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राघवदास कृत भक्तमाल
को तु बता इम पातरि आहि, यहै भरवा सुनते परि बेरी। रोक रु नाज दयो सब साज', सु चींधड़ देतहि जात निबेरी ॥१३६ ढोडहि आवत भूखन धावत, दांमहि पावत जाव नहांनै । भूमि गड्यौ चरवा लखि म्हौरन राति कही त्रिय बात सु वान । चोर सुनी धन पासि गये, खनि देखि भुजंग हतै उन प्रांन । डारि दई गनि के सु लई सत-सात र बीस तुला पच गानें ॥१३७ आवत द्वारि जिमावत है जिनि, साधन दे दल बेगि खवायौ। तीन दिनां महि सर्व लुटावत, सूरज भूप तबै सुनि धायौ। दर्सन देखि भयौ अति पर्सन, देहु दक्षा हम सौ हम भायौ । जो मन पावत सोउ करौ अब, ल्याइ धरौ सब रांणिन ल्यायौ ॥१३८ पारख ले करि नांव दये फिर, नारि दई परदा मत कीजै । माल दयो कुछ राखत संत न, मांन नहीं नृप राम भजिजै । भ्रात बरे सुनि सूरज के, परताप बड़ौ जन जाइ न खीजे। बैल बिसाह न नाइक आवत, हासि करी जनकै बहु लीजे ॥१३६ नाइक जाइ धरे रुपया तुम, धौष यला सब गांव रहावै। छोड़ि गयौ लखि साध बुलावत, जोमत प्रावत ल्यौ मन भाव । भक्तन देखत भक्ति भई उर, अंबर ल्याइ रु पाप उढ़ावै । बाज चढ़े सर न्हांन बड़े छड़ि, बांधि लयौ रपि चालत पावै ॥१४०
आप गयो घरि साध पधारत, नाज नहीं कहुँ जा(इ) करि ल्याऊं। बसि बिषी त्रिय देखि लुभावत, ल्यौ सबही तुम रैंनि रहांऊं। जीमत प्राइ गये बिधि बूझत, बात कही सति मैं निसि जांऊं। अंग बनाइ चली बरषै घन, कंध चढाइ लई पहुचांऊं ॥१४१ ऊपरि भेजि दई तरि बैठत, सूकि पगां जननी किम आई। कंध चढाइ रु ल्यावत स्वामिन, है सु कहां तरि लागत पाई। काम करौ न डरौ मन मैं तुम, दे कर माल स मोलि लिवाई। बोल न आवत नीर बहै द्रिग, जांनि भयो सुध भक्ति दिढ़ाई ॥१४२ बात गई यह भूपति मैं द्विज, है यकठे बिप्रीति कहाई। प्रीति घटी नृप की बुधि नून स, जानत नैं यह भक्ति बधाई।
१. साच । २. दया।
३. गये।
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