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राघवदास कृत भक्तमाल
छपै
राघो कहै भरत अरथ गृह भूलि गयौ,
मेरो कछू नांही बस रजा राम-रावरी ॥६५ राघो रिझ ये रामजी, भलौ गरौं मत मुक्ति कौ ॥ बाणासुर प्रहलाद कहूं, बलि मय पुनि त्वाष्टर। असुर भाव कौं त्यागि, भज्यो सों निस-दिन नरहर । रांम उपासिक तीन, और रांवरण सम ईहै। लंका लेके राम, बिभीषन कौं जु दई है। कीयो मंदौवरी त्रियजटी, मांन महात्म भक्ति को। राघो रिझ ये राम जी, भलो गह्यो मत मुक्ति कौ ॥६६ प्रथग विमल जल स्यंघ, पावक हं टिके न धरणी। तब संगी तजि गये सकल, सुत सबही धरणी। बरष सहंस युध कीयो, लीयो तब खैचि माहि जल । गज कायर ह्र रह्यो, गयौ मन को सब छल बल । बल बीत्यौ डूबण लग्यौ, जोति लीयौ जब निपट अरि । राघो रटत रंकार के, ततक्षन बिमुचायो सु हरि ॥६७
अरिल
दया धर्म चित राखि, संत कौं पोषिये । दुरबल दुखी अनाथ, तास कौं तोषिये । करि लीजै इहि बेर, भजन भगवंत कौं। पीछे कछु न होइ, बुरौ दिन अंत कौ। जा दिन देह बल घटै, भजन बल राखि है। जन राघो गज गोध, अजामिल साखि है ॥६८
गनिका गहबर पाप कोये, अबिहत प्रति औंड़े । पर-पुरषन सूं भोग, रिझाये पापी भौंड़े । हाड़ चांम पर अंत, मुत्र भिष्टा जिन मांही। गीड रीट रत मास, बदन तैं लाल चुचांहीं। अंत-काल सुकृत हृदय, रटि राम सनातन मैं भई । राघो प्रगट प्रलोक कौं, चढ़ि बिमान गनिका गई ॥६६
उधो बिद्र अवर भये, मोक्षारथ मैत्रे । गंधारी धृतराष्टर, सजे सारथि हो।
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