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चतुरदास कृत टीका सहित
_____ मूल : मंगलाचरण-वर्णन दोहा छंद नमो परम गुर सुद्ध कर, तिमर अग्यांन मिटाइ।
आदि अजन्मां पुरुष कौं, किंहि विधि नर दरसाइ ॥१ नरपद सुरपद इंद्रपद, पुनि हि मोक्षपद मूर। सदगुर सो द्रिब द्रिष्टि द्यौ, अन्तर भास नूर ॥२ (अब) कहत परमगुरु प्रष्ण' हदयौ परमधन दाखि । भक्त भक्ति भगवंत गुर, राघव अ उर राखि ॥३ प्रथम प्रणम्य गुर-पादुका, सब संतन सिर नाइ।। इष्ट अटल परमातमां, परमेसुर कृत गाइ ॥४ बिष्णु बिरंचि सिव सेस जपि, जती सती सिद्धिसैरण। बागी गणपति कविन कौं, चवें चतुर विग-बैंग ॥५ अब अरज भक्त भगवंत सौं, गरज करौ गम होइ। हरि गुर हरि के आदि भृति, जन राघव सुमरे सोंइ ॥६ व्यापिक ब्रह्मण्ड पच्चीस मधि, सुरग मृति पाताल । भक्तन हित प्रभु प्रगट ह, राघव राम दयाल ॥७ सत त्रेता द्वापर कलू, ये अनादि जुग च्यारि । राघव जे रत राम सू, संत महंत उर धारि ॥८ भक्त भक्ति भगवंत गुर, अ मम मस्तक मौर। राघव इनसौं बिमुख ह, तिनकू कतहु न ठौर ॥ भक्त भक्ति भगवंत गुर, ये उर मधि उपवासि । राघव रीझ रामजी, जांहि बिघन-क्रम नासि ॥१० भक्त बड़े भगवंत सम, हरि हरिजन नहीं भेद ।। अरस परस जन जगत गुर, राघव बरणत बेद ॥११ हरि गुर प्राज्ञा पाइक, उद्यम कीनों ऐह । जन राघौ रामहि रुच, संतन को जस प्रेह ॥१२ भक्तमाल भगवंत कौं, प्यारी लगे प्रतक्ष । राघव सो रटि राति दिन, गुरन बताई लक्ष ॥१३
१. प्रसन्न।
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