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चतुरदास कृत टीका सहित
[ ५५ फेरि कह्यौ मम धाम चलौ अब, जौर भजौत रहौ बुधि पागी।। फूल मंगाइ मगैहर सोइ र, भक्ति दिपा इम ले बपु सागी ॥११५
. मूल दास कबी र की तेग तिहूं पुरु, है धुर धाक पुकारत माया। काम र क्रोध से जोध जुगति सूं, मारि मरद नै गरद्द मिलाया। रामहि राम रटयौ न घटयौ पन, त्यागि तिरग्गुरण नृगुरण गाया। ज्ञान-गदा श्रबदा उर आयुध, राघो कहै भुव भार मिटाया ॥१२८ दास कबीर धर्म की सीर, तिहूं पुर पीर गंभीर गंभीरौ । जरणां जल रूप अनूप धरणी, सु बरणी कलि क्रांति ज्यूं हेम मैं होते। बिधनां बिधि सूं रधि दै रिभयौ, दिज कौं सब दोवटी दै पर पोरौ ।
राघो कह सब लोक के धोक देहि,सौ तप्यौ कलि-कालि कबीरौ ॥१२६ घनाक्षरी अजर जराइ के बजाइ कै बिग्यान तेग,
कलि मैं कबीर असे धीर भये धर्म के। मारयौ मन-मदन सो सदन सरीर सुख,
काटे माया मोह फंध बंधन भरम के। निडर निसंक राव रंक सम तुल्य जाकै,
सुभ न असुभ मांनै भै न काल क्रम के। जोति लीयौ जनम जिहांन मैं न छाड़ि देह,
राघो कहै रांम मिलि कीन्हें काम मर्म के ॥१३० छपी रैदास नृमल बारणी करी, संसै ग्रंथ बिदार नैं ॥
प्रागम निगम सुंग, सबद सब मिलत उचारन । 4 पांगी भिन्नता, संत हंसा साधारण । गुर-गोबिद परसाद, मुकति याही पुजांहीं। ब्राह्मन क्षत्री चकित, काटि उप नयन बतांही। अष्ट मदादिक त्यागि, या चरन रेंन सिर धार नै। रैदास नृमल बांणी करी, संसै ग्रंथ विदार नैं ॥१३१
३. दीरौ। २. लोके धोक देहि। ३. पुराण ।
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