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चतुरदास कृत टीका सहित
[ २१७ च्यारि सुता हुत साधन देवत, डोलिय बैठत ध्यानहि झू'मैं ।
आत सु चेत प्रभू जुग गावत, आश्चर्य मांनि परी पुर धूमैं ॥५८८ मारग मैं तन छूटि गयो पन, साच करयौ हरि प्रत्तखि देख्यौ । इष्ट गुरै परनाम करी चलि, चीरहु घाट सु न्हावत पेख्यौ । साथ हुते सब आइ भरे द्रिग, बेंन कहै वह जा दिन लेख्यौ । भक्ति प्रताप लखौ मति नहि, स्यांम दया यह भाव परेख्यौ ।।५८६
मूल छपै भेल भक्ति प्रभु की जु पे, धोरी उभे बताइ हूं ॥
बिष्णदास दाहिने, गांव कासीर नांव बल । बांवी दिसि गोपाल गुना, रटि ले लक्षन भल । गुर भगवत सम संत, जांनि निति प्रेति सो सुमरै। स्यांम स्वांग वसि रहत, भक्त बल है उर हुमरै। केसव कुलपति ब्रत सदा, राख्यौ तातै गाइ हूं। भैल भक्ति प्रभु की जु पे, धोरी उभै बताइ हूं ॥४६३
टीका इंदव है गुर भ्रात उभै उर संतन, सेवन की नव रीति चलाई। छंद जाहि महौछब जात लियें रिधि, गाडिय साधन देत मिलाई ।
संतन की घटती नहि भावत, हेत यहै किनहूं न जनाई। सिद्ध बड़े गुर है परसिद्धि, कहै कर जोरि सुनौं सुखदाई ॥५६० है मन माँहि महौछव ठांनहि, आप कही करि बेगि तयारी। न्यौति दये चहु वोरहु के जन, आत उनौ हित जागि सवारी। चौंदिसि ते वह साध पधारत, पाइ परै बिनती स उचारी। पांच दिनां जन ज्यांइ दयौ सुख, और दये पट बौ मनुहारी ॥५६१ भोर कही गुर द्यौ परिकर्महि, पैल सु नामहि देव निहारौ। अंबरसे तरु हेत घणौं जन, जांहि चले सिर पाइन धारी। दैहि बताइ कबीरहु कों वह, बंध चले जुग देंन सवारौ। नांमहि देव मिले पग लागत', छोडिहि नांहि कहैं सु बिचारी ॥५१२
१. लागन।
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