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चतुरदास कृत टीका सहित
[ ५९ रघवा रतीक प्रसि पीपोजी पारस अंग, उधरे हैं ताकै संगि अनंत बताइये ॥१३६
टीका इंदव आप दया करि द्यौ अब काहुक, मैं न रखौं इन साच कही है। छंद सौंह कढावत साथि लई जब, चालत ही दिज पात मही है।
और लयौ उन ज्याइ पठावत, चालि सबै हरि धाम लही है। कोउ दिनां रहि मांगत आइस, सागर डांकि परे सु गही है ।।१३० लैन पठाइ दये हरि स्वै जन, देखि पुरी फिरि कृष्ण मिले हैं । कंचन म्हैलन म्हैलन क्रीड़त, सात दिनां सुख पाइ भले हैं। देव कहै जइये अब बाहरि, मांन तनै हरि रूप झिले हैं। डूबि रह्यौ जन व अपकीरति, ब्याकुल हद डर मांनि चले हैं ॥१३१ साथि भये नवडावन कौं हरि, प्रेम बधे जन बाहरि आये। लेत पिछांनि सबै इक आचर्य, अंबर भीजत देह सुकाये । छाप दई जग पातग काटहु, ऊठि चलौ कहि सीत जनाये। मारग चालत तुर्क मिल्यौ इक, खोसि लई तिय रांम छुड़ाये ।।१३२ जाहु अबौं घर नारिहि कौं डर, रांम न जानहु यौं उठि बोली। पारख लेत सुहै हरि हेत, सुनी निहचै तब अतर खोलो। मारग दूसर जात मिल्यौ हरि, दे उपदेस मिटावत रौली। सेष सज्या हरि देखि धनेर हि, बांस हरे करि चींधड़ छौली ।।१३३ भक्तन देखि कहै तिरिया, पति नै घर मैं कछू प्रीति कराई। बेस उतारि रु बेचि लयो अन, पाक करौ तिय देत छिपाई । भोग लगाइ रु जीमन बैठत, ल्यौ तुम दंपति पीछे रहाई। जो तुम पावत तौ हम पावत, सीत गई वत नग्गन सु पाई ।।१३४ बेस कहां तुम यौहि रहै हम, संतन सेव करै इम बाई । प्रावत साध अनंद अगाधहि, देह रहौ किम बात न भाई। फारि दियो पट बांधि कह्यौ कटि, हाथह बँचत बाहरि पाई। भक्त यहै हम भक्त कहावत, होइ इनौं पहि स्वामि सुनाई ।।१३५ बारमुखी बरिण ल्याइ धरै धन, चालि गई जित नाजहि ढ़ेरी। प्रावत लोग नखै द्रिग रोग रु, चाहत भोग कटाक्षहि फेरि ।
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