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राघवदास कृत भक्तमाल फूल भये रस पंचम रगन, थाकद्रे १ यह दाम बनाई। राघव मालनि लै करि सांम्हनि, सुन्दर देखि हरि मन भाई। डारि लई गरि प्रीति घणी करि, काढ़त नांहि न' अन सुहाई। भार भयो बहु भक्तन की छबि, जानत हैं इन पांइन आई॥५
सतसंग-प्रभाव पौधि भगत्य बिधंन सबाकर, भोत बिचार सु बारि लगाई । साध समागिम पाइ वहै जल, प्रौढ भयौ अति डार वधाई। थांवल संत रिदौ बिसतीरन, जीव जिये दुख ताप नसाई। छेरनि को डर जाहि हुतौ बहु, ज्यौरि बढ्यौ मतगेंद झुलाई ॥६
राघवदासजी को वर्णन संत सरूप जथारथ गाइउ, कीन्ह कवित्त मनूं यह हीरा। साध अपार कहे गुन ग्रंथन, थोरहु प्रांकन में सुख सीरा। संत सभा सुनिहै मन लाइ र, हंस पिवै पय छाडि र नीरा। राघवदास रसाल बिसाल सु, संत सबै चलि आवत कीरा ॥७
श्री भक्तमाल-सरूप-वर्णन दीरघदास पढे निसवासुर, पाप हरै जग जाप करावै। जानि हरी सनमान करै जन, प्रीत धरै जग रीति मिटावै। कौंन अराधि सके उन भक्तन, ठीक न ठाक मनों भय आवै। माल गरै तिलकादिक भाल सु, माल भगत्त बिना रुलि जावै ।।८ संत हरी गुर सौं जन सौं मुख, टेक गही वह भक्त सही है। रूप भगत्य सुनौं चित लाइ र, नांव लये द्रिग धार बही है। भक्तन प्रीति बिचार तवै हरि, झूठि उठांवन कृष्ण कही है। लै गुर की गुरताइ दिखावत, श्री पयहारि निहारि मही है ॥६
१. थाकन्दे गूथा। २. ताहि न ।
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