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राघवदास कृत भक्तमाल
फूलि गयो तन छेद रह्यौ फसि, होइ खुसी प्रति बैन सुनायो । सिर काटजु स्वांगन निंदत, कांम भयौ सिधि यौं समझायो ||४४२ कालियो सिर ज्यौं प्रभु भावत, जीवत नैं परिचाहि पगी है । देह तजौं मम आस न पूजत, जात उहां हरि नीव लगी है । सोच भयौ लखि और बनावत देखि लयो वह चित भगी है । दोउ मिले हरि धाम करावत, हौत सुखी भल बुधि जगी है ||४४३ हंस प्रसंग की टोका
कोट भयो नृप के नहि जावत, काहु कह्यौ तुम हंस मंगावौ । afr बुलाइ बधिक्कन सूं कहि, होइ जहां फिरि ढूंढ र ल्यावौ । ल्यां हि क्यूं करि मान-सरोवर, छूटहूगे जब च्यारि खिनावौ । जाति पिछांनत देखि उड़े उह, साधन धीजत भेष बनावो || ४४४ स्वांग बनाइ गये जित हंसहि देखि बंधे नृप पासिह आये । सार लख्यौ मत बैद भये हरि, पूछन रे नृप के ढिग ल्याये । पंखिन कूं पकड़ाइ लये हम, दूरि करें दुख छोड़ि मंगाये । वोषदि पीसि लगाइ दई तन, कौढ़ गुमाय र हंस छुडाये ||४४५ लौ तुम भूमि र गांव दयाल जु, भाग बड़े उनके घर प्रवौ । पाइ लयो सब संतन सेवहु दे [ह]धरी नर रांम रिभावौ । मांनि लई पुर देस भगत्ति सु. लै बिसतारत हंस प्रभावौं । भेष भलो प्रभु पंखिहु मांनत, नांहि उतारत नाच नचावौ ||४४६
इंदव
छंद
माहाजन सदाव्रती स्यार" सेठ की टीका
सेठ सदाव्रति भक्तन कौ पन, सेव करौं मन लाइ बिचारी । संत अनंत पधारत हैं जिम, ग्राइ पर तिम लेत सुधारी । साध रह्यौ घरि मांनि घरगौं सुख, पुत्र सनेह सु संगि खिलारी । ईस इच्छा मुखि लालच गौंनहु, मारि घरघौ धरनी पछितारी ॥४४७ मात निहारत पुत्र कहां मम, बीति गयो दिन भौंन न आयौ । डौंडि दिवावत दंपति संत रु, ढेरि कहैं सुत को बिरमायौ । देइ बताइ उनै सब भ्रन, साध बध्यौ सु सन्यासि जनायो । देह दिखावत वाप करावत, पुत्र हत्यौ हम रोई न पायौ ॥४४८
१ क्यों । २. इंडि । ३. ल्यौ ।
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४. नीच । ५. सार ।
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