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चतुरदास कृत टीका सहित
[ २११ रतनावतोजु की टीका इंदव मानहु को लवु-भ्रात सु माधव, तास तिया तिन गाथ सुहानी । छंद पासि खवासनि नाम रटै हरि, प्रेम जटै उर अांनत रांनी ।
नंदकिसोर कबै बृजचंदहि, बोलि उठे द्विग वहि पानी। कांन सुनि तब तौ तिय ब्याकुल, चाहि भई कछु प्रीति पिछांनी ।।५६४ पूछत तू किम कैत गहै चित, नैन झरै तन भूलि रही है।
चैन करौ कछु बूभहू नांहि न, गात सहै मम संत कही है। प्रीति लखी अति कैत भई गति, प्रेमनि कीरति कैत सही है। कांम छुड़ाइ बठाइ सिरै उन, मांनि लई गुर पाइ लही है ॥५६५ अ-निसि गाथ सुनै मन देखन, क्यूं करि देखहु नैन भरे हैं। स्यांम दिखाइ उपाइ बताइ सु, जीवन तौ हिय आइ अरे हैं। देखन दूरि मिलै तन धूर स भोग तजै बसि प्रीति करे हैं। सेव करौ उर भाव भरौ, पकवांन रु मेंवन अर्पि खरे हैं ।।५६६ नीलमनी सु सरूप लयो धरि, सेवत भाव सु भाव चली है। राग र भोग बिबिद्धि लड़ावत, बीजत२ जांमहि रंग रली है। भूषन बष्ण अपार बनांवत, स्यांम छिबी अति देखि पली है । जोग र जज्ञ अनेक उपाइन, नांहि लहै यह प्रेम गली है ॥५६७ देखन चाहि उपाइ कहा अब, बात अहौ कहि कौंन सुनें ये। ठौर करावहु म्हैलन कै ढिग, चौकस चौं-दिसि राखि जनै ये । साध पधार हिवै कहि ल्यावहि, राखहु जागहि पाव धुनै ये। भोग छतीस धरौ उन आगय, डारि चिगें द्रिग स्यांम लखै ये ।।५६८ संत पधारत सेव करै बहु, आत भये जिन कौं बृज प्यारी। गात किसोरजुगल्ल बहै दिग, आप अधीर भई सु निहारी। को मम अंग सु रानिय या तन, है परदा सत-संगति टारी। ऊठि चलो कहि हाथ गह्यौ उन, लाज बड़ी यह लेहु बिचारी ।।५६६ येह बिचारि सु स्यांम निहारन, सार हरी कछू लाज न कांनी । ऊठि गई कहि साधन कै ढिग, पाय लगी बिनती करि रांनी । हाथि जिमांवन की मनमैं जन, लाखन भांति कही नहि मांनी।
आइ स देहु करौं सुख है यह, प्रीति लखी करि तौ तव जांनी ॥५७० १. कू। २. बीतत।
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