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राघवदास कृत भक्तमाल
टोका मत- भूप गयो गढ़ गाग्रुन कौ, पुनि सेवत देबिहि रग लग्यौ है। गयंद चक्र हुतौ पुर संत पंधारत, चूंन दयो हरि भोग पग्यौ है।
सैन करयौ रजनी सुपनै महि, भूप पछारत रोइ भग्यौ है। आपन कौं न सुहात फिरयौ मन, देबि परी पगि भाग जग्यौ है ॥१२५ जांनत है सब स्यांन भई नृप, जात बनारसि स्वामिहि पासा। जांन लग्यौ सुगुरू ढिग अंदर, द्वार सु रक्षक बर्जत तासा । जाइ कही प्रभू भूपति प्रावत, मा इक काम न आप उदासा । बेग लुटावत कूप परौ अब, जात परन्नहि देत हुलासा ॥१२६ दास करयौ कर सीस धरचौ उर, नांव भरचौ कहि जाहु उहांहीं । साधनि सेवत दे धन धांमहि, कीरति आइ कहै हम प्रांहीं। आइस पाइस प्रावत स्वै पुर, वैहि करी जन प्रीति करांहीं। कागद भेजत बोल करौ सति, चालिस संत सुसंगि चलांहीं ॥१२७ साथि कबीर रदास हि यादिक, सैर कनै सुखपालहि ल्यायौ। लागि पगां सब कौं परनांमहि, मांहि पधारत माल लुटायौ। सेव करि निति मेव मिठाइन', राग करे गुण जीभ न मायो। देखि भगति मगंन भये सब, बैठि रहौ कहि साथिहि ध्यायो ॥१२८ साथि चली त्रिय द्वादस बर्जत, मानत नांहि घरणी डर पावै। फारत कंबल ज्यौ२ गलि मेखलि, भूषन दूरि करौं मन भावै।
आम्हन साम्हन देखत भांमनि, रोय चली इक सीत रहावै । नांखिहु याहि तब बहु डारत, नागि भई गुर कंठि लगावै ॥१२६
मनहर
छंद
मूल असौ सूर-बीर न सरीर संक मान नैक,
पीपौजी प्रचंड नवखंड मध्य गाइये। सीताजी सदन तजि मदन को मारयौ मान,
. नगन है नांची त्रिहूं लोक मैं सराहिये। छाडि दीन्हां भोग भछि स्वामी संगि चली गछि,
___ कामरी कमरि सिर मांगी भिक्षा पाइये।
१. निठाइन।
२. ल्यो।
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