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चतुरदास कृत टोका सहित
मंगल रूपी मांड महि, हरि हरिजन तारन तिरन। भृत्य करत विरदावली, जन राघव भरिण भव दुख हरन ॥४ नमो नमो कवि ईस, भये जेते सत त्रेता । द्वापर कलिजुग आदि, तिरन तारन ततबेता। नमो सुति समृति, नमो सास्त्र पुरांनन । नमो सकल बकताब, नमो जे सुनत सुकांनन । मैं गम बिन ग्रंथ प्रारंभियो, कविजन करिहैं हासि। अब सिलहारे कौं को गिन, जन राघव ताकै' रासि ॥५
ॐ चतुर निगम षट सास्त्रह,गीता अरु बिसिष्ट बोधय । बालमीक कृत व्यास कृत, जपें जो करहि निरोधय । प्रथम प्रादि नवनाथ, भरणहु चतुरासी सिधय ।
सहस अठ्यासी रिष, सुमरि पुनरपि कवि बिधिय । सिध साधिक सुरनर असुर, श्रब मुनि सकल महंत । अब श्रब अरज अवधारिज्यौ, जन राघवदास कहंत ॥६
मनहर
छंद
अंगीकार प्राप अविनासी जाकौं करत है,
. सोई अति जान परवीन परसिधि है। सोई अति चेतन चतुर चहुं चक मधि,
बांरणों को बिनापी बिस्तार जैसै दधि है। जोई अति कोमल कुलोन है कृतज्ञ बिज्ञ,
रिद्धि सिद्धि भगति मुगती जाकै मध्य है। राघौ कहै रामजी के भाव सौं भगत भरिण,
बात तेरी जैहै बरणी बांरणी तेरी बृधि है ॥७ मया दया करिहैं देवादिदेव दीनबंधु,
तब कछु हहै बुधि बांणी की बिमलता। जैसी शसि कातिग में श्रवता अमि असंखि,
निखरि के होत नीकी नीर की नृमलता। रजनी को तिमर तनक मधि दूरि होत,
दोसै बित बस्त भाव दीपक ह जलता।
१. जिनकै ।
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