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राघवदास कृत भक्तमाल
निहकंचन की टीका इंदव भक्तन लार' फिरै भगवंतहि, ज्यौं बछ संगि फिरै निति गाई। छंद है हरिपाल सु ब्राह्मन नांमहि, संतन हेत सिरीस लगाई। ... . : कैइ हजार बजार खुवावत, नांहि मिले जब चोर न जाई।
साखत ल्यात न दास दुखावत, प्रावत साध तिया बतलाई ॥४६३ कृष्ण रुक्मनि मंदिर हे जुग, सोच परयौ हरि साह वने हैं।
आप चले कित भक्त समो जित, मैं हूं चलूं कहि प्राव ठने हैं। पूछत माग चलै उतपातहि, लै रुपया पहुचाय सने हैं। साध जिमावहु संगि चल्यौ बन, देखि लये रुपया स घने हैं ॥४६४ स्वांग नहीं सदचार न देखत, है धनबौ इतनौं इत ल्यायो । द्यौ रुपया गहनौ नहीं मारत, देत सबै छगुनी छल छायो। काढि लयो छगुनि सु मरोरि र, दुष्ट बड़ौ जन जीमत पायौ । रूप दिखावत जो अपनौं हुत, भक्त सराहि र कंठि लगायो ॥४६५
साखोगोपाल जू की टीका गौंडहु के दिज दोइ सुनौं गति, जाति बड़ौ बयहू इक छोटो। धाम फिरे सब आये रहे बन, जैमति आवत जानहु मोटो। सेव करी लबु [घु] रीझि कही बृध, दीन्ह सुता तव लेवत प्रोटो। साखिगुपाल करै प्रतिपालहि, गाँव गये तिय पूछत टोटो ।।४६६ बिप्र कही लघु द्यौं तुम्ह दीन्ही सु, पुत्र तिया पुतरी नहि देवै ! वृध कहै अब नांहि करौं किम, ही जु बिथा नहीं जानत भेवै । होत पंचाइत साखि भरावहु, साखिगुपाल भरै बन जेवे । ल्यौ लिखावइ जु साखि भरावहि, दै परनाई सुता मुख लेवै ॥४६७ प्रावन मैं सु' गुपाल जनांवत, साखि भरौ चलि के जु लिखाई। बीति गयो दिनि बोल कही हरि, मूरति चालत क्यूं स कहाई। संगि चलै उठि भोग मंगावत, पाठ२ चलें छिम छिम्म कराई। कांन सूनै छिम पोछ न देवह, देखत हो रहि हूँ उन ठाई ॥४६८ गांव निजोक रह्यौ फिरि देखत, होत खरै वहि ठौर हसे हैं। ल्याव इहां कहि आत चलौ हरि, गाँव चल्यौ सुनि देखि लसे हैं।
१. संगि। २. पात।
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