________________
भूमिका
पारस रूपी पादुका, चम्बक रूपी बैन। राघो सुनि मृतक जिये, भागे मिथ्या दैन ॥५॥ मृतक लौचे (?) मुनि भज, देव करें पाराध । जन राघो जगपति खुसी, भक्ति उजागर साध ॥६॥
__ अंग विरक्तताई जे जन प्रासाजित भये, ता जन को जग दास । राघो जे आसा सुरत्त, ते करहिं जगत को पास ॥६॥ आसा तृष्णा जिन तजी, जे त्रिभुवन पुजि पीर । राघो शोभित अति खरे, हरि सुमरण कंठ होर ॥८॥ इन्द्रीजीत विज्ञान में, हृदं रह्यो हरि पूरि।। जन राघो रुचि राम सौं, माया निकट न दूरि ॥१२॥
शब्द को अंग वह पुदगल वह प्रांगण मन, वह नख नासा नैन । हाथ पांव पलटे नहीं, राघो पलट वैन ॥३॥ शब्दै हुँ निपजे साध, शब्द सु सेवग सोझिहिं । राघौ शब्द सु वस्तु, शब्द सु साहिब रीझिहिं ॥१०॥ राघो बोलत परखिये, बोल मनुष को मोल। . इक मुख तें मोती झडहिं, इक मुख सेती टोल ॥१७॥
उपदेश को अंग धर्म बडो धर ऊपर, जे करि जारणे कोइ।
राघो जग में जस रहै, हरि दर कष्ट न होई ॥ ३॥ .प्रासा भंग प्रतीत को, गृह प्राये जे होइ ।
राघो सुकृत ले गये, अकृत जाइ समोह ॥१५॥ सत सुकृत दोऊ बडे, सत ते बडो न कोई। राघो सत तप रूप है, सत तें सब कुछ होइ ॥१८॥ भौ जल सिन्धु अगाध है, बूडत प्रदत प्रकाज । राघौ धन धर्मात्मा, बान्धी धर्म को पाज ॥२०॥
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org