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राघवदास कृत भक्तमाल
भूप कहै त्रिय सौं हुइ साचहि, सोच भयो उर पाव गहीजै । चालि परे सिर घास भरौटहि, डारि कुल्हारी गरै दोउ धीजै । लाजहि डारिब जारहि मारग, कीन्ह बुरी हम यौं बपु छीजै। देखि कबीर गये चलि नीरहि, बोझ उतारि कहा इम कीजै ॥११० ब्राह्मन देखि प्रताप उठे जरि, स्याह सिकंदर आइ किनारै। मात कबीरहि साथि लई सब, गांव दुखावत जाइ पुकारे। बेग बुलावत कौंन कबीर सं, द्यौं लटकाइस खूट हमारे। ल्याइ खड़ा करि बात कहै सब, स्याह सलाम करौ हरि प्यारे ॥१११ सांकल बांधि रु गंग बहावत, देखि खड़े कहि चेटक पावै । लाकड़ मेल्हि रु आगि लगावत, दीपत देह सु हेम लजावै । भूमि दये खनि नांहि रहे छिन, ऊपरि आइ र गोबिंद गावें। चालत नांहिं उपाइ रहे थकि, हैं उर मांहिं अ ग्यांन न आवै ।।११२
मूल दास कबीर सधीर धर्म के, मांनी सुमेर सहस्रक रोपे। हींदू तुरक संन्यासी रु ब्राह्मण, स्याह सिकंदर आदि दे कोपे। झुकायो गयंद मयंद महाबलि, स्यंघ सरूप सभा बिचि चोपे। राघो कला प्रबला बढ़ी बेहद, पैज रही हद के दंद लोपे ॥१२७
टोका] देखि डरचौ पतिस्याह प्रतापहि, प्राइ रह्यौ पगि लोग न ये हैं। राखि हमैं हरि तै मति मारिहि, ल्यौ धन गांवहि मान भये हैं। भावत रांम न और, काम, रहैं हम आम न दाम लये हैं। धांम पधारत फौज फते करि, संत मिले ससनेह छये हैं ॥११३ हारि बुलाइ र ब्राह्मन च्यारहि, मुंड मुंडाइ र साध बनाये। गांवहि नांवहि बूझि महंत न, नाम कबीर सु लेर बुलाये। संतन पावत आप लुके कित, रांम उतारि चहू दिसि पाये। रूप कबीर बनाइ बहुतक, आप गये मिलि माध रिझाये ॥११४ बेस बनाइ बधू सुर आवत, देखि अडिग्ग चली नहीं लागी। विष्णु पधारि दयो जन मांनहि, मांगि सबै कुछ धौं बड़ भागी।
१. बोपे।
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