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________________ भक्तमाल मनहर अग्र गुरु नाभाजू कं प्राज्ञा दिन्ही कृपा करि, प्रथम ही साषी छपै कोन्ही भक्तमाल है। तैसे ध्र प्रहलादजु विचार कही राघो जु सौं, करौ सन्त-प्रावली सु वात यो रसाल है। लई मान करी जान घरे पान भक्त सब, निर्गुण सगुण षट-दरशन विशाल है। साषी छप्पै मनहर इन्दव अरेल चौपे, निसानी सवईया छंद जान यों हंसाल है ॥ राघोदासजी ने भक्तमाल की समाप्ति पर कालज्ञापक दोहा भी लिखा है - दोहा सम्वत् सत्रहै सै सत्रहोतरा, शुक्ल पक्ष शनिवार । तिथि तृतिया अषाढ़ की, राघो कियो उचार ॥ सत्रह से सत्रोहतरे से १७७७ तो स्पष्ट प्रतीत होता है। पुरोहित हरिनारायणजी ने 'सुन्दर ग्रन्थावली' की भूमिका में सत्रह सो सत्रोहतरे को १७७० माना है। मेरी समझ से १७१७ ही अधिक उपयुक्त है, क्योंकि भक्तमाल में प्रशिष्यों तक का हो उल्लेख है। १७७० सम्वत् यदि भक्तमाल की रचना का हो, तो तब तक तो प्रशिष्यों के भी प्रशिष्य हो गये थे। भक्तमाल का रचनाकाल अट्ठारहवीं सदी का प्रथम चरण ही संगतिपरक है। राघोदासजी ने भक्तमाल से भिन्न वारणी तथा लघु ग्रन्थों की भी रचना की है। उनकी वाणी में साषी, अरिल तथा पद भाग हैं। पद अंगों में १६३७ साषियें हैं। अरिल के १७ अंग हैं, तीन सौ सत्तर अरिल हैं। राग २६ में १७६ पद हैं। लघु ग्रन्थावली में, १ हरिश्चन्द्र सत, २ ध्रुव चरित्र, ३. गुरु-शिष्य सम्वाद, ४ गुरुदत्त रामरज, ५ पन्द्रहा तिथि विचार, ६ सप्तवार, ७ भक्ति जोग, ८ चिन्तामरिण ज्ञान निषेध है। १३ अंग कवित्तों के हैं, जिनमें करीब सवा-सौ कवित्त हैं। भक्तमाल से भिन्न रचनात्रों के कुछ उद्धरण नीचे दिये जाते हैं, जिनसे राघोदासजी के रचनाकार के रूप का और भी विशद परिचय प्राप्त होगा: वारणी अंग साषी भाग साध महिमा अंग गगन गिरासी विमल चित, अजर जरावरण हार। जन राघो वे सन्त जन, छन्द मुक्ति संसार ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003832
Book TitleBhaktmal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghavdas, Chaturdas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1965
Total Pages364
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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