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________________ ख ] भक्तमाल प्रति आकर्षण बढ़ता जाता है और इससे अपने गुणों का विकास करने की प्रेरणा और शक्ति प्राप्त होती है। इसलिये ईश्वर या महापुरुष की भक्ति को सभी धर्मों ने महत्वपूर्ण स्थान दिया है। भक्ति कई प्रकार से की जाती है, जिन में से नवधा भक्ति काफी प्रसिद्ध है। भक्ति के द्वारा भगवान को प्राप्त करना या जैन-दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा परमात्म-स्वरूप है, इसलिये परमात्मा के अवलंबन से अपने में छिपे हुने गुणों का विकास कर परमात्मा बन जाना ही भक्ति मार्ग का इष्ट है। जिन-जिन व्यक्तियों ने भक्ति के द्वारा अपना विकास किया, वे 'भक्त' कहलाते हैं। असे भक्तों के नाम स्मरण श्रेवं गुणस्तुति के लिये ही 'भक्तमाल' जैसे ग्रंथों की रचना हुई हैं-भक्तजनों की जीवनी के विशिष्ट प्रसंगों व चमत्कारों आदि का वर्णन इन ग्रंथों में संक्षेप से किया जाता है, जिससे अन्य व्यक्तियों को भी भक्ति की प्रेरणा मिले और वे भक्त बनें । महापुरुषों, संत अवं भक्तजनों तथा अन्य विशिष्ट व्यक्तियों की गुणस्तुति या चरित्र-वर्णनात्मक साहित्य-निर्माण की परंपरा काफी प्राचीन है। वेदों और उपनिषदों में इसके सूत्र पाये जाते हैं। पुराणों तथा रामायण, अवं महाभारत में इस परंपरा का उल्लेखनीय विकास देखने को मिलता है। इसके बाद भी समय-समय पर अनेकों व्यक्तियों के चरित अवं स्तुति-काव्य रचे गये। यह उनकी परपंरा आज भी है और आगे भी रहेगी। असी रचनाओं में कुछ तो व्यक्ति-परक होती हैं और कुछ अनेक व्यक्तियों के संबंध में। 'भक्तमाल', जैसा कि नाम से स्पष्ट है, भक्तजनों को नामावली अवं गुणस्तुति की अक माला है। जिस प्रकार माला में अनेक मनके होते हैं, उसी तरह 'भक्तमाल' में अनेकों संतों अवं भक्तों के नाम तथा उनके जीवन-प्रसंगों का संग्रह किया जाता है। माला नामान्त पद वाली रचनाओं की परम्परामाला द्वारा जप करने की प्रणाली काफी पुरानो है, पर माला नामान्त वाली रचनायें इतनी प्राचीन प्राप्त नहीं होतीं। वैसे करीब बारह सौ वर्षों से प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा में माला व माल नामान्त वाली शताधिक जैन जयमाल आदि रचना प्राप्त होती हैं। संभवतः हिन्दी के कवियों को उन्हीं से अपनी रचनाओं को 'माला या माल' संज्ञा देने की प्रेरणा मिली हो। देखिये, राजस्थान के दिगम्बर जैन ग्रंथ भण्डारों की सूचियाँ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003832
Book TitleBhaktmal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghavdas, Chaturdas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1965
Total Pages364
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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