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राघवदास कृत भक्तमाल
चव चतुरदास अहवास-रु मोहन-जू मड़े । ये च्यारचौ चतुर महंत, डांग मधि मुखि बड़े । बरनत हूं जो मैं सुनें, श्रवर करूं नहीं खंडनं । राघव जो रत रांम सूं, सों मम मस्तक मंडनं ॥ ४५० ये चारण घरि घरि काबि, घरणां इतना तौ हरि कबि हूवा ॥ १कर्मानंद रु २ लू ३चौरा, ४चंड ५ईस्वर ६ केसौ । ७दौ जोवद नरो, १० नरांइरण ११मांडरण बिसौ । १२कोल्ह र १३ माधोदास, बहुत जिन बांरगी सोहन । १४अचलदास चौमुख १५चल सीवां हरि १६ मोहन । जन राघो उधारे रांम भरिण, गुर प्रसाद जग सूं जुवा । ये चारण घरि घरि कबि, घरणां इतनां तौ हरि कबि हुवा ॥४५१
करमानंद की टोका
इंदव चारन सो करमानंद की गिर, दारन हूं हिरदौ पघलावै । छंद छाड़ि दयो घर पूजन सहित, कंठ रहै छरियां पधरावै । गाड़ दई कित कार राखत, भूलि चले उर ल्यात न पावे । चाहि भई तब श्याम सुनावत, ल्याइ दये जव प्रेम भिजावै ।।५५३
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कोल्ह लूज को टीका
भ्रात रहै जुग कौल्ह अल बड़, गाथ सुनौं मद मास नखाई । गावत है प्रभु के गुन रूपहि, भक्ति करें उन बात जनाई । हो लघु दूसर खात सबै कछु, भूप बखांनि कबै हरि गाई । ईस्वर मानत है बड़ भ्रातहि, कै सु करे अपने लघुनाई ॥ ५५४ कौल्ह कही पुर द्वारिक चालहि भोग मिथ्या जग श्राव गमैये । ठीक कही चलिकं पुर जावत, चोजन ये सुनि कांन चितये । कोल्ह सुनावत छंद अनेकन, पीछ लू भरिये सु कचैये । हूं करि के प्रभु हार खिनांवत, लै पहिरावत देहु बडैये ।। ५५५ नांहि दयौ बड़ के प्रपमांनहि, जाइ परयौ दरियाव दुखी है । डूबत भूमि लखी हित चालत, भूलत नांहि प्रात भये जन ल्यावन सांम्हन, जाइ मिले पुनि जीमन बैठत पातरि द्वै जुग, दूसर कौंन स
नीति रुखी हूँ ।
कृष्ण सुखि है ।
भ्रात मुखी ह्वै ॥ ५५६
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