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चतुरदास कृत टीका सहित
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भोग छतीस कीये दुरजोधन, भाव बिनां भुगते न बिधाता । येकक भाव इकोतर से तजे, बिद्र के कौन उतारें है पाता । साग के तहि भाग उदै भयौ, कृष्ण मिले त्रिये - लोक के दाता । कहै हरित के गाहक, प्रीति बिनां कुछ ' नेह न नाता ॥५३८
अरिल
छ
१. कछ ।
अधिकार श्रवन सुनि साध कौ, प्रदभुत कोई न मांनियौ ॥ श्रहं भक्त श्राधीन, कह्यौ हरि दुरबासा सौं ।' धू प्रहलाद गयंद, सेस सिवरी सरितासौं । पांडुन के जगि कृरण, अंघ्रि सुचि भूठि बुहारी । चंद्रहास बिष मेटि, राज दे विषया नारी । परचा कलि महि बिदत बहु, श्रासतिक बुधि उर प्रांनियौ । अधिकार श्रवन सुनि साध कौ, प्रदभुत कोई न मांनियौ ॥ ५३६
क्यूं
दुरायें कठ गहि ठांवो
साल सराफ, दरबि खोटो
कौ
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दाई श्रागें पेट,
ज्यूं निजरबाज निस्तू,
सम
कर राग के भाग, यौं साध सबद कौं पेखि के, जन राघो यौं हंस ज्यूं,
arat ग्रंथ गमि बिनां, सुनौं कबि चतुर बिनांनी ।
रप्यौ पांनी ।
की किर्ची ।
सरवर कौं सर मांझ, भिरा भरि सोवन भई सुमेर, ताहि कंचन गणपति कौं इक साखि, गिरा दे सरस्वती अरची । सूरजबासी ससि दसी, कलपबृछ कौं धरि धजा । स्थंघ खोज सेवत चढ़ी, जन राघो गज मस्तक श्रजा ॥५४१
अन लह माइ रु हंस, गरुड गोबिंद कौ श्रासन । लघु खग श्रौर अनेक, उड़हि पंखी आकासन । सत जोजन हनवंत, कूदि गयौ सबका गावै । मृग चीता मृगराज छल, और पै फाल न श्रावै ।
दुरें |
करें ।
खरौ ।
गुनीजन
गरौ ।
गुनी बहुतर? चाल रहि । खीरनीर निरनौ करहि ॥ ५४०
२. बहुत चरचाल रही । ३. सब को ।
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