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राघवदास कृत भक्तमाल और सुनौं इक नेम लयौ, मथुरा तन त्याग करूं कहि दीनां। काबिल मौम दई पितस्या' लखि, जोर हरि मृति कै न अधोनां ॥५६१ आयु रही तुछ अाइ लगे दिन, जांम घरी जुग की सम लागे । प्रेरि दयौ कबि दै अध दोहर, साच कर पन यौं बड़ भागे। सांडि चढ़े मथुरापुर अावत, न्हाइ तज्यौ तन हौ अनुरागै। जै-जयकार भयौ दसहं दिसि, फैलि गयौ जस जागहि जागै ॥५६२
छपै
द्वारिकापति को मूल दुखदारन द्वारावती. जोइसी 4 कीकी अभै ॥टे० जिवन अजीज अभीज, अनल प्रभु पुर मै वोधी । साद संभलि: रणछोड़, सहाय सांगरण सुव कीधी। धन धरनी गढ़ काज, जुद्ध बीजाहू साजै ।
झटकै कुरका थयौ, भक्त भगवत रै काजै। कटक बाढ़ कीधी बढ़ेल, चांद नाम चाढयो नभै । दुखदारन द्वारावती, जोइसी व कोवो अभै ॥४५३
टीका हुँदव सांगन को सुत काबन को पति, द्वारिकानाथ कहीं करि रक्षा । छंद स्यांम सदाहि सहाइ करै जन, तू हमरी करिये नृप दक्षा।
तुर्क अजीज सु धांम जरावत, बाज न बाग लई सुनि सिक्षा। पापिन मारि दये हरि राखत, चोज नये र नई यह पक्षा ।।५६३
छय
माधौस्यंघ कूरम त्रिया, भक्त भली रतनावती ॥ संतन के समूह सहत, बृजनंद रिझावत । भक्ति नारदी कथा, प्रेम उछव करवावत । भगवत पद मन लीन, भक्ति की टेक न छोड़ी।
नृप सौं नेह निवारि, बचन सुन ते भई मोड़ी। सुनखा अली अब प्रगट करे, भान गढ़ प्रांबाबती। माधौस्यंघ कूरम त्रिया, भक्त भली रतनावती ॥४५४
१.पतिस्या-पतास्या। २.दीधी। ३ सांभलि।
४.भागवत,
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