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________________ स राघवदास कृत भक्तमाल पाप बनै जित साधन प्रावत, दै सुख संत तहां सब प्रांव। प्रीति लखी तुमरै हम हैं खुसि, जाहु चले सु कबीरहु पावै। जात मिले जन राज परे पग, देखि हसे मिलि नांव बतावै । हां जु कही तुम पैं किरपा बड़, सेव. प्रताप कहां तुक गांव ।।५६३ छय. करमैर्ती कलिकाल मैं, सील भजन निरवाहियौ ॥ ___ मरन धर्म बर छोड़ि, अमर बर सूरति पाली। लोकलाज कुल कांनि, काटि हार मारग चाली। प्रगट बसी ब्रज जाइ, बदन जन कीरति करई। धनि परसराम पारीक, सुता असी उर धरई। बिर्ष बासनां बवन' कर, बहुरि न तार्को चाहियो । करमैती कलिकाल मैं, सील भजन निरबाहियौ ॥४६४ टीका ईदव भूप खड़े लहि तास पिरोहित, जास सुता करमैति बखांन । छंद स्यांम बस उर काम लजै लख, धांम सु सेव मनोमय ठाने । जांमहं जातन सुद्धि सरीरहि, फूलत अंग छिबी मति सां । गौनहि कौ पति पात पिता तिय, चाव भयौ पट भूषन अांन ।।५६४ सोच भयो सु उपाइ कहा अब, हाड र चांम सरीर न कांमै । छोड़ि चलौं चित ऊठि मिटै दुख, प्यार भलौ जग मै इक स्यांमै । कांनि र लाज नहीं कछु काजहि, चाहत हूं हरिया दिन धांमै । प्रात खिनांवहि यौं मन प्रांवहि, भागि चली प्रभु संग सबाम ॥५६५ रैन अधी निकसी उर लालहु, हेत लग्यौ बपुहू बिसराई। जांनि भई परभाति स दंपति, सोर परयौ सब ढूंढत जाई। दौर गये चहु वोरहि मानस, ऊंट करंकहु मांहि दुराई। भोग विष दुरगंध लगी मन, वै दुरगंध सुगंध सुहाई ॥५९६ तीन दिनां सु करंक रही गति, बंक लई रति जात न गाई । संगहि संगि सु गंग गई चलि, न्हाइ र भूषन दै बन आई। हेरत सो परसापुर आवत, केत पता इक बिप्र बताई। ब्रह्महि कुंड स ऊपरि हौ बट, देखि लई चढ़ि देत दिखाई ॥५६७ १. बचन। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003832
Book TitleBhaktmal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghavdas, Chaturdas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1965
Total Pages364
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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