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भूमिका जिले में सम्मिलित हो। राजगढ़ से रहले तथा रहले से घाटडे जाया जाता है। अब भी घाटडे में प्रह्लाददासजी महाराज की परम्परा का मान्य स्थान है, जिस परम्परा में इस समय महन्त पाशारामजी विद्यमान हैं।
प्रह्लाददासजी के कई शिष्य हुये थे, उन्हीं में प्रमुख थे हरिदासजी महाराज। इन्हीं के अनेकों शिष्यों में अन्यतम शिष्य राघोदासजी हुये हैं। ये पीपावंशी चांगल गोत में उत्पन्न हुये थे। इनके पिता का नाम हरिराज तथा माता का नाम रतनाई था। शायद इनकी बहन का नाम केसीबाई था। इन्हीं को प्रेरणा से इन्होंने शिकार तथा मद्य-मांस का परित्याग किया था, जैसा कि इनने स्वयं उल्लेख किया है :--
नमो तात हरिराज नमो रतनाई माई। जीव वध मद मांस छुडायो केसीबाई । सत संगति गति ग्यांन ध्यान धुनि धर्म बतायो। हरीदास परमहंस परष पूरो गुरु पायो । राघो रज मो पायक रामरत उमग्यो हियो।
दादूजी के पंथ को तव ही तनक वर्णन कियो ॥३५॥ चौपाई पीपावंशी चांगल गोत। हरि हिरदै कोनो उद्योत ॥
भक्तिमाल कृत कलिमल हरणी। प्रादि अन्त मध्य अनुक्रम वरणी॥ साध संगति सति स्वर्ग निसेरणी। जन राघव प्रगतिन गति देरणी॥
उक्त संदर्भ से उपरोक्त विवरण की पुष्टि होती है। राघोदासजी घाटडे से फिर "उदई" ग्राम चले गये थे। वहीं उनका समाधि-स्थान है। राघोदास जी के पश्चात् उनकी परम्परा में महात्मा कुखदासजी सिद्ध पुरुष हुये। करोली नरेश उनमें अत्यन्त श्रद्धा रखते थे। करोली में महाराज कुञ्जदासजी का स्थान
आज भी 'कुञ्ज' के नाम से प्रसिद्ध है। कुञ्जदासजी के पश्चात् राघोदासजी की परम्परा का स्थान करोली में ही आ गया। 'उदई' की जमीन आदि सब अब इसो स्थान के अधीन है। वर्तमान में, राघोदासजी की परम्परा का यही स्थान है। महाराज करोली ने एक ग्राम भी कुंजदासजी महाराज को समर्पित किया था, जो राजस्थान के एकीकरण होने से पहिले तक 'कुंज' के महन्तजी के अधिकार में था।
महाराज राघोदासजी अच्छे सुशिक्षित व कवि-गुणों से विभूषित थे-यह उनकी रचना से स्पष्ट है। उन्होंने महाराज प्रह्लाददासजी की प्रेरणा से प्रेरित हो "भक्तमाल" की रचना को थी, जैसा कि टीकाकार चत्रदासजी व्यक्त करते हैं:
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