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राघवदास कृत भक्तमाल आइ 'मल्यौ हरिदास सुभावहि, देत भयौ मन मैं सरमांहीं। दासन के यह काज न पाबत, मोर गुसांई बिनै करवांहीं ॥२६३ जाइ दयो धरि राखत है पट, नाथ सनेह सबेगि बुलाये। सीत लगै हम बेग निवारहु, भौत उढ़ावत कंप उठाये। फेरि कही तब आगिहु बारत, जात नहीं सुनिकै सरमाये । दास बुलाइ जड़ावलि पूछत, देत बताइ सवै न बताये ।।२६४ नांहि सुनी तिपुरा कहि दारिद', मोटहु थांन बिछाइ सु राख्यौ । बेग मंगावत ब्यौंत सिवावत, ठढि नसावत बीठल भाख्यौ। धारि लयो तन सुक्ख भयो मन, ठंढि गई प्रभु आप न दाख्यौ। हेत दिखावत भक्त हु भावत, प्रेम-रसाइन को रस चाख्यौ ॥२६५
मूल छप श्रीवल्लभ-सुत बिठलेस के, सपत-पुत्र हरि भक्ति पर ॥
गिरधर, गोकलनाथ, प्रेमसर सूभर भरिया। गोबिंद पुनि जसबीर, पीब गोवरधन धरिया। बालकृष्ण, रुघनाथ, माथ श्रीनाथ उपासी।
श्री कृष्ण पगे घनस्यांम, रनि-दिन करत खवासी। ये गादीपति राघो कहै, जग मैं माने नारि-नर । श्रीबल्लभ-सुत बिठलेस के, सपत-पुत्र हरि-भक्ति-पर ॥२०६ सोभित बल्लभ-बंस मैं, गिरधर श्री विठलेस-सुव ॥टे०
च्यारि पदारथ भक्ति, देत उत्म अनपाइन । सास्त्र बेद पुरांन, ग्यांन सब ग्रंथ परांइन । सेवा पूजा निपुन, नंद-नंदन मन मोहै।
नृषत परम पबित्त, अमी बरषत संग सोहै। राघव सरल सुभाव अति, दूजो कोई नांहि भुव । सोभित बल्लभ बंस मैं, गिरधर श्री विठलेस-सुव ॥२१० श्री गोकलनाथ अनाथ पै, दया करत अति गुन गंभीर ॥ क्रोध रहत मति धीर, मनों रतनांकर नाई। सुजस सकल संसार, प्रबत-पति सम गरवाई।
१. वारिद।
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