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राघवदास कृत भक्तमाल
समद समाइ न पेट में, को सिर धरै सुमेर । असो बकता कौन है, अनुक्रम बररण लेर ॥१४ गुर दादू गुर परमगुर, सिष पोता परजंत । प्रागै पीछे बरनते, मति कोई दूषौ संत ॥१५ हूं कछू समझत हूं नहीं, महल मिसली की बात ।।
जगतपिता सम जपत हूँ, हरि हरिजन गुरु तात ॥१६ छपै छंद गुर उर मधि उपगार करत, कछू तथा न राषी।
श्रब'लक्षन श्रब कृपा सकल, भिन भिन करि भाषी। रती एक रज (मो) प्रापि, काच तै कंचन कीनौं। . जत सत ज्ञान बिबेक, धर्म धीरज दत दीन्हौं । श्री गुर धुर तारण-तिरण, हरण बिघन त्रिय ताप सुव ।
(अब) राघव के रक्षपाल तुम, बिकट बेर मधि बाप जुव ॥१ नीसाणी दिनकर को जो दीवो, जिती ले जोति दिखावै ।
सिसि कौं सीरक सींक भरे, सनमुख सिर नावै । बाणी गणपति कौं ज, गुणी ह' अक्षर चढावै ।
भजन भक्ति जग जोग कृत सिव सेस मनावै । श्रोत्र · बृति सनकादिक, मुनि नारद ज्यूं गावै । राघव. रीति बड़ेन की, का पै बनि प्रावै ॥२ मगन महोदधि है भर्यो, जन पूजत डरपै। वह गंभीर गहरौ भर्यो, यह तुछ जल अरपै । रती यक किरची कंचन की, ले मेरहि परसै।
देखत निजर न ठाहरै, कंचनमय दरसै। जैसे सुरतर कौं धजा, रचि पचि प्ररप नैक नर । त्यं रघवा इत पूजिक है, उत हरिजन त्रिय ताप हर ॥३
गुर गौबिद प्रणांम करि, तबहि गम तौकौं होइ है। च्यार्यों जुग के संत, मगन माला' ज्यौं पोइ है । नग रूपी निज संत, पोइ प्रगट करि बांरणी । गगन मगन गलतांन, हेरि हिरदा मधि प्रांणी ।
१. श्रब।
२. कृया। ३. द्वे । ४. वहै। ५. माया ।
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