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चतुरदास कृत टीका सहित
मनहर
छंद
छपे
[ ६७
राघो संम्रथ रांम धनि, भक्त-बद्दल ब्रिद कहत यूं । यौं नोरि सुरसुरानंद की, प्रभु राखी प्रहलाद ज्यूं ॥ १४६ यह हित रजखांनि मिली श्रांति हित जांनि करि,
१. मेहा ।
स्वामी रामानंद गुर सिष पदमावती । मन को उतारचौ मांन उरमी उद्यम प्रांत, बिसरे न रांम रांम रहै गुन गावती | गुर कौ सबद उर धम कौ बसायो पुर
ज्ञान-ध्यांन सील सत और वृति जावती । ral कहि कासी मधि हाथी जीयो हाथ देत,
प्रसिधि प्रवीन भई प्रापौ न जनावती ॥ १४७ जन राघो रटि रांमहि मिले, ये दाता श्रानंदकंद के ॥० कर्मचंद क्रमगलित जोग जोगानंद पायो । पैहांरी पर सिधि समभि सारी हरि गायो । मगन मनोर्थ ग्रह भयो श्रीरंग रांम रत । कोयो गयेस प्रवेस मेह' मन दीयौ परमेतत ।
के ।
अनंतानंद
येते झाठौं अटल सिष, स्वांमी जन राघो रामहि मिले, ये दाता श्रानंदकंद के ॥१४८ aft ra गति श्रचिरज भयो, यौं अंब नवायो ग्रह कौं ॥
उपबन उत्तम सुथांन, फूल फल ता मधि भारी । तहां महंत भयो मगन, समझि सेवा बिसतारी । भवतबिता के भाइ, श्रसुर श्रज गैवी श्राये । उन लीन्ही छांह छुड़ाई, संत मुनि मारि उठाये ।
तब राघो रामहि रिषि भई, वे सठ समझाये कल्ह कौं ।
aft ra गति श्रचिरज कीयो, यौं श्रंब नवायो अल्ह कौं ॥१४६
टीका
मत
जाइ चले इक बाग निहारत, अल्ह भई मन पूजन कीजे । गयंद अब रह्यौ पचि मालिहि जाचत, लेहु कही अब डार नईंजे । जाइ कही नृप सौंज हुई जिम, प्रीति भई सुनि पाव गहीजे । आइ परयौ पनि ग्राजि भलौ दिन, सीस दयो कर रांम भजीजे ॥१६६
२. कियौ । ३. तमस्थांन । ४. तब ।
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