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राघवदास कृत भक्तमाल
राघौ कहै जाकी बरणी सुरिण गुरिण होत सुधि,
नीति के बिचारे बिन धर्म नांहीं पलता ॥८ कंडलीया छंद मया दया करि मांन दे, अंत्रजांमी पाप ।
सोई कबि कोबिद सिर, जपं अजपाजाप । जपे अजपाजाप, पाप-त्रिय-ताप न व्याप ।
प्रासा जीत प्रतीत, भजन सूं कबहुं न धापें । त्रिपति ज्ञान विज्ञान सूं, श्रव नख-सख धुनि होई। जन राघौ रटि सोई राम जन, यों भक्तमाल उर पोई ॥९
प्रब राघव नमो निरंजन, मेटहु अंग अंधेर कौं। नमो विष्णु-विधि सिवहि, सेस सनकादिक नारद । नमो पारषद भक्त, नमो गणपति गुरण शारद । स्वांभू मनु कासिव, दक्ष दधीचहि बन्दन । क्रदम अथरवा धर्म, करन सो क्रम निकंदन । नमो सुराधिपति सूर ससि, नमो सुबरण कुबेर कौं। अब राघव नमो निरंजन, मेटहु अंग अंधेर कौं ॥१०
मनहर छंद
नमो नमो नमो निराकार करतार जपि,
विष्णु विरंचि सिव सेस सीस नाई हूँ। द्वादस भक्त नमो दस षट पारषद,
नमो नव नाथ जु चौरासी सिध गाइ हूँ। देव सर्व रिष सर्व निरखी नक्षत्र श्रब,
जती षट सती सप्त बीस हूँ मनाई हूँ। तत्व कॅन वीस त्रयलोक मध्य जे प्रसिधि,
रघवा रटत प्रतक्ष कब पाई हूँ ॥११ नमो बिस्वभरन बिसंभर बिधाता दाता,
विष्णु जु बैकुण्ठनाथ मेरौ बल तेरौ है। लक्ष्मी चरणसेव बाहण गरुड़देव,
प्रायुध चकर कर तीनों लोक डेरौ है। द्वादस भक्त संग दस षट पारषद,
भगतबछल बृद भीर परे नेरौ है।
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