________________
राघवदास कृत भक्तमाल
टीका इंदव रामहि नंद सुसिष्ष भलौइ क, ब्रह्म सु चारिहु चूनहि ल्याव । छद बैस्य कहै इक चूंन हमारहु, ल्यौ तुम बीस-कबार' सुनावै।
मेह भयो तब बापहि ल्यावत, भोग धरयौ हरि ध्यान न आवै । रे किम ल्यावत बूझि मगावत, ढेढ बिसाहत श्राप चलावै ॥११६ नींच भयो सिसु खीर न पीवत, या दिसु पूरब बात रहाई । अंबर बैन सुन्यौं रमनंदहि, दंड भयो मनि यौं चलि जाई। देखत पाइ परे पित-मातहि, सीस धरचौ कर पाप नसाई । बोबन पीवत यौं पन जीवत, ईसुर जांनत फेरि भुलाई ।।११७ साधहि सेव लगे रयदास जु, मात-पिता स जुदा करि दीया। संपति ठांव दिया न हुता बहु, याहु तिया पति नांव न लीया। जूतिन गांठि निबाह करै तन, और उपांनत संतन कीया। सालगरांमहि छांनि छवावत, आप सवा हरि बांटहि धीया ॥११८ पावत कष्ट गर्ने न भज हरि, संत सरूप धरे प्रभु आये। भोजन पान कराइ रिझावत, लेहू करौं सुख पारस ल्याये । पाथरढी मन सुं नहि काम, भजै इक राम बहौ समझाये। हेम दिखाइ दयो घसि रांपि न, हाथि दयो धरि छांनि पिखाये ॥११६ मास तियौं दस बीति गये हरि, पूछत है जन पारस रीतं । ल्यौ वहि ठौर समोड़ र चौरस, द्यौ किहि और स पावत भोतं । लै फिर जात सुनौं नव बात, महौरहु पांच दई निति धीतं । पूजन हुं करते भय मानत, राति कही प्रभु राखत जीतं ॥१२० प्राय समांनि चरणावत मंदिर, साधन राखि भली बिधि चीन्हीं। तांनि बितानह ठौरन ठौरन, भाव भगति कोरति कीन्ही। राग र भोग करै बिधि बिद्धिन, ब्राह्मन बैर धरै बुधि दीन्हीं। आप सिखावत बिप्रन कौं हरि, नीच तिया महलाइत भीन्हीं ।।१२१ प्रेम सहेत करै निति पूजन, यौं रयदास छिप्यौहि लड़ावै। तौहु सिलावत भूपति कौं दिज, होइ सभा मुखि गारि सुनावै । दाम बुलाइ कहै नृप जोर न, न्याव करै हरि गैल छुड़ावै । राखि सिंघासन दोउन के बिचि, तेउ बड़े जिन पै प्रभु प्रावै ॥१२२
१. कबीर।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org