________________
१७४ ]
राघवदास कृत भक्तमाल
चली जात मग श्राप, गात ऊंचे सुर भगवत । कीं मजीरा मृदंग, जांनि ये पादप बजवत । राघो द्रुम-दल पात लगी, बोलत सुनि होवे प्रसन । प्रेम मगन कात्यायनी, देत वारि तन के बसन ॥ ३३६ गोपाल बिरहि गोपी जरी, ज्युं मुरारि देही तजी ॥ मरुत देस में गांव, बिलूंदा परगट होई । साध सभा परमारण, अंध्री नूँपर साजि, प्रांन पयांनों कीयो, राधो सी को करें, गोपाल बिरही गोपी जरत, ज्यौं मुरारि देही तजी ॥ ३४०
महौछव उत्म
सोइ ।
रिझायौ । दिखायौ ।
प्रीति मांहि नांहीं कजी ।
स्यांम- सुंदरहि
देसी जगदीस
मुरारिदासजी को टीका
इंदव दास मुरारि जु भूपति के गुर, न्हाइ र श्रावत कांन परीजे । छंद पूजन येक चमार करै कहि, पात्र चर्चांमृत कौ जन लीजे । जात भये घरि कांपि उठ्यौ वह, दै हमकौं अब पांन करीजे । नींच कहै हम तैं प्रति ऊंचहि जानत ने तव यौं कहि भीजे ॥५४२ नैन बहे जल मो बड़ है दुख, हौ तुम धीर सु मोहि न छाजै । लेत भये हठ सौं जनता पट, जाति न ले हरिभक्तिहि काजै । बात भई सब गांव स निंदत, भूप सुनी यह वान सुहाजै । देखन प्रत भयौ प्रभु जी वह, भाव नहीं लखि यौं उन राजै ॥५४३ पूजन सू प्रति हेत गये तजि, भूप दुखी सुनिकै यह बातें | होत समाज समंत्सर मैं निति, दीखत नांहि लख्यौ उतपात | ल्यांन चले जित दास मुरारिहु, दंडवतं करि है प्रसु पाते । देखत नां मुख फेरि दई पिठि, लोग कहै गुरहू सिष ख्यातै ।। ५४४ जोरि खरौ कर दीन कहै प्रति, दंड करौ सिर यौं मुख भाखी ।
नां घटती मम आप कही घटि, भांति करी बढती तुछ राखी । होत खुसी सुनि दै दिसटांतहि, लै बलमींक कही बहु साखी । प्रत भये सुनि संत पधारत, होत समाज उसौ सब दाखी ||५४५ भौत गुनी जन नांचत गांवत, साधन के चित स्वांमि न देखें | साजि र, सप्त सुत्रिय ग्रांम बसे ।
आप उठे पग घुघरू
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org