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राघवदास कृत भक्तमाल भीव-पुत्र महिमा करी, नहीं मथुरा नृप प्रांन की। चीर बध्यो दुरपद-सुता, त्यूं रिधि तूवर भगवान की ॥४६०
टीका इंदव आवत है बरसै दिन नेमहि, सो मथु (रा) रो छव हेम लुटावै। छंद साध जिमाइ रु दे पट बौ-बिधि, पूजत पाछहि बिप्र न भाव।
छीन भयौ धन होत बिहालहि, साधन आवत नूंन करावै । ब्राह्मन हौ दुख होत सुखी सुनि, ख्वार करौ इन काज कहावै ॥५८६ मांन करयौ सब सौंपि दयो उन, बांधि लयौ बिनती ह सुनावै। साध जिमावहु रास करावहु, के तुम पावहु देस मझावै । रिद्धि भरी घरि रोक गदी तरि, देत बुलाइ दिनांन' घटावै । काढत ताहुत चौगन बाढत, ठौरन ठौरन फेरि पठावै ॥५८७
मूल जयमल केरी भक्ति सर, जसवंत दिढ़ बेला भयौ ॥
संतन सूं सम भाइ, हिदै दुबध्या नहीं कोई। जोर पांनि पयाद, भवन प्राइ-स मै होई। स्यांमां प्रियसूं प्रीति, प्रहों-निसि परसन करई ।
चांहै कुंज बिहार, चित्त बृदाबन धरई। भजन भवन नव मां प्रमान, राठौर नृपति यह पन लयौ । जैमल केरी भक्ति सर, जसवंत दिढ़ बेला भयौ ॥४६१ हरिजन हित हरीदास नैं, वांमाता असौ जयौ ॥ गुन अनंत बड़गुह्य, सिरोमनि वोही वूझै। तुलाधार सम ग्यांन, येक उर अंतर सूझे। नौबति नेम बजाइ, प्रगट बूंदाबन परस्यौ ।
स्यांमां प्रिय को नाम, लेत प्रतक्ष फल दरस्यौ । उत्म धर्म बिचारि के, संतन कौं सरबस दयौं । हरिजन हित हरीदास नैं, वा-माता असौ जयौ ॥४६२
टीका इंदव दास हरी बनियां ढिग कासिय, त्याग करूं तनकै ब्रज भू मैं। छंद नारि गई छुटि बैद चले उठि, आप कही सु महा बन ल्य मैं ।
१. विजां।
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