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चतुरदास कृत टीका सहित
[ १४९ मैं स बताइ दयो न बिगारत', मोहि छुड़ावहु झूठ न भाख्यौ। नांव न लै जन जौ सुख चाहत, जा अनतें भल छोड़ न दाख्यौ। संत उदास बिचारत दंपति, दै पुतरी जन कौं घरि राख्यौ। पाइ परयौ तिय के पति बोलत, है पन मैं सुत को दुख नाख्यौ ॥४४६ साध बुलाइ कही तुम ल्यौ बरि, मोर सुता नहि साखत ब्याहै। मैं हतियौ सुत रोइ कही जन, नांव न ल्यौ मम जीवन क्या है। साध पनौं सुनि यौं धरि है सिर, नांहि रती मल मेर कह्यौ२ है। ब्याहि दई पुतरी उर दाहन, जीवत लौं घर मांहि रह्यौ है ॥४५० आत भये गुर है प्रचै सिध, संतन सेवइ नाहि बताई। पुत्र कहां तव पाय गयौ सब, भांति किसी जग मींच लगाई। पारस लै हरि मोहि कही खुलि', ले चलिये जित देह जराई। ठौर गये उहि ध्यान करयौं हरि, जीत भयो जग कीरति गाई ॥४५१
छपै
मनहर
सर्ब जुग माहीं रांमजी, संत-बचन साचौ कर ॥
भवन काठ तरवारि, सारकी काढ़ि दिखाई। बाल स्वेत हरि करे, दास देवो सरनाई। काष्ट कंमधुज काज, च्यारि कपि चिता संवारी। .
जैमल ह जुध कोयौ, भक्त की बिपति निवारी। भैसि चतुरगुन घृत लीये, संगि श्रीधर धनुधरै। सर्ब जुग मांहीं रांमजो, संत-बचन साचौ करे ॥२९४ रानां जू के कान लागि काहू ने कही पुकारि,
भवन की कमरि देख्यौ खांडौ बांध्यौ कांठ को। श्रब के बहानै सिरि मांगि लयो हाथि करि, . पलटि है गयो सार रुपैया सै पाठ को। भवनन' पवन बंचि अंतर पाराध कीनौं,
राम राम राम धुनि पार नहीं पाठ को। राघौ कहै रांग दौरि पाव गहे हाथ जोरि,
साचौ खांडौं तेरौ भवन पौरि झूठ-माठ कौ ॥२९५
छंद
१. बिगारस। २. कह्या। ३. रहा। ४. पुलि। ५. मन ।
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