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चतुरदास कृत टीका सहित
[ ५७ मूल दास रैदास की पैज रही निबही, सर्व लोक सिरै मधि कासी। विप्रन बाद कियो यह जांनिक, सूद्र क्यूँ सालिगराम उपासी । टेक यहै बटवा बिचि राखहु, जाहिक प्रीति है ताहिक प्रासी । राघो कहै गये दास रयदास पैं', प्रोति खुसी हरि जाति न जासी ॥१३२
टोका
गढ़ चितोर हि भूप तिया सिषि, आइ हुई उस नाम मुझाली । साथि कई द्विज देखि उठे दझि, भूपति मैं स सभा मिलि चाली। भांति उहीं धरि है बिचि ठाकुर, पाठ करै द्विज है सब खाली। गावत है पद हौ अघ-मोचन, अाइ लगे उर प्रीति सु पाली ॥१२३ देसि गई फिरि कागज भेजत, प्राइ दया करि पावन कीजै । आप चितौर गये धन वारत, ब्राह्मन पावत पांहूं जिमीजै । जीमन कौंज लगे जबहि दिज, दोइन मैं रयदास लखीजै। आम्हनि सांम्हनि पेषि भये सिष, काटि र कंध जनेउ दिखीजै ॥१२४
पीपाजी को मूल [पीप सिंघ प्रमोधियो, जगत बात बिख्यात है।] देबी द्वादस बरष, सेय करि मांगत मुक्ति । सक्ति साच कहि दई, लाइ मन करि हरि-भक्ति । श्रीरामांनंद गुर धारि, करयौ अति भजन अनूपं । परचा पद परसिधि, धरे उर संत सरूपं । परस पछौ4 सरस पुनि, जन राघो प्राक्षात है।
पीपै स्यंघ प्रमोधियो, जगत बात बिख्यात है ॥१३३ इंदव देवी दयाल भई दत देन कौं, मांगि जितो मन भावत पीपा। छंद जन के मुख तें यह जाब भयो, मोहि मोक्ष करौ जननी सत दीपा ।
दोन भई दुरगा मुख भाखत, मोक्ष र मोहि नहीं छल छोपा। राघो कहै गछि ज्ञान के मारग, राम भजौ रामानंद समीपा ॥१३४ दक्षिन देस नरेस वडै कुल, राम के काम कौं रावत पीपा। रज को रज मां प्रगट्यौ अज मां, अजबंस की छाप को अंस उदीपा। कांम कलेस प्रवेस न पाखंड, सीतार है दिन राति समीपा ।
राघो कहै भजनीक भलौ भड़, नांव की तेग सूं नौखंड जीपा ॥१३५ १. के। २. सुझाली।
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