतमाळ, ब्रह्मदास चारण कृत, सम्पादक-श्री उदराजजी उज्ज्वल । १.७५ १०. राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर के हस्तलिखित ग्रंथों की सूची, भाग १। ७.५० ११. राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान के हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची, भाग २। १२.०० १२. मुंहता नैणसीरी ख्यात, भाग १, मुंहता नैणसी कृत, सम्पा०-श्री बदरीप्रसाद ८.५० , साकरिया ६.५० १४. , , , , ३, , १५. रघुवरजसप्रकास, किसनाजी पाढा कृत, सम्पादक-श्री सीताराम लाळस । १६. राजस्थानी हस्तलिखित ग्रन्थसूची, भाग १, सम्पादक-पद्मश्री मुनि जिनविजय पुरातत्त्वाचार्य । ४.५० १७. राजस्थानी हस्तलिखित ग्रन्थसूची, भाग २, सम्पादक-श्री पुरुषोत्तमलाल मेनारिया, एम०ए०, साहित्यरत्न । २.७५ १८. वीरवारण, ढाढ़ी बादर कृत सम्पा०-श्रीमती रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत। ४.५० ८.२५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] १६. स्व० पुरोहित हरिनारायणजी विद्याभूषण ग्रन्थसंग्रह सूची, सम्पादक - श्री गोपालनारायण बहुरा, एम०ए० और श्री लक्ष्मीनारायण गोस्वामी दीक्षित | CADY २०. सूरजप्रकास, भाग १, कविया करणीदानजी कृत, सम्पा० - श्री सीताराम लाळस । ८.०० २१. २, ६.५० २२. ३, ९.७५ 19 37 17 71 23 २३. नेहतरंग, रावराजा बुधसिंह हाड़ा कृत, सम्पा०-श्री रामप्रसाद दाधीच, एम०ए० । ४.०० २४. मत्स्यप्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन ( शोध प्रबन्ध ) डॉ० मोतीलाल गुप्त, एम०ए०, पी० एच०डी० । 19 " 11 91 " Jain Educationa International 11 ७. पृथ्वीराज रासो, महाकवि चन्दवरदाई कृत, २५. राजस्थान में संस्कृत साहित्य की खोज, एस० प्रार० भाण्डारकर हिन्दी अनुवादक - श्री ब्रह्मदत्त त्रिवेदी, एम०ए०, साहित्याचार्य काव्यतीर्थं । २६. समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र, श्री सुखलालजी सिंघवी, हिन्दी अनुवादक - शान्तिलाल म० जैन, एम०ए०, शास्त्राचार्य २७. बुद्धि-विलास, बखतराम शाह कृत, सम्पादक - श्री पद्मघर पाठक, एम०ए० । २८. रुक्मिणी हरण, सांयाजी भूला कृत ३५० सम्पादक - श्री पुरुषोत्तमलाल मेनारिया, एम०ए०, साहित्यरत्न । २६. सन्त कवि रज्जब सम्प्रदाय और साहित्य, ( शोध प्रबन्ध ) डॉ० व्रजलाल वर्मा ७.२५ ३०. भक्तमाल, राघवदास कृत टीका- चतुरदास, सम्पा० - श्री अगरचन्दजी नाहटा । ६.७५ प्रेसों में छप रहे ग्रन्थ राजस्थानी-हिन्दी १ गोरा बादल पदमरणी चऊपई, कवि हेमरतनकृत, सम्पा० - श्री उदयसिंह भटनागर, एम.ए. २. राठौडारी वंशावली, सम्पादक - पद्मश्री मुनि जिनविजय, पुरातत्त्वाचार्यं । ३. सचित्र राजस्थानी भाषा साहित्य ग्रन्थ सूची. सम्पादक - पद्मश्री मुनि जिनविजय, पुरातत्त्वाचायं । ४. मोरां बृहत् पदावली, स्व० पुरोहित हरिनारायणजी विद्याभूषण द्वारा संकलित, सम्पादक - पद्मश्री मुनि जिनविजय, पुरातत्त्वाचार्य । ५. राजस्थानी साहित्य संग्रह, भाग ३, सम्पा० - श्री लक्ष्मीनारायण गोस्वामी दीक्षित । ६. पश्चिमी भारत की यात्रा, कर्नल जेम्स टॉड, हिन्दी अनुवादक और सम्पादक - श्री गोपालनारायण बहुरा, एम०ए० । 17 १२. मुंहता नैणीसी री ख्यात, भाग ४, सम्पादक - श्री बदरीप्रसाद साकरिया । सूचना : पुस्तक विक्रेताओं को २५% कमीशन दिया जाता है । ७.०० For Personal and Private Use Only सम्पादक - पद्मश्री मुनि जिनविजय, पुरातत्त्वाचार्य । ८. सोढ़ायरण, महाकवि चिमनजी कविया कृत, सम्पादक - श्री शक्तिदान कविया, एम०ए० । ६. बिन्ह रासो, कवि महेशदास राव कृत, सम्पादक - श्री सौभाग्यसिंह शेखावत, एम० ए० । १०. पाबूजीरे जुद्धरा छन्द, मेहाजी विठू कृत, सम्पादक - श्री उदैराजजी उज्ज्वल । ११. प्रताप रासो, जाचिक जीवरण कृत सम्पादक - डॉ० मोतीलाल गुप्त, एम०ए०, पी-एच० डी० । ३.०० ३.०० ३.७५ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Private Use Only अजन्ता प्रिण्टस व मायपुर. elibrary.org