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चतुरदास कृत टीका सहित
दूहा
छपै
कर कटे अरु धन लुट्यो, छटे सहरु को बास । बलभबाई यौं कहै, राम तुम्हासी आस ॥१ कर काटत सारे भये, जगन राघो श्रचिरज कथा ॥ सुत मांग्यौ जब नीर, तबै सरवर दिस्य धाई । कर मुँहेड़ा दिसि कीयो, हाथ ज्यूं के त्यूं भाई । पड्यौ नग्र मैं सोर, बृतांत नृपतही राजा नागे पाई, दोरि चरनौं सि[र]नायो । महमां भगत भगवंत की, नर-नारी नांवें माथा । कर काटत सारे भये, जन राधौ अचरज कथा ॥३
सुनायो ।
जांनि है ॥टे०
उपावं ।
प्रभु प्रष्ण भक्त मन, गोपि मतौ को श्रीरंगनाथ को धांम बनें सौ करें भयो सेव राजा इंद, रबि हित सिर कटवावं । बधिक भेष धरि चले, हंस या बिधि करि श्राव । पति बांनों की रखौ, समभि दोऊ पुत्र हत्यो जन जांनिकेँ, पुत्री दे बहु प्रभु प्रष्ण भक्त मन, गोपि मतौ कौ
बंधवावै ।
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मांमां भानेज की टीका
गोपित प्रतिमांम भानेजहु, तोष दयौ हरि कौं चित धारौ । दौउ चले घर तैं बन मैं इक, मूरति देवल रैत निहारे । रंग सुनाथ बिराजत दक्षन, धांम बनांवहि कांम निवारी | वैधन को फिरि हैं नहि पावत, हेरि थके सुनि यो सुबिचारी ॥ ४४० देवल जैन सु मूरति पारस, प्रारस नें श्रुति नून बतायौ । होइ सुखी हरि तौ त्रकतें किम, नांहि डरें इक कांन फुकायौ । सेव करी मन लाइ हरी मति, जैन समाज सबैहि रिझायौ । सौंप दो सब अब क्यूं करि, भेद सिलावट पे भल पायौ ॥ ४४१ भीतर मांम भनेजस ऊपरि, भौंर कली कल साह फिरायौ । मूरति बांधत खैचि लई उन, दूसर बेर उहू चढ़ि आयो ।
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मांनि है ।
जांनि है ॥२६२
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