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भक्तमाल
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राघोदासजी को वाणी
कलजुगो को अंग अरिल कलजुग कठिन कठोर न कसके पाप सौं।
सुत शैतान्यां कर अवश मां बाप सौं॥
चेला गुरु सु गुप्त दुरावै दाम रे। परि हाँ ! राघौ छोडी रीति मिलें क्यों राम रे ॥ १॥
कलि अपने बल जीति राज अपनो थप्यो। तिन सौं वैर प्रसिद्ध राम जिन जिन जप्यौ ॥
हरिजन हरि की ओट सबल के पास रे। परि हाँ ! राघो कलि के रोर न पावै पास रे ॥ ४॥
कलि केवल हरि नाम रटत रोजी मिले। विघ्न दोष दुख द्रुमति होत विग्रह टलै ॥
और जुगनि मधि जोग जाप जप तप सरे। परि हाँ ! राघो कलि मधि राम जपत नर निसतरै ॥ ६॥
पाखंड प्रपंच झूठ कपट कलि मैं घनो। प्रदेख्यो अहंकार वहौत कहां लग गिनौं ।
परनिन्दा परद्रोह छिद्र पर नित तक। परि हाँ ! राघो राम विसारि अधम प्रानहि वकै ॥१०॥
चितावणी को अंग कोडीधज वाजार वैठते वांरिणयें। दुनियादार सराफ जगत मैं जॉरिणये ॥
होरा मोती लाल महर थेली भरी। परि हाँ ! राघो नाँव काम काल वरियां तुरो ॥ ३॥
कर कछु नेको नीति बदी बेराह तजि । परवरदिगार खुदाइ प्रेम परिपूर भजि ॥
करि लै खूवी खैर दुनी है पेखना । परि हाँ! राघौ दोजख भिश्त यहाँ ही देखना ॥१२॥
राम विना सब धन्ध अन्ध कछु चेत रे। तन मन धन सर्वस्व अर्प हरि हेत रे॥
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