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पृ० १७६, ५० ३४६ के बाद-
छप्पय
छंद
पृष्ठ १७६ प० ३५६ के बाद
मजैलि मारफत मोज मरद मक्कै कों प्राया । जिकर करत गय जाम परे टुक पैर हलाये ।. रिवजे मजा वर कैफ कौन यह परया चिकारा । डारो बाहर खेंच अलह दिस पाव पसारा । कही मवक्कल यह देह दिल मालिक अस्यो । खैंचन लागै जबै भई अजमत्ति अरथ को । जन राघौ सुलतान दिस फिरयो दश हूं दिश मकों ॥९४१
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भक्तमाल
दादू दिल दरियाव, हंस हरिजन तहाँ भूलै । गगन मगन गलितान, राम रसनां नहिं भूले । उपजे महन्त मराल, मुक्ति मुक्ताहल भोगी । रहत भजन बलशोल, विष लगि होहिं न रोगी ।
पृष्ठ १८० प० ३६० के बाद
मन माला गुरू तिलक तत, रटरिण राम प्रतिपाल की । जन राघौ छाप छिपे नहीं, दादू दीनदयाल की ||६५४
दादू दीनदयाल सो, धनि जननी एक जन्यो ॥ भक्ति भूमि दे दान, नाम नोवत्ति बजाई । चारी वर्णं कुल धर्म, सबन कों भक्ति दिढ़ाई | हरि बिन प्रान जु धर्म, तास के नाहि उपासी । पूरण ब्रह्म प्रखण्ड, तहाँ की करत खवासी ।
हद छाड़ि वेहद गयो, जग ताणें नाहिं न तथ्यू ।
दादू दीनदयाल सोघ, निज जननी एको जन्यो ||६५६ वह चवदह रतन प्रगटे उदधि म, दादू दयाल प्रगट भयो ।
महा पुत्र की चाह, विप्र ह्वावे जल डाबक- डूबा होय, तिरता आए ता ऋषिरु लिये उठाय, चिन्ह अद्भुत से कर्त्ता पुत्र यह दियो, कहा हमरो कोटानकोटि जीव तिरहिंगे, परा शब्द राघौ कह्यौ । वह चौदह रतन प्रगटे उदधि म, दादू दयाल प्रगट भयो || ६५७
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मांही ।
मांही।
दरसे ।
करते ।
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